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________________ २२७ 739 : २९-२७ ] ३१. श्रावकधमंकथनसप्तदशोत्तरं शतम् 876) येनाङ्गुष्ठप्रमाणार्चा' जैनेन्द्री क्रियते गिना। तस्याप्यनश्वरी लक्ष्मीन दूरे जातु जायते ॥ ११५ ॥ 877) य: करोति जिनेन्द्राणां पूजनं स्नपनं नरः। स पूजामाप्य निःशेषों लभते शाश्वतों श्रियम् ॥ ११६ ॥ 878) सम्यक्त्वज्ञानभाजो जिनपतिकथितं ध्वस्तबोषप्रपञ्च संसारासारभोता विवधति सुधियो ये व्रतं श्रावकोयम् । भुक्त्वा भोगा'नरोगान् परयुवतिपुताः स्वर्गमत्येश्वराणां ते नित्यानन्तसौल्यं शिवपदमपदं व्यापयाम्ति माः ॥ ११७ ॥ ॥ श्रावकधर्मफ धनसप्तदशोसरं शतम् ॥ ३१ ॥ यावत् जैनेन्द्रमन्दिरं तिष्ठति तावत् धर्मस्थितिः कृता ॥ ११४॥ येन अङ्गिमा अङ्गष्ठप्रमाणा बेनेग्री अर्चा क्रियते तम्य अपि अनश्वरी लक्ष्मीः जातु दूरे न जायते ।। ११५ ।। यः नरः जिनेन्द्राणां पूजन स्नपनं करोति स निःशेषां पूजाम आप्य शाश्वती श्रियं लभते ।। ११६ । सम्परत्वशानभाजः संसारासारभोताः सुधिय: ये मर्त्याः जिनपतिवमितं ध्वस्तदोषप्रपन श्रावकीयं व्रतं विदधति ते बरयुवतियुताः स्वर्गमयैश्वराणाम् अरोगान् भोगान् भुक्त्वा व्यापद्यम् भपदं नित्यानन्तसौम्य शिवपदं यान्ति ।। ११७ ।। इति प्रावकधर्मकथनसप्तदशोत्तरं शतम् ॥ ३१ ॥ है तब तकके लिये उक्त जिनमन्दिरका निर्माण करानेवाला श्रावक धर्मको स्थितिको कर देता है तब तक वहाँ धर्मकी प्रवृत्ति चालू रहती है ॥ ११४ ।। जो प्राणो अंगूठेके बराबर भी जिनेन्द्र देवकी प्रतिमाको करता है है उसके भी अविनश्वर लक्ष्मी ( मोक्ष लक्ष्मी ) कभी दूर नहीं रहती है, अर्थात् वह भी शीघ्र ही मोक्ष लक्ष्मीका स्वामी बन जाता है ॥ ११५ ।। जो मनुष्य जिनेन्द्र देवको पूजा एवं अभिषेकको करता है वह समस्त पूजाको प्राप्त होकर-सबका पूज्य होकर-नित्य लक्ष्मीको (मोक्ष सुखको) प्राप्त करता है ॥ ११६ ॥ जो निर्भल. बुद्धि मनुष्य संसारको असारतासे भयभीत होकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे विभूषित होते हुए जिन भगवानके द्वारा प्ररूपित निर्दोष श्रावकके व्रतको देश चारित्रको धारण करते हैं वे उत्तम युवति स्त्रियोंसे सेवित होते हुए नीरोग रहकर इन्द्र और चक्रवर्तीके भोगोंको भोगते हैं और फिर अन्तमें नित्य एवं अनन्स सुखसे संयुक्त निरापद मोक्ष पदको प्राप्त होते हैं ॥ ११७ ॥ इसप्रकार एक सौ सतरह श्लोकोंमें श्रावक धर्मका निरूपण किया। १ स णाा , 'चं, 'त्व । २ स पुजामप्य । ३ स भोगानरो 17 स व्यापदं । ५ स निरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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