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________________ [ ३०. शौचनिरूपणंद्वाविंशतिः] 740) संसारसागरमपारमतीस्थ पूर्त मोझ यदि 'द्रजितुमिच्छत मुलवायम् । समानवारिणि विधुतम मनुष्याः स्नानं कुरुध्यमपहाय हाभिषेकम् ॥१॥ 741) तो शुष्यति अले: शततोऽपि भीती नान्सर्गी विविषपापमलावक्षिप्तम् । विसं विचिन्त्य मनसेति विशुखबोषाः सम्यक्त्वपूतसलिलेः कुक्ताभिषेकम् ॥२॥ 742) तीर्थाभिषेककरणाभिरतस्य बायो नश्यत्ययं सकलनेहमको मरस्य । नाम्सर्गतं कलिकमित्यवधार्य सो प्रसप्रचारित्रवारिणि निमम्मति 'सुबिहेतोः ॥३॥ [ भो ] मनुष्याः अपारं संसारसागरम् अतीत्य यदि पूतं मुक्तमा मोक्षं वजितुमिच्छत तत् जलाभिषेक अपहाय विधूतमले जानवारिणि स्नानं कुरुष्वम् ।। १ ।। अन्तर्गत विविधपापमलावलिप्तं चित्तं तीषु जलैः शतधः श्रोत शुष्यति इति मनसा विचिन्त्य [ हे ] विशुद्धबोषाः सम्यक्त्वपूतसलिले. अभिषेकं कुरुत ॥२॥ तीर्थाभिक र नरस्य अयं बाह्यः सकलहमल: नश्यति । भम्तर्गतं कलिलं न, इति अवार्य सः शुद्धिहेतोः बावचारित्रवारिणि निमजति ॥ ३ ॥ यत् जिनवाक्यसीप मानवर्शनचरितमलायमुक्त सजानदर्शनचरित्रवलं क्षमोमि सबमल अस्ति हे मनुष्यों ! यदि तुम लोग अपार संसारस्प समुद्रको लांघकर निर्वाध व पवित्र मोक्ष जानको उच्छा करने हो तो जलसे अभिषेकको छोड़कर निमल झानरूप अलमें स्नान करो । अभिप्राय यह है कि जम स्नान करने से केवल शरीरको शुद्धि ( बाह्म शौच ) होती है, न अन्तःकरणकी। अन्तःकरणको शुद्धि सो समयाजानके द्वारा होती है। अतएव जो मोक्ष प्राप्तिके निमित्त जस अन्तःकरणको शुद्ध करना चाही। उन्हें उस सम्यग्ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये ॥१॥ अनेक प्रकारके पापरूप मैलसे लिप्त रहने वानसर्गस नित ( मन्तःकरण ) गंगा आदि तीर्थोंमें जलसे सैकड़ों बार धोये जाने पर भी शुद्ध नहीं हो सका। इस प्रकार मनसे विचार करके निर्मल सम्यामानके धारक आप लोग सम्यग्दर्शनरूप पवित्र जलसे भक्ति करें ॥२॥ जो मनुष्य तीर्थमें स्नान करनेमें लवलीन है उसका यह शरीरका समस्त बाहिरो, मल तो हो जाता है, परन्तु भीतरी पाएमल नष्ट नहीं होता है; ऐसा निश्चय करके बहू, अन्त शुद्धिके नि मन चारित्ररूप जलमें गोता लगाता है-निर्मल सम्यक्चारित्रको धारण करता है ॥ ३ ॥ जो जिनवचनका तर्ष सम्यग्ज्ञान, १ स वजा प्रतत् । २ स "वाघां, वाषां! ३ स चारिणि । म अाम'। ५ स Eिस वायो। स शुद्ध । सु.सं. २६
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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