SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 151: ३-९] ३. मानमायानिषेधविंशतिः 47) मानो विनीतिमपहन्त्यविनीतिरङ्गी' सर्व निहन्ति गुणमस्तगुणानुरागः । ___ सर्वापदा जगति धाम विरागतः स्यादित्याकलय्य सुधियों न धरन्ति मानम् ॥५॥ 48) हीनो ऽयमन्यजनतोऽपहताभिमानाबातो ऽहमुत्तमगुणस्तदकारकत्वात् । अन्य निहीनमयलोकयतो ऽपि पुंसो मानो विनश्यति सदेति वितर्कमार्जेः॥ ६॥ 49) गर्वेण मातृपितृवान्धवमित्रवर्गाः सर्वे भवन्ति विमुखा विहितेन पुसः। अन्यो ऽपि तस्य तनुते न जनोऽनुराग मरवेति मानमपहस्तयते सुबुद्धिः॥७॥ 50) आयासशोकेभयदुःखमुपैति मयो मानेन सर्वजननिन्दितवेषरूपः। विद्यादवादमपमादिगुणांस हन्ति ज्ञात्वेति गर्ववशमेति न शुद्धबुद्धिः ॥ ८॥ 51) स्तब्धो विनाशमुपयाति नतो ऽभिवृद्धि मयों नदीतटगतो घरणीरहो" वा। गर्वस्य दोषमिति चेतसि संनिधाय नाहकरोति गुणवोषविचारदेक्षः ॥९॥ मानी विनीतिम् अपहन्ति अधिनीतिः अङ्गी सर्व गुण निहन्ति अस्तगुणानुरागः किरागतः जगति सर्वापदां धाम स्यात् इति माकलय्य मुधियः मानं न धरन्ति ।। ५ ।। अपहताभिमानात् अयम् अन्यजनतः हीनः जातः सरकारकत्वात् अहम् उसमगुणः जातः इति अन्य निहीनम् अवलोकपतः अपि वितर्कभाजः पुंसः मानः सदा विनश्यति ॥ ६॥ विहितेन गर्वेण सर्वे मातृपितृवान्धवमित्रवर्गाः विमुखाः भवन्ति । अन्यो ऽपि जनः तस्य अनुरागं न सनुते इति मत्वा सुबुद्धिः मानम् अपहस्तयते ॥ ७ ॥ मानेन मत्यः आयासशोकभयदुःसम् उपैति सर्वजननिन्दितवेपल्य; च विद्यादयादमयमादिगुणान् हन्ति इति ज्ञात्वा पञ्चबुद्धिः गर्ववशं न एति ।। ८॥ नदीतटगत: अरणीकहो वा (श्व) स्तब्धः (जीकृतः) मर्त्यः विनाश, नतः अभिवृद्धिम् मानी प्राणी विनयको नष्ट करता है, अप्रिनयी मनुष्य सत्र गुणोंको नष्ट करता है- गुणी जनोंके गुणोंमें अनुराग नहीं करता है, और गुणानुरागसे रहित प्राप्णी गुणोंका विद्वेषी होकर संसारमें सभी प्रकारकी आपत्तियोंका स्थान बन जाता है। यही सोचकर बुद्धिमान् प्राणी उस मानको नहीं धारण करते हैं ॥५॥ यह निकृष्ट अभिमानके कारण दूसरे जनोंकी अपेक्षा हीन हुआ है और उस अभिमानको न करनेके कारण मैं उत्तम गुणवाला हुआ हूँ, इस प्रकार विचार करनेवाले पुरुषका यह अभिमान सदा अन्य हीन जनको देख करके भी नाशको प्राप्त होता है । विशेषार्थ-प्रायः हीन जनको देखकर उत्तम मनुष्योंके हृदयमें अभिमान उदित हुआ करता है । परन्तु वे यह विचार नहीं करते कि ये जो हीन कुलमें ऊपन्न हुए हैं वे इसीलिये हुए हैं कि उन्होंने पूर्वमें अभिमानके वश होकर अन्य गुणी जनोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा की है । कहा भी है-'परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोभावने च नीचैौत्रस्य ।' अर्थात् दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरोंके विद्यमान गुणोंको टकना और अपने अविद्यमान गुणोंको प्रगट करना, इससे नीच गोत्रका बन्ध होता है [त. सू. ६-२५] | और चूंकि मैंने उस निन्द्य कुलमें उत्पन्न करनेवाले उस अभिमानको पूर्वमें नहीं किया है इसीलिये मैं उच्च कुलमें उत्पन्न होकर गुणवान हुआ हूँ | यदि वे उपर्युक्त विचार करे तो अपनेसे हीन जनोंको देख करके भी उन्हें कभी अभिमान न होगा ॥ ६॥ अभिमानके करनेसे माता, पिता, बान्धव और मित्रवर्ग आदि सब उस अमिमानी पुरुषके प्रतिकूल हो जाते हैं। अन्य जन भी उससे अनुराम नहीं करते हैं। इस प्रकार विचार करके विवेकी जन उस अभिमानको नष्ट करते हैं | ७ || मानके वश होकर मनुष्य सब जनोंके द्वारा निन्दित १ वेष एवं आकारको धारण करता हुआ परिश्रम, शोक, भम और दुखको प्राप्त होता है तथा विद्या, दया, दम (कषापों और इन्द्रियोंका दमन) और संयम आदि गुणोको नष्ट करता है; ऐसा जानकर निर्मल बुद्धिका धारक मनुष्य उस मानके वशमें नहीं होता है |॥ ८॥ नदीके तटपर स्थित वृक्षके समान जो पसरंगा । २ स सच्चा । ३ स सोपदां । ४ स सधियो । ५ स जननो' । ६स पहिना', पिहिताः। स भाजा। ४ स विहतेन । ९स'सोक, "कोश", "कोप" for शोक । १ स तिवृद्धि। 11 स रुहे काः । १२ स विचारक्षः ।।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy