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________________ 168 :७-४१] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 164) चतुर्विधे धर्मिजने जिनाधिते निरस्तमिध्यात्वमले ऽतिपावने । करोति वात्सल्यमनर्थनाशनं सुदर्शनी गौरिव तर्णके नवे ॥ ३ ॥ 165) दुरन्तरोगोपैहतेषु संततं पुरार्जितनोवंशतः शरीरिषु । करोति सर्वेघु विशुद्धदर्शनो दयां परामस्तसमस्तदूषणः ॥ ३८", 166) विशुधमेवंगुणमस्ति दर्शन" जनस्य यस्ये? विमुक्तिकारणम् । प्रर्त बिनाप्युत्तममश्चितं सतां स" तीर्थकत्वं लभते तिणवनम् ॥ ३१॥ 107) दमो दया" ध्यानमहिसनं तपो जितेन्द्रियत्वं विनयो नयस्तथा । वदाति नो तरफलमङ्गधारिणां सदा सभ्यक्त्वमनिन्दितं घृतम् ॥४.", 168) वरं.निवासो नरके ऽपि देहिनां विशुद्धसम्यक्त्वविभूषितात्ममाम् । दुरस्त मिथ्यास्वषिषोपमोगिनां न देवलोके वसतिषिराजते ४ पसुविधे धमिजने अनर्थनाशनं वात्सल्यं करोति ।। ३७ ।। अस्तसमस्तदूषण: विशुद्धदर्शन : पुराजितनोवंशत: सर्वेषु दुरन्त रोगोपहतेषु शरीरिषु संततं परां दयां करोति ॥ ३८॥ यस्य जनस्य व्रतं विनापि एवंगुणं विमुक्तिकारणं विपुलं दनम् अस्ति सः उत्तम सुपावनं सताम् अञ्चितं तीर्थकृत्त्वं लभते ।। ३९॥ अत्र अङ्गधारिणां धृतम् अनिन्दितं सम्यक्त्वं यत्फलं ददाति तत्फलं दमः, दया, ध्यानम् , अहिंसनम् , तपः, जितेन्द्रियत्न, विनयः तथा नयः नो ददाति ॥४०॥ विनुवसम्यक्त्वविभूषितात्मनां देहिनां नरके अपि निवासः वरम् । दुरन्तमिथ्यात्वविषोपभोगिनां देवलोके वसतिः न विराजते ॥४१॥ जिस प्रकार गाय अपने नवीन बछड़ेसे प्रेम करती है उसी प्रकार शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वरूप मलको नष्ट करके जिन भगवान्की शरणमें आये हुए मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चार प्रकारके पवित्र धर्मात्मा जनके विश्यमें आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले वात्सल्य (प्रेमभाव) को करता है। [ अभिप्राय यह कि सम्यग्दृष्टि जीव उपर्युक्त चतुर्विध संघमें ऐसा स्नेह करता है जैसे कि गाय अपने नवजात बलदेसे करती है ] ॥ ३७॥ समस्त दोषोंसे रहिते विशुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोपार्जित पापके वश होकर असाध्य रोगसे पीडित हुए समस्त प्राणियों में निरन्तर उत्कृष्ट दया को करता है ॥ ३८॥ यहां जिस जीवके पास बसके बिना भी इस प्रकारके उपर्युक्त गुणोंसे विभूषित एवं मुक्तिका कारणभूत निर्मल सम्यग्दर्शन है वह सननोंसे पूजित निर्मल उत्तम तीर्थंकर पदको प्राप्त करता है। विशेषार्थ-तीर्थकर प्रकृतिकी बन्धक जो दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनायें निर्दिष्ट की गई हैं उनमें मुख्य दर्शनविशुद्धि ही है। दर्शनविशुद्धिसे अभिप्राय यहां तीन मूढताओं एवं शंका-काक्षा आदि दोषोंसे रहित निर्मल सम्यग्दर्शनका है। इस प्रकारका सम्यग्दर्शन जिस जीवके होता है उसके इस दर्शनविशुद्धिके साथ शेष पन्द्रह भावनाओंमेंसे यदि एक दो भी रही तो भी तीर्यकर प्रकृतिका बन्ध हो जाता है (प. खं. पु. ८. पृ.९१)। इसके विपरीत यदि दर्शनत्रिशुद्धि नहीं है तो अन्य विनयसम्पन्नता आदि सभी ( पन्द्रह) भावनाओंके होनेपर वह तीर्थकर प्रकृति नहीं बंधती है। इसी कारणसे यहां विशुद्ध सम्यग्दर्शनको तीर्थंकर पदकी प्रासिका कारण बतलाया है।॥३९॥ धारण किया गया निर्मल सम्यग्दर्शन प्राणियों के लिये जिस अपूर्व फलको देता है उसको यहा दम (कषायविजय), दया, स्थान अहिंसा, तप, जितेन्द्रियता, विनय और न्यापनीति; ये सब नहीं दे सकते हैं ॥ ४०॥ अपनी आत्माको निर्मल सम्यग्दर्शनसे विभूषित करके प्राणियोंका नरकमें भी रहना अच्छा है, परन्तु कठिनतासे नष्ट होनेवाले सधर्म, वर्म। रस जनाश्रते।३ स सुदर्शना, 'नो, न । ४ स गोरित । ५ स वने। ६ स ३८ ॥ ७ स रागों। . ८ स पुराजिते नो वशता, पुराजिनेनौ । ९ स रांधेषु। १० सदूषणा, दूषणं । ११ स ३९ || १२ om. कि, विशुद्धिमेक । १३ स दूषणं । १४ स जस्येह। १५ स विना शुभ मसंचितै सतां, संचितं, 'मर्चित। १६ स सतीर्थ १७ समते पि। १८ स..॥ १९ स दयायनमस्सिने, दयाभ्यानमहिंसने। २० स ने, ने। २१ स भगि । २२ स४॥
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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