SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २२. मधुनिषेधद्वाविंशतिः । 549) मध्यस्यतः कपा नास्ति पुण्यं नास्ति को बिना। विना पुण्यं नरो दुःखी पर्यटेव भवसागरे ॥१॥ 550) एकेको संख्यजीवानां घासतो मधुनः कणः ।। निष्पयते यतस्तेन मध्वस्यति' कथं सुषः ॥२॥ 551) प्रामाणां सप्तके' दग्धे यद्भवेत्सर्वथा नृणाम् । पापं तदेव निविष्टं भक्षिते मधुनः कणे ॥ ३ ॥ 552) एकैकस्य यथावाय पुष्पस्य मषु संचितम्। किचिन्मधुकरीवर्ग स्तवयानन्ति निघणाः ॥४॥ 553) बनेकजीवघातोत्थं म्लेच्छोच्छिष्टं महावितम् । मलाक्तपात्रनिक्षिप्त' कि शौचं लिहतो" मधु ॥५॥ · 554) वरं हालाहलं पोतं सत्रः प्राणहरं विषम् । ___न पुनर्भनितं' शश्वद् दुःखर्व मषु देहिनाम् ॥६॥ मषु अस्पतः कृपा नास्ति । कृपां बिना पुग्यं नास्ति । पुण्यं विना दुःखी नरः भवसागरे पर्यटेत् ॥ १॥ यतः असंख्यजीवानां धाततः मधुनः एकैकः कण; निष्पद्यते, तेन बुधः कयं मधु अस्पति ॥ २ ॥ यामागां सप्तके पवे नृणां यत्पा सर्षमा भवेत्, तदेव मधुनः कणे भक्षिते निर्दिष्टम् ॥ ३ ॥ मधुकरीवर्गः एकैकस्य पुष्पस्य किंभित् मधु मादाय संचितं तदपि निधुणाः अश्नन्ति ॥ ४॥ अनेकजीवधातोस्थं म्ले छोच्छिष्टं मलाविलं मलाक्तपात्रनिक्षिप्तं मधु लिहतः शौचं मवेत किम् ॥ ५ ॥ सबः प्रागहरं हालाहलं विषं पीतं वरम् । पुनः वेहिनां स्वत् दुःसदं मधु मक्षितं न वरम् ॥६॥ संसारे ___जो मनुष्य मघु ( शहद ) को खाता है उसके दया नहीं रहती है, दयाके बिना पुष्पका उपार्जन नहीं होता, और पुण्यके बिना मनुष्य दुखी होकर संसाररूप समुद्र में गोता खाता है ॥१॥ मधुका एक-एक कण चूँकि असंख्यात जीवोंके घातसे उत्पन्न होता है इसीलिये विद्वान् मनुष्य उसे कैसे खासा है ? अर्थात् उसे विवेकी मनुष्य कभी नहीं खाता है ॥ २ ॥ सात गांवोंके भस्म होने पर मनुष्योंके वो सर्वथा पाप होता है वही पाप मषुके एक कणके खाने पर होता है। ऐसा आगममें कहा गया है ॥ ३॥ मक्खियोंके समूहने एक-एक फूलसे कुछ थोड़ा-थोड़ा लेकर जिस मधुको संचित किया है उसे भी निर्दय मनुष्य खा जाते हैं, यह खेदकी बात है ।। ४ ।। जो मधु अनेक जीवोंके घातसे उत्पन्न हुआ है, म्लेच्छोंके द्वारा जूठा किया गया है, मलसे परिपूर्ण है, और मलसे लिप्त पात्रमें रखा गया है उसको खानेवाले मनुष्यके भला पवित्रता कैसे रह सकती है ? नहीं रह सकती ||५|| जो हलाहल विष शीघ्र ही प्राणोंको हरनेवाला है उसका पी लेना कहीं अच्छा है, परन्तु प्राणियोंको निरन्तर दुख देनेवाले मधुका भक्षण करना योग्य नहीं है ॥६॥ संसारमें जो भी अनेक प्रकारके दुख विद्य १ स मध्वश्रतः । र स पर्यटति । ३ स सागरः । ४ स पातितो। ५ स मध्वश्यति । ६ स सप्तको । ७ स भक्षतः, भक्षते । ८ स वर्ग। ९ स निघणाः, निघृणा, निघृणः । १० स पात्रं निक्षिप्तं । ११ स लिहते। १२ स : ।.. १३ स भक्षत, भक्षतः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy