SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 630 : ३१-६९ २२० सुभाषितसंदोहः 830) एकमपि क्षणं लब्ध्वा सम्यक्त्वं यो विमुञ्चति । संसारार्णवमुत्तीयं लभते सो ऽपि निव॒तिम् ॥ ६९ ॥ 831) रोचते' वितं तत्त्वं जोवः सम्यक्त्वभावितः । संसा रोगमापन्लः संवेगादिगुणान्वितः ॥७॥ 332) पत्किचिव दृश्यते लोके प्रशस्तं सचराचरम् ।। तत्सवं लभते जीवः सम्यक्त्वामलरलतः ॥७१ ।। 833) शङ्कावियोवनिर्मुक्तं संवेगाविगुणान्वितम् । यो धत्ते दर्शनं सोऽत्र शंनी कथितो जिनैः ॥७२॥ 834) दुरन्तर सारसंसारजनिताशान्तसंततेः।। यो भीतो ऽणुव्रतं पाति प्रतिनं तं विदुव॒षाः ॥ ७३ ।। 835) आर्तरोगपरित्यक्तस्त्रिकालं विवषाति यः। सामायिक विशुद्धारमा स सामामिकवान्मतः ॥७४ ॥ 836) मासे चत्वारि पर्वाणि तेषु यः फुगतें सवा । उपवासं निरारम्भः प्रोषधी स मतो जिः ।।७५॥ जायते ॥ ६८ ॥ एकम् अपि क्षणं सम्यक्त्वं लम्ध्वा मः विमुञ्चति सः अपि संसारार्णवम् उत्तीयं निति लभते ।। ६९ ॥ संसारोगम् आपन्नः संवेगादिगुणान्वितः सम्यक्त्वभावितः बीवः दर्शितं तत्त्वं रोषते ॥ ७० ।। खोके पस्किचित् सवराचर प्रशस्तं दृश्यते जीवः सम्यात्वामलरत्नसः तत् सर्व लभते ।। ७१ ॥ यः शङ्काविदोषनिमुक्तं संवेगादिगुणान्वितं दर्शने पत्ते, जिनैः अत्र सः दर्शनी कषितः ।। ७२ ॥ दुरन्तासारसंसारजनिताशान्तसंततः, भीत, गः अणुवतं याति तं बुधाः प्रतिनं विदुः ।। ७३ ॥ आर्तरोद्रपरित्यक्तः विशुद्धारमा यः त्रिकालं सामायिक विदधाति स सामायिकवान् मतः ।। ७४ ।। मासे वस्वारि पर्वाणि । तेषु निरारम्भः यः सदा उपवासं कुरुते सः जिनः प्रोपर्धा मतः ॥ ७५ ।। संयमासक्तचेतस्क: यः अपश्वं प्राप्त करके पश्चात् उसे छोड़ देता है वह भी संसाररूप समुद्रसे पार होकर मोक्षको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ सम्यक्त्वभावनासे सम्पन्न जीव संसारसे उद्विग्न होकर संवेग आदि ( प्रशम, आस्तिक्य व अनुकम्पा ) गुणोंसे विभूषित होता हुआ सर्वज्ञके द्वारा दिखलाये हुए जीवादि तत्त्वोंसे प्रीति करता है उनके ऊपर दृढ़ श्रद्धा रखता है॥ ७० ॥ लोकमें जो कुछ भी चेतन व अचेतन प्रशस्त वस्तुएं दिखती हैं उन सबको ही सम्पग्दृष्टि जीव निर्मल सम्यग्दर्शनरूप रत्नके प्रभावसे प्राप्त कर लेता है॥ ७१।। जो जीव शंकादि दोषोंसे रहित और संवेगादि गुणोंसे सहित निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करता है उसे यहाँ जिन भगवानके द्वारा दर्शनी (दर्शनप्रतिमाधारी) कहा गया है ।। ७२ ॥ जो जीव दुविनाश असार संसारमें परिभ्रमण करनेसे उत्पन्न हुई अशान्त (दुख) परम्परासे भयभीत होकर अणुव्रतको (देशचारित्रको) प्राप्त होता है उसे विद्वान् गणधरादि व्रती (द्वितीय प्रतिमाधारी) कहते हैं ॥ ७३ ।। जो विशुद्ध जीव आर्त और रोद्र ध्यानसे रहित होकर सीनों कालों (प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या) में सामायिकको करता है वह सामायिक प्रतिमाधारी माना गया है ।। ७४ ।। प्रत्येक मासमें चार पर्व आते हैं । उनमें जो श्रावक निरन्तर आरम्भसे रहित होकर उपवासको करता है वह जिन देवके द्वारा प्रोषधी (चतुर्थ प्रतिमाधारी) माना गया है । ७५ ।। जो संयमका विचार करनेवाला श्रावक कच्चे १ स रोचिते । २ स संसारा' । ३ स रत्नयः । ४ स orn, 72 । ५ स दुरंतानंतर । ६ स सात for शान्त । ७स प्रोषधीः । ८ स जनः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy