Book Title: Pradyumna Charit
Author(s): Sadharu Kavi, Chainsukhdas Nyayatirth
Publisher: Kesharlal Bakshi Jaipur
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090362/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न-चरित (आदि कालिक हिन्दी काव्य) रचयिता:-कवि सधार प्रास्कथन लेखक डा० माताप्रसाद गुप्त, एम ए, डी० लिट्ट रीडर, हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय सम्पादक पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ फस्तुरचंद कासलीवाल शास्त्री एम० ए०, -XXX प्रकाशक केशरलाल-बख्शी मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दि० जैन अ. क्षेत्र श्री महावीरजी महावीर भवन, सबाई मानसिंह हाईवे जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय हिन्दी भाषा की प्राचीन रचना "प्रानचरित' को पाठकों के हार्यों में देते हुये मुझे प्रसन्नता हो रही है । इस पथ की हस्तलिखित प्रांत सर्व प्रथम हमें ४-५ घर्ष पूर्व जयपुर के बधीचन्द जी के मन्दिर के शास्त्रभण्डार की सूची बनाते समय प्राप्त हुई थी। इसके पश्चात् शास्त्रभण्डार कामा (भरतपुर) में भी इस ग्रंथ की एक प्रति मिल गयी। क्षेत्र की प्र० का० कमेटी ने मथ को उपयोगिता को देखते हुये इसके प्रकाशन का निश्चय कर लिया । प्रद्युम्न चरित वि० जैन प्र० क्षेत्र श्रीमहावीरजी की ओर से संचालित अन साहित्य शोष-संस्थान का प्राठवां प्रकाशन है । इस पुस्तक के पूर्व क्षेत्र की पोर से राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची के ३ भाग, प्रशस्ति संग्रह, सर्वार्थ सिसिसार प्रावि खोज पूर्ण पुस्तकों का प्रकाधान किया जा चुका है। इन पुस्तकों के प्रकाशन से भारतीय साहित्य एव विशेषसः जैन साहित्य की कितनी सेवा हो सकी है इसका तो विद्वान एवं रिसर्च स्कालर्स हो अनुमान लगा सकते हैं लेकिन अपनश एवं हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित पुस्तफें जिनका प्रभी ५-७ वर्षों में ही प्रकाशन हुमा है उनमें जैन विद्वानों द्वारा लिखी हुई पुस्तकों का उल्लेख देखकर तथा हमारे यहां साहित्य शोध-संस्थान के कार्यालय में प्राने वाले खोज प्रेमी विद्वानों की संख्या को देखते हुये हम यह कह सकते हैं कि क्षेत्र को अोर से जो ग्रंथ सचिर्या, प्रशस्ति संग्रह एवं अनुपलब्ध साहित्य से सम्झन्धित लेख प्रादि प्रकाशित हुये हैं उनसे साहित्यिक लगत् को पर्याप्त लाभ पहुंचा है। यद्यपि हमारा प्रमुख ध्यान राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की पंथ सचियां तैयार करवाकर उन्हें प्रकाशित कराने की ओर है लेकिन हम चाहते है कि ग्रंथ सूची प्रकाशन के साथ साथ भण्डारों में उपलब्ध होने वाली अज्ञात एवं महत्वपूर्ण सामग्री का भी प्रकाशन होता रहे । अब तक साहित्य शोध संस्थान की प्रोर से राजस्थान के ७० से भी अधिक ग्रंथ भण्डारों की सूचियां तैयार की जा चुकी हैं तया उनमें उपलब्ध अज्ञात एवं महत्वपूर्ण रचनाओं का या तो परिचय लिया जा चुका है अथवा उनकी पूरी प्रतिलिपियां उतार कर संग्रह कर लिया गया है। ये प्राकृत, अपभ्रश, सांस्कृत एवं हिन्दी भाषा की रचनायें हैं। इन भण्डारों में हमें . अपभ्रंश एवं हिन्दी को सबसे अधिक सामग्री मिलती है। अपभ्रश का विशाल Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य जो हमें प्राप्त हुना है उसका अधिकांश भाग जयपुर, अजमेर एवं नागोर के भण्डारों में उपलब्ध हश्रा है। इस प्रकार हिन्दी की १३-१४ वीं शताब्दी तक की प्राचीनतम रचनायें भो हमें इन्हीं भण्डारी में FAMLETई हैं। संभ १९२५४ में निबद रल्ह कवि कृत जिनदत्त चौपई इनमें उल्लेखनीय रचना है जो अभी १ वर्ष पूर्व ही कासलीषालजी को जयपुर के पाटोवी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हई थी । हम राजस्थान के सभी ग्रंय भण्डारों की चाहे वह छोटा हो या बड़ा प्रय सूची प्रकाशित कराना चाहते हैं। इससे इन भण्डारों में उपलब्ध विशाल साहित्य तो प्रकाश में प्रा ही मकेगा किन्तु ये भंडार भी व्यवस्थित हो जावेंगे तथा उनको वास्तविक संख्या का पता लग जावेगा। किन्तु हमारे सीमित माथिक साधनों को देखते हुये इस कार्य में कितना समय लगेगा यह कहा नहीं जा सकता | फिर भी हम इस कार्य को कम से कम समय में पूर्ण करना चाहते हैं । यदि साहित्यिक यन के इस मुख्य कार्य में हमें समाज के विद्वानों एवं दानी सरजनों का सहयोग मिल जाये तो हम इस प्रथ सूची प्रकाशन के सारे कार्य को ५-७ वर्ष में ही समाप्त करना चाहते हैं। ग्रंथ सूची का चतुर्थ भाग जिसमें करीब हजार हस्तलिखित ग्रंथों का विवरण रहेगा प्रायः सेयार है तथा उसे शीन हो प्रकाशनार्थ प्रेम में दिया जाने वाला है इसके अतिरिक्त १३ वी शताब्बी को हिन्दी रचना जिनदत धौपाई का भी सम्पावन कार्य प्रारम्भ कर दिया गया है और प्राशा की जाती है उसे भी हम इसी वर्ष पाठकों के हाथों में दे सकेंगे। अन्त में प्रद्युम्न चरित के सम्पादन एवं प्रकाशन में हमें श्री कस्तूरचन्दजी कासलीशल एम. ए. शास्त्री एवं पं० अनूपचन्दजी न्यायतीर्थ प्रादि जिन २ विद्वानों का सहयोग मिला है मैं उन सभी का आभारी हूँ। राजस्थान के प्रसिद्ध विद्वान् श्री चनसुखदासजी सा० न्यायतीर्य, अध्यक्ष जैन सांस्कृत कालेज का हमें जो ग्रंथ सम्पादन में पूर्णसहयोग मिला है उनका मैं विशेष रूप से प्राभारी हूँ। पंडितो साहब से हमें साहित्य सेवा की सतत प्रेरणा मिलती रहती है । क्षेत्र की अोर से संचालित इस जैन साहित्य शोध संस्थान की स्थापना भी पाप हो की प्रेरणा का फल है। पुस्तक का प्राक्कथन लिनने में प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा. माताप्रसादजी गुप्त में जो कष्ट किया है उसके लिये मैं उनका हृदय से प्राभार प्रकट करता हूँ' तथा प्राशा करता है कि भविष्य में भी हमें उनका ऐसा हो सहयोग मिलता रहेगा। जयपुर केशरलाल बख्शी ता०१०-६-५६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ कब से होता है, यह उसके इतिहास का सबसे अधिक विधावपूर्ण विषय रहा है। पहले कुछ विद्वानों का मत था कि पुउ या पुष्य हिन्बो का प्रादि कवि था जो प्राठवीं या नवीं शती में हुआ था किन्तु उसकी कोई रचना प्राप्त नहीं थी। इधर घपम्र के एक सर्व श्रेष्ठ कवि पुष्पदन्त को रचनामों के प्रकाश में पाने पर अनुमान किया जाने लगा है कि पुष्य नाम के जिस कधि का हिन्दी के it करके उल्लस होता रहा है, यह कदाचित पुष्पदन्त था । किंतु पिछले ५०-६. वर्षों की खोज में व्यवन्त हो नहीं अपभ्रश के चार दर्जन से अधिक कवियों की रचनाए प्रकाश में पाई हैं ! प्रश्न यह उठता है कि इस अपभ्रंश साहित्य को हिन्दी साहित्य से पृथक स्थान मिलना चाहिए या इसे पुरस्नी हिन्दी का साहित्य ही मान लेना चाहिए। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये हमें भाषा के इतिहास की ओर मुडना पड़ता है । भारतीय भाषाओं पर जित विद्वानों ने कार्य किया है, उनका मत है कि बंगला, मराठी, गुजराती प्रादि की भांति हिन्दी भी एक माधुनिक भारतीय नार्य-भाषा है। इसकी विभिन्न बोलियां उन उन क्षेत्रों में बोली जाने वाली अपनों से विकसित हुई है, और अन्य प्राधुनिक भारतीय भाषाओं की भांति हिंदी को विभिन्न बोलियों को भी कुछ विशषताएं हैं जो उन्हें उनके पूर्ववती अपभ्रंशों से अलग करती है। उनका यह भी मत है कि समस्त अपभ्रंशों को मध्य कालीन भारतीय आर्य भाषामों में स्थान मिलना चाहिए क्योंकि उनकी सामान्य प्रवृत्तियां मध्यकालीन भारतीय भाषाओं की है। किन्तु यहां पर यह भी आन लेना आवश्यक होगा कि बोलचाल को भाषाएँ एकदम पही बदलती हैं, उनमें धीरे धीरे परिवर्तन होता चलता है और पर मध्य कालीन और प्राधुनिक भार्य भाषाओं में जिस प्रकार का प्रन्तर बताया गया है, वह क्रमशः उपस्थित होता है । प्रतः काफी लंबे समय तक ऐसा रहा होगा कि अपभ्रश के विशिष्ट तत्व धीरे-धीरे समाप्त हुए होंगे और आधुनिक भारतीय भाषामों के विशिष्ट तत्व संकुरित होकर पल्लवित हुए होंगे | इसलिए जिस साहित्य में अपना और प्राधुनिक प्रार्य भाषाओं दोनों के तत्व मिलते हैं उन्हें कहां रक्खा जाए, यह प्रश्न बना ही रहता है, भले ही हम सिद्धान्ततः यह मानले कि अपनश Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य को हिंदी साहित्य से अलग स्थान मिलना चाहिए । यह सन्धिकालीन साहित्य परिमाण में कम नहीं है। इसका सर्वश्रेष्ठ व्यावहारिक उत्तर कदाचित यही है कि इसे दोनों साहित्यों को सम्मिलित सम्पत्ति माना जाए। इसे उतना ही हासकालोन अपनश का साहित्य माना जाए जितना इसे आधुनिक भाषाओं के प्रादुर्भाव काल का । और विद्वानों का यह कर्तव्य है कि इस संधिकालीन साहित्य को शेष समस्त अपभ्रंश साहित्य से भाषा लस्यों के आधार पर अलग करके इसे सूची बद्ध करें, तभी हमारे साहित्य के इतिहास के इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उचित रोति से समाधान हो सकता है कि उसका प्रारंभ कब से होता है। यदि इस संधिकालीन साहित्य का अनुशीलन किया जावे तो यह सुगमता से देखा जा सकता है कि इसके निर्माण में सबसे बड़ा हाय जैन विद्वानों और महात्माओं का रहा है, पर बाल साहिन इनका इतना बड़ा योग रहा है जो कि इस संबिकाल से पूर्व निमित हुअा था । इतना ही नहीं विभिन्न मात्रामों में माधुनिक प्राय भाषाओं के मिश्रण के साय जन विधान और महात्मा सत्रहवीं शती तक बराबर अपनश में रचनाएँ करते पा रहे हैं। अभी अभी जैन कवि पं० भगवतीवास कृत 'महकलेहरिज' ( मृगांकलेखाचरित) नाम की रचना मेरे देखने में प्राई है जो विक्रमोय अठारह शती की रचना है। इसलिए यह प्रकट है कि अपनश के साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन कृतिकारों का योग प्रसाधाररम रहा है । जब अपच बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी और उसका स्थान प्राधनिक प्रार्य भाषामों ने ले लिया था, उसके बाद भी साल माठ शताब्दियों तक जैन कृतिकारों ने अपनश की जो सेवा की, वह भारतीय साहित्य के इतिहास में एक ध्यान देने की वस्तु है । इससे उनका अपभ्रंश के प्रति एक धार्मिक अनुराग सूचित होता है। इसलिए यदि परिनिष्ठित अपभ्रंश और संधिकालीन अपभ्रंश का सबसे महत्वपुर्ण प्रवाहमें जैन विद्वानों और कवियों को कृतियों के रूप में मिलता है तो प्राश्चर्य न होना चाहिये। किंतु एक कारण और भी इस बात का है जो इस साहित्य के कृतिकारों में बे। कषियों और महात्मानों का बाहुल्प दिखाई पड़ता है । वह यह है कि जैन धर्मावलंबियों ने अपने साहित्य को जड़ो निष्ठा पूर्वक सुरक्षा की है । अपनश तथा संधियुग का जितना भी भारतीय साहित्य प्राप्त हुना है, उसका सर्व प्रमुख प्रश अन भंडारों से ही प्राप्त हशा है, इसलिए उस साहित्य में यदि जैन कृतियों का माहुल्य हो तो उसे स्वाभाविक ही मानना धाहिए और इसके प्रमाण प्रत्रता से मिलते हैं कि अपनश और संधि युग में साहित्य-रचना अनेक अनेतर कवियों ने "इस प्रथ के संपादक श्री कस्तूरचंद कासलीवाल की कृपा से प्राप्त । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को है; उदाहरणार्थ 'प्राकृत 'पंगल' में उदाहरणों के रूप में संकलित अधिकतर छान जनेतर कवियों के प्रतीत होते हैं। हेमचन्द्र द्वारा उदाहस तथा जैन प्रबंधकारों द्वारा उस त+ छंदों में भी एक बड़ी संख्या जनतर कृतियों के छंदों की लगती है। बौद्ध सिद्धों को रचनाएं तो सर्व चिक्ति ही हैं। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि इन दोनों युगों का जनेतर साहित्य भी बहुत था और उसकी खोज अधिकाधिक को जानी चाहिए। कुछ पूर्व तक जैन भंडारों में प्रवेश प्रसंभव--सा था, किंतु अब अनेक भांडण ने अपने संग्रहों को दिखाने के लिए प्रवेश की व्यवस्था कर दी है। उधर उनके संग्रह को सूचीबद्ध करने का भी एक व्यवस्थित प्रायोजन अतिशग क्षेत्र भोमहावीरजी, अयपुर के शोध-विभाग द्वारा प्रारंभ हुआ है, जिसके अन्तत राजस्थान के जन भण्डारों को पोथियों के विवरण संकलित और प्रकाशित किए जा रहे हैं। इस खोज कार्य में अनेकानेक अपनया, संधिकालीन हिंदी तथा प्रादिकालीन हिंदी की रचनाओं का पता लगा है, जिससे हिंदी साहित्य के बहुत से परमोज्बल रत्न प्रकाश में आने लगे हैं। इन्हीं में से एक सबसे उज्वल और मूल्यवान रत्न सघाए, कृत प्रधान चरित है। इसकी रचना विभिन्न पात्रों के अनुसार सं० १३११, १४११ और १५११ में हुई है, किन्तु गणना के अनुसार सं० १४११ की लिथि ठीक प्रातो है, इसलिये वही इसकी वास्तविक रचना तिथि है। इस समय के बास-पास की निश्चित तिथियों की रचनाएनी-गिनी हैं, और जो हैं भी, इतने अधिक निश्चित रूप और पाठ को और भी कम है। प्राकार में यह रचना चउपई वंदों की एक सतसई है और काट्य दृष्टि से भी बड़े महत्व को है। इसलिये इस रचना की खोज से हिन्दी साहित्य के प्राधिकाल की निश्चित श्री दृद्धि हुई है। यह बड़े हर्ष की बात है कि श्री पं० चैनसुखवास न्यायतीर्थ तथा श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल शास्त्री द्वारा इसका सम्पादन करा कर प्रतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, जयपुर के शोध-विभाग ने इसके प्रकाशन की व्यवस्था की है। उसकी इस सेवा के लिये हिन्दी जगत को प्रतिशम क्षेत्र का आभार मानना चाहिए। श्री पं० चैनमुखवास तथा श्री कासलीवाल ने इसका सम्पादन छड़े ही परिश्रम और योग्यता के साथ किया है। उन्होंने इसकी सर्वोत्तम कृतियों का उपयोग सम्पादन में करते हुए उन सब के पाठान्तर विस्तारपूर्वक इस संस्करण में दिये हैं * सम्बाद-मन्द्रमोहन घोष, प्रकाशक-एशियाटिक सोसाइट बंगाल, कलकत्ता । + देखो, हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण, मेयतुङ्ग का प्रबन्ध चिन्तामशि तथा मुनिजिन विजय द्वारा सम्पादित-पुगतन प्रबन्ध संग्रह । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकी सहायता से इस रचना का पाठ निर्धारण पाठानुसंधान को आधुनिक प्रणाली पर भी करने में पर्याप्त सहायता मिलेगी फिर उन्होंने हिन्दी में अर्थ भी सम्पूर्ण रचना का दिया है। हिन्दी की प्राचीन कृतियों का सन्तोषजनक रूप से अर्थ लगाना एक अत्यन्त कठिन कार्य है. कारण यह है कि उसके लिये भाषश्यफ कोषों का अत्यन्त प्रभाव है। हिन्दी के सबसे बड़े और सब मूल्यवान कोष 'हिन्दी शब्द स.गर मे ऐसे ग्रन्थों का अर्थनिर्धारण में कोई सहायता नहीं मिलती। पुरानी हिन्दी का भाषात्मक अध्ययन भी अभी तक नहीं हुआ है, यह भी खेद का विषय है । ऐसी दशा में किसी भी पुरानो हिन्दी कृति का अर्थ देना स्वतः एक कष्ट साध्य कार्य हो जाता है । सम्पादकों ने रचना का यथासम्भव ठीक-ठीक अर्थ लगाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। उन्होंने रचना की समीक्षा भी विभिन्न दृष्टियों से उसकी भूमिका में को है। इससे सभी प्रकार के पाठकों को, रचना को और उसके महत्व को समझने में सहायता मिलेगी। अतः मैं सम्पादकों को इस सम्पावन के लिये हृदय से बधाई देता हूं। वे इस ग्रन्थमाला से अनेक नव-प्राप्त प्राचीन हिन्दी की रचनाओं का सम्पादन करना चाहते हैं। मेरी यही शुभकामना है कि वे अपने संकल्प को पूरा करने में सफल हों । .. इस संस्करण में पाठ-मिर्धारण के लिये वे आधुनिक पाठानुसन्धान की प्रणाली का मामय नहीं ले सके है अन्यथा पाठ कुछ और अधिक प्रामाणिक हो सकता था। प्राशा है कि वे इसके अगले संस्करण में इस प्रभाव की पूर्ति करेंगे । माताप्रसाद गुप्त प्रयाग ३१-४-५६. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गुम्न चरित का हमें सर्व प्रथम परिचय देने का श्रेय स्व० रायबहादुर sto हीरालाल को है, जिन्होंने 'सर्च रिपोर्ट' सन १६२३-२४ में इसका उल्लेख किया था। इसके पश्चात् श्री बाबू कामताप्रसाद अलीगंज ( एटा ) द्वारा लिखित "द्दिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास" नामक पुस्तक से इसका परिचय प्राप्त हुआ, किन्तु उन्होंने अपनी उक्त पुस्तक में इसका उल्लेख वीर सेवा मन्दिर देहली के मुखपत्र "अनेकान्त' में प्रकाशित एक सूचना के आधार पर किया था और इस सूचना में इसे गद्य की रचना बतलाया था। इसी पुस्तक के प्राक्कथन में डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने उसे गद्य ग्रन्थ मान कर शीघ्र प्रकाशित करने का अनुरोध किया था। श्री अगरचन्द नाइटा बीकानेर को जब उक्त पुस्तक पढ़ने को मिली तो उसे देखने पर उन्हें पता चला कि 'प्रद्युम्न-चरित' गव्य रचना न होकर पथ रचना है एवं उसका रचना संवत् १४९१ है । इसके बाद नादाजी का जयपुर से प्रकाशित 'वीरवाणी' पत्र के वर्ष १ अङ्क १०-११ (सन् १६.४५ ) में "सं० १६ का लिखित प्रद्युम्न चरित्र क्या गद्य में है ?" नामक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने प्रन्थ के सम्बन्ध में संक्षिप्त किन्तु वास्तविक परिचय दिया और लेख के अन्त में निम्नलिखित परिणाम निकाला : } "उपर्युक्त पत्रों से स्पष्ट है कि कवि का नाम रायरच्छ नहीं, पर साधारु या सुधारू था। वे अगरोह से उत्पन्न अग्रवाल जाति के शाह महराज ( महाराज नहीं ) एवं गुणवती के पुत्र थे । इनका निवास स्थान सम्भवतः रायरच्छ था । इसे ही सूची कर्ता ने रायरन्छ पढ़ कर इसे प्रन्थकर्ता का नाम बतला दिया है। नगवर सन्त पाठ अशुद्ध है सम्भवतः रव शब्द को आगे पीछे लिख दिया है। शुद्ध पाठ नगर बसन्त होना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण सूचना प्रति से रचना काल की मिली है। अभी तक सम्वत् १४११ की इतनी स्पष्ट रचना ज्ञात नहीं है इस हर्षो से इसका बड़ा महत्व है ।" इसके पश्चात् प्रद्युम्न चरित के महत्व को प्रकाश में लाने अथवा उसके प्रकाशन पर किसी का ध्यान नहीं गया। इधर हमारा राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की प्रन्थ सूचियां तैयार करने का पुनीत कार्य चल ही रहा था । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९५४ में जयपुर के बधीचन्दजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार की सूची बनाने के अवसर पर उसी भण्डार में हमें 'प्रय म्न-चरित' को भी एक प्रति प्राप्त हुई। जयपुर के उक भण्डार की ग्रन्थ सूची बनाने का काम जब पूरा हो गया तो इस पुस्तक के सम्पादक श्री कासलीवाल और श्री अनुपचन्द न्यायतीर्थ को भरतपुर प्रान्त के जैन अन्य भण्डारों को देखने के लिये जाना पड़ा और कामों ( भरतपुर ) के दोनों ही मन्दिरों के शास्त्र भण्डरों में 'प्रया म्न-चरित' की एक एक प्रति और भी उपलब्ध हो गई लेकिन जब इन दोनों प्रतियों को परस्पर में मिलाया गया नो पाठ भेद एवं प्रारम्भिक पाठ विभिन्नता के अतिरिक्त रचना काल में भी १८ वर्ष का अन्तर मिला। अग्रवाल पंचायती मन्दिर वाली प्रति में रचना सम्बत् १३११ दया हुआ है किन्तु यह प्रति अपूर्ण, फटी हुई एक नवीन है। भाषा की दृष्टि से भी वह नीन मालूम होती है । खंडेलवाल पंचायती मन्दिर वाली प्रति में रचना काल सम्बत् १४११ दिया हुआ है नथा वह प्राचीन भी है । इसी प्रति का हमने सम्पादन कार्य में 'क' प्रति के नाम से उपयोग कित्रा है। इसी बीच में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से रीवां में हिन्दी ग्रन्थों के शोध का कार्य प्रारम्भ किया गया और सभा के साहित्यान्वेषक को वहीं के दि. जैन मन्दिर में इस ग्रन्थ की एक प्रति प्राप्त हुई, जिसका संक्षिप्त परिचय 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' देहली में प्रकाशित हुआ। पर इस लेख से भी 'प्रद्य म्न-चरित' के सामान्य महत्व के अतिरिक्त कोई विशेष परिचय नहीं मिला। साहित्यान्वेपक महोदय ने लिखा है कि "इसके कर्ता गुण सागर ( जैन ) आगरा निवासी सम्बत १३११ में हुए थे" लेखक ने इस रचना को ७.१ वर्ष पहले की बताया । अन्ध का वही नाम देख कर हमने उसका आदि अन्त का पाठ भेजने के लिये श्री रघुनाथजी शास्त्री को लिखा । हमारे अनुरोध पर नागरी प्रचारिणी सभा ने रीवां वाली प्रति का आदि अन्त का पाठ भेजने की कृपा की। इसके कुछ दिन पश्चात् ही क्षेत्र के अनुसन्धान विभाग को देखने के लिये श्री नाइदाजी का आगमन हुआ और वे रीवा बाली प्रति का श्रादि अन्त का भाग अपने साथ ले गये । तदनंतर नाहटाजी का प्रा म्न-चरित पर एक विस्तृत एवं खोजपूर्ण लेख 'हिन्दी अनुशीलन' वर्प : अङ्क १-४ में 'सम्बत् १३११ में रचित प्रद्य म्न-चरित्र का कर्ता' शीर्षक प्रकाशित हुया । इसके बाद इस रचना को श्री महावीर क्षेत्र की ओर से प्रकाशित कराने का निश्चय किया गया। दो प्रतियां तो हमारे पास पहिले ही से थीं और दो प्रतियां श्री नाहटाजी द्वारा प्राप्त हो गई । नाइटाजी द्वारा प्राप्त इन। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो प्रतियों में से एक प्रति देहली के शास्त्र भएडार की है और दूसरी सिंधी ओरिन्टियल इन्स्टीट्य ट उज्जैन के संग्राहलय की है। इन चारों प्रतियों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है: (१) यह प्रति जयपुर के श्री बधीचन्दजी के दि० जैन मन्दिर के शास्त्र भण्डार की है। इस प्रति में ३४ पत्र हैं। पत्रों का आकार ११३ ४ ५६ इञ्च का है। इस प्रति का लेखन काल सम्बत १६०५ श्रासोज़ बुदी ३ मंगलबार है। प्रति प्राचीन एवं स्पष्ट है । इसमें पदों की संख्या ६८ है। इस संस्करण का मूलपाठ इसी प्रति से लिया गया है। लेकिन प्रकाशित संस्करण में पद्यों की संख्या ७८१ वी गई है। इसका मूल कारण यह है कि बस्तुबंध छद के साथ प्रयुक्त होने वाली प्रथम चौपई को भी लिपिकार अथवा कवि ने उसी पद्य में गिन लिया है इसी से पद्यों की संख्या कम हो गई। इस प्रति के अतिरिक्त अन्य सभी प्रतियों में बस्तुबंध के पश्चात प्रयुक्त होने वाली चौपई छंद को भिन्न छंद माना है तथा उसकी संख्या भी अलग ही लगाई गई है। प्रस्तुत पुस्तक में १७ वस्तुबंध छंदों का प्रयोग हुआ है इसलिये १७ चौपई तो वे बढ़ गई, शेष छंदों की संख्या लिल्लने में गल्ती होने के कारण बढ़ गई हैं, इसलिये इस संस्करण में ६८ के स्थान में ७.१ संख्या पाती है। कहीं कहीं चौपई छंद में ४ चरणों के स्थान पर ६ चरणों का भी प्रयोग हुअा है। (२) दूसरी प्रति ( 'क' प्रति ) यह प्रति कार्मा (भरतपुर) के खगडेलवाल जैन पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार की है जिसकी पत्र संख्या ३२ है तथा पत्रों का श्राकर १० x ४५ इन्च है । इसकी पद्य संख्या ७१६ है, लेकिन ७०० पद्य के पश्चात् लिपिकार ने ७८१ संख्या न लिख कर ५१० लिख दी है इसलिये इममें पद्यों की कुल संख्या वास्तव में ७५७ है । प्रति में लेखन काल यद्यपि नहीं दिया है, किन्तु यह प्रति भी प्राचीन जान पड़ती है और सम्भवतः १७ वीं शताब्दी या इससे भी पूर्व की लिखी हुई है। इस प्रति में २३ वें पत्र से २८ पत्र तक अर्थात् मध्य के ६ पत्र नहीं हैं। (३) तीसरी प्रति ( 'ख' प्रति ) यह प्रति देहली के सेठ के कूचे के जैन मन्दिर के भण्डार की है, जो वहां के साहित्य सेवी ला० पन्नालाल अग्रवाल को कृपा से नाइदाजी को प्राप्त हुई थी। यह प्रति एक गुटके में संग्रहीत है। गुटके में इस रचना के ७२ पत्र है । प्रनि की लिपि स्पष्ट तथा सुन्दर है। इस प्रति में पयों की संख्या Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ है जो मूल प्रति से १३ अधिक हैं। यह सम्पत् १६४८ जेठ सुदी १२ गुरुवार को हिसार नगर में घयालदास द्वारा लिखी गई थी। पांडे प्रहलाद ने इसकी प्रतिलि की थी । इसकी लेखक प्रशस्ति निम्न प्रकार है : संचन १६४८ वर्षे ज्येष्ठ शुत्रल पक्षे १२ द्वादश्यां गुरुवासरे श्री साहजहा राज्ये श्री हिसार नगर मध्ये लिखितं दयालदासेन लिखापितं पांडे पहिलाद । शुभमस्तु । (४) चौथी प्रति ( 'ग' प्रति) यह प्रति सिंधिया प्रोरिन्टियल इन्स्टीट्य ट उज्जैन के संग्रहालय की है। इम प्रति में ७१३ छंद है, । इसका लेखनकाल संवत् १६३५ आसोज बुदी ११ मादित्यचार है । इस प्रति को राजगच्छ के उपाध्याय विनन्यसुन्दर के प्रशिष्य एवं भक्तिरत्न के शिष्य नवरत्न ने अपने पढ़ने के लिये लिखा था। पाठ भेदों में इस प्रति को 'ग' प्रति कहा गया है। इसमें प्रारम्भ से ही चौबीस तीर्थकरों को नमस्कार किया गय! है जब कि अन्य तीन प्रतियों में में पद्य से (ख प्रति में बैं पद्य से) नमस्कार किया गया है | मंगलाचरण के प्रारम्भ के १२ पद्म निम्न प्रकार हैंरिषभ प्रजित संभौ जिनस्वामि, कम्मनि नासि भयो शिवगामी। अभिनंदनदेउ सुमति जगईस, तीनि बार तिन्ह नामउ सीस ॥ १॥ पद्मप्रभ सुपास जिणदेव, इन्द फनिंद करहिं तुम्ह सेव । चन्द्रप्रभ पाठमउ जिणिद, चिन्ह धुजा सोहइ वर चन्दु ।। २ ।। नत्रमउ सुविधि नवहु भवितासु, सिद्ध सरुपु मुकति भयो भासु । सीतल नाथ श्रेयांस जिणंदु, जिण पुजत भवो होइ आनंद ॥ ३ ।। वासपूज्य जिरणधर्म सुजाण, भवियरण कमल देव तुम्ह भाणु । चक्र भवनु साई संसारु, स्वर नरकउ सु उलंघरण हारु ॥४॥ विमलनाथ जउ निर्मलबुधि, तजि भउ पार लही सिव सिद्धि । सो जिण अनंतु बारंबार, अष्ट कर्म तिणि कीन्हे छार ॥ ५॥ जउ रे धर्म धम्मधुरवीर, पंच सुमति बर साहस धीर । जैरे सति तजी जिणि रीस, भवीयण संति करउ जगईस ॥ ६॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंथु परह चपकवइ नरिद, निर्जर कर्म भयो सिव इन्द । जोति सरुपु निरंजण कारु, गजपुर नयरी लेवि अवतारु । ७ ॥ मल्लिनाथ पंचेन्द्री मल्ल, चउरासो लक्ष कियो निसल्ल । जउरे मुनिसुन्नत मुनि इंद, मन मर्दन वीसवे जिनंद ॥ ८ ॥ जउरे नामि गुण ग्यांन गंभीर, तीन गुपति बर साहसघोर । निलोपल लंछन जिनराज, भवियण वहु परिसारइ काज !! ६ ॥ सोरीपुरि उपनउ वरवीरु, जादव कुल मंडण गंभीरु । जाउरे जिगवर नेमि जिणंद, रतिपति राइ जिरग पूनिमचंदु ॥१०॥ आससेन नृप नंदनवीर, दृष्ट विधन संतोषग धीर । जाउरे जिरावर पास जिद, सिरफन छत्र दीयो धरणिद ॥११॥ मेर सिखर पूरव दिसि जाइ, इन्द्र सुर त्रिभुवन राई । कंचन कलस भरे जल क्षीर, ढालहि सीस जिणेसर वोर ॥१२॥ उक्त ४ प्रतियों के अतिरितः जब नवम्बर सन् ५८ के प्रथम सप्ताह में श्री नाइटानी जयपुर आये तो उन्होंने 'प्रद्युम्न-चरित' की एक और प्रति का जिक्र किया और उसे हमारे पास भेज दिया। यद्यपि इस प्रति का पाठ भेद आदि में अधिक उपयोग नहीं किया जा सका, किन्तु फिर भी कुछ सन्देहास्पद पाठ इस प्रति से स्पष्ट हो गये। यह प्रति भी प्राचीन है तथा संवत् १६६६ भावण बुदी । श्रादित्यवार को लिखी हुई है । प्रति में २७ पत्र हैं तथा उनका १०३ ४४३ इञ्च का आकार है। इसमें पद्य संख्या ८१ है। इस प्रति की विशेषता यह है कि इसमें रचना काल सम्बत् १३११ भादवा सुदी५ दिया हुआ है। इसके अतिरिक्त मूल प्रति के प्रारम्भ में जो विस्तृत स्तुति खण्ड है वह इस प्रति में नहीं है। प्रति के प्रारम्भ में ६ पद्य निम्न प्रकार है। अठदल कमल सरोवरि वासु, कासमीरि पुरिय उ निबासु । हंसि चडी करि वीणा लेइ, कवि सधारु सरस पणवेइ ॥१॥ पणमावती दंडु करि लेइ, ज्वालामुखी चक्केसरि देइ । अंबाइरिए रोहण जो सारु, सासरण देवि नवइ साधारु ॥२॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वेत वस्त्र पदमासरिग लीग, करहिं पालवरिण बाजहि वीण। आगमु जागि देइ बहुमती, पुणु परणवौं देवी सुरस्वती ॥ ३ ॥ जिण सासगा जो विघन हरेइ, हाथि लकुटि ले भागे होइ । भवियह दुरिय हरई असरालु, आगिवाणि परणवउ खितपालु ॥ ४ ॥ संवत् तेरहसइ होइ गए, ऊपरि अधिक एयारह भए । भादव सुदि पंचमि जो सारु, स्वाति नक्षत्रु सनीश्चरु बार ॥ ५ ॥ बस्तुबंध: - णविवि जिणघर सुद्ध सुपवित्तु नेमीसरू गुणनिलउ, स्याम वर्गु सिवएवि नंदणु । चउतीसह अइराइ सहिउ, कमकणी घरण मारण मद्दगु । हरिवंसह कुल तिलउ, निजिय नाह भवरणासु । सासइ सुह पावहं हरण, केवलणारण पसु ? ॥ ६॥ विभिन्न भाषाओं में प्रद्य म्न के जीवन से सम्बन्धित रचनायें: __ प्रद्य म्न कुमार जैनों के १६६ पुण्य पुरुषों में से एक हैं। इनकी गणना चौबीस कामदेवों ( अतिशय रूपवान ) में की गई है। यह नत्र में नारायणा श्री कृष्ण के पुत्र थे ! यह चरमशरीरी ( उसी जन्म से मोक्ष जाने वाले ) थे। इनका चरित्र अनेक विशेषताओं को लिये हुए होने के कारण आकर्षणों से भरा पड़ा है । मनुष्य का उत्थान और पतन एवं मानव-वृदय की निर्वलताओं का चित्रण इस चरित्र में बहुत ही खूबी से हुआ है और यही कारण है कि जैन बाडमय में प्रा म्न के चरित्र का महत्वपूर्ण स्थान है । न केवल पुराणों में ही प्रसंगानुसार प्रद्युम्न का चरित्र आया है अपितु अनेक कवियों ने स्वतन्त्र रूप से भी इसे अपनी रचना का विषय बनाया है। प्रद्युम्न का जीवन चरित्र सर्व प्रथम जिनसेनाचार्य कृत 'हरिवंश पुराण' के ४७ चे सर्ग के २० ३ पदा से ४८ वें सर्ग के ३१ वें पद्य तक मिलता है । फिर गुणभद्र के उत्तर पुराण में, स्वयम्भू कृत रिटुणेमिचरिउ (८वीं शताम्दी ) में, पुष्पदन्त के महापुराण ( ६-१० वीं शताब्दी ) में तथा धवल . के क्रियंश पुराण ( १० वीं शताब्दी ) में बद्द प्राप्त होता है। इन रचनाओं Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ } ( ११ ) में से प्रथम दो संस्कृत एवं शेष अपभ्रंश भाषा की हैं। उक्त पुरार्शो के अतिरिक्त संस्कृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी में प्रद्युम्न के जीवन से सम्बन्धित जो स्वतन्त्र रचनायें मिलती है उनके नाम निम्न प्रकार हैं : : कर्ता का नाम महासेनाचार्य सिंह अथवा सिद्ध कवि सधारु भः सकलकीर्ति क्र० सं० रचना का नाम १. प्रद्युम्नचरित्र २. पज्जुष्ण कहा प्रद्य ुम ३. म्नचरित ४. प्रद्युम्नचरित्र ५. प्रयुम्नचरित्र ६. प्रद्युम्नचरित्र ७. प्रद्युम्न चोपई ८. प्रद्युम्नरासो ६. प्रद्युम्नचरित्र १०. शास्त्रप्रद्युम्न राख ११. प्रश्च ग्नचरित्र १२. प्रद्युम्नचरित्र १३. प्रद्य म्नचरित्र १४. प्रयम्नचरित्र G · १५. शाम्बमय् म्त रास १६. शाम्बयन चौपई १७. प्रधुम्नचरित्र १८. प्रद्युम्नचरित्र १६. प्रद्युम्नचरित्र २०. प्रद्युम्नचरित्र भाषा २१. प्रद्युम्नप्रबन्ध २२. प्रद्य ुम जरास २३. शाम्बप्रधुम्न रास २४, प्रद्युम्नप्रकाश २५. प्रद्युम्नचरित रइथू सोमकीर्ति कमलकेशर ब्रह्मरायमल्ल रविसागर समयसुन्दर शुभचन्द्र रतनचन्द्र मल्लिभूषण वादिचन्द्र ज्ञानसागर जिनचन्द्र सूरि भोगकीर्ति जिनेश्वर सूरि यशोधर देबेन्द्र कीर्ति मात्राराम हर्पविजय शिवचन्द बस्तावरसिंह भाषा संस्कृत अपभ्रंश हिन्दी संस्कृत अपभ्रंश संस्कृत हिन्दी हिन्दी संस्कृत संस्कृत संस्कृत स० [१६२८ सं० १६४५ राजस्थानी सं० १६५६ संस्कृत संस्कृत हिन्दी हिन्दी संस्कृत रचना काल ११वीं शताब्दी १३वीं शताब्दी संस्कृत संस्कृत हिन्दी गद्य सं० १४११ १४वीं शताब्दी १५वीं शताब्दी सं० १५३० सन १६२६ १७वीं शताब्दी सं० १६७१ १वीं शताब्दी १७वीं शताब्दी १वीं शताब्दी १०वीं शताब्दी हिन्दी सं० १७२२ हिन्दी सं० १८१५ हिन्दी सं० १८४२ हिन्दी सं० १८७६ हिन्दी गद्य सं० १६१४ उक्त रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि स्वतन्त्र रूप से महासेनाचार्य ( ११ वीं शताब्दी) के संस्कृत 'पद्युम्न चरित्र' एवं सिंह कवि के अपभ्रंश पज्जुए कहा ( १३ वीं शताब्दी) के पश्चात् हिन्दी में Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व प्रथम रचना करने का श्रेय कवि सचारु को है । इसी रचना के पश्चात् संस्कृत और हिन्दी में प्रा म्न के जीवन पर २३ रचनायें लिखी गई । इससे विद्वानों एवं कवियों के लिये प्रा म्न का जीवन चरित्र कितना प्रिय था, इसका स्पष्ट पता लगता है। प्रद्युम्न चरित की कथा द्वारका नगरी के स्वामी उन दिनों यादव-कुल-शिरोमणि श्री कृष्णजी थे। सत्यभामा उनको पटराती थी। एक दिन उनकी सभा में नारद ऋषि का प्रागमन हो गया। करण ने बना : सलार का जपने सभा भवन से उन्हें विदा कर दिया, पर जब वे सत्यभामा का कुशल-क्षेम पूछने उसके महल में गये तो उसने उनका कोई सम्मान नहीं किया। इससे ऋषि को बड़ा कोध पाया और अपमान का बदला लेने की ठान ली। वे सत्यभामा से भी सुन्दर किसी स्त्री का कृष्णाजी के साथ विवाह करने की सोचने लगे। बहुत खोज करने पर उन्हें सक्मिणी मिली, किन्तु उसका विवाह शिशुपाल से होना तय हो चुका था। नारद ने वहां से लौट कर श्रीकृष्णाजी से रुक्मिणी के । सौन्दर्य की खूब प्रशंसा की और अन्त में उसके साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा । श्री कृपए बड़े खुश हुए। उन्होंने बलराम को साथ लेकर छलपूर्वक रुक्मिणी का हरण कर लिया। रथ में बिठाने के पश्चात् उन्होंने रुक्मिणी को छुड़ाने के लिये सभी प्रतिपक्षी योद्धाओं को ललकारा । शिशुपाल सेना लेकर श्रीकृष्ण से लड़ने आ गया। दोनों में घमासान युद्ध हुषा । अन्त में शिशुपाल मारा गया और श्रीकृष्ण रुक्मिणी को लेकर द्वारका की ओर चले । मार्ग में विवाह सम्पन्न कर श्रीकृष्ण द्वारका पहुँच गये। नगर में खूब उत्सव मनाये गये । रुक्मिणी के विवाद के बाद बहुत समय तक श्री कृष्णजी ने सत्यमामा की कोई खबर न ली। इससे सत्यभामा को बड़ा दुःख हुआ। सत्यभामा के निवेदन करने पर श्री कृष्ण जी ने उसकी रुक्मिणी से भेंट कराई। सत्यभामा और रुक्मिागी ने बलराम के सामने प्रतिज्ञा की कि जिसके पहिले पुत्र होगा वह पीछे होने वाले पुत्र की माता के वालों का अपने पुत्र के विवाह के समय मुण्डन करा देगी | दोनों रानियों के एक ही दिन पुत्र उत्पन्न हुए। दोनों के दूतों में जब यह सन्देश श्रीकृष्ण को जाकर कहा तब रुक्मिणी के पुत्र प्रदाम्न को बड़ा पुत्र माना गया किन्तु उसको जन्म लेने की ६ठी रात्रि को ही धूमकेतु नाम असुर हरण कर लेगया और पूर्व मंत्र के बैर के कारण उसे वन में एक शिला के नोचे दबा कर चला गया। उसी समय विद्याधरों का राजा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसंपर अपनी प्रिया कञ्चनमाला के साथ विमान द्वारा उधर से जारहा था। उसने पृथ्वी पर पड़ी हुई भारी शिला को हिलते देखा। शिला को उठाने पर ससे उसके नीच एक अत्यधिक सुन्दर बालक दिखाई दिया । तुरन्त ही उसने उस सुन्दर बालक को उठा लिया और अपनी स्त्री को दे दिया। कालसंवर ने नगर में पहुँचने के बाद उस बालक को अपना पुद्र घोषित कर दिया । उधर रुक्मिणी पुत्र वियोगाग्नि में जलने लगी। उसी समय नारद ऋषि का यहां वागमन हुआ। जब उन्होंने प्रश्न म्न के अमामात गायब होने के समाचार सुने तो उन्हें भी दुख हुआ । रुक्मिणी को धैर्य बंधाते हुए नारद ऋषि प्रद्युम्न का पता लगाने विदेह क्षेत्र में केवली भगवान् के समवसरण में गये । वहां से पता लगाकर बझक्मिणी के पास आये और कहा कि १६ यर्प बाद प्रद्य म्न स्वयं सानन्द घर आ जायेगा। कालमवर के यहां प्रद्म म्न का लालन पालन होने लगा। पांच वर्ष की श्रायु में ही उसे विद्याध्ययन एवं शस्त्रादि चलाने की शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा गया। थोड़े ही समय में वह सर्व विद्याओं में प्रवीण हो गया । कालसंबर के प्रद्य म्न के अतिरिक्त ५०० और पुत्र थे। राजा कालसंबर का एक शत्रु था राजा सिंहरथ जो उसे आये दिन तंग किया करता था। उसने अपने ५०० पुत्रों के सामने उस सिंहरथ राजा को मार कर लाने का प्रस्ताव रखा पर किसी पुत्र ने कालसंबर के इस प्रस्ताव को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं की । केवल प्रद्युम्न ने इसे स्वीकार किया और एक बड़ी सेना लेकर सिंहरथ पर चढ़ाई करदो। पहिले तो राजा सिंहरथ प्रयुम्न को बालक समझ कर लड़ने से इन्कार करता रहा, पर बार बार प्रा म्न के ललकारने पर लड़ने को तैयार हुआ । दोनों में घोर युद्ध हुआ और अन्त में विजयश्री प्रद्युम्न को मिली । वह राजा सिंहस्थ को बांध कर अपने पिता कालसंबर के सामने ले आया । कालसंवर अपने शत्रु को अपने अधीन देखकर प्रद्य म्न से बड़ा खुश हुआ और उसे युवराज पद दिया एवं इस प्रकार उन ५०० पुत्रों का प्रधान बना दिया। इस प्रतिकूल व्यवहार के कारण सब कुमार प्रदान से द्वेष करने लगे एवं उसे मारने का उपाय सोचने लगे । उन सब कुमारों ने प्रद्युम्न को बुलाया और उसे धन क्रीड़ा के बहाने बन में ले गये। अपने भाइयों के कहने से प्रद्युम्न जिन मन्दिरों के दर्शनार्थ सर्व प्रथम विजयगिरि पर्वत पर चढ़ा, पर वहां उसने मुकार करता हुआ एक भयंकर सर्प देखा । प्रद्युम्न तुरन्त ही उस दरावने सपं से भिड़ गया तथा उसकी पूछ पकड़ कर उसे जमीन पर दे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारा इसे देखकर वह सर्प यस रूप में प्रश्न के सामने प्राकर खड़ा हो गया और शेर प्रद्युम्न को प्रसन्न होकर १६ विद्यायें दी। फिर प्रय म्न दूसरी काल गुफा में गया। वहां के रक्षक कालासुर दैत्य को हरा कर वहां से चंवर छत्र प्राप्त किया। तीसरी गुफा में जाने पर उसे एक भयावह नाग से लड़ना पड़ा। किन्तु उस नाग ने भी हार मानली एवं भेंट स्वरूप नागशय्या, पाबड़ी, वीणा और अन्य तीन विद्यायें दी । जब प्रद्युम्न उन कुमारों के साथ एक सगेवर के पास पहुंचा तो उन्होंने उसे स्नान करने को कहा । पहिले तो उस सरोवर के रक्षक प्रद्युम्न को सरोवर में प्रवेश करते देख कर बड़े ऋद्ध हुए पर अन्त में मलवान जानकर मकर पताका प्रदान की। इस प्रकार प्रहा म्न जहां भी गये वहां से ही उन्हें अच्छी २ भेटें मिलती रहीं इतना ही नहीं, एक वन में उन्हें एक रती नामकी सुन्दर कन्या भी मिली, जिससे उनने विवाह कर लिया। इस प्रकार जब वह अनेक विद्याओं का लाम लेकर कालसंबर के पास वाया तब वह उस पर पड़ा सुर: हुमः ! इस मासर माह अपनी माता कम्बनमाला से भी मिलने गया। उस समय वह प्रद्युम्न के रूप और सौंदर्य को देखकर उस पर मुग्ध हो गई और उसमें प्रेम-याचना करने लगी । प्रशम्न को इससे बड़ी ग्लानि हुई और वह जैसे तैसे अपना पीछा छुड़ाकर अपना कर्तव्य निश्चित करने के लिए वन में किसी मुनि के पास गया और उनका पध प्रदर्शन चाहा। प्रशम्न ने अपनी चतुरता से कञ्चनमाला से तीन विद्या ले ली। कञ्चनमाला ने अपनी इच्छा पूरी न होने एवं तीनों विद्याओं के लिन जाने पर स्त्री चरित्र फैलाया और प्रयन्न पर दोपारोपण किया। उसने अपना अङ्ग प्रत्यङ्ग विकृत कर लिया। कालसंबर यह सब जानकर बड़ा दुखी और क्रोधित हुना। उसने अपने ५० पुत्रों को बुलाकर प्रद्युम्न को मारने के लिए कहा । कुमार पिता की बात सुन कर बड़े खुश हुए 1 ये प्रद्युम्न को बुला कर वन में ले गये किन्तु उसे पालोकिणी विद्या द्वारा अपने भाइयों के इरादे का पता लग गया और उसे यड़ा क्रोध पाया । उसने सभी कुमारों को नागपाश से बांधकर एक शिला के नीचे दवा दिया । कालसंवर यह वृत्तान्त जानकर बड़ा कुपित हुआ। वह एक बड़ी सेना लेकर प्रश्न म्न से लड़ने चना | प्रद्युम्न ने भी विद्याओं के द्वारा मायामयी सेना एकत्रित करदी। दोनों ओर से भीषण युद्ध हुभा । प्रद्युम्न के आगे कालसंवर नहीं ठहर सका। तब कालसंबर अपनी प्रिया कञ्चनमाला के पास तीनों विद्यायें लेने के लिए दौड़ा किन्तु जब उसे यह ज्ञात हुआ कि प्रद्युम्न पहिले से ही विद्यामों को छल कर ले गया है तो उसे कञ्चनमाला के सारे भेद का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) 1 पता लग गया। फिर भी कालसंगर प्रद्युम्न से युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा इतने में ही नारद ऋषि महां आगये । उन्होंने जो कुछ कहा उससे सारी स्थिति बदल गई और युद्ध बन्द हो गया। इससे कालसंवर को बड़ी प्रसन्नता हुई और प्रद्युम्न ने भी सब कुमारों को बन्धन मुक्त कर दिया | फालसंबर से आज्ञा लेकर प्रद्युम्न ने नारद ऋषि के साथ द्वारका नगरी के लिए विमान द्वारा प्रस्थान किया। मार्ग में हस्तिनापुर पड़ा । दुर्योधन की कन्या उदधि कुमारी का सत्यभामा के पुत्र भानुकुमार के साथ विवाह होने के लिए अभिषेक हो रहा था। नारद द्वारा यह जानकर कि उदधि कुमारी प्रद्युम्न की मांग है वह भील का भेष धारण कर उन लोगों में मिल गया और उदधि कुमारी को बलपूर्वक छीन कर ले गया । प्रद्युम्न उस कन्या को विमान में बैठा कर द्वारका की ओर चल पड़ा। द्वारका पहुंच कर नारद ने वहां के विभिन्न महलों का उसे परिचय दिया । जब चतुरंगिणी सेना के साथ आते हुए भानुकुमार को देखा तब प्रद्युम्न विमान से उतरा और उसने एक बूढ़े चित्र का भेष बना लिया। एक मायामय चंचल घोड़ा ने साथ ले लिया। घो को भएका मन ललचाया। उसने विप्र से उसका मूल्य पूछा। विप्र ने घोड़े का इतना मूल्य मांगा जो भानु को उचित नहीं लगा । भानुकुमार विप्र के कहने पर बोड़े पर चढ़ा और घोड़े को न संभाल सकने के कारण गिर पड़ा जिसे देखकर सारे लोग हंसने लगे। जब बलदेवजी ने विप्र भेषधारी प्रद्युम्न से ही घोड़े पर चढ़ने को कहा तो वह बहुत भारी बन गया और घोड़े पर चढ़ाने के लिए प्रार्थना करने लगा । दस बीस योद्धा भी उसे उठाकर घोड़े पर न चढ़ा सके तो भानुकुमार स्वयं उसे उठाने आगे आया । तत्र बद्द भानु के गले पर पैर रखकर चढ़ गया और आकाश में उड़ गया । : पुनः प्रद्युम्न ने अपना रूप बदलकर दो मायामय घोड़े बनाये । उन मायामय घोड़ों को उसने राजा के उद्यान में छोड़ दिया। घोड़ों ने राजा के सारे बधान को चौपट कर दिया। इसके पश्चात् उसने दो बन्दर उत्पन्न किये जिन्होंने सत्यभामा की बाड़ों को न भ्रष्ट कर दिया। जब भानुकुमार बाड़ी मैं आया तो मायामय मच्छर उत्पन्न कर उसे बाड़ी से भगा दिया। इतने में ही प्रद्युम्न को मार्ग में आती हुई कुछ स्त्रियां मिलीं, जो मंगल गीत गा रही थीं । उनको भी उसने रथ में घोड़े और ऊंट जोड़ कर रास्ते में गिरा दिया । इसके बाद वह एक ब्राह्मण का रूप धारण कर लाठी टेकता हुआ सत्यभामा की बावड़ी पर गया और कमंडलु में जल मांगने लगा । पानी भरने से मना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) करने पर वह बड़ा कोषित हुआ । उसमें बावड़ी की वाकर के केश मूंढ लिये । जल सोखिमी विद्या द्वारा उसने बावड़ी सुखा दिया तथा कर्म में भर लिया और फिर नगर के कमंडलु के पानी को उडेल दिया जिससे सारे बाजार में हो गया । लु पाक्षियों का सारा पानी चौराहे पर उस पानी ही पानी इसके पश्चात् प्रद्युम्न मायासत्र मेंढा बना कर वसुदेव के महल परं पहुँचा । बसुदेव मेंढे से लड़ने लगे। वे मेंढे से लड़ने के शौकीन थे। मैंढे नेत्रसुदेव की टांग तोड़ कर उन्हें भूमि पर गिरा दिया। फिर प्रम्न वहां से सत्यभामा के महल पर जाकर भोजन - भोजन जिल्लाने लगा । सत्यभामा ने उसे आदर से भोजन कराया, पर उस भेषधारी ब्राह्मण ने सत्यभामा का जितना भी सामान जीमन के लिये लिया था सभी चट कर दिया और फिर भी भूखा ही बना रहा। इसके पश्चात् उसने एक और कौतुक किया कि जो कुछ उसने खाया था वह सब वमन कर उसका आंगन भर दिया। इससे सत्यभामा बड़ी दुखी एवं तिरस्कृत हुई । इसके बाद यह ब्रह्मचारी का भेष धारण कर अपनी माता रुक्मिणी के मद्दल में गया। रुक्मिणी अपने पुत्र के आगमन की प्रतीक्षा में थी क्योंकि केवली कथित उसके आने के सभी चिह्न दिखाई दे रहे थे। इतने में ही उसने एक ब्रह्मचारी को आता हुआ देखा । रुत्रिमरशी ने उसे सत्कारपूर्वक असत दिया । वह ब्रह्मचारी बड़ा भूखा था, भोजन की याचना करने लगा। प्रश् न की माया से रुत्रिसरणी को घर में कुछ भी भोजन नहीं मिला तो उसने नारायण के खा सकने योग्य लड्डु उस ब्रह्मचारी को परोस दिये। उन श्रत्यन्त गरिष्ठ सारे लड्डुओं को उसे खाते देख कर रुक्मिणी को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसकी बातचीत से उसको सन्देह हुआ कि सम्भवतः वही उसका पुत्र हो । जब सचाई जानने के लिए माता बहुत बेचैन हो गई तब अकस्मात् प्रयुम्न अपने असली सुन्दर रूप में प्रकट हो गया और उसे देख कर माता की प्रसन्नता का पार न रहा | सत्यभामा की दासियां जब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार रुक्मिणी के केश लेने आई तो प्रयम्न ने उन्हें भी विकृत कर दिया। इस समाचार को सुन कर बलभद्र बड़े कुपित हुए और रुक्मिणी के पास आये । प्रथम्न त्रिकिया से अपना स्थूलकाय ब्राह्मण का रूप बना कर महल के द्वार के आगे लेट गया । बलभद्र ने बड़ी कठिनता से उसे हटा कर महल में प्रवेश किया, इतने में ही प्रद्युम्न ने सिंह रूप धारण किया और बलभद्र का पैर पकड़ कर पर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) खादे में डाल दिया। फिर उनने माता को उस विमान में ले जाकर बैठा दिया जहां नारद और उदधि कुमारी बैठे थे । इसके पश्चात् प्रद्युम्न ने मायामयी रुक्मिणी की बांह पकड़ कर उसे श्रीकृष्ण की सभा के आगे से ले जाते हुए ललकारा कि यदि किसी वीर में सामर्थ्य हो तो वह श्रीकृष्ण की रानी रुक्मिणी को छुड़ा कर ले जावे। फिर क्या था, सभा में बड़ी खलत्रली मच गई और शीघ्र ही युद्ध की तैयारी होने लगी। श्रीकृष्ण अपने अनेक योद्धाओं को साथ लेकर रणभूमि में या हटे किन्तु प्रयुम्न ने सभी योद्धाओं को मायामय नींद में सुला दिया। इससे श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुए और प्रद्युम्न को ललकार कर कहने लगे कि वह मणी को पस लौटा कर ही अपने प्राणों की रक्षा कर सकेगा । किन्तु ष कब मानने वाला था । श्रखिर दोनों में युद्ध होने लगा । श्रीकृष्ण जी जो भी वार करते उसे प्रद्युम्न अविलम्ब काट देता। इस तरह दोनों बोरों में भयंकर लड़ाई हुई जब श्री कृष्ण कुपित होकर निर्णायक युद्ध करने को तैयार होने लगे तो नारद वहां आ गये और दोनों का परस्पर में परिचय करवाया । प्रद्युम्न श्रीवृपण के पैरों में गिर गया और श्रीकृष्ण ने आनन्द 'विभोर होकर उसका सनम लिया। प्रयन ने अपनी मोहिनी माया को "समेटा और सारी सेना उठ खड़ी हुई। घर घर तोरण द्वार बांधे गये तथा सौभाग्यवती स्त्रियों ने मंगल कलश स्थापित कर नगर प्रवेश पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया। इस तरह यह कार्यक्रम बड़ी धूम-धाम से मनाया गया। फिर प्रयम्न का राज्याभिषेक का महोत्सव हुआ, तब कालसंबर और कंचनमाला को भी बुलाया गया। इसके पश्चात् प्रयुन्न का विवाह बड़े ठाठ चाट से किया गया। सत्यभामा ने अरने पुत्र भानुकुमार का विवाह भी सम्पन्न किया। वे सत्र बहुत दिनों तक सुखपूर्वक जीवन की सुविधाओं का उपभोग करते रहे । 10 + कुछ समय पश्चात शंबुकुमार का जीव अच्युत स्वर्ग से श्री कृष्ण की सभा में आया और एक अनुपम हार देकर उनसे कहने लगा कि जिस रानी को आप यह हार देंगे उसी को कूख से उसका जन्म होगा। श्रीकृष्ण यह हार सत्यभामा को देना चाहते थे, किन्तु प्रद्युम्न ने अपनी विद्या के बल से जामवन्ती का रूप सत्यभामा का सा बना कर श्री कृष्ण को धोखे में डाल दिया और वह हार उसके गले में डलवा दिया। इसके बाद जामवन्ती और सत्यभामा दोनों के क्रमशः शंबुकुमार और सुभानुकुमार नाम के पुत्र हुए । दोनों साथ साथ हो वृद्धि को प्राप्त हुए। जब वे बड़े हुए तो एक दिन दोनों Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २० ) कमारों ने जुआ खेला और शंबुकुमार ने सुभानुकुमार की सारी सम्पत्ति जीत ली। - अब समयानुसार सुभानुकुमार का विवाह हो गया तो रुक्मिणी ने अपने भाई रूपचन्द के पास कुण्डलपुर प्रा म्न एवं शंबुकुमार को अपनी कन्या देने के लिये दूत भेजा, किन्तु रूपचन्द ने प्रस्ताव स्वीकार करने के स्थान पर दूत को बुरा भला कहा और यादव वंश के साथ कभी सम्बन्ध न करने की प्रतिज्ञा प्रकट की । रुक्मिणी यह जान कर बहुत दुग्नी हुई । प्रद्युम्न को भी बड़ा क्रोध अायो । प्रद्य म्न भेष बदल कर कुण्डलपुर गया तथा युद्ध में रूपचन्द को हरा कर उसे श्री कृष्ण के पैरों पर लाकर डाल दिया । अन्त में दोनों में मेल हो गया और रूपचन्द ने अपनी पुत्रियां दोनों कुमारों को मेंट कर दी। ____ प्रद्युम्न कुमार ने बहुत वर्षों तक सांसारिक सुखों को भोगा । एक दिन वह नेमिनाथ भगवान के समवसरण में पहुँचा। वहां केवली के मुख से द्वारका और यादवों के विनाश का भविष्य सुना तो उसे संसार एक भोगों से विरक्ति हो गई। माता-पिता के बहुत समझाने पर भी उसने न माना और जिन दीक्षा ले ली। तपश्चरण कर प्रद्य म्न ने घातिया कर्मों को नाश किया और केवल ज्ञान प्राप्त कर आयु के अन्त में सिद्ध पद को प्राप्त किया। प्रद्युम्न चरित की कथा का आधार एवं उसके विभिन्न रूपः जैन चरित काव्यों एवं कथाओं के मुख्यत: दो आधार है-एक महापुराण तथा दूसरा हरिवंश पुराण । आगे चल कर इन्हीं दो पुराणों की धारायें विभिन्न रूपों में प्रवाहित हुई है। प्रद्य म्न चरित की कथा जिनसेनाचार्य कृत हरिवंश पुराण से ली गई है। यद्यपि कवि ने अपनी रचना में इसका कोई उल्लेख नहीं किया है, किन्तु जो कथा प्रद्युम्न के जीवन के संबंध में हरिवश पुराण में दी हुई है । उसी से मिलता जुलता वर्णन प्रद्युम्न चरत में मिलता है। दोनों कथाओं में केवल एक ही स्थान पर उल्लेखनीय विरोध है। हरिवंश पुराण में सक्मिणी पत्र भेज कर श्रीकृष्ण को अपने वरण के लिये बुलाती है जबकि प्रद्युम्न चरित में नारद के अनुरोध पर श्रीकृष्ण विवाह के लिये जाते हैं। गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराण ( महापुराण का उत्तरार्द्ध ) में प्रद्य म्न चरित की कथा संक्षेप रूप में दी गई है, इसलिये उसमें नारद का श्रीकृष्ण Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) की सभा में आगमन, सत्यभामा द्वारा नारद को सम्मान न देना, नारद द्वारा सत्यभामा का मानमर्दन करने का संकल्प, श्री कृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण एवं शिशुपाल वध, प्रद्युम्न का मुनि के पास जाना आदि घटनाओं का कोई 'उल्लेख नहीं है। प्रद्युम्न चरित में कंचनमाला द्वारा प्रद्युम्न को तीन विद्यार्थी का देना लिखा है जबकि उत्तरपुराण के अनुसार प्रम्न ने इससे प्रज्ञप्ति नाम की विद्या लेकर उनकी सिद्धि की थी । ● महाकवि सिंह द्वारा रचित अपभ्रंश भाषा के काव्य पज्जुक ( १३ वीं शताब्दी) और प्रस्तुत प्रद्यम्न चरित की कथा में भी साम्य है । केवल पज्जुका में प्रत्येक घटना का विस्तृत वर्णन करने के साथ-साथ प्रम्यन के पूर्वभवों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है जबकि प्रम्न चरित में इनका केवल नामोल्लेख है। इसके अतिरिक्त 'पज्जुहा की कथा श्रे शिकराजा द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर गौतम गणधर द्वारा कहलाई गई है किन्तु सधारु कवि ने मंगलाचरण के पश्चात् ही कथा का प्रारम्भ कर दिया है । महासेनाचार्य कृत संस्कृत प्रद्युम्न चरित ११ श्रीं शताब्दी की रचना है। रचना १४ सर्गों में विभाजित हैं I पज्जुशाकमा की तरह घटनाओं का इसमें भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है इसमें और प्रद्युम्न चरित्र की कथा में पूर्णतः साम्य है । इसी प्रकार हेमचन्द्राचार्य कृत 'त्रिषशिला कापुरुपचरित' में प्रद्युम्न के जीवन की जो कथा दी गई हैं उसमें और सारु कवि द्वारा वर्णित कथा में भी प्रायः समानता है । प्रधुम्न का जीवन जैन साहित्यकों के लिये हो नहीं किन्तु जैनेतर साहित्यिकों के लिये भी आकर्षण की वस्तु रहा है। विष्णु पुराण के पंचम अंश के २६ वें तथा २ वें अध्याय में रुक्मिणी एवं प्रद्युम्न की जो कथा दी हुई है, वह निम्न प्रकार है। :― रुक्मिणी कुण्डिनपुर नगर के भीष्मक राजा की कन्या थी। श्री कृष्ण ने रुक्मिणी के साथ और रुक्मिणी ने कृष्ण के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की, किन्तु भीष्मक ने शिशुपाल को रुक्मिणी देने का निश्चय कर लिया। इस कारण विवाह के एक दिन पूर्व ही श्री कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया और इसके बाद उसके साथ उसका विधिवत् विवाह सम्पन्न ॐ आमेर शास्त्र भण्डार जयपुर में इसकी हस्तलिखित प्रति सुरक्षित है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ । काल क्रम से रुक्मिणी के प्रद्युम्न पुत्र उत्पन्न हुआ । इसे जम्म लेने के छठे दिन ही शम्बरासुर ने हर लिया और उसे लवण समुद्र में डाल दिया। समुद्र में उस बालक को एक मत्स्य ने निगल लिया। मछेरों ने उस मत्स्य को अपने जाल में फांस लिया और शम्बर को भेंट कर दिया। जब शम्बर की स्त्रो मायावती उस मछली का पेट चीरने लगी तो वह बालक उसमें से जीवित निकल आया। इतने में ही वहां नारद ऋषि आये और रानी को सारी घटना सुना दी। मायावती उस बालक पर मोहित हो गई और उसका अनुरागपूर्वक पालन किया। उसने उसे सब प्रकार की माया सिखा दी । जब प्रधुम्न को अपनी पूर्व घटना का पता चला तो उसने शम्बरासुर को लड़ने के लिये ललकारा और उस युद्ध में मार दिया तथा अन्त में मायावती के साथ द्वारका के लिये रवाना हो गया । जब वह वहां पहुँचा तो रुक्मिणी उसे पहिचान न सकी, किन्तु नारद ऋषि के आने पर सारी घटना स्पष्ट हो गई। कुछ दिनों पश्चात् धम्न ने रुक्मी की सुन्दरी कन्या को स्वयंवर में ग्रहण किया तथा उससे अनिरुद्ध नामक महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुश्रा । ___ उक्त कथा और प्रद्य म्न चरित्र में निम्न प्रकार से साम्य एवं असाम्य है :साम्य--(१) प्रद्युम्न को श्री कृष्ण एवं रुक्मिणी का पुत्र मानना । (२) जन्म के छठी रात्रि को ही असुर द्वारा अपहरणं । (३) नारद ऋषि द्वारा रुक्मिणी को आकर सारी स्थिति समझाना । (४) रुक्मी की पुत्री से प्रद्युम्न का विराइ । असाम्य-प्रद्युम्न को शम्बरासुर द्वारा समुद्र में डाल देना तथा वहां उसे मस्य द्वारा निगल जाना और फिर उसी के घर जाकर मत्स्य के पेट से जीवित निकलना, मायावती का मोहित होना और बालक प्रद्युम्न का पालन करना और अन्त में युवा होने पर शम्बरासुर को मार कर मायावती से विवाह करना। कथाओं के साम्य और असाम्य होने पर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतीय वाङ्मय में प्रद्युम्न का चरित लोकप्रिय एवं आकर्पण की बस्तु रहा है। बौद्ध साहित्य में प्रद्युम्न का उल्लेख है या नहीं और यदि है तो किस रूप में है साधनाभाव के कारण इसका पता इस नहीं लगा सके। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : कवि का परिचय रचना के प्रारम्भ में कवि ने मरस्वती को नमस्कार करते हुए अपना मामोल्लेख 'सो सधार पणमइ सरसुति' इस प्रकार किया है। इसलिये काव का नाम 'संधार' होना चाहिए, किन्तु अनेक स्थलों पर सधारु' नाम भी दिया हुआ है । अन्य प्रतियों में भी अधिकांश स्थलों पर 'सधार' नाम माया है इसलिये कवि का नाम 'सधारु' ही ठीक प्रतीत होता है। +कवि ने अपने जन्म से अप्रवाल जाति को विभूपित किया था। इनकी माता का नाम सुधन था जो गुण याली थी। पिता का नाम साह महराज था, अन्य प्रतियों में साहु महराज एवं समहराइ भी मिलता है। वे एरच्छ नगर में रहते थे। एरच्छ नगर के नाम एरछ, एरिछि, एलच, एयरकछ एवं एरस के पाठान्तर भेद से भी मिलते हैं। किन्तु इन सब में मूल प्रति वाला एरच्छ ही अधिक ठीक जान पड़ता है। इस नगर का उत्तर प्रदेश में होना अधिक सम्भव है। डा वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी जैन सन्देश. आगर। के एक लेख में इसकी पुष्टि की है। नाइदाजी ने इस नगर को मध्य प्रदेश में होना माना है जो ठीक मालूम नहीं होता। उस समय उस नगर में बहुत से श्रावक लोग रहते थे जो दशलक्षण धर्म का पालन करते थे। अपना परिचय देने के पश्चाद करि ने लिखा है कि जो भी प्रद्यन्न चरित को पढ़ेगा वही मरने के पश्चात् स्वर्ग में देवता के रूप में उत्पन्न होगा तथा अन्त में मुक्ति रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करेगा। जो मनुष्य इसका श्रयम करेगा उसके अशुभ कर्म स्वयमेव दूर हो जायेंगे। जो मनुष्य इसको दूसरों को सुनावेगा उस पर प्रद्युम्न प्रसन्न होंगे । इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ को लिखाने वाले, लिखने वाला, पढ़ाने वाले सभी लोगों को अपार पुण्य की प्राप्ति होना लिखा है, क्योंकि प्रधुन का चरित पुण्य का भण्डार है । अन्त में कवि ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहा है कि वह स्वयं कम बुद्धि : घाला है तथा अक्षर मात्रा का भेद नहीं जानता, इसलिये छोटी बड़ी मात्रा + महसामी कउ कायउ वखाणु, तुम पज्जुन पायउ निरवाणु । अगरवाल की मेरी जात, पुर अगरोए मुहि उतपाति ।। सुधा जणणी गुणवइ उर धारउ, सा महराज घरइ अवतरिउ । एछ नगर वंसते जानि, सुचिउ चरित मइ रचिउ पुगण ।। सावयलोय वसहि पुर माहि, दह लमण से धर्म कराह । दस रिस मानद दुर्तिया भेउ, झावहि चितह जिणेहरु देउ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये प्रथा अक्षरों के क्रम अधिक प्रयोग के लिये पहिले ही परिडत वर्ग से वह क्षमा याचना करता है । रचना काल :-- अब तक प्रद्युम्न चरित्र की जितनी प्रतियां उपलब्ध हुई हैं उन सभी प्रतियों में एकसा रचना काल नहीं मिलता है। इन प्रतियों में रचना काल के तीन मम्बत् १३११, १४११ एवं १५११ मिलते हैं । यहां हमें यह देखना है कि इन नीनों सम्बो में कौनसा सही मम्बन है। विभिन्न प्रतियों में निम्न प्रकार से रचना काल का उल्लेख मिलता है: (१) अग्रवाल पंचायती मन्दिर कामां, जैन मन्दिर रीवां एवं मात्मानन्द जैन सभा म्याला की प्रतियों में सम्बत् १३११ लिखा हुआ है। (२) बधीचन्दजी का जैन मन्दिर जयपुर, खण्डेलवाल पंचायती मन्दिर कामी, जैन मन्दिर देहली और बाराबंकी वाली प्रतियों में रचना सम्बत् १४११ दिया हुआ है। (३) सिंधिया औरिएंटल इन्स्टीट्यूट उज्जैन वाली प्रति में सम्बन १५११ दिया हुआ है । सम्बत् १३११ वाले रचना काल के सम्बन्ध में जो पाठ है, वह निम्न प्रकार है: संवत् तेरहस हुइ गये ऊपर अधिक इग्यारा भये । भादी सुदि पंचमी दिन सार, स्वाति नक्षत्र जनि सनिवार । भक्त पद्य के अनुसार प्रद्युम्न चरित्र सम्बत् १३११ भादवा मुवी ५ शनिवार स्वाति नक्षत्र के दिन पूर्ण हुआ था। सम्बत् १४११ पाला रचना काल जो ४ प्रतियों में उपलब्ध होता है, निम्न प्रकार है :सरसकथा रसु उपजइ घराउ, निसुबहु चरितु पजूसह ताउ | संवत् चौदहस हुई गए, ऊपर अधिक इग्यारह भए । भावव दिन पंचइ सो सारु, स्वाति नक्षत्र सनोश्चर वारु ॥१२॥ जयपुर वाली प्रात Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) सरसकथा रस उपजइ घणउ, निसुरगउ चरित पज्जउबनतएउ । संवत् चउदसइ इग्यार, ऊपरि अधिक भई ग्यार । भादव सुदि नवमी जे सार, स्वाति नक्षत्र सनीचर वार । देवलोक प्राणोत्तर सार, हरिवंश प्राध्याउ वंश सवार ।।१२।। खण्डेलवाल जैन पंचायती मन्दिर कामां उक्त पद्यों में जयपुर वाली प्रति में सम्बत् १४११ भाद्रपद मास पंचमी शनिवार स्वाति नक्षत्र एवं कामां वाली प्रति में सम्बत् १४११ भादवा सुदी शनिवार स्वाति नक्षत्र रचना काल दिया हुआ है। दोनों प्रतियों में तिथियों के अतिरिक्त शेष बातें समान है । इसी प्रकार उज्जैन वाली प्रति में निम्न पाठ है :संवत् पंचसइ हुई गया, गरहोतराभि अरु तह भया । भादव बदि पंचमि तिथि सारु, स्वाति नक्षत्र सनीस्चरवाह ।। इसके अनुमार 'प्रद्युम्न चरित' की रचना सम्बत् १५११ भादवा चुदी ५ शनिबार स्वाति नक्षत्र के दिन पूर्ण हुई थी। इस प्रकार सभी प्रतियों में भाद्रपद मास शनिवार एवं स्वाति नक्षत्र इन तीनों का एक-सा उल्लेख मिलता है। इसलिये यह तो निश्चित है कि प्रद्यम्न चरित की रचना भाद्रपद मास एवं शनिवार के दिन हुई थी। किन्तु रचना सम्बत् कौनसा है, यह हमें देखना है। तीनों रचना सम्बतों में सम्बत् १५११ वाला रचना काल तो सही प्रतीत नहीं होता है क्योंकि प्रथम तो यह सम्बत् अभी तक एक ही प्रति में उपलब्ध हुआ है। इसके अतिरिक्त ' 'पंचस' पाठ स्वयं भी गलत है इससे पन्द्रह सौ का अर्थ नहीं निकलता इसलिये सम्बत् १५११ वाले पाठ को सही साना युक्ति संगत नहीं है। सम्बत् १३११ वाला पाठ जो अभी तक ३ प्रतियों में मिला है, उसके सम्बन्ध में भी हमारा यही मत है कि गुण सागर नामक किसी विद्वान् ने सम्बत चौदहस के स्थान पर तेरहसइ पाठ परिवर्तित कर दिया तथा 'सुणि चरित मइ रचिउ पुराण' के स्थान पर इस रचना का कर्ता स्वयं बनने के लोभ से प्रेरित होकर 'गुण सागर यह कियो बखान' पाठ बदल दिया। इसके अतिरिक्त इस कवियशः प्रार्थी ने प्रारम्भ के जिन पद्यों में सधार का नाम था उनके स्थान पर नये हो मंगलाचरण के पद्य जोड़ दिये । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच रहा सम्बत् १४११ का रचना काल । इस रचना सम्बत के सम्बन्ध में सभी विद्वान् एक मत है। श्री नाइदाजी ने प्रधुम्न चरित के रचनाकाल का विवेचन करते हुए लिखा है कि संवत् १८११ वाला पाठ सही है किन्तु उनका कहना है कि बदी पंचमी सदी पनगी और नमी इन तीन दिनों में स्वाति नक्षत्र नहीं पड़ता। डा० माताप्रसाद जी ने गणित पद्धति के आधार पर जो तिथि शुद्ध करके भेजी है वह संपत् १४१२ भादवा सुदी ५ शनिवार है। सचे रिपोर्ट के निरीक्षक रायबाहदुर स्वर डा हीरालाल ने अपनी रिपोर्टः २ में लिखा है कि संवत् १४११ भादवा बुढी ५ शनिवार का समय ठीक मालूम देता है। लेकिन उनका भी बुदि का उल्लेख नवीन गणना पद्धति के अनुसार ठीक नहीं बैठता है । इसलिए उन सभी दलीलों के आधार पर संवत् १४११ - भादत्रा सुदी ५ शनिवार वाला पाठ ही सही मालूम देता है । प्रद्युम्न चरित में जो 'भादव दिन पंचमी सो सार पाठ है उसके स्थान पर संभवतः मूल पाठ 'भादव सुदी पंचमी सो सारु' यद्दी होना चाहिये । प्रद्युम्नचरित के पूर्व का हिन्दी साहित्य हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं. राम चन्द्र शुक्ल नेदस वीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक के काल को हिन्दी साहित्य का आदिकाल माना है । शुक्लजी ने इस काल की अपभ्रंश और देशभाषा-काव्य की १२ पुस्तके इतिहास में विवेचनीय मानी है। इनके नाम ये हैं (१) विजयपाल रासो (२) हम्मीर रासो (३) कीर्तिलता (४) कीर्तिपताका (५) खुमानरासो (६) वीसलदेवरासो (3) पृथ्वीराजरासो (क) जयचन्द्रप्रकाश (8.) जयमयंक जय चन्द्रिका (१०) परमाल रामी (११) खुशरों की पहेलियां और (१२) विद्यापति पदाबलि | उनके मतानुसार इन्हीं बारह पुस्तकों की दृष्टि से श्रादि काल का लक्षण निरूपण और नामकरण हो सकता है । इनमें से अन्तिम दो तथा 'बीसलदेवरालो' को छोड़कर शेष सब प्रथ वीर रसात्मक हैं । अतः श्रादिकाल का नाम वीरगाथा काल ही रखा जा सकता है। किन्तु शुक्ल जी ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल के जिस रूप का १. हिन्दी अनुशीलन वर्ष ६ अंक १-४ २. He wrote the work in Samvat 1411 on Saturday oth of the dark of Bhava inonth which on culoulations regnlarly Corresponds to Saturday the Oth August 1364 A. D. Search Report 1923-25 P-17. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) निर्देश किया है वह सही नहीं जान पड़ता । उस हिन्दी के विद्वान् यथा राहुल सांकृत्यायन, डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि भी सहमत नहीं हैं। जिन बारह रचनाओं के आधर पर शुक्लजी ने हिन्दो का आदिकाल निर्धारित किया था उनमें से अधिकांश रचनायें विभिन्न विद्वानों द्वारा परवर्ती काल की सिद्ध कर दी गयी हैं। डा० द्विवेदी का कहना है कि इसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक का काल जिसे हिन्दी का आदिकाल कहते हैं भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश के चढ़ाव का ही काल है। इसी अपभ्रंश के बढ़ाव को कुछ लोग उत्तरकालीन अपभ्रंश कहते हैं और कुछ लोग पुरानी हिन्दी । इसी प्रकार जब से राहुलजी ने जैन कवि स्वयम्भु के पउमचरिय (जैन रामायण) को हिन्दी भाषा का आदि महाकाव्य घोषित किया है तब से हिन्दी भाषा का प्रारम्भिक का ११ वीं शताब्दी से आरम्भ न होकर ८वीं शताब्दी तक चला गया है। हिन्दी भाषा के इन प्रारम्भिक वर्षों में हिन्दी पहिले अपभ्रंश के रूप में (जिसका नाम प्राचीन हिन्दी अधिक उचित होगा) जन साधारण के सामने आयी और फिर शनैः शनैः अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया । इसलिये मंत्र हमें हिन्दी साहित्य को सीमा को अधिक विस्तृत करना पड़ेगा | हिन्दी के इन ६ः = (७१) साहित्य प्रचुरमात्रा में लिला गया और वह भी पूर्ण रूप से साहित्यिक दृष्टिकोण से । वास्तव में अपभ्रंश साहित्य के महत्व को यदि आज से ५० वर्ष पूर्व ही समझ लिया जाता तो सम्भवतः हिन्दी साहित्य का प्रारम्भिक इतिहास दूसरी तरह ही लिखा गया होता। लेकिन डा० शुक्ल तथा श्यामसुन्दरदास आदि हिन्दी इतिहास के विद्वानों का अपभ्रंश साहित्य की घोर ध्यान नहीं गया । हिन्दी भाषा की इन प्रारम्भिक शताब्दियों में यद्यपि सभी धर्मों के विद्वानों ने रचनायें की थी, किन्तु प्राचीन हिन्दी भाषा का अधिकांश साहित्य जैन विद्वानों ने ही लिखा है | महाकवि स्वयम्भू के पूर्व भी अपभ्रंश साहित्य कितना समृद्ध था यह 'स्वयम्भू छन्द' में प्राकृत एवं अपभ्रंश के ६० कवियों के उद्धरणों से अच्छी तरह जाना जा सकता है । श्रव यहां वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक होने वाले कुछ प्रमुख कवियों का परिचय दिया जा रहा है - ८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में योगेन्दु हुये जिन्होंने अपभ्रंश भाषा मैं 'परमात्म प्रकाश' एवं 'योगसार दोहा' की रचना की। दोनों ही आध्यात्मिक विषय की उच्चकोटि की रचनायें है । १ हिन्दी साहित्य का आदिकाल (डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) वर्तमान उपलब्ध कवियों में स्वयम्भू अपभ्रंश के पहिले महा कवि हैं जिनको रचनायें उपलब्ध होती हैं । 'पउमचरिय', 'रिटुमिचरिच' तथा 'स्वयम्भू छन्द' इनकी प्राप्त रचनाओं में तथा 'पंचमीचरित' अनुपलब्ध (चनाओं में से हैं। 'स्वयम्भू' अपने समय के हो नहीं किन्तु अपने बाद होने वाले कवियों में भी उत्कृष्ट नाक शास्त्री थे। बाहुल्य के वर्णन के साथ-साथ काव्यत्व का सर्वत्र माधुय्यं दृष्टिगोचर होता है । स्वयम्भू युग प्रधान कवि थे, इनने अपने काव्यों की रचना सर्वथा निडर होकर की थी। इसके बाद के सारे अपभ्रंश एवं बहुत कुछ अंशों में हिन्दी साहित्य पर भी इनकी वर्णन शैली का पूर्णतः प्रभाव पड़ा है। i १० ब शताब्दी में होने वाले कवियों में देवसेन, रामसिंह, पुष्पदन्त, धवल, धनपाल एवं पद्मकीर्ति के नाम उल्लेखनीय हैं। मुनि रामसिंह देवसेन के बाद के विद्वान हैं । डा हीरालालजी ने 'पाहुड दोहा' की प्रस्तावना में इन्हें सन् ६३३ और ११०० के बीच का अर्थात् सम्वत् १००० ई० के लगभग का विद्वान् माना है। रामसिंह स्वयं मुनि थे, इसलिये इन्होंने साधुओं को सम्बोधित करते हुए ग्रन्थ रचना की है। इनका 'पाहुड दोहा' रहस्यवाद एवं अध्यात्मवाद से परिपूर्ण है । १५ वीं शताब्दी में कबीर ने जो अपने पदों द्वारा उपदेश दिया था, घही उपदेश मुनि रामसिंह ने अपने 'पाहु दोहा ' द्वारा प्रसारित किया था | देवसेन १० वीं शताब्दी के दोहा साहित्य के आदि विद्वान् कहे जा सकते हैं । 'साधम्म दोहा उन्हीं की रचना है, जिसे इन्होंने सम्वत् ६६० के लगभग मालवा प्रान्त की धारा नगरी में पूरा किया था। महाकवि स्वयम्भू की टक्कर के अथवा किन्हीं बातों में तो उनसे भी उत्कृष्ट पुष्पदन्त हुए जिन्होंने 'महापुराण', जसहर चरिउ' एवं 'पायकुमारचरित्र' की रचना की । इसमें प्रथम प्रबन्ध-काव्य एवं शेष दोनों खण्ड काव्य कड़े जा सकते हैं। महापुराण अपभ्रंश का श्रेष्ठ काव्य है । पुष्पदन्त अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न थे । उनकी प्रतिभा उनके काव्यों में स्थान-स्थान पर देखी जा सकती है । धनपाल कवि ने 'भविसयत्तका' की रचना की थी। कवि का जन्म वक्कड़ वैश्य वंश में हुआ था। कवि को अपनी विद्वत्ता पर अभिमान था, इसलिये एक स्थानपर इन्होंने अपने आपको सरस्वती पुत्र भी कहा है । १२२ संधियों और १८ हजार पद्यों में पूर्ण होने वाला 'हरिवंशपुराण' धवल कवि द्वारा इसी शताब्दी में रचा गया था । धवल के इस काव्य की भाषा प्रांजल और प्रवाहपूर्ण है । स्थान-स्थान पर अलंकारों की छटा पाठक के मन को मोह लेती Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । इसमें अनेक रसों का संमिश्रण बड़े अाकर्षक ढङ्ग से हुआ है । पद्मकीर्ति ने अपने पासणाचरिउ' को सम्बत् ६६E में समाप्त किया। भाषा साहित्य की दृष्टि से यह कान्य भी उल्लेखनीय है। ११ वीं शताब्दी में होने वाले कवियों में धीर, नयनन्दि, कनकामर . आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाकवि वीर का यद्यपि एक ही काव्य 'जम्बूसामीचरित्र उपलब्ध होता है। किन्तु उनकी यह एक ही रचना उनके पाण्डित्य एवं प्रतिभा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है। 'जम्बूसामीचरित्र' वीर एवं शृङ्गार रस का अनोखा काव्य है। नयनन्दि ने अपने काव्य 'सुदंसण चरिउ' को सम्बत् ११०० में समाप्त किया था। ये अपभ्रंश के प्रकांड विद्वान थे । इसीलिये इन्होंने सुदंसणचरिउ' में महाकाव्यों की परम्परा के अनुसार पुरुष, स्त्री एवं प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन किया है। बाण एवं सुबन्धु ने जिस क्लिष्ट एव अलंकृत पदावली का संस्कृत गद्य में प्रयोग किया था नयनन्दि ने भी उसी तरह का प्रयोग अपने इस पद्य काव्य में किया है । विविध छन्दों का प्रयोग करने में भी यह कवि प्रवीण थे । इन्होंने अपने कान्य में ५५ प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है। सकलरिधिनिधान काव्य में अपने से पूर्व होने वाले ४० से अधिक कवियों के नाम इन्होंने गिनाये है, जिनमें सस्कृत अपनश दोनों ही भाषाओं के कवि हैं। कनकामर द्वारा निबद्ध 'करकण्डु चरिउ' भी काव्यत्व की दृष्टि से उत्कृष्ट काव्य है। इसका भाषा उदात्त भावों से परिपूर्ण एवं प्रभाव गुणयुक्त है। इसी शताब्दी में होने वाले धाहिल का 'पउमसिरिचरि' एवं अब्दुल रहमान का 'सन्देशरासक' भी उल्लेखनीय काव्य है। १२ वीं शताब्दी में होने वाले मुख्य कवियों में श्रीधर, यशःकीर्ति, हेमचन्द, हरिभद्र, सोमप्रभ, विनयचन्द आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं। हेमचन्द्राचार्य अपने समय के सर्वाधिक प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे । संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के साथ साथ अपभ्रंश भाषा के छन्दों को भी उन्होंने अपने 'छन्दानुशासन' में उद्धृत किया गया है। १३ वीं और १४ वीं शताब्दी में अपभ्रंश साहित्य के साथ साथ हिन्दी साहित्य का भी निर्माण होने लगा। इसी शताब्दी में पं० लाखू ने 'जिरणयत्त चरिउ' जयभित्रहल ने 'बडुमाणकन्त्र' कवि सिंह ने 'पज्जुइण चरित' श्रादि काव्य लिखे । १४ वीं शताब्दी में धर्मसूरि का 'जम्बूस्वामीरास', रल्ह का जिणदत्त चाई' (मंत्रत १३५४) घेल्ह का 'चउत्रीसी गीत' (संवत् १३७१) भी उल्लेखनीय रचनायें हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण हिन्दी की रचना Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) जिदत्त चउपई है जिसे रल्द कवि ने संवत् १३५४ में समाप्त किया था । ५५० से भी अधिक उपई एवं अन्य छन्दों में निबद्ध यह रचना भाषा साहित्य की दृषि से ही नहीं किन्तु काव्यत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अपभ्रंश से हिन्दी में शनैः शनैः शब्दों का किस तरह परिवर्तन हुआ, यह इस काव्य से अच्छी तरह जाना जा सकता है । यद्यपि कवि ने इस काव्य में अपभ्रंश शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है किन्तु उनका जिस सुन्दरता से प्रयोग हुआ है उससे वे पूर्णतः हिन्दी भाषा के शब्द मालूम पड़ते हैं | वास्तव में १३ की और १४ वीं शताब्दी हिन्दी भाषा की साहित्यिक रचनायें प्रयोग करने के लिये महत्वपूर्ण समय था । पत्र मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थानी भाग और साहित्य में संवत् १०४५ से १४६० तक की रचनाओं के सम्बन्ध में लिखा है- "इस युग के साहित्य सृर्जन में जैन मतावलंबियों का हाथ विशेष रहा हैं। कोई पचास के लगभग जैन साहित्यकारों के मन्थों का पता लगा है । परन्तु जैन विद्वानों का यह मधुर साहित्य जितना भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है उतना साहित्य की दृष्टि से नहीं है यद्यपि साहित्यिक सौन्दर्य भी इसमें यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है । मेनारियाजी की निम्न सूची से स्पष्ट है कि हिन्दी की नींव ११ वीं शताब्दी में रख दी गई थी और उसको जैन विद्वानों ने मजबूत बनाया था । २. कुछ महत्वपूर्ण नाम ये हैं- वनपाल (सं० १०८१), जिनवल्लभसूरि (सं० १९६७) (१९७०), धादिदेवसूरि (सं० १९८४), वज्रसेनसूर (सं० १२२५), शालिभद्रसूरि (सं० १२४१), नेमिचन्द्र भण्डारी (सं० १२०६ ) आस (सं० १२५७), धर्म (सं० १२६६), शाह स्वण और भत्तउ (सं० १२७८), विजयसेन सूर (सं० १२८८), राम (सं० १२८), सुमतिगण ( १२६०), जिनेश्वरसूरि (१२७८१३३१), श्रमति (सं० १२००), लक्ष्मीतिलक (स० १३११-१७), सोममूर्ति (सं० १२६० - १३३१), जिनपर (० १३०६ - २२), विनयचन्द्रसूरि (१३२५-५३), अगड़ (सं० १३३१), संग्रामसिंह ( नं० १३३६), पद्म ( नं० १३५८), जयशेखरसूरि ( ० १३६०-६२), प्रज्ञातिलकसूरि (सं० १३६३), वस्तिभ (सं० १३६८), गुणाकरसूरि (सं० ५३७९), 'बदेवरि (१६७१), फेरु (१३७६) धर्मकलश ( नं० १३७७), सारमूर्ति (१२६.०), जिनप्रभसूरि (१३६०-६०), सोलख (१४वीं शताब्दी), राजशेरवर भूरि (= १४०५), जयानंदसूरि (सं०] १४१० ), तरगाश्रमसूरि ( १४१५ ), विनयन (१४१२), जिनोदयसूरि (१४१५ ), ज्ञानकलश (१४१५ ), . (सं० १४२६, जिनरल सूरि ( ० १४५०), मेरुनन्दन (सं० १४३२), देवसुन्दरसूरि (सं० १४४०), साधुस ( सं १४४५ ) | पृथ्वीचन्द Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ जैन विद्वानों की लोक भापायें लिखने में को प्रारम्भ से ही अपनाया और उसमें का प्रयास किया । į ) रुचि होने के कारण उन्होंने हिन्दी अधिक से अधिक साहित्य लिखने प्रद्यम्न चरित का समकालीन हिन्दी साहित्य. क अब हमें प्रद्युम्न चरित के समकालीन साहित्य पर ( सं १४०० से लेकर १४२४ तक लिखे गये ) विचार करना है और देखना है कि इस समय लिखे गये हिन्दी साहित्य और प्रद्युम्न चरित में कितनी समानता है । हिन्दी साहित्य के इतिहास में १५ वीं शताब्दी के प्रथम पाद की रचनाओं का उल्लेख नहीं के बराबर हुआ है। उसमें महाराष्ट्र के साधु नामदेव की स्कूट रचनाओं का उल्लेख अवश्य किया गया है। इसके अतिरिक्त 'राजस्थानी भाषा और साहित्य' में १५ वीं शताब्दी के प्रथम पाद के जिन कवियों का नामोल्लेख हुआ है उसमें केवल एक कवि शार्ङ्गघर आते हैं। किन्तु उनकी जिन दो रचनाओं के नाम हम्मीर रासो तथा हम्मीर काव्यगिनाये गये हैं वे भी मूल रूप में उपलब्ध नहीं होती हैं। हां, उनकी इन रचनाओं के कुछ पद्म इधर उधर जाकर मिलते हैं। शार्ङ्गधर के जो पद्य मिले हैं उन पर अपभ्रंश का पूर्ण प्रभाव है। एक पद्य देखिये पिंउ दिढ सरगाह वाह उप्पर पक्खर दई । बंधु समदि ररंग धसउ हम्मीर वरण लइ ॥ उड्डल शाह पह भमउ लग्गा रिउ सोस हि बारउ । पक्खर पक्खर ठेल्लि पेल्लि पव्बत्र ग्रप्फाल || हम्मीर कज्जु जज्जल भरगह कोहासाल मुहमह् जलउ । सुलतारण सीस करवाल दइ तंज्जि कलेवर दिन चलउ । श्री मनारियाजी ने जिन जैन कवियों के नाम गिनाये हैं उनमें राजशेखरसूरि (१४०५), जयानंदसूरि (१४१०), तरुणमत्र सूरि (१४११), विनयप्रभ (सं० १४१२), जिनोदय सूरि (१४१५), सधारु कवि के समकालीन आते हैं । किन्तु एक तो इन कवियों की स्कुट रचनाओं के अतिरिक्त कोई बड़ी रचना नहीं मिलती दूसरे जो कुछ इन्होंने लिखा है वह प्राचीन हिन्दी ( अपभ्रंश) से पूर्णतः प्रभावित है । विनयप्रभ कृत गौतमरासा का एक पद्य देखिये— i Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयरण वयरण कर तेजिहि तारा ( ३२ ) चररिंग जिण वि पंकज आकासि चंद सूर जलि पाडिय | भयाडिय ॥ इसलिये यह कहा जा सकता है कि सारु कवि अपने समय के अकेले हिन्दी कवि हैं जिन्होंने इस प्रकार का प्रबन्ध काव्य लिखने का प्रयास किया था। हिन्दी साहित्य में प्रद्युम्न चरित का स्थान : 'प्रथम्न चरित' हिन्दी भाषा में अपने ढंग का अकेला काव्य है । वह पुरानी हिन्दी एवं नवीन हिन्दी काव्यों की मध्य की कडी को जोडने वाला एक श्रेष्ठ काव्य कहा जा सकता है। चउपई, एवं वस्तुबंध- छन्द में लिखा जाने वाला यह यद्यपि पहिला काव्य नहीं है किन्तु साहित्यिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे प्रथम स्थान मिलना चाहिये । आगे चलकर जिन हिन्दी ऋत्रियों ने अपनी रचनाओं में चौपाई छन्द को मुख्य स्थान दिया है उन पर अधिकांश रूप से जैन रचनाओं का प्रभाव है । चनई बन्द क्या कत्रि और क्या पाठक दोनों के लिये ही प्रिय सिद्ध हुआ है । प्रद्युम्न चरित को काव्य की दृष्टि से किस श्रेणी में रखा जा सकता है यह विचारने की वस्तु है । काव्य के साधारणतः दो भेद किये जाते हैं प्रथम 'प्रबन्ध-काव्य' दूसरा 'मुक्तक काव्य' । प्रवन्ध-काव्य के फिर तीन भेद हैं : महाकाव्य, खंड काव्य एवं चंपू काव्य । इसमें से प्रद्यम्न घरित सुफक काव्य तो हो नहीं सकता इसलिये यह अवश्य ही प्रबन्ध काव्य है । डा० रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी ग्रंथावली पृष्ठ ६६ प्रबन्ध काव्य का जो लक्षण दिया है वह निम्न प्रकार है "प्रबन्ध काव्य में मानव जीवन का पूर्ण दृश्य होता है । उसमें घटनाओं की संबद्ध श्रृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक ठीक निर्वाह के साथ साथ हृदय को स्पर्श करने वाले उसे नाना भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश होना चाहिये । इति वृत मात्र के निर्वाह से रसानुभव नहीं कराया जा सकता। उसके लिये वदन चक्र के अन्तर्गत ऐसी वस्तुओं और व्यापारों का प्रतिबित्रत चित्रण होना चाहिये जो श्रोता के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में समर्थ हो । अतः काव्य में घटना का कहीं वो संकोच करना पड़ता है और कहीं विस्तार ।" Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) प्रय म्न चरित में राधान्न मुले I -काम याला लक्षण ठीक बैठता है। इसमें घटनाओं का शृखलाबद्ध क्रम है, नाना भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश है। इन सबके मतिरिक्त यह काव्य के श्रोताओं के हृदय में रसात्मक तरंगें उठाने में भी समर्थ है। इसलिये प्रद्युम्नचरित को निश्चित रूप से प्रबन्ध-काव्य कहा जा सकता है। प्रद्युम्नचरित ६ सर्गों में विभक्त है उसमें विरह, मिलन, युद्ध वर्णन, 'नगर वर्णन, प्रकृति-वर्णन एवं इन सबके अतिरिक्त मायावी विद्याओं ' का वर्णन मिलता है। उसका नायक १६६ पुण्य पुरुषों में से एक है। यह अतिशय पुण्यवान् एवं कलाओं का धारी है। वह धीरोदात्त प्रकृति का नायक है। काव्य के प्रवाई को स्थिर एवं प्रमात्रोत्पादक रखने के लिये अवान्तर कथाओं का होना भी प्रबन्ध काव्य के लिये आवश्यक है । अवान्तर कथाओं से पात्रों का चरित निस्वर जाता है और वे पाठकों को अपनी ओर अधिक आकृष्ट कर लेती है। प्रस्तुन काव्य में रुक्मिणीहरण तथा नारद के विदेह क्षेत्र में जाने की घटना, सिंहरथ युद्ध वर्णन, उदधिक्रुमारी का अपहरण, भानुकुमार के विवाह का वर्णन, सुभानु तथा शंबुकुमार का घूत-वर्णन श्रादि कथायें आयी हैं। इनसे 'प्रा म्न चरित' के काव्यत्व की उत्कृष्टता में वृद्धि हुई है। पूरे काव्य में पात-प्रतियात खूब चला है । पाठकों का ध्यान किचिन् भी दूसरी ओर न बँट सके; इसजिये कत्रि ने अपने काव्य में ऐसे प्रसंगों को पर्याप्त स्थान दिया है । स्वयं नायक के जीवन में ही आश्चर्यकारी घटनाओं का बाहुल्य है । धूमकेतु असुर द्वारा उसको शिला के नीचे दबाया जाना, फिर कालसंवर द्वारा उसका बचाया जाना, जसे गुफाओं के दिखाने के बहाने । अनेक विपत्तियों में फंसाना, किन्तु उसका अनेक विशनों के लाभ के साथ । वापिस सुरक्षित निकल आना, सिंहस्थ के साथ युद्ध में विजय-श्री का प्राप्त होना, स्वयं कालसंवर एवं फिर द्वारका में श्रीकृष्ण के साथ भयंकर युद्ध होना एवं उसमें भी विजय लक्ष्मी का मिलना आदि कितने ही प्रसंग उपस्थित होते हैं । अब पाठकों को नायक को विपत्ति में फंसा हुआ देखकर पूर्ण सहानुभूति होती है और जब वह यहां से विजय के साथ निरापद लौटता है तो पाठक प्रसन्नता से भर जाते हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रध म्न चरित' एक सुखान्त काव्य है। इसका नायक लौकिक एवं अलौकिक ऐश्वर्य को प्राप्त करने एवं भोगने के पश्चात् जिन दीक्षा धारण कर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करता है । जैन लेखकों के प्रायः सभी काव्य सुखान्त हैं ; क्योंकि अपने काव्यों द्वारा सामान्य जन में घुसी हुई बुराइयों को दूर करने का उनका लक्ष्य रहता है । इस काव्य में खलनायक अथवा प्रतिनायक का स्थान किसको दिया जावे यह भी विचारणीय प्रश्न है। पूरे काव्य में कितने ही पात्रों का चरित्र चित्रित किया गया है । जिसमें श्रीमा, दिशा, सल्यभामा, सुभानुकुमार, नारद, कालसंवर सिंह्ररथ, रूपचंद आदि के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। खलनायक नायक का जन्म जात प्रतिद्वंद्वी होता है। उसका चरित्र उज्ज्वल न होकर दूषित एवं नायक प्रत्यनीक होता है । वह अपने कार्यों के द्वारा सदा ही नायक को परेशान करता रहता है । पाठकों को उससे कदापि सहानुभूति नहीं होती किन्तु 'प्रा म्न चरित' में उक्त बातें किसी भी पात्र के साथ घदित नहीं होती । पूरे काव्य में प्रद्य म्न का सत्यभामा, भानुकुमार, सिंहरथ, रूपचंद, कालसंघर और उसके पुत्रों के अतिरिक्त कभी किसी से विरोध नहीं होता । यही नहीं सिंहस्थ एवं रूपचंद से भी कोई उसका विरोध नहीं था। उनके साथ इसका युद्ध तो केवल घटना विशेष के कारण हुश्रा है। अब केवल दो पात्र बचते हैं जिनमें प्रद्युम्न का जन्म जात तो नहीं ; किन्तु अपनी माता मक्मिणी के कारण विरोध हो गया था । इनमें सत्यभामा को तो स्त्री पात्र होने के कारण खलनायक का स्थान किसी भी अवस्था में नहीं दिया जा सकता । अब केवल भानुकुमार बचते हैं। किन्तु मानुकुमार ने प्रद्युम्न के साथ कभी कोई विरोध किया हो अथवा लड़ाई लड़ी हो ऐसा प्रसंग पूरे काव्य में कहीं नहीं पाया ; हां इतना अवश्य हुश्रा है कि प्रद्य म्न अपने असली रुप में प्रकट होने के पहले तक द्वारका में विभिन्न रूपों में उपस्थित होता रहा और सत्यभामा और भानुकुमार को अपनी विद्याभों के सहारे छकाता रहा । भानुकुमार सत्यभामा का पुत्र था और सत्यभामा प्रघम्न की माता रुक्मिणी की सौत थी। इसी कारण पद्य म्न का भानुकुमार के साथ सौमनस्य नहीं था। भानुकुमार की मांगउदधिकुमारी से प्रद्युम्न ने विवाह कर लिया था इसका कारण भी यही थ और इसीलिये उसने दो अवसरों पर उन्हे नीचा दिखाया था । किन्तु इससे भानुकुमार को खलनायक सिद्ध नहीं किया जा सकता । नायक से विरोध एवं युद्ध होने के कारण ही किसी को खलनायक की कोटि में कैसे लिय जा सकता है । प्रश म्न का युद्ध तो अपना कौशल दिखलाने के लिये श्रीकृष्ण Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ भी हुआ है । फलितार्थ यह है कि यह काव्य बिना ही स्थलनायक के है और यह इसकी एक स्वास विशेषता है। रस अलंकार एवं छन्द 'प्रध म्न चरित' वीर रसात्मक काव्य है । काव्य का प्रथम सर्ग युद्ध गईन ले पा लोक हित जननी युज गर्गन से ही समाप्त होता है। बैंसे यद्यपि इसमें अन्य रमों का भी प्रयोग हुआ है ; किन्तु वीर रस प्रधान रूप से इस काक्ष्य का रस मानना चाहिये । श्रीकृष्ण-जरासन्ध युद्ध, प्रद्युम्नसिंहरथ युद्ध, प्रद्युम्न-कालसंवर युद्ध, प्रद्युम्न श्रीकृष्ण-युद्ध एवं प्रद्य म्न रूपचन्द-युद्ध इस प्रकार काव्य का काफी हिस्सा युद्ध-वर्णन से भरा पड़ा है | पाठक को प्रायः काव्य के प्रत्येक सर्ग में युद्ध के दृश्य नजर आते हैं। "रहिवर साजह, गयवर गुह, सजा सुहल, आज रण सि" के वाक्य काव्य में सर्वत्र प्रयोग किये गये हैं। सिंहरथ जब प्रद्युम्न को बालक समझ कर युद्ध करने में लज्जा का अनुभव करने लगता है तो उस समय उसे प्रय म्न जिस प्रकार जवाब देता है वह पूर्णतः वीरोचित जवाब है : वालउ सूरु श्रागासह होइ,तिन को जूझ सकइ धर कोइ । बाल वभंगु डसह सर आइ, ताके त्रिसमरिण मंतु न आहि ॥१६८।। सीहिणि सीहु जणे जो वालु, इस्ती जूह तणो बे कालु । जूह छाडि गए वण ठाउ, ताकह कोण कहै भरिवाउ ॥१६६|| इसी प्रकार जब श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न में युद्ध के समय वार्तालाप होता है तो वह वास्तव में वीर रसात्मक है । उसके पड़ने से उसके नायक प्रम म्न की वीरता एवं शौर्य की आश्चर्य-कारी चतुरता का पता चलता है । यद्यपि उस जमाने में आज की तरह जन विनाश कारी आणविक व अन्य शस्त्र नहीं थे, किन्तु तलबार, धनुष, गदा, भाला, गोफन, बी, बाण एवं चक्र ही प्रमुख थियार थे । लड़ाई में योद्धा इतने कुशल थे कि एक समय में धनुप में ५० याण तक चढ़ाकर चला सकते थे । अग्निबाण जलयारण, वायु गण, नागपाश बादि के प्रयोग करने की प्रथा थी। वायु बाण और जज्ञवाया आदि कैसे होते थे कुछ कहा नहीं जा सकता । माया से अनेकानेक शस्त्रास्त्रों का निर्माण कर के भी युद्ध लड़ा जाता था । कभी २ माया से घिरोघी सेना भूच्छित भी करदी जाती थी जो अंत में पुनरुज्जीवित हो जाती थी। इन विद्याओं के कारण यह काव्य अद्भुन रस से ओत प्रोत है इसलिए इसका मुख्य रस बोर होने पर भी यह अद्भत मिश्रित है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन दोनों रसों के अतिरिक्त शृंगार, करुण, रौद्र आदि रसों का प्रयोग भी इसमें हुभा है । वात्सल्य रस भी जिस कई लोग नत्र रमों के अतिरिक्त रस मानते हैं इस काव्य में प्रयुक्त हुआ है। वात्सल्य रस का एक नमूना देखिए जब रूपिरिण दिठा परदवणु । सिर चुमइ पाक उ लीयउ, विहसि वयणु फुरिण कंठ लायउ । अब मो हियउ सफलु, सुदिन आज जिहि पुत्रु आयउ । दस मासई जइउ धरिउ, सहोए दुख महंत । वाला तुगह न दिठ मइ, यह पछित्तावउ नित ॥४२६॥ चौपई माता तणे वयणु नितुणे इ, पंच दिवस कउ वालउ होइ ।। खरण इकुमाह विरधि सोकयउ, फुरिग सो मयरण भय उ वेदहउ॥४३०॥ खरण लोटइ खरण आलि कराइ, खण खण अंचल लागइ धाई। खग खण जेत्वणु मागइ सोइ, बहुवु मोह उपजावइ सोइ ।।४३१॥ इसी प्रकार वीभत्स रस का भी कवि ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। श्री कृष्ण और प्रद्युम्न में खूब जम कर लडाई हुई । युद्ध में अनेकों योद्धा काम आये । चारों ओर नरमुड ही नरमुंड दिखाई देने लगे। कवि कहता है:हय गय रहिवर पड़े अनंत, ठाई ठाई मयगल मयमंतु । ठाठा रुहिरु वहहि असराल, ठाइ ठाइ किलकइ वेताल ॥५०४।। गोधीरणी स्याउ करइ पुकार, जनु जमराय जणावहि सार । वेगि चलहु सापडी रसोइ, ग्रसइ प्राइ जिम तिपत होई ॥५०६।। प्रद्य म्न के छटी रात्रि में अपहरण हो जाने के कारण, रुक्मिणी की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गयी । उसका परिवेदन और आक्रन्दन वास्तव में हर एक के लिए हृदय द्रावक था । वह पुत्र वियोग के कारण ऐसी संतप्त Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहने लगी कि उसका शरीर कृश हो गया और उसकी सारी प्रसन्नता जाती रही। करुण-रस का यह प्रसंग भी हृदयंगम करने लायक है-- जहिं सो रूपिणि करइ, पूत्र संतापु ह्यि गहवरइ । निन नित छीजइ विलखी खरी, काहे दुखी विधाज्ञा करी ।। १४०। इक घाजइ अरू रोवइ वयण, प्रासू बहत न थाके नयण । पूब्ब जन्म मैं काहउ कियउ, अव कसु देखि सहारउ हिय उ।।१४१।। की मइ पुरिष विछोही नारि, की दम्ब घाली वह मझारि । की मैं लेगु तेल घृतु हरउ, पूत संताप कवण गुरण परय् उ ॥१४२॥ प्रद्य म्न ने जो नाना स्थलों पर अपनी अलौकिक विद्याओं का प्रयोग किया है उसे पढ कर पाठक आश्चर्य में डूब जाता है। ये विद्यायें सामान्य जन को प्राप्त नहीं है, इसलिए प्रद्युम्न की अद्भुतता में कोई संदेह नहीं रहता यही चीज रस बन कर पाठक पर छा जाती हैं। सत्यभामा ने कपट-भेपी ब्राह्मण प्रद्युम्न को जितना सामान परोसा बह सभी खा गया । ८४ हांडियों में तैयार किये हुए व्यंजनों को तो बह पात की बात में षट कर गया । यही नहीं इसके अतिरिक्त जो कुछ सामान सत्यभामा के पास था वह सभी प्रद्युम्न के उदरस्थ हो गया ! फिर भी वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा इस अद्भुतता का भी पाठक रसास्वादन करें:- . चउरासी हाडी ते जाणि, व्यंजन बहुत परोसे आरिण। माडे कडे परोसे तासु, सबु समेलि गउ एकइ गासु ॥३८७॥ भातु परोसइ भातुइ खाइ, आपुण राणी बैठि प्राइ । जेतउ घालइ सत्रु संघरइ, बड़े भाग पातलि उवरइ ॥३८८॥ काव्य में अलंकारों का भी खूब प्रयोग किया गया है । वैसे मुख्य मुख्य अलंकारों में उपमा, रूपक, उपेक्षा, उदाहरण, दृष्टान्तः अपहति अर्थातरन्यास एवं स्वभावोक्ति आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं। काव्य में अनूठी उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया गया है जिससे काव्य-सौन्दर्य अधिक विकसित हुआ है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं१. सैन उठी वहु सादु समुदु, जाणौ उपनउ उथल्यउ समुदु।।५५७॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) ध्रुवक 2 कुवर पलारिणउ सब जगु जणिउ, गणिहि उछली खेह । रहिवर साजहि वाजे वाजहि, जाणे भादों के मेह ॥ जे अरिदल भंजइ परीवल गंजहि, सुहड चले अप्रमाणु । ते भणइ सभूते जाइ पहुते, सवल वीर समराण ॥१७५॥ चौपई प्रावतु देखि कुमर परदवणु, भरण सिंधु यौ वालो कोणु।। वालो रण कि पठावइ कोइ, इहिसउ भीडत लाज मो होइ ।।१७६॥ फुगि फुणि बाहरी उपह रार, किम करि बालेहि घाल घाउ । देखि मया चित उपनी ताहि, वाल कुवर वाहडि घर जाहि ॥१७७॥ __ प्रद्युम्न एवं सिंहस्थ में युद्ध निरिण वयण कोप्यो परदवणु, होण बोलु नै बोल्यो कवरणु । वाल उ कहत न लाभइ ठाउ, अब भानउ तेरउ भरिवाउ॥१७॥ (१७५) अणियउ (क) जालिज (ख) २. सब राजकुमर पलाणा (ग) ३. सह (क) सह (ग) ४. उडी (क) ५. जिम (क) जारण (ख) जारराज (ग) ६. अब (क) ७. अरियरए (म) ८. सघायह (क) ६. रण सामि (क) ले प्राण (ग) १०. भये (ब) ११. रथ-अते (ग) १२. ग्राइ (ख) (१७६) १. देखिउ (फ) देवा (ग) २. तिहि (ग) इहु (ख ग) ४. भरला (ख) बालकु (ग) कवरशु (व ग) क-प्रति-कहे मिघरय छत्री कवण ६. बालउ (क ख) वाला (ग) रिणिहि (क) रगिहि (ग) ८. एह सो (क) इह सिद्ध (ख) इसु स्यों (ग) ९. भिरत (क) तिडत (स) १०. न (क' मुहि (स) मै (ग) (१७७) १. वाला देखि पियो राउ (ग) :. बया (ख) ३. मनि (ग) क प्रति--तो देखत मोहि मनु विगसाइ, उठि कुमर वाहुद्धि धरि जाहि (क) (१७८) १. सुणे (ग) २. वचन (ग) ३. कहि () ४. किव (ग) लाज नहि छाउ (क) ५. उप (ग) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व रावत काढइ करवाल, वरिसहि वारण मेध असराल । डइ सुहड करि असिवर लेइ, रह चूरइ मइगल पहरेइ ॥१७॥ मैगल सिंह मंगल प्रा भिडइ, हैवर स्याँ हैवर पा भिडइ । पचावयु जूझू तहि भयउ, गीध मसाण तहा उठीयउ ॥१८०।। सैयन जूझि परीधर जाम, दोउ वीर भीरे रण ताम । दोइ वीर खरे सपरा, शोह करह धि जिन गाए ॥८॥ मलु जूझते दोउ भीडइ, दोउ वीर अखाडो करहि। . हारिउ सिंह गयउ भरिवाउ, वांधिउ मयण गले दे पाउ 11१८२॥ वस्तुबंध-जवहि जित्यउ कुवर परददरगु सुर देखइ ऊपर भए, वंधि स्यंघरहु कुमर चल्लिउ । 1 मयणु सुगुरगु सधेहि बुल्लिउ, तव सज्जरण पारणंदियउ ।। देखि राउ प्राणंदियउ, तू सिंवि कीयउ पसाउ । महु णंदण जे पंच-सय, तिहि उपर तू राव ॥१८३।। चौपाई भयरण चरितु निसुरिण सबु कोइ, सोला लाभ परापति होइ । (१७६) १. करि ले (ग) २. प्रसराल (क ख ग) ३. कुमर (ख) ४. रसवर परमा गल विरेह (क) तीसरा और चौथा चरण ग प्रति में नहीं है। (१६०) १. स्यो (क, ग) २. रण (ग) ३. रहबर (ख ग) पाहक (क) १.सिज (स) ५. संचडिज (ख) तुलि चढ़ (ग) .यवर सेती हयवर सार (क) पावर (ख) पंचवरसु (ग) ७. जब (ख) ८. गिर (ख) गर्भ (ग) ९. उठि गयड (ख) उकि करि गयउ (ग) (क) इणि सूझ करत बडबार (क) (१८१) १. सेना (कन) सैन्या (ग) २. रणि (ग) ३. बहरी (ग) . (१६२ १. मारन (क) माल (ख,ग) २. राउ (ग) ३. बंधि (ग) = ४. गलि (ग) (१३) १. जाम (ख) २. अचिरज (क) ग प्रति--जदकीयो तव सरि सहि ३. वांषि (ख ग) ४. ठिवि (ख) ५. बह (ख) - (१८४) १. सोलह (क ख ग) २. देवा पड घरग सो वन जपर हमोह पति - सिंघरचु धरि गयउ (यह पाठ के प्रति में है) ग प्रति में इस छन्द का पूरा पाठ नहीं है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) ५ . । विजाहर तव करइ पसाउ, बांध्यो छोडि स्यंघरउ राउ । देई पटु पुणि प्राकउ लयउ, समदिउ स्यंघराउ घर गयउ ।।१८४॥ तव कुम्वरन्हि मन विसमउ भयउ, जियत वुअाल हमारउ भयउ । इतडो राइ न राखियउ मान, पालकु आरिण कीयउ परधानु ॥१८॥ तवहि कुवर मिल कीयउ उपाउ, अव भानउ इनको भरिवाउ। सोला गुफा दिखालइ आजु, जैसे होइ निकंटकु राजु ।।१८६॥ कुमारों द्वारा प्रद्युम्न को १६ गुफाओं को दिखलाने के लिये ले जाना एह मंत्र जिण भेटइ कथणु, लियउ बुलाइ कुमर परदमणु । कियो मंतु सव कुमर मिले, खेलण मिसि वरण क्रीडा चले।।१७।। भरणहि कुवर निसुणहि परदवणु, विजयागिरि उपर जिण भवणु। जो नर पूज करइ नर सोइ, तिहि कहु पुन परापति होइ ॥१८८॥ - - -- - (१८५) १. सच्छ (ग) २. कुमर (क) कुमरहे (ख) कुरिहि (ग) ३. विशमो (क) विसमा (ग) ४. कियज (क) भया (ग) ५. जीवत (क) जीवतु (ख) बेखुर (ग) ६. मालु (क) महतु (ख) हालु (ग) ६. गयउ (ख) ययउ (क) कीया (ग) ७. एतर (क) इतनउ (ख) इतना (ग) ८. राखिय (क) राखिउ (ख) राख्या (ग) (१८६) १. सब (क) २. कुमर (क) कुमार (ख) कुरिहि (ग) ३. एहनज (क) इसुका (ग) ४, इव भागा (ग) इस भनि हिया कर भडिमार (स) ५. विखावहि (क ग) ६. निकंटो (क) निकेरह (ख) ७. जिउ हम (ग) (१८७) १. मंतु (ख ग) २. मेटज (क) मेटद (ख) मोटइ (ग) ३. कवरण (क) कजण (ग) ४. चालहु जाहि लेग (ग) ५. भाई सवि (क) ते खिरण माहि (ग) ६. खेलउ (क) अन्तिम चरण का (ग) प्रति में निम्न पाठ है जाइ जो लेग मुचति कोका को चले ! (१८८) १. भाजह (ग) २. देखज (ग) ३. तिह (क) तह (ख) तिन्ह (ग) ४. कोइ (क,ख,ग) ५. तिह को (क) तिसको (ग) ६. पुनि (क) पुष्त (ख,ग) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसुणि वयण हरध्यो परदवणु, चहि गिरवरि जोबइ जिणभवणु । चढी जो देखइ वीर पगारू, विषमु नागु करि मिल्यउ फुकारू ॥१८६।। हाकि मयगु विसहरस्यो भीडइ, पकडि पूछ तहि तलसीउ करइ। देखि बोरू मन चिभिउ सोइ, जाख रूप होइ ठाडो होइ ।।११०॥ दुइ कर जोडि करइ सतिभाउ, पूब्वहुँ हूं तु कण्णख उराउ । राज छाडि गयउ ता पारस, सोलह विधा प्राफी. धरण। ।।१६।। हरि'घर ताह होइ अवतरणु, तुहि निरखि लेइ परदवणु । यह थोणी तसु राजा तणी, लेइ सम्हालि वस्त आपणो ॥१६२।। (१८६) १. हरषिउ (क,ख) कोपा (ग) २. बे घद्धि गिरि (क) चद्धिवि । सिखर (ख) बडि गिरवरि (ग) ३. वंदे (क) ४. चढियउ (क) घडिया जो (ख) परिजे (ग) ५. जोबइ (स्त्र) ६, वरि शृगारि (क) वीच पगार (ख) वोरु पगारि (ग) ७. मिल करइ (क) करि मिलिउ (6) अटिज (ग) ८. चिकार (क) फुकार (न. ग) -- (१९०) १. सिङ्घ (ख) सउ (ग) २ भिदिउ (क ख ग) ३. तिन (क) तिहि (ग) ४. शिरु किया (क) सिक करिउ (स्त्र) सिरु करया (ग) ५, मइ (क) मनि । (ख,ग) ६. विज्ञानव होइ (क) जंपइ सोइ (ग) ७. जखि (क) जक्व (ख) जक्ष (ग) ५. करि (क) हुइ (ख) सो (ग) ६. रूठन कोइ (क) बइठा होइ (ग) १६१) १. कहइ (क,ग) २. पुर्वइ हूं (क) पूरकह (ग) ३. हूँ तउ (क) हित (ग) ४. कार्गखज (स) कनखल (ग) ५. छोडि (क ग) ६. गो (ख) कहखल्या (ग) ७. चरणि (क ख ग) 5, पापी (क) प्रापो (ग) (१९२) १. हरित्थर (क) २. जाइ (क) जाह (स्त्र) ३. अयसारिण (क) । प्रसरणी (ख) ४, लेहि {क प) ५. न राखि (क) ६. लिहि परवमण (क) विद्या . पापणी (ख) ७. हर छोड (क) यवरणो (ख) म. संभारि (क) ६. वसत (क) वसतु (ग) नोट-१९२ वा छंद (ग) प्रति में नहीं है. . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) १६ विद्याओं के नाम हिय-पालोक अरू मोहणी, जल-सोखणी रयण-दरसणी । गगन वयण पाताल गामिनी, सुभ-दरिसरणी सुधा-कारणी ॥१६३॥ प्रगिनि-थंभ विद्या-तारणी, वहु-रूपणि पाणी-बंधणी। गुटिकासिधि पयाइ होइ, सवसिद्धि जाणइ सत्रु कोइ ॥१६॥ धारा-बंधणी वंधउ धार, सोला विद्या लही अपार ।। रयणह जडित अपूरब जाणि, कणय मुकटु तहि अाफउ प्राणि १६॥ आफि मुकट फुणि पायह पडिउ, विहसि वीरू तहा प्रागइ चलउ। सो मयरद्ध, सपत्तउ तहा, हरिसय पंच सहोयर जहा ॥१६६॥ कुमरन्हि पासि मयणु जव गयउ, मन मह तिन्हहि अचंभो भयो । उपरा उपरू करहि मुहं चाहि, दूजी गुफा दिखालइ प्रारिंग ॥१६७।। -- - - . (१९३) १. गेहणी (क) २. सुख फारगो (क) नोट-मूल प्रति से भिन्न प्रथम चरण के हिय के स्थान पर एक संमउ (क) एक मूड़ा (ख) एक सुरहो (ग) (१९४) १. विद्याकारणी (क) २. चन्द्ररूपिणी (क) ३. पवन-वेधरपी (ख) । (१६५) १. डिउ (क) राइ (ग) २. तिरिण (क) तहि (ख) तिह (ग) ३. दीना (क) तो (ग) (१६६) १. ति (क) २. ताहि (ख) तव (ग) ३, प्रागलि (क) प्रगहा (ग) । ४. सरिउ (ग) ५. मइरघउ (क) मइराधा (ग) ६. पहतो (क) प्रायो (ग) ७. हिव पंचसह (क) हहिसयपंच (ख,ग) ८. सहोदर (क ग) (१९७) १. बीजो (क) २. आइ (क) प्राहि (ख) ताहि (ग) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 काल गुफा कहिए तसु नामु, कालासुर दैयतु तहि ठाउ । । पूरव चरितु न मेटइ कवणु, तिहि सिंह जाइ भिरइ परदवणु ।।१९८॥ हाकि कुवर धर पाडिउ सोइ, हाथ जोडी फुणि ठाढो होइ । परिशु देखि हियइ अहि डरइ, छत्र चवर ले प्रागइ धरइ ।।१६६।। | वसुणंदउ माफइ विहसाइ, हुइ किंकर फुणि लागइ पाइ। | फुरिण सो मयणु अगुह्डो चलइ, तीजी गुफा आइ पइसरइ ॥२०॥ | नाग गुफा दीठी वर वीर, अति निहालिउ साहस धीरू । विषमु नागु घणघोर करत, सो तिहि प्राइ भिडिउ मयमंतु ॥२०१॥ । तव मयण मन करइ उपाउ, गहि विसहर भान्यउ भरिवाउ । ! देखि अतुल बल संक्यो सोइ, हाथ जोडि फुरिण उभी होइ ॥२०२॥ (१९८) १. सुहनारिण (क) तिह् नांव (ख) २. काल सरोवग (क) कालु । संभु (ग) ३. देखो (फ) दोन्हड़ (ग) ४. ठारिण (क) द्वाउ (ग) ५. रचित (क) वित. : (ग) ६. तिन ठा (क) तिहि साह (स) तिन्हस्थो (ग) ७. भिडद (क) भिडिउ (ख) लाश (ग) (१९८) १. होक्या (ग) २. सो (क) पछा (ग) ३. पाडा (क) पक्ष्या (ग) ४, चिरिण (क) सो (ग) ५. पौरिष (क) परिषु (ख) पउरषु (ग) ६. प्रति उरण (क) गहबरइ (ग) ७. छन्नू (ग) छत् (ख) (२००) १. लागा (ग) २. ते (क) (ग) '. धागउ घलइ (क) तौ । अंगहा सरह (ग) ४. जाइ (ग) ५. संचरह (क) (२०१) १. वेढो (क) जयदीठो (ख) २. योरि (ख) ३. धृत (क) पइतु (ख) रूप (ग) ४. निकलउ (क) निहाली (ग) ५. धुरधरंत (क) (२०२) १. तबही (क ग) २. करइ (क) बहकिया (ग) ३. अब (क) तहि (ख) ४. भानो (क) भानङ (ख,ग) ५. प्रतिवरु (ग) ६, संकिङ (क ख) संवयां ७. लोह (ग) ८. फरिविनय सोइ (क) सो ऊभा होइ (ग) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) मयण कुवर वलिवंतउ जाणि, चंद्र सिधासणु प्राप्पउ पाणि। नागसेज वीणा पावडी, विद्या तीनि आणि सो धरी ॥२०॥ सेनाकरी गेह-कारणी, नागपासि विद्या-तारणो । इनडो लाभ तिहा तिह भयो, फुरिण सो नाण सरोवर गर्यो ।।२७४॥ न्हात देखि धाए रखवाल, कवरण पुरिषु तू चाहिउ काल । जो सुर राखि सरोवरू रहिउ, तिहि जल न्हाइ कवण तू काउ।।२०५॥ तवइ वीर बोलइ प्रजलेइ, पावत वज्र झेलि को लेइ । जै विसहर मुह घालै हत्थ, सो मोसहु जुझणह समत्थ ॥२०६ तव रखवाले मिलइ साग, विषमु बीरू यह नाही मान । उपरा उपरू करइ मुह चाहि, मयरधउ बरू अप्पहि प्राणि ।।२०७॥ (२०३) १. बिय (ग) २. दोघउ (क) प्राफिर (ख) ३. नाग, पाशि (क) ४. प्राई (क) ५. तिनि (क) लिहि (ख ग) (२०४) १. सनारी (क) सेना कारणी (ख) २. एवढंउ क) चउत्तु (ख) इतना (म) ३. श्री क) ते (ग) ४, न्हाण (क.ख,ग)। . (२०५) १. प्राये (क) प्रापा (ग) २. पियो (क) धापिउ (अ) चल्यो (ग) ३. कालि (क) अकाल (ग) ४. भरिउ (ख) ५. सो (क) ६. सरि (क) ७. न्हाण (क ख) ८. तुह (क ) ६. यथउ (क) कहिउ (ख) ग प्रति में ३-४ चरण नहीं है । (२०६) १. प्रजलेइ (क) पगलेइ (ख) इतने सूणत मयण परजलेइल (ग) २. पाक्त तुझु झाडिय करि लेह (क) प्रयतु बजु झलिय को लेइ (ब) पावतु बालि झकोलवि बाल्यो (ग) ३. जो (क) तव (ख) ४. हमसे या (क) ५. नहि भूक करण (क) ६. मूलपाठ हाथ भोर समय (२०७) १. रखवाल (क) २. मिलियर' प्रवशाणि (क) मिलवाहिसपनु (ख) घोलप ३, हम (क) इहू (ख ग) ४. जारा कवरण (ख) सानि (ग) ५. रूपु (ख) ६. कहहि (क,ख) कर (ग) ७. मयरधा (क) मगर (ख) महराष्य (ग) प्र. पर (क) बलु (ग) ६. प्राफहि माह (क) आफहि ताहि (ख ग) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) १ २ अमिनिकुड गउ जब वर वीरू, करइ आप हिव साहस धीरू Y 3 ४ 5 उ सरवरू चलियउजारिण, श्रमिनि कपड तहि पिउ ॥ २०८ ॥ 1 २ 3 ४ लेतइ वीरू अगाडो चलइ, विरख प्रांव तो दीठउ फल्यउ । ८ ५ उग्र तोडी सो खाँइ, वंददे पढ़तउ आइ ॥ २०६॥ × 3 ह कवर वीरू तू तोडहि ग्राम, सुहिसि आइ भिडहि संग्राम । 노 3 ४ कोपि मय तय तिहिप गयउ, तिहुसहु जुभु महाहउ किय ॥ २१०॥ ५ २ मयर पचारि जिगिउ सो देउ, कर जोडइ Y 4 पहुममालु दुइ हाथह लेइ, भर पावडी जुगलु सो देइ || २११|| 3 र विरगवइ सेव । ॐ ४ ५ ६ ७ तउ लइ मयरण कयथवरण गए, पयठइ मया फुग उभे भए । फ F ११ गयउ वीर जब वरणह मकारि, दुरू गौयरू उठिउ विचारि ॥ २१२ ॥ ܀ ( २०८ ) १. गज ( क ) पहुता ( ग ) जब गइयज (ख) २. प्राण हिय (क) पता साह ( ख ) तह (ग) ३. ठउ ( क, ख ) तूहा ( ग ) ४. सुरवर (फल) ५. चालिख ( क ) चाला ( ख ) ६. कपड (ख) निषाद (ग ७ आयी जाणि ( क ) बीन्हा आणि ( ग ) नोट -- मूलपाठ पाशाहिद के स्थान पर श्रापतेवा ( २०६ ) १ तितलड (क) तेल (ख) लेइ (ग) २. त भागो (क) अनुहड़ो स) श्रग हा (ग) ३. बलिउ (ख) चालियो ( ग ) ४. वृक्ष (ग) ५. श्रव (क) अशोक (ग) ६. को (क, ख) ७. फरिउ (क) फलिङ ८. वनरदेव ( क ) (ख) फुलियो (ग) 1— (२१०) १. यंत्र (फ) श्रां ( ख ग ) २. समाहि ( क ) ३. मोस्यो ( ग ) ४. केह ( क ) ति ( ग ) ५. स्यो ( ग ) माहि तिनि कियो (क) मालविक्कु भयो ( ग ) (२११) १. जियो (क) २. बुइ कर जोडि सु विनवद सोव ( ग ) २. बहु ५. युगल (क) पगहू (ग) (क) ४. पुरुष (ग) पहुष (क) ( २१२) १. तब से ( ग ) २. कयत्य (ग) ३. गयउ ( ग ) ४. जहर (ख) पति (ग) ५. बीट (ग) ६ तह (ख) सो (ग) ७. प्रभा भया (ग) ८ ले ले भयरण गज (क) ६. जे (ग) १०. बुद्धरू (ख) सुवर (क) (ग) ११. विकारि (फल) · नोट - २०६ का चौथा चरण (क) प्रति से लिया गया है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) १ * 3 ४ E सागरू गरूal यमंतु, हाथि कुम्बस्यो भिरउ तुरंतु । 5 £ १० मारि दंतुसल तोडइ सोइ, चडिवि कधि करि अंकुस देइ ॥ २१३॥ २ 9 Y पुरवावी लइ गए कुम्बर, तेइ बिसहरू विस ५ कालु । ६ जाइ बीरू तहां उपर चढइ, विपहर स्थिभिड ।। २१४|| ' तहि गहि पूछ फिरावइ सोइ, बिलख वदनु त फुरावइ होइ । 3 ग्राफी छुरी ॥ २१५ ॥ फुरिण तिहि विसहर सेवा करी, काममूदरी १ २ ४ ५ मलयागिरि पर जब गयउ करि विसादु फुरिण उभउ भयउ । अमरदेव तहि श्रायउ धाइ, निर्जिणि केंद्रप घरीउ रहाइ ॥२१६|| २ 3 हरियो देवभगति तिस करइ, कंकर जुवलु आणि सो घरइ । सिखरू ४ 보 देइ अविचारू, आर्पिड आणि वस्त उनिहारू ॥२१७ मुटु (२१३) १. सो ( क ख ग ) २. गयव ( क ) ३. प्रतिहि (क) परभय (ख) वा ( ग ) ४. हाकि (ग) ५. कुमर सो (क) कुमरसिहं (ख) कुवरू (ग) (ग) ७. मारिय (क) र (ग) ८. फुणि मानौ १०. लेइ (ग) ६. फिड (क) भिडिउ (ख) उठि सोइ (ग) ६. तब ( क ) सो (ग) (२१४) १. बावडी (क) विविभो (ग) २. गयउ (क) गया (ग) ३. कुमार ( क, ख ) कुमारू ( ग ) ४. तव हि (क) तहि ( ग ) ५. नयका (ग) तबहि सूर इक कर कार (क) ६. तिह (क) तह (ख) तब (ग) ७. चढ्यो (ग) म. तेह सो (क) (२१५) १. तज (कख) तव ( ग ) २. तब ( क ख ग ) ३. भापी (क) रु M (6) are (1) ( २१६ ) ऊपरि यो ( क ) ऊपर जल ( ख ) ऊपर जे (ग) ३. fame (ख) विसमासु ( ग ) ४. तिह (क) करिए (ख) ५. ऊभा भया ६. कुंवर संघात कर लढाह ( क ) गिज्जि शिकंद्रषु धरिउ रहइ सुकंद्रम रहया या राइ (ग) (२१७) १ हास्यो देव भगति तिस कर इहि (ख) अमर बैउ लवहा कारेड (ग) २. युगल ते (क) जुगल (ग) ३. धरहि (क) जि वीनउ आइ (ख) श्रारिण सो देइ ( ग ) ४. दुइ (क) दियो (ग) ५. प्रतिचारू ( क ) ६. आप्पा (क) माफि (ख) ७. प्राणिउ ख) प. उरहारू (कख) : (ग) नोट - २१७ मूल प्रति में प्रथम चरण में समरदेव सह आयउ धाइ पाठ है । २. गया ( ग ) ग) भयो (क) (ख) जिण्या Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) रहासेण गुफा ही जहा, कुवरन्हि मयण पठायो तहा। तिहि ठा अमरदेउ हो कोइ, रूप वरह भयो खण सोइ ॥१८॥ सूबर रूप प्राइ सो भिड, मारिउ मरिण दतसलि भिडउ । पुष्प चाषु दीनउ सुरदेउ, विजहसंखु प्रापिउ तहि खेउ ॥२१॥ सवहि मयशु वण वयठउ जाइ, दुष्ट जीउ निवसइ तह प्राइ । बरण मा मयण पहुँतउ तहा, वीरू मगगोजो बांधिउ जहा ||२२०।। बाधिउ वीर मनोजउ छोड़ी, फुणि ते वशमा गए वहोडी । जहि विजाहरि एतउ कीयउ, सो वसतु खरग वंधिवि लयउ ॥२२१।। फुरिण सु मनोजउ मनविसाइ, कुम्बर मयण के लागइ पाइ। हाथ जोडि सो कहा करेइ, इदजालु विद्या दुइ देइ ।।२२२॥ (२१८) १, वारहसेन (क) वराहसेन (ख)बीरसेरण । ग) २. हहि (क) जब गयउ (ख) [ थी जहां (ग) ३. पाठया (ख) ४. जिहां (क) तिहां (ग) ५. ठर (ग) ६. हवो (क) | हुइ (ख.ग) ७. अफउ (क) भयउ (ख) भया (ग) 5. रहि (क! हइ (स) जनु (क) (२१६) १. भया (ग) २. मारई (क) मारि (ख,ग) ३. बंसल झडइ (क) . वंतूसनु झडिउ (ख) हेठि सो दोसा (ग) ४ पुहप (ख) पुधि (ग) ५. चाप (क ख) पि (ग) ६. हनद (क) दीना (ग) ७. सुरदेह (क) सुरदेवि (ख) ८. विजद (क) विजय (ख वाजि (ग) ९. प्रायो (क) प्राफिउ (स ग) १०. तिरिण जहो (क) उनि खेउ (ग) (२२०) १. उपरिण (ग) २. पयट्ठाइ (क) वरिंग (ख) पट्ठा (ग) ३. बुद्ध ' (ख) ४. पुहोम (ग) ५. केरा (ग) ६. महि (क) माहि (ख) ७. परतो (क) म. मरणोज (क) मरणोजउ (ख) (२२१) १. जण (क) २. माहि (फ) महि (ख) ३. जिणि (क) ४, विधारि (क) विज्जाहरि (ख) ५. सोतिरिग कुरि देधि लिणि लियउ (क) (२२२) १. मनोजव (क) २. मनि विहसाइ (क ) ३. लागउ (क) ४. काहस करइ (क) ले घरह (क) नोट:-ग प्रति में २२० से २२६ तक के छन्द नहीं हैं । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४) 3 R उवसंत मनि भयउ उछाहु, दीनी कन्या ठयहु विवाह | ४ K बहु भगति बोल सतिभाइ, फुरिंग विजाहरू लागइ पाइ ॥ २२३॥ ४ अरजुन वह वीरू जउ जाइ, तिहि वरण जैरहु पहुत श्राह । 보 . तिहिसउ जुझ अपूरव होइ, कुसमवाण सर आपइ सोइ || २२४ ॥ ू १ R % फुगि सो वीरू विउरण खराा गयउ विलतरंग सिरि उभउ भयउ , E विरे तमाल तर हइ जहा, खरण भयरद्ध सपतउ तहां ॥ २२५॥ १ फटिक - सिला बयठी बर नारि, जपइ जाप सो वह मझारि । * तउ विजाहर पुछइ मयर, वरण मा बसइ गरि यह कम्वणु ॥२२६॥ १ २ 3 तउ वसंत मन कहइ विचारि, रतिनामा यह नूचइ नारि । प्रति सरूप सुहनाली नया, लेइ विवाहि कुम्बर परदवणु ॥ २२७॥ 3 y तब मरण मन भी उछाहु, दीनी कुवरि आढए विवाहु । फुरिण सो मया सपतउ तहा, हहि सयपंच सहोयर जहा ||२२८ ॥ ( २२३) १. तव वसंत ( ख ) २. उद्या ( ख ) ३. वोधी (क) ४. भिखि (क) ५. लागड (क) (२२४) १ (क) २. वीरजय ( क ) जनि ( ) ४. महतो (क) तिहस (क) तिहिसिह (ख) ५. होइ (क) ६. श्राफ (ख) जग (क) तलि ( २२५) १. बलि खा (क) २. विरख लता (कख) ३. (ख) ४. विरख (क) विरखु ( ख ) ५. तमालह (क) तमास ( ख ) ६. हिये (क) ७. पडतो (क) सपराउ (ख) ( २२६) १. सो (ख) २ (ख) सो (क) ( २२७ ) १. वलि वसंत (क) २. मनि ( क ) ३. करइ (क) ४. बीजी (क) ५. सुविनाली ( क ) १. मयण ( कल ) ( २२८ ) १. तबहि (कख) २. भयो (कख) ३. मोठी (कख) ४. तर उ (क) आढयो (ख) ५. खइ जइ (क) जहि सह (ख) २२४ - मूल प्रति में सिहिस शुरु के स्थान पर लिहिउ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ भणइ कुवर मुहामुह चाहि, विषमु वीरु यह मानन पाहि सोलह गुफा पठायो मयण, तह तह मिलहि वस्त्र प्राभरण।।२२६॥ मयणह पौरिशु देखि अपार, तब कुम्वरन्हि छोडिउ अहंकार ईसबहू मिलि सलहिउ तहि ठाइ, पुनवंत कहि लामे पाइ ॥२३०।। वस्तु बंध-पुन्नु वलियउ अहि संसारु । । पुन्नु सेम्वहि सुर असुर, पुन्नु सफलु अरहंत जपिउ । कत रूपिणि उर अवतरिउ, धूमकेत ले सिला चंपिउ ।। जमसंवरू त ल गयउ, कनयमाल घरितह गयउ विरिद्धि । (सोलह लाभ महंतु फलु, पुगा परापति सिद्धि ।।२३१॥ चौपई | पुग्नहि राग भोगु महि होइ, पुन्नइ नर उपजइ सुरलोड । पुनहि अजर अमर मुगपणा, पुन्नहि जाइ जीव रिंगव्दारणा ॥२३२॥ .. - - - - (२२९) १. चितई (क) पभरणहि (ख) २. एहि (क) इह (ख) ३. मन (क) माणु न (ख) ४. दिखायी (क) पठायउ (ख) ५. मरण (फ ख) ६. तिहि तिह (क) (२३०) १. छोडियउ (क) छाडियज (ख) (२३१) १. गुरुबउ (क) २. माहि (क ) ३. संसारि (कस) ४. पुन्नि (क) ५. फलइ (क) ६. जारिणउ (ख) जंपड़ (क) ७. कितु (क) ८. कित धूमकेत (क) ६. कित (क) सह (ख) १०. सिला तल (क) ११. पइ (क) चंपिउ (स) १२. कह (क) किसो पुनह प्रविड रिधि-यह पाठ 'क' प्रति में ही मिलता है। १३. नोटमूल प्रति का पाठ 'परिबंधि' (२३२) १. पुनि जग माहि एहउ होइ (क) पुन वा जु जगत महि होइ (6) . २. प्रजरामर () ३. पर ठगरा (क) अमर विमारण (ख) ४. निरवाणि (क) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न द्वारा प्राप्त विद्याओं के नाम विद्या सोलह लइ प्रविचार, चम्बर छत्र सिर मुकट अपार। मागसेज जा रयणी नशे, भरगी कपड वीणा पावडी ॥२३॥ विजयसंख कोसाद अपार, चंद्र संघासण सेखण हार । सोहइ हाथ काममुदरी, पहुपचाप कर कडिहा छुरी ॥२३४॥ कुसुमुवाण कर हाथह लेइ, कुडल जबल सम्बण पहेरइ । राजकुवरि दुइ परिणइ सोइ, चढि गैयर फुणि उभौ होइ ।।२३५॥ कंकरण जुगल रयणि अनिवार, अर द्वइ लेइ पुष्प की माल । न्हानी वस्त गण तह कवणु, इतनउ लेनि चलउ परदवणु ॥२३६॥ - मयण कुवर घर चल्यो तुरंत, मेघकूट खण जाइ पहुत । जमसंवरु भेटिउ तिहि ठाउ, बहुत भगति करि लागो पाइ ॥२३७॥ भेटि राउ फुणि उभो भयो, मयगु कुबरु रणवासह गयो । कनकमाल खरण भेठी जाइ, वहुत भगति करि लागो पाई ॥२३८॥ (२३३) १. जे सुविचार (क) २. सो (क) जा (ख) . रयणहि (ख) रपरगह (क) ४, जडी [क ख) ५. प्रगनि (क ) ६. कपटु (ख) (२३४) १. कोसार (क) उसबा (स्त्र) २. सेरथर (क) ३, "संघासण (क) ३. मुंबडी (क ख) ४. कडि (क) (२३५) १. युगल (क) झुगलु (ख) २. श्रवण (क) सबरणह (ख) ३. जाा (क) ४. गइपर (ख) ५. जभउ (क ख) (२३६) १. बुद्ध (क ख) २. पुहप (क ख। ३. वस्तु (क) वसतु (ख) ४. गिण (क) गणइ (ख) ५. इह (क ख) तिहि (ख) ६. एती (क) इतर (ख) ७. ले (क) लाई (ख) म. घालिउ (क) निकलिड (ख) (२३७) १. मेघ कुटिल (क) २. सो (ग) खरिण (ख) खिरिण (क) ३. पाह (क) ४. काल (ग) ५. नइ बइठउ प्राइ (ग) ६. तिह भा (ख) ७. लागिज (ब) (२३८) १. राव (क) २. पुरिण (क) तब (ग) ३. उभउ भयउ (क ख ग) ४. फुरिणवि मयण (ग) ५. करणयमाल (कल) ६. भेट तिह (ग) ७. लागउ (क) लागी (ख) मा (ग) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DI २ 3 कनकमाला का प्रद्युम्न पर आसक्त होना देखि सरूप मयण वर वीर, कामवाण तसु हयउ सरीर । फुणि सो अंचलु लागी धाइ, करि उतरु वह चल्योउ छुड़ाइ ॥२३॥ प्रा म्न का मुनि के पास जाकर कारण पुलना फुरिण सो मयणु सपतउ तहा, बरण उद्यान मुनिस्वरु जहा । नमस्कार करि पूछइ सोइ, कहहु वयण जो जगतउ होइ ।।२४०॥ कणयमाल माता मुह तणी, सो मोपेखि कामरस घणो । आंचल गहिउ छाडि तहि काणि, कारणु कहहु कवण मुहि जाणी।२४१। तं मुणियर ज पइ तखोणी, कहहु बात तुह जम्मह तरणी। सोरठ देस वारमइ ठाउ, तिहि पुरि निमस जादमराउ ॥२४२॥ ताको घरणि प्राहि रुकिमिणी, जह कीरती महमंडल घणी । तिहि सम तिरी न पूजइ कोइ, कंद्रप जग्गरिण तिहारी होइ॥२४३॥ (२३९) १. मयण सुन्दर (म) २. न सुहयउ (ख) हरिएज (क) तिसु हुमा (ग) ३. प्रचलि (क ग) ८. कहि (ग) ५. उत्तरु (ग) ६. गपउ (क) चल्या (ग) मोट-तीसरा और चौथा चरण ख प्रति में नहीं हैं १२४०) १. बे (क) जुगती (ग) २. जैन धर्म हइ निश्चय जहाँ (ग) (२४१) १. कंचनमाला (ग) मा (ग) ३ मोहि (क) महु (ख) मुहि (ग) ४. सा (क ग) ५. मोहि (क) मह (ख। हम (ग) ६. देखि (क ग) ७. सरि हणी (क ग) हगो (ख) ८, अंचल (क ग) ६. छोडि (ग) १०. मुखोसर जारिंग (क) (२४२) १. तउ (क) तव (ग) २. संघिरिण (ख) ३. जनमह (क) जम्मतर (ख) जनम्ह (ग) ४. द्वारिका (क) वारवं (ग) ५. स्वामी (क) निवस (स्न ग) (२४३) १. तिहको (क) तिहि को (ख) तिमु को (ग) २. परिणी (ख) ३. प्रधाइ (ग) ४. जस (क) ५. तिहरि (ग) ६. भीनधि (क) तिरिय न (ख) तिया न (ग) ७. तुम्हारी (क) तुहारी (ख, ग) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 धूमकेत हौ तू हरि लयो, चापि सिला तल सो उठि गयो। जमसंबर तोहि पालिउ पाणि, सो परदवन आप तू जाणि ॥२४॥ करणयमाल तुव, अंचल गहिउ, पूर्व जन्म तो सनमध भयउ । हह तोरािष्ट्र देमस कीपि, छछु करि तीहि विद्या तीनि ॥२४५॥ निसुणि वयरण सो वाहुडि जाइ, कनकमाल पह वइठउ जाइ। विद्या तीनि मोहि जउ देहि, जगतो पेसणु करिहो तोहि ॥२४६५॥ रस की बात कुबर पह सुणी, पैम लुवधि अकुलाणी धरणी। जमसंघर की करीय न काणि, तीनिउ विद्या प्राफी आणि॥२४७॥ पूरव दाउ कुम्बर मन रल्यउ, फुणि विद्या लइ वाहुरि चलिउ। हम्बु तुम्हि पूतु जगणी तू मोहि, जगतउ होइ सुपेसणु देहि ।।२४८।। - (२४४) १. तिह थो डिलियो (क) तज तू हरिलिज (ख) सुम्हि हजि ले । गया (ग) २. ट्ठियउ (क) उठि गयड (ख) उढि गया (ग) ३. तू (ख ग) ४... भपूरव (ग) मूल प्रति में तोहि पाठ नहीं है । (२४५) १. तुम (क) तब (स) तुम्ह (ग) २. तोहि (क) कस (ख) मेहि (ग) ३. सनबष (ग) ४. जो बहु होइ (क) जई हज हतो (ख) जे वह तोहि (ग) ५. प्रेम (क) परम (ख) पिरम ग) ६. छीनले (क) (२४६) १. मुगउ (ग) २. बहुडिज (ख) ३. प्राइ (क ख ग) ४. जे (क) जह (ख) ५ जुगत (स,ल) अगति (ग) ६. पलउ (क) विसनुह (ग) ७, करिष्ठ (क) । होइ (ख) हर करिस्यो (ग) ८. बेहि (ख) (२४७) १. सर (ग) २. प्रेम लुवध (क) प्रेम तुग्ध (ग) ३. तीनइ (क) तीन्हों (ग) ४ सज्मो (ग) (२४८) १. परियउ (क) कडिउ (ख) पूरिज (ग) २. कुमार (अ) ३. पिण (क) ले (ग) ४, सो (ग) ५. बाहुटि (क ख ग) ६. बस्यो (क) भलिउ (स) ७. हम (क) हज ( ग) म. सोहि (क) सुहि (ख) ६. मात (क) १०. हुई (ग) ११. युगत (क) कुगप्ति (ग) १२. पसाज (क) १३. करिउ पयो सोइ (क) - - .....- - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) कनकमाला द्वारा अपना विकृत रूप करना મ 3 ४ करण्यमाल तव धसक्यो होयउ, मोसिह कूडकूडीया कीयउ । k ६ ७ द इकु तउ लाज भइ मत टल्य, अवरू हाथि लइ विद्या चलिउ || २४६ || 6 4 २ 3 करणयमाल त बिसमउ धरइ सिर कूटइ कुकुवारउ करइ । I ५ 5 5 उर थणहर मह फारह सोइ, केस छोडी बिलंघन होई || २५० 2 इक रोगश भण करह पुकार, कल्चर रा जोगी सार । २ कुमर पांच पहुते जाइ, कनकमाल पह बइठे आइ ।। २५१ ।। १ कालस ंबर सउ कहउ सभाऊ, इहि दिषि पालक कीयउ उपाउ । ܀ Y घरम पूत करि थापिउ सोइ, अब सो मोकहु गयो विगो || २५२ || कालसंवर द्वारा प्रद्युम्न को मारने के लिये कुमारों को भेजना निसुरिण बयण नरवई परजलीउ, जागौ धौउ अधिक हुतास परिउ । 3 E कुवर पाचसह लिये हकारि, पर वेगि इहि श्रावहु मारि ॥ २५३ ॥ (२४९) १. धसकैया (ग) असकिउ (ख) २. होया (ग) ३. मोहि स ( क ) हि सिह (ख) मोस्यों (ग ) ४. कूडि जय (ग) ५. व मोहि (क) हकु सहू ( ख ) कुत (ग) ६. गई (ख) ७. मन ढलिङ (क) मनु टालिङ (ख) मधु दलित (ग) ले विद्या हाय ते चलिउ (ग) ८. (२५०) १. तो ( ग ) २. करइ (कख) ३ पीटर ( ग ) ४. शुकवर (क) फुकु भारत ( ख ) अव कूकतज फिरह (ग) ५. नव (क) नह (ख) करि (ग) ६, फाइ (का) पोटड (ग) ७. खोलि (खग) ८ विहलघल (कख) विखलि ( ग ) ( २५१) १ जण सार (क) राजा पासि जरगाव सार ( ग ) (क) पंचसय (ग) २. पंचस (२४२) १. स्यो (क) सिउ (ख) जब वहठ्ठा भाइ ( ग ) २. विशु ( ग ) ३. बालक (ग) पालागी (ख) ४. किल एह उपाव (क) कीयउ उपगार (ख) कीया उपाउ (ग) ५. राखिय ( क ) थापी (ग) ६. चलिउ (ख) गया (ग) (२५३) १. सुखे ( ग ) २ जणू (ख) ३. घृत (क) घिरत ( ग ) ४. वसंतर (क) वासए (ख) वेसंदर (ग) ५. भलिउ (क) पडिङ (ख) टाल (ग) ६. पहि afra सु ७. तुम ( क ) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 तव कुवर मन पूरंउ दाउ, बहिकहु भयउ विरुद्धउ राउ । मिलि सब कुवर एकठा भए, मयण बुलाइ कुवर वण गए ॥२५॥ तवइ अलोकरिण विद्या कह्यउ मयण अचंकित काहे भयउ । एह बात हो कही सभाइ, ए सव मारण पठए राय ।।२३५॥ तव रिसालो साहस धीर, नागपासि घाल्यो वरवीर ।। चारि सौ नानाणी पाकउ भरइ, बाधि घालि सिला सिर धरइ २५६ एकु कुम्बर राखिउ कमार, राजा जाइ जरणाइ सार । तुहि जउ राय भरोसउ पाहि, दणु परिगह प्राणइ पलणाइ ॥२५७॥ जमसंदर रा बइठउ जहा, भागिउ कुवर पुकारिउ तहा । सयल कुम्वर वापी मह घालि, उपर दोनो बज्र सिल टाल ॥२५॥ (२५४) १. तर (क) तिय (ग) २. कुमरे (क) कुमरनि (ख) कुवर (ग), ३. पूगड (ग) ४. सु को (ग) मार ममरण मब पूजइ बाउ (क) मारहि मयरस (स) ५. सहि (ग) ६. बुलावह (ग) ७. कमल (क ख) (२५५) १. पालोकरिण (क ग) २. कहइ (क) कहिउ (ख) कहै (ग) ३. मरिण कारते ढोलज कहइ (क) संभलु मयण कुबरु मति कहा (ग) निचितउ (ख) ५. सुभाउ (क) सभाउ (ख) ६. तुझ (क) ७. पठयो (क) (२५६) १. तहि (क, ग) तउ (ख) २. चमकियो (क) विहसाउ (ख) रोसाणा (ग) ३. सहस सधीरु (ग) ४. धारिसह निनाणे (क) चारि निनाणे (ख) चउसइ नंग्याए (ग) ५. प्रागइ घरई (क) को भरा (स) को भरउ (ग) | ६. वापि (ग) ७ सहा (क) ८. तलि (क) (५७) १. तिन लिया उबारि (ग) २. राहि (क ) इ. जणावहि (ख) । ४. सुहि सई (8) जे तुझ (ग) ५. दलु {क रू) बल (ग) ६. परियप (क) ७. सब ! खेह (क) प्रारराहि (ख) बेगा (ग) ८. पलाइ (क) ले जाइ (ग) (२५८) १. बहठाहइ (ग) २. सो जड (क) ३. पहसा (ग) ४. महि (कग) मुहि (8) ५. राल (ग) ६. बोधो (क) ७. शिला माल (क) शिला टास (ख) हताल (ग) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जमसंबर और प्रद्य म्न के मध्य युद्ध निसुणिवयण मन कोपिउ राउ, प्राजु मयरण भानो भरिवाउ । । रहिवर साजे गैवर गुडे, तुरिय पलारणे पाखर परे ॥२५॥ धनुक पाइक अरु छुरीकार, अतिवल चलत न लागी बार | । पावत देखि मयण कह कर, सैनाकरि सयन रची धरै ।।२६०॥ जाइ पहुतउ दल प्रतिवंत, नहा हाकि भीडइ मयमंत । रावत स्यौ रावत रण भिरइ, पाइक स्यो पाइक पा भिडइ ।।२६१॥ जमसंवर कहु पाइ हारि, चउरंगु दलु घालिउ मारि । विजाहरु रा विलवउ भयो, रहवर मोडि नयर मह गयउ ।।२६२॥ (२५८) १. कोप्यो (क] कोप्या (ग) २. भानउ (ख) भागउ (ग) ३. भडिवाउ (ख ग) ४. रहहिवार (ग) ५. गुरङ्ग (क) गुरुहि (ग) ६.तुरी (क ग) ७. पहि (क ग) (२६०) १. पायक (फ ख) धानुप (ग) २. कगाह (ग) ३, अविचल (क) ४. लाइ वार (क) सभि हथियार सूभट ले जाहि (ग) ५. मवमु (ख) ६. पया (ख) के (क) ७. निहरस्थो (ग) ८. करइ (क) नाम (ग) १. सेमा रचि साम्हर संचर (क) सपना कहब सपनु रचि घरह (ख) माया रुप मयनु रथि ताम (ग (२६१) १. पहूता (क) पहूते (ख) २. बलवंत (क} मिलि मायो सु जबहि अनन्तु (ग प्रति) ३. वेगह प्राइ (क) तहं तहं कि मिरे भयमंत (ख) तब रथ हकि भिड्या मयमंतु ४. रबर सिह रहवर ! ख ग) रहबर सो रहवर (क) ५. टूटइ खङग पराभुई ताम (क) रहि तुड मुड पर जाम (ख) दहि र मुग वह ताम (ग) (२६२) १ को (क) २. घाबह (क) ३. पनु (ख) ४. घस्लिउ (ख) धाल्या सहि (ग) ५. राउ (क) सब (ग) ६. विलखा (ग) ७. मयण कुवर सह गल मारिया (ग) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया पुरिण गिय मंदिर जाइ पहुत, जमसंबर तब कहइ निरुत । कनकमाल हउ पायउ तोहि, तीन्यो विद्या प्राफइ मोहि ॥२६३|| निसुरिण बयण अकुलानी वाल, जाणि सुहइ वज्र को ताल । जिहिलगी सामी एतउ भयउ, मो पह छीनी कवर ले गयउ ॥२६४॥ वस्तुबंध-एह नरवइ सुरिणउ जब वयणु । विजाहर कारण करइ, तिय चरितु सुणि हियउ कंपिउ | उरुषु रुहडे फाडियउ मोहि सरिसु इरिग अलिउ जपिउ ।। पेम लुवध कारण प्रापी विद्या तीनि । अब मोस्यो परपंचु करइ, कुमर ले गयो छोनि ॥२६५।। । (२६३) १. पिरिण (क) फुरिण २. तह (क) ३. प्रापी प्राउ (ख) ग प्रति में निम्न पाठ है जम संबरू तब पिल्ला भया, बलु छोड्या घर' कह उहि गया । जति मातह घोल एट, तीन्यो विद्या वेगी देह ॥२५२॥ (२६४) १. नारि (ग) २. सिरि बजी पचताल (क) ३. स्यामी (क) स्वामी । (n) ४. एहबा (ग) ५. मुझ (क) मोहि घिगोइ छीनो ले गया (ग) (२६५) १. जा (क) २. करूणा (ग) करण (ख) ३. भिया (क) तिया (ग) ४. एस रुप मह समझिम (क) कंपड उसुदा थर हर इ (ख) उरू वुद्ध होइ पूरहस्थो (ग) ५. मातु (क) प्राल (ग) ६. लुवधि (क ख) ७. परपंचु (क ख) ग प्रति वह झूरा तह राउ मनि, देख्न चरितु इह तेणि । प्रेम सुबध का कारणिहि. सजपो विद्या एणि ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौपाई १११ देखि चरित जब बोलइ राउ, अब मो भयउ मरण को ठाउ । अतिरियहं तण उ जु पतिगउ करइ, सो माणस अणखुटइ मरइ । तिरिय चरितु निसणउ भरिभाउ, बिलख बदन भउ खगवइराउ ।२६६ ध्रुबक छन्द स्त्री चरित का वर्णन अलियउ वोलइ अलियउ चलइ, निउ पिउ छोडइ अवरु भोगवइ । तिरियहि साहस दणो होइ, तिरिय चरित जिण फुलई कोइ ।।२६७।। चौपई - नीची जुधि तिम्बइ मनि रहइ, उतिमु छोडि नीच संगई । । पयडी नोच देइ सो पाउ, एसो तिवई तणउ सहाउ ॥२६८॥ -- . - .. (२६६) १. पुरिण (क ख) तव (ग) २. सोभइ (फ) २. इस मोहि जुगतउ | मरण का ठाउ (ग) ४. त्रिय (क) सिया (ग) ५. पतिगत (ख) पतिगह (क) | मरोसा (ग) ६. भूरिख (क) नर जाणउ (ग) ७. अनटो (क ख) ६. त्रिम (क) सिरिय (ख) तिया (ब) मूल पाठ लिनिय ६. सुरगड (ग) १०. धरिभाउ (ग) ११. पयउ (क) तह (ग) १२. तब राउ (फ) बोलइ राउ (ग) (२६७) १. चवइ (कस्स) चहि (ग) २. निय पिय (क) निउ पिउ (ख) | थाहगु (ग) मूल पाठ केवलं पिर है । ३. छोडि (क ख ग) ४. पौरिष (क) ५. पूज (ख) दुवराज (क) ६, नथि (क) मतु (ग) ७. भूलइ (क) भूलउ (ख ग) (२६८) १. नीच ख) २..लिया (क) ती (ख) तियह (ग) ३. ममि रहे (क) मनु हरप (ख) मा धरहि (ग) मूल पाठ मुनि ४. संपहा (क ख) भोगवहि (ग) ५. नीची (क ख ग) ६. वे सो पाय (क) देई सो पाउ (ख) वह सिर पार (ग) ७. श्रियह (क) ती मई (ख) तो ३६ (ग) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) उणि नयरि सो बूचइ ठाउ, पुवह हुतौ विवयह राउ । तिरिय विसास करइ जो घणउ, जिहि जीउ सोप्यो राजा तरण उ।२६६॥ दुइजे राउ जसोधर भयउ, अमइ महादे सोखइ लयउ । विस लाडू दइ मारचो राउ, फुरिण कुवडउ रम्यो करि भाउ ।२७०।। फुणि तीजे णिमुरणह धरि भाउ, आथि नयरु पाटण पयठाणु । हया सेठि निमसइ तिहि काल, तीनि नारि ताको सुहिनाल ।२७१।। सोतउ सेटि अति उति गराउ, जोर जुधि लिहि काहल कीयउ।। छाडी हया सेठी की काणि, भूतु एक सिर थापिउ प्राणि ।।२७२॥ अदिरिण छोडि नाहु सुपियारु, धूतु प्राणि ता कीयउ भतारु । तिहि साहस कउ अंत न लहउ, सिहि चरितु हउ केतउ कहउ।२७३। । (२६६) १. अणि (ख) २. नयरो (ख) नयर (ग) ३. जो द्वाज (क) ऊचह (ख) असिख (ग) ४. पुरष गया सो ठाउ (क) पुष्य तु बियर कसुराज (ख) तिस पुर मंच विकाराउ (ग) ५. विशास (क) विस्वास (ग) ६. किया तिह घरणा (ग) ७. त्रिय (क) प्रापगड (क) (तीसरा चरण ख प्रसि में नहीं है)। से हिति जिज प्रारण राजा तराउ (ख) राजह सउप्पा जीव प्रापणा (ग) (२७०) १. राज (क) २. गयउ (क) ३. प्रमइ महादेवि सो लिउ (क) प्रमय महावे सो घर गयउ (ख) प्रदत-मती तिय लागोया (ग) ४, मारित (क ) । मारा (ग) ५. कुवडा ते (क) ६. रमिउ (क ख) रम्याइ (ग) ७. घरि (ख ग) | (२७१) १. तेउ (क) तीष (ख) विजमाहरु तब वोलइ राउ (ग) २. अस्थि (क ग) ३. पहरणपुर (ग) ४. छाउ (क ग) ठाउ (ख) ५. घराबाह (क) हाया (स) । हवा (ग) ६. वसइ (क) ७. तिहके (क)। तिस को (ग) (२७२) १. सोवतज (क) सो तहि (ख ग) २. बगनहि (ग) ३. प्रेम सुबध तिहि अइसा कीया (ग) ४. छावा (क) छोडी (ग) ५. तेह (क) हाया (ख) तणी (ग) ६. सव (ग) ७. वारिश (क) ८. धरि (क ख) तिन राखा प्राणि (ग) . (२७३) १. पश्मिराउ (क) ररिग (ख) २. छाडि (ख) ३. नारि (क) ४. तिह (क) तिन ( ५. भतारु (ख) प्रथम-द्वितीय चरण य प्रति में नहीं है। ६. हह (क) तिसका (ग) ७. को (क) अंतु न कोई लहइ (ग) ८. त्रिय (क) त्रिया (ख) तिया (ग) 8. फितना ले (ग) फेता कहोड (ग) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभया राणी कीए विनाणा, मुहदसण लगि गये परान । जिहि लगि जुझ महाहो भयो, लइ तप चरणु सुदंसरणु गयउ २७४ । रावण राम जे वाढी राडि, विग्रह भयउ सुपनखा लागि । सीया हडह लंका परजलइ, सब परियण रावण संघरइ ।।२७५।। कौरों पांडो भारथ भयउ, तिहि कुरुखेत महाहउ ठयंउ । अठार खोहणी दल संधारि, द्वई दल बोलइ दोबइ नारि ॥२७६।। कालसंवरू तउ कहइ वहोडी, कनकमाल तो नाही खोडी । पूरब रचित न मेटगा कवरगु, ए वीद्या लेहै परदवरणु ।।२७७।। प्रसुह कम्मु नहु मेटइ कोइ, सुरजनुहु तउ सुवरीयउ होइ। - दोस न कनक तुहि तरणउ, इह लहणौ लाभइ प्रापरणउ ॥२७॥ । (२७४) १. विवाण (ख) २. सुदंसरण (क) सुभसरण (ग) ३. तिहिं स्यों | मास झूझ इहु भयो (ग) ४. संजम लेइ (क) लय तप घर (ख ग)। (२७५) १. जा (ग) २, वापी (क) बंधी (ग) ३. विधन सुरपखि कोनी राज (क) विगाह बलिज सपनखो लाहि (स) विग्रह चस्पा सुपन भय ताकि (1) । ४. सीता (क) सोय (ख ग) ५. हरण (क) हाणु (ख) हड़ो (ग) ६. परजलस्य (क) परजलइ (ख) परजली (ग) मूल पाठ-परजली लाइ ७. सब परिपण (क) - रघउ परियर (ग) मूरन पाठ स्यो पयाल ८. संचरण (क) संघरा (ख) संघटी (ग) (२७६) १, कौरव (क) फोरस (ख) कइरव (ग) २. परिव (क) पांडउ (ब) पंडन (ग) ३. विग्रह (ग) ४. सयउ (ख) ५. तिनि (क) तिन्ह (ख) तिन्हे (ग) । ६. कियो (क) किया (ग) ७. अट्ठारह (फ ग) अठारह (ख) + वुद्ध (क लग) ६. द्रोपदी (क ग) (२७७) १. बोला (ग) २. कंचनमाल (ग) ३. तह लागी (क) न तुमय लोडि (ग) ४. कोइ (ख) तोसरा पोर चौथा चरण 'ग' प्रति में नहीं है। (२७) १. कर्म (क) २. नवि (क) ३ सज्जन ते सुख वरी होहि (क) प्रथम एवं द्वितीय ग में तथा द्वितीय एवं तृतीय चरण व में नहीं है। ३. कनकमाल (क ग) ५. लिखिर्यउ (क) लहरा (ग) , Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया दग्घति गुणा विचलंति वल्लहा, सज्जनाहि विहति । विवसाय रणाथि सिद्धी पुरिसस्स परंमुहादिम्बहा ॥ चौपई छुटउ कमणु काल की वहिण, फुणि ते बहुडी करी सामहण । चउरंगु वलु सवु समहाइ, करउ अभेडउ दुइजो जाइ ॥२७॥ यमसंबर एवं प्रद्युम्न के मध्य पुनः युद्ध बहुत रोस मन नरवइ भयउ, चाउ चढाइ हाथ करि नयउ ! लयउ धनषु टंकारिउ जाम, गिरि पवय जागी डोले ताम १२०० दोउ वीर प्राइ ररग भिडे, देखइ अमर विवाणहि चढे। वरसहि वारण सरे असराल, जागो धरा गाजइ मेघ अकाल ।२८।। 2 गाभा १. न संति (ख) निसंति (ग) २. विद्या (ग) ३. सजणा (क) | सज्जनाय (ख) सपण सज्जन (ग) ४. विधति (1) ५. सजन पासु नुयण भया, जे मथिह कम्म चलंति (ग) (२७८) १. कवरण (क ख) २. संमहण (क) समहाण (ख) ३. करा शुभ तब बाबुद्धि भावि (क) ग-काल संवह मनि भया उदासु, छोड्या करणयमास का पासु । दल बरंगु सह लीया वुलाइ, फरद झूझ बाहुडि सो आइ ॥ (२८०) १. दोसु (ख) २. चक्र (क) बाशु (ग) ३. तिहि लीया (ख) ले (ग) ५. घुरात (ग) ६. टंकारा (ग) ७. पयास भन कंपद ताम (ग) क—धनुष टंकार करई ते जाम, तब गिर परवत कालइ ताम (२८१) १. दोनड (ग) २. गजहि (ग) ग प्रति में दो चरण निम्न रूप में अधिक है होऊ धीर खेर सपराण, दूरणे वणे करि संधारण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव परदमण रिसानो जाम, नागपासि मुकलाइ ताम । सो दलु नागपासि दिठु गाउ, राउ अकेलउ ठाढउ बाउ ॥२८२।। भणइ मयण एसो करइ, जमसंवर सबु दल संघरइ । इम भयरद्धउ कहउ सुभाय, तउ नानारिष गयउ तिह ठाइ ।२८३। नारद का श्रागमन एवं युद्ध की समाप्ति भरणइ मयणु रहायो मयणु, बापहि पूतहि गाउ कमरणु । जिहिप्रतिपालिउ कियउतु राउ, तिहिकउ किमि भानइभरिभाउ २८४ नारद बात कहै समुझाइ, दू दल विगाह धरइ रहाइ । कालसंवर तो हो इन जूत, यह परदवंण नरायण पूत ॥२८५॥ निसुणि वयण मन उपनौ भाउ, भरि आयौ सिर उमइ राउ । इतडो परि पछितावो भय उ, चउरंग दल संघरि लयउ १२८६॥ (२८२) १. सो (ग) २. छोड तित्तु ठाम (ग) ३. बुद्ध (क) ४. रहो (क) रहिउ (ख ग) (२८३) क ख प्रतियों में निम्न पाठ है । नराइ भयरण एसो करड, जमर्सबर स दल संघर। इम मयरबार कहा सुभाय, तज नानारिष गयउ तिह ठाइ २६२॥ म पति भएई मपन हो इसज कराउ, इव भागउ इसका भडिवाउ । नानारिषि आया तिह द्वाइ, कही बात लि आंव साइ ॥२७३।। (२८४) १. तउ रिपि जाइ रहायउ मयण (क ख) बोला रिषि तू सुरण पर दवा (ग) २. विग्रह (क ख ग) ३. अंतराव (क) न तह राउ (ग) ४. तिनका (क) तिस का (ग) ५, सिंषु (क) किंउ (ग) (२८५) १. दुध (कास) बुह (ग) २. विघ्न (क) विपहङ (ग) विगाह (ख) ३. हइ धराइ (क) घराई (ग) ४. तोहि (क) तुहि (ख) तुम्ह (ग) ५.-निरुत (क) जुत्त (ख) ६. तुम्हारउ (ग) (२८६) १. मपरण (क) वमन (ग) २. प्राइ (क) प्रासड (ख) ग्रहि अंफि (ग) ३. धुमा (क) चूह (ख) चूची (ग) ४. लडिया (क) तानि व मारिस (ख) इतना (ग) ५. गयउ (क, ख) सह संघारिया (ग) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) तब मयरण मन छोड़ों कोह, मोहणी जाइ उतारयो मोह | * नागपास जब घाली छोरी, उरंग वल उठो बहोरी || २८७ ॥ २ उठी सैन मन हरिष्यो राउ, बहुत मरण को कीयो पसाउ । 3 नानारिषि वोलs तत्रिणी, वर प्रवेसि K तिहारी धरणी || २६८ ॥ सामहणी करहु | २ वयरण हमारे जउ मन धरहु, घर वेगे पवरण वेगि द्वारिका तुम जाहु, श्राज तिहारी श्राहि विवाह | २८६ | नारद बात कही तुम भली, मुही केवली कही सो मिली । २ 3 t बिस बात बोलइ परदवर हम कह बेगि पराइ कम्बर | २६०| नारद एवं प्रद्युम्न द्वारा विद्या के बल विमान रचना ર नारद खरण विभाग रचि फरइ, केंद्रप तोडइ हासी करइ । 3 ४ 보 बहुडि विम्बारण धेरैइ मुनि जोडि, खण मलयद्धउधारइ तोडि|| २६१ || २ विलख वदन भोनारद जाम करइ उपाउ मयर हसि ताम । 3 ५ मरिण माणिक मय उदउ करंतु, रचि विमारण खरण घरइ तुरंतु | २६२ ॥ ( २८७) १ तबही ( क ख ग ) २. तब (क) बन्ध (ग) ३. सुचला (ग) ( क ) सण ( ख ) मयलु (ग) तुहारी (ख) अयि तुम्ह (ग (२८८) १. उठी (क) उट्टि (स्व ग ) २. सेन ३. श्रारति ( क ) अबसेरि ( ख, ग ) ४. तुम्हारी (क) ५. सरगी ( ग ) (२८१) १. चिति ( ग ) २. घर सामहणी साम्हा चलिउ (क) घर कहू पियारणा कर (ख) घर को वेगि सातो कर (ग) ३. घर कहू बाहू (ग) ( २० ) १. मुणिवर ( क ) २. पूछइ ( क ) ३. परगाव ( ग ) पराइ (ख) (२१) १. रिषि (ग) २. रिषि ( क ) ३. करड (क) रिषि धरम सु जोडि (ग) ४. करि (ग) ५. क्षरण (ग) ६, मगर ( क ख ) ६. महराबा ( ग ) ७ घालह ( क व व ) मूल प्रति में मुनि के स्थान पर 'मन' शब्द है । (२६२) १. होइ (क) हुज (ख) २. मइरघउ (क) मया विशि ३. मरउ (क) ४. बहू (स्व) का (ग) ५. वरण (ख) बिगि ( ग ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) विद्यावल तह रच्योउ, विमार, जहि उदोत लौपि ससि भाणु । 보 धुजा घंट घाघरि सजतु, फुरिंग विह चढयो नारायण पूत । २६३ जमस व रामहिउ जाइ, बहुत भगति करि लागइ पाइ । २ कुमरहि सरिसु खिरण तबु करइ, कंचणमाल समदि घर चलइ | २६४ । ६ १ कुवरु मयरण अरु नारदु पास, चठि विभाग उपए श्राको । 3 गिरि पव्त्रय वहुं लंघे मयरण बहुत ठाइ वंदे जिरणभवरण | २६५| उदिधिमाल दीठी ता ठाइ । 3 * ५ बहुत बरात कुवर स्यो मिलि, भानु विवाहण द्वारिका चली | २६६ | 1 फुणि वरण माझ पहुते जाइ, 4 २ नारद वात मरणस्यो कही, यह पहले तुम ही कहु वरी । 3 तुम हडि धूमकेत ले जाइ, तउ अब भानहि दीनी श्राइ ॥ २६७॥ ★ 3 * मुनि जंपर मुहि नाही खोडी, आहि सकति त लेहि अजोडि | रिषि को वयण कुमरु मरण धरइ, आपण भेस भील कछु करइ | २६८ | (२३) १. तिनि ( क ) तहि (ख) तिहि (ग) २. बलिउ ( ख ) ३. उदया (ग) ४. लोपिङ (क) लोपि ( ग ) करहि (ख) ५. धारि (क) वावती (ख) क - करणय विमा सुहिर रसजूत (ग) ६. चलि चढघो (ग) ( २१४ ) १. राजा समिझार (क) राजा समवि धरि जाइ (ख) प्राया तितु डाह (ग) २. मावरिंग करs ( क ) खिउ तब करज ( ख ) सबहि कुवर सों विमति कर (ग) ३. माता जाइ धरि (क) वलरण सिरि धरइ ( ग ) ( २६५ ) १. प्रगासि ( क ) २. उपमे (क) उप्पवे (ग) ३. परवत (कर) पचय (ख) (२६६) १. वर माहि ( क ख ग ) २. उदधिमाला रही तितु ठाइ (ग) ३. बाल (क) बारा (ख) वरसे ( ग ) ४. कुमर मन (क) कमर कह (ल ग) ५. भान (क) भानु (खग) ६. विवाह (क व ग ) मूल प्रति वरण के स्थान पर मरण (२१७) १ ऋषि (ग) २. उच्चरी (ग) ३. तो यह नारि भानु कहु व्या (ग) (२६८) १. तुम ( क ) तुम्हि (ग) २. श्रात्थि (ग) करि अजोडि ( ग ) ४. बहोड ( कल ) ५. मिलन का (ख) ग - नारद वचनहि अइसा भया, आपण भेंस भील हया ( ग ) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) प्रद्युम्न द्वारा भील का रूप धारण करना घणही कांड बिसाले हाथ, उतिरि मिल्यउ तिनि के साथ । पवरण वेग सो अागय गयउ, देइ पाखर परिण उभउ भयउ ।२६६। हउ वटवाल नारायण तरणउ, देइ दाण मुहि लागइ घरणज । चढ़ी वस्तु पापु मुहि जोगु, जइसे जाण देइ सवु लोगु ॥३००। । महलउ भणइ निसुरिण महु वयरगु, बडी वस्त तू मागइ कमूणु । अर्थ दई सोनो तू लेहि, हम बहु जाण अगहुडउ देइ ॥३०॥ भीलु रिसाइ देइ तब जाण, आइसी परि किम्व लाभइ जाण । भली वस्त जो तुम पह आई, मो मुहि आफि अगहुँडे जाहि ।३०२।। तउ महलउ जंपइ मुहि चाहि, एक कुम्वरि मोपह इह पाहि । हरिनंदरण कहु परणी जोइ, अरे सम्वर किम मांगइ सोइ १३०३। (२EE) १. पुरणही (क) अनही (ख; धनुष (ग) २. सजि करि सर ले हाथि (क) वाण विसाले हाथि (ख) कटारी विसाल हाथ (ग) ३.