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________________ १९२ सुभाषितसंवोहः { 704 : २८-१५ 704) जिनगवितमनयध्वंसि शास्त्र विचित्रं परममृतसमं यत् सर्वसत्त्वोपकारि। प्रकटनमिह तस्य प्राणिनां यद् वृषाय तव भिवपति शान्तास्स्यागधर्म यतोन्द्राः ॥ १५ ॥ 705) पविह जहति जोवा जोबजोवोत्यभेवात् विविधमपि मुनीन्द्राः संगमङ्गे ध्यसंगाः । जनन मरणभीता जन्तुरक्षा नदीष्मा गतमलमनसस्तत् स्यात्सवाकिंचनत्वम् ॥ १६ ॥ 706) वरतनुरति मुक्तीक्षमाणस्य नारीः स्वसृवृहितसवित्रीसंनिभाः सर्वदेव । जननमरणभीतः कर्मवत्संवृतस्य गुरुकुलवसतिर्या ब्रह्मचर्य तदाहः ॥ १७ ॥ 707) जननमरणभीतिध्यान विध्वंसपक्ष कषितनिखिलबोषं भूषणं देहभाजाम् । इति दशविषमेनं धर्ममनोविमुक्ता" विवितभुवनतत्वा वर्णयन्ते जिनेन्द्राः ॥१८॥ वर्णयन्ति ॥ १४ ॥ इह अनयम्यसि, विचित्रम्, अमृतसम, सर्वसत्त्वोपकारि, परं, जिनगदितं यत् शास्त्र, तस्य प्राणिनां बषाय यत् प्रकटनं तत् शान्ता यतीन्द्राः त्यागधर्मम् अभिदपति ॥ १५ ।। इह जनममरणभीताः जन्तुरक्षानदीष्णाः मतमलमनसः अगे अपि असंगा: मुनीन्द्राः जीवाजीवजीवोत्यमेवात् त्रिविधम् अपि संग यत् सदा जति तत् अकिञ्चनत्वं स्मात् ॥ १६ ॥ सर्वदेव नारीः स्वसहितसवित्रीसंनिभाः वीक्षमाणस्य वरतनुरतिमुक्तेः जमनमरणमीतः कूममत् संवृतस्य [ मुनेः ] या गुरुकुरुवसतिः तत् ब्रह्मचर्यम् आहुः ॥ १७ ॥ एनोविमुक्ताः विदितभुवनतत्त्वाः जिनेन्द्राः जननमरणभीतिध्यान किया जाता है इसे तप कहते हैं ॥ १४ ॥ जो शास्त्र जिन देवके द्वारा प्ररूपित है, अनर्थका नाशक है, विचित्र है, उत्कृष्ट है तथा अमृत के समान समस्त प्राणियोंका उपकार करनेवाला है उसको यहाँ प्राणियोंको धर्ममें प्रवृत्त करनेके लिये जो प्रगट करना है; इसे शान्त मुनीन्द्र त्याग धर्म कहते हैं ।। १५ । जो मुनीन्द्र जन्म और मरणसे भयभीत जीवदयारूप नदीमें स्नान करनेवाले, निर्मल मनसे सहित सथा अपने शरीरमें भी निर्ममत्व होकर जीव, अजीव और जीवाजीवके भेदसे तीन प्रकारके परिग्रहका निरन्तर स्याग करते हैं उनके आकिंचन्य धर्म होता है। अभिप्राय यह कि परिग्रहका पूर्णतया परित्याग कर देनेका नाम बाचिन्म धर्म है ॥ १६ ॥ जो अपने उत्तम शरीरमें अनुराग नहीं करता है; स्त्रियोंको सदा बहिन, बेटी और माताके समान देखता है; जन्म व मरणसे भयभीत है, तथा फछुएके समान इन्द्रियको आवत रखता है उसका जो गुरुकुलमें निवास करना है; यह ब्रह्मचर्य कहलाता है |॥ १७ ॥ जो धर्म जन्म, मरण, भय और चिन्ताको नष्ट करके समस्त दोषोंका घात करता है वह प्राणियोंके लिये भूषणस्वरूप है । उसको पापसे रहित और समस्त तत्त्वोंके जानकार जिनेन्द्र सकारी। २ स बितरति घुतदोषं प्राणिनां सर्वदा ये निगदति गुणिनस्तं त्यागवंतं भुनींद्रा om. प्रकटन - यतींद्राः। ३ स तमभिदधति । ४ स जीवा जो वो ज्यभे°। ५ स जननजलतरंड दुःखकव [ ] [रदाबंगत° [ तममलमनस । ६ स दीक्षा for रक्षा। ७ स मुफ्ते। ८ स वीक्ष्य', 'मुक्तेवीळमाणस्य । १ स ध्याति । १० कथिस । ११ स विमुक्त-।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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