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________________ २२१ 1813 : ३१-८२] ३१. श्रावकधर्मकयनसप्तदशोत्तरं शतम् 837) न भक्षयति यो ऽपक्वं कन्दमूल फलादिकम् । संपमासक्तचेतस्कः सचित्तात् स पराइमुखः ॥ ७६ ॥ 838) मैथुनं भजते मयों न विवा यः कबाचन । दिवामैथुननिर्मुक्तः स बुधैः परिकीर्तितः ।। ७७ ॥ 839) संसारभयमापन्नो मैयुनं भजते न यः । सवा वैराग्यमारतो ब्रह्मचारी स भव्यते ।। ७८॥ 840) निरारम्भः स विडेयो मुनीमहंत करमरः । कृपासुः सर्वजीवानां भारम्भ विवधाति यः ॥ ७९ ॥ 841) संसारखममूलेन किमनेन ममेति यः । निःशेषं त्यजति प्रन्थं निग्रंवं सं विजिनाः ॥ ८॥ 842) सर्वदा पापकापेषु कुरुते ऽनुमति न यः। तेनानुमननं मुक्त' भव्यते बुद्धिशालिना ॥ ८१ ॥ 812) स्वनिमित्तं त्रिधा येन कारितोऽनुमतः कृतः । नाहारों" गहाते पुंसा त्यक्सोद्दिष्टः स भण्यते॥ ८२॥ कम्पमूलफलादिकं न भक्षयति स: समित्तात् पराङ्मुलः ॥ ७६ ॥ यः मयः कदाचन दिया मैथुन न भजते बुधः सः दिवामैथुननिमुक्तः परिकीर्तितः ॥ ७७ ॥ संसारभयमापन्नः बैराग्यमाला यः सदा मैथुनं म बजते स पह्मवारी भन्यते ॥ ७८॥ कृपालुः यः सर्वजीवानाम् [ विषातकम् ] आरम्भं न विदधाति, इतकल्मषः मुनीन्द्र: स: मिरारम्भः विज्ञेयः ॥७९॥ संसारदुममूलेन अनेन मम किम् इति यः निःशेष प्रन्यं त्यजति, तं युधाः निग्रन्थं विदुः ।। ८० ॥ यः सर्वदा पापकार्येषु अनुमति न कुरुते, बुद्धिशालिमा तेन अनुमननं मुक्तं भण्यते ।। ८१ ॥ पेन पुंसा स्वनिमित्तं कारितः बनुमतः कृतः आहारः विधा न गृह्यते स त्यक्तोद्दिष्टः भण्यते ॥ ८२ ।। यः नरः एवं क्रमतः एकावर गुणान् पत्ते, असौ मरामरप्रियं भुक्ला कन्द, मूल और फल आदिको नहीं खाता है वह सचित्त वस्तुसे पराङ्मुख अर्थात् सचिस्तविरत होता है ।। ७६ ॥ जो मनुष्य मैथुनका सेवन दिनमें कभी-भी नहीं करता है वह विद्वानोंके द्वारा दिवामैथुनविरत कहा गया | है ।। ७७ ।। जो मनुष्य संसारसे भयभीत होकर कभी भी मैथुनका सेवन नहीं करता है, किन्तु उससे निरन्तर विरक्त रहता है उसे ब्रह्मचारी कहा जाता है ॥ ७८ ॥ जो दयालु श्रावक समस्त जीवोंके घातक आरम्भको नहीं करता है उसे निर्मल गणधरादि देव भारम्भविरस समझते हैं ।। ७९ ॥ यह परिग्रह संसाररूप वृक्षको स्थिर रखने के लिये मूलके समान है इससे मेरा क्या हित हो सकता है ? कुछ भी नहीं। इस प्रकार विचार करके जो श्रावक समस्त परिग्रहका परित्याग कर देता है उसे पण्डित जन निर्ग्रन्थ (परिग्रहविरत) बतलाते हैं ।। ८०॥ जो पाप कार्योंके विषय में कभी अनुमोदना नहीं करता है उसने अनुमतिको छोड़ दिया है-वह अनुमतित्याग प्रतिमाधारो है, ऐसा वृद्धि ऋद्धिके धारक गणधर कहते हैं । ८१ ॥ जो पुरुष अपने निमित्तसे स्वयं किये गये दूसरेसे कराये गये तथा अनुमोदित भी भोजनको नहीं ग्रहण करता है मन, बचन और कायसे उसे उद्दिष्टत्यागी कहा जाता है ।। ८२ ॥ जो मनुष्य क्रमसे उपर्युक्त प्रकार ग्यारह गुणोंको धारण करता है वह मनुष्य (चक्रवर्ती १ स स चितात् स । २ स इत, दंत' । ३ स जना । ४ स नति, नु मति । ५ स "नुमतिमुक्ति तत म. मुक्तं for मुक्तं, तेनान [ नमति ] युक्तं । ६ स शालिभि । ७ स नाहार । ८ स पुंसां । १ स त्यक्तो दृष्टः, त्यवतो दिष्टः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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