तिन कई (क) तिम्ह। ही (ख ग) ४. पुरिण उठि मिल्या (ग) ५. ले पाखत (क) बद पाखत (ख) धेह अविद्र तब ऊभा भया (ग) ६. तब (क) कुणि (ख) (३००) १. वस्त (क) वाण (ख) बस्तु (ग) २. जोगि (क) । लोग (ख) ३, जिउ हर (३०१) १. महिला (क ग) २. सुगहि (क) ३. मो (क) ४, प्ररप (क) प्ररथु (ख म) ५. दरखु (ख ग) देखि (क) ६. तं (क) ७. लेह (क) लोहि (ख) ८. प्रागे (क) अग्रहर (ख) वेगि जाप (ग) (३०२) १. भिल्ल (ख) २. पारण (क ख ग) ३. एसी (क) ४. बडो (ग) ५. माहि (क स) अइहे (ग) ६. लागह (क) प्रघउउउ (ख) मोह हम बेहु भिनु इम कहै (ग) (३०३) १. वाहि (ख) २. जो भो पहि (क) इह मो एहि (ख) यह मो पहि (ग) ३. सोह (ख) ४. सवर (क) समर (ख) नोट-तीसरा और चौथा चरण 'ग' प्रति में नहीं है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) भणइ वीर यह अाफहि मोहि, जइ सइ वाट जाण द्यो तोहि । महलहु कोपि पयंपइ ताहि, अरे भिलु तोहि जुगत न आहि ।३०४। निसुणइ महल कहइ विचारु, हउ नारायण तरणउ कुमार । हखोल जिन करहु संदेहु, उदधिमाल तुमि मो कहु देहु ॥३०५|| महलउ बोलइ रे अचगले, भूठेउ बहुत कहइ अतिगले । ईतीनि खंड जो पुहमि नरेसु, तिहि के पूतहिं प्राइसु वेसु ॥३०६।। बाट छोडि तउ ऊबट चले, उहि पह भील कोडी दुइ मिले । भाइ सबारु नहि मुहि खोडि, वलु करि कन्या लइय अहोडी ।३०७। प्रद्युम्न द्वारा उदधिमाला को बल पूर्वक छीन लेना - छीनि कुम्वरि तहि लइ पराण, फुरिण सो बाहुडि चल्यउ थिम्वाण । भीलु देखि सो मनु अहि डरइ, करण कलापु कुवरि सो करइ ।३०८। (३०४) १. मुहि (क) इह (ख) पह (ग) २. भिल्लु (ग) ३. सहि मेहि (ग) ४. जेसे (क) ५. दो (क) दिउ (ख) नातरु जाणक देऊ तोहि (ग) ६. भणड (क) चपइ (स ग) ७. दुहि जुगती न पाहि (क ख) गप्रति में हरि नंदन का परमो जोह, अरे भिल्नु किउ मागहि सोई।। (३०५) १. सुरिण (ग) २. महिले (क) माहतो (ख) महिला (ग) ३. एणि वयरिंग (क) दूसर बात मत (ग) ४. तुम्हि प्रायो एहि (क) तुहि मुहि कह देह (ख) हम कह देव (ग) (३०६) १. अगले (क) महिला कोपि सु तब परजतो (ग) २. जुट्टि (क) ३. प्रागले कि ख) झूला वचन कहहि हो मिली (ग) ४ पुत्र (क) पूल कि (ख) पूतुन (ग) ५. कवा इह वेसि (क) प्राइसउ भेसु (ख) प्राइसा वेस (ग) (३०७) १. उबरे २. (ग) चलइ (क) चले (ख) चलिउ मूलप्रति में 'चलो' (ग) ३. उठि (ख) तापहि (ग) ४, इक (कम) ५. कुमर (क) सधारू (ख ग) मूल प्रति में 'सघरु' ६. हम (ग) ७. यहोडि (क ख) अजोडि (ग) (३०८) १, षो निये पराशि (क) सोज कुबर तिन्हि लई पराण (ग) २. 'चले (फ) चडिज (ख ग) ३. मरण (ख) करुण (ग) मत ए रूप कुमर ए करिउ (ग) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ } पहले मरण कुवर केहु वरी, दुजे भानु विवाहण चली । ४ नारद निसुणी हमारी बात, अब हो परी भील के हाथ ॥ ३०६ ॥ अव मोहि पंच परम गुण सरणा, लिउ सन्यास होइ किन मरणा । 3 ४ तउ नारद मन भयो संदेहु, बुरो वयरण इनि श्राखिहु एहु ॥ ३१०॥ तउ नारद जपइ तंखिरणी, केंद्रप कला करइ श्रापणी । लखण व्रतीस कायमय अंगु रूप आपसी भयो अांगु ॥ ३११ ॥ उदधिमाल सुबेरि समझाइ, फुरिण विमारा सो चलिउ सभाइ । ॥ २ चलत विमारण न लागी वार, गये बारम्बई के पइसार ||३१२॥ देखि नयरु बोलइ परदवणु, दिपड़ पदारथ मोती रय । ર્ धनुक कंचण दीसइ भरी, नारद बसइ कवण उह पुरी ॥ ३१३ || (३०६ ) १. कुबरी (क) २. अली (ग) ३. कजह (क ग) बुहत (ख) बहू (क) प्रवर (ख) इही (ग) ५. कइ ( ख ग ) (३१०) १ ले चारित फिम हो सहि मर (क) ले मासा जसु होवइ मरल (ग) सील सधात सित हुइ फिन मरण (ग) २. पडिज (कख) पड्यो (ग) ३. बोरज (क) ४. मोहि (क) (३११) १. उटि (क) २. करणचन (क) कराइड (ग) ( ३१२) १. तब ( ग ) चले विमारिण बचत मनु लाइ ( ग ) २. गये नगर द्वारिका मकार (क) गए बारमह कियय सारू ( ख ) गया वरबड़ नयर दुवार ( ग ) ( ३१३) १. घन का ( कव गं) २. ए (फ) इह (ख) ग प्रति में यह पद्म नहीं है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारद द्वारा द्वारिका नगरी का वर्णन वस्तुबंध-भरणइ नारद निसुणि परदवरण । यह तु चइ द्वारिकापुरी, बसइ माझ सायरहं णिच्चल । जमि भूमिय अथि तुव, सुद्ध फटिक मणि जरिणत उज्जल ॥ कुवा बाडिउ च वणवर बहु धवहर प्रावास । । पहुपयाल जिरणवर भुवरण पउलि कोट चोपास ॥३१४।। । निसुणि जपइ मयगु वरवीर, मुझ वयणु नारद निसुणि । ! फुडउ कहहि णहु गुझु रखहि, देखि मयणु रिणय चित्त दइ ।। जो जहि तणु उ अवासु ॥३१५॥ चौपई । माझ नयरि धवल हरु उत्तगु, पंच वर्ण मगि जडिउ सुचंगु । मरडू धुजा सोहइ वह घराउ, वह प्रवास सु नारायण तरणउ ।।३१६॥ (३१४) १. एह बसइ (क) यह कहिया (ख) यह ऊंची (ग) २. सदंगी (क) हनियाल (ख) हबवुपरि (ग) ३. जम्म (क ख) जनम (ग) छा तुमह (क) वह माथि तुव (स्त्र ग) करइ राज इकु छत्ति सो हरि ग प्रति में यह घरए पल्ले के स्थान पर है। ५. सो बन्न बन्नी (क) जडित (स्त्र) ६. वाडो वयण वर (क) गाडिउ वयर पथर (ख) वापी वाग वरण (ग) ७. भवल (क ख ग) ८. वह पयार (क) ६. पोवलि कोर चोपास (क) म वयण नारद निसरिण भुरिग किवाणा साप्त (ख) कंचन कलसिहि दीपतिहि बसइ भूवण घजयास (ग) __ (३१५) १. पर्यपइ (ग) २. मोहिं (ग) ३, कुउउ मुझहि गुह्य रहि (क) कहा साचा जिन गुज्म राखत (ग) ४. कवण गेहि मुह तरणउ सयल चरित मोहि सयल अहि (क) कवण गेहु महु कह तराज सम्खु चहि महु सरस अक्सर (ख) कश्शुमेह इहु किसण तरणौ । सयल भेदु हम बेगि प्राखहु (ग) (३१६) १. मझि (क ग) मझु (ख) २. जलिय (क) अडिउ (ख) जडे (ग) मलपाठ चजिउ ३. तब खिउ (क) बनु शरणा (स्त्र) ४. एह (क) - (ग) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघ धुजा डोलइ चोपास, वह जाणइ बलिभद्र अवास । जहि धुज मेढे दोसइ देव, वह मंदिर जाणइ वसुदेव ॥३१७॥ जिहि धुजा विजाहर सहिनारग, बंभरण व इठे पढ़इ पुराण । जहि कलियलु वह सूझइ धरणउ, वह अवासु सतिभामा तण उ ।३१८। । कलकमाल जस उदो करत, जह वह धुजा दीसइ फहरंत । मणिगज मरिण सहि चउपास, वह तुहि माता तणउ प्रवास ।। ३१६।। ! निस रिंग वयण हरषिउ परदवणु, तिहि को चरितु न जाणे कवरण। उतरि विमाणति उभउ भयउ, फुरिण सो मयण नयर मा गयउ ।३२० प्रद्युम्न को भानुकुमार का प्राते हुए देखना चवरंग दल सयन संजूत, भानकुवर दीठउ अावंतु । तव विद्या पूछइ परदम्बनु, यह कलयलुसिह आवइ कम्बनु ।३२१॥ (३१७) १. सिथ (क) २. सहकाइ (क) डोल हि (ख) डोल (ग) ३. ए पारण (क) उ नारा इ (ख, ग) ४. मिहि (क) जहि (ख) जाहि (ग) ५. घज्जु (क) धुजा (उ) वजा (ग) ६. मोढा (क) मोटे (ख) मद (ग) ७. उह (सख ग) मूल प्रति में "सिध (३१म) १. पूझा (क) सुरिणय (ग) सूझा (स) २. भगउ (क ख ग) (३१९) १. सुजइ वइ (क) सुनि उदउ (ख) बहु उदो (ग) २. विपक्ष (क) ३. फराति (क) ४. मरकति मरिण दीसा चुह पासि (क) जाहि बहु पुजा वोसहि पउपासि (ख) मगंज मरिण वीसहि जिस पास (ग) ५. उह (क) तुहि (ख) तुह (ग) (३२०) १. बोल्या (ग) २. तिसु का (ग) ३. माहि (क) महि (ख ग) (३२१) १, सेन (फ) सइन (ग) २, भानू कुत्ररू प्राषइ निरुत (ग) ३. कलिपल सु (क) कलियर स्यउ (ग) ४. कवण (कन्न) फउरण (ग) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसुरिण मयण तुहि कहो विचारु, यह हरिनंदनु भानु कुमारु । । इहि लगि नयरी बहुत उछाहु, यह जु कुवरु जइ तरण उ बिवाहु ।।३२२।। प्रद्युम्न का मायामयी घोड़ा बनाकर वृद्ध ब्राह्मण का भेष धारण करना तहा मयण मन करइ उपाउ, अव इहकउ भानउ भरिवाउ। बूढ वेस विप्र को करइ, चंचल तुरिय मयायउ करइ ॥३२३।। चंचल तुरीयउ गहिरी हिंस. चार्यो पाय पखारे दीस । चारि चारि प्रांगुल ताके कान, राग वाग पहचाणइ सान ॥३२४॥ इक सोवन वाखर बाखर्यउ, पकरी याग प्रागैहुइ चलिउ । भान कुबर देख्यो एकलउ, वाभरण बूढउ घोरो भलउ ।।३२५।। घोरो देखि भान मन रलउ, पूछइ बात विप्र कहु चलिउ । फुणि तहि वाभरणु पूछिउ तहा, यह घोड़ो लइ जहहि कहा ||३२६३१ (३२२) १. एहि लगि (क) इह वर (ग) २. एह सु (क) इह स (ख ग) ३. जिह (क) जहि (ख) जिस (ग) (३२३) १. ताहि (क ग) २. बहु (ग) ३. इष (रू. ४. इसका (ग) इहि कर (ड) ५. बूढउ (क ख) धूडा (ग) ६. तुरी (क ग) दुरिज (ख) ७. मायामई (ग) मायामउ (ख) मयण रथि धरई (ग) (३२४) १. गुहीरी हासु (क) प्रागइ प्रारसी (ग) २. पाउ (क) पाय (स) गाय (ग) ३. परवालिय (क) परवाले (ख ग) ४. ए सासु (क ख) ५. चार (क) पारिसु (ख) ६. जिन्ह के .क) तिन्ह के (ख) जिसके (ग) ७. पिछाणइ (क.) यह र (ख] ८. भानु (फ स) (३२५) १. साखति सो इन पर पाखरउ (क ग) २. पाखर पाखरियउ ख) ३. पकडि (क ख ग) ४. प्राधेरउ (क) प्रागद (ख ग) ५. घोडउ (रुख) घोवा (ग) (३२६) १. घोडा देखत जन मनु चलिउ (ग) २. पूछरण (फ ख ग) ३. चले चाल्यो किहा (ग) ४. जाइसि (क) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाभणु ठवहुक घोडौ हइ आपणउ, नजिउं समुद बालुका ताउ । निसुणिउ भान कुम्वर को नाउ, तउ तुरंगु आणिउ तिहि ठाइ।३२७।। भान कुवर मन उपनो भाउ, बहुतु विप्र कहु कियउ पसाउ । निसुरिण विप्र हउ अखएहु, जो मागइ सो तोकहु देउ ॥३२८॥ तवहि विघु मागइ सतिभाइ, भानकुबर के मनु न सुहाइ । बिलखउ भानकुवर मन भयउ, मान भंगु इहि मेरउ कियउ।३२६। भणइ विग्रही प्राखउ तोहि, इननउ जे न सकहि दइ मोहि । मइ तो कहुदीनउ सतभाइ, परिहा जउ देखाहि दौडाइ ॥३३०॥ ___ भानुकुमार का घोड़े पर चढना निमुगिग वयगु कुवर मन रल्यउ, कोपारूहु तुरंगइ चढिउ । विषमु तुरंगु न सकउ सहारि, घोड़े घाल्यो भानु अखारि ॥३३१॥ (३२७) १. संभण चिरस कहइ प्रापण उ (क) वाभव गवड कहइ प्रापरणउ (ख) वंभरण नाउ कहइ प्रापसा (ग) २. तेजी एह (क ग) ते जिउ (ख) ३. रण समवह तराज (क) समुदह तगा (ग) (३२८) १. वहु (ग) २. बहुति (क) बहतु (ग) ३. निसुण (ख) ४. इस करेउ (ग) अखो तोहि (क) प्राख तोहि (ख) ५. सो प्रायो (क) तुझ जोगी (ग) (३२९) १. मनह (ख) २. सनाहि (ग) ३. बबन (क) ४. तब (ग) को (क) (३३०) १. हहु (का) काउ (ग) २. प्रायो (ग) ३. मांगिउ सके न रासी कोइ (क) इतनउ जे न सकहि दह मोहि (ख) मांग्या ये न समइ मोहि (ग) ४, बोलिउ ससिभाउ वीना पसाउ (ग) ५. परहबाउ (को जब जे इस कार्ड लइ उजाड (ग) ६. बडाद (स्त्र) मूल प्रतिमामिज जा सकह व मोहि (३३१) १. कोप रूपि सु (ग) २. तुरंगम (क) लइ चलिउ (ख) ४. नवि सहो (क) ५. भानकुमार घालित प्रसारि (क) घोडा दोनउ भानु पुराडि (A) घोडे पाड्या भानुकुमार (ग) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) पडिउ भानु यहु वडउ विजोगु, हासी करइ सभा को लोग । २ 3 यह नारायणुतन कुमार, या समु नाही अवर असवार ||३३२|| भइ विप्र तुम काहे रले, इहि तरूणे पेह बुढे भले । + दुर ते करि च आस, मानकुवर तइ कियउ निरास ||३३३|| २ 3 हलहर भइ वित्र जिरण डरहु, इन्ह घोडे किन तुम ही चढउ । 보 हौ बुढउ चाही टेकरणी, दिखलाउ पवरिष आपणउ ॥ ३३४ ॥ प्रद्युम्न का घोड़े पर सवार होना ૨ जरण दस वीस कुबर पाठए, विग्रह तुरी चढावरण गए। तड वाभरण अति भारउ होइ, तिहिके कहै न सटकइ सोइ । ३३५ । तुरीय चढावरण प्रायो भाण, उलगाणे को नाही मानु । * जरण दस बीस कियउ भरिवाज, चडिबि भान गलि दीनउ पाउ३३६ १ चढइ विप्र असवारिज करइ अंतरिख भो घोरो फिरइ । 3 दिठउ सभा अचंभो भयउ चमतकार करि उपड़ गयउ ||३३७॥ (३३२) १. जब वो (क) तब भया (ग) २. ए (क) इह ( ग ) ३. समान (क) हि समु (ख) इसु सरि (ग) (३३२) १. हंसे (ख) २. हम (क) ते हम (ग) ३. तूर थकी (क) ( ३३४) १. फहइ (क) २. भत ह (ग) ३. पिको (कख) इसु घोड तुम वेग नबिड (ग) ४. चार विकशित ( क ) घाउ बेकएउ ( ख ) चालउ टेकरा (ग) ५. दिजलावर (ख) ६. बल पौरुष (क) ( ३३५) १. पोषम (ख) २. तू चढावण भए ( क ) ३. हि कर कियह न सोइ (क) तिन्ह क ह म चाड सोइ (ख) तिन के कहे न सक प्रति सोइ (ग) ( ३३६) १. उगारण ( क) उलगगो (ख) उलगण (ग) २. बढयो तुरंग दिया गलि पाउ (ग) मूलप्रति - जलमाणे कलमाणु न माहि (३३७) १. (ग) २. (म) ३. ऊपमि (ग) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न की मायामयी की पोड़े जैगर उद्यान पहुँमा फुरिण सो रूप खधाइ होइ, द्वौ घोड़े निपजावइ सोइ । वन उद्यान रावलुहो जहा, घोड़े खात्री पहुतउ तहा ॥३३८॥ बणह मयण पहुतउ जाइ, तउ रखवाले उठे रिसाइ। इह वरण चरण न पाव कोइ, काटइ धास विगुचनि होइ ॥३३६।। कोपि मयरण मन रहउ सहारि, रखवालेसहु कहयउ हकारि । कछुस मोलु भाइ तुम्हि लेहु, भूखे तुरी चरण किन देहु ॥३४०॥ तवइ भइ तिन्हु की मतु हारि, काम मूदरी देइ उतारि । रखवाले बौलइ वइसाइ, दुइ घोड़े ए चरहु अधाइ ॥३४१।। फिरि फिरि घोड़ो वरण मा चरइ, तर की माटी उपर करइ । तउ रखवाले कूटइ हीयउ, द् घोड़े वणु चौपटु कोयउ ॥३४२॥ दोनी तिनसु काम मूदरी, वाहुरी हाथ मयरण के चढी । सो वर वीर पहुतउ तहा, सतिभामा की वाडी जहा ॥३४३॥ (३३८) १. खुधाइ (क ग) २, रावस (क) रखवाला (ख) सुरावल (ग) ३. रचि (क) खचि (ख) खंबो (ग) (३३६) १. वग महि (क ख ग) २. काच उखास चरावइ जाइ (क) काटइ घासु विगूचाइ सोइ (ख) तीसरा चौथा चरण-क प्रति-तब रखवाला बोला एम धास रावलउ काटई केम (क) ३. कापई तासु विधावई सोई (ख) काढा घास विगूचइ सोइ रंग) (३४०) स कोप (क) जिन (ग) २. वंशहि जत हारि (ख) बुलाइ (ग) ४. कडू मोल तुम हम पहि लेह (क) कळू मोलि तुम्हि प्रापण लेख (ग) ५. तुम (क) (३४१) १. तब कीनो (ग) २. घोलहि (क) बोले (ग) ३. लेह (ग) मूलप्रति-वहषइ (३४२) १. तल को (क ख ग) २. दहि (ख) पोटहि (ग) ३. घउपटु (ग) चउपट (ख) अन्तिम चरण क प्रति में नहीं है। (३४३) १. मूबी (क ख) २. पानी तहि (ग) ३. कुमर के पटी (क) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाडि मयण पहुतउ जाइ, वहुत विरख दीठे ता ठाइ । कोइ न जाणइ जिनकी प्रादि, बहुत भाति फूली फुनवादि ।३४४। उद्यान में लगे हुये विभिन्न वृक्ष एवं पुष्पों का वर्णन आइ जुही पाडल कचनारु, बबलसिरि वेलु तिहि सारु । कूजउ महकइ अरु करणवीरु, रा चपउ केवरउ गहीरु ॥३४५।। कुठे टगरु मंदारु सिंदूर, जहि वंधे महइ सरोरु । दम्वणा मख्वा केलि अणत, निवली महमहइ अनंत ॥३४६॥ प्राम जंभीर सदाफल घणे, बहुत विरख तह दाडिम्ब तणे । केला दाख विजउरे चारु, नारिंग करुण खोप अपार ॥३४७॥ नीबू पिंडखजूरी संख, खिरणी लवंग छुहारी दाख । नारिकेर फोफल वहु फले, वेल कइथ घणे पावले ॥३४॥ 6 (३४४) १. तिह (क) तहि (ख) । (३४५) १. पाटल (क) पाडले (ख) २. बाउल सेवती सो सभिचार (6) यावल (ख) ३. अबर (ख) ४. राइ (क) राय (ख) ५. चंपा (क) ६, केतकी गहीर (क) फेबडत होर (ग) (३४६) कुंद अगर मंदार सिदूर (क) कुटु टगत मधुरु सिंदूर (ख) २. मह महइ (क) महकइ (ख) ३. ससरीर (ख) ४. दयाउ (क) बवरण (ख) ५. महंत (ख) ६. नीलू (क) नेवालो (ख) (३४७) १. अगरात गिरणे (क) जाजिण गणे (ख) २. विजोरी (क) ३. नारिलो (क) करणा (क) पारणा (ख) ५. स्वीप (क ) मूलप्रति में 'कोपि' पाठ है (३४८) १. अम्ल (क) प्रसंख (ख) मूलप्रति में काय के स्थान परइप पाठ है नोट-३४४ से ३४८ तक के पद्म 'ग' प्रति में नहीं है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) प्रद्य म्न का दो मायामयी बन्दर रचना वाडी देखी अचंभिउ वीर, तब मन चिंतइ साहस धीर । जइसइ लोग न जाणड कोइ, वांदर दुइ निपजाबइ सोइ ॥३४६।। तउ वंदर दीने मुकलाइ, तिन सब वाडी घाली खाइ। जो फुलवाडि हुतो वहु भाति, बंदर घाली सयल निपाति ।३५०। फुरिण ते वंदर पइठे मोडि, रूख विरख सब धाले तोडि । सब फल हली तव संघरी, तउपट करि सव वाडी धरी ॥३५१।। लंका जइसी को हणवंत, तिम बारी की बालखयंत । भानु कुम्वर हो वैठो जहा, मालि जाइ पुकारचो तहा ॥३५२ ॥ मालि भरणइ दुइ कर जोडि, मो जिन सामी लाबहु खोडि । वंदर द से पइ3 प्राय. तिहि सब बाडी घाली खाइ ।।३५३॥ जबति माली करी पुकार, रथ चढी कुम्वर लए हथियार । पवण वेग सो धायउ तहा, बंदर वाडी तोरी जहा ॥३५४।। (३४६) १. जागइ (क ख ग) २. यानर (क) बंदर (स्य 7) (३५०) १. वानर (क) २. फुलयाडि (ग) मूलप्रति में फुलवावि पाठ है । यह चौपई 'ख' प्रति में नहीं है। (३५१) १. पुरगते (ख) २. पठए (क) ३. हा (ख) ४. सव्व फलाहली (ख) फुनाड़ी (ग) ५. चउपर वाडी करि सवि धरी (क ख) चउड नपट तिह बाडी करी (ग) मूलप्रति में 'वेद पाठ है (३५२) १. जिस करी (क) जेमसी (ग) २. करी (क ख ग) ३. लोधी क्षु अपंत (क) फिय काल कयंति (ख) तर वाडी बंदरि रवाधन्ति (ग) ४. छह (क) मा (ख) (३५३) १. विनषाद (क ग) २. मुझ (क) मोहै (ग) ३. मल (क) ४. वनचर (क) ५. बासी (क) दुइ (ख ग) ६. इहि बदठा प्राह (ग) दुइ तहि पठे पाप (ख) ७. तिन (फ) तिन्ह (ख) तिम्ह (ग) -. (३५४) १. जव लिहि (क ख ग) २. भाउ (क) पहला (ग) ३. वानर (क) ४. तोस (क) तोडी (ख) तोहि (ग) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रद्युम्न द्वारा मायामयी मच्छर की रचना करना तउ मयरधउ काही करइ, मायामइ मछर रचि धरइ । तिहि ठा भानु सपतउ जाइ, खाजतु मछर चलिउ पलाइ ।।३५५।। भानु भाजि गिय मंदिरि गयउ, पहरकु दिवसु आइ तिह भहउ ! तंखिरिण वह वरकामिणी मिली, भानइ तेल चढावरण चली ॥३५६॥ प्रद्युम्न द्वारा मगल गीत गाती हुई स्त्रियों के मध्य विघ्न पैदा करना तेल चढावहि करइ सिंगारु, सूहउ गाबइ मंगलुचारु । रथ चढि कुवरिति उभीभइ, फुरिण मटियाणुउ पूजण गइ ॥३५७।। तवइ मयण सो काहो करइ, ऊँटु तुरंगु जोति रथ चढइ । ऊटु तुरंगु सुप्रठे अरडाइ, भानु रालि घोडउ घर जाइ ॥३५८॥ पडिउ भानु उइ 'दिलखीभई, गावत पाइ रोवति गइ। उद तुरंग उठे अरराइ, असगुन भयो न जाण न जाइ ।।३५६॥ (३५५) १. काहङ (क) भइसा (ग) २. मायारूप (ग) ३. सह करइ (क) रचिति घर (ग) ४. मूलपाठ तहां जाउ (ग) भानुकुमरु तउ पहुंता भाइ (ग) ५. साजत (क) खाजन (ब) ६. माछर (क ग)-७. चलउ (क ख) निरिण रहो मो चलो पलाइ (ग) (३५६) १. जिन (क ग) २. प्राइ तिह भयो (क) तहाँ तिषु भया (ग) ३. नयरी (ग) (३५७) १. तितु (ख) २. बढुवाह (ख) ३. असइ (क स्त्र) तब से (ग) ४. कुवरति (क) ते (ख)-चढयो कुवर रथि प्रागे भयो (ग) ५ मटियागो (क) मडियारणउ (ख) मवियाण्ड (ग) (३५८) १. तहि अइसो करइ (ग) २. जोडि (ग) ३, चलइ (क ख) घरह (ग) ४. उठचा पराइ (क ख) तहि उर सो करइ पुकार (ग) ५. प्रसवरण भयो र जगह मुहाइ (क) घोडा भागा भानहि मार (ग) (३५६) १. तब विलखा भया (ग) २. गाये थी सो घर कह गया (ग) ३. प्रसवश (ख) नोट--यह पञ्च क प्रति में नहीं है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न का वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर सत्यमामा की बावड़ी पर पहुंचना फुरिण मयरद्धउ बंभणु भयउ, कर धोवती कमंडलु लयर। लाठी टेकतु चलिउ सभाइ, खरण वावडी पहूतउ जाई ॥३६०॥ उभो भयउ जाइ सो तहा, सतिभामा की चेरी जहा। भूखउ वामणु जेम्वरणु करहु, पारिउ पियउ कमंडलु भरहु ।।३६१॥ फुणि चेडी जंपइ तखणी, यह वापी सतिभामा तणी । इणि ठा पुरिषु न पावइ जाण, तू कत पायउ विप्र अयाण ॥३६२॥ तउ वंभण कोपिउ तिणकाल, किन्हहू के सिर मूडे हि वाल । किन्हहू नाक कान ते खुटी, फुणि वसरणु पइठउ वावड़ी ॥३६३।। विद्या बल से बावड़ी का जल सोखना फुणि तहि बुधि उपाइ घणी, सुइरी विद्या जल सोग्रणी । पूरि कमंडलु निकलिउ सोइ, सूकी दावडी रीति होइ ॥३६४॥ कमंडलु के जल को गिरा देना सूको देखि अचंभी नारि, गो वाभण चोहटे मभारि । धाइ लड़ी वाहुडी कर गयउ, फुलि कमंडलु नदी होइ वहउ ॥३६५।। (३६०) १. तलि (ग) २. प्राइ (क ग) (३६१) १. वावडी (क) चेडी (ल ग) २. गोमण 1) जेमणु (ख) जीवाणु - (ग) ३. पारणी पिए (क) पारणी वेट (ग) (३६२) १. ला तणी (क) २. इहि ठा (ख ग) ३. प्रायड (क) (३६३) १. तिणि काल (फ) तहि पाल (ख) हिताल (ग) २. किण्हहकन (क) किन्हही के (४) तिन्ह के (ग) ३. वास (कन ग) ४. किनर (क) सबै (ग) ५. खुरी (क ख ग) इव (क) ६. बाठावर (ग) मूसप्रति में 'तिताल' पाठ है (३६४) १. घुमरो (क) सुमरी (त्र) संवरी (ग) २. वाइ (ग) (३६५) १. चउटे (उ) ते पहती सतभामा वारि (ग) २. फूटि (ख) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ } वुडरण लागी पारणी हाट, भरगहि वाणिए पाडी पाठ । नयर लोग सबु कउतगि मिलिउ, इतडउ करिसु तहां ते चलिउ ॥ ३६६॥ प्रद्युम्न का मायामयी मेढा बनाकर वसुदेव के महल में जाना फुरिण तहि मयण मित्र चितय, भाया रूपी मेढो कियउ । पहुतउ वसुदेव तरणौ खंधार, कठीया जाइ जरणाइ सार ॥ ३६७॥ 9 ว ช तर शुदिउ वोलह सतभाउ, वेगउ तहा भीतरि हकरोउ । ५ ६ कठिया जाइ संदेसउ कहिउ ने मैो सीन गडक छोटो मैो घरी न संके, विहसि राउ तव छाडी टंक | २ 3 ४ अइ || ३६६ ॥ तउ मयख वाहु कहइ, बात एम कौ कार (३६६ ) के प्रति में— कमंडलु भरि चलित बाजारि, करमी पनि कंम सारि । फूटि कमंडलु नवू तिह चली, लोक उत्तर पुछद्र बेवली ॥ ३७४ ॥ भरतहि वालिए पाडी हाट इतनो करि तहां थी चलिज ॥ ३७४ ॥ पूछह परिहारो पहाट, नगर लोग सब कौलिंग लिउ, प्रति लूण लागी पाणी हट भएराहि वालिए पाडी पाठ | नयर लोग सबु कउतगि मिलिज, इडज करिसु तहा ते चलिउ ॥। ३७१ ।। लोग महाजन कौतिग मिल्यो, इतना करि बाहुडि चाल्यो (ग) ग प्रति मारि ||३५८ ॥ तब वली । वंभरण जाइ जरगाईसार, गय वंभरण चउहाँ फारि कमंडलु नदी हुई चली नगर उनी वोल दूसरा लागउ सभु बाजार, सवह लोग मिलि करहि पुकार ||३५६॥ (३६७) १. मनु (क) बहूडि (ग) मंतु (ख) २. मदिउ (क) मेढा (ख) माटो (ग) ३. के द्वारि ( ग ) (३६८) १. वसुदेव (क) वसुहिउ (ख) वासुदेव ( ग ) २. तिहि ठाइ (ग) ३. सातरिह (ख) वेडा तुद्दह भीतरह कराउ ( ख ) ४. बुलाइ (ग) ५. क्विज ( ख ) चपल (ग) ६. लं भाग बहु (क) ले मींदा उह भीतर गयो ( ख ग ) ( ३६ ) १. काडिज ( क ) छोडि (ख) छूटा (ग) २. संघ (क) संग ( ग ) ३. विहसि रायणि प्राडी राक (क) विहसि राय पुणु कटो ढंग (ख) बिसि राय तब बोनो ढंग (गु) ४. प्र ( क ग ) मूलपाठ आहे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) विहसि गंगु पपई ताहि, हउ परदेसी वाभरण ग्राहि । २ दुखड टंक तुहारी देव, तउ ह्उ जीवत उवरउ केम्व ||३७० ॥ तउ जंपर वसुदेउ बहोडी, इहिर वयरण तुहि नाही खोडी । 코 3 मन आपणे धरइ जिन संक, मेरी तूटि जाइ किन टंक ॥ ३७१ ॥ तब तिन्हि मेहउ दीनउ छोडि, देखन सभा टांग गउ तोडि । तोडि दाग मैदो बाहुsिउ, वसुदेव राउ भूमि डिगयउ ॥ ३७२ ॥ वशुदेउराउ भूमि गिरि पडिउ, छपन कोटि मन हासउ भयउ । २ निहि ठा सिगली सभा हसाइ, फुरिण सतिभामा के घर जाइ ॥ ३७३ ॥ प्रद्युम्न का ब्राह्मण का भेष धारण कर सत्यभामा के महल में जाना कनक धोवतो जनेउ घरं, द्वादस टीको चन्दन करें । च्यारि वेद अचूक पढंत, पटराणी घर जायो पूर्त ॥ ३७४ ॥ १ उभो भयो जाइ सीद्वार, कठिया जाइ जरगाइ सार । जेते वाभण भीतर घरणे, सतिभामा वरजे आपणे ॥ ३७५॥ मन मानउ ( ३७०) १ देखइ कत तुहारी सेव (क) २. तुह जिनवर देव (क) त ह तुम्ह ते उबर केव (ग) 'ह' मूलप्रति में नहीं है । (क) ( ३७१) १. तुम माही खोड (क) २. मा (ख) न (ग) ३. (२७२) १. भी ( क ख ग ) टांग (ख) टंग (ग) २. भूमि गत (क) वासुदेव भूमहि गिर पड़घो ( ग ) टूट (३७३) १. कोडि ( क ख ग ) २. मिलि हासन fee (क) ग प्रति हो वसुदेव कहा यह किया, " ताली पारं सभाहलाई फुरिए सतिभामा के घर जाइ P ( ३७४ ) ग प्रति में करिहि कमंडलु घोली मंधि, द्वादश तिलक जनेउ कंठि । चारि वेद प्रचूरू भगाइ, पटराणी घर पहुंला जाइ ॥ १. चुपके ( ख ) २. पहूत ( क ख ) (२७५) १. जाइ सोह बुवारि (कख) सुतासु (ग) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( DE ) 4 ૧ 3 सुयो पढत उपनो भाउ, वह बाभण भीतर ह्कराउ | राणी तर उ हकार भयउ, लाठी १ अक्षत नोरु हाय करि लेइ, राणी जाइ आसीका देइ । टेकतु भीतर गयउ || ३७६ ॥ 3 तूठी राणी करइ पसाउ, मार्गि विप्र जा उपर भाउ ॥ ३७७ ॥ ५ सिर कंपत वंभरण जव कहइ, बोल तिहारो साचउ ग्रह । २ 3 वयर एकु हो श्राखउ सारु, भूखउ दाभरण देहु ग्रहारु || ३७८ || * राणी तर पटायतु कहइ, भूखउ खर ५ राणी आणइ अर्थ भंडारु, एकुड मागइ 3 कर हा अहई । ॐ एकु प्रहारू ॥ ३७६ ॥ २ हउ एकलउ । तुम विप्र कहत हहु भलउ, तुझि बहु वाभ वेद पुराण कहिउ जो सारु, उति एक श्राहि श्राहारु || ३८०|| २ पैठि विप्र उठ भोजन करहु, उपरा उपर काहे लडहु । 3 ४ एक ति उपरि तल वैसरहि, श्रवरइ विप्र परसपर लडहि ||३८१॥ ( ३७६) १. पंडित ( ग ) २. इह (क) बहु (स्व) इहि (ग) २. चुलाइ (फ) लेह लाइ (ग) इह संति कराइ ( ख ) ( ३७७) १. श्रखत (ख) प्रखित (ग) २. कहूं प्राशिष सो बेदु (ग) ३. जिह (क) जह (ख) जिसु (ग) ( ३७८) १. वह (ग) २. अपड ( क ) ३. प्राथारु (ग) ( ३७९) १. धरणी ततज पाइतु कहर (ख) २. चितु श्राहाइ (ग) सोइउ कसड़ (क) २. कहिहा अहह्न ( क ) ४. कहइ ( ख ग ) ५. श्रापड़ ( क ख ) आफड (ग) ६. तू फिज (फ) बहुधा (ख) उतर (ग) ७. आधारू ( ग ) (३८० ) के प्रति में यह छन्द नहीं है । १. सभि (ग) एकला (ग) ३. सो (ग) - 'ख' प्रति में चौथा चरण नहीं है । (३८१) १. बेसि ( क ) वसि ( ख ) बहसङ्घ (ग) २. भरण (ग) ३. एक नि विप्रति उपरि लहि (क) ४. जलहि (ख) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसुनहु बात परदबन तणी, मुकलाइ विद्या जूझणी । उपरापदि भरग लाइ, सिंह दहि कुकुवार फरहि ॥३८२॥ राणी बात कहइ समुभाइ, इतु करटहानु लागी वाइ । दूरउ होइ तहि धालइ रालि, नातर वाहिर देहि निकालि ॥३३॥ तउ मयरधउ वोलइ बयणु, साधु अघाणउ भूखे कम्वरणु । खुधा वियापइ सुणइ विचार, हमि कहु मूठिक देहि अहारु ॥३४॥ सतिभामा ता तउ काही करइ, कनक थालु तस प्रागइ धरइ। वइसि विप्र तसु भोजन करहु, उन की वात सयल परिहरहु ॥३८५॥ बैठेउ विषु प्राधासणु मारि, चकला दिन उ प्रागइ सारि । लेकर दीनउ हाथु पखाल, प्राणिउ लोणु परोसिउ थाल ॥३८६॥ (३५२) १. मुकलावइ (ख) २. उपरु (ग) पहते (ख) उपरि (ग) ३. सिर फूटहि कोलाहल करहि (क) सिर कटहि कूवारस करहि (ख) पोटहिं सीसु कूक बह करहि (ग) (३८३) १. इते (ग) २. काइटा (क) कररहि (ग) ३, वाइ (क) पाई (ग) ४. भलइ युरउ (ख ग) ५. तउ (क) जउ (ग) ६. राडि (ग) मूलप्रति में 'बार' पाठ है (३८४) १. सायु (क ख) २, झपउ (ख) ३. ७भा वियापहि (ख) जुड़े विप्प (ग) ४. तू वासा (ख) ५. अधारू (ग) (३८५) १. सब (क ग) २. इसी (ग) ३. सब प्राणि पराइ (ग) ४. तुम (क) तुम्ह (ख ग) ५. उन्ह को (ख ग) इनको (क) ६. सवे (ग) मूलप्रति में 'सुन्ह की पाठ है। (३८६) १. वासउ (क) २. विपु (ख) ३. प्रधारिण (क) ४. लोट (क) ५, अप्पिर (ख) मोट—यह छन्द 'ग' प्रति में नहीं है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) ... प्रद्युम्न का सभी भोजन का खा जाना चउरासी हाडी ते जाणि, व्यंजन बहुत परोसे प्राणि । माडे वडे परोसे तासु, सवु समेलि गउ एकुइ गासु ॥३८७।। भातु परोसइ भातुइ खाइ, अापुरण राणी वैठि पाइ। जेतउ धालइ सत्रु संघरइ, बडे भाग पातलि उवरइ ॥३८८॥ वाभरण भगाइ निसुरिग हो बाल, अधिक पेट मोहि उपजी ज्वाल | । तिमु तिमु लोगु सयलु परिहरघउ, मो प्रागे सवु कोडा करहु ।।३८६ ।। जहि जेम्वरण न्योते सवु लोगु, तितउ परोसिउ वाभण जोगु । | नारायणु कहु लाडू धरे, तेउ सयल विप्र संहरे ॥३६०।। , तउ रागी मन विलखी होइ. तिहि तो खाइ सयल रसोइ । । यह वाभरणु अजहु न अघाइ, भूबउ भूवउ परिबिलखाइ ॥३६१।। ___ भयरण बोरु यहु बङउ विजोगु, तइ चू नयर सत्रु न्योत्यो लोग। सो काहो जेम्वहिगे प्राइ, इकुइ विमु न सकइ अघाइ ॥३६२॥ (३८७) १. घिधि .ग) ते तउ (ग) ३. भोजन (ग) ४. मंडा (क) मांजे (ख ग) ५. बहुत (ग) ६. सके लि (श ग) सर्वान कीयो एके गासु (क) (३८८) १. ते तउ खाय (ख) २. वडा (ख) ३. अवरइ (क) उबराह (ख) मूलप्रति में 'या' (३८६) १. निवलो लोग सहि परिहरउ (ग) २. फूठा (कप) (३६०) १. जीमण (क ख) ज्योणार (म) २. निउतउ (क) निउते (1) निर्यातह (ग) ३. तिन्ह कद उपस्या वा वियोग (ग) (३९१) १. इहतउ (फ ख) इनतउ (ग) २. सह (र) ३. लाते लाडू नारायण खाइ (क) ४. विललाइ (क ख ग) (३६२) १. बारू (ख) विन (ग) २. नगर काम (ग) ३. जोमहगो (क) जोवहिने (ख) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) राणी चितह उपरणी कारिण, काही अवरु परोसो पाणि । भूखउ वाभरण काही करइ, घालि प्रांगुली सो उखलई ॥३६३॥ ! असो वांभण कोतिगु करइ. सव मांडहौति उखली भरइ । मान भंगु राणी कहु कीयउ, मयगु विप्र ते खूडउ भयउ ।।३६४॥ प्रद्युम्न का विकृत रूप बनाकर रुक्मिणी के घर पहुँचना मूडी मूडि नलीयरा लयउ, निहडिउ चलइ कुवडा भयउ । बडे दात विरूपी देह, फुणि सु चलिउ माता के गेह ॥३६५॥ खण खण रूपिरिण चढइ अवास, खण खरण सो जोबइ चोपास । मोस्यो नारद कह्यउ निरूत, आज तोहि घर प्रावई पूत ॥३६६॥ जे मुनि बयण कहे परमारण, ते सवई पूरे सहिनाण । च्यारि प्रावते दीठे प.ले, अरु प्राचल दीठे पीयरे ॥३६७॥ सुकी बापी भरी सुनीर, अपय जुगल भरि आए खीर । तउ रूपिणी मन विभउ भयउ, एते ब्रह्मचारि तहा गयउ ॥३९८॥ (३६३) १. सब पाछउ घरइ (क) सो करप (स) ऐसा केतिग भण कर (ग) __ (३६४) १. सब माहउ उखालि सो भरई (क) सब भागह उ उसलि सो भरइ (ख) सउ मंडा अस्खलि सो भरऊ (ग) (३६५} १. कमंडलु हाणि (ख) नालियरु (ग) २. हाउ भयो (क) भपज () होइ (ग) ३. दातारिव (क) वंत (ग) ४. वितखी (ख) विपिय (ग) ५. बहुडि (क) ६. सुवडिउ (ख) (३६६) १. मुहिस्यो (क) हमलो (ग) व प्रति में प्रथम चरण नहीं है। (३६७) १, वरन (क) वरू (ग) २. पाने (ग) ३. वारि (ख ) ४, अम्बते ५. अंचल (ग) ६. दीसहि (क) हुये (स्व ग) ७. पोयला (क) (३९८) १. पाणप (क) पयोहरु (ख) २. विलमो (क) विसमा (ग)। विभड (ग) ३. इतडउ तापसु वारेहि गया (ग) ४. कह भयउ (ल; Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) नमस्कारु तव रूपिणि करइ, धरम विरधि खूडा उचरइ । करि पादरु सो विनउ करेइ, करणय सिंघासणु बैसगा देहु १३६६।। समाधान पूछइ समुझाइ, वह भूख उ भूउ चिललाइ । सखी वूलाइ जणाइ सार, जैवरण करहु म लावहु बार ॥४००।। जीवण करण उठी तंखिणी, मुइरी मयण अनि थंभीरणी । नाजु न चुरइ चूल्हि (धाइ, वह भूख उ भूवउ चिललाइ ।।४०१॥ हो सतिभाम के घरि गयउ, कूर न पायो भूबउ भयेउ । जो दीयो सो लीयो छोनि, तिनस्यो पूरी लाघरण तीन ॥४०२॥ | रूपरिण चितह उपनी कारिंग, तउ लाडू ति परोसे आणि । मास दिवस को लाडु धरे, खूडे रूप सवइ संघरे ॥४०३।। अाधु लाडू नारायण खाइ, दिवस पंच ज्यो रहइ आघाइ । तब रूपिणि मन विभी कहइ, किछु किछु जारगउ यहु अहइ ।।४०४।। (३६९) ३६८ के पश्चात् एक छन्द ग प्रति में और है जो निम्न प्रकार हैतापस देखि उपना भाउ, तब रुपणी प्रधई सतभाउ । स्वामी प्रागमणु किहां थी भया, एता ब्रह्मचरजु कहाँ ते निया ।। १. खेड (क) डउ (ख) (४७१) १. पाक करण उठीत खिरणी, (क) २. सुमरो विद्या (ग) ३. अगनि (क) अगि (ख) अग्नि बंधरणी (ग) ४. माण न चढाइ भूमि धूजाइ (को नाज न राहि । धूहि घुधाइ ख) अग्नि बलइ चूल्हइ "धू धाइ (ग) ५. विललाइ (क ग) (४०२) तबहिं मयरण उठि मा पहि गया (ग) २. रहिउ (क) भयउ (ख) ३. सतिभामा सो (ग) (४०३) १. विस (क) चिहि (ग) २. खगु लडू पल्सर (ग) पसे (क) ३. नाराइणु कर लाडू घरे (ग) ४. लोई वंभण सब संघरे (म) मूलप्रति में 'वीर' पाठ है। (४०४) १. विभा (ख) चितिहि विसमाइ (ग) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तउ राणो मन विसमउ करइ, अइसइ पूतउ रह को घरइ । जइ उपजइ तो कहसा न जाइ, किमु करि नारायण पतियाइ 11४०५।। तउ रूपिणी मनि भयो संदेह, जमसंबर घर वाढिउ एहु । विद्या बलु हर दीएर घगाउ, यह परभाउ अहि विद्या तणउ ॥४०६॥ फुणिइ जे पूछइ करि नयेणु, लयउ वरतु तुम्हि कारणु कवणु। तव रूपिरिग पूछइ धरि भाउ, सामी कहहु अापरणउ ठाउ ॥४०७।। काहा ते तुम्हि भो आगमरण, दीनी दिप्या तुहि गुर कवरण। जन्मभूमि हो पूछो तोहि, माता पिता पयासो मोहि ॥४०८!! तवहि रिसारणौ बोलइ सोइ, गुर वाहिरी दीख किमु होइ । गोतु नाम सो पूछइ ताहि, व्याह विरधि जहि सनवधु प्राहि ॥४०६।। हम परदेस दिसंतर फिरहि, भीख मांगि नित भोजन करइ | कहा तुसि तू हम कहु देहि, रूसइ कहा हमारउ लेहि ।।४१०॥ (४०५) १. उरिको (ग) २. कि उ करि लाभइ इसको माय (ग) (४०६) १. हा तुम यह धरण उ (क) हइ इह यह घरणउ (ब) इसु पहि हह घरणी (ग) २. अस्थि तिसु तणी (ग) (४०४) मूल प्रति के प्रथम वो चरण ख प्रति में से लिये गये हैं । १. दूजाइ (क) २. दमिरलो (ग) ३. लिउ बरु इह (ग) १४०८) १. बोन्ही दीक्षा सो गुरु कवयु (ग) २. पयासह (क) पयासहि (स) प्रकोसउ (ग) (४०) १. देखहि (क) दोस्पा (ख) हिष्टि (ग) २. लोहि (क) मोहि (ग) ३ होइ (ग) (४१०) १. भीख मांगि (क) चरी मागि (ख) चारि भंग (ग) मूलप्रति में 'चरी मांगित' पाठ है । २. रूसी (क) रूसहि (ख) गट्ठी (ग) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खूडउ दिछ रिसारणउ जाम, मन विलखाणो रूपिणि ताम । बहुरि मनावइ दुइ कर जोडी, हम भूलो जिन लावहु खोडी ॥४११।। तवहि मयणु जपइ तिहि ठाइ, मन मा कहा विसूरइ माइ । साच उ मयरशु पयासउ मोहि, जिम्व पडि उतरू अाफउ मोहि ॥४१२।। तउ जंपइ मन करहि उच्छाहु, जिम्ब रूपिणि कउ भयउ विवाहु । जिम्ब परदवा पू हडि लयउ, सयलु कथंतरूपाछिलउ कहिउ।४१३। धमकेत हो सो हडि लियउ, फुरिण तह जमसंवरू लै गयउ । मुहिसिहु नारद कहिउ निरूत, प्राजु तोहि घर आवइ पूत ।।४१४॥ अवर वय भुनि कहे पम्वारण, ते सवई पूरे सहिनाणु | अजहु पूतु न आवइ सोइ, तहि कारण मनु विलखउ होइ ॥४१५॥ सतिभामा घर बहुत उछाह, भानकुबर को प्राइ विवाहु । हारी होड न सोधउ काजु, तिहि कारण सिर मुडइ प्राजु ।।४१६॥ : माता पास कथंतर सुण्यउ, हाथ कूटि फुणि माथो धन्योउ । अाज न रूपिणि मन पछिताइ, हउ जग पूत मिल्यो तुहि प्राइ ।।४१७।। (४११) १. खरा रिसाणा बोल्या जाम (ग) खूउ निसुरिण रिसाणउ जाम (ख) २. मत (ग) (४१३) १. जज (ग) (४१४१. सोवत (क तिह सो (ख) (४१५) १. सगला (क) (४१६) १. होड (क) मूलप्रति में 'डोर' पाठ है (४१७) १. तो मा (ख) २. तराज (क) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंद्रप वृद्धि करी तंखिणी, सुमिरी विद्या बहु रूपिणी । निजु माता उझिल करि धरइ, रूपिणि अवर मयाई करइ ।।४१८॥ सत्यभामा की स्त्रियों का रूक्मिणि के केश उतारने के लिये आना एतइ बहु वरकामिणी मिली, अरु नाउ गोहिणि करी चली। अछइ मयाई रूपिरिण जहा, ते वर णारि पहुती तहा ||४१६।। पाइ पडइ अरु विनवइ तासु, सतिभामा पठई तुम्ह पासु । सामरिण जागहु रन का लेड, एलइल मेसजना देहु !!४२०॥ निसुरिण वयण सुदरि यो कहइ, वोल तिहारी साचउ हबइ । निसुरणहु चरित अगांगह तण उ, नाउ मूडिउ सिर आपण उ 11४२१।। प्रद्युम्न द्वारा उनके अंग काट लेना हाथ आंगुली धरी उतारि, अर मूडी गोहिण को नारि । नाक कान तिनहु के खुरे, फुणि ते सब्ब घर तन वाहुरे ॥४२२॥ गामति निकली नयर मझारि, कम्बण पुरिष ए बिटमी नारि । यहर अचंभउ वडउ विजोउ, हासी करइ नगर को लोगु ॥४२३॥ एते छरण ते रावल गई, सतिभामा पह उभी भई । विपरित देखि पयंपइ सोइ, तुम कवाइ मोकली विगोइ ।।४२४॥ १४१८) १. कपि (ग) (४२०) मूलप्रति में--तुम्हि जिन सामिरिण करण लेहु पाठ है (४२२) १. पडे (ग) २. सेवडे (ग) (४२३) १. गावत {क ख) गावतु (ग) २. विडंरी (ख) ३. अउर (क) एह (ग) इहरु (ख) ४. वियोग (क) विजोगु (ख) वियोगु (ग) (४२४) १. फवणे (ख) नाई (ग) नोट-क प्रति में दूसरा और तीसरा चरण नहीं है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव ते जपइ विलखी भइ, हम ही रूपिरिण के घर गई । नाक कान जो देख इ टोइ, नाउ सारसु उठी सध राइ ।।४२५।। निसुणि चरितु चर आए तहा, रूपिरिण रावल बैठी जहा। विटमो नारि सिर मूडे घणे, नाक कान हम काटे सुरणे ।।४२६।। निसुरिण वयण फुणि रूपिणी कहइ, निश्चे जाणौ येहो अहह । काज ताज छोडहि वरवीर, परगट होइ तू साहस धीर ॥४२७॥ __ प्रद्युम्न का अपने असली रूप में होना तव सो पयड भयो परदवरण, तहि सम रूपिन पूजई कवणु। अतिसरूप वहु लक्षणवंतु. तउ रूपिरिण जाणिउ यह पूत ।।४२८॥ वस्तुबंध-जव रूपिरिण दिठ परदवरण । सिर चुमइ आकर लीयउ, विहसि वयए। फूरिंग कंठ लायउ । ___ अव मो हियउ सफलु, सुदिन अाज जिहि पुत्रु प्रायउ ।। (४२५) क प्रति में प्रथम वूसरा वरण नहीं है । १. नाई (क) नाम (स) नाई (ग) २. सिड ऊठे सवि रोइ (ग) (४२६} करवि चरितु घरि पाया तहां {म) २. रोवै (ग) ३. सिय (ग) (४२७) १. निहाउ जाणउ (ख) नीचउ आगो (ग) नविर जाणउ (क) २. कु. इह नहाइ (क) इह को प्रर (ख) ये हो असे (ग) मूलप्रति में 'हरह' पाठ है। नोट---दूसरा और तीसरा नरण मूल प्रति और क प्रति में नहीं है । यहां 'ग' प्रति में से लिया गया है । (४२८) १. मयण (क) मपशु (ख) परगट (ग) २. सरि (ग) तासु रुपि न पूजह कवण (क) सयु को जाएइ सुरर वरण (ख) ३. निज (ग) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) मास जइउ धरिउ, सहीए दुख महंत । ५ वाला तुरगह न दिठ मई, यह पछितावर नित ॥ ४२६ ॥ चौपाई दस माता तरणे बयर निमुणेइ, पंच दिवस कउ वालउ होइ । 1 खरण इकु माह विरधि सो कथउ, फुणिसो मय भयउ वेदहउ | ४३० | खरण लोटइ खरण श्रालि कराइ, खर खर अंचल लागइ धाइ | खण खण जेत्वणु मागइ सोइ, बहुतु मोहु उपजावइ सोइ । ४३१ । sass चरितु तहा तिहि कियउ, फुरिंग ग्रापणउ रूपो भयउ १ २ माता मरण सुनु मोहि, कवतिगु श्राज दिखालउ तोहि ||४३२ || सत्यभामा का हलधर के पास दूवी को भेजना एतउ अवसर कथंतर भयउ, सतिभामा महलउ पठयउ 1 3 तुम बलिभद्र भए लागने, ग्रास काम रुकमिणी तरणे ॥४३३॥ (४२६) १. वाकड बीउ (क) अंक भरिउ ( ख ) श्रंक लिउ (ग) २. हि तव कंठ लायो (ग) ३. जीतव्य फल ( क ) जीविउ सफनु (ख) जीवट सफलु (ग) ४. उरि पारित्र (ख) मइ हरि घरचे (ग) ५. बालक होतु न बीट्ठ मइ इह पछिलाषा पूत ( ग ) (४३०) नोट- चौपड़ व प्रति में नहीं है। (४३१) १. भोजन रोइ (ग) (४३२) १. सुखहि तू (क) २. कलिंग (क) नोट- प्रति में चीया चरण नहीं है। मूलप्रति में 'उसो' पाठ है । ( ४३३) १. अमर ( क ख ग ) २. कंचुकि ( क ) महला (ग) ३. अइसा (क) इसे ( ग ) ४. किये (खग) मूलप्रति में - पठयो' पाठ हैं Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । महलउ जाइ पहुतउ तहा, बलिभद्र कुवर वइठे जहा । जुगति विगतिहि विनइ घणी, एसे काम कोए रूपिणी ॥४३४।। हलधर के दूत का रूक्मिणि के महल पर माना हलहल कोपि दूतु पाठ्यो, पबण बेगि रूपीगि पह गए। उभे भए जाइ सीहद्वारु, भीतर जाइ जणाइ सार ॥४३५।। तवइ मयण बुधिमह धरइ, मूडउ वेस विप्र को करइ । वडउ पेट तिनि प्रापरणउ कीयउ, फुणि पाडौ दुवारि पडि व्यउ४३६ तवहि दूत बोलइ तिस ठाइ, उठहि विन हम भीतर जाहि । तउ सो वाभण कहइ बहोडि, उठि न सकउ अाइयहु वहोडो ।४३७१ निसुणि बयण ते उठे रिसाइ, गहि गोडउ रालियउ कढाइ । जइ इह कीम्बहूं वाभरगु मरइ, तउ फुरिण इन्हकहू गोहिच चढइ।४३८। (४३४) १. सरत्तउ (क) संपत्तो (ख) संपती (ग) २. बोधी (क) स्वामी मात सुरहि मुझ तरपी (ग) (४३५) १. बलिभद्र (क) २. गि (ग) ३. पाठ (क) पाठक (स) पाठया १) ४. परि (ग) (४३६) १, बूढउ (क ख) बूढा (ग) २. मूलप्रति में 'तहा विपरित पाठ है (४३७) १. प्रानि इह (क) हज न सको प्राये यहोड (ग) (४३८) १ गहि गोडे रालउ इक नइ (क) गोडे दूखहि चलिउ न जाइ (ग) २. जो इहु कयही भशु महए । तउ पुरिण इसु की हत्या चन्द (1) ग प्रति में निम्न पच प्रषिक है सो हम कहु वेहन पइसार, संघि रहवा सो घर का बार। गहि गोडा जे रालउ तोहि. मरइ सु वंभशु हत्या प्राहि ॥४॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेशन प्राप्त सकने के कारण दुत का वापिस लौटना अइसो जाणिति वाहुडि गए, हलहर प्रागइ ठाढे भए । वाभरण एक वाडह पडउ, जारिण सु दिवसु पंचकउ मडउ ॥४३॥ ! तिन पह हम न लइ पयसारु, रुधि पडिउ सो पवलि दुवारु। गहि गोडउ जउ जालइ ताहि, मरइ सु वंभरगु हन्या पाहि ॥४४०॥ स्वयं हलधर का रुक्मिणी के पास जाना निसुणि वयण हलहर परजल्यउ, कोपारूढ हो प्रापण चलिउ । जरण दस वीसक गोहण गए, पवरण वेगि रूपिणि पह गए ।४४१। । उभे भए ति सीहद्वार, दीठउ वाभरण परउ दुवार । तउ वलीभद्र पईइ ताहि, उठ.हि विप्र हमि भीतर जाहि ॥४४२।। तव वंभण हलहरस्यो कहइ, सतिभामा घर जेम्वरण गयउ। सरस प्रहार उवरु मइ भरिउ, उठि न सकउ पेट आफरचउ ।४४३। rties (४३९) १. इसउ वयरण (क) अइसन जाणिति (ख) बीठा खंभा (ग) २. वारसद (क) बारिहइ (ख) बारि हइ (ग) (४४०) १. सहि (क) तिहि (स) सो हम कह देइ न पइसारू (ग) २. रहा । घर का बाच (ग) ३. राहि (क) राहे (ख) रालउ (ग) ४. भरई सु वंभव हत्या पाहि (ग) नोट--ग्रह पर ग प्रति में मूलप्रति के ४४० चे पद के प्रागे तथा ४४१३ के पहिले विया गया है । मूलप्रति में--मरइ किमद्द गोहचहि डराहि पाठ है । (४४१) १. पलिउ (क) परजलिउ (प) परजस्पो (ग) २. पुण (ख) 1 मारण्द वहसंदरि छो टल्यउ (ग) ३. साधिहि (ग) ४. घरि (ग) (४४२) १. जाइसीह (क ख) तिसीहउ (ग) २. वारि (क) दोहा वाभए । पाचा सुवारि (ग) ३. कहब हसि बात (ग) . (४३) १. एजो धरि रहइ (ग) २. सरस (क ख ग) ३. मूलप्रति में पहार' पाहै । ४. उबरु (क) बहुत संघरउ (ख) ५. माफरियउ (कपरिउ {) माफर (ग)। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव वलिभद्र कहै हसि वात, एकर हटा न उठइ खात | थाभण खउ लाल वी होइ, बहुत साइ जाण्इ सदु' कोइ ॥४४४॥ तथइ रिसाइ विप्रइ बहइ, तू बलिभद्र खरौ निरदयो । अवर करइ वाभरण की सेव, पर दुख वोलइ तू केव ॥४४५।। तवइ उठिउ वलिभद्र रिसाइ, गहि गोडउ गहि चल्यउ कढाइ | कहा विप्र कहु दीजइ कालि, बाहिर करि प्राबहु निकालि ।४४६॥ तब हलहर लइ चलीउ कढाइ, पूइ मयणु रुक्मिणी माइ ! एक दात हो पूछ उ तोहि, कवरण वीर यह आखहि मोहि ।४४७। रुक्मिणि द्वारा हलधर का परिचय छपन कोटि मुख मंडल सारु, यह कहिए बलिभद्र कुवारु । . सिंघजूझ यो जाणइ घरण उ, यह पीतियउ पाहि तुमि तरणउ ।४४८ गहि गोउइ बह वाहिर गयो, वांधि पाउ धडज हइ रहउ । देखि अचंभउ हलहरु कहइ, गुपत वीर य कोण अहइ ॥४४६।। (४४४) १, रिटिया भन्नुसरि खात (क) रटिहानउ हटहि बात (ख) रटिकान उही खातु (ग) २. खरउ (ख) जरा (ग) (४४५) १. तर दोषतरु वोलहि देव (म) (४४६) १. लिनि लोयो उचाइ (ग) २. पालि (क ख) गाल (ग) ३, मा देह (क) सुदीज निकालि (ग) (४४५) १. रिसाइ (क) (४४६) १. पीतरिउ (क) पौतिया (ग) . ... . . .(४४६) १. पुद्धि पाइ सुटर हो भयो (फ) बढिउ पाउ बा महा रहिट (ख) बाधा पाउ धरति सहि छया (ग) २. करइ (स) ३. कोइ (ग) ... Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न का सिंह रूप धारण करना रालि पाउ भुइ उभउ रहइ, तहि क्षण सिंह रुप बहु भयउ । तहि हलु प्राबधु लयो सम्हालि, फुणि ते दोउ भीरे पचारि ।४५०। जूझ भिरइ अखारउ करइ, दोउ सयल मलावझ लरइ ।। सिंघ रुपि उठियोउ संभालि, गहि गोडउ घालियउ अखालि ।४५१ छपनकोटि नारायण जहा, पडियो जाइ ति हलहर तहा । देखि अचंभ्यो सगलो लोगु, भणइ कान्ह यह वडउ विजोगु ।४५२॥ चतुर्थ सर्ग रुक्मिणि के पूछने पर प्रद्य म्न द्वारा __ अपने बचपन का वर्णन इहर बात तो इहइ रही, वाहुरि कथा रुपिणी पह गइ । पूछिउ तव नंदन आपनौ, कापह सीख्यउ बल पोरिष घणौ ॥४५३॥ ॥ मेघकूट जो पाठई ठाउ, जमसंबर तहा निमस राउ । निसुणौ वयरण माइ रुपिणी, तिहि ठा विद्या पाइ घरणी ॥४५४॥ (४५०) १. राडि पाउ भौमि कभी सोइ (ग) २. तंतिगि (ग) ३. विक्रम सो होइ (ग) ४. उठि अलिभव घालिज संभारि (क) उहि हलु आवधु लियो संभालि (स) हलु प्रापधु लिया संभालि (ग) मूलप्रति में-'तहि लुम्पावधु' पाठ है (४५१) १. मल्लबहू (क) २. लुझिवद (क) लडहिं (ख) ३. प्रालि (क) । . नोट---- प्रति में यह छन्द नहीं है । ख प्रति में तीसरा चौया वरण नहीं है। (४५२) १. पजिउ (क ख) पड्या (ग) (४५३) १. अइसी (ग) हरनहर दात उही इह रही (ख) २. नापहि फरण परिषु घणा (ग) (४५४) १. पटुइ (क) पाया (ग) पावइ (ख) र. मुटु चात माता कमिरिण (ग) ३. यह (क) का (ख) इ (ग) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ) -- निसुरिण वयसा पासउ लोहि, मानसिक से आयो मोह । उदिधिमालः मइ यह जोडि, फुणि प्रदवन कहै कर जोडी ।४५५॥ विहसि माइ तव रुपिणि कहह, कहा सुभइया नारद ग्रहइ । निसुरिग पूत यह पाखउ तोहि, उदधिमाल दिखलावहि मोहि ४५६ प्रध म्न द्वारा रुक्मिणि को यादवों की सभा में ले जाने की स्वीकृति लेना तउ मयरद्धउ कहइ सभाइ, बोल एकु हो मागो माइ । वाह परि तोहि सभा वारि, लेजइहो जादौनी पचारि ॥४५७।। यादवों के बल पौरुष वा रस्मिणि द्वारा वर्णन भरणइ माइ सुणि साहस धोर, ए जादौ है बलीए वीर । हरि हर कान्हु खरे सपरान, इन्ह आगइ किम पाबहु जाण ।४५८। पंचति पंडव पंचति जणा, अतुल बल कौंतीनन्दना । अर्जुन भीमु निकुल सहदेउ, इनके पबरिष नाही छेव ॥४५६।। छपन कोटि जादौ बलिवांड, जिनके भय कापइ नवखंड | एसे खत्री वसइ वहूत, किम्व तू जिणइ अकेलो पूत ॥४६०॥ (४५५) १. लई प्रजोडि (ग) लईय बहोडि (क ख) २. स्यहोद्धि (ग) (४५७) १. दीजै (ग) (४५८) १. भानउ चलो हउ (ग) २. मर्याल (क) कहियहि (ख) (४५६) १. पांचति (ख) प्रवर (ग) २. पंच3 (ग) ३. जाण (क ख) ४. अवर मल्ल कैरव नन्दना (क) मल्ल कुती गंदण (ख) बाल कुतोमाइन (ग) (४६०) १. तानि (ख) ब्रह्मा (क) २. जिसे (ग) ३. मिस (ग)। ४. जाइसि एकल (क) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुबंध--ताम कोप्यो भाई मयरुद्ध रण तोडई भड अतुल बल, लउ मान जादम असेसह । विहाउ रण पांडवह, जिणऊ रणि सव्वह नरेसह ।। नारायण हलहर जिगिवि, सयलह करउ संघार । पर कुरवि जिपवरु मुहवि, सामिउ नेमि कुमारु ॥४६१॥ चौपई मयगु चरितु निसुणहु सत्रु कवरणु, नारायणु जुझइ परदवणु । बाप पूत दोउ 'रण भिरे, देखइ अमर विमाणाह चढे ॥