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________________ १४१ 191 : १९-१८] १९. दाननिरूपणचतुर्विंशतिः 489) क्षेत्रद्रव्यप्रकृति समयान्वीक्ष्य' योजं यथोप्तं दत्ते सस्यं विपुलममलं चारसंस्कारयोगात् । वत्तं पात्र गुणवति तथा बानमुक्तं फलाम सामनीतो भवति हि जने सर्वकार्यप्रसिद्धिः ॥ १६ ॥ 490) नानादुःखव्यसननिपुणान्नाशिनो तृप्तिहेतून् कर्मारातिप्रचपनपरीस्तरवतो ऽवेस्थ' भोगान् । मुक्त्याफाझा विषयविषर्या कर्मनिशनेको वादानं प्रगुणमनसा संपतायापि विद्वान् ॥ १७ ॥ 491) यस्मै गत्या विषयमपरं बीयते पुण्यवद्भिः" पात्र तस्मिन् गहमुपगते संयमाघारभूते। नो यो महो वितरति बने विद्यमाने ऽप्यनल्पे तेनात्मात्र स्वयमपषिया वनितो मानबेन ॥१८॥ विपुलम् अमलं सस्यं दत्ते, तथा गुणयति पात्रे दत्तं दानं फलाय उक्तम् । हि जमे सामग्रीतः सर्वकार्यप्रसिद्धिः ॥ १६॥ नानादुःखव्यसननिपुणान् नाशिनः अतृप्तिहेतुन् कर्मारातिप्रपयनपरान् भोगान् तत्त्वत: अवेत्य विषयविषयो काक्षां मुफ्त्या कर्मनिर्णाशनेच्छः विद्वान् प्रगुणमनसा संयताय दानम् अपि दद्यात् ।। १७ ॥ अपरं विषयं गत्वा पुण्यवद्रिः यम्भ बीयते, संयमाधारभूत तस्मिन् पाने गृहम् उपगते सति अनपे घने विद्यमाने अपि यो मूढः नो वितरति तेन अपषिया मानवेन यत्र जाकर उस पात्र और दाताको भी नष्ट कर देता है उन्हें आपत्तिग्रस्त कर देता है ।। १५ ।। जिस प्रकार भूमि, द्रव्य, प्रकृति और कालको देखकर बोया गया बीज सुन्दर संस्कारके सम्बन्धसे-निराने गोड़ने आदिके निमित्त से-बहुत अधिक उत्तम अनाजको देता है उसी प्रकार गुणवान् पात्रके लिये दिया गया दान भी महान् फलको देता है—भोगभूमि या स्वर्गके अभ्युदयको प्राप्त कराता है, ऐसा आगममें निर्दिष्ट है। ठीक हो है मनुष्यके लिये समस्त कार्यसिद्धि सामग्री के निमित्तसे ही होती है ॥ १६ ॥ विशेषार्थ--जिस प्रकार यदि सुयोग्य किसान भूमि, बीज और ऋतु आदिको योग्यताको देखकर खेतमें बीज बोता है तथा समयानुसार उसकी निराई मादि भी करता है तो उसे इसके फलस्वरूप निश्चयसे कई गुना अनाज प्राप्त होता है । ठीक इसी प्रकारसे जो विवेकी दाता दानको विधि ( नवधा भक्ति आदि ), देने योग्य द्रव्य ( आहार आदि), दाताके गुण और पात्रके भी गुणोंका विचार करके तदनुसार ही पात्रके लिये दान देता है तो वह यदि सम्यग्दृष्टि है तो नियमसे उत्तम देवोंमें उत्पन्न होता है और तत्पश्चात् मनुष्य होकर समयानुसार मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है। परन्तु यदि वह सम्यग्दृष्टि नहीं है--मिथ्याइष्टि है--तो भी वह यथायोग्य लत्तम, मध्यम अथवा जघन्य भोगभूमिके भोगोंको भोगकर तत्पश्चात् देवोंमें उत्पन्न होता है । अन्तत: मोक्षमार्गमें स्थित होकर वह भी मोक्ष सुखको प्राप्त कर लेता है ॥ १६ ॥ कर्मनाशका इच्छुक विद्वान् विषयभोगोंको यथार्थत: अनेक दुःखों एवं आपत्तियोंको प्राप्त करानेवाले, नश्वर, तृष्णाके बढ़ानेवाले और कर्मरूप शत्रुओंके संचयमें तत्पर जानकर तद्विषयक अभिलाषाको छोड़ता हुमा संयमी जनके लिये सरल चित्तसे दान देवे ।। १७ । पुण्यात्मा जम जिसके लिये दूसरे देशमें जाकर दान देते हैं संयमके आश्रयभूत ( संयमी ) उस पात्रके स्वयं ही पर आ जानेपर तथा बहुत धनके रहनेपर भी १ स भूति° । २ स वीक्ष । ३ स वासिनो। ४ स वेत्यभोगान् । ५ स पुण्यविद्भिः, "विति।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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