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[547 : २१-२९ ।
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सुभाषितसंबोहः 547) धर्ममस्यास्तमालस्य मूलं निर्मूलमुम्मूलितमङ्गभाजाम् ।
शिवाविकल्याणफलप्रदस्थ मासाशिना स्याल कथं नरेण ॥ २५ ॥ 548) दुःलानि यान्यत्र' योनिजानि भवन्ति सर्वाणि नरस्य तानि । पलाशनेनेति विचिरस्य सन्तस्त्यजन्ति मांस त्रिविषेन नित्यम् ॥२६॥
॥इति मांस निरूपणवविंशतिः ॥ २१॥
यदि अमेष्यसमम् अश्नतः न दोषः तहि चाण्डालकाः न दुष्टा: !! २४ । अङ्गभाजां शिवादिकल्याणफरुप्रस्य अस्तमलस्य धमस्य मूलं मांसाशिना नरेण निमूलं कषम् उन्मीलितं न स्यात् ।। २५ ।। अब नरस्य यानि सर्वाणि कुयोनिजानि दुःखानि भवन्ति, तानि पलाशनेन इति विषिस्य सन्तः मसिं नित्यं त्रिविधेन त्यजन्ति ॥ २६ ॥३
इति मोसनिरूपणषड्विंशतिः ॥ २१ ॥ सकेंगे ॥ २४ ॥ विशेषार्थ--लोकमें कुत्ता, चाण्डाल और भेड़िया आदि मांसभोजी हिंसक प्राणी इसोलिये तो दुष्ट समझे जाते हैं कि वे अन्य प्राणियोंको मारकर उनके अपवित्र मांसको खाते हैं। यदि मनुष्य भी उस अपवित्र मांसको खाता हुआ अपनेको अन्नभोजोके समान निर्दोष मानने लग जाये तो फिर उक्त कुत्ते आदिको भी क्यों दुष्ट समझा जायगा ? तात्पर्य यह है कि विवेकी कहलानेवाले जो मनुष्य उस घृणित एवं पापोत्पादक मांसका भक्षण करते हैं उन्हें कुत्ता और मेडिया आदि पशुओंसे भी निकृष्ट समझना चाहिये ।। २४ ॥ जो मनुष्य मांसको खाता है वह प्राणियोंके लिये मोक्ष मादिके. सुखरूप फलको देनेवाले निर्मल धर्मरूप वृक्षकी जड़को पूर्णतया कैसे नहीं नष्ट करता है ? अर्थात् वह धर्मरूप वृक्षको जड़ मूलसे ही उखाड़ता है ।। २५ ।। संसारमें नरकादि दुर्गतिसे उत्पन्न होनेवाले जो भी दुख हैं वे सब ही मनुष्यको मांसके खानेसे प्राप्त होते हैं; यह विचार । करके सज्जन पुरुष उस मांसका निरन्तर मन, वचन और कायसे त्याग करते हैं ।। २६ ॥
इसप्रकार छब्बीस श्लोकोंमें मांसका निरूपण किया ।
१समानत्र २स योनियानि । ३ सानिपेषनरूपणम।