४६२॥ रुक्मिणि की बांह पकड़ कर यादवों की सभा में ले जाकर उसे छुड़ाने के लिये ललकारना -- -.-.. - कोपारुड मयण जव भय उ, वाह परि माता लीए जाइउ । सभा नारायणु वइठउ जहा, रूपिणि सरिस सपतउ तहा ॥४६३॥ देखि सभा बोलइ परदवगु, तुम सो बलियो खत्री कवणु । हउ रूपिगि ले चल्यों दिखाइ, जाहि वलु होइ सु लेहु छुड़ाई ४६४ (४६१) १, ममरण रणि (क) मयरुद्ध (ख) मूलपाठ समझरि २. रण तोड भड अतुल बल (क ख) धाइ लयर, रण तोडउ भउ ३. जबह (ख) ४. जिणिसु (क) जिणऊ रणि सञ्चह नरेसह (ख) मूल पाठ जिहादु सरि सहकरि नरेसह ५. एकुधि जिपवर मुच्चिकरि (ख) नोद--- बस्तुबंध छन्द ग प्रति में नहीं है। (४६२) १. सह कौशु (ग) २, बोनों (ग) (४६३) १. कोपालपि (ग) २. कपिरिण (ग) (४६४) १. महि (क व ग) २. किउणु (ग) ३. जेहा (१) ४. प्राइ, (फ ख) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) सभा में स्थित प्रत्येक वीर को सम्बोधित करके युद्ध के लिये ललकारना तू मारायण मथुराराउ, तई कंस भान्यो भरिवाउ 1 जरासंध तइ वधौ पचारि, मोपह रूपिरिण प्राई उवारि ॥४६५॥ दसह दिसा निसुणो वसुदेव, जूभात तणउ तुम जारणउ भेउ । जादो मिलहु तुम छपन कोडि, वलि करि रूपिणि लेहु अजोडि ।४६६। वलिभद्र तू बलियो वर वीर, 'रण संग्राम पाहि तू धीर । हल सोहहि तोपह हथियारु, मो पह रूपिणि आई उवारु ।।४६७।। तू ही अर्जुन खंडव डहा, तो पबरिष जाणं सबु कवरणु । ते क्यराड छिडाई गाइ, अव तू रूपिणि लेइ मिलाइ ॥४६८॥ भीम गजा सोहहि कर तोहि, पवरिष पाज दिखावई मोहि । रूहारि पाच तू भोजन काइ, अब संग्राम भिडइ किन अाइ ॥४६॥ निसुणि वयरण सहयो जोइसी, करि जोइस काही हो वसी । विहसि वातपूछइपरदवणु,तुमहि सरिस जिणइ रण कवणु ।४७०। (४६५} १. हज (ग) २, कंसह (क) कसाह (ख) ३. बंधिउ (क) जीतिया (ग) बांधियउ (ख) ४. लोहे (प) ने छ (ग) . (४६६) १. होवह (ग) २. दिसार (क ख ग) ३. झूझ (क) जूझण (ग) ४ बलिए (ग) ५. बहोरि (क ख) (४६७) १. बलिभउ तह गुरुमा गंभीर (ग) २. साहस धौर (ग) ३. वीर (ख) ४. हलु सोहितौ (ग) ५. यसकरि (ग) ६. प्राज (ग) (४६८) १. खंडच वरण बहश (क) खंडा वरण वह्ल (ग) धगुफ परशु (ख) २. छुडाइ (क) फिन पाइ (ग) (४६६) १. गदा (क) २. प्रवाहि प्राइ मुरझहि रण माहि (ग) (४७०) १. करि जसका सज़ होसी (क ख) गिरिराज्योइस का साहज इसी (ग) २. दलदल माहे रणि जीत कवण (ग) नोट---चौथा चरण के प्रति में नहीं है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) निकुल कुवरु तउ परिषुसारु, तोपह कोंत पाहि हथियारु । अव हद भयो मरण को ठाउ, मोपह सपिरिण प्राणि छिडाई ।४७११ तुहि नारायण हलहर भए, छल करि फुरिण कुडलपुर गये । तवहि वात जाणी तुम्ही तरणी, चौरी हरी प्राणी रूकिमिणी॥४७२।। मयरबउ जपइ तिस ठाइ, अब किन पाई भिरहु संग्राम । बोल एकुह वोलो भलो, तुम सब खत्री हउ एकोलो ॥४७३।। प्रद्युम्न की ललकार सुनकर श्रीकृष्ण का युद्ध के प्रस्ताव को स्वीकार करना वस्तु--निमणि को यो तहा महमहण। जाणे वैशुदरु घृत ढल्य उ, जाणिक सिंह वन मा गाजिउ । रणं सायर थल हलिउ, सयन संबनि जादवन्हि सजिउ । भीउ गजा लइ तहि चलिउ, अर्जुन लिउ कोवंड । नकुल कोपि कर कोंत लउ, तउ हल्लिउ वरम्हंड्ड ॥४७४।। चौपई साजह साजहु भयउ कहलाउ, भयउ सनद्ध'उ जादमराउ । हैवर साजहु गैवर गुरहु, साजहुइ मुहड आजु रण भिडहु ॥४७५॥ १४७१) १. सोहइ इत्तु तोहि कुता हथियारु (ग) नोट-ख प्रति में चौथा चररा नहीं है (४७२) १. बलि परिण (क) २. जाई (क) (७४) १. राड (ग) २. घिउ (ग) ३. जणु (ख) जासु (ग) ४, गहरिण (स) ५. सुर सायर तक चलो (क) रणं साया महि उछलियउ (ख) बारगज सेषनु मेह उछला ६. मयल जाम (क) सयन जहि (ख) शु सेनु मीसानु विज्ज (ग) ७. हलहरि हलु प्रायलिज (ख) ८. फाटड (क) हाल्या (ग) मूलप्रति मेंमहिउ पाठ है। (४५४) १. धावडू (म) । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) प्रायसु भयउ सुहर रण चलइ, ठो ठा के विसखाती करइ । के कर साजइ करवालु, केउ साजि लेहु हथियारु ॥४७६॥ बुद्ध की देदारी का वर्णन केउ माते गंबर गुडहि, केउ सुहर साजि रण चढइ । केउ तुरीन पाखर घालि, केउ प्रावध लेइ सभालि ।।४७७।। केउ टाटण जूझग लेइ, केउ माथे टोपा देइ । केउ पहरइ आगिसनाह, एसे होइ चाले नर नाह ।।४७८॥ कोउ कोंतु लेइ कर साजि, कोउ असिवर नीकलई माजि । कोउ सेल सम्हारइ फरी, कोउ करिहा साजे छुरी ॥४७६॥ केउ भरगइ वात समुझाइ, इन सुहडनि हइ लागी वाई । जिहि है रूपिरिण हरि पराग, सो नरु नहीं तिहारै मान ।।४८०॥ एक ठाइ सव खत्री मिलहु, घटाटोप होई जूझरण चलहु । । पोछी वृधि जिन करह उपाउ, अव योभयउ मरण कउ चाउ ॥४८१।। (४७६) १. निसागोहू (ग) २. टाटर टोपनि सिरि परि धस्पा (क) गडे होइ उसारपती कराऊ (प) ३. केइ कमरि कसहि (ग) कोइ (ख) (४४७) १. जात रथि (ग) रथ (ख) २. अंबारी (ख) ३. मायुध (ग) (४७८) १. जोसण (ग) २. टोपी (ख) ३. अंग (क ग) ४. एण माहि (फ ख ग) (४७६) १. रण (ग) २. नीकलए (क) नीकालहि (ख) लेहि रण ३. बरी (क) करी (ग) ४. हायिहि (ग) (४०) नोट---प्रथम द्वितीय चरण ग प्रति में नहीं है। (४८१) १. मासु रणि (ग) २. जूझरण (ख) करी सुम्ह (ग) मूल पाठ खत्री ३. उरिय (क) कछु (ग) ४. इव हियो (क) हह हइ (ग) ५. कउ ठाउ (क) कच बार (ख) का गाउ(ग) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) चाउरंगु वलु मिलिउ तुरंतु, हय गय रह जंपारण संतु । सिगिरि छात दीसहि अपारण, अंतरीख हुई चले विमाण ||४८२ ॥ ५ १ अँसी सयन चली अपमाण, वाजण लागे दरड निसारण | घोडा खुररई उछली खेह, जागौ ताजे भादम्ब के मेह ॥४८६३ ॥ सेना के प्रस्थान के समय अपशकुन होना १ बाई दिसा करंकइ कागु वाट काटिगो कालो नागु । महुवरि दाहिणी अरु पडिहारु, दक्षणा दिस फेकरइ सियालु ॥४८ ४ || वरण मा दीसड़ जीव असंखि, धुजा पडइ तिन कैंसर पंखि । सारथि भरड कहै सतिभाउ, बूरे सगुन न दीजं पाउ || ४८५ ॥ तर केसव बोल तिस ठाह, सुगमु सुगराइ विवाहण जाइ । प सा सारथी समुझावें कोड, जो विहि लिख्यो सु मेटइ कोइ ॥ ४८६|| चालै सुहड न मानहि सवनु देखि सयनु प्रकुलाणे मय । माता रूपिरि घालि बिमारण, पाछइ आपण रचइ भार ||४८७ ॥ ३. पाक मिले बहूत ( ग ) ४. ग ) ५. वाrs गाजर गुहिर ( ४८२) १. बलु ( क ग ) २. संपत्त (ग) सिखरित्र (कख) सिंगर छत्र नहीं परवा ( निसारण ( क ) ६. चढा (ग) (४८३) १. गहिर ( ख ) गुहिर (ग) २. घोरा खुरद ( क) घोडा लक (ख) घोडा रज खुर (ग) ३. मूल पाठ लोडा ४. गरजइ (क) गाजे ( ख ग ) ( ४८४) १. अरु परिहारु (फग) महिला सोही अरु प्रतिहारु कुकड़ वसि दिसा सीयालु ( ग ) मूलपाठ अंतु परिहारु ( ४८५) १. इन सकुणिह किउ दीजं पाउ (ग) (४८६) १. सतिभाउ (ग) नोट- दूसरा तीसरा चरण ग प्रति में नहीं है। (४८७) १. र परारण ( क ) रचइ विमाणु (ख) मूलप्रति में 'च' पाठ है .: गन्तवहि मय बाहद्धि बुधि मारिण, माता रुपसि चडी बिमारिंग । चडि करि रथि वोलह महमहणं, चालक सूड न मानव || Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( d ) विद्या बल से प्रद्युम्न द्वारा उतनी ही सेना तैयार करना । तवइ मयण मन मा वृधिकरी, सुमिरी विद्या समरी करी। जइसउतह वलु पर देखीयउ, इसउ सयन प्रापगाउ कीयउ ॥४८८।। युद्ध वर्णन दाउ दल सयउ मह भए, सुहडनु साजि धनुष कर लए । इनउ साजि लए करवाल, जाणिक जीभ पसारी काल १४८६।। मयगल सिउ मैगल रण भिरइ, हैवर स्यो हैवर प्रा भिरइ । रावत पाइक भिरे पचारि. पडइ उठई जिमवन की सारि ।।४६०॥ केउ हाकई केउ लरइ, केउ मार मार प्रभगइ । केउ भोरहि स्मरि रण प्राजि, केउ कायर निकलइ भाजि ॥४६१॥ केउ वीर भिडइ द्रुबाह, केउ हाक देइ रण माह । केज करइ धनष टंकारू, केउ असिवर करई संघारु ।।४६२।। (80॥ ..---.---.-. . (४८८) १, बाहति (ग) २. धरी (ख) ३. सेना करो (क) सपन कारणी (ख) विरधी करी (ग) ४. तसउ (क) तव सउ (ख) जे ता तिनि परदल देखिया, ते ता सेनु प्रापणा कीया (ग) (४९) १. साम्हे उभे (क) सतमुख जब (ख) वीर बराबर भये (ग) २. धरणहर (फ) ३. किनही (क) किनर (ख) केइ (ग) ४. जीभ (क ख ग) (४०) १. प्रा भिडहि (क) २. पाखुढा (क) किरजई (ग) ३. सहहि प्रतिमार (ग) (६१) ग--केइ हाथि कहिके पहणह, केंद'मारते कहि इम भरणहि । केइ भिडहि संवरि ररिण गाजि, फेइ फायर नासहि भाज। १. सूलपाठ रणाजि (४६२) १. धूक का हाउ (ग) २. पहार (क ख) के प्रसवार घालहि घाउ (ग) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७०) देखि स्मरि बोलइ हरिराउ, अर्जुन भोम्मु तिहारौ ठाउ । सहियो निकुल पयंपहि तोहि, पवरिषु प्राजु दिखावहि मोहि १४६३। फुरिग पचारि बोलइ हरिराउ, दसौ दिसा निसुरगौ वसुदउ । वलि भद्र कुवर ठाउ तुमि तरणउ, दिखलावहु पवरिश प्रापरणउ ॥४६४॥ कोप्यो भीमसेरिण तुरी चढीइ, हाकि गजा ले रणमहि भिडइ। गयर सरीसो करइ प्रहार, भाजहु खत्री नही उवार ॥४६५।। कोपारूढ पंथ तव भयउ, चाउ चढाइ हाथ करि लीयउ । चउरंग वलु भिडउ पचारि, को रण पंथ न सकइ सहारि ॥४६६॥ सहद्यो हाथ लेइ करिबालु, निकुन कौंत ले करइ प्रहारु । हलहर जुझ न पूजइ कोइ, हल प्रावध लई पहरइ सोइ ।।४६७।। जादव भिरइ सुहर वर वीर, रण संग्राम ति साहस धीर । दसर दिसा होइ बसुदेव भिडे, बहुतइ सहर जूझि रण पडे ।।४६८।। प्रद्युम्न द्वारा विद्या बल से सेना को धाशायी करना तव मयरद्ध कोप मन धरइ, माया मइ जूधु बहु करइ । मोहे सुहड़ सयल रण पडे, देखइ सुहड विमाणा चढे ॥४६६!! - (४६३) १. सेनु (ग) -- -- ----- - - (४६५) १. भीव तहि तुल बढ़पा (ग) २. हाथि (क) मूलप्रति में 'लए सो भीडह' पाठ है ३. जूझ भीम दे बहुती मार (ग) १४६६) १. कोपिरुत पस्थ (ग) २. पत्थु (ख) ३. पछह (ख) पत्य (ग) ४. सहद ररिंग मार (ग) (४६७) १. का (ग) मूलप्रति में 'अल' पाठ है । (४६८) १. संग्रामहि (ग) २. प्राहि रणधीर (क) ३, जे रण संगमि माहि रणधीर (ख) ४. मायामयी मुझ रण पड़े (अ) (YES) १. महमसो तव जूझ कराह (ग) २. मोहरिण विद्या दीई समदायि (ग) ३. श्रमर (क ) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठा ठा रहिवर हयवर पडे, तूटे छत्रजि रयणनि जरे । ठाठा मैगल पड़े अनंत, जे संग्राम आहि मयमंत ॥५०॥ सेना जूझि परी रग जाम, बिलख बदन भो केसव ताम | हाहाकारु कर महमहशु, वलियो वीरू अाहि यह कवणु ।।५०१।। रण क्षेत्र में पड़ी हुई सेना की दशा बस्तुबंध-पड़े जादौ व देखि वर वीर | अरु जे पंडी अतुलबल, जिन्हहि हाक सुर साथ कंपइ । जिन चलंत महि थर हरइ, सवलधार नहु कोवि जित्तइ ।। ते सव क्षत्री इहि जिणे, यह अचरिउ महंतु । काल रूप यहु अवतरिउ, जादम्ब कुलह खयंतु ॥५०२।। चौपद -- - - फिरि फिरि सैना देखइ राउ, खत्री परे न सूझइ ठाउ । मोती रयण माल जे जरे, दोसइ छत्र तूरी रण पड़े ।। ५०३।। हय गय रहिवर पडे अनंत, ठाई ठाइ मयगल मयमंतु । ठाठा रूहिरु वहहि असराल, ठाइ ठाइ किलकइ वेताल ||५०४॥ (५००) १. ठाई ठाइ हिबह प्रांसू परइ (ग) २. सिर (ग) ३. पादक (ग) (५०१) १. कार (क ग) मूलपाठ कातु २. रणमाहि वीरु अपि परववरण (ग) (५०२) १. प्रत्रुजे (ख) २, परशुन (ग) २. जिन्ह् हाक ते मुरगव डोलह (ग) ३. जिन्ह हाक इव मेदिनी धसद (ग) ४. समर (ख) चलई मेरु जिन्ह हाकु झोले (ग) ५. रण (ग) ६. इहु सूरा मयमतु (ग) ७. सब संघरह (ख) (५०३) १. रल (ग) २, तरि (ख) तुही घर (ग) नोट---५०३ से ६१३ सक के हुन्छ 'क' प्रति में नहीं है । (५०४) १. मपगल (ग) ३. बहूत (ग) ३. वषिरुपये (ग) ४. किलकिलहि (ख) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (१०२) गीधोरणी स्याउ करइ पुकार, जनु जमराय जरणावाह सार । वेगि चलहु सापडी रसोइ, असई प्राइ जिम तिपत होइ ।।५०५।।।। __ श्रीकृष्ण का क्रोधित होकर युद्ध करना तउ महमहनु कोपि रथ चलइ, जनु गिरिवर पञ्चउ खर हडइ | हालइ महियलु सलकिउ सेस, जम संग्राम चलिउ हरि केसु ।।५०६॥ युद्ध भूमि में रथ बढाने पर शुभ शकुन होना जव रण पेलिउ रथु आपनउ, तव फरकिउ लोयणु दाहिउ। अरू दाहिणइ अंगु तसु करइ, सारथि निसुणि कहा सुभु करइ ॥५०७।। सारथि एवं श्रीकृष्ण में शतीलाप रण संग्राम सयनु सवु जिरणी, अरू इहि प्राइ हडी रुक्मिणी। तउ न उपजइ कोप सरीर, कारण कहा कहइ रणधीर ।।५०८।। तखरण सारथि लागो कहण, कवरण अचंभउ यह महमहण । भाजहि सुहड हाक तुह तणी, अरु तो हाथ चढइ रुक्मिगी ॥५.०६।। - - (५०५) १. वापिरिण (ख) गीदउ (4) २. स्याल (ग) ३. ते (ग) ४. संपन (ख) ५. स्याहु प्राय जिस ति ते होइ (ख) पंसी पसुबन रह्हन कोइ (ग) (५०६) १, कोपि सुडि (ख) कोपि रणि (ग) २. खडहडइ (ख) पर्वत थर हरभो (ग) ३. सकिउ (ख) बोल (ग) ४. चढिउ (ख) चल सुरणि जावमह नरेसु (ग) (५०७) दोठी सयन पड़ी घर ताम कोपारद विस भज ताम । तंरिग हाथ लइकर चाउ, प्रारिमरण वल भानउ भड़िवाउ ॥ यह इन्च मूलप्रति में नहीं है । (५०६) १. सुहड (ग) ३. तीसरा चरण 'ल' प्रति में नहीं हैं मुलपति में। 'फुधर पाठ है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तउ जंपइ केसब वर वीर, निसुणी वयरण तू खत्री धीर । तइ महु सयन सयलु संघरयउ, अर भामिनी रूपिणि ले चल्यउ॥५१०।। श्रीकृष्ण द्वारा प्रद्युम्न को अभयदान देने का प्रस्ताव पुनवंतु तुहु खत्री कोइ, तुह उपरि मुह कोपु न होइ । जीवदानु में दीनउ तोहि, वाहुंड रूपिणि प्रापहि मोहि ।।५११॥ प्रद्य म्न द्वारा श्रीकृष्ण जी की वीरता का उपहास करना तब हसि जंपइ पत्री मयरगु, असी बात कहै रण कवरणु । तोहि देखत में रूपिरिण हडी, तो देखत सब सयना परी ।।५१२॥ जिहि तू रण मा जिरिणउ विगोइ, तिहि स्यो अबहि साथि वयो होइ । लाज न उठइ तुमइ हरिदेउ, वहुडि भामिनी मांगइ केम्व ।।५१३।। मै तू सूणिउ जूझ पागलउ, अब मो दीठउ पौरुष भलउ । कछु न होइ तिहारे कहे, सयन पड़ी तुम हारिउ हिए ॥५१४।। तउ मयरद्ध हसि करि काउ, तइ सव कुटम धरगि पडि सबउ । तेरउ मनुइ परंखिउ आजु, तुहि फुणि नाही रूपिणि काजु ॥५१५॥ (५१०) १. तास (ग) २. सह मयल सयेतु संघरिउ (ख) मोहि (ग) । ३, तिया (ग) (५११) १. इसु (ग) २. जाहि (ग) (५१२) १. बोल (ग) २. राठी (ग) (५१३) १. मारघा वलु सथारु विमोइ (ग) २. सारथि (ग) सांति (ख) किन कोई (ख) (५१४) १. तेता (म ख) तीसरा चरण स्व प्रति में रही है। मूलप्रति में भेलउ पाठ है। (५१५) १. विहसि फुरित (ख) तहि वहसि (ग) २, जेता हर६ मनि संसारहा (ग) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) छोडि आस तड़ परिगह तशी, अरु त छोडी सो रुक्मिणी । जउ तेरे मन कछू न ग्राहि, पभराइ भयगु जीउ ले जाहि ॥ ५९६ ॥ प्रद्युम्न के उत्तर के कारण श्रीकृष्ण का क्रोधित होना एवं धनुष बाण चलाना "4 ક્ मण पछितावउ जादमुराउ, मइयासह बोल्ड तिनाउ । 3 ४ इहि मोस्यो बोल्यो प्रगलाइ, अव मारउ जिन जाइ पलाइ ॥ उपनउ कोप भइ चित कारिण, धनुष चढाइयउ सारंगपारिंग ॥५१७ ॥ * अर्द्धचंद्र तहि वाधि बारा, अब याकत देखियउ परागु । 3 ४ साधि धनियउ दीठउ जाम, कोपारूढ मय भो ताम ॥ ५१८ ॥ कुसुमवाण तव बोलिउ वयेगु, धनहर छोनि गयउ महमहणु | २ Y हरि को चाउ टिगो जाम, दूजइ धनष संचारिउ ताम ।। ५६६ ॥ २ फुरिण केंद्रपु सरु दीनख छोडी, वहइ धनकु गयो गुण तोडि । 3 * कोपारूढ कोप तब भयउ तीजउ चाउ हाथ करि लयउ || ५२० ।। (५१६) तजी (ग) २. जीवडा (ग) (५१७) १. मनि ( ख, ग ) २. मह इसिज (ग) मइ सुख (ग) ३. श्रागलड (ख) ४. इव ( ख ) जिन ( ग ) (५१८) १. तिनि संध्या वाणु (ग) २. इष इह (ख) इव देख तु तरा निदान (ग) ३. बरहरू ( ख, ग ) ४. कोपिरूप ( ग ) (५१९) मेलिउ ( ग ) २. चाउ ( ख ) मयणु ( ग ) २. छिन्नउ तब ( ग ) ४. तव हरि घाउ तूटिया ताम (ग) ५. चढाया ( ग ) नोट- दूसरा और तीसरा चरण प्रति में नहीं है ? (५२०) १. तब (ग) २. मुहई ( ख ) ऊभी धष गया सो तोडि (ग) ३. fasy (er) faby (1) Y. HEITI (1) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) = मैलइ वाण मयण तुजि चडिउ, सोउ दारण तूटि घर परघउ । विस्नु सभालइ धनहर तीनि, खिरण मयरद्धउ घालइ छोनि ॥५२१॥ प्रद्युम्न द्वारा श्रीकृष्ण की वीरता का पुनः उपहास करना हसि हसि बात यह प्रदवर, तो मलाही खो कर । कापह सीख्यउ पोरिष ठाउणु,मोसिह कहइ तोहि गुर कत्रणु ॥५२२॥ धनुष वाण छीने तुम तणे, तेउ राखि न सके आपणे । तो पवरिषु मै दीठउ आजु, इहि पराण तइ भूजिउ राजु ॥५२३॥ फुणि मयरद्धउ जंपइ ताहि, जरासंध क्यो भारिउ कांसु 1 । विलख बदन तव के सब भयर, दूजउ रथ मयायउ ठयउ ||५२४।। श्रीकृष्ण का क्रोधित होकर विभिन्न प्रकार के बाणों से युद्ध करना -- - तहि पारूढो जादौराउ, कोपारूढु लयउ करि चाउ । = अगनि वाणु धायउ प्रजुलंतु, चउदस झल बहु तेज करंतु ॥५२५॥ (५२१) १. सोइ घणष टि भुइ पगिज (ग) (५२२) १. तर हसि बात कहा परदवणु (ख) २. अजम्न (ग) ३. रहसि : भार पूछइ महमहण (ग) (५२३) १. छेवे तुहि तणे (ख) (५२४) १, किम जोतिज (ख) सइ जोत्या ग) २. मूल प्रति में अर्थ पाठ है। (५२५) १. अनि वास मेला महण (ख) प्रगनिवारण प्राई परमलंत (क) २. तिहि की पाच न माई सहण (स) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.१०६) मयरद्ध दल चले पलाइ, अमिगिझ लरइ सहण न जाइ। डाझहि य गय रहिबर घणे, उहटे सयन पजूनहा तणे ॥५२६॥ कोपारूढ भयो तब मयणु, ता रणहाक सहारइ कवरणु । पुहपमाल कर धनहर लीयउ, साधिउ मेघबाग पर ठयउ॥५२७॥ मेघनादु घनघोर करत, जल थल महियल नीर भरंत। . ! रसी आगि चुका था, जादम सफा बली वहि ताम ॥५२८॥ रहिवर छत्रजि दीसइ भले, नीर प्रवाह सयल वहि चले । हय गय तुरय वहइ असेस, खत्री राणे वहे असेस ॥५२॥ तव जंपइ महमहण पचारि, कोयह सुक्रम को चालि | नारायण मन परयो संदेहु, हतो यह वरिसर मेहु ॥५३० तव मनह अचंभो भयो, मारुन वाण हाथ करि लयो । जवइ वाण धाइयो भहराइ, मेघमाली घानी विहडाइ ॥५३१॥ (५२६) १. रउछाल (ख) पर्वत (ग) २. अग्निवाण रण सहरण न जाई (ग) अगनि झल सख सहन जाइ (ख) ३. वाझहि (ख) ४. हडरे (स्त्र) नोट-५२६ का तीसरा चौथा चरण सीनों प्रतियों में नहीं हैं। (५२८) १. मेघवान (स्व ग) (५२९) १. धरणे (ग) २. हुये तखिरणे (ग) ३. रम संवहितउ चन्चे (ग) | ४. खत्री बहे जे रण पागले (न) (५३०) १. हरिराउ संभालि (ग) २. की यह सुक्रम भउम की गारि (ख) कउ इह सुकु कय मंगलवालु (ग) ३, बडा (ग) ३. कहा हु तज इह वर सिउ मेहु (ख) मासु कहा ते माया मेह (५३१) १. भारची (ग) २. जहि पवन टूटा तिहिं ना (ग) ३. मेघमाला घाले वहाइ (ग) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०७) मायामय सन खर हडइ, उरई छत्र महिमंडल परहि ! चउरंग दलु चलिउ पडाइ, हय गय रह को सकइ सहारि ॥५३२।। तवइ पजून कोपु मन कियउ, परवत वारण हाथ करि लयउ । मेलोउ वाण धनसु कर लयउ, रूधि पवणु आडहु हुइ रबउ ॥५३३।। कोप्यो द्वारिका तणो नरेसु, मयणहि पवरिसु देखि असेसु । वन प्रहार करइ खरण सोइ, पञ्चर फूति खंड मो होड़ ॥५३४।। देवतु वाणु मयण लाउ हाथ, नारायण पठउ जम पाथि । तव केसव मन विसमइ होइ, याको चरितु न जाणइ कोइ ॥५३५।। प्रयसउ जुझु महाहउ होइ, एकइ एकु न जीतइ कोइ । दोउ सुहड खरे बलिवंत, जिन्हि पहार फाटहि वरम्हंड ॥५३६॥ - श्रीकृष्ण द्वारा मन में प्रद्युम्न की वीरता के बारे में सोचना तवइ कोपि जादौ मनि कहइ, मेरी हाक कवरण रण सहइ । मोस्यो खेत रहै को ठाइ, इहि कुल देवी पाहि सहाइ ||५३७॥ (५३२) १. माया सपि पचन संघरत (ग) २. अरु (1) ३. पलाइ (ग) ४. गयवर के सकल रहाइ (ग) (५३३) १. मणि (ग) २. हस्त (ग) ३. प्रागड (ग) (५३४) १. फुणि (ग) २. पर्वत (ग) ३. कुछ (ग) (५३५) १. देव विभाग (ग) (५३६) १. महो महि (ग) २. धौर (ग) बलिषडं (ग) ३. जिम्ह चानस्या गोपहि ब्रह्म' (ग) {५३७) नोट-चौथा चरण ग मति में नहीं है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) मइ रण जीतिउ कंसु पचारि जरासंध रण घालि मारि । मै सुर असुर साथ रण ब्रह्मउ, यह गरहु जु खेत अरि रह्यउ ।।५३८।। • श्रीकृष्ण का रथ से उतर कर हाथ में खलबार सेना तब तिहि धनहर घालिउ रालि, चन्द्रहंस कर लीयो सभालि। वीजु सपिसु चमकई करवालु, जाणौ सु जीभ पसारै काल ॥५३६॥ जवति खरग हाथ करि लयउ, चंद्र रयणु चाम्बइ कर गहिउ । रथ ते उतरि चले भर जाम, तोनि भुवन अकुलाने ताम ।।५४०।। इंदु चंदु फण व खल भल्यउ, जाणौ गिरि पर्वतउ टलटल्यउ । मन मा :, अवयहु इहइ कइसी मारि ॥५४१॥ किसन कोपि रण धायउ जाम, रूपिणि मन अवलोइ ताम | दउ पचारै मेरो मरणु, जुझइ कान्हु परइ परदवणु ॥५४२॥ नारद निसुरिण कहु सतिभाउ, अव या भयो मीच को ठाउ । जब जिउ सुहड न भीरइ पचारि, बेगो नारद जाइ निवारि॥५४३।। . (५३८) १. इहु गरुया जे रण महि रहाउ (ग) (५३६) १. तिन्हि (ग) २. धरणहर (ग) (५४०) १. जब हरिहाथ खडग करि लेह (ग) तहि सम हाथि करिलिये (ख) २. वामई (ख प) ३. भुई (ग) भा (ख) (५४१) १. मासए पर हरे (ग) २. भले (ख) ३. अंरमक पावन गिरि पर्द. वसई (ग) ४. सुरूपिरिण (म) (५४२) १. विण कोपि रण परया जहि (ग) २. कहू पवाबा (खग) ३. पठ इक्यू झई परदवणु (ग) (५४३] १. लगु (ग) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (te) रणभूमि में नारद का आगमन याद रोष्य उत्तर | रण मयरद्ध नारायण जहा नारदु जाइ सपत्तउ तहा ||५४४|| १ विस्तु मयरा रथ दीठउ पाउ, चाहे करण कुवर कहु घाउ । रूपिणि वापर सोभरद हो तो ܕ नानारिषि पर पहुंतो जाइ, वाह पकरि सो धरघो रहाइ ॥ ५४५|| नारद द्वारा प्रद्युम्न का परिचय देना ५ तब हसि नारद लागो कहर, मोहि वचन निसुराह महमहरपु । कहे तो कह वहुतु यह प्रदवरण तिहारो पूतु ॥ ५४६|| छठी निसिहि सो हरि लयउ. कालसंवर घर वृद्धिहि भयउ । इहि जीत्यो स्पंघरथ पचारि, पुनवंत यह देव मुरारि || ५४७ || सोला लाभ भए इहि जोगु करण्यमाल सिउभयउ विजोगु । कालसंवरजीत्यो तिहि ठाइ, पंद्रह वरिस मिली तुह श्राइ ॥ ५४८६ ॥ १ यह सु मयर गस्वो वरवीर, रण संग्राम जु साहस धीर । 9 २ या परिषको वई घरउ, यह सो पूत रूकिमिणी तर उ || ५४६| (५४४) १. रूपिणि वयाहि तब बाहुहि वेगा रथ ते उतरहि (ग) ( ५४५) १. नराणि रथि दोना पाउ ( ग ) २. लोडड (ग) तीसरा और चौथा चरण ग प्रति में नहीं है ( ५४६) १. क्या क्या हो तुम्हसउ २. तुम्हारा (५४७) १. सिंघरथराज (ग) २. पुण्यवंत ( ग ) (५४८८) १. बारह ( ग ) मूलप्रति में - तो लाल' पाठ है ( ५४६) १. रहि (ख) इसु (ग) २. बाई (ख) वड (ग) मूल प्रति में पड पाठ है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतहि मयण पास मुनि जाइ, तिहिस्यो वात कहइ समुभाइ । यह तोआहि पिता तुम तणउ,जिहि पवरिषदीठउ तइ घणउ ॥३५०॥ प्रद्युम्न का श्री कृष्ण के पांच पड़ना सउ परदवणु चलिउ तिहि ठाइ, जाइ पडिउ केसव के पाइ। तव नारायण हसिउ हीय'उ, भयरण उठाई उछंगह लयउ ।।५५१।। धनु रूपिणी जेनि उर धरीउ, धनि सुरयणि जिणि अवतरिउ । धनिमु ठाउ विराधी गवउ, जिहि धनु आजु जु मेलउ भयउ ॥५५२॥ धनुष वारण तिहि पाले रालि, बाहुडि कुवर लैयउ अबठालि | जिहि घर प्राइसो नंदनु होइ, तिहिस्यो वरस लहइ सव कोइ ॥५५३॥ नारद द्वारा नगर प्रवेश का प्रस्ताव तव नानारिषि बोलइ एम, चलहु नयरि मन भावह खेव । कुवर मयरण घर करहु पएसु, नयरो उछह करहु असेसु ॥५५४॥ नारायण मन विसमउ भयउ, परिगहु सयलु जुझि रण गयउ । जादम कुटम पड़े संग्राम, किम्ब मुहि होइ सोभ पुरि ताम॥५५५|| नानारिषि वोलइ वयण, क्षत्री तू मोहिणी सकेलइ मयण । क्षत्री सुहड उठई बरवीर, रण संग्राम मति साहस धीर ॥५५६।। (५५७) १. नारव मयणि पास उठि आई, (ग) २. इन सो पिता तु अपि तुम्ह तणा (ग) ३. तिसु पुरिष क्या वर्णउ घणा (1) (५५१) १. सच नाराइए उठद उछ गि, मपण साथि भया अतु रंग (ग) (५५२) १. षन्नि (ख) २. जिनि उवरि धस्यो (ग) ३. धनु सुठाउ निहि विरविहि गपउ (ख ग) (५५३) १. कि उचाइ (ख) मकवालि (ग) २. अहसर (स) ३. तिहि परमंस लहइ सत्र कोइ (ख) तिहि घरि सलह करइ सहु कोह (ग) ६५५६) तुह (ब) तसो (ग) २. संग्रामजि (क) संग्रामहि (ग) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहिनी विद्या को उठा लेने से सेना का उठ खडा होना तव मयणधइ छाड्यो मोहु, मोहिणि जाइ उतारयो मोहु । सैन उठी बहु सादु समुदु, जाणौ उपनउ उथल्य उ समुद्र ||५५७:: पांडो उठे सुहड वरवीर, हलहुलु दस दिसा घर धीर | छपन काटि जादव बलिवंड, छत्री सयल उठे परचंड ।।५५८॥ हय गय रहवर अरु जंपारण, उटे जिहि सल पडे विमाण । सिगिरि छत्र जे पुहमि अपार, उठि सयन कवि कहिउ सधार ।।५५६।। प्रद्युम्न के श्रागमन पर भानन्दोत्सब का प्रारम्भ धवल छन्द मयण कुवरू जब दीठउ आनंदिउ हरि राउ। लइ उछंगि सिर चुमियउ, भयउ निसारण ह घाउ ।। भयउ निसाणा घाउ, राय जादम मन भायउ । सफल जन्म भउ अाजु, जेमि कंद्रपु घर आयउ । सहुंकारु भयंत देव, जणु परियण तुठउ । मन आनंदिउ राउ, नयण जल कंद्रप वयठउ ।।५६०11 (५५७) १. भयर सज छोडई को (ख) २. भएज सट्ठ समझ, (ख) सेन्या उहि खड़े अरु सूतु (ग) ३. जग्न सु उछलिउ पलय समृद्द (स्त्र) जाग्या बलु वोथल्या समुदु (ग) मूलप्रति में 'समुद्र' पाठ है । . (५५८) १. पंडव (ख ग) (५५६) १. जंपण (ख) झपारण (ग) २. 8 मयगल प्रवककि क्याण (ग) ३. विभाग (ख) (५६०) थलु (मूल प्रति) बोहा (ख) धवस वंधों के (ग) १. पानामा (ग) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) भेरि तूर वहु वाजहि, कलयरु भयो अनंदु । रूपिणि सरिस मिलावऊ, अवहि मिलिउ सहि पूतु ।। अवर मिलिउ तहि पूतु, सयलपरियण कुलमंडणु । अतुर मल्ल वर वीर, सुयण णयरणारणंदणु ।। चले नयर सामहे. सयल जनु जलहर गाजे । कलयलु भयउ वहुतु, ततुर भेरि ताहि वाजे ॥५६१।। मोती चउक पुराइयउ, ठय उ सिंघासण आणि ! मयरद्धउ वयसारियउ पुनवंत घर जारिण ॥ पुनवंत घर जाणि, तहार कंद्रप वइसारिउ । मोती मारिणः भरिउ थाल प्रारति उतारिउ । पाट तिलकु सिर कियउ, सयल परियरण जण भायउ । ठयो सिंघासरण प्राणित, मोती चउक पुरायउ [१५६२॥ घर घर तोरण उभे मोती वंदनमाल । घर घर गुडी उछली घर घर मंगलचार ।। घर घर मंगलचार नयर जन सयल वधावउ । पुन कलस लइ चली नारि नइ कंद्रप घर आयउ॥ कामिरगी गीत करंति, अगर चंदन वहु सोभे । मोती बंदनमाल, घर घर तोरण उभे ॥५६३॥ (५६१) प्रवरू (ख) २. जण (ख) (५६२) १. घर तोरण उभे नारि (५६३) १. प्रलोडि (स) मूलप्रति में-'मी' पाठ है । (क) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) सयना सबल उठी धर जाम, छपनकोडि घर चाले ताम । द्वारिका नयरी करइस सोभ, पुणि सव चलिउ प्रछोहे...।।५६४।। प्रद्य ुम्न का नगर प्रवेश गरुड छन्द २ केंद्रपु पठयउ नयर मारि, मयण किरण रवि लोपियउ । aft प्रवास वररंगिरि नारि तिन कउ मनु प्रविलेखिय ।। धन रूपिणि मन धरिउ रहाइ नारायण घर अवतरिउ | सुर नर प्रवर जय जय कार जिहि आए कलयर भयउ । घर घर तोरण उभे वार, छपन कोडि उछव भयउ || ५६५॥३ } ( ५६४) १. खोड (ग) प्रति में पाठ रहसु सबु करइ लुगाईं, सुहला जीसवु श्राज । कह्य इव रुकमणि माइ, परिगट्ट सबु घाइ बद्दट्ठा । आनंधा हरिराज, मनु जब नयरले दोठ्ठा ॥५६६॥ भोरि तूरि वह वजहि कोलाहल वहुत्त । रूपिणि सरिमु मिलावडा, प्राइ मिल्पाति सुत्त् । प्रामुकट सिरि मोतोमाला, घरि घरि मंगलवार । जिनसि अडवं छत्त, जान वरसहि घण्ड गज्जहि । ऊठ्यो जय जय कार भेरि द्वरा वह वक्महि ||५७० || घरि घरि तोरण खडे, घरि घरि वेद उचार । घरि घरि गुडी उछली, घरि घरि श्रानंव अपार । घरि२ नपरि परि परिहि बधाया, करहि मारतउ थालि । भाडु वंझण सहि प्राया, हसि हसि पूछ मात । बहुत परमल तिनि मूलं, सिंघासणु तारणीया । अरू भरि तोरण उभे.... दरे मोती माणिक भरि धातु, व तिसु तिलकु कराया । सुर तेतीस रहसु बहू, सिंहासरण बसमा ११५७२ ।। ॥२५७१।। चौपाई संन्यसने ऊठो पर आम, छपन फोडि चले धरि साम । चंद्रपु पट्टा नयर मकारि, बाजे समव अपार ।। ५७३। (४६५) १. नारि नहि (ख) मूलप्रति में यदि पाठ नहीं हैं २. प्रभिलेविज (ब) chh...PI.. ********* Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयउ उछाहु जगल' जागि, नयर मंगल किजइ । ता संख पूरिहि नावहि घर, पंच सबद वजहि ॥५६६॥ जबइ मयरण परिगह गए, घर घर नयरि वधाए भए । । । गुडी उछली घर घर बार, कामिणी गावइ मंगलचार ॥५६७॥ चौपई विप्रति च्यारि वेद ऊच्चरइ, वर कामिणी तह मंगलु करइ। पून्न कलस तह लेइ सवारि, प्रागे होगा चली वर नारि H५६॥ नयरि उछाह करबहु घाइ, जब ते दिठे नयन परदवणु । सिंघासण वयसारिउ सोइ, पुरयन तिलकु करइ सत्रु कोइ ।।५६६॥ दहि दुव सिर प्राक्षित देइ, मोती माणिक थाल भरेइ । । कुमरहि सिर प्रारति उतारि, दे असीस चालड वर नारि ॥५॥ यमसंवर का मेघकूट से द्वारिका आगमन एतहु मेघकूट सो ठाउ जमसंवरु विजाहरु राज । माणिक कंचा माल संजूत, द्वारिका नयरी प्राइ पहुत ॥५७१।। --.- -.... -. -. ---- (५६८) १. बंभरण (ग) २. उच्चरहि (ख) ऊच्चरहि (ग) मूलपाठ उच्छता ३. सिंघासन बसाल्यो सोन (ग) ४. सिरि (ख) ५. प्रागद होइ (ब) देइ असीस (प. (५६९) १. कहइ भन्नु कवण (ख) २. पुरजरा (ख) यह पद्य ग प्रति । नहीं है। (५७०) १. बहोय खूब (ख) (५७१) १. सो ठाउ (ख) सो तेहि गेनुकूट जो हाउ (ग) तीसरा और वो पग प्रति में नहीं है । मूल पाठ विवाह Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५.) पवन बेग विजाहरराउ, जिसकी संयनु न सूझइ ठाउ। ... रतिभामा जो कन्ह कुमारि, सो प्राणी बारमइ मारि ॥५७२।। यमर्सवर एवं श्रीकृष्ण का प्रथम मिलन जमसंबरु भेटिउ हरिराउ, बहुत भगति बोलइ सतिभाउ । तइ वालउ.पालिउ परदवणु, तुहि समुसुजन नही मुहि कम्वण ॥५७३!। तब रूपिरिण वोलइ तिहि ठाइ, कनकमाल के लागी पाइ । किम्बहउँ उरगि होउ घर तोहि, पूत भीख दीनी तइ मोहि ।।५७४।। प्रय म्न का विवाह लग्न निश्चित होना वहु प्रायउ करि कीयउ उछाहु, मयण कुवर को ठयउ विवाहु । धरि लग्न. जो इसी हकारि, तव मन तूठउ कन्ह मुरारि ॥५७५।। हडे बंस त्रि मंडपु ठयउ, बहुत भंती ते तोरणु रहउ । कापरछाए बहु विथार, कनक कलस डोलहि सिंहबार ॥५७६।। . विवाह में आने वाले विभिन्न देशों के राजाओं के नाम । करिसामहरण सयल निकुताइ, प्रागै निमति पुहमि के राइ । मंडलीक जे पुहिम असेस, अाए द्वारिका सयन नरेस ॥५७७।। - ---- अंग बंग कलिंगह तरणे, दोप समूद के भूजही घऐ। लाड चोर कानके जिकीर, गाजणवइ मालव कसमीर ॥५७८।। (५७२) १. लिहि कई सइनि (ग) २. रतिनामा (ख) (५७६) १. हरे (ख) हरद () २. कौतिगुनया (ख) ३. सिंह नुवारि (ख) दीपहि पनि वारि (ग) I (५७७) १. करिसम लहण (ख) २. अनेक, पुहमि के भउते राष्ट्र (ग) :: :: (५७८) १. कालिमह (ख) तिलंगह (ग) २. कानाडे किकीर (स) लाडग । उक्षक भषन कसमीर (ग) ३. गाजणीत मल्लिया बनुधीर (ग) . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) गूजर तेसो भीजी भऐ, वेलावल संभरि के भले । जिजाहुति कनवजी भले, पुहमि संख सवुद मंद लह निहाउ, ठाठा भयउ भेरि तूर बाजइ असराल, महुवरि वीसा राइ सब निमते गणे ॥५७६|| निसाणा घाउ | अलावरिण ताल || ५८० || 4 विप्रति बेद चारि उचरइ, घर घर कामिणी मंगलु करइ । २ बहु कलियर नयरि उछलिउ, जब मयरद्ध विवाहरण लिउ ।। ५८१ ॥ ४ ܝ 3 रथर्णानि जडे छत्र सिर धरइ, कनक दंड चावर सिर ढलइ । मुकट लिए जागी पाद रवि करण करत || ५८२ | तब बोलइ रूक्मिणी रिसाइ, सतिभामा आणि केसइ । तीनि भवरण जउवरजइ मोहि, तउ सिर केस उतारउ तोहि ॥ ५८३ ॥ केस उतारि पाय तल मलई, फुरिंग परद्रवरण विवाह्णु चलइ । २ ३ एतेइ मिलि सयल जनु सब्बु, दुहु नारि करयउ क्षिम तब्बु ||५८४|| + (५७६) १. ले सोरठी जे भले (ख) कनफबेस सोरठ जे भले (ग) २. जोजन देश कनउजी मिले ( ग ) ( ५८१) १. चार वेद विप्र कचरहि ( ग ) २. इव (ग) ( ५८२) १. रसीह ( ख ग ) २. जडित (ग) ३. म त सिर ऊपरि घस्यो (ग) ४. उबी (ग) ५. जाउ नव रवि किरण करंतु (ख) जानु कि सर किरण छोति (ग) अउर बंदर वासी भले वलहि चउर कटि कउलिग चले यह पाठ य प्रति में अधिक है । (५८३) १. अहि कराइ (ग) प्राणीहि कराह (ग) (५८४) १. मिले जड साह सयलु जा लोग ( ग ) २. विसयल जनतु स (ख) ३. करामत खिम तब्बु (ख) होइ बिवाह यो संजोग (ग) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) सयल कुटम मनि भयउ उछाहु, कुम्वर मयण कउ भयउ विवाहु । दइ भावरि हथलेव कीयउ, पाणिगहणु इम्ब कुवरहि लयउ ॥५६५।। भयउ विवाहु गयउ घर लोगु, करइ राजु बहु विलसह भोगु । । देखित सतिभामा गहवरइ, सतिसालु बहु परिहसु करइ ॥५८६॥ सत्यभामा द्वारा विवाह का प्रस्ताव लेकर पाटस्य के राजा के पास दूत भेजना तउ सतिभामा मंत्रु पाठयउ, दिजु बेग खेयउ पाठयउ । रयण सचउ पाटण तिहि ठाइ, रयणचूलु तहि निमसई राउ ॥५८७।। विज्जु वेग तहि विनवइ सेव, सतिभामा हो पठयो देव । रविकारात सिह करम सनेहुँ, धीय सुई परिभानही देहु ॥५८८।। भानुकुमार के विवाह का वर्णन सयल राय विद्याधर मिलहु, बहुत कलयल सिंह द्वारिका चलहु । बहुत नयर मह करइ उछाह, भानकुवर जिम होइ विवाहु ॥५८६।। --.-- - - --- -- - - . -- (५८५) १. भारि (ख) भवरि (ग) २. पाणिग्रहण जब कुवरह भया (ग) (५८६) भयो विवाह लोग धरि जाइ (ग) २. करहि राज विलसहि बह भाय (ग) ३. देखन (ग) ४. परजलो (ग) ५. कि (ख ग) ६. दुखि परहसि भरी (ग) (५८७) १, मंतु (ख) २. अरठयउ (ख) परद्वयो (ग) ३. विश्णु वेगु सरह पाठयड (M) विजद विर्ग जोइण पायो (ग) ४. रम संभु पाटरगपुर ठाउ (ख) ५. निवसइ (ख) लगा वंक तिहहि ले ग्राउ (ग) मूलपाठ-विमा (५८८) चाल्यो इतु पवन मनुलाइ. वेगि पहता खिरण महि जाद । यह पाठ प्रथम द्वितीय चरण के स्थान में है तथा मूल प्रति का प्रथम द्वितीय धरण गति में तृतिय चतुर्थ चरण है। (५८६) १. विधापर तुम्हि मिला खुणेह, धोय सुयंवर मानक बेह - --. - -. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८) माणिउ बोल कुटसु बहु मिलिउ, खगवइराउ मसाहरण चलिउ । द्वारिका नवरी पहते जाइ, जिहि ठा मंडपु धरचो छवाइ ॥५६॥ तोरण रोपे घर घर वार, कनक कलस थापे सीहद्वार । " सयल कुटव मिलि कीयो उपाउ, भानकुबर को भयउ वियाहु ।। ३.६ ॥ पथंतरि ते राजु कराहि, विविहि पयाल भोग विलसाई । राज भोग सब मिलइ मया. तहि सम पुहागिन दीसइ कवगु १५६२।। पंचम सर्ग विदेह क्षेत्र में क्षमंधर मुनि को केवल ज्ञान की उत्पत्ति ... एतइ अबरु कथंतर भय उ, पृथ्व विदेह जाइ संभयऊ । पूंडरीकरणी एयरु हइ जहा, खेमंधरु मुनि निमसइ जहा ॥५६३।। नेम धर्म संजमु जु पहागु, तहि कहु उपगाउ केवलज्ञान । आइत स्वर्ग पसइ जो देव, प्रायो करण - मुनिसर सेब ॥५६४!! अच्युत स्वर्ग के देव द्वारा अपने भवान्तर की बात पूछना ... नमस्कार कीयउ तखीणी, पूजी बात भवंतर तरणी । पूर्व सहोबरु मुरिण गुणवंतु, सो स्वामी कहिठार उपत १५६५॥ .-- - --- .--.- -- ... ... ... .-. - -.. (५१०) १. सुपरिवरू मिल्यो (ग) २. मुसाहरण (ख) विवाहण (ग) ३. तोरण धरे रचाई (ग) तृतीय एवं चतुर्थ चरण (ख) प्रति में नहीं है। (५६१) १. कामिशि गात्राहि मंगलबारू (ग) २. उछाउ (ग) ३. हुना (ग) | (५६२) साप्रति में यह चौपाई नहीं है । ग प्रति में निम्न त्रौपाई है। से प्रवल राज्जु कराहि, हउसनाक सयहि मनमाहि। राजु भोगु सहि वित्तसहि प्रागु, नाही फोइ तिन्ह सनमानु ॥६० (५६३) १. पूरक देसि जाप सो गया (ग) २. खेमधरू (ग) (५६४) १. तप किया समान (ग) २. उपनहि (ख) ३. अच्युत स्वर्ग वसह सो देय (1) मूलमति में 'पसई' पार है । (५६५) १. नेमसिर को जोति जाग (ग) ५. गोहि (ग) मुगहि (स) सो सामी कहि ठाइ उपनु (ख) सो सम्पकवर पाहि पाहूत (ग) : : -. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६) संसयहरु फुणि कहइ सभाउ, भरहलेत सो पंचमु ठाउ ।। सोरठ देस वारमझ नयरु, तहि समीपु हइ न दीसह अबरु ॥५६६।। तह स्वामी महमहण नरेनु, वर्भ नेम सो करइ असेसु । वहु गुणवंत भञ्ज तसु तरणी, तासु नाउ कहीए रूपिणी ॥५६७।। ताहि वर उपणा उ खत्री मयगु, नवंत जागाइ सब कम्वरम् । तासु के रूप न पूज३ कोइ, करई राज धररिग मा सोइ ॥५६८।। देव का नारायण की सभा में पहुँचना निमुरिंग वयण मुर वइ गोनहा, सभा नारायण बइठो तहा । सुरमणि रयगजडिउ जो हारु. सोविगत प्राविउ अविचारु ।। ५६६11 . देव द्वारा अपने जन्म लेने की बात बनलाना फुरिंग रवि सुर यई लागउ कहण, निसुग्पि वयगा नरवइ महमहा। जिहि तु देइ अनूपम हारु, हउ कुखि लेउ अवतारु ॥६००॥ .. श्रीकृष्ण द्वारा सत्यभामा को हार देने का निश्चय करना तउ मन विभउ जादउराउ, मन मा चित करइ मन भाउ । चंद्रकांति मगि दिपई अपारु, मतिभामा हियह आपहु हारु ।।६०१।। .-.- --....- -.. ..---- -.- -. -.. (५६६) १. सोसाइरू (ग) २. पूचइ राज (ख) भूचा तिहि ठाई (ग) मूलपाठ भूवैशाउ ३. हारमाइ (स्य) ४, मूलपाठ देसु ५. पूजइ (ग) (५६७). १. सन महमहन राउ नरेसु (ग) २. नारि (ग) (५६८) १. दिलसहि अहि सोइ (ग) (५९९) १. देव नारायशु कहै विचारु (ग) प्रथम तथा द्वितीय चरण के स्थान में निम्न पाठ है-परववशु बीटा बट्टा पासि, पूरब नेह चितु भरया उल्हासि (ग) (६००) १. जिमु तिय के कह गलि पासिहि हारु (ग) (६०१) १. विसमा (ग) २. परि भाव (ग) . . . . .. .. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न द्वारा रूक्मिणि को सचित करना तबइ मयण मन चमक्यउ भवउ, पवण बेगि रूपिणि पह गयउ । माता वयण सूझई तू मोहि, एक अनूपम अाफहु तोहि ।।६०२।। पूर्व सहोवरु जो मोहि तणउ, सो सनेह बहु करतउ कनउ ! अब मो देउ भया सुरसारु, रयणजडित तिण प्राण्यो हार ॥६०३।। अब वह अहारसु पहरै सोइ, तहि घर पूत आइसो होइ । माता फुडउ पयामहि मोहि, कहहु तहा का अफामु तोहि ॥६०४॥ तव रूपिरिण वोलै मुह चाहि, तू मो एकु सहस वरि पाहि । बहुत पूत मो नाही काज, तू ही एक मही भूजे राज ॥६० ५।। जामंयती के गले में हार पहिनाना फुणि वाहुडी बोल रूपिणी, जववती जु बहिण महु तणी । निसुणि पूत तोहि कही विचारु, इनो कउ जाइ दिवावइ हारु।६०६॥ ---. .-... .-. - . .- -.. ----- - (६०२) १. तांह (म) २. प्रचरिज (ग) (६०३) १. करहि हम घणड (ग) बहु करतो पणाउ (ख) २. इव तो देष भमा मुनिसारू (ग) ३. प्रापउ (ग) (६०४) १. एड्स हार जो पहहि कोड (ग) २. तिहि कइ (ग) ३. कुजून बोल उ नोहि कहाहि, तहारू हउ वयावा तोहि (ग) (६०५) १. वडि (ग) २. मोहि जाणे काज (ग) ३. मोहि (ग) ४. भूपति (६०६) १. तुझ (ग) २. उसकार (ग) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) जामवती का श्रीकृष्ण के पास जाना तवहि मय मन कहइ विचारू, जंववती कहु लेहि हकारि । काममूंदरी पहरइ सोइ, बोले रुप सतिभामा होइ ||६०७॥ न्हाइ धोइ पहरे ग्राभरण, करण कंकरण सोहइ ते रमण । 完 तिहिठा बइठे कान्हू मुरारि, तहा गइ जामवंती नारि ॥ ६०८ ॥ २ तर मन विहसिउ तब मन चाहि, तहा जाएगइ सतिभामा आहि । 3 बाहुडि कन्हन कीयउ विचारु, तिहि बलि घालिउ हरु ।।६०९|| २ घालि हारू श्रालिंगनु कियउ, तिहि उपदेस नाहि संभयउ । फुरिण गिय रूप दिखालि जाम, मन भिभिउ नारायण ताम ।। ६१० ।। वस्तुबंध- ताम जंपइ एम महमहरण । मन भिभिउ विसमउ करइ, जड़ यउ चरित सतिभामा जारगइ | वैरूप करि मोहरणइ जा संवइ आगइ जो विहिरणा सइ चितयऊ, सो को पुनवंत जंपइ तुब, करइ राज ก मेटरणहारु । अनिवार ॥६११॥ (६०७) १. तुम्हि (ग) २. बोल रूप ( ख ) बोले रुप ( ग ) ( ६०८ ) १ ते रमण (ख) से रया (ग) मूलपाठ तान्योरख २. महिला ( ग ) ( ६०६) १. विगसइ के सथ २. इह (ग) ३. ताह गलइ हंसि घाल्यो हार (ग) (६१०) १. करइ (ग) २. हा झाइ देउ संचर (ग) उरि बेइ (ख) काम बड़ी घटी उतार देख राज मम्बवतो नारी ॥ ( तीसरे चोथे चरण के स्थान पर है ) ग (६११) ग प्रति में निम्न पाठ है ताम जंपइ जंप एम महमहरु मनि विभउ विस्म भयो । एहु रूप कहि मोहनी, ममरिण कुवरि माझ्यो विनाशि | चरितु सतभामा जाली, एह काम कटु की कचणु हरिराजा चिति चितव जो विहिरण जिसु चतयउ सो फिट मोह्यो जाई । जाहि जंवती विलसंतू करहि राज वह भाइ ॥ P Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) चौपई जब जंबइ पूत अवतरिउ, संवकुम्बारु नाउ तसु धरथउ । वहु गुणवंत रूप कउ निलउ, ससिहर कान्ति जोति पागलउ ६१२॥ सत्यभामा के पुत्र उत्पत्ति एतह पढम सग्गि जो देउ, सुर नर करइ तास की सेव । सो तह हुँ तउ आउ खउ चयउ, सतभामा घर नंदण भयउ॥६१३॥ । उक्षणवंतु साल गुणनंत, प्राति सरूप सो सीलम्बंत । नाम कुवर सुभानु तहा च य उ. सतिभामा घर वंदरण भयउ ॥६१४॥ | दोनु कुवर खरे सुपियार, एकहि दिवस लिय उ अवतार । दोउ विरधि गए ससिमाइ, दोई पढे गुणौ इक ठाइ ॥६१५॥ शंबुमार और सुभानुकुमार का साथ साथ क्रीडा करना एक दिवस तिनि जूवा ठयो, कोडि सुवंद बाउ तिन ठयउ । संब कुवर जीणिउ तहि ठाइ, हारि सुभानुकुवरु घरि जाइ॥६१६॥ रात क्रीडा का प्रारम्भ तव सतिभामा परिहसु करइ, मन मा मंत्र चित्ति सो करई । करहू खेल कुकडहि वहोडी, जो हारे सा देइ दुइ कोडि १६१७॥ (६१२) १. जवती ए प्रत्तु अवतरपो (१) २. किसु मिले (ग) ३. सूरून | तिसु वद्धि तुलइ (ग) (६१३) १. इस पटनि संदेह सी थेर, एतुता कर्म संयोगइ देव (ग) । (६१४) १. बत्तिस (ग) २. तसु भया (ग) ३. डुइन चंदु जिउ बिरधो गया (ग)। (६१५) १. हथियार (ग) (६१६) १. हाक्यो सयनु बाउ तिन्हि कियो (ग) (६१७) १. गहि (स) महि (ग) २. मूलप्रति में त्रि पाठ है । ३. विसाधरा। (ग) ४. कूकान्हवकोरि (ग) ५. थाइडि बाउ परचा तिमि फेरि । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) तउ कुकडा देइ मुकलाइ, उपराऊपरु भिरे ते आइ । कुवर भान तणउ गो मोडो, संवकुवर जिणे वें कोडि ॥६१८॥ वहुत खेल सो पाछ कीयउ, तवइ मंत ता ओरई कियउ । दूत हकारि पठायो तहा, बहुरि विजाहर निमसइ तहा ॥६१६॥ गयो दूत नही लाइ वार, विजाहरनी जणाइ सार । भरणइ दूतु मनि चित्या लेहु, पुत्री एकु मानहि देहु ।।६२०।। सुभानुकुमार का विवाह विजाहर मन भयउ उछाहु, दोनि कुवरि भयो तह व्याहु । द्वारिका नयरी कलयलु भयो, व्याह सुभान कुवर को भयउ ।।६२१॥ कुवर सुभान विवाहै जाम, तव रूपीणि मन चिंतइ जाम । : द्भुत वुलाई मंत्र परव्यो, रूपुकुवर पास पाठयो ॥६२२।। . (६१८) १. सभा मारायण मुखु चाल्या मोडि (ग) २. जीता वोह कोकि (ग) । (६१९) १. संवकुवर जोति धनु लोया (ख ग) युवक सुभानुहि माये हारि, तर विलखी सतभामा नारि (ग) (६२०) १. विजाहर राइ (ग) २. भरणों विपु जिन अनवितु लेख (ग) लोह (न ग) मूलप्रति में 'भरगद दूत मन अनुचित लेख, पुत्री एकु भानह लेहि १ (६२१) १. विद्याहरु (क) विजार (ख) २. तिन (क) दीनी (ज ग) उति लोगु सयल प्राइज (ग) (२२) १. तब रुपरिण मनि उट्टयो चाउ, हउ प्रपणा याहउ करिभाउ (ग) कियो (क) सठयो ( ३..पासहि पाठयउ (क) पास पाल्यो (ख) गरिहि दृतु पाठयो, मा रूपचंदु वोनयत (ग) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ रुक्मिणि के दत का कुंडलपुर नगर को प्रस्थान सो कुडलपुर गयो तुरंत, रूपचंदस्यो कह्यो निरुत्त । स्वामी बात सुगमो मो तशी, ह्उ तुम पह पठयो रूपिणी ॥६२३॥ संवकुम्वारु कुवर परदवणु, तिहि पवरिसु जाणइ सवु कवरगु ! जइसे तुम स्यो वाढइ नेहु, दुहु कुमार काहु वेटी देहु ।।६२४॥ रूपचन्दु वोलइ तिस ठाइ, रूपिणि कहु तू लेइ मनाई । जादौ वंस पूत जो होइ, तिसको वाहुरि धीयको देइ ॥६२५॥ कहइ वात जगावउ समुझाइ, इत्वही कहहि रुकुमिणी जाइ । साभाड तई जुपवाडउ कियउ. वात कहत नहु दूलित हिय उ ॥६२६।। जिणि परिगहु धालियउ अवटाई, सेसपाल तू गई मराइ । अजहु वयण कहइ तू एहु, मयणकुवर कह बेटी देहु ॥६२७॥ -- - - --- - - - - (६२३) निरस (क) - नोट - प्रथम और द्वितीय चरण म प्रति में नहीं है । मूलपाठ तुरंत । (६२४) १. उर (क) . बाधा (क) ३. देह (क) र (ग) कुवरनो (ग)। (६२५) १. राइ ( क ) २. कउ त उ बेटी तहु ( क ) स्वउतू कहह बुला। ३, मूल प्रति में--पूजो सोई पाठ है। ४. तिस कहु धोयन देई कोइ (ग) (६२६) १, जनसिउ ( क ) जगणिउ ( ख ) इहि (ग) २. तू तिरहस्य जाइ (ग) ३. सांभलि (क ख ) संभल करियह म्हारा किया (ग ४. नाटइ (ग) (६२७) तू गई मराइ (ख) मूलपाठ-तू चल्यो मरवाइ २. महि ( ३. कह (ग) मूलपाठ तू Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) निसुरिण वयरण खरण चाल्यो दूत, द्वारिका नयरि श्राइ पहूत | * तुम को वचन कहै समझाई, सो जरण कहिउ सरस्वती जाई || ६२८ || १ नारायण स्यो प्रायस कहउ, हम तुम माह कमरण सुख रहिउ । 3 के अवगुण तुम्हारे लेउ, तुम कहु छोडि डोम कहु देउ || ६२६ ॥ セ निसुरिण बात विलखाणी वयण, श्रासू पातु कीए है नयण । 3 ४ मानभंग इहि मेरउ कीयउ, बुरो कियउ मुह दुख्यो हीयउ ॥ ६३० || विलख वदनि दीठि रूपिणी, पूछ बात जननी आपणी । कवरण बोल तू विसमउ धरइ, सो मो वयरण वेगि उचरइ ||६३१॥ मइ छइ पूत मंत्र प्राठयो, कुंडलपुर जग पाठयो । 3 दुष्ट वचन ते कहे बहुत, साले खरे पूए मो पूत || ६३२ || ( ६२८ ) १. तिकउ ( क ) उहकउ ( ख ) मोस्यउ ( ग ) २. ग्राह कहा off के अ ( क ) सोति कहि दकिमिरगी सिंह भाइ (ख) सो तिन्ह कहे कमरिण श्राइ ( ग ) (६२६) १. एसो ( क ) अइसन ( ख ) प्राइसा यउ ( ग ) २. हम तुम्ह आई सुबह सा भयउ ( ग ) २. फिलेक ( ग ) किले ( स ) ४. यारे ( ग ) ५. म ( क ख ग ) (६२० ) १. सो बिलली वयण (ग) २. करहि वुह (क) करइ बुद्द (खग ) ३. ( क ) इति ( ख, ग ) ४. बुरा बोलु मोरयल बोलीया ( ग ) (६३२) १. इसि तमंत प्रारूपो (क) मथि पूल वय चाथपत्र (ख) (ग) २. छउ जरण पाठवो ( क, ख ) दूत पाइयो ( ग ) ३. साले खरज ही यह मोहि पूतु ( क ) साले खरे मुहि होय बहुत ( ख ) सालहि हिये खरे से पूल ( ग ) मइथा पुत्र सुइड टू Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( १२६ ) मइ जाण्योउ मुहि भायउ प्रहइ, एसी बात निचू भउ कहई । मानद होइ, एसी बात कहइ न कोइ ||६३३ विषयवासि निसुरिण वयण परदवनु रिसाइ, हीरणु वयरण तह बोलइ माइ । रूपचंदुरा जिलहु पचारि, पारण रूप छलि पराउ नारि ॥ ६३ प्रद्युम्न का कुंडलपुर को प्रस्थान केंद्रप बुद्धि करी तंखीणी, सुमिरी विद्या बहुरूपिणी । १ संबु कुवरु परदमनु भयउ, पवण वेगु कुंडलपुर गयउ ॥६३ दोनों का डोम का वेष धारण कर लेना दीठउ नयरु दुवारे गयज, डोम रूप दोउ जण भयउ । २ 3 मयण अलावरिण करण पठए, सामकुमार मंजीरा लए ॥ ६३ फिरे बोर चोहठें महारि, उभे भये जाइ सीहवारि । २ वहु परिवार सिउ दीठउ राउ, तर केंद्रपु करह ब्रह्माउ ॥ ६३ (६३३) १. नीच ( क ) नील स्पों ( ग ) २. विष्कु सिंघास रिण ( Facea सिरिश (ख) किम चम सुरिंग बोलइ सोइ ( ग ) ( ६३४) १. पवनवेग ( ग ) (६३५) १. संयु कुवर परचम भयो (क) संघ कुषारि कुबरु हुए भए मूल प्रति में 'स्वामी' पाठ है । (६३६) १- द्वारि आइए (ग) २. करि पाठए ( क, ख ) कहि यो ३. संबु कुरि ( ग ) (६३७) सीह कुवारि ( ग ) सीह कुवारि ( क ) २. परिवर ( m ) ofenzena' ( « ) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) गीत कवित जे आदम तणे, ते कंद्रप गाए सब सुणे । प्रवर गीत सब चीतइधरणी, जादम राय की सलहण करइ ॥६३८।। जादम तणउ नाउ जब लयउ, रूपचन्द मन विसमउ भयउ । बहुत गीत को जाणहु सार, कहाँ हुते आए वैकार ॥६३६।। ____ रूपचन्द को अपना परिचय बतलाना द्वारिका नयरी कहिए ठाउ, भुजइ नरायणु जादमुराउ । पाटमहादे जहा रुक्मिणी, राय सहोवरि जो तुह तणी ॥६४०॥ तुह्मि सलहण बइ करई बहूत, तिणि राणी पठए इत । तुम्हि उतरु तिहि कहउ जाइ, तिहि सहेट मि पाए राई ॥६४१॥ वाले वोलति करहु पम्वाणु, सतु वाचीय परि होइ पवाण । (भाख पालि मन धरहु सनेहु, दोउ पुत्री हमि कहु देहु ॥६४२॥ (६३८) १. प्रापणा (क) २. पाहि (क) सो चिति नकि (ग) ३, जादम राह सालाहति फरह (ग) १. मूलप्रतिमें-पाग सणे पाठ है तथा चतुर्य परण महीं है ? (६३९) १. भाउ (ख) सुराज (ग) २. मन बिलखड (क) मनि विसमज । (ख ग) मूलप्रति में 'नवि भयज' पाठ है ३. गाए बहुवार (क) कीया तह सार (ग) ४. कहा ते पाए ए बेकार (ग) (६४०) १. तह (ग) वसहि (ख) भूघा ताह नारायण राउ (ग) मूलप्रति में-'नई' पाठ है । (६४१) १. गुणवंत (क) तोहि सराहण काहि बहूत (ग) २. पठए ये बत (को पठये हम व्रत (ख) तिनि नाराहरिण था पट्ठया दूतु (ग) (६४२) १. प्रमाण (क) परवाणु (ख) परवमशु (ग) २. पवारण (क) पर. हाण () सत्य पयरग ते होहि परवाणु (ग) ३. भागिवंत (क) भामि जामिनि (ग) ---.. ... ---- - -.- "- -- -- -- - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८) रूपचन्द का उन दोनों को पकड़ने का आदेश देना वस्तुबंध--- निसुगिण कोपिउ खरउ तहिराउ। जाणी वैसुदर घीउ ढलीउ, धुणि सीसु सरवंग कंपिउ ! पाणभ बोलत गयउ, एहु वोलते कवणु जंपिउ ।। लै बाहिर ए निगहहु, सूली रोपहु जाइ । जई जादौ नदि सवल, तोहि छुरावह प्राइ ॥६४३॥ चौपई गीम्ब गहे तक करहि पुकार, डोम डोम हुइ रहे अपार । हाथ अलावरिण सिंगा लए, हाट चोहटे सब परिरहे ।।६४४॥ तखण कुवर भइ पुकार, रूपचंद रा जारणी सार। हय गय रह सेती पलणाइ, छरण इक माह पहुंतंउ आइ ॥६४५॥ रूपचंद रा पहुतो आइ, सामकुम्वारु परदमणु जहा । एक ताक्क सव एकहि साथ, सागालाए अलावणी हाथ ॥६४६।। - - - - - - १६४३) १. सदहि मनिराउ (ग) २. प्रति रोस कीए (ग) ३. प्राण जीय (क) पारण जीव (ख) पुरिग बोल्यो भ्रिम गयो (ग) ४. लेई बाहरि निगघउ (क) बहि लेहो बहु निग्रहल (ग) ५. यहि पडि वन महि धरिउ जैसे पाइपलाइ (क) (६४४) १. प्रोव (क) गावत गाहे करहि पुकार (ख) गीत कवित तिनि काढ वारि (ग) २. अरु गलि जाइ (ग) ३. भरि गए (फ ख) भये वृद्धि चौहटे फिराइ (ग) ( ६४५ ) १. पुरवि (क) पुरवरि (ख) पुत्र गुथे इंकारि (ग) २. राय जगाई सार (क) कह दीनी सार (ग) ३. रथ पाइक (ग) (६४६) माई पतन तिहा (क) २. संब कुमर परवमण () म कुवरू परदोश (ग) ३. एक तक नासरि (n) ४. गले मलावरण बोरगा हाथि ग) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) म . देखि डाम मन विभउ राउ, नीघरण जाति करउ किम घाउ । धणक सधाणि वाण जव हणे, तहि पह अवर मिले चउगुणे ॥६४७॥ प्रद्युम्न और रूपचन्द के मध्य युद्ध कोपारुढ मयण तव भयउ, चाउ चडाइ हाथ करि लयउ। अग्निवाणु दीपउ मुकराइ, जुझत षत्री चले पलाइ ॥६४८।। भागी सयन गयउ भरिवाउ, बाघिउ मामू गले दई पाउ । लइ कन्या सबु दलु पलगाइ, द्वारिका नयरि पहुते पाई ॥६४६॥ रूप रावलइ पहृतो तहा, राउ नरायण बइठो तहा । रूपचंदु हरि दीठउ नयरण, हमई लाभु कियउ नारायः ॥६५०॥ रूपचन्द को पकड़ कर श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित करना तव हसि मदसूदनु इम कहइ, इह भाणेजु तिहारउ अहइ । इहि विद्यावलु पवरिषु घाउ, जिरिए जीतिउ पिता प्रापरणउ ।।६५१॥ (६४५) १. विलखो (क) चिता (ग) विभिउ (ख) २. निरपण (ग) ३. किउ (क) को (म) ४. घशुष बाण ले हाथि हिणइ (ग) ५. परि अधिक पजगणे गिण (ग) (६४८) १. मुकलाइ (क ख ग) (६४६) १. रूप { } मामा (ग) (६५०) १. रूपचंय (क ग) २. इस के बहुतु किया महमहन्छ (ग) (६५१) १. या भागजा तुहारा प्रहइ (ग) २. इस सुप्पत्त, कमिरिण सा (ग) नोट-- यह छाप (क) प्रति में नहीं है। - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकृष्ण द्वारा रूपचन्द को छोड़ देना तव हसि माधवकीयउ पसाउ, वाघिउ छोडिउ मनधरि भाउ। मयरद्ध हसि प्राकउ भरिउ, फुणि रूपिणि पह घर ले चल्यउ ॥६५२।। रूपचन्द और रुक्मिणि का मिलन भेटी जाइ वहिणि पापणी, बहु तक मोहु धरयो रुक्मिणी । वहु आदर सीझइ ज्योनार, अमृत भोजन भए अहार ॥६५३॥ भायउ वहिणि भारिणजे भले, भयउ षेमु जइ एकत मिले । निसुणि बयण तव भयउ उछाहु, दीनी कन्या भयउ विवाहु १६५४ प्रद्युम्न एवं शंबुकुमार का विवाह हरे वंस तव मंडप व्ये, बहुत भांति करि तोरण रए । छपनकोटि जादम मन रले, दोउ कुवर विवाहण चले ॥६५५॥ (६५२) १. करि मनिचाउ (ग) २. रुपचन्द राज (ग) ३. मराधा हप्ति अंको भरध (ग) ४. का (ग) (६५३) १. बहूता मोहु कर रुकमिणी (ग) बहुत सनेहु परिउ रुकमिणी (ख) २. कोजहि जीमणवार (क) साजइ जवनार (ख) रची जडणार (ग) (६५४) १. भाई बहिण भाणेजे भले (क) मिले (ख) पाए पहण भगाइ तुम्ह भले (ग) २. भली सरी जो खोममिले (ग) ३. दुयो (ग) (६५५) १. का {ग ख) २. रोपिया (ग) ३. विवाहण (क ख ग) मूलपात्र 'विमारणा' ग प्रति में निम्न पाठ अधिक है - रूपचन्द सिव वोलह वारिंण, दोर कन्या वेब प्राणि (ग) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख भेरि बहु पडह अनंत, महुवरि वेण तूर बाजत । दे भावरि हथलेवउ भयउ, पाणिगहनु चौहुजरण कियउ ॥६५६॥ घर घर नयरी भयउ उछाहु, दुहु कुवर कउ भयउ विवाहु । सूरिजन जण ते मन मा रलइ, एकइ सतिभामा परजलाइ ॥६५७।। रूपचन्द को आइस भयउ, समदिनारायण सो घर गयउ । कुंडलपुर सो राज कराइ, बाहुरि कथा द्वारिका जाइ ।। एथंतरि मनु धर्मह रलो, जिगु वंदुण कैलासहि चलिउ ।।६५८॥ छठा मार्ग प्रय म्न द्वारा जिन चैत्यालयों की वन्दना करना वस्तुबंध--- ताम चिंतइ कुवर परदवणु। भउ संसार समुदु परिजयनु, धर्म दिढ चित दिजइ । कैलासहि सिर जिरणवर भुवरण, सुद्ध भाइ पूज्जइ किज्जइ । प्रतीत अनागत वरत जे दीठे जाइ जिरिंगद । जे निपाए जिरणवर भुवरा, धनु धनु भरहं नरिंद ॥६५६॥ . (५६) १. मधुरी वीण ताल वाजंत (क) २. कोया (ग) ३. पाणग्रहा करि बुइ परसोया (म) (६५७) १. का हवा (ग) २. करि कतिग प्राग बुइ घले (ग) (६५८) इस पक्ष में ६ चरण हैं। १. इत्वंतरि (क) एथंतरि (ख) येवंतरि (ग) २. सो मन महि रले (ग) (६५६) १. वुत्तर तरह (क) समुपरि (ग) समुदपरि (ख) २. जैनधर्म (कल ग) ३. सिखर (ख) कविलासह सो सिखरि (ग) ४. वर्शते धंदे (क) ५. जेरिंग कराए जिस भवरण से सब वंदे प्रानंर (ख) ग प्रति में अन्तिम २ पति निम्न प्रकार है बलिउ ताह जह कम छिजइ फिरि फिरि वेलद जिण भुवण । वंदा भावन भाइले जिम, प्राच्या महि रहहि सह महोहुसरवाद ।। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) चौपई फिरि चेताले वंदे मयरण, तिन्हि ज्योति दिपइ जिम्ब रयण । प्रविधि पूजउ न्हाणु कराइ, बाहुनि म ए हारिका जाइ ॥६६०॥ इथंतरि अबरु कथंतरु भयउ, कोरो पांडव भारहु भयउ । तिहि करखेत महाहउ भयउ, तिहि नेमिस्बर संजमु लयउ॥६६१॥ बाहुरि मयण द्वारिका जाइ, भोग विलास चरित विलसाइ । छहरस परि सीझइ ज्योनार, अमृत भोजन करै आहार ॥६६२॥ तहा सतखणा धोल हर अवास, निय निय सरसे भोग विलास । अगर चंदन वह परिमल वास, सरस कुसम रस सदा सुवास ॥६६३॥ नेमिनाथ को केवल ज्ञान होना कालुगत गयउ, फुणिर नेमि जिन केवल भयउ । समवसरण तब आइ सुरिणद, वरणवासी अवर सुररिंदु ॥६६४।। छपनकोटि जादम मन रले, नारायण स्यो हलहल चले । समउसरण परमेसरु जहा, हलहल कान्ह पहुते तहा ॥६६॥ एसी रीति (६६०) १. वरण करइ (ख) बंडे जाणु (ग) २. तिन्ह की जोति देखा जिरणभाव (ग) ३. पूजा (क ख ग) १६६१) १. तिम्ह (क) तिन्हि (ख ग) २. किया (ग) (६६२) १. छह रुति विलसद भोग कराइ (ग) २. सरप्त (ग) . (६६३) १. धवन (क ल ग) २. निय पिय सरसहि (ख) नोरस परिस (ग) ३. केसर (ग) सहै (ग) ४. सरस कुसमरस सवा सुवास (क) मूलपाठ-लंबोल कुसम सर दोस (६६४) १. प्रासी (क ख) इसी (ग) २. भुवरणवासी प्रायो परिणिदु (ग) । (३६५) १. सभी जरवम मिले (ग) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३) देवि याहिण करिउ वहूत, फुणि माधव प्रारंभिउ थुति । अजय कंदर्प खयंकर देव, तइ सुर असुर कराए सेव ॥६६६।। जइ कम्म? दुटु खिउकरण, जय महु जनम जनम जिनुसरणु। तुम पसाइ हउ दूतरु तिरउ, भव संसारि न वाहुडि परउ ।।६६७।। करि स्तुति मन महि भाइ, फुणि नर कोठि बइठउ जाइ । तउ जिणवाणी मुह नीसरइ, सुर नर सयल जीउ मनि धरइ।।६६८॥ धर्माधर्म सुरिगउ दुठ वयण, पागम ताउ सूणि उ परदवणु । गरणहर कहु पूछइ षण सिधि, छपनकोटि जादम की रिधि ॥६६६।। नारायण मरण कहि पासु, सो मो कहु आपहु निरजासु । द्वारिका नयरी निश्चल होइ, सो आगमु कहि अाफहु मोहि ॥६७०।। गणधर द्वारा द्वारिका नगरी का भविष्य बतलाना | पूछि वात तउ हलहल रहइ. मन को सासउ गणहर कहइ । वारह वरिस द्वारिका रहहु, फुरिण ते छपनकोटि संघरहु ।। ६५७१॥ द्वीपायन ते उठ इव जागि, द्वारिका नयरी लागई पागि । मद ते छपनकोटि संघरइ, नारायण हलहल उवरइ ।।६७२ ॥ (६६६) १. ध कहोजे कथा बहुस, (ग) २. प्रारभिउ धुत्त (फ) प्रारंभिड षोउ (ख) पुरिए केसउ भाइरवड धुत्त (ग) ३. मूलपाठ भाभिउ पुत्र ४. करहि तिसु सेव (ग) (६६८) १. करिषद थुति (क) करिव युति (ख) करिवि पति (ग) २. मनिमति (फ ख ग) वूसरा और तीसरा चरण ग प्रति में नहीं है। (६७०) यह छन्द क प्रति में नहीं है । (६७२) १. बलिभद्र (ख) २. छपनकोडि समुच संघरहि (ग) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि प्रागमु सो मेटइ कम्वरणु, जरदकुमार हाथ भान सुभानु अरु सामिकमारु, आठ महादे संजमु भारु ॥६७३!! सुणि बात लज गणहर पास, निहचे द्वारिका होइ विरणासु । दीपायनु तपचरगह गयउ, जरदकुमार वनवासा लयउ ॥६७४।। प्रद्युम्न द्वारा जिन दीक्षा लेना दसदिसा खहु जादम भए, करि संजमु जिणवर पह गए। दीष्या लेइ कुमर परदवणु, चिताबत्यु भयउ नारायणु ।।६७५॥ । प्रद्य म्न द्वारा वैराग्य लेने के कारण ___श्रीकृष्ण का दुखित होना विलख वदनु भयो नारायणु, हा मुहि पूत पूत प्रदवनु । कवरण वुद्धि उपनी तो आजु, लेहि द्वारिका भुजइ राजु ॥६७६।। । राजधुरंधर जेठउ पूत, तोहि विद्याबल आहि वहुत । तोहि पवरिषु जाणइ सुरभवण, जिण तपुलेइ पूत परदवणु॥६७७।। कालसंवर जाणइ तो हियउ, हउ रण महतइ विलखो कीयउ।। तइ रूपिरिंग हरी मुहुतणी, फुरिग तइ सुहड पचारे घरणे ॥६७८।। (६७३) १. जरा (ग) २. होड़ (ग) ३. सम्बु (क ख ग) (६७४) १. जरासिंधु (फ) जराकुमार वनवासो भया (ग) (६७५) १. चितवन्त (क) चितापस्य (ग) २. थयउ (क) ३. महमहण (क) महमहण (ग) (६७६) १. बोलइ तिस कवरण (क) बोलइ नारायण (ख) बोला। ममहरण (ग) (६७७) १. मत (क) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ नारायण के वयरण सुणेइ, तं पडि ऊतरु कंद्रपु देइ । का कउ राजुभोग घरवारु, सुपिनंतरु जइसउ संसारु ॥६७६।। का कउ धन पौरिषु बलु घणउ, का कउ वापु कुटंव कहि तरणउ । , घडिक मा जाइ विहडाइ, पाव क्षिपति को सकइ रहाइ ।।६८०॥ रुक्मिणि का विलाप करना नारायण वारि विलखाइ, फुरिण रूपिणि सपत्ती आइ । करण कलाप करइ विललाइ, केम पूत मन धरम रहाइ ॥६८१॥ एक पूत तू मोको भय उ, धूमकेत तवही हरी लयउ । - कनकमाल घर विरधि करत, वाले सुखह न देखिउ पूत ॥६८२॥ फुणि मोहि घर प्रायो अानंदु, कुल उद्योत जिम पुन्यो चंदु । राज भोगत ए किए असेस, अव ए भूमिरु रहोगे केस ॥६८३॥ (६७६) १. तखिणि (ग) २. कंत्रप उतर देइ (ग) ३. किसुका राज वेस धरवार (ग) (६८०) १. घटी एक धाले (ग) २. उपति खपति के रहर पराइ (ग) गप्रति में प्रथम द्वितीय चरण नहीं है। (६८१) १. पाहुडि (क ख) २. थलत प्रगमि कउ सिज वुझाइ (ग) (६८२) १. स्तनपान मेरो मवि करिउ, नवि उछ गि फवहि मह धरिउ (क) (६८३) १. उदघो जाणु' (ग) २. लहिगे (ख ग) क प्रति में निम्न प्रकार हैरुपरिण मइ तय का मन किया, इव किस देखि सहारउ हियउ । राजा एक कोला प्रसेस, अव ए तुमिर सह केस ॥६८८|| क प्रति में निम्न छन्द अधिक है-- पुरिग इय रूपरिण लागी कहण, जिन तव लेहि पूत परचमण । इसी कहि महतू जर परिउ, अब किस देखि सहारउ हियउ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्य म्न द्वारा माता को समझाना माता तरणउ वयगा निमृगोड, तब प्रतिउतरु कंद्रपु देई । लावरण हा सरीरह सारु, जम रूठे सो होइ है छारू ॥६८४॥ अवगी माइन कंदलु करड, माया मोहु माणु परिहरइ । जिन सरीर दुख धरहु बहुत, को मो माइ कवरण तुहि पूतु ॥६८५।। रहटमाल जिउ यह जीउ फिरइ, स्वर्ग पताल पुहमि अवतरइ । पूच्च जनम को सनमधु प्राहि, दुञ्जणा सज्जरण लेइ सो चाहि ॥६८६॥ हम तुम सन्मधु पुवह जम्मु, सोहउ आरिण घटाउ कम्म । इम्ब करि मनु समभावइ ताहि, रूपिणि माइ बहुडि घर जाहि । ६६७ प्रधम्न का जिन दीक्षा लेकर तपस्या करना इम समुझाइ रूपिरिण माइ, फुणि रिणामि पास वइठउ जाइ । देसु कोसु परिहरे असेस, पंचमुबीर उमाले केस ॥६८ तेरह विउ चारितु चरेइ, दह लक्षण विहु धरमु करेइ ।। सहइ परीसह वाइस अंग, वाहिर भीतर छायउ अंग ॥६॥ (६४) १. तब पडि ख ग) तउ परि (क) (६८५) १. दुख (क ख ग) मूल पाठ दुष्ट (६८६) १. रह्हमाल (ख) अरहटमाल (ग) (६८७) १. पूरब जनमि (ग) (६८८) १. जिरण (क स्स) मुनि (ग) २. वास (ग) ३. पंच मूठि मा केस (क) पंच मुहि सिर उपडि केस (ख) पंचम रुटमा सामे केश (ग) (६८६) १. विरद्धि चार वतु धार (ग) २. सु. संगु (ग) __.. -- .. - - - - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७ । प्रद्युम्न को फेस शान एवं निर्माण की प्राप्ति घाइ कम्मु को किउ विणासु, उपरणउ केवलु षण निरजासु । । दीठउ लोयरण लोयपमाण, झायउ चित्तव उच्छउ झाणु ।।६६०॥ तखण पायउ चंद सुरिंदु विजाहर हलहर धरणिंदु । | नारायण बहु सजण लोगु, सुरयरणु अछरायणु बहु भोगु ॥६६॥ युरणइ सुरेस्वर बाणी पवर, जय जय मोहतिमिरहरसूर । जय कंद्रप हउ मति नासु, जाई तोडिवि घालिउ भवपासु ।।६६२॥ | इय थुतिवि सुर वइ फुरिण भरणइ, धरणवइ एकु चित भउ सुणइ । 1 मुड केवली रिद्ध विचित्त, रचहि खणतरि वण्ण विचित्त ॥६६३।। __ -- -- (६९०) १. जो चितवं सोघउ था प्रामु (ग) (५९१) १. विद्याधर प्राया धरि पानन्यु (ग) २. नर सुर को तह हर । संभोग (क) ३. मण (म) ___ (६६२) १. सुणइ नारि सर (क) सुरणह सुशाणो प्रवणे प्रपार (म) । २. करह मा तिमिर (क) गइ मा मोहणिजिरा हर हार (ग) ३. कउ कियो विरणास (क) काम मनि मासु (ग) ४. जा सुजाण तोडा भष पास (क) मज भी विद्या लोया पासु (ग) (५६३) १. एम भणिवि सुर सामी भरणा, पणषाद एकह निता सुरणा (क) इव सुणि मुरबइ सो फुगि भरणा, ध्याय मबइ छु इचिति सुणड (ग) २. पवित, (ग) ३. पाणरति (ग) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) अंधकार का परिचय ... .. . मइसामीकउ कीयउ वखाणा, तुम पजुन पायउ निरवाण । अगरवाल की मेरी जात, पुर अगरोए मुहि उत्तपाति ॥६६४।। सुघणु जणणी गुणवइ उर बरिउ, सामहराज घरह अवतरिउ । एरछ नगर बसंते जानि, सुरिंगउ चरित मइ रचिउ पुराणु ॥६६५॥ सावयलोय वसहि पुर माहि, दह लक्षणा ते धर्म कराइ । दस रिस मानइ दुतिया भेज, भावहि चितहं जिणेसरु देउ ॥६६६॥ {६६४) १. प्रसाद (ग) २. प्रागरोबइ (ग) अगरोवद (ख) निम्न छन्द मषिक है विहा गार नगर वह देश, भषिय जीव संयोहि असेस । पुरिण तिनि प्रा6 फम्म पण कियो, पुरण पजुग नियवासह गयो । हउ मतिहीण विवुद्धि प्रयागु, मइस्थामोकन कियउ वस्त्राणु । उछाह मन में किया चरित्त , पढमाइ उद्धाई दे सो वित्तु १७००॥ पडिय जरग नम कर जोखि, हम मतिहीण म लाबद्ध खोहि । अगरवाल की मेरी जाति, नगरोचे मेरी उतपति ॥७०१॥ पुस चरितु मइ मुणे पुराण, उपनउ भाउ मह कियो वखार । . जइ पुहमि इक चित कियो, साई समावि लिपउ ॥७०२॥ घउपइ बंध मइ कियउ विचितु, भयिय लोक पक्षहु दे चित्त । हूं मतिहीं न आणउ केउ, ग्रखर मात न जाणउ भैउ ५७०३॥ . (६६५) १. सुधभु (ग) २. गहुँ उरि घरयो (ग) ३. साह मइराण (क) समहराइ करिया अवतरपो (ग) ४. एलचि (क) एयरन () मेरस (ग) ५. करिउ वखारण (क) में कोया पखाशु (ग) (६६६) १. सवल लोग (ख) सब ही लोक (ग) २. नायहल ते राई कराइ (ग) ३. वरिसण माहि दुतिया भेख (क) दसरा नाराहि द्वमा भेउ (ख) वर्शन माहि नही तिन्ह भेउ (ग) ४. जपउ विचित (क) ध्यावहि चिसि (त्र) पाहि इक मनि जिनपर देव (ग) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) एहु चरितु जो वांचर को, सो नर स्वर्ग देवता होइ । ५ २ व धर्मे खप सो देव, मुकति व रंगरिंग मागई एम् ||६६७ || जो फुशि सुरपइ मनह धरिभाउ, असुभ कर्म ते दूरि हि जाइ । बोर वखाइ माणुसु कवर, तहि कहु तूसइ देव परदवतु ॥ ६६८ || अरु लिखि जो लिखियावइ साधु, सो सुर होइ महागुराराधु । जोर पढाइ गुण किउ लिउ, सो नर पावइ कंचरण भलउ || ६६६|| (६६७) १. हलुव कर्पु तुरिए होइ सो वरेड (ख) २. पावड एच (क) क प्रति में तथा ग प्रति में यह छन्द नहीं है (६६१ ) के प्रति में उक्त छन्द के स्थान पर निम्न छन् हैंपहि गुराहि जे चित्तह पर लिहहि लिहावइ जे मुखि कर । सुरइ सुगाव भब्बह लोय, सिंह कउ पुत्र परापति होइ ॥ ७० ख प्रति कु फुरिण सुरषद मनह परि जाउ, जो खासा मासु कम | तिस कह तूसह सइ देउ परव ""॥७११॥ हुनर महं साद | रु लिखि जोर लिखावइ सुट, सो सुरु होई महागुरिय जोरू पढाव गुण कड निल, सो नह पावह संजमु भलउ ॥७१२॥ एहु चरितुह पुत्र भडार, जो नरु पढ तहि परववरण तू सि फल वेह संपति पुत्र प्रवय जसु होइ ।। ७१३॥ हड बुषि ही न जाउ भेज, प्रखर मातह सुखिउ नभेउ । पंडित जगह नवच कर जोजि, होरा अधिक जिन लाव लोडि ।।७१४ ॥ इति प्रद्युम्न चरित्रं समाप्तं । श्लोक संख्या १२०० / शुभमस्तु प्रति- I हव होगा बुद्धि न जागर फेव श्रखित मंतु सु मुनिवर भेज पंडित जन विज कर जोडि अधिक होतु जिन लावह खोडि ||७१२॥ मह स्वामी का कौया यखाणु, पंडित जन मति होहु सुजाण । केवल उपजइ गुरण संतु, मुरहू भावगड उपज पुन्तु ॥७१३ ॥ इति परवव उपई समाप्त ॥ . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० यहु चरितु पुन भंडारु, जो वरु पढ्इ सु नर महसार । तहि परदम तुही फलदेइ, संपति पुत्र श्रवरु जसु होइ ||७००|| es gray न जाणों केम्वु, अक्षर मातह गुरणउ न भेउ । पंडित जगह नमू कर जोडि, होगा अधिक जण लावह खोडि ।। ७०१ ॥ ॥ इति परदमण चरित समाप्तः ॥ शुभं भवतु | मांगल्यं ददातु । श्री वीतरागायनमः । संवत् १६०५ वर्षे आसोज वदि ३ मंगलवारे श्री मूलसंघे लिखापितं श्राचार्य श्रीललितकीर्ति सा० चांदा सरवण सा० नाथू सा० दाशा योग्यत । श्रेयोस्तु || Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-अर्थ प्रथम सर्ग स्तुति खण्ड (१) शारदा के बिना कविता करने की बुद्धि नहीं हो सकती उसके बिना कोई स्वर और अक्षर को भी नहीं जान सकता । सधारु कवि कहता है कि जो सरस्वती को प्रणाम करता है उसी की बुद्धि निर्मल होती है। (२) सब कोई 'शारदा शारदा' करते हैं किन्तु उसका कोई पार नहीं पाता । जिनेंद्र के मुख से जो वाणी निकली है उसे ही शारदा जानकर मैं प्रणाम करता हूँ। (३) सरोवर में पाठ पंखुडि बाल कमल पर जिसका निवास स्थान है, जिसका निकास काश्मीर से हुआ है। इस जिसकी सवारी है और लेखनी जिसके हाथ में है उस सरस्वती देवी को कवि सधारु प्रणाम करता है। (४) जो श्वेत वस्त्र धारण करने वाली है तथा पद्मासिनी है और वीणावादिनी है ऐसी महाबुद्धिमती सरस्वती मुझे आगम ज्ञान दे । मैं उस द्वितीय सरस्वती को पुनः प्रणाम करता हूँ। (५) हाथ में दण्ड रखने वाली पयायती देवी, ज्यालामुखी और चकेश्वरी देवी तथा अम्बावती और रोहिणी देवी इन जिन शासन देवियों | को कवि सधार प्रणाम करता है। (६) जो जिनशासन के विघ्नों का हरण करने वाला है, जो हाथ में लकड़ी लिये खड़ा रहता है और जो संसारी जनों के पापों को दूर करता है ऐसे क्षेत्रपाल को पुनः पुनः सादर नमस्कार करता हूँ। (७) चौबीसों तीर्थकर दुःखों को हरने वाले हैं और चौबीसों ही जरा मरण से मुक्त हैं। ऐसे चौबीस जिनेवरों को भाव सहित नमस्कार करता हूँ सथा जिनके प्रसाद से ही कविता करता हूँ। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) (८) ऋषभ अर्जित और संभवनाथ ये प्रथम तीन तीर्थंकर हुए I चौधे अभिनन्दन कहलाये । सुमतिनाथ प्रद्मप्रभ और सुपार्श्वनाथ तथा आठवें चन्द्रप्रभ उत्पन्न हुए । (१) नवें सुविधिनाथ और दशवें शीतलनाथ हुए | ग्यारहवें ॐ यांसनाथ की जय होवे । यामुपूज्य विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ और सोलहवें शान्तिनाथ हुए । (१०) सतरहवें कुंथुनाथ, अठ रहवें अरहनाथ, उनीस मल्लिनाथ, बीसवें मुनिसुव्रतनाथ इक्कीसवें नमिनाथ, बाईसवें नेमिनाथ, तेईसवें पार्श्वनाथ और चौबीसवें महावीर ये मुझे आशीर्वाद दें। (११) सरस कथा से बहुत रस उपजता है। अतः प्रद्युम्न का चरित्र सुनो । संवत् १४०० और उस पर ग्यारह अधिक होने पर भादव मास की पंचमी, स्वाति नक्षत्र तथा शनिवार के दिन यह रचना की गयी । (१२) जो गुरणों की खान हैं, जिनका शरीर श्याम वर्ण का है, जो शिवादेवी के पुत्र हैं, जो चौतीस अतिशय सहित हैं, जो कामदेव के तीक्ष्ण बाणों का मान मर्दन करने वाले हैं, जो हरिवंश के चिन्तामणि हैं, जो तीन लोक के स्वामी हैं, जो भय को नाश करने वाले हैं, जो पांचवें ज्ञान केवलज्ञान के प्रकाश से सिद्धान्त का निरुपण करने वाले हैं, ऐसे पवित्र नेमीश्वर भगवान को भली प्रकार नमस्कार करता हूँ । (१३) पहिले पञ्च परमेष्ठियों को नमस्कार कर फिर जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण जाकर तथा निर्बंन्ध गुरु को भाव पूर्वक नमस्कार कर उनके प्रसाद से कविता करता हूँ । द्वारिका नगरी का वर्णन (१४) चारों ओर लवणसमुद्र से घिरा हुआ सुदर्शन पर्वत वाला जम्मूद्वीप है। इसके दक्षिण दिशा में मरतक्षेत्र है जिसके मध्य में सोरठ सौराष्ट्र देश बसा हुआ है। (१५) उस देश में जो गांव बसे हुये हैं वे नगरों के सदृश लगते हैं । जो नगर हैं वे देव विमानों के सम्मान सुन्दर हैं । उन नगरों में प्रत्येक मंदिर बल तथा ऊंचे हैं जिन पर सुन्दर स्वर्ण- फलश झलकते हैं। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) (१३) समुद्र के मध्य में द्वारिका नगरी है मानों कुबेर ने ही उसे बनाकर रखी हो। जिसका बारह योजन का विस्तार है और जिसके दरवाजों पर स्वर्ग- कलश दिखाई पड़ते हैं । (१७) चौबारों के विविध प्रकार के स्फटिक मणि के छज्जे चन्द्रमा की कान्ति के समान दिखाई देते हैं। बांके किवाड़ मानों मरका मशियों से अड़े हुये है तथा मोतियों की बंदनवार सुशोभित हो रही है। ( १ = ) जहां एक सौ उद्यान एवं स्वच्छ निवास स्थान है जिसके चारों ओर मठ, मन्दिर और देवालय हैं। जहां चौरासी बाजार (चौपट हैं जो अनेक प्रकार से सुन्दर दिखाई देते हैं । (१६) जिसके चारों दिशा में खूब गहरा समुद्र हैं जिसका जल चारों ओर कोला मारता है। जहां करोड़पति व्यापारी निवास करते हैं ऐसी वह द्वारिका नगरी है । (२०) धर्म और नियम के मार्ग को जानने वाली जिसमें १८ प्रकार की जातियां रहती हैं, जिसमें ब्राहाण, क्षत्रिय, एवं वैश्य दीनों वर्णों के लोग रहते हैं, जहां शूद्र भी रहते हैं तथा जहां छत्तीसों कुल के लोग सुख पूर्वक निवास करते हैं उस नगरी का स्वामी (राजा) यादवराज है । 1 (२१) जिसके दल बल और साधनों की कोई गणना नहीं है । जब वह गर्जना करता है तो पृथ्वी कांपने लगती है । वह तीन खण्ड का चक्रवर्ती राजा शत्रुओं के दल को पूर्ण रूप से नष्ट करने वाला है। (२२) और उनका बलभद्र सगा भाई है । उनके समान पुरुषार्थी विरले ही दीख पड़ते हैं। ऐसे छप्पन करोड़ यादवों के साथ जो किसी से रोके नहीं जा सकते थे वे एक परिवार की तरह राज्य करते थे । (२३) एक दिन श्रीकृष्ण पूरी सभा के साथ बैठे हुये थे चतुरंगिणी सेना के कारण जहां खाली स्थान नहीं सूझ रहा था। अगर यदि सुगन्धित पदार्थों की गंध जहां चारों ओर फैल रही थी। सोने के दण्ड वाले चामर (संबर) शिर पर इल रहे थे । ', बाजे I (२४) जहां पांच प्रकार के ( सितार, ताल, भांक, नगाड़ा तथा तुरही) खूब बज रहे थे । अनेक प्रकार की सुंदर पायल पहने हुये भाव भरती हुई नृत्य करने वाली ताच, विनोद एवं कला का अनुसरण करती ई घर रही थी । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) नारद ऋषि का आगमन (२५) इनने में हाथ में कमंडल लिये हुए मुडे हुये सिर पर चोटी धारण करने वाले, विमान पर चढ़े हुये प्रसन्न मन राजर्षि नारद वहां जा पहुँचे। (२६ श्रीकृष्ण ने उनको नमस्कार करके बैठने के लिये स्वर्ण सिंहासन दिया। एकान्त पाकर नारायण ने उनसे पूछा कि आपका आगमन कहांसे हुआ। (२७) हम अाकाश में उड़ते हुये मर्त्यलोक के जिन मन्दिरों की वन्दना करने गये थे। द्वारिका दीखने पर यह विचार उत्पन्न हुया कि यादवराय से ही भेंट करते चलें। (क) तब नारायण ने विनय के साथ कहा कि अच्छा हुआ कि आप यहां पधारे । हे मारद ऋषि ? आपने हमारे ऊपर कृपा की । आज यह स्थान पवित्र हो गया। (२६) बचनों को सुनकर नारद ऋघि मन ही मन हमने लगे तथा उनने सत्यभारः की बालबार्ता पछी । नारद जी आशीर्वाद देकर खड़े हो गये और फिर रणवास में चले गये। (३०) जहां सत्यभामा श्रृंगार कर रही थी तथा आंखों में काजल लगा रही थी। चन्द्रमा के समान ललाट पर जब वह तिलक लगा रही थी उसी समय नारद ऋषि वहां पहुंचे। (३१) हाथ में कमण्डल लिये हुये ऋषि रूप और कला को देखते फिरते थे। वे सत्यभामा के पीछे जाकर खड़े हो गये और सत्यभाग का दर्पण में रूप देखा। (३२) सत्यभामा ने जब ऋषि का विकृत रूप देखा तो मन में बाहत विस्मित हुई । उस मंद-बुद्धि ने कुतर्क किया कि यहां पर कोई मार डालने वाला पिशाच ा गया है। नारद का क्रोधित होकर प्रस्थान (३३) बड़ी देर तक ऋषि खड़े रहे। सत्यभामा ने न तो दोनों हाथ जोड़े और न उनसे बैठने के लिये ही कहा । तब नारद ऋषि को क्रोध उत्पन्न हो गया और वे उसे सहन नहीं कर सके । तत्र नारदजी फटकारते हुये पापिस चले गये। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) बिना ही बाजा के जो नाचने लगता है यदि उसको बाजा मिल जावे तो फिर कहना ही क्या ? एक तो शृगाल और फिर उसे षिच्छू खा जाय ? एक तो नारद और फिर यह क्रोधित होकर चलदे । (३५) नारद ऋषि क्रोधित होकर उसी क्षण घख पड़े तथा पर्वत के शिखर पर जाकर बैठ गये। यहां बैठे हुये मन में सोचने लगे कि सत्यभामा का किस प्रकार से मान भंग हो ? (३६) जब नारद मुनि ये विचार करने लगे तो उनकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो रही थी। मैं सत्यभामा का अभिमान कैसे खण्डित फलं ? था तो किसी से इसको भयभीत कराऊ अथवा इसको शिला के नीचे दाब कर छोड दू' लेकिन इससे तो श्रीकृष्ण को दुःख होगा । अन्त में यह विचार किया कि जो इससे भी सुन्दर स्त्री हो उसका श्रीकृष्ण के साथ विवाह करा दिया जावे। (३७) तब वे गांव गांव में फिरे और घुम घूम कर देश के सब नगर देख डाले 1 एक सा दम जो विधायरों की नगारया थी उनको नारदजी ने क्षण भर में ही देख डाला । नारद का कुण्डलपुरी में आगमन (२८ देशों में धूमते हुये मन में सोचने लगे कि अभी तक कोई रुपवती कुमारी दिवाई नहीं दी। फिर नारद ऋषि वहां आए जहां विद्याधर 1 की नगरी कुण्डलपुरी थी। (३) उस नगरी का राजा भीष्मराज था जो धर्म और नीति को खूब जानता था । जिसके अनेक लक्षणों से युक्त रुपवान पुत्र एवं पुत्री थी। (४०) प्रष्टि फैलाकर मुनि कहने लगे कि इस कुमारी के यदि कोई । योग्य पर हो और विधाना की कृपा से संयोग मिल जाये तो इसका नारायण से सम्बन्ध हो सकता है अर्थात् इसके लिये नारायण ही योग्य है। (४१) इस प्रकार मन में विचार करते हुए नारद ऋषि आशीर्वाद हेफर रणवास में गए । उसी तण उनको सुरसुदरी और कुमारी कृत्रिमणी दिखाई पड़ी। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४६ ) नारद से रुक्मिणी का साक्षात्कार '' . (४२) वह अत्यन्त रूपवती तथा अनेक लक्षणों से युक्त थी। चन्द्रमा के समान मुख वाली वह ऐसी लगती थी मानों चन्द्रमा ही उदय हो रहा हो । इंस के समान चाल भी जम दूसरों के मन को लभाने वाली थी । उसके समान कोई दूसरी स्त्री नहीं थी। (४३) जब नारद को प्राता हुआ देखा तो सुरसुदरी ने उन्हें 1 नमस्कार किया । रुचिमणी को देखकर वे बोले कि नारायण की पट्टरानी बनो। (४४) भीष्म की बहिन सुरसुन्दरी ने कहा कि रुक्मिणी शिशुपाल को दे दी गयी है. इस मुन्दर नगरी में बहुत उत्सव हो रहे हैं, लग्न रख दी गयी है और वित्राइ निश्चित हो चुका है। (४५) सुरसुन्दरी ने सत्यमान से कहा कि अब आपके लिये ऐसा कहने का कोई असर नहीं है । जो शत्र-राजाओं के मान को भंग करने के लिये काल के समान है ऐसा शिशुपाल सब कुटुम्बियों के साथ आ पहुँचा है। (४६) उसके बचनों को सुनकर नारद ऋषि कहने लगे कि तीन खरड का जो चक्रवत्ति है तथा छप्पन करोड यादवों का जो स्वामी है ऐसे को छोड़कर दूसरे के साथ विवाह करोगी ? (५७) पूर्व लिखे हुए को कोई नहीं मेट सकता जिसके साथ लिखा होगा उसी के साथ विवाह होगा । अपनी बात को छोड दो, नारायण ही । रुक्मिणी को न्याहेगा। (४) तब सुरसुन्दरी मन में प्रसन्न हुई कि मुनि ने जो बात कही थी , पही मिल रही है। नारदजी ! सुनो और सत्यभाव से कहो । यह युक्ति बताओ जिससे विवाह हो जाय । (E) नारद ऋपि ने कहा कि तुम ऐसा करना कि पूजा के निमित्त । मंदिर में चले जाना । नंदनधन को संकेत-स्थल बनाना, वहीं पर मैं तुमसे (श्रीकृष्ण) को लाकर सेंद कराऊंगा | (५०) तब देवांगना सतश सचिमणी ने कहा कि कृष्ण मुरारी को कौन पहिचानेगा तब सुविज्ञ नारद ऋषि ने कहा कि मैं तुम्हें चिन्ह बतलाता हूँ। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) (५१) जो शंख चक्र और गदा धारण करता है तथा बलिभद्र जिसका भाई है। अपने वाण से जो सात ताल वृक्ष को श्रधता है, नारद ने कहा नही नारायण है । (५२) ( नारदजी ने) सुन्दर रत्नों से और कहा कि जो उसे अपने कोमल हाथों से परिपूर्ण नारायण है । जड़ी हुई वन की अंगूठी दी चकनाचूर कर दे बड़ी गुणों से नारद का श्रीकृष्ण के पास पुनः आगमन (५३) इस प्रकार बात निश्चित करके रुक्मिणी का चित्रपट लिखना कर उसे अपने साथ लेकर और विमान में चढ़ कर नारद ऋषि वहां आए जहां नारायण सभा में बैठे हुये ये । (५४) महाराज बार बार चित्र पट दिखाने लगे उससे (श्रीकृष्ण) का मन व्याकुल हो गया। उनका शरीर कामबाण से घायल हो गया और वे बहुत विल हो गये 1 (५५) क्या यह कोई अप्सरा है अथवा वनदेवी है । अथवा कोई मोहिनी तिलोत्तमा है । क्या यह सुन्दर रूप वाली विद्याधरी है। इस स्त्री का यह रूप किसके समान है । (५६) नारद ऋषि ने सत्यभाव से कहा कि कुण्डलपुर नामक एक नगर है। उसके राजा भीष्म से मैं तत्काल मिला और उसी की यह कन्या रुमिणो है । (५७) उसको मैंने आपके लिये मांग लिया है । जाकर के विवाह करलो देर मत करो। कामदेव का मंदिर संकेत-स्थल है उसी स्थान पर शाकर भेंट कराऊंगा ! श्रीकृष्ण और हलधर का कुण्डलपुर के लिये प्रस्थान (१८) तब श्रीकृष्ण बहुत संतुष्ट हुये । मन में हँस कर आनन्द मनाने लगे । रथ को सजवा कर एवं सारथी को बिठाकर अपने साथी (भाई) लघर को बुला लिया । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८) (५६) तये सारथी ने क्षण भर में रथ को सजाया तथा वायु के वेग के समान कुण्डलपुर पहुँच गया। जहां वन में मन्दिर था वहीं पर कृष्णा एवं इलघर पहुँचे। (१०) आपस में सलाह की । जरा भी देर नहीं लगायी । दूत के द्वारा समाचार भेज दिये । उस ने जाकर सब बात कह दी कि नंदनवन में श्रीकृष्ण श्रा गए हैं। (६१) वचनों को सुनकर रुक्मिणी हंसी । मोती एवं माणिक आदि से थाल भरा, बहुत सी सखी सहेलियों को साथ लेकर पूजा के निमित्त मन्दिर में चली गई। श्रीकृष्ण और रुक्मिणी को प्रथम मिलन (६२) रुक्मिणी ने यहां जाकर श्रीकृष्ण से भेंट की और सत्यभाष से कहा कि हे यदुराज मेरं वचनों की ओर ध्यान देकर सात ताल वृत्तों को कारणों से बीधिये । (६३) तब श्री कृष्ण ने बज मूदड़ी को लेकर हाथ से मसल डाला | मूदही फूट कर चून हो गई मानों गरइट के नीचे चांवलों के कण पिस गये हो। (६४) तब नारायण ने धनुप लिया और हलधर ने श्राकर अंगूठा दवाया । दबाने से सातों सूधे हो गये और बाणों ने सातो ही ताल वृक्षों को बींध दिया। (६५) तब रुक्मिणी के मन में स्नेह उत्पन्न हो गया और उसने । मन में जान लिया कि यही नारायण हैं। उन्होंने रथ पर रुक्मिणी को। चढाकर पुकारा और सब बात भीष्म राज को ज्ञात करा दी। रनपाल द्वारा रुक्मिणी-हरण की सूचना (६३) तब वनपाल ने आकर कहा कि पीछे कोई गर्ष मत करना कि रुविमणी को चुराकर ले गये । जिसमें शक्ति हो वह श्राकर छुडाले । (६७) रुक्मिणो को रथ पर बडा लिया तथा उमने (श्रीकृष्णा) पांचजन्य शंख को बजाया। शंख के शब्द को सुनकर सारा देवलोक शंकित हो गया तथा महिमंडल थर थर कांपने लगा। महिलाओं ने जाकर यह पुकार की कि हे पृथ्वीपति सुनिये-- देव मन्दिर में खड़ी हुई रुक्मिणी को श्रीकृष्ण हर ले गये। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) (६५) तब भीमराव मन में कुपित हुए तथा स्थान स्थान पर नगाड़ा बजने लगा । घोड़ों पर काठी कसो, हाथियों को रवाना करो तथा काल | रूप होकर सब चढ़ाई करो। (६६) जब राजा शिशुराल को पता चला कि रुक्मिणी चोरी चली गयी है तब बड़े गुस्से में आकर उस ने कहा कि शीघ्र ही सब घोड़ों पर जीन फसी जावे। ७) रथों को सजाश्री, हाभियों को तैयार करो। सभी सुभट तैयार होकर श्राज रण में भिड़ पड़ो। सब सामंत अपने हाथों में तलवार ले ले तथा धनुषधारी धनुष की टंकार करें। (७१) शिशुपाल एवं भीष्मरात्र दोनों के दल की सेना के कारण | स्थान (मार्ग) नहीं दीखता था । घोड़ों के खुरों से इतनी धूल उछली कि मानों भादों के मेघ मँडरा रहे हो । (७२) दुलते हुये राज-चिन्ह चंबर एस मालूम होते थे मानो सैनिक हाथ में भाग लेकर प्रविष्ट हो रहे हो। अथरा ढुलने हुप राज-चिन्ह बैंबर ऐसे मालुम होते थे मानों अग्नि में कमल स्थित रहे हो । चारों प्रकार को सेना इकट्ठी होकर पायु-वैग के समान रणभूमि में आ पहुंची। . (७३) अपरिमित दल श्राता हुचा दिखाई दिया । धूल उड़ी जिससे सूर्य चन्द्रमा छिप गये। आश्चर्य के साथ दर कर रुक्मिणी कहने लगी कि हे महामहिम्न ! रण में कैसे जीतोगे? __ (७४) हे रुक्मिणी ? धैर्य रखो, कायर मत बनो। तुमको मैं आज अपना पुरुषार्थ दिखलाऊगा । शिशुपाल को युद्ध में आज समाप्त कर दूंगा और भीष्मराव को बांध करके ले आऊंगा । (५५) बात कहत हुचे ही सेना आ पहुँची । शिशुपाल क्रोधित होकर बोला, हे सरदार लोगो, अपने हाथों में तलवार ले लो। अाज मुठभेड होगी, । कही ग्वाला भाग न जावे । (७६) शिशुपाल और श्रीकृष्ण की इस प्रकार मेंट हुई जैसे अग्नि में भी पड़ा हो । हाथ में धनुषवाण संभाल लिया । अब संग्राम में पता पड़ेगा । अपने मन में पहिले के वचनों को याद करो। तुमने चोरी से रुक्मिणी ही कर लिया यही तुमने उपाय किया । अब तुम मिल गये हो; कहां जाओगे १ प्रब मार कर ही रहूँगा। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! १५० (3) जब दुष्ट ने दुष्टतापूर्ण वचन कहे तो श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया और श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को मारने के लिये हाथ में धनुष उआया । श्रीकृष्ण और शिशुमाल के अध्य युद्ध (4) हकाल और ललकार कर परस्पर दोनों बीर भिड़ गय और खूब बाण बरसने लगे मानों वर्षा हो रही हो । तब बलिभद्र ने इल नामक आयुध लिया और रथ को चूर्ण कर हाथी पर प्रहार किया। (७६) शिशुपाल ने हाय में धनुप लिया और एक साथ पचास बाण छोडे । तब नारायण ने सौ बाणों से उनका संहार किया तो शिशुपाल ने छो सौ षाणों से प्रहार किया। (८०) नारायण ने चार सौ बाणों से उम पर प्रहार किया तो उसने आठ सौ बाणों से उस पर चार किया। फिर नारायण ने सोलह सौ बाण धनुप पर रख कर चलाये तो उसने बत्तीस सौ बाणों से धावा किया जिसके कारण कोई स्थान नहीं सूझ रहा था । (८१) इस प्रकार दोनों शक्तिशाली वीर खई हुये एक दूसरे पर दूने दूने बाणों से आक्रमण करते रहे । युद्ध बढता ही गया बंद नहीं हुअा तथा । बार्गों से पृथ्वी आच्छादित हो गयी। श्रीकृष्ण द्वारा शिशुपाल का वध (२) तव नारायण ने सोचा कि धनुष बाण का अवसर नहीं है।। तब हाथ में चक्र लेकर उसे घुमाया जिससे क्षण भर में ही शिशुपाल का | सिर कट गया। (३) शिशुपाल को मरा हुआ जानकर भीम राज उदास हो गया। रण में भयकर मार सही नहीं जा सकी इलिये चतुरंगिरणी सेना वहाँ । से भागने लगी। (४) तव रुक्मिणी ने सत्यभार से कहा कि रूपचन्द और भीष्मराम की रक्षा करो। मन में बैर छोड़कर इनसे संधि करो तथा कुण्डलपुर नगर को वापिस चलो। (५) तब नारायण ने कृपा करके बंधे हुए भीष्मराव को छोड दिया । । रूपचन्द से गले मिले और फिर अपने नगर को प्रस्थान किया । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५.१ ) श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का वन में विवाह (६) जब मुड़कर हलधर और कृष्ण चले तो वन में एक मंडप को देखा। जहां अशोक वृक्ष की छाया थी वहां वे तीनों पहुँचे । ( 53 ) तब उनके मन में बड़ी खुशी हुई | आज लग्न है इसलिये विवाह कर लें । भ्रमर की ध्वनि ही मानों मंगलाचार हो रहा है तथा तो मानों वेद पाठ कर रहे हैं । (क) बांसों का मंडप बनाया तथा भाँगर देकर हथलेवा किया । पाणिग्रहण करके रुक्मिणी को परख लिया और उसके पश्चात कृष्णमुरारी अपने घर रवाना हो गये । श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ द्वारिका आगमन ( ६ ) जब नारायण वापिस पहुँचे तत्र उपन कोटि याच्चों ने मिलकर उत्सव किया । घर घर में गुडियों को उछाला गया तथा तोरण एवं बंदनवार बांधी गयी । (६०) रुक्मिणी एवं श्रीकृष्ण हंसते हुये नगर में प्रविष्ट हुए । स्थान स्थान पर बहुत से लोग खड़े थे और वे दोनों अपने महल में जा पहुँचे । (६१) भोग विलाम करते हुये कई दिन बीत गए । सत्यभामा की चिंता छोट दी। सौत के दुख के कारण वह अत्यन्त डाइ से भरी हुई अपने नित्य अति के सुख को भी दुख रूप समझती थी । सत्यभामा के दूत का निवेदन (६२) सत्यभामा ने एक दूत को उस नद्दल में भेजा जहां बलिभद्रकुमार ठें हुये थे। शीश झुकाकर उसने निवेदन किया कि हे देव ! मुझे सत्यभामा ने भेजा है। (६३) दूत ने महल में हाथ जोड़कर कहा कि सत्यभामा ने कहा कि विचार कर कहो कि मुझसे कौनसा अपराध हुआ है जो कि कृष्णमुरारी मेरी बात भी नहीं पूछते । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२ ) (६४: वचनों को सुनकर हलधर वहां गये जहां नारायण बैठे हुये थे। इंस करके उन्होंने अत्यन्त वनय पूर्वक कहा कि तुमको सत्यभामा की सँभाल - भी करनी चाहिये। (६५) नब नारायण ने ऐसा किया कि रुक्मिणी का झूठा उगाल गांठ में बांधा कर वहां पहुंचे जहां सत्यभामा का मन्दिर (महल) था। (६६) सत्यभामा ने नेत्रों से श्रीकृष्ण को देखा और रुदन करती हुई। बोली तथा अत्यन्त ईपी से भरे हुए वचन कहे कि हे कि हे स्वामी ! मुझे क्रिस अपराध के कारण अपने छोड दिया है। (५) तय हंसकर कृष्णमुरारी बोले तथा मधुर शब्दों से उसे । समझाया | भिमा कपट निदा में सो पगे और गांड को झलाकर खाट । के नीचे लटका दी। (85) जब गठरी को मुलते हुए देखा तो सत्यभामा उठी और उसे खोला | गहरी से बहुत ही सुगंधित महक उठ रही थी। तय सुगंधित वस्तु । का देखकर उसने अपने शरीर पर लगाली। (EE) जब श्रीकृष्णा ने उसे अंग पर मलते देखा तो वे जगे और हंसकर कहने लगे यह नो रुक्मिणी का उगाल है । तुम अपने सब झंझटो । को गया समझो। मुत्यभामा का रुक्मिणी से मिलाने का प्रस्ताव (१०८) सत्यभामा सत्यभाव से बोली कि मुझ से रुक्मिणी को लापर मिलायो । तब हंसकर श्रीकृष्णा मुरारी ने कहा कि वन में उससे तुम्हारी भेंट कराऊंगा। (१०१) नारायण उठकर महल में गये और रुक्मिणी के पास बैठ गये । और कहने लगे कि वन में बहुत सी फुल वाडियां है। चलो आज यहाँ । जीमण करें। (१०२) नारायण ने रुक्मिणी का जैसा रूप बना लिया और पालकी पर चढकर बगीची में गये । जहां बावड़ी के पास अशोक वृक्ष था वहीं रुक्मिणी को उतार दिया। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३ ) (१०३) श्वेत यस्त्र, उल्नल आभूषण तथा हाथों में करों से सुशोभित रुक्मिणी को देवी का रूप बनाकर श्राले (साफ) में बैठा दिया । वह चुपचाप ___ वहां बैठ गई और जाप जपने सगी ! श्रीकृष्ण बहानाले मो : सत्यमामा और रुक्मिणी का मिलन (१०४) फिर सत्यभामा को जाकर भेजा और कहा मैं रुक्मिणी को वहीं बुलवा लूगा । तुम बाबड़ी के पास जाकर खड़ी रहो जिससे तुम्हें रुक्मिणी से भेद करा दूंगा। (१०५) सत्यभामा बहुत सी सखी सहेलयों को साथ लेकर वाटिका में गयी जहां बावड़ी थी। तब अपनी आंखों से उसे देखकर सोचा कि क्या यह कोई वनदेवी बैठी है। (१०६) दूध और चन्द्रमा के समान श्वेत कोई जल से ही निकलकर आई हो ऐसी उस देवी के उसने पैर छुए और बोली-हे स्वामिनी ! मुझ पर कृपा करो, जिससे मुझे श्रीकृष्ण मानने लगें। (१०७) फिर वह देवी को मनाने लगी जिससे कि रुक्मिणी पति प्रेम से बंचित हो जावे । इस तरह अनेक प्रकार से वह अपनी बात प्रकट करने लगी, उसी समय हरि उसके सम्मुख आकर इंसने लगे। (१०८) सत्यभामा तुम्हें क्या वाय लग गई है ? (तुम पागल हो गई हो क्या) बार बार क्यों पैर लग रही हो । इतनी अधिक भक्ति क्यों कर रही । हो? यह आले में (त.क, में रुक्मिणी ही तो बैठी है। (१८६) सत्यभामा उसी समय कहने लगी मैंने इसके पैर छू लिये तो क्या हुआ । तुम बहुत कुचाल करते रहते हो, यह रुक्मिणी मेरी बहिन ही तो है। 1. (११०) तुम तो रात दिन ऐसे ही कुचाल किया करते हो ठीक ही है ग्वालवंश का स्व-गप कैसे जा सकता है। फिर सत्यभामा ने रुक्मिणी से कहा...चलो बहिन घर चलें। (१११) यान (रथ) में बैठ कर वे महल में चली गई । सब सुख भोगने लगे और पलास करने लगे । जय राजकाज करते कुछ दिन निकले गये तब दोनों रा.ियां गर्भवती हुई। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ । . . . . (११२/ तब सत्यभामा ने एक बात कही कि जिसके पहिल पुत्र उत्पन्न होगा यह जिसके पीछे पुत्र उत्पन्न होगा उसे इरा देगी। तथा यह उसके पुत्र के विवाह के समय सिर के केश भी मुडवा देगी। (११३) बलिभद्र आकर सत्यभामा और रुक्मिणी के लागना (साक्षी) बन गये । दोनों ने उनसे कह दिया तुम हमारा पक्ष मत करना । जो भी हार जावे उस ही के सिर आकर मूड देना। (११४) इधर कौरवों मे दूत भेजा बह नारायण के पास पहुँच।। . ] उसने कहा कि आपके जो बड़ा पुत्र उत्पन्न हो उसके जन्म की सूचना दूत के । हाय भिजवा देना। सत्यभामा और रुक्मिणी को पुत्र रत्न की प्राप्ति (११५) इस प्रकार बहुत दिन बीतने पर दोनों है। रानियों के मुत्र उत्पन्न हुए । दोनों ही घरां में इस प्रकार लक्षणवान एवं कला संयुक्त पुत्र हुए। (११६) सत्यभामा का (दूत) बधात्रा लेकर गया और वह जाकर सिर की ओर खड़ा हो गया । रुक्मिणी का बधावा लेकर जाने वाला दूत पैरों की ओर जाकर बैठ गया। (११७) नारायण जगे और बैठे हुये । उस समय रुक्मिणी के दूत ने बधाई दी। दूत हंसता हुआ हाथ जोड़ कर बोला-रुक्मिणी के घर पुत्र उत्पन्न हुआ है। (११८) दूसरे दूत ने भी बधाई दो और नारायण से निवेदन किया ! कि हे स्वामिन् ! मुझे तुम्हारे पास यह सूचना देने के लिये कि सत्यभामा के पुत्र उत्पन्न हुआ है, भेजा है। (११६) तत्र श्रीकृष्ण ने हलधर को बुलाया और जो बात हुई थी वह उनसे बैठाकर कह दी । झूठ बोलकर कैसे टाला जा सकता है । प्रद्य म्न हो । बड़ा पुत्र है। (१२०) दोनों रानियों के पुत्र उत्पन्न हुये । इमसे घर पर बधाया गाये जाने लगे । सभी मंगला मार गाने लगे और ब्राह्मण वेद मंत्रों का उच्चारण करने लगे। (११) भेरी एवं तुरहि खूब बजने लगे । महुवर एवं शंख के लगातार शब्द होने लगे । घर घर में केशर अथवा रोली के चिन्ह लगाये गये तथा स्त्रियां अपने २ घरों में मंगल गीत गाने लगी । