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________________ ८४ [305:१२-१३ सुभाषितसंदोहः 303) येषां 'स्त्रोस्तनचक्रवाकयुगले पोतांशुराजत्तटे नियंत्कौस्तुभरत्न रश्मिसलिले "वानाम्बुजभ्राजिते । 'श्रीयक्षःकमलाकरे गतभया क्रीडां चकारापरा" श्रीहि श्रीहरयो ऽपि ते मृतिमिताः कुत्रापरेषा स्थितिः॥ ११॥ 304) भोक्ता यत्र वितप्तिरन्तकविभुर्भोज्याः समस्ताङ्गिनः कालेशः परिवेषको श्रमतनुर्मासा' विशन्स्यक्रमैः । यको तस्य निशासवन्तकलितें तत्र स्थितिः कोशों जीवानामिति" मृत्युभीतमनसो जैनं तपः कुर्वते ॥ १२॥ 905) उद्धर्तुं धरणी निशाकररवी क्षेप्तुं मान्मार्गतो वातं स्तम्भयितुं पयोनिधिजसं पातुं गिरि चूर्णितुम्" । शक्ता यत्र विशन्ति मृत्युवदने कान्यस्य तत्र स्थितियस्मिन् याति गिरिविले सह वनैः कात्र व्यवस्था ह्मणोः ॥ १३ ॥ पोताणराजत्तटे निर्यकौस्तुभरत्नरस्मिसलिले दानाम्बुजञाजिते श्रीवक्षःकमलाकरे गतभया श्रीः अपरां क्रीडां चकार ते श्रीहरयः अपि मृतिम् इताः । अपरेषां स्थितिः कुत्र ॥ ११॥ यत्र मोक्ता वितृप्तिः अन्तकविभुः, भोज्याः समस्ताङ्गिन., परिवेषकः अधमतनुः कालेशः, तस्य निशातदन्तकलिते वो ग्रासा अक्रम. विशन्ति, तत्र जीवानां स्थितिः कीदृशी । इति मृत्युभीतमनसः जनं तपः कुर्वते ॥ १२ ॥ धरणीम् उद्धतुं निशाकररषी मन्मार्गतः क्षेप्तुं वातं स्तम्भयितु पयोनिधिजलं पातु गिरि चूणितु शक्ताः यत्र मृत्युवदने विशन्ति तत्र अन्यस्य का स्थितिः । हि यस्मिन् बिले वनैः सह गिरि: याति अत्र अणोः का व्यवस्था ॥ १३ ॥ सुग्रीवाङ्गदनीलमारुतसुतप्रष्ठः कृताराधनः, विभुषनप्रख्यातर्फीतिध्वजः, रामः येन विनाशितः शिकार नहीं होते। ऐसा विचार कर उस मुक्तिके इच्छुक बुधजन उत्तम सप करें ॥१०॥ जिनके स्त्रीके स्तनरूपी दो चकवोंसे युक्त, तथा पीताम्बररूपी तटसे शोभित, कौस्तुभ मणिसे निकलती हुई किरणरूपी जलसे पूर्ण और मुखरूपी कमलसे शोभित ऐसे श्रीवत्ससे चिह्नित छातो रूपी सरोवरमें लक्ष्मी निर्भय होकर कीड़ा करतो यो वे श्रीकृष्ण भी जब मृत्यु को प्राप्त हुए तो दूसरोंका कहना ही क्या ? के केसे मृत्युसे बच सकते हैं॥ ११॥ जिस संसारमें कभी तृप्त न होनेवाला यमराज भक्षक है और समस्त प्राणी उसके भक्ष्य है। कभी न थकने वाला काल प्रभु उन भक्ष्य प्राणियोंको खोज खोजकर लाने वाला है । यमराजके पास लेनेका कोई क्रम नहीं है एक साथ अनेकोंको खा जाते हैं। उस यमराजके तीक्ष्ण दाढवाले मुखमें प्राणियोंकी स्थिति कैसे सम्भव है। इसीसे मृत्युसे डरे हुए मनुष्य जैन तपका आचरण करते हैं ॥ १२॥ जिस संसारमें पृथ्वीको उलटनेमें, आकाश मार्गसे चन्द्र सुर्यको उतार फेकनेमें, वायुको अचल करनेमें, समुद्रके जलको पी डालनेमें तथा पर्वतको चूर्ण करनेमें समर्थ पुरुष मृत्युके मुखमें प्रवेश करते हों, वहाँ दूसरोंको क्या स्थिति है ? ठीक ही है जिस बिलमें दनोंके साथ पर्वत समा जाता है उसमें परमाणुका समा जाना कौन बड़ी बात है ? ॥ १३ ॥ जिन १स स्त्री स्तन । २ स °युगलो पीनांसु', पौनासु', पीतांशु रा । ३ स निर्जको निजिको । ४ रस्मिरत्न', रश्मिरत्न । ५ स आस्याम्बु । ६ स श्रीवृक्षः, श्रीवक्षः कमलाकरे । ७ स परांश्चाईच्छी । ८ स °वेशको । ९ स प्रासाविसन्त्य ! १० स निशांत° ११ स जावानाम् । १२ स कुछते । १३ स चूणितं । १४ स शका । १५ स माति । १६ स एणी, झनो, हाणो ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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