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७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत्
154) सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रसंपदः सुखेन सर्वा लभते भ्रमन्भवे । अशेषदुःखक्षणकारणं पैरं न दर्शनं पावनमश्रुते जनः ॥ २७ ॥ 155) जनस्य यस्यास्ति विनिर्मला रुचिर्जिनेन्द्रचन्द्रप्रतिपादिते मवे । अनेकधर्मान्विततत्त्वसूचके किमस्ति नो तस्य समस्तविष्टपे ॥ २८ ॥ 156) विधायक जैनमतस्य रोचनं मुहूर्तमन्येकमथो विमुञ्जति । "
अनन्तकालं भवदुःखसंतति न सो ऽपि जीवो लमते कथंचन ॥ २९ ॥ 157) यथार्थतत्त्वं कथितं जिनेश्वरैः सुखावहं सर्वशरीरिणां सदा ।
निधाय कर्णे विहितार्थनिधयो नमष्यजीयो बितनोति दुर्मतिम् ॥ २० ॥ 158) विरागसर्वपदाम्बुजद्वये येतौ निरस्तालिलसंगसंगती ।
वृषे च हिंसारहिते महाफले करोति वर्ष जिनवाक्येभाषितः ॥ ३१ ॥
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उपागते सति नरः तदा परोपदेशन निसर्गेण व शशाङ्क निर्मलं तत् (सम्यग्दर्शनम् ) अश्रुते ॥ २६ ॥ भवे भ्रमत् जनः सर्वाः सुरेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रसंपदः सुखेन लभते । परम् अशेषदुःखक्षयकारणं पावनं दर्शनं न अभुते ॥ २७ ॥ यस्य जनस्य अनेकधर्मान्तितत्त्वसूचके जिनेन्द्रचन्द्रप्रतिपादिते मते विनिर्मला रुचिः अस्ति, समस्तबिष्टपे तस्य किं नो अस्ति । २८ H यो जीवः एक मुहूर्तम् अपि जनमतस्य रोषनं विधाय अथो विमुञ्चति सः अपि अनन्तकालं भवदुःखसंतति कथंचन न लभते ॥ २९ ॥ भव्यजीवः सर्वशरीरिणां सदा सुखावहं जिनेश्वरः कथितं यथार्थतत्त्वं कर्णे निधाय विहितार्थनिश्चयः सन्, दुर्मति न वितनोति ॥ ३० ॥ जिनवाक्यभावितः विरागसर्वज्ञपदाम्बुजद्वये निरस्ताखिलसंगसंगती यती महाफले हिसारहिते वृषे हर्षं करोति ॥ ३१ ॥ सदुचिः भकुरात्मना नारीजनचित्तसंततिम् अपि जयत्सु भवार्णवभ्रान्तिविधान
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आदिके निमित्तसे उत्पन्न होता है उसे अधिगमज सम्यग्दर्शन कहा जाता है | || २६ ॥ प्राणी संसाररूप इनमें परिभ्रमण करता हुआ इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तीकी सत्र सम्पत्तियोंको तो सुखपूर्वक पा लेता है; परन्तु इस प्रकारसे व समस्त दुःखोंकों नष्ट करनेवाले पवित्र सम्यग्दर्शनको नहीं प्राप्त कर पाता है || २७ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा निरूपित जो मत अनेक धर्मात्मक वस्तुस्वरूपको प्रगट करता है उसके विषयमें जो जी निर्मल श्रद्धान करता है उसके पास इस समस्त लोकमें क्या नहीं है ? अर्थात् सब कुछ ही है ।। २८ ।। जो जीव एक मुहूर्त के लिये भी जैन मतके ऊपर श्रद्धा करके उसे छोड़ देता है वह भी किसी प्रकारसे अनन्त कालतक संसारदुखकी परम्पराको नहीं प्राप्त करता है । विशेषार्य इसका अभिप्राय यह है कि जिस जीवने एक अन्तर्मुहूर्त के लिये भी सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है वह अर्धपुद्गपरिवर्तन कालके भीतर अवश्य ही मुक्तिको प्राप्त कर लेता है। जहां कि वह अनन्त काल रहता है। किन्तु जिस अनादि मिध्यादृष्टि जीवको अभीतक एक वार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है उसके संसार परिमणका अन्त नहीं है वह अनन्त काल तक भी संसारमें परिभ्रमण कर सकता है || २९ ॥ जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा गया धस्तुका यथार्थ स्वरूप सब प्राणियोंको निरन्तर सुख देनेवाला है। जो भव्य जीव उसको सुन कर पदार्थका निश्चय करता है उसकी दुर्बुद्धि (अविवेक) नष्ट हो जाती है ॥ ३० ॥ जिनवचनके ऊपर विश्वास करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव वीतराग सर्वज्ञ देवके दोनों चरणकमलों, समस्त परिग्रहके संयोगसे रहित निर्मन्थ गुरु और महान् फलदायक अहिंसारूप धर्मके विषय में हर्ष ( अनुराग ) को धारण करता है ॥ ३१ ॥ जो संसार, शरीर और भोग संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करानेवाले हैं, तथा जो विनश्वर स्वभावसे स्त्रीजनकी चित्तपरम्पराको भी जीतते हैं अर्थात् स्त्रीजनके चित्त के समान चंचल हैं उनके विषयमें सम्यग्दृष्टि जीव विरागताको धारण करता है - उनसे विरक्त
१ स भवे for परं । २ स२८ ॥ ३ स ७ स ३० ॥ ८ व्यहिता । ९ स ३१ ॥
तिष्टये, 'विष्टये, 'विष्टपो। ४ स २९ ॥ ५स जो । ६ संगतिं । १० स पतौ यतो । ११ स वाच्यभावितः । ३२ ॥