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५ ) धूमकेतु द्वारा प्रद्युम्न का हरण (१२२) छठी रात्रि का जागरण करते समय धूमकेतु वहीं आ पहुँचा। जब क्षण भर में उसका विमान ठहर गया तब धूमकेतु मन में सोचने लगा। (१९३} विमान से उतर करके प्रद्युम्न को देखा। यक्ष कहने लगा कि यह कौन क्षत्रिय है । उसी समय अपना पूर्व जन्म का बैर याद करके उसने कहा कि इसी ने मेरी स्त्री को हरा था। (१२४) प्रछन्न रूप से उसने प्रद्युम्न को इस तरह उठा लिया जिससे नगर में किसी को पता ही न लगा। विमान में रखकर बह वहीं चला गया जहां वन में शिला रखी थी। (१२५) धूमकेतु ने तब कई विचार किये कि क्या करू । क्या इसे समुद्र में डालकर शीव ही मार डालू? इतने में ही उसने एक ५२ हाथ लम्बी शिला देखी और योगा कि इसे इसानीचे रख दू जिससे ये दुःख माफर मर जावे । (१२६) पहिले किये हुए को कोई नहीं मेट सकता । प्रद्युम्न अपने कमों को भोग रहा है । उसको शिला के नीचे दबाकर बह घर चला गया। तब क्मिणी जहां सो रही थी वहां जगी। १२७) छठी रात्रि को प्रद्युम्न हर लिया गया । तब रुक्मिणी को तीन वेदना हुई। अरे पहिरेदार तुम शीघ्र जागो और इस तरह खूब जोर से कारो कि नारायण एवं हलधर सुन लें । सत्यभामा को बड़ी खुशी हुई और सिने खूब शोर मचाया। जिसका पुत्र रात्रि को हर लिया गया था वह क्मिणी विलाप करने लगी। । (१२८) नगर में सूचना हो गई ! यदुराज सोते हुए जाग उठे। अपन कोटि यादव पुकारते हुए देखने चले तो भी उसका (प्रद्युम्न) कहीं ही नहीं चला। • । विद्याधर यमसंवर का भ्रमण के लिए प्रस्थान (१२६) मेत्रकूट नामक एक स्थान था जहां यमसंबर राजा निवास या । जिसके पास बारह सी विधायें थी। तथा जिसकी कंचनमाला स्त्री थी। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८) उसका मन. वन क्रीडा को हुआ तथा विमान पर पाकर अपनी स्त्री सहित गया । वे उस बन के मध्य पहुँचे जहां वीर प्रशम्न शिला के नीचे दबा हुआ था। (१३१) वन के मध्य में रखी हुई पूरी बापन हाथ ऊंची (लंबी) शिला को देखी । वह क्षण में ऊची तथा कर में नीची ही थी निहनियाज को उतर कर देखने लगा। __ यमसंबर को प्रद्य म्न की प्राप्ति (१६२) राजा ने विद्या के बल से शिला को उठाया ! और अन्छी तरह देखा। जिसके शरीर पर बत्तीस लक्षण थे तथा जो सुन्दर था ऐसे कामदेव को यमसंबर ने देखा। (१३३) कुमार को उठाकर गोद में लिया तथा लौट कर राजा विमान में गया। कचनमाला को पट्टानी पद देकर उसे सौंप दिया । (१३.} अत्यन्त रूपवान और अनेकों लक्षण वाले कुमार को कंचनमाला ने ले लिया। उसके समान रूप वाला अन्य कोई दिखाई नहीं देता था। यह राजा का धर्मपुत्र हो गया। (१३५) वे विमान में चढ़कर वायु-वेग के समान शीघ्र ही (नगर में) पहुँच गये । नगर में सभी उत्सब मनाने लगे कि कचनमाला के प्रद्युम्न हुआ है। (१३६) अत्यन्त रूपवान, गुणवान एवं लक्षणवान प्रणम्न सभी को निय था। वह द्वितीया के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा और इस सरह १५ वर्ष का हो गया ! प्रद्युम्न द्वारा विद्याध्ययन (१६७) फिर वह पढने के लिये उपाध्याय के पास गया तथा उसने । लिखपढ़कर सब ज्ञान प्राप्त कर लिया । ला छन्द पयं तर्क शास्त्र बहुत पड़े। तथा राजा भरत के नाट्यशास्त्र का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया । । ९१३) धनुष एवं बाय-विद्या तथा सिंह के साथ युद्ध करना भी जान लिया। लड़ना, भिवता, निकलना तथा प्रवेश करने का सब ज्ञान प्रश्न कुमार को हो गया। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) (१३६) प्रद्युम्न ऐसा वीर बन गया जिसके समान भौर कोई जानकार नहीं था । इस प्रकार बइ यमसंबर के पर बढ़ रहा है। अब यह कथा द्वारिका जा रही है । (अब द्वारिका का वर्णन पदिये) द्वितीय सर्ग पुत्र वियोग में रुक्मिणी की दशा (१४८) इधर द्वारिका में रुक्मिणी करुण विलाप कर रही थी। पुत्र संताप से उसका हदय व्याकुल हो रहा था । वह प्रतिदिन कृष होती गयी एवं उदासीन रहने लगी। विधाता ने उसे ऐसी दुखी क्यों बनायो । (१४१) कभी वह संतप्त होती थी तो कभी वह जोर से रोती थी। उसने गानों में शां सभी बकते । पूर्व जन्म में मैंने कौनसा पाप किया था । अब मैं किसे देखकर अपने हृदय को सम्हालू ? (५४२) क्या मैंने किसी पुरुष को स्त्री से अलग किया था ! अथवा किसी वन में मैंने आग लगायी थी ? क्या मैंने किसी का नमक, तेल और भी चुरा लिया था? यह पुत्र संताप मुझे किस कारण से मिला है ? (१४३) इस प्रकार जम रह रुक्मिणी सन्ताप कर रही थी उस समय नारायण एवं बलिभद्र वहां आकर बैठे और कहने लगे-हे मुन्दरि १ मन में दुखी न हो | हम बिना जाने क्या कर सकते हैं ? ११४४) स्वर्ग और पाताल में से कोई भी यदि हमें प्रयम्न का पता वत्ताद तो वह हमसे मनचाही वस्तु प्राप्त कर सकता है । सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उसे ले जाने वाले को मार डालेंगे तथा उसे श्मसान में से गोध उठावेंग। (१४५.) जब वे इस तरह उसको समझाते रहे तो वह अपने मन के खेव को भूल गयी । इस प्रकार दुखित होत हुए कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये तब नारद ऋषि द्वारिका में आये । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) रुक्मिणी के पास नारद का आगमन . .. (१४६) जिसका सिर मुडा हुआ है तथा चोटी उड़ रही है, हाथ में कमंडलु लिये राजर्षि नारद वहां आये जहां दुखित होकर रुक्मिणी बैठी हुई थी। (१५५) जब नारद को आंखों से देखा तो व्याकुल रुक्मिणी उनसे कहने लगी हे स्वामी ! मेरे प्रश्च मन नामक पुत्र हुआ था पता नहीं उसे कौन हर ले गया ? (१४८) हाथ जोड़कर सक्मिणी बोली कि हे स्वामी तुम्हारे प्रमाद से । तो मेरे ऐसा (पुत्र) हुआ था। किन्तु पेट का दाह देकर पुत्र चला गया उसकी तलाश कीजिये । (१४६) नारद ने तब हंसकर कहा कि प्रदान की सुधि लेने के लिये। मैं अभी चला | स्वर्ग, पाताल. पृथ्वी अथवा आकास में जहां भी होगा यहां ।। जाकर उसे ले आऊंगा ऐसा नारदजी ने कहा। नारद का विदेह क्षेत्र के लिये प्रस्थान (१५०) नारद ने समझा कर कहा कि शीघ ही पूर्व त्रिदेव, जाऊंगा जहां सीमंधर स्वामी प्रधान हैं और जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। (१५१) नारद ऋषि सीमंधर स्वामी के समरशरण में गये । वहाँ । चक्रवत्ति को बहुत आश्चर्य हुआ | नारद से वृत्तांत सुनकर चक्रवर्ति ने जिनेन्द्र भगवान से पूछा कि ऐसे मनुष्य कहां उत्पन्न होते हैं। सीमंधर जिनेन्द्र द्वारा प्रद्युम्न का वृत्तान्त बतलाना (१५२) तब जिनेन्द्र ने कहा कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सोरठ (सौराष्ट्र) देश है । वहां जैन धर्म पूर्ण रूप से चल रहा है। (१५३) जहां सागर के मध्य में द्वारिका नगरी है वह ऐसी लगती है मानों इन्द्रलोक से आकर गिर पड़ी हो । जहाँ नारायणराय (श्रीकृष्ण) निवास करते है ऐसे मनुष्य वहां पैदा होते हैं । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५४) उनकी रुक्मिणी रानी है जो धर्म की बात को खूब जानती है। उसके प्रद्युम्न पुत्र हुआ जिसको धूमकेतु हर कर ले गया । (१५५) जहाँ एक बावन हाथ लम्बी शिला थी उसके नीचे वीर प्रद्युम्न को दबा दिया। पूर्व जन्म का जो तीन वैर था, धूमकेतु ने उसे निकाल लिया। (१५६) मेघकूट एक पर्वतीय प्रदेश है वहां विद्याधरों का राजा रहता है। कालसंवर राजा वहां आया और कुमार को देख कर उठा ले गया । (१५४) वहीं पर प्रथा मन अपनी उन्नति कर रहा है। इसकी किसी को खबर नहीं है । वह बारह वर्ष वहां रहेगा, फिर वह कुमार द्वारिका था जावेगा। (१५) वचनों को सुनकर नारद मन में बड़े प्रसन्न हुये और नमस्कार कर वापिस चले गये । विमान पर चढ़कर गुनि बहां आये जहां मेटकूट पर्वत पर कामदेव प्रचुम्नकुमार था । ... (१६) कुमार को देखकर ऋपि मन में प्रसन्न हुये तथा फिर शीघ्र ही धारिका चले गये। वहां जाकर रुक्मिणी से मिले और उसको पुत्र की सूचना दी। (१६०) हे रुक्मिणी । हृदय में संताप मत करो। यह प्रद्युम्न बारह वर्ष बाद पाकर मिलेगा। मुझे ऐसा ऋचन केवली ने कहा है इसलिए प्रद्य म्न निश्चय से आकर मिलेगा। प्रद्य म्न के आने के समय के लक्षण (१६१) सूखे हुये आम के पेड़ तथा संवार फिर से हरे भरे होजायेंगे ! स्वर्ण-कजरा जज से पूर्ण सुशोभित होने लगेंगे। कर एवं बावड़ी जो पूर्ण रूप से सूख गये हैं वे स्वच्छ जल से भरे दिखाई देंगे। (१६२) सब दूध याने वृक्षों में फूल आ जायेंगे । जब तुम्हारे आंचल पीले पड़ जायेंगे तथा दोनों स्तनों में दूध भरने लगेगा तब वह साहसी और धीर वीर प्रद्युम्न श्रावेगा। - (१६३) इस प्रकार जब प्रद्य म्न के आने के लक्षण बता कर नारद मुनि वहां से चले गये तब रुक्मिणी के मन को सन्तोष हुन्या । वह पक्ष, मास, दिन और वर्ष गिनने लगी श्रम कथा का क्रम प्रद्युम्न की ओर जाना है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ! तृतीय सर्ग यमसंबर द्वारा सिंहरथ को मारने का प्रस्ताव (१६४) वां एक सिंहरथ नामका राजा रहता था उससे यमसंवर का बड़ा विरोध चलता था । यममंत्रर ने उपाय सोचा कि इसको किस प्रकार समाप्त किया जाये । (१६४) उसने पांच सौ कुमारों को बुलाया और उनसे कहा कि सिंहस्थ को ललकार कर युद्ध में जीतो । जो सिंहरथ से युद्ध करने का भेद जानता है वह शीघ्र आकर युद्ध का बीडा ले ले 1 9 (१६६) कोई भी कुमार पास नहीं आया । तत्र इंसकर प्रद्युम्न ने बीड़ा लिया। उसने कहा कि हे स्वामी मुझ पर कृपा कीजिये। मैं रा में सिहरथ को जीतूंगा। (१६) तब राजा ने सत्यभाव से श्रभी तुम्हारा अवसर नहीं है। तुम अभी जिससे कि मैं तुमको आना हूँ । कहा कि हे कुमार तुम बच्चे हो युद्ध के भेदों को नहीं जानते (१६८ ) ( प्रद्युम्न ने कहा ) -- बाल सूर्य आकाश में उससे कौन युद्ध कर सकता है। सर्प का बच्चा भी यदि विष को दूर करने के लिये भी कोई मणिमंत्र नहीं है । होता है लेकिन इस ले तो उसके ( १६६) लिंनी बालसिंह को पैदा करती है वही हाथियों के झुंड को काल के समान है । यदि यूथ को छोड़कर अर्थात् अकेलासिंह भी बन को चला जाये तो उसे कौन ललकार सकता है । (१७) अम्ति यहि थोड़ी भी हो तो उसका पता किसी को भी नहीं लगता । किन्तु जब वह रौद्र रूप धारण करके जलती है तो पृथ्वी को भी जलाकर भस्म कर डालती है । (१७१) वैसे ही यद्यपि मैं बालक हूँ किन्तु राजा का पुत्र हूँ । मुझे युद्ध करने की शीघ्र आज्ञा दीजिए। मैं शत्रुओं के दल का डटकर नाश करूंगा। यदि युद्ध से भाग जाऊ तो आपको लजाऊंगा । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१) 4 (१७२) प्रयुम्न के वचनों को सुनकर राजा सन्तुष्ट हुना तथा मदनकुमार पर कृपा की । जब यमसंबर ने उसे वीड़ा दिया तो हाथ फैलाकर प्रधम्न ने उसे ले लिया । प्रद्य म्न का युद्ध भूमि के लिए प्रस्थान (१७३) श्राज्ञा मिली और प्रद्युम्न चतुरंगिनी सेना को सजा कर रवाना हो गया । बहुत से नगारे, भेरी और तुरही बजने लगे । कोलाहल मच गया एवं उछलकूद होने लगी तथा ऐसा लगने लगा कि मानों मेव ही असमय में खूब गर्जना कर रहा हो । रथ सजा लिये गये। हाथी और घोड़ों पर हौदे तथा काठियां रख दी गयी । जब तैयार होकर प्रशम्न चला तो आकाश में सूर्य भी नहीं दिख रहा था। (१७४) अध प्रद्युम्न के चरित्र को ध्यान पूर्वक सुनिये कि जिस प्रकार उसने राजा सिंहरथ को जीता । (१७५) कुमार प्रद्युम्न ने जब प्रयाण किया तो सारे जगत ने जान लियर। आकाश में रेत उछलने लगी | सजे हुये रथों के साथ जो बाजे बज रहे थे वे ऐसे लग रहे थे कि मानों भादों के मेघ ही गर्ज रहे हो । उसके प्रवल शत्रुओं के समूह को नष्ट करने वाले अनगिनत योद्धा चले। वे सय भीर एकत्र होकर समराङ्गण में जा पहुँचे ।। (१७६) कुमार प्रद्य म्न को प्राता हुआ देखकर सिंहरथ कहने लगा यह बालक कौन है ? इस बालक को रण में किसने भेज दिय है? मुझे इसके साथ युद्ध करने में लज्जा अाती है । ११७७) बार बार में मुड़ २ कर राजा ने कहा कि वह इस बालक पर किस प्रकार प्रहार करे । उसको देखकर उसके हृदय में ममता उत्पन्न हुई और कहा कि हे कुमार ! तुम वापिस घर चले जावो । प्रद्युम्न एवं सिंहस्थ में युद्ध (१७८) राजा के पचन सुनकर प्रद्य म्न क्रोधित हुआ और कहने लगा मुझ को हीन वचन कहने वाले तुम कौन हो ? बालक कहने से कोई लाभ नहीं है अब मैं अच्छी तरह से तुम्हारा नाश करूगा । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ | (१७६) तब राजा ने तलवार निकाली। मेघ के समान निरन्तर वालों की वर्षा होने लगी । सुभट आपस में हाथ में तलवार लेकर भिड़ गये। रथ नष्ट हो गये और हाथी लड़ने लगे। (१०) हाथियों से हाथी भिड गये तथा घोड़ों से घोड़े जा भिड़े । इस प्रकार उनको युद्ध करते हुये पांच दिन व्यतीत हो गये । वह युद्ध क्षेत्र श्मशान बन गया और वहां गृद्ध उड़ने लगे । (१८१) जब सेना युद्ध करती हुई थक गयी तब दोनों वीर रण में भि गये। दोनों ही वीर सावधान होकर खड़े हो गये। दोनों ही सिंह के समान जम कर लड़ने लगे । (१८२) वे दोनों ही बीर मल्लयुद्ध करने लगे तथा दोनों वीरों ने उस स्थान को अखाड़ा बना दिया । अन्त में सिंहस्थ चिल्कुल हार गया और ने उसके गले में पैर डालकर बांध लिया । प्र म्न (१८३) जब प्रश्च मनकुमार ने विजय प्राप्त की तो उस समय देवता गण ऊपर से देख रहे थे। सिंह को बांध कर जय कुमार रवाना जिससे सज्जन हुआ तो (यमसंवर ने) गुणवान कामदेव को तुरन्त हो बुलवाया लोग आनंदित हुये । राजा भी देखकर आनंदित हुआ और कहने लगा कि तुमने इस अवसर पर बड़ी कृपा की है। मेरे जो पांच सौ पुत्र हैं उनके ऊपर तुम राजा हो । (१८४) ऐसे कामदेव के चरित्र को जिसे सोलह लाभ प्राप्त हुये हैं सब कोई सुनो। विद्याधर ने कृपा कर बंधे हुये सिंध राजा को छोड दिया और उससे पद (दुपट्टा ) देकर गले मिला तथा सिंहस्थ भी भेंट देकर घर चला गया 1 (१-५) कुमारों के मन में दुःख हुआ कि हमारे जीते हुये ही यह हमारा राजा हो गया । राजा को इतना मान नहीं देना चाहिये कि दत्तक पुत्र को हम पर प्रधान बना दे । (१८६) तत्र कुमारों ने मिलकर सोचा कि अब इसको समाप्त करना चाहिये । श्रत्र इसको सोलह गुफाओं को दिखाना चाहिये जिससे हमारा राज्य निष्कंटक हो जावे । कुमारों द्वारा प्रद्यग्न को १६ गुफाओं को दिखाना (१७) इस युक्ति को कोई प्रकट न करे। प्रद्युम्नकुमार को बुलाकर सय कुमारों ने मिलकर सलाइ की और खेलने के बहाने से वनक्रीडा को चले । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ! (१८८) कुमारों ने प्रद्युम्न से कहा कि हे प्रद्युम्न सुनो विजयागिरि के ऊपर जिन मन्दिर है जो मनुष्य उनकी पूजा करता है उसको पुण्य की प्राप्ति होती हैं। (१८६) प्रत्य म्न यह वचन सुनकर प्रसन्न हुआ और पहाड़ पर चढ़कर जिनमन्दिर को देखने लगा। परकोटे पर चढ़कर धीर प्रद्युम्न ने देखा तो : एक भयंकर नाग फुकारते हुये मिला। (१६) ललकार कर प्रद्य म्न नाग से भिड गया तथा पूछ पकड़ कर उसका सिर उलदा कर दिया । उस पराक्रमी प्रद्य म्न को देखकर वह आश्चर्य चकित हो गया तथा यक्ष का रूप धारण कर खड़ा हो गया। (१६१) वह दोनों हाथ जोड़कर कर सत्य भाव से कहने लगा कि तुम पहिले कनकराज थे । जब तुम (कनकराज) राज्य त्याग कर तप करने चले तो मुझे अपनी सोलह विचार दे गये थे। (१६२) (और कहा कि) कृष्ण के घर उसका अवतार होगा । तुम प्रद्युम्न को देख लेना । उस राजा की यह धरोहर है। इसलिये अपनी . विधायें सम्भाल लो । १६ विद्याओं के नाम (१६३-१६६) १. हृदयारलोकनी २. मोहिनी ३. जलशोषिणी ४. रत्नदशिणी ५. श्राकाशगामिनी ६. घायुगामिनी ७. पातालगामिनी, शुभर्शिनी ६. सुधाकारिणी १०. अग्निस्थंभिणी ११. विद्यातारणी १२. बहुरूपिणी १३. जलपंधिणी १४. गुटका १५. सिद्धिप्रकाशिका (जिसे सब कोई जानते है) १६. धार बांधने वाली धार] बंधिणी ये सोलह विद्यायें प्राप्त की तथा उसने अपूर्व रत्न जदित मनोहर मुकुट लाकर दिया । मुकुद सौंप कर फिर प्रद्युम्न के चरणों में गिर गया तथा प्रद्युम्न हंसकर वहां से आगे बढा । वह अद्य म्न वहां पहुंचा जहां पांच सौ भाई हंस रहे थे। (१६५) उन कुमारों के पास जब प्रधम्न गया तो मन में उनको आश्चर्य हुआ। वे उपर से प्रेम प्रकट करने लगे तथा उसे लेजा कर दूसरी गुफा दिखाई। (१६) उस गुफा का नाम काल गुफा था। कालासुर दैत्य वहां रहता था । पूर्व जन्म की बात को कौन मेट सकता है प्रधुम्न उससे भी जाकर भिड़ गया। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६४ ) (१६E) कुमार ने उसे ललकार कर जमीन पर दिया कि वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया । प्रद्य म्न के पराकम को देखकर वह मन में बहुत डर गया तथा छत्र चंबर लेकर उसके आगे रख दिये । (२८०) हंसकर प्रद्युम्न को सौंपते हुये किंकर बन कर उसके पैरों में गिर गया । फिर वह प्रद्य म्न आगे चला और तीसरी गुफा के पास आया। (२०१) उस वीर ने नाग गुफा को देखा । उस साहसी तथा धैर्यशाही ने उस गुफा का निरीक्षण किया। एक भयंकर सर्प धनघोर गर्जना करता हुआ पाकर प्रद्युम्न से भिड़ गया । (२०२) प्रद्य म्न ने मन में उपाय सोचा और वह सर्प को पकड़ कर खूब मारने लगा तब उसका अतुल बल देखकर वह शंकित हो गया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। (२०३) प्रद्य म्न को बलवान जानकर चन्द्रसिंहासन लाकर सौंप दिया। नागशल्या, वीणा और पाबड़ी ये तीन विद्याए उसके सामने रख दी। (२०४) सेना का निर्माण करने वाली, गेहकारिणी, नागपाश तथा . विद्यातारिणी इन विद्याओं का उसे वहां से लाभ हुश्रा । फिर वहां से यह स्नान करने के लिए सरोवर पर चला गया। (२०५) उसे स्नान करते हुये देखकर वहां के रक्षक दौड़े और कहा कि तुम कौन पुरुष हो जो मरना चाहते हो ? जिस सरोवर की रक्षा करने के लिए देवता रहते हैं उस सरोवर में नहाने वाले तुम कौन हो? (२०६) वह वीर क्रोधित होकर बोला कि श्राते हुये बज को कौन मेल सकता है ? वही मुझ से युद्ध करने में समर्थ हो सकता है जो सर्प के मुख में हाथ डाल सकता है। (२०४) अन्त में रक्षा कहने लगे कि यह भयंकर योद्धा है मानेगा नहीं। वे चुपचाप उसके मुख की ओर देखकर उसको मगर से चिन्हित एक ध्वजा दी। (२०८) इसके पश्चात् जब यह वीर हृदय में साइस धारण कर अग्नि कुण्ड में गया तो वहां का रहने वाला देव संतुष्ट होकर उसके पास आया और अग्नि का जिन पर प्रभाव न पड़े ऐसे कपड़े दिये । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८६) इनको लेकर वह बीर आगे चला और फलों वाला एक आम का वृक्ष देखा । उसके लगे हुये श्राम को तोड़कर खाने लगा तो वहां रहने वाला देव बंदर का रूप धारण कर वहां आ पहुँच।।। (२१०) श्राम तोड़ने या कौन वीर है मेरी से पार पाईले युद्ध करो । तब प्रद्य म्न क्रोधित होकर उसके पास गया और उससे जूझकर बड़ा भारी युद्ध किया। (२११) प्रद्युम्न ने उसे पछाड़ कर जीत लिया तो वह हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा और दोनों हाथों में पुष्पमाला ले कर पावड़ी की जोड़ी उसे दी। _(२१२) तब वे कामदेव को कपित्थ वन में ले गये और उसको यहां भेज कर वे खड़े रह गये । 'जन बह वीर बन के बीच में गया तो एक उहण्ड हाथी चिंघाड़ कर आया । (२१३) वह हाथी विशालकाय एवं मदोन्मत्त था। शीघ्र ही हाथी कुम र से भिड़ गया। प्रशु म्न ने उसको पछाड़ कर दांत और सूड तोड दिये और स्वयं कंधे पर चढ़ कर उसके अकुश लगाने लगा। (२१४) इसके पश्चात् प्रद्युम्न को वे बावड़ी में ले गये जहाँ काल के समान सर्प रहता था। वह वीर उसकी बंबी पर जा कर चढ़ गया जिससे वह सर्प उसमें से निकल कर प्रद्युम्न से भिड़ गया। (२१५) वह उस सर्प को पूंछ पकड़ कर फिराने लगा जिससे वह सर्प व्याकुल हो गया । उस विषधर (ध्यंतर) ने प्रद्युम्न की सेवा की और काम मूदड़ी एवं धुरी दी। (२१६) मलयागिरि पर्वत पर जब वह गया तो आश्चर्य से वहां खड़ा हो गया । अमरदेव यहां दौड़कर आया और अपने देह से संघात (वार) करने लगा। (२१४) वह देव हार गया और उसकी सेवा करने लगा। उसने ककरण की जोड़ी लाकर सामने रख दी तथा सिर का मुकुट और गले का हार दिया। (२१८) वरहासेन नामक जहा गुफा थी वहां उन कुमारों ने प्रध म्न को भेजा। वहां कोई व्यंतर देव था जिसने क्षण भर में वराह का रुप धारणा कर लिया । - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६) वह वराह रूप धारी देव प्रद्युम्न से भिड़ गया । प्रद्युम्न भी उसकेदांतों से भिड़ गया तथा घात करने लगा। देव ने फूलों का धनुष एवं विजयशंख लाकर प्रद्युम्न को इस स्थान पर दिया। (२२०) तब मदनकुमार उस वन में जाकर बैठ गया जहां दुष्ट जीर निवास करते थे । वन के मध्य में पहुँच कर उसने देखा कि एक बार मनोज (विद्याधर) बंधा हुश्रा था। (२२१) बंधे हुये वीर मनोज को उसने छोड़ दिया तथा मुड़ कर वह बन के मध्य में गया। जिस विद्याधर को प्रा मन ने बांध लिया। (२२२) फिर वह मनोज विद्याधर मन में प्रसन्न होकर मदनकुमार के पैरों पर पड़ गया। उसने हाथ जोड़ कर प्रवन से प्रार्थना की तथा इन्द्रजाल नाम की दो विद्यायें दी। (२२३) तत्र असंतराज के मन में बड़ा उत्साह हुअा। उसने अपनी कन्या विवाह में उसे दे दी। उस विद्याधर ने बहुत भक्ति की एवं उसके पैरों में गिर गया । (२२४) जब वह वीर अर्जुन-बन में गया तब वहां एक यक्ष श्रा पहुँचा । उससे उसका अपूर्व युद्ध हुआ और फिर उसने कुसुम-बाण नामक वाण दिया। (२२५) फिर वह विपुल नामक वन में गया तथा वृक्षलता के समान वह वहां खड़ा हो गया। जहां तमाल के वृक्ष थे प्रधम्न क्षण भर में वहां चला गया। (२२६) उस वन के मध्य में स्फटिक शिला पर बैठी हुई एक स्त्री जाप जप रही थी । तब विद्याधर से प्रद्युम्न ने पूछा कि यह बन में रहने वाली स्त्री कौन है। (२२७) बसंत विद्याधर ने मन में सोचकर कहा कि यह रति नाम की स्त्री है। यह अत्यन्त रूपवान एवं कमल के समान सुन्दर नेत्र वाली है, हे कुमार ! आप इसके साथ विवाह कर लीजिए। (२२८) तब. प्रद्युम्न को बड़ी खुशी हुई तथा कुमार का उससे विवाह हो गया। फिर वह प्रद्युम्न वहां गया जहां उसके पांच सौ भाई खड़े थे। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) ( २२६) वे कुमार आपस में एक दूसरे का मुंह देख कर कहने लगे कि यह मानना पड़ता है कि यह असाधारण बोर है । हमने प्रद्युम्न को सोलह गुफाओं में भेजा किन्तु वहां भी उसे वस्त्राभरण मिले । ( २३० ) प्रम्न का अपार बल देख कर कुमारों ने अहंकार छोड़ दिया । सब ने मिलकर उस स्थान पर सलाह की कि पुण्यवान के सब पड़ते हैं । ( २३१ ) भगवान अरिहन्तदेव ने कहा है कि इस संसार में पुण्य बड़ा बलवान है । पुण्य से ही सुर असुर सेवा करते हैं। पुण्य ही सफल होता है। कहां तो उसने रुक्मिणी के उर में अवतार लिया : कहां धूमकेतु राक्षस ने उसे सिला के नीचे दबा दिया और कहां यमसंवर उसे ले गया और कनकमाला के घर बढ़ा और महान पुण्य के फल से सोलह विद्याओं का लाभ हुआ तथा सिद्धि की प्राप्ति हुई । (२३२) पुण्य से ही पृथ्वी में राज्य - सम्पदा मिलती है। पुण्य से ही मनुष्य देव लोक में उत्पन्न होता है। पुण्य से ही अजर अमर पद मिलता है । पुण्य से ही जीव निर्माण पद को प्राप्त करता है। प्रद्युम्न द्वारा प्राप्त सोलह विद्याओं के नाम ( २३३ से २३६) सोलह विद्याओं को उसने बिना किसी विशेष प्रयत्न के हो प्राप्त कर लिया । चमर, छत्र, सुक्कुट, रत्नों से जटित नागशय्या, श्रीणां, पावड़ी, अग्निवस्त्र, विजयशंख, कौस्तुभमणि, चन्द्रसिंहासन, शेखर हर, हाथ में सुशोभित होने वाली काम मुद्रिका, पुष्प धनुष, हाथ के कंकण, छुरी, कुसुमाण, कानों में पद्दिनने के लिये युगल कुण्डल, दो राजकुमारियों से विवाह, सामने आये हुये हाथी को चढ़ कर वश में करना, रत्नों के युगल कंकण, फूलों की दो मालायें इनके अतिरिक्त अन्य छोटी वस्तुओं को कौन गिने । इन सब को लेकर प्रद्युम्न चला। 1 (२३) प्रद्युम्न शीघ्र ही अपने घर को चल दिया और क्षण भर में मेघकूट पर जा पहुँचा। वहां जाकर यमसंबर से भेंट की और विशेष भक्तिपूर्वक उसके चरणों में पड़ गया । (२३८) राजा से भेंट करके फिर खड़ा हो गया और रणवास में भेंट करने चल दिया । कनकमाला से शीघ्र ही जाकर भेंट की और बहुत भक्तिपूर्वक उसके चरण स्पर्श किये । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ } कनकमाला का प्रद्युम्न पर प्रासक्त होना (२३६) उस श्रेहट वीर प्रा त के अत्यधिक मनोहर रूप को देखकर कामवाण ने उसके (कनकमाला के) शरीर को छेद दिया । फिर उसने दौड़कर उसे अपनी छाती से लगाया किन्तु वह छुड़ाकर चला गया । प्रद्युम्न का मुनि के पास जाकर कारण पूछना (२४०) प्रद्य म्न फिर यहां पहुँचा जहां उद्यान में मुनीश्वर बैठे हुये थे। उनको नमस्कार कर पूछा कि जो उचित हो सो कहिये । (२५१) कनकमाला मेरी माता है लेकिन वह मुझे देखकर काम रस में डूब गयी। उसने अपनी मर्यादा को तोड़कर मुझे आंचल में पकड़ लिया । इसका क्या कारण है यह मैं जानना चाहता हूँ। (२४२) तब मुनिराज ने उसी समय कहा कि मैं वहीं बात कहूँगा जो तुम्हारे जन्म से सम्बन्धित है । मोरठ देश में द्वारिका नगरी है वहां यदुराज निवास करते हैं। (२४३) उनकी स्त्री रुक्मिणी है जिसकी प्रशंसा महीमंडल में व्याप्त है। उसके समान और कोई स्त्री नहीं है । हे मदनं, यही तुम्हारी पाना है। (२४१) धूमकेतु ने तुम्हें वहां से हर लिया और शिला के नीचे दबाकर वह चला गया | यमसंबर ने तुम्हें वहां से लाकर पाला 1 तुम वही प्रद्य म्न हो यह अपने आपको जान लो । (२४५) कनकमाला ने जो तुम्हें अंचल में पकड़ना चाहा था वह तो पूर्व जन्म का सम्बन्ध है । यदि यह तुम्हारे प्रेसरस में डूबी हुई है तो छलकर उससे तीन विधायें प्राप्त करलो । (२४६) मुनि के प्रचनों को सुनकर वह वहां से लौट गया तथा । कनकमाला के पास जाकर बैठ गया और कहने लगा कि यदि तुम मुझे तीनों विद्याए दे दो तो मैं तुम्हें प्रसन्न करने का उपाय कर सकता हूँ। (२४७) कुमार से प्रेमरस की बात सुनकर वह प्रेम लुब्ध होकर व्याकुल हो गयी । उसने यमसंबर का कोई विचार नहीं किया और तीनों विद्यायें उसको दे दी। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४८) कुमार का मन वांव पूरा पड़ जाने के कारण बड़ा खुश हुश्रा । फिर वई विद्याओं को लेकर वापिस चल दिया । (उसने कहा) मैं तुम्हारा लड़का हूँ तथा तुम मेरी माता हो । अब कोई युक्ति बतलाओ जिससे मैं तुम्हें प्रसन्न कर सकू। (२४६) तथ कनकमाला का इदय वैट गया और उसने सोचा कि मुझ से इसने कपद किया है। एक तो मेरी लज्जा चली गयी दूसरे कुमार विद्याओं को अपने हाथ लेकर चलता बना। (२५०) कनकमाला मन में दुःखी हुई । बइ सिर को कूदने एवं कुचेष्टा फरने लगी। अपने ही नखों से स्तन एवं हृदय को कुरेच लिया तथा केश बिखेर कर बेसुध हो गयी। (२५१) वह रोने और पुकारने लगी तथा उसने यमसंबर को सारी बात बतलाई । तभी पांच सौ कुमार यहां आये और कनकमाला के पास बैठ गये। . (२५२) कालसंबर से उसने कहा कि देखो इस दत्तक पुत्र ने क्या कार्य किया है ? जिसको धर्मपुत्र करके रखा था वही मुझे बिगाड़ कर चला गया। कालसंवर द्वारा प्रद्य म्न को मारने के लिये कुमारों को भेजना (२५३) वचनों को सुनकर राजा उसी प्रकार प्रज्वलिन हो गया मानों अग्नि में श्री ही डाल दिया हो । पांच सौ कुमारों को बुलाकर कहा कि शीच जाकर प्रद्युम्न को मार डालो। (२५४) तब कुमारों की मन की इच्छा पूरी हुई । इससे राजा भी विरुद्ध हो गया । सब कुमार मिलकर इकठे हो गये और चे मदन को बुलाकर वन में गाए । (२५१) तब आलोकिनी विद्या ने कहा कि हे प्रद्युम्न ! तुम असावधान क्यों हो रहे हो। यह बात मैं तुमसे सत्य कहती हूँ कि इन सबको राजा . ने तुम्हें मारने भेजा है। (२५६) तब साहसी और धीर वीर कुमार के द्ध हो गया और सब • कुमारों के नागपाश डाल दी | ZEE कुमारों को आगे रख कर शिला से बांध करके लटका दिया। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७. ) (२५) बमने एक कुमार को छोड़ दिया कि जाकर राजा को सारी बात कइ दे और कहला दिया कि अगर तुम में साहस हो तो सभी दलबल को लेकर श्रा जायो। (२५८) यमसंवर राजा बैठा हुआ था वहां यह कुमार भाग कर पुकारने लगा कि सभी कुमारों को शाबड़ी में डालकर ऊपर से बज शिला डाल दी है। जमसंबर और प्रद्य म्न के मध्य युद्ध (२५६) वचनों को सुनकर राजा बड़ा क्रोधित हुआ तथा उसने विचार किया कि आज प्रद्युम्न को समाप्त कर दूगा। रथ हाथी को सजा लिया गया तथा घोड़ों पर काठी एवं हाथी पर झूल रख दी गयी ।। (२६.. गुमधारी, पैरल चलने वाले, सहगधारी तथा अन्य सारी फौज को चलने में जरा भी देर नहीं लगी । प्रनम्न ने सेना को श्राते हुये देखकर मायामयी सेना तैयार करली । (२६१) यमसंवर की बलशानी सेना वहां जा पहुँची तथा एक दूसरे को ललकारते हो मदोन्मत्त होकर परस्पर मिड गई । युद्ध में राजा से राजा . भिड गये तथा पैदल से पैदल लड़ने लगे। (२६२) यमसंबर हार गया तथा उसकी चतुरंगिनी से को मार कर गिरा दिया गण | नब विद्याधर राजा बड़ा दु.खी हुश्रा और अपना रथ मोड करके नगर की ओर चल दिया । (२६३ जब वह अपने महल में पहुँचा तो कालसंवर ने कनकमाला से जाकर यह बात कही कि तीनों विद्यायें मुझे दे दो। (२६४) पचन सुनकर वह स्त्री बड़ी दुःखी हुई तथा ऐसी हो गई। मानों सिर पर बज गिर गया । हे स्वामी ! इन विधाओं का नो यह हुआ कि । मुझ से प्रचुम्न छीन ले गया। (२६५) स्त्री के वचन सुनकर उसका इप्रय कांप गया और उसके होश उड गये तथा हृदय विदीर्ण हो गया । मुझ जैसे व्यक्ति से भी इसने झूठ बोली । वास्तव में प्रेम रस में डूबने के कारण इसने तीन विद्याप उसको । ' दे दी और मुझ से अब छल कर रही है कि कुमार छीन कर ले गश । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) (९६६) उसका चरित्र देखकर राजा बोला कि अब उसकी ( राजा की ) मृत्यु का कारण बन गया । जो मनुष्य स्त्री में विश्वास करता है वह विना कारण ही मृत्यु को प्राप्त होता है। स्त्रो का चरित्र सुनकर वह विद्याधरों का राजा व्याकुल हो गया । स्त्री चरित्र वर्णन (२६५) स्त्री झूठ बोलती है और कूठ ही चलती है (आवरण करती हैं) अपने स्वामी को छोड़कर दूसरे के साथ भोग विलास करती है स्त्री का साहस दुगुना होता है अतः स्त्रीका चरित्र कभी भुलाने योग्य नहीं है । (२६) उसके मन में सदैव नीच बुद्धि रहती है । उत्तम संगति को छोडकर नीच संगति में जाती है। उसकी प्रकृति और देह दोनों ही नीच हैं । स्त्री का स्वभाव हो ऐसा है । (२६६) उज्जैनी नगरी जो एक उत्तम स्थान या व पहिले विच नामका राजा स्त्री पर खूब विश्वास करता था इस कारण उसे अपना जीवन ही समर्पण करना। (२०) दूसरे यशोधर राजा हुए जो कि अपनी पदरानी महादेवी से नाश को प्राप्त हुये । उसने राजा को विप पूर्णता देकर मार दिया और स्वयं कुचडे से जाकर रमने लगी । (२१) अब तीसरी स्री की बात सुनिये | पाटन नामका एक स्थान था उस काल में वहां 'या' नामका सेट था जिसके 'तोनि' नाम की सुन्दर स्त्री थी । (२७२) एक बार वह सेठ व्यापार को गया हुआ था | तब किसी ने उसे जीभ के वशीभूत कर लिया सेठ की मर्यादा छोड़कर उसने एक धूर्त्त को अपने यहां लाकर रख लिया । (२७२ ) अपने पति के प्यार को लोहकर उस चाये हुये धूर्त को उसने भतार बना लिया। इस प्रकार स्त्रियों के साहस का कोई अन्त नहीं है । इन स्त्रियों का चरित्र कितना कहा जाय । (२७४) प्रभया रानी की नीचता के कारण सुदर्शन पर संकट आया तथा उसी के कारण महायुद्ध हुआ और अन्त में सुदर्शन को तपस्या के लिये जाना पड़ा | Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७५) राम रावण में जो लड़ाई बढ़ी थी वह सूपनखा को लेकर ही बढी । सीता को हरण करने के कारण ही लंका नष्ट हुई तथा रावण का संपूर्ण परिवार नष्ट हुआ। (२७६) कौरव और पांडवों में महाभारत हुआ और कुरुक्षेत्र में महायुद्ध ठहरा । उसमें अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गयी । उसका कारण दोनों दल द्रौपदी को बतलाते थे । (२७७) फिर कालसंवर ने उससे कहा कि कनकमाला यह तेरा अपराध नहीं है । पूर्व कृत कर्मों को कोई नहीं मेट सकता । यही कारण है कि इन विद्याओं को प्रद्य म्न ले गया । (२८) अशुभ कर्म को कोई नहीं भेद सकत! । सज्जन भी देरी हो जाते हैं । हे कनकमाला ! तुम्हारा दोष नहीं है । अपने भाग्य में यही लिखा था। गाथा पुरुष के उल्टे दिन आने पर गुण जल जाते हैं, प्रेमी चलायमान हो जाते हैं तथा सज्जन विठुड जाते हैं । व्यवसाय में सिद्धि नहीं होती है। . (२७६) कालसंवर के प्रवाह में कौन बच सकता है ? फिर वह राजा वापिस मुडा और उसने अपनी चतुरंगिणी सेना को एकत्रित किया तथा दुबारा जाकर फिर लड़ने लगा। यमसंवर एवं प्रद्युम्न के मध्य पुनः युद्ध (२८०) राजा ने मन में बहुत क्रोध किया तथा धनुष चढाकर हाथ में लिया। जब उसने धनुष को टंकार की तो ऐसा लगा कि मानों पर्वत हिलने लग गये हों। (२८१) जब दोनों वीर रण में आकर भिंड तो विमानों में चढ़े हुये . देवता गण भी देखने लगे । निरन्तर बाए बरसने लगे तथा ऐसा लगने लगा कि असमय में बादल खूब गर्ज रहे हों । (२८२) सब प्रद्युम्न बड़ा कोधित हुआ तथा उसने नागपाश को फेंका। परा दल नागपाश द्वारा दृढ़ता से बांध लिया गया और राजा अकेला खड़ा रह गया। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) (२८३) ऐसा करके प्रद्युम्न कहने लगा कि मैंने कालसं घर की सम्पूर्ण सेना को नष्ट कर दिया ! जब प्रथा म्ल इस प्रकार नाह रहा कालोप वहां आ पहुंचे। नारद का आगमन एवं युद्ध की समाप्ति (२८४) प्रद्युम्न से उन्होंने कहा कि बस रहने दो । पिता और पुत्र में कैसी लहाई ? जिस राजा ने तुम्हारी प्रतिपालना की थी उससे तुम किस प्रकार लड़ रहे हो? (१८५) नारद ने सारी बात समझा करके कही तथा दोनों दलों को लड़ाई शान्त कर दी। कालसंवर तुम्हारे लिये यह उचित नहीं है क्योंकि यह प्रद्युम्न तो श्रीकृष्ण का पुत्र है। (२८६) नारद के वचन सुनकर मन में विचार उत्पन्न हुआ । राजा का दिल भर आया तथा उसका सिर चूम लिया । राजा को बहुत पछतावा हुना कि अपनी चतुरंगिनी सेना का संहार हो गया । (२८) तन्त्र प्रद्य म्न ने क्रोध छोड दिया । मोहिनी विद्या को इटा कर सब की मूर्छा को उतार दिया । नागपाश को जब वापिस छुड़ा लिया तो चतुरंगिनी सेना फिर से उठ खड़ी हुई । (च) सेना के उठ खड़े होने से राजा प्रसन्न हुआ तथा प्रद्युम्न के प्रति बहुत कृतज्ञता प्रकट करने लगा । नारद ऋपि ने उसी समय कहा कि तुम्हारी घर प्रतीक्षा हो रही है । (REE) यदि इमारे वचनों को मन में धारण करो तो शीघ्र ही घर की ओर मुंह करलो । चायु के वेग के समान तुम द्वारिका चलो । श्राज तुम्हारा विवाद है। (२६०) प्रशन्न ने नारद से कहा कि तुमने सच्ची बात कही है। मुझे जो केवली भगवान ने कही थी सो मिल गयी है। तब हंसकर के प्रद्युम्न बोला कि हमको कौन परणावेगा ? नारद एवं प्रद्य म्न द्वारा विद्या के बल विमान रचना (२६१) नारद ने क्षण भर में विमान रच दिया किन्तु प्रद्युम्न ने उसे इंसी में तोड डाला । मुनि ने विमान को फिर जोड़ दिया किन्तु प्रद्युम्न ने उसे फिर तोड़ दिया। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) (२६.२ ) जब नारद दुःखित मन हुये तो मदन ने हंस करके उपाय किया और माफि और मणियों से सज्जित एक विमान क्षण भर में तैयार कर दिया . (२.१.३) प्रद्यु न ने जिस विद्या बल से विमान को रचा था उस विमान ने अपनी कान्ति से सूर्य और चन्द्रमा की कान्ति को भी फीका कर दिया । व ध्वजा, वंटा एवं झालर संयुक्त था । प्रद्युम्न चढ़ा 1 इस पर नारायण का पुत्र (२६४) चढने के पूर्व कालसंबर को बहुत समझा करके अति भक्ति भाव से उसके चरणों का स्पर्श किया। कुमार ने तब क्षमा याचना की और कंचनमाला के घर गया । (२६५) कुमार प्रयुम्न एवं नारद मुनि विमान पर चढ़ कर आकाश में उड़े | बहुत से गिरि एवं पर्वत को लांघ करके जिन मन्दिरों की वन्दना की । (२६६) फिर वे वन मध्य पहुँचे तो उस स्थान पर उदधि माला दिखाई दी। प्रयम्न को मार्ग में बरात मिली जो भानुकुमार के विवाह के लिये द्वारिका जा रही थी । (२६७) नारद ने पद्य म्न से बात कही कि यह कुमारी पहिले तुम्हीं को हो गयी थी। तुमको जब धूमकेतु दर ले गया तो उसे अब भानुकुमार को दे दी गई है । (२६) नारद ने कहा कि इसमें मुझे दोष कोई नहीं मालूम होता है । यदि तुम्हारे में शक्ति है तो इसको जबरन ले लो। ऋषिराज के वचनों को मन में धारण करके उसने अपना भील का भेष कर लिया । प्रद्युम्न द्वारा भील का रूप धारण करना (२६६ ) हाथ में धनुष तथा विपाक्क बाश ले लिया और उतर कर उनके साथ सिल गया। पवन के वेग के समान आगे जाकर उनका मार्ग रोक कर खड़ा हो गया । (३००) मैं नारायण की ओर से कर लेने वाला हूँ इसलिये मेरी अधिक लाग है वह मुझे दो। जो मेरे योग्य अच्छी चीज है वही म दे दो जिससे मैं सब लोगों को जाने दू । 1 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०१) महिलाओं ने कहा कि हमारी बात सुनो तुम कौनसी चड़ी यस्तु मांगले हो । धन सम्पत्ति सोना जो चाहे माले लो और हमको आगे जाने दो। (३४२) भील ने क्रोधित होकर उनको जाने दिया तथा कहा कि से जाने से क्या लाभ है। जो भली अन्तु तुम्हारे पाप है. वही मुझे दे दा और आगे बढो। (३०३) तब महिलाओं ने उसका मुंह देख कर कहा कि एक कुमारी जो हमारे पास है उसका तो इरि के पुत्र भानु से सगाई कर दी गयी है। अरे मोल ! नुम और क्या मांग रहे हो। (३.१) उस भील वीर ने कहा यही (कुमारी) मुझे दे दो जिससे मैं आगे तुमको मार्ग दू । महिलाओं ने क्रोधित होकर कहा कि अरे भोल यह कहना तुझे उचित नहीं है। १३०५) महिलाओं के वाक्यों को सुनकर विचार करके कहने लगा कि मैं नारायण का पुत्र इन बानयों में तुम सन्देह मत करो और उदधि माला को मुझे दे दो। (३०६) महिला ने कहा कि हे नटखट तुम झूठ बोलने में बहुत आगे हो । जो तीन खंड पुत्री का राजा है, क्या उसके पुत्र का ऐसा भेप होता है ? (३०५) तब वे सीधे मार्ग को छोड़कर टेढ़े मेढे मार्ग से चले तो उधर भी दो कोडी (४०) भील मिल गये । सधाम कवि कहता है कि तब भील ने कहा कि यदि मैं कन्या को बल पूर्वक छीन लू तो मेरा दोष मत समझना । प्रद्य म्न द्वारा उदधिमाला को यलपूर्वक छीन लेना (३७५) तब उसने कुमारी को छीन लिया और मुड करके विमान पर मा गया | भील को देखकर वह कुमारी मन में बहुत इरी और करुण विलाप करने जगो। (३०६.) पहिले मेरी प्रशम्न के माथ नगाई हुई फिर भानुकुमार के साथ विवाह करने के लिये चज्ञो । ई नारद मेरी बात सुनो अब मैं भील के हाथ पड़ी हूँ। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२:१६ ) (३१०) उदधि माला ने कहा अब मुझे पञ्च परमेष्टियों की शरण है। यदि मृत्यु न होगी तो मैं सन्यास ले लूंगी । तव नारद के मन में संदेद्द हुआ कि इमने बहुत बुरी बात कही है । ( ३११) नारद ने उसी समय कहा कि यह कामदेव अपनी कलाए दिखा रहा है। तब प्रद्युम्न ने बत्तीस लक्षण वाले एवं स्वर्ण के समान प्रतिभा वाले शरीर को धारण कर लिया और जिससे उसका शरीर कामदेव के समान हो गया । (३१२) उस सुंदरी उदधिमाला को समझा कर वे विमान से शीघ्र चलने लगे । विमान के चलने में देर नहीं लगी और वे द्वारिका के बाहर पहुँच गये । ( ३१३) नगर को देखकर प्रद्युम्न बोले कि जो मोतियों और रत्नों से चमक रही है, धन धान्य एवं स्वण से भरी हुई है। हे नारद ! वह कौनसी नगरी है ? नारद द्वारा द्वारिका नगरी का वर्णन ( ३१४ ) नारद ने कहा कि हे प्रधुम्न सुनो यह द्वारिकापुरी है जो सागर के मध्य में दृढ़ता से बसी हुई है यह तुम्हारी जन्मभूमि है। शुद्ध स्फटिक मणियों से जड़ी हुयी उज्ज्वल है। क्रूवे, बावड़ी तथा सुन्दर भवन, बहुत प्रकार के जिनेंद्र भगवान के मन्दिर, चारों ओर परकोट एवं दरवाजे से वेष्टित यह द्वारिका नगरी है । (३१५) यह सुनकर वीर प्रयम्न ने कहा कि हे नारद मेरे वचन सुनो। मुझे स्पष्ट को तथा कुछ भी मत छिपाओ । हे प्रद्युम्न ध्यान पूर्वक देखो जो जिसका महल है (वह मैं तुमको बतलाता हूँ । (३१६) नगर मध्य जो श्वेत वर्ण वाला एवं पांचों वर्णों की मणियों से जड़ा हुआ तथा सुन्दर महल है जिस पर गरुड़ की ध्वजा अत्यन्त सुशोभित है यह नारायण का महल है । (३१७) जिसके चारों ओर सिंह ध्वजा हिल रही है उसे बलभद्र का जानो । जिसकी ध्वजा में मैदे का चिन्ह है यह वसुदेव का महल है । मद्दल Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७) (३१५) जिसकी ध्वजा पर विद्याधर का चिन्ह है जहां ब्राह्मगा बैठे . हुये पुराण पढ़ रहे हैं तथा जहां बहुत कोलाहल हो रहा है वह सत्यभाम। का महल है। (३१६) जिस महल पर सोने की मालायें चमक रही है जिस पर बहुत सी बजायें फहरा रही है, जिसके चारों ओर मरकत मणियां बमक रही हैं वह तुम्हारी माता का महल है । (३२०) इन बचनों को सुनकर प्रद्य म्न जिसके कि चरित्र को कौन नहीं जानता बड़ा हर्षित हुआ । विमान से उतर करके वह खड़ा हो गया और . नगर में चल दिया। प्रद्य म्न का भानुकुमार को आते हुये देखना (३२१) चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित उसने भानुकुमार को आने हुए देखा । तब प्रगुम्न ने विद्या से पूछा कि यह कोलाहल के साथ कौन था रहा है ? (३२.२) हे प्रद्य म्न ! सुनो मैं तुम्हें विचार करके कहती हूँ। यह नारायण का पुत्र भानुकुमार है। यह वहीं कुमार है जिसका विवाह है। इसी कारण नगर में बहुत उत्सव हो रहा है। प्रद्युम्न का मायामयी घोड़ा बनाकर बृद्ध ब्रामण का मेष धारण करना (३२३) वहां प्रद्य म्न ने मन में उपाय सोचा कि मैं इसको अच्छी तरह पराजित करुंगा । उसने एक बूढे विप्र का भेष बना लिया तथा मायामयी चंचल घोड़ा भी बना लिया । (३२४) वा घोड़ा बड़ा चंचल था तथा जोर से हिनहिना रहा था। जिसके चारों पांव उज्ज्वल एवं धुले हुये दिखते थे। जिसके चार चार अंगुल के कान थे। जो लगाम के इशारे को पहिचानता था । (३२५) जिस पर स्वर्ण की काठी रखी हुई थी ! वह ब्राह्मण उसकी लगाम पकड़ करके आगे चल रहा था। अकेले भानुकुमार ने उसको देखा कि ब्राह्मण वृद्ध है किन्त घोड़ा सुन्दर है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) (३२६) घोड़े को देखकर भानुकुमार के मन में यह पाया कि चल कर ब्राह्मण से पूछना चाहिये । फिर उसने ब्राह्मण से पूछा कि यह घोड़ा लेकर कहां जाओगे? (३२७) ब्राह्मण ने कहा कि घोड़ा अपना है। समंद जाति का ताजी बलख घोड़ा है । भानुकुमार का नाम सुन कर मै घोड़े को उनके यहां लाया हूँ। १३२८) भानुकुमार के मन में विचार हुश्रा और उसने ब्राह्मण को बहुत प्रसन्न करना चाहा । हे विष सुनो ! मैं कहता हूँ कि तुम जो भी . इसका मोल मांगोगे वही मैं तुमको दे दूंगा। (३२६) तब विष ने सत्यभाव से जो कुछ मांगा वह भानुकुमार के मन को अच्छा नहीं लगा । भानुकुमार बहुत दुखो हुअा कि इस विप्र ने मेरा मान भंग किया है। (३३०) विप्र ने भानुकुमार को कहा कि मैंने तो मांग लिया है यदि तुम उतना नहीं दे सकते हो तो न देओ। मैंने तो तुमसे सत्य कह दिया । यदि इसे इसी समझते हो तो इसे दौड़ा कर के देख लो। भानुकुमार का घोड़े पर चढना (३३१) ब्राह्मण के वचन सुन कर कुमार (भानु) मन में प्रसन्न हुया . और घोड़े पर चढ़ गया। लेकिन वह उस घोड़े को सम्हाल नहीं सका और उस घोड़े ने भानुकुमार को गिरा दिया । . (३३२) भानुकुमार गिर गया यह बड़ी विचित्र बात हुई इससे मभा में उपस्थित लोगों ने उसकी हंसी की। वे कहने लगे यह नारायण का पुत्र है और इसके बराबर कोई दूसरा सवार नहीं है। (३३३) विप्र ने कहा कि तुम क्यों चढ़े ? इन तरुण से तो इम वृद्ध ही अच्छे हैं । मैं बहुत दूर से अाशा करके आया था किंतु हे भानुकुमार तुमने मुझे निराश कर दिया। (३३४) हलधर ने वित्र से कहा डरो मन | तुम ही इस घोड़े पर क्यों नहीं चढते हो ? हे ब्राह्मण यदि तुम इसका ठहराव (बेचना) चाइते हो तो " अपना कुछ पुरुषार्थ दिखलाओ। प्रद्युम्न का घोड़े पर सवार होना (३३५) कुमार ने दस बीस लोगों को ब्राह्मण को घोड़े पर चढाने के लिये भेजा तब ब्राहाण बहुत भारी हो गया और उनके सरकाने से भी नहीं सरका। