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________________ [ १८. सुजननिरूपणचतुर्विंशतिः ] 450 ) ये जल्पन्ति व्यसनविमुखां भारतीमस्तदोषां ये' श्रीनीतिद्युति मतिष तिप्रीतिशान्तीवंदन्ते । येम्य: कीर्तिर्विगलित मला जायते जन्मभाजां शश्वत्सन्तः कलिलहतये ते नरेणात्र सेव्याः ॥ १ ॥ 451) नैतच्छधामा किसहरिणीलोचना कोरनासा मृद्वालापा कमलवदना पक्वबिम्बाधरोष्ठी । मध्ये क्षामा विपुरुजघना कामिनी कान्तरूपा यन्निर्दोषं वितरति सुखं संगतिः सज्जनानाम् ॥ २ ॥ 452) यो नाक्षिप्य प्रववति कर्षा नाम्पसूर्या विधते न स्तोति स्वं हसति न परं वक्ति नान्यस्य ममं । हन्ति क्रोधं स्थिरयति शमं* प्रीतितो न व्यपैति सन्तः सन्तं व्यपगतमयं तं सदा वर्णयन्ति ॥ ३ ॥ ये व्यसनविमुखाम् अस्तदोषां भारत जल्पन्ति ये श्रोनीतिद्युतिमतिधृतिप्रीतिशान्तीः ददन्ते । येभ्यः जन्मभाजां विगतिमला कीर्तिः जायते ते सन्तः अत्र नरेण कलिलहतये शश्वत् सेव्याः ॥ १ ॥ सज्जनानां संगतिः यत् निर्दोषं सुखं वितरति एततु श्यामा, चक्तिरिणीलोचना, कोरनासा, मुढालापा, कमलवदना, पक्वविम्बाधरोष्ठी मध्ये क्षामा, विपुलजघना कान्तरूपा कामिनी न वितरति ॥ २ ॥ यः आक्षिप्य कथा न प्रवदति, अभ्यसूयां न विधसे, स्थं न स्तोति परं न इसति, अन्यस्य मर्म न वक्ति, कोषं हन्ति, शमं स्थिरयति, प्रीतितः न व्यमेति । सन्तः व्यपगतमदं तं सदा सन्तं वर्णयन्ति ॥ ३ ॥ जो सज्जन व्यसनोंसे विमुख करनेवाली निर्मल वाणोको बोलते हैं; जो लक्ष्मी, नीति, कान्ति, बुद्धि, धैर्य, प्रीति एवं शान्तिको प्रदान करते हैं; जिनकी संगति से प्राणियोंकी निर्मल कीति फैलती है; मनुष्यको यहाँ अपने पापको नष्ट करनेके लिये निरन्तर उन सज्जन पुरुषोंकी सेवा करना चाहिये ॥ १ ॥ सज्जन पुरुषोंकी संगति जिस निर्दोष सुखको देती है उसे वह सुन्दर स्त्री नहीं देती जो कि श्याम वर्ण, भयभीत हिरणी के समान चंचल नेत्रों वाली, तोके समान नाकसे सहित, मृदुभाषिणी, कमलके समान सुन्दर मुखवाली, पके कुंदर फलके समान लाल अधरोष्ठसे सुशोभित, मध्य में कुश और विपुल जघनवाली है ॥ २ ॥ जो आक्षेप करके कथाको नहीं कहता है - किसी व्यक्ति विशेषको लक्ष्य करके प्रवचन नहीं करता है, जो ईर्ष्याको नहीं करता है, अपनी प्रशंसा नहीं करता है, दूसरे की हँसी नहीं करता है - निन्दा नहीं करता है, दूसरेके रहस्यको नहीं कहता है, कोको नष्ट करता है, शान्तिको स्थिर करता है, और प्रोतिसे च्युत नहीं होता है-उसे स्थिर रखता है; उस निरभिमानी मनुष्य को विद्वान् पुरुष सज्जन कहते हैं ॥ ३ ॥ वृक्ष फलोंको बार-बार धारण करके नम्रतापूर्वक दूसरोंको देते हैं, मेघ बार-बार जलको प्राप्त करके संसारका पोषण करनेके लिये वर्षा करते हैं, तथा सिंह १ स यो प्री० । २ स शांति । स नाशा । ४ स ममं मम । ५ स समं । ६ स व्यपीति व्ययीति व्ययति, पयोनि ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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