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) (३६६) तब ब्राह्मण को घोड़े पर चढाने के लिये भानुकुमार श्राया। लेकिन यह लटक गया और उसे चढा नहीं सका । जब दस बीस ने जोर लगाया तो बद्द भानुकुमार के गले पर पांव रख कर चढ गया । (३३७) जब ब्राह्मण घोड़े पर सरार हुआ तो वह घोड़ा आकाश में घूमने लगा। सभा के लोगों में देखकर लता शाकई कि कि या ते उसका चमत्कार ही है कि यह ऊपर उड़ गया । प्रद्युम्न का मायामयी दो घोड़े लेकर उद्यान पहुँचना (३३८) फिर उसने अपना रूप बदल लिया और दो घोड़े पैदा कर लिये । राजा का जहां उद्यान था वहां यह घोडों को लेकर पहुंच गया। (३३६) जब प्रद्युम्न उस उद्यान में पहुंचा तो वहां के रक्षक क्रोधित होकर उठे और कहा कि इस उद्यान में कोई नहीं चरा सकता । यदि घास काटोगे तो किरकिरी होगी। (३४०) प्रद्युम्न ने अपने क्रोधित मन को बड़ी कठिनता से सम्हाला और रखवालों से ललकार करके कहा, भूखे घोड़ों को क्यों नहीं चरने देते हो। घास का कुछ मुझ से मोल ले लेना। (३४१) तब उनकी बुद्धि फिर गई और उनको प्रद्य म्न ने काम मूबड़ी उतार कर दे दी। रखवाले हँसकर के बोले कि दोनों घोड़े अच्छी तरह घर लेवें। (३४२) घोड़े फिर फिर के उद्यान में चरने लगे और नीचे की मिट्टी को खोद कर ऊपर करने लगे । तब रख वाले छाती कूटने लगे कि इन दोनों घोड़ों ने तो उद्यान को चौपट कर दिया। (३४३) उन्होंने वह काम मूदड़ी प्रद्युम्न को लौटा दी जिसको उसने अपने हाथ में पहनली | तब यह धीर वहां पहुँच। जहां सत्यभामा की बाड़ी थी। (३४४) प्रध म्न बाड़ी में पहुँचा तो उस स्थान पर बहुत से वृक्ष दिखलायी दिये । वे कल के लगे हुए थे यह कोई नहीं जानता था । फुलवारी विविध प्रकार से खिली हुई थी। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) उद्यान में लगे हुये विभिन्न घृक्ष एवं पुष्पों का वर्णन (३४५) जिसमें चमेली, जुही, पाटल, कचनार, मोलश्री की वेल थी। कणवीर का ज महक रहा था। केवड़ा और चंपा खूब खिले हुये थे। (३४६) महां कुद, अगर, मंदार सिन्दर एवं सरीष आदि के पुष्प महक रहे थे। मरुवा एवं केलि के सैकड़ों पौधे धे तथा उस बगीचे में , कितने ही नीचुओं के वृक्ष सुगंधि फैला रहे थे । (३४७) आम जंभीर एवं सदाफल के यहुन से पेड थे। तथा जहां बहुत से दाडिम के वृक्ष थे । केला, दाख, विजौरा, नारंगी, करणा एवं खीप के कितने ही वृक्ष लगे हुए थे। (३४८) पिंडखजूर, लोंग, छहारा, दाख, नारियल एवं पीपल आदि के असंख्य वृक्ष थे । वह वन कैथ एवं प्रांवलों के वृक्षों से युक्त था। प्रद्युम्न का दो मायामयी बन्दर रचना (३४६) इस प्रकार को बाड़ी देख कर उस वीर को बहुत आश्चर्य ' हुश्रा। उसने धैर्य और साहस पूर्वक विचार कर के दो बंदरों को उत्पन्न किया जिनको कोई भी न जान सका। (३५०) फिर उसने दोनों बंदरों को छोड दिया जिन्होंने सारी बाही को खा डाला। जो फूलबाडी अनेक प्रकार से फूली हुई थी उसे इन बंदरों ने नष्ट कर डाला। (३५१) फिर उन बंदरों को मुझा कर दूसरी ओर भेजा जिन्होंने वहां के सत्र वृक्ष तोड डाले । फूलबाड़ी का संहार करके सारी बाटिका को चौपट कर दिया। (३५२) जिस प्रकार इनुमान ने लंका की दशा की थी वैसे ही उन दोनों बंदरों ने याडी की हालत कर दी । तब माली ने जहां भानुकुमार बैठा हुधा था यहां जाकर पुकार की। (३५३) माली ने हाथ जोड़कर कहा कि हे स्वामी मुझे दोष मत देना । वो बन्दर वहां आकर बैठे हैं जिन्होंने सारी बाड़ी को खा डाला है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) (३५४) ज्यों ही माली ने पुकार की, भानुकुमार हथियार लेकर रथ पर चढ़ गया तथा पवन के समान वहां दौड़ करके अाया ज बन्दरों ने बाड़ी को चौपट कर दिया था। प्रद्य म्न द्वारा मायामयी मच्छर की रचना ((३५५) तब प्रद्युम्न ने एक मायामयी मच्छर की रचना की । जहां भानुकुमार थ। उस स्थान पर उसे भेज दिया । मच्छर के काटने से भानुकुमार वहां से भाग गया । (३५६) भानुकुमार भाग करके अपने मन्दिर में चला गया । उस समय दिन का एक पहर बीत गया था। प्रद्य म्न को बहुत सी स्त्रियां मिली जो मासुकुमार के तेन्त पड़ने जा रई थी। प्रद्युम्न द्वारा मंगल गीत गाती हुई स्त्रियों के मध्य विघ्न पैदा करना (३५७) तेल चढा करके उन्होंने श्रृंगार किया और वे भले मंगल गीत गाने लगी । कुमार रथ पर चढा तथा स्त्रियां खड़ी हो गई और फिर कुम्हार के यहां (चाक) पूजने गई । (३५८) तब प्रद्युम्न ने एक कौतुक किया और रथ में एक घोड़ा और एक द जोत कर चल दिया । कंद और घोड़ा अरडा करके उठे और भानुकुमार को गिरा कर घर की ओर भाग गये | (३५६) भानुकुमार के गिरने पर वे स्त्रियां रोने लगी तथा जो गाती हुई आयी थीं वे रोती हुई चली गयीं । जब ऊंट और घोड़ा अरड़ा कर उठे उससे बड़ा अपशुकुन हुआ जिसको कहा नहीं जा सकता। प्रद्य म्न का वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर सत्यभामा की बावड़ी पर पहुँचना (३६०) फिर प्रद्युम्न ने ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया और धोती पहिल कर कमंडलु हाथ में ले लिया । स्वाभाविक रूप से लकड़ी टेकता हुधा चलने लगा और कुछ देर पश्चात् यावड़ी पर जा पहुँचा । (३६१) वहां जाकर वह खड़ा हो गया जहां सत्यभामा की दासी खड़ी थी। वह कहने लगा कि भूखे प्रामए को जिमामो तथा जल पीने के लिये कमंडलु को भर दो। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) (३६२) उसी क्षण दासी ने कहा कि यह सत्यभामा' की बावड़ी है यहां कोई पुरुष नहीं आ सकता है । हे मूर्ख ब्राण तुम यहां कैसे प्रा गये ? (३६३) तब ब्राह्मण उसी समय क्रोधित हो गया ! उसने किसी का सिर मड लिया, किसी का नाक और किसी के कान काट लिये। फिर उसने बावड़ी में प्रवेश किया। विद्या बल से बावड़ी का जल सोखना (३६४) उसने अपनी बुद्धि से कोई उपाय सोचा और जल सोषिणी विद्या को स्मरण क्रिया । यह ब्राह्मण कमंडलु को भर कर बाइर निकल पाया जिससे बावड़ी सूख कर रीती हो गई। कमंडलु से जल को गिरा देना (३६४) बावड़ी को सूखी देख कर स्त्रियों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह ब्राह्मण बाजार के चौराहे पर चला गया । दासी ने दीव करके उसका हाथ पकड़ लिया जिससे कमंडलु फूट गया और उसका जल नदी के समान बहने लगा। (३६६) पानी से बाजार डूब गया और व्यापारी लोग पानी २ चिल्लाने लगे। नगर के लोगों के लिए एक कौतुक करके वह यहां से . चल दिया। प्रद्युम्न को मायामयी मेंढा बनाकर वसुदेव के महल में जाना (३६७) फिर उस प्रद्युम्न ने मन में सोचा और उसने एक मायामयी मेंढा बना लिया । उसे वह वसुदेव के महल पर लेकर पहुँच।। तब काठीया (पहरेदार) ने जाकर सूचना दी। (३६८) वसुदेव ने प्रसन्नता से उससे कहा कि उसे शीघ्र ही भीतर बुलायो । काठीया ने जाकर सन्देश कहा और वह मेंढा लेकर भीतर चला गया । (३६६) उसने मेंढे को बिना शंका के खड़ा कर दिया । राजा ने हंस कर अपनी टांग भागे कर दी ! तत्र प्रद्युम्न ने कहा कि इस प्रकार टांग फैलाने का क्या कारण है? Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) (३७०) प्रध म्न ने हंस कर कहा कि मैं परदेशी ब्राह्मण हूँ। हे देव । यदि तुम्हारी टाँग में पीड़ा हो जावेगी तो मैं कैसे जीयित बगा। (३७१) फिर बसुदेव ने हंसकर उससे यह बात कही कि तुम्हारा दोष नहीं है तुम अपने मन में शंका मत करो । मेरी टाँग कैसे टूट जावेगी। (३७२) तब उसने मेंढ़े को छोड़ दिया । सभा के देखते देखते उसने वसुदेव की दांग तोड़ दी। दांग तोड़ कर मेंढा वापिस आ गया और वसुदेव राजा भूमि पर गिर पड़े। (३७३) जब वसुदेव भूमि पर गिर पड़े तो छप्पन कोटि यादय सिने लगे। फिर वह उस पूरी सभा को इंसा करके सत्यभामा के घर की ओर चल दिया। प्रय म्न का ब्राह्मण का भेष धारण कर सत्यभामा के महल में जाना (३७४) पीली धोवती तथा जनेउ पाहिन कर चन्दन के बारह तिलक लगाये । धारों वेदों का जोर से पाठ पढ़ता हुआ वह ब्राह्मण पटरानी के घर पर जा पहुंचा। (३७५) वद सिंह द्वार पर जाकर खड़ा हो गया तो द्वारपाल ने अन्दर जा कर सूचना दी । सत्यभामा ने अपने अन्य ब्राह्मणों को (वेद पाठ आदि क्रियाओं से) रोक दिया । (३७६) सत्यभामा ने जब उसको पढ़ता हुआ सुना तो उसके हृदय में भाव उत्पन्न हुआ और उसको अन्दर बुला लिया। जब रानी का बुलावा पाया तो वह लकड़ी टेकता हुश्रा भीतर चला गया। (३७७) हाथ में अक्षत एवं जल लेकर रानी को उसने आर्शीवाद दिया । रानी प्रसन्न होकर कहने लगी कि हे विप्र ! कृपा करो और जिस वस्तु पर तुम्हारा भार हो वही मांग लो। (३७८) फिर सिर हिलाते हुये ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारी बोली सच्ची हो। मैं तुमसे एक ही सार बात कहता हूँ कि भूखे ब्राह्मण को भोजन दो। (३) रानी ने पटायत से कहा कि यह भूखा खड़ा चिल्ला रहा है। इसे अपनी रसोई घर में ले जाओ और जो भी मांगे वही खिलादो। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) से (३८०) उसने वह एकत्रित अन्य ब्राह्मणों से कहा कि तुम बहुत हो और मैं अकेला हूँ । वेद और पुराण में जिसको अच्छा बतलाया गया है उस एक उत्तम आहार को तुम बतलादो । (३१) वां त्रह्मणों को लड़ते हुये देख कर सत्यभामा ने कहा कि अरे तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ रहे हो । एक तो तुम एक दूसरे के ऊपर बैठे हो और फिर आपस में लड़ने हो ? ·n (३२) अब प्रयम्न की बात सुनो। उसने अपनी जुमणी विद्या को भेजा जिससे ब्राह्मण आपस में लड़ने लगे तथा एक दूसरे का सिर फोड़ने लगे । (३८३) रानी ने बात समझा करके कहा कि इन लड़ने वालों को वायु लग गई है जो दूर हो जायें उसे भोजन डाल दो नहीं तो उसे बाहर निकाल दो | (३८४) तन ने कहा कि भूखे साधुओं की भूख शान्त कर दो । सुनो हमें भूख लग रही है हमको एक मुठ्ठी श्राहार दे दो । (३८५) सत्यभामा ने तब क्या किया कि एक स्वर्ण थाल उसके आगे रख दिया । हे ब्राह्मण ! बैठ कर भोजन करो तथा उनकी सब बातों की ओर ध्यान मत दो। (३६) वह ब्राह्मण अर्द्धासन मार कर बैठ गया और अपने आगे उसने चौका लगाया। हाथ धोने के लिये लौटा दिया। थाल परोस दिया तथा नमक रख दिया । प्रथम्न का सभी भोजन का रखा जाना → (३८७) चौरासी प्रकार के बनाये हुये बहुत से व्यञ्जन उसने परोसे। बड़े बड़े थाल के थाल परोस दिये और वह एक ही प्रास में सबको खा गया । (३८८) चावल परोसे तो चावल खा गया । स्वयं रानी भी वहां आकर बैठ गयी। जितना सामान परोसा था वह सब खा गया। बड़ी कठिनता से वह पत्तल बची। (३८६) उस ब्राह्मण ने कहा कि हे रानी सुनो। मेरे पेट में अधिक ज्वाला उत्पन्न हुई है । उन लोगों को परोसना छोड़ कर मेरे आगे लाकर सामान डाल दो | Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (e) (३६०) जितने लोग जीमन के लिये आमंत्रित थे उन सबका भोजन उस ब्राह्मण को परोस दिया गया। नारायण के लिये जो लड्डु अलग रखे हुये थे वे भी उसने खा लिये । (३६१ ) तब रानी मन में बढ़ी चिन्ता करने लगी कि इसने तो सभी रमोई खा डाली है । यह ब्राह्मण तो अब भी तृप्त नहीं हुआ है और भूखा भखा कह कर चिल्ला रहा है | (३६२) उस वीर ने कहा कि यह तो बड़ी बुरी बात है कि तूने नगर के सब लोगों को निमंत्रित किया है। वे श्राकर क्या जीमेंगे तू एक ब्राह्मण को भी तृप्त नहीं कर सकी । (३६३) रानी के चित्त में विचार पैदा हुआ कि अब इसको कहां से क्या लाकर पलूंगी अब भूखे ब्राह्मण ने क्या किया कि अपने मुह में अगुली डाल कर उल्टी कर दी। (३६४) उस ब्राह्मण ने क्या कौतुक किया कि सब खाली बर्तनों को उल्टी से भर दिया । इस प्रकार वह रानी का मान भंग करके वहां से खड़ा हो गया । प्रद्युम्न का विकृत रुप धारण बनाकर रुक्मिणी के घर पहुँचना (३६५) मूंड मुंडा कर तथा कमंडलु हाथ में लेकर झुका हुआ ह कुबड़ा बन गया । वह वहां से लौटा। उसके बड़े बड़े दांत थे तथा कुरूप देह थी | वह अपनी माता के महल की ओर चला । (३६६) रुक्मिणी क्षण क्षरण में अपने महल पर चढती थी और क्षण क्षरण में वह चारों ओर देख रही थी कि मुझ से नारद ने यह बात कही थी कि आज तेरे घर पुत्र आवेगा । (३६७) मुनि ने जिन जिन बातों को कही थी वे सब चिन्ह पूरे हो रहे हैं । मनोहर श्राम्र के वृक्ष करते हुये देखे तथा उसका श्रांचल पीला दिखाई देने लगा | (३६८) सूखी बावड़ी नीर से भर गयी। दोनों स्तनों में दूध भर आया तब रुक्मिणी के मन में आश्चर्य हुआ इतने ही में एक ब्राह्मचारी वहां पहुँचा । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३) (IEE) तब रुक्मिणी ने नमस्कार किया तथा उस खोड़े ने धर्म वृद्धि हो ऐसा कहा । विनय पूर्वक उसने उस ब्रह्मचारी का श्रादर किया तथा स्वर्ण सिंहासन बैठने के लिये दिया । (१००) रुक्मिणी ने तो समझा कर के क्षेमकुशल पूछा किन्तु वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा । रुक्मिणी ने अपनी सखी को बुलाकर सब बात बता दी तथा इसका जीमन कराओ और कुछ भी देर मत लगानो ऐसा कहा । (४०१) तत्काल बह जीमन कराने के लिये उठी तो प्रद्युम्न ने अग्नि स्तंमिनी विद्या को याद किया । उस मारमा न तो भोजन ही पल मका और चूल्हा धुआँ धार हो गया तथा वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा । (४८२) मैं सत्यभामा के घर गया था लेकिन वहां भी खाना नहीं मिला तथा उल्टा भूखा रह गया। जो दिया वह भी छीन लिया । इस प्रकार मेरे तीन लंघन हो गये हैं। (४०३) सक्मिणी ने चित्त में मोचा और उसको लड़ लाकर परोस दिये । एक मास तक खाने के लिये जो लह, रस्ने हुये थे वे सब कुबड़े रुप धारी प्रद्युम्न ने खा लिये। (१०४) जिस आधे लड़ को म्या लेने पर नारायण पांच दिन तक तृप्त रहते थे। तब रुक्मिणी ने मन में विचारा कि कुछ कुछ समझ में आता है कि यही वह है अर्थात् मेरा पुत्र है। (४०५) तब रानी के मन में श्राश्चर्य हुआ कि इस प्रकार का पुत्र किस घर में रह सकता है। ऐसा पुत्र उत्पन्न हो सकता है यह कहा नहीं जा सकता । नारायण को कैसे विश्वास कराया जाय । {१८६) तब सक्मिणी के मन में संदेह पैदा हुआ कि यह कालसंबर 1 के घर बड़ा हुआ है वहां उसने कितनी ही त्रियाएं सीख ली है यह उसी विद्या बल का प्रभाव है। . (४४) यह विचार कर रुक्मिणी ने उनसे पूछा कि हे महाराज प्रारका स्थान कौनसा है। आपका श्रागमन कहाँ से हुआ है तथा किस गुरु ने आपको दीक्षा दी है। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) (४०८) आपको कौनसी जन्मभूमि है तथा माता पिता के सम्बन्ध में मुझे प्रकाश डालिये। फिर उसने विनय के साथ पूछा कि आपने यह न किस कारण ले रखा है ? (४०६ ) तब वह क्रोधित होकर बोला कि बाह्य गुरु के देखने से क्या होगा । गोत्र नाम तो उससे पूछा जाता है जिसका विवाह मंगल होने वाला होता है। (४१०) हम परदेशी हैं देश देशान्तर में फिरते रहते हैं । भिक्षा मांग करके भोजन करते हैं। तू प्रसन्न होकर हमको क्या दे देगी और रूठ जाने पर हमारा क्या ले लेगी । (४११) जब वह खोडा क्रोधित हुआ तो उससे रुक्मिणी मन में उदास हो गयी। वह हाथ जोड़कर उसे मनाने लगी। मेरी भूल हो गयी थी आप दोष मत दीजिये | (४१२) तत्र मधु ने उस समय कहा कि माता मुझे मत से क्यों भूल गयी हो। मुझे सच्चा प्रद्य ुम्न समझो तथा मैं पूछूं जिसका जवाब दो । (४१३ ) तब मन में प्रसन्न होकर उसने ( रुक्मिणी) जिस प्रकार अपना विवाद हुआ था तथा जिस प्रकार प्रद्युम्न हर लिया गया था सारा पीछे का कथान्तर कक्षा | (४१४) उसे धूमकेतु हर ले गया था फिर उसे यमसंबर घर ले गया । मुझे यह सब बात नारद ने कही थी तथा कहा था कि आज तुम्हारा पुत्र घर थावेगा । (४१५) और जो मुनि ने वचन कहे थे उसके अनुसार सब चिह्न पूरे हो रहे हैं। लेकिन अब भी पुत्र नहीं आवे तो मेरा मन दुखित हो जावेगा । ( ४१६) सत्यभामा के घर पर बहुत उत्सव हो रहा है क्योंकि आज भानुकुमार का विवाह है। मैं आज होड़ में हार गयी हूँ तथा कार्य की सिद्धि नहीं हुई है। इसी कारण मेरा मस्तक आज मूंडा जावेगा । (४१७) प्रद्युम्न माता के पास पूरी कथा सुनकर हाथ से पकड़ कर अपना माथा चुना। मन में पछतात्रा मत करो तथा मुझे हो तुम अपना पुत्र मिला हुआ जान लो | Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८ ) (४१८) उसी समय प्रष्ट्य म्न ने विचार किया और बहु रूपिणी विद्या को स्मरण किया । अपी को रासने श्रोगरा का टिंग और दूसरी मायामयी रुक्मिणी बना दी। सत्यभामा की स्त्रियों का रुक्मिणी के केश उतारने के लिये आना (४१) इतने में सत्यभामा की ओर से बहुत सी स्त्रियां मिल कर . स्था नाई को साथ लेकर चली और जहां मायामयी रुक्मिणी थी वहां वे आ पहुँची। (४२०) पांव पडकर उससे निवेदन किया कि उन्हें सत्यभामा ने उसके पास भेजी हैं । हे स्वामिनी तुम अपने मन में हीनतामत लामो तथा भंवरों के समान अपने काले केशों को उतारने दो। (४२१) वचनों को सुनकर सुदरी ने कहा कि तुम्हारा बोल सच्चा हो गया है । अन्ध कामदेव (प्रद्य म्न) का चरित्र मुनो कि नाई ने अपना ही सिर मूद लिया। प्रद्य म्न द्वारा उनके अंग काट लेना (४२२) उस नाई ने अपने हाथ की अंगुली को काट लिया और साथ की स्त्रियों को भी मूड लिया। उनके नाक कान खोड़े कर दिये फिर वे सब वापिस अपने घर की ओर चल दी । (४२३) वे स्त्रियां गाती हुई नगर के बीच में से निकली । किस पुरुष ने इन स्त्रियों को विकृत रूप कर दिया है. ? सबको यह बड़ा विचित्र अर्चमा हुआ और नगर के लोग इसी करने लगे। १४२४) उसी क्षण वे रणवास में गयीं और सत्यभामा के पास जाकर खड़ी हो गयीं । उनका विपरीत रूप देखकर वह बोली कि किसने तुम्हारा विकृत रूप कर दिया है ? (१२५) तम वे दुःखि। छोकर कहने लगी कि हम रुक्मिणी के घर गयी थीं । जब उन्होंने टटोल कर अपने नाक कान देखे तो वे माई की तरह रोने लगीं। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९) (४२६) इस घटना को सुनकर खबर देने बाने गुप्तचर वहां आये जहां रणवास में रुक्मिणी बैठी हुई थी तथा कहने लगे कि बहुत सी स्त्रियों के सिर मूडकर और नाक कान काट कर विकृत रूप बना दिया है, ऐसा हमने सुना है। (४२७) इस बात को सुनकर रुक्मिणी ने कहा कि निश्चय रूप से यही प्रद्य म्न है । हे वीरों में श्रेष्ठ एवं साहस तथा धैर्य को रखने वाले सब कार्य छोड़कर प्रकट हो जाओ। प्रद्य म्न का अपने असली रूप में होना (४२८) तब प्रद्य म्न प्रकट हो गया जिसके समान रूप वाला दूसरा कोई नहीं था । वह अत्यन्त सुदर एवं लक्षण युक्त था । तब रुक्मिणी ने समझा कि यह उसका पुत्र है । (४२६) जब सक्मिणी ने प्रधम्न को देखा तो उसका सिर चूम लिया और गोद में ले प्रसन्न मुख होकर उसे कंठ से लगा लिया तथा कहा कि आज मेरा जीवन सफल है । श्राज का दिन धन्य है कि पुत्र श्रा गया । जिसे १० मास तक हदय में धारण कर बड़ा दुःख सइन किया था, मुझे यह पछतावा सदैव रहेगा कि मैं उसका बचपन नहीं देख सकी। (४३०) माना के वचन सुनकर वह पांच दिन का बच्चा हो गया । फिर वह क्षण भर में बढ़ कर एक महीने का हो गया तथा फिर वह प्रद्युम्न बारह महीने का हो गया। (४३१) कभी वह लौटने लगा, कभी हठ करने लगा और कभी दौड़कर आंचल से लगने लगा | वह कभी खाने को मांगता था और इस प्रकार उसने बहुत भेष उत्पन्न किये। (४३२) वहां इतना चरित करने के पश्चात फिर वह अपने रूप में आ गया । उसने कहा कि हे माता तुम्हें मैं एक कौतुक दिख लाऊंगा। सत्यमामा का हलधर के पास दुती को भेजना (४३३) अब दूसरी ओर कथा आ रही है। सत्यभामा ने स्त्रियों को बलराम के पास भेजा और कहलाया कि हे बलराम रुक्मिणी के ऐसे कार्य के लिये आप साक्षी बने थे । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) (४२४) स्त्रियां जाकर वहां पहुँची जहां बलराम कुमार बैठे हुये थे । बड़ी ही युक्ति के साथ विनय पूर्वक कहा कि रुक्मिणी ने ऐसे काम किये हैं हलधर के दूत का रुक्मिणी के महल पर जाना ( ४३५ ) बलराम ने कोधित होकर दूत को भेजा और वह तत्काल पवनवैग की तरह रुक्मिणी के पास पहुँचा। सिंह द्वार पर जाकर खड़ा हो गया और रुक्मिणि को इसकी सूचना भेज दी। (४३६) तत्र मदन (प्रद्युम्न) ने फिर विचार किया और भूडे हुये ब्राह्मण का भेष धारण किया। उसने स्थूल पेट एवं विकृत रूप धारण कर लिया तथा वह आड़े होकर द्वार पर गिर गया। (४३७) तब दूत ने उससे कहा कि हे ब्रह्मण उठो जिससे हम भीतर जा सके। फिर उत्तर में ब्राह्मण ने कहा कि वह उठ नहीं सकता । लौट करके फिर आना । (४३८) उसके वचनों को सुनकर वे क्रोधित होकर उठे और उसका पैर पकड़ कर एक ओर डाल दिया। तब उसने कहा कि ऐसा करने से यदि ब्राह्मण मर गया तो उनको गोहत्या का पाप लगेगा | प्रवेश न प्राप्त कर सकने के कारण दूत का वापिस लौटना (४३६ ) इस प्रकार जानकर वह वापिस चला गया तथा बलभद्र के पास खड़ा हो गया । द्वार पर एक ब्राह्मण पड़ा हुआ है वह ऐसा लगता है मानों पांच दिन से मरा पड़ा हो । (४४०) हम उन तक प्रवेश प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि वह पोल (द्वार) को रोक कर पड़ा हुआ है यदि उसके पैर पकड़ कर एक ओर डाल दिया जावे और वह मर जावेगा तो ब्राह्मण हत्या का पाप लगेगा। स्वयं हलधर का रुक्मिणी के पास जाना (४४१) बान सुनकर बलभद्र क्रोध से प्रज्वलित होकर चले । तथा उनके साथ दस बीस आदमी गए और वे पत्रन-वेग की तरह रुक्मिणी के घर पहुँच गए। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) '४४२) चे सिंह द्वार पर जाकर खड़े हो गये और ब्राह्मण को द्वार पर पड़ा हुआ देखा तत्र बलभद्र ने उसे निवेदन किया कि हे त्राह्मण उठो भीतर जायेंगे। ५३) सारा नेपाल कलाम से कहा कि वह सत्यभामा के घर जीमने गया था । उसने उदर को सरस आहार में इतना भर लिया है कि पेट अफर गया है और वह उठ भी नहीं सकता । (५४४) तब बलभद्र (बलराम) हंस कर कहने लगे कि तुम एकही स्थान पर बैठ कर खाने रहे । ब्राह्मण खाने में बड़े लालची होते हैं तथा बहुत खाते हैं यह सब कोई जानते हैं । (४१५) तब यह ब्राह्मण क्रोधित होकर बोला कि बलराम तुम बड़े निर्दयी है। दूसरे तो त्रामण की सेवा करते हैं लेकिन तुम दुःख की बात कैसे बोलते हो? (४६) तब बलभद्र कोधित होकर उठे और उसके पैर पकड़ कर निकालने के लिये चले । नाम ने कहा कि मुझे गाली क्यों देते हो? आ यो मुझे बाहर निकाल दो । (१४७) तब इलघर उसे निकालने लगे तो अद्य म्न ने अपनी माता रुक्मिणी से कहा। एक बात मैं तुमसे पूछता हूँ यइ कौन वीर है, मुझे कहो । रुक्मिणी द्वारा हन्नघर का परिचय (-४८) यह छप्पनकोटि यात्रों के मुख मंडल की शोभा है और इन्हें बलभद्रकुमार कहते हैं । यह मिह से युद्ध करना ग्व जानते है । यह तुम्हारे पितृव्य (यड़े पिता) है यह मैं तुम से कहती हूँ। ४४) पैर पकड़ कर वह (बलराम) बाहर बैंच ले गया किंतु वह (प्रद्युम्न) पंः बढ़ाकर धड़ सहित यहीं पड़ा रहा । यह अाश्चर्य देखकर बलभद्र ने कहा कि यह गुप्त बीर कौन है ? प्रद्य म्न का सिंह रुप धारण करना (४५८) पांच टेक कर वह भूमि पर खड़ा हो गया और उसी क्षण . उसने सिंह का रुप धारण कर लिया । तब हलधर ने अपने प्रायुध को साहाला । फिर वे दोनों वीर ललकार कर भिड़ गये। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) (४५१ युद्ध करने लगे, भिड़ने लगे, अखाड़े बाजी करने लगे दोनों वीर मल्ल युद्ध करने लगे । सिंह रूप धारी प्रदाम्न संभल कर उठा और बलभद्र के पैर पकड़ कर अखाड़े में डाल दिया। (४५२) जहां छप्पन कोटि यादवों के स्वामी नारायण थे वहां जाकर हलधर गिरे । सभी लोग आश्चर्य चकित हो गये और कृष्ण भी कहने लगे कि यह बड़ी विचित्र बात है। चतुर्थ सर्ग रुक्मिणी के पूछने पर प्रद्युम्न द्वारा अपने बचपन का वर्णन (४५३) इतनी बात तो यहां ही रहे । अत्र यह कथा रुक्मिणी के पास के प्रारम्भ होती है। वह अपने पुत्र से पूछने लगी कि इतना बज पौरुष कहां से सीम्वा ? (४५४) मेघकूठ नामक जो पर्वतीय स्थान है वहां यमसंबर नामका राजा निवास करता है। हे माता रुक्मिणी ! सुनों मैंने यहीं से अनेक विद्यायें सीखी है। (४५५) मैं आपसे कहता हूँ कि मेरे वचन सुनो। नारद ऋषि मुझे यहां लाये हैं । फिर प्रदाम्न हाथ जोड़ कर बोला कि मैं उदधि माला को ले आया हूँ। (४५६) तब माता रुक्मिणी ने हंसकर कहा कि भैया, नारद कहां है । हे पुत्र सुनो मैं तुमसे कहती हूँ कि उद्धिमाला कहां है उसे मुझे दिखलाओ । प्रद्य म्न द्वारा रुक्मिणी को यादवों की समा में ले जाने की स्वीकृति लेना (४५७) तब प्रद्य म्न ने रुक्मिणी से कहा कि हे माता मैं तुमसे एक बचन मांगता हूँ। मैं तुम्हें तुम्हारी बाँह पकड़ कर के सभा में बैटे हुये यादवों । को ललकार करके ले जाऊंगा। यादवों के बल पौरुष का रुक्मिणी द्वारा वर्णन (४५८) माता ने उस साइसी की यात सुनकर कहा कि ये यादव लोग बड़े बलवान है बलराम और कृष्ण जद्दी है उनके सामने से तुम कैसे जाने पाओगे । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) (४५६) पांचों पाण्डब जो पंच यति हैं तुम जानते ही हो ये कुन्ती के पुत्र हैं तथा अतुल बल के धारक हैं । अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव इनके पौरुष का कोई पार नहीं है। (४६०) छापन कोटि यादव बड़े बल शाली हैं उनके भय से नत्र खंड कांपता है । ऐसे कितने ही क्षत्रिय जहां नियास करते हैं तुम अकेन्ने उन्हें कैसे जीत सकोगे? ) हा मछम होकर बोला कि मैं अशेष यादवों के बल के अभिमान को चूर कर दूंगा, और पाण्डवों को जिनके सभी नरेश साथी हैं युद्ध में इरा दूंगा । नारायण और बलभद्र सभी को रण में समाप्त कर दुगा केवल नेमिकुमार को छोड़कर जो कि जिनेन्द्र भगवान ही हैं। (४६२) मदनकुमार का चरित्र सब कोई सुनो । प्रन्युम्न नारायण से युद्ध कर रहा है। पिता और पुत्र दोनों ही रण में युद्ध करेंगे यह देखने के लिये देवता भी आकाश में विमान पर चढ कर आ गये । रुक्मिणी की बाँह पकड़ कर यादवों की सभा में ले जाकर उसे छुड़ाने के लिए ललकारना (४६३) तच प्रद्य म्न क्रोधित होकर तथा माता की याँइ पकड़ कर ले गया। जिस सभा में नारायण बैठे थे वहां मायामयी रुक्मिणी के साथ पहुँच गया। (४६४) सभा को देखकर प्रद्युम्न बोला कि तुम में कौन बलवान नत्रिय है उसको दिखाकर रुक्मिणी को ले जा रहा हूँ। यदि उसमें बल है तो आकर छुदा ले। सभा में स्थित प्रत्येक वीर को सम्बोधित करके युद्ध के लिए ललकार (४६५) हे नारायण ! तुम मथुरा के राजा कंस को मारने वाले कहे जाते हो । जरासंध को तुमने पछाड कर मार दिया था। अब मुझ से रुक्मिणी को श्राकर बचा लो। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ( १६४ } (४६६) दशों दिशाओं को संबोधित करके यह कहने लगा, कि हे वसुदेव ! तुम रण के भेद को खूब जानते हो। तुम छप्पन कोटि यादव मिल कर के भी यदि शक्ति है तो रुक्मिणी को आ कर छुडा लो। (४६७) हे बलभद्र : तुम बड़े बलवान एवं श्रेष्ठ वीर हो । रण संग्राम में बड़े धीर कहे जाते हो । इल जैसे तुम्हारे पाम थियार हैं । मुझ से रुक्मिणी श्राकर छुडालो। (४२८) हे अर्जुन ! तुम खांडा बन को जलाने वाले हो, तुम्हारे पौरुष को सन कोई जानते हैं। तुमने विराट राज से गाय छुडायी थी। अब तुम रुक्मिणी को भी आकर छडा लो। (४६६) हे भीम ! तुम्हारे हाथ में गदा शोभित है । अपना पुरुपार्थ मुझे श्राज दिखलाओ। तुम पांच सेर भोजन करने हो । युद्ध में आकर अब क्यों नहीं भिड़ते हो । १४७०) हे ज्योतिषी सहदेव ! मेरे वचन सुनो । तुम्हारे ज्योतिष के अनुसार क्या होगा यह बतलायो । फिर ईसकर प्रद्य म्न ने पूछा कि तुम्हारे समान कौन रण जान सकता है ? (४७५) हे नकुल ! तुम्हारा पुरुगर्थ भी अतुल है । तुम्हारे पाम कुन्त (भाला) नामक हथियार है। अब तुम्हारे मरने का अवसर आ गया है । मुझ से रुक्मिणी आकर छुडायो। (४७२) तुम नारायण और बलभद्र होकर भी छल से कुडलपुर गये थे। उसी समय तुम्हारी बात का पता लग गया था कि तुम क्मिणी को चोरी से हर कर लाये थे। (४७३) प्रहा म्न उस अवसर पर बोला कि अय रण में याकर क्यों नहीं भिडते हो। मैं तुम से एक अच्छी बात कहता हूँ। एक ओर तुम सब क्षत्रिय वीर हो और एक ओर मैं अकेला हूँ। प्रद्य म्न की ललकार सुनकर श्रीकृष्ण का युद्ध के प्रस्ताव को स्वीकार करना (४७४) तब श्रीकृष्ण सुनकर बड़े क्रोधित हुये जैसे अग्नि में घी डाल दिया हो । मानों मिह ने वन में गर्जना की हो अथवा सागर और पृथ्वी हिलने लगे हो । तब सब यादव अपनी सेना सजाने लगे । भीम ने गदा ली, अर्जुन ने अपने कोदंड धनुष को उठा लिया और नकुल ने हाथ में भाला ले लिया जिससे तमाम ब्रह्माण्ड कंपित हो गया। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७५) तैयार हो ! तैयार हो ! इस प्रकार का चारों ओर कहला दिया। यदुराज श्रीकृष्ण तैयार हो गये । घोड़ों को सजाओ, मस्त हाथियों को तैयार करो तथा मुभट सुसज्जित हो जाओ ! अाज रण में भिडना होगा । ऐसा आदेश दिया। (४७६) आज्ञा मिलते ही सुभट रण को चल दिये । ठः ठः चारों ओर ये शन्द करने लगे, किसी ने हाथ में तलवार तथा किसी ने हथियार सजाये । युद्ध की तैयारी का वर्णन (४७७) कितनों ही मदोन्मत्त हाथी चिंघाड़ रहे थे। कितने ही सुभट तैयार हो कर रण करने चढ़ गये । कितनों ने घोड़ों पर जीन रख दी और कितनों ने अपने इथियार संभाल लिये । (४७८) कितने ही ने युद्ध करने के लिये 'टाटण' ले लिये। कितनों ही ने अपने सिरों पर टोप पहिन लिये । कितनों ही ने शरीर में कवच धारण कर लिया और इस प्रकार वे सब राजा सजधज के चले । (४७६) किसी ने हाथ में भाला सजा लिया और कोई सान पर चढी हुई तलवार लेकर निकला । किसी ने अपने हाथों में सेल ले लिया और किसी ने कमर में छुरी बांध ली। (४८०) कुछ लोग बात समझा कर कहने लगे कि क्या इन सुभटों को वायु लग गयी है । जिसने रुक्मिणी को हरा है वह मनुष्य तुम्हारे स्तर का नहीं है। (४१) एक ही स्थान पर सब क्षत्रिय मिल गये और घटाटोप ( मेघ जैसे) होकर युद्ध के लिए चले । तुमछ बुद्धि से उपाय मत करो अब । यह मरने का दाव पा गया है । (४२) शीघ्र ही चतुरंगिनी सेना वहां मिल गयी। यहां घोडे, हाथी, रथ और पैदल सेना थी। अप्रमाण छत्र एवं मुकुट दिखने लगे तथा श्राकाश में विमान चलने लगे। . (४८३) इस प्रकार ऐसी असंख्यात सेना चली और चारों ओर खूब नगाड़े बजने लगे । घोड़ों के खुरों से जो धूल उछली उमसे ऐसा लगता था मानों तत्काल के भादों के मेघ ही हों। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सेना के प्रस्थान के समय अपशकुन होना (४८) सेना के बायीं दिशा की ओर कौवा कांव कांच करने लगा तथा काले सर्प ने रास्ता काट दिया । दाहिनी ओर तथा दक्षिण दिशा की ओर शृगाल बोलने लगे । (४८५) वन में असंख्य जीव दिखाई दिये । ध्वजाये फकड़ने लगी एवं उन पर आकर पक्षी बैठने लगे। सारथी ने कहा कि शकुन बुरे हैं इसलिये आगे नहीं चलना चाहिये । (४६) तब उस अवसर पर केशव बोले कि हम कोई विवाह करने थोड़ ही जा रहे हैं जो शकुनों को देखें । वे सारथी को समझाने लगे कि जो कुछ विधाता ने लिखा है उसे कौन मेट सकता है। (४८७) नारायण शकुनों की परवाह किये बिना ही चलें। जब प्रद्य म्न ने सेना को दोनो मन में कुछ मिला नई माता रुक्मिगी को विमान में बैठा दिया और फिर मायामयी सेना खड़ी कर दी। विद्या वल से प्रध म्न द्वारा उतनी ही सेना तैयार करना (४) तम प्रद्युम्न ने मन में चिन्तन किया और युद्ध करने वाली विद्या का स्मरण किया। जितनी सेना सामने थी उतनी ही अपनी सेना तैयार कर दी। युद्ध वान (४८६) दोनों दल युद्ध के लिए तैयार हो गये । सुभटों ने धनुषों को सजाकर अपने हाथों में ले लिया। कितने ही योद्धाओं ने तलवारों को अपने हाथ में ले लिया । वे ऐसे लगने लगे मानों काल ने जीभ निकाल रखी हो। (४६०) हाथी वालों से हाथी वाले यौद्धा भिड़ गये तथा घुड़सवार सेना युद्ध करने लगी। पैदल सेना से पैदल सेना लड़ने लगी । तलबार के पार के साथ २ वे भी पड़ने एवं उठने लगे। . (४६१) कोई ललकार रहा है कोई लड़ रहा है । कोइ मारो मारो इस प्रकार चिल्ला रहा है । कोई धीर युद्ध स्थल में लड़ रहा है और कितने ही कायर सैनिक भाग रहे हैं। ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कोई वीर दोनों भुजाओं से भिड़ गये । कोई ललकार करके लड़ रहा था। कोई धनुष की टंकार कर रहा था । कोई तलवार के वार से शत्रुओं का संहार कर रहा था। (४६३) युद्ध देखकर नारायण बोले, हे अर्जुन और भीम ! आज तुम्हारा अक्सर है। हे नकुल और सहदेव ! मैं तुमसे कहता हूँ कि आज अपना पौरुष दिखलाओ। (४६४) तय श्रीकृष्ण दशौदिशाओं तथा वसुदेव को सुनाकर ललकार कर कहने लगे । हे बलिभद्र ! तुम्हारा अबसर है, आज अपना पौरुष दिखलाओ। (४६५) भीमसेन क्रोधित होकर घोड़े पर चढ़ा तथा हाथ में गदा लेकर रण में भिड़ गया । वे हाथी के समान प्रहार करने लगे जिससे उनके सामने क्षत्रिय रागने लगे और कोई बचा नहीं । (४६) तब अर्जुन क्रोधित हुआ और धनुप चढाकर हाथ में लिया। वह चतुरंगिनी सेना के साथ ललकार कर भिड़ गया। कोई भी अर्जुन को रण से नहीं हटा सका। १४६७) सहदेव ने हाथ में तलवार ला भार नकुल भाला लेकर प्रहार करने लगा । हलधर से कौन लड़ सकता था। वे अपने हलायुध को लेकर प्रहार करने लगे। (४८८) सभी यादव एवं यौद्धा रणभूणि में साहस के साथ भिड़ गये । वसुदेव चारों ओर लड़ने लगे जिससे बहुत से सुभट लड़कर रण में गिर पड़े। प्रद्य म्न द्वारा विद्या-बल से सेना को धराशायी करना १४६६) तब प्रद्युम्न ने मन में बड़ा क्रोध किया और मायामयी युद्ध करने लगा। सारे सुभद रण में विद्या से मूर्छित होकर गिर पड़े जिसे विमानों में चढ़े हुये देयों ने देखा। (५०) स्थान स्थान पर रथ और घुड़सवार गिर पड़े । रत्नों से परिवेष्ठित छत्र टूट गये । स्थान स्थान पर अगणित हाथी पड़े हुये थे जो लड़ाई में मदोन्मत्त होकर आये थे । (५०१) जब सभी सेना युद्ध करती हुई पड़ गयी तब श्रीकृष्ण खिन्न चित्त हो गये । वे हाहाकार करने लगे तथा सोचने लगे कि यह कौन बलवान वीर है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) रण क्षेत्र में पड़ी डुई सेना की दशा (५०२) देखते देखते सभी यादव वीर गण गिर पड़े तथा साथ २ सभी सेनायें गिर पड़ी । जिनसे देवता लोग कांपते थे तथा जिनके चलने से पृथ्वी थर २ कांपती धी। जिन वीरों को आज तक कोई नहीं जीत सका था वे सभी क्षत्रिय आज हारे हुये पड़े बड़े आश्चर्य की बात है । गद यादव कुल को नाश करने के लिये मानों काल रूप होकर ही अवतरित हुआ है। (२०३) श्रीकृष्ण चारों ओर फिर फिर करके सेना को देखने लगे। चारों ओर क्षत्रियों के पड़े रहने के कारण कोई स्थान नहीं दिखायी देता था। केवल मोती और रत्नों की माला से जड़े हुये छत्र रण में पड़े हुये दिखलाई दिये। (५०४) अगणित हाथी, घोड़े और रथ पड़े हुवे थे । मदोन्मत्त हाबी स्थान स्थान पर पड़े हुये थे। जगह जगह पर निरन्तर खून की धारा यह रही थी और वेताल स्थान २ पर किलकारी मार रहे थे। (५५) गृद्धिणो और सियार पुकार रहे थे मानो यमराज हो उनको यह कह रहा था कि शीघ्र चलो रसोई पड़ी हुई है, अाकर ऐसा जीमलो . जिससे पूर्ण तृप्त हो जाओ । श्रीकृष्ण का क्रोधित होकर युद्ध करना (५:६) जब श्रीकृष्णा क्रोधित होकर रथ पर चढ़े तो ऐसा लगा मानो सुमेरु पर्वत कांपने लगा हो । जब वे संग्राम के लिये चले तो सकल महीतल कांपने लगा एवं शेषनाग भी हिल गया । युद्ध भूमि में रथ बढ़ाने पर शुभ शकुन होना " (५४७) जब अपने रथ को उनने युद्ध में आगे बढ़ाया तब उनका दाहिना नेत्र तथा दाहिना अंग फड़कने लगा ! तब श्रीकृष्ण ने सारथी से कहा कि हे सारथी सुनो अथ शुभ क्या करेगा ? (५०८) क्योंकि रण में सभी सेना जीत ली गयी है और रुक्मिणी को भी हरण कर लिया गया है । तो भी क्रोध नहीं आ रहा है तो इसका क्या कारण है इस प्रकार रण में धैर्य रखने वाले श्रीकृष्ण ने कहा । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) ( ५०६ ) उस समय वह सारथी बोला यह आश्चर्य है कि यह कौन है ? तुम्हारी ललकार से यदि यह सुभट भाग जाये तो तुम्हारे हाथ रुक्मिणी सकती है । (४१०) उससे वीर शिरोमणि केशव बोले हे शत्रिय ! मेरे वचन सुनो। तुमने सभी मदोन्मत्त सेना का संहार कर दिया और अत्र ! मेरी स्त्री रुविमणी को भी ले जा रहे हो । श्रीकृष्ण द्वारा प्रद्युम्न को अभयदान देने का प्रस्ताव (५११) तुम कोई पुण्यवान क्षत्रिय हो। तुम्हारे ऊपर मेरा क्रोध उत्पन्न नहीं हो रहा है। मैं तुम्हें जीवन दान देता हूँ लेकिन मुझे रुक्मिणी वापस कर दो · प्रद्य ुम्न द्वारा श्रीकृष्ण की वीरता का उपहास करना (५१२) तब प्रद्युम्न हँस कर बोला कि रण में ऐसी बात कौन कहता है तुम्हारे देखते देखने मैंने रुक्मिणी को हरण किया और तुम्हारे देखते देखते ही सारी सेना गिर गयो । (५१३) जिस के द्वारा तुम रण में जीत लिये गये हो अब क्यों उसको अपना साथी बना रहे हो ? हे श्रीकृष्ण तुम्हें लज्जा भी नहीं आ रही है कि अब कैसे रुचिमणी मां.. रहे हो । (५१४) मैंने तो सुना था कि युद्ध में आगे रहने वाले हो लेकिन अब मैंने तुम्हारा सत्र पुरुषार्थ देख लिया है। तुम्हारे कहने से कुछ नहीं हो सकता । तुम्हारी सारी सेना पडी हुई है और तुमने हृदय से हार मान ली हैं । (५१५) फिर प्रयुम्न ने हंस कर कहा कि तुम पृथ्वी पर पड़े हुए अपने कुटुम्ब को देख कर भी सहन कर रहे हो। मैंने तुम्हारी आज मनुष्यता (पुरुषार्थ) जांचली है तुमको रुक्मिणि से कोई काम नहीं है अर्थात् तुम रुक्मिणि के योग्य नहीं हो । (५१६) तुमने परिग्रह को आशा छोड़ दी है तो रुक्मिणी को भी छोड़ दो। प्रद्युम्न कहता है कि अपना जीव बचाकर चले जाओ | Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्युम्न के उत्तर के कारण श्रीकृष्ण का क्रोधित होना एवं धनुष बाण चलाना (५१७) यदुराज मन में पलताने लगे कि मैंने तो इससे सत्यभाव से कहा था लेकिन यह मुझ से बढ़ २ कर बातें कर रहा है अब इसे मारता हूं यह कहीं भाग न जाये क्रोध उत्पन्न हुआ और चित्त में सावधान हुये तथा सारंग पाणि ने धनुष को चढ़ा लिया। ६५१८) वे सोचने लगे कि अर्द्ध चन्द्राकार नामक बाण से मैं इसे मारूगा और अब इसका पराक्रम देगा। जब प्रद्युम्न में श्रीकृष्ण को धनुष चढ़ाते हुये देखा तो उसे भी क्रोध श्रा गया । (५१६) प्रद्युम्न ने तब उससे कहा कि हे कृष्ण तुम्हारा धनुष तो छिन गया है। जब श्रीकृष्ण का धनुष टूट गया तो उन्होंने दूसरा धनुष चढाया। (५२०) फिर प्रद्युम्न ने बाण छोड़ा जिससे श्रीकृष्ण के धनुष की प्रत्यंचा टूट गयी। तब श्रीकृष्ण ने क्रोधित होकर तीसरे धनुष को अपने हाथ में लिया। (५२१) श्रीकृष्ण जब जब प्रान पर बार करने के लिए बाण चढ़ाते तब तब बाण टूट कर गिर जाता । विष्णु ने जब तीसरा धनुप साधा लेकिन क्षण भर में ही प्रद्युम्न ने उसे भी तोड़ डाला । प्रद्यन्न द्वारा श्रीकृष्ण की वीरता का पुनः उपहाम करना (५२२) प्रद्युम्न ने हंस हंस करके श्रीकृष्ण से बात कही कि आपके समान कोई वीर क्षत्रिय नहीं है? आपने यह पराक्रम किससे सीखा ? आपका गुरु कौन था यह मुझे भी बताइये ।। _ (५२३) तुम्हारे धनुष बाण छीन लिये गये तथा तुम उन्हें अपने पास नहीं रख सके । तुम्हारा पौरुष मैने आज देख लिया है क्या इसी पराक्रम से राज्य सुख भोग रहे थे ? (५२४) फिर प्रद्युम्न उनसे कहने लगा कि तुमने जरासिंध तथा कंस को कैसे मारा ? यह सुनकर श्रीकृष्ण बहुत खिन्न हो गये तथा दूसरा मायामयी रथ मंगाकर उस पर बैठ गये। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) श्रीकृष्ण का क्रोधित होकर विभिन्न प्रकार के बाणों से युद्ध करना * (५२५) रथ पर चढकर यदुराज ने क्रोधित होकर अपने हाथ में धनुष ले लिया । प्रचालत नारनवाण को फैका जिससे चारों दिशाओं में तेज ज्वाला पैदा हो गई। (५२६) प्रद्युम्न की सेना भागने लगी। वह अग्नि बाण से निकलने वाली ज्वाला को सहन नहीं कर सकी । घोड़े हाथी रथ आदि जलने लगे और इस प्रकार उसकी सेना के पैर उखड़ गये । (५२७) प्रद्युम्न को क्रोध आया उसकी रण की ललकार को कौन सह सकता है । उसने पुष्प माला नामक धनुष हाथ में ले लिया और उस पर मेघबाण को चढ़ाया। (५२८) धन घोर बादल गर्जने लगे और पृथ्वी को जल से भरने लगे जब जल ने अग्नि को बुझा दिया तब इस जल से श्रीकृष्ण को ना बहने लगी। (५२६) जो क्षत्रिय श्रेष्ठ रथ पर सवार थे वे जल के प्रवाह में बहने लगे। सारे हाथी घोड़े रथ वगैरह बद्द गये तथा बहुत से क्षत्रिय राजा भी वइ गये। (१३०) तब प्रद्युम्न ने श्रीकृष्ण को कहा कि यह अच्छी चाल चली गयी है ? नारायण के मन में संदेह पैदा हुआ कि यह मेह कैसे बरस गया ? (५३१) यह जानकर श्रीकृष्ण को बड़ा श्राश्चर्य हुआ और मारुस (पायु) बाण हाथ में लिया । जब बाण तेजी से निकल कर गया तो मेघों का समूह समाप्त होने लगा। (५३२) मायामयी सेना भी कांप गयी और छत्र उड़ उड कर जमीन पर गिरने लगे। चतुरंगिणी सेना भागने लगी तथा हाथी, घोड़े एवं रथों को कोई संभाल नहीं सके। (५३३) तब प्रद्य म्न मन में क्रोधित हुआ तथा पर्वत बाण को हाथ में लिया। थाण को धनुष पर चढाया जिससे पर्वत ने आड़े आकर इवा को रोक दिया। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) (५३४) प्रद्युम्न का पौरुष देखकर श्रीकृष्ण बड़े क्रोधित हुये । दे उसी क्षण वन प्रहार करने लगे जिससे पर्वत के टुकड़े न होकर गिर गये । (४३५) प्रद्युम्न ने दैत्य बाण हाथ में लिया और नारायण को यमलोक भेजने का विचार किया । तब श्रीकृष्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अभी तक वे इसका चरित्र नहीं जान सके । ( ५३६ ) इस प्रकार बड़ा भारी युद्ध होता रहा जिसमें कोई किसी को नहीं जीत सका । दोनों ही बड़े बलवान योद्धा है जिनके प्रहार से ब्रह्मांड भी फटने लगा | श्रीकृष्ण द्वारा मन में प्रथ मन की वीरता के बारे में सोचना ( ५३७ ) तब क्रोधित होकर श्रीकृष्ण मन में कहने लगे कि मेरी ललकार को रण में कौन सह सकता है ? मेरे सामने कौन रहा क्षेत्र में खड़ा रह सका है ? संभव है कुलदेवी इसकी सहायता कर रही है। (५३८) मैंने युद्ध में कंस को पछाड़ा और जरासिंध को रण में ही पकड़ कर मार डाला | मैंने सुर असुरों के साथ युद्ध किया है। जिस ने शत्रु गर्न किया वही मेरे सम्मुख खेत रहा । श्रीकृष्ण का रथ से उतर कर हाथ में तलवार लेना ( ५३६ ) तत्र उसने धनुष को छोड़कर हाथ में चन्द्रहंस ले लिया । वह खड्ग बिजली के समान चमक रहा था मानों यमराज ही अपनी जीभ को फैला रहा हो । ( ५४० ) जब हाथ में खड्ग लिया तो ऐसा लगने लगा मानों श्रीकृष्ण ने चमकते हुए चन्द्र रत्न को ही हाथ में पकड़ा हो। जब वे रथ से उतर कर चलने लगे तो तीनों लोक भयभीत हो गये । (५४१) इन्द्र, चन्द्रमा तथा शेषनाग में खलबली मच गयी तथा ऐसा लगने लगा मानों सुमेरु पर्वत ही काँप रहा हो । देवांगनायें मन में कइने लगी कि देखें अब इसे कैसे मारता है ? (५४२) जब श्रीकृष्ण क्रोधित होकर दौड़े तो रुक्मिणी ने मन में सोचा कि दोनों की हार से मेरा मरण है। श्रीकृष्ण के युद्ध करने से प्रद्युम्न गिर जायगा । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३ ) (५४३) रुक्मिणी ने कहा नारद ! सुनो मैं सत्यभाव से कहती हूँ कि अब तो मृत्यु का अवसर आ गया है । जब तक दोनों सुभद ललकार करके न भित्र जावे हे नारद ? शीघ्र ही जाकर रण को रोक दो। रण भूमि में नारद का आगमन (५४४) रुक्मिणी के बचनों को मन में धारण करके वह ऋषि विमान से उतरा । नारद वहीं पर जाकर पहुँचा जहां प्रद्युम्न और श्रीकृष्णा के बीच लड़ाई हो रही थी। (५४५) विष्णु और प्रद्युम्न का रथ खड़ा दिखाई दिया। प्रद्युम्न वार करना ही चाहता था कि नारद शीघ्र ही वहां पहुँचे और बाँह पकड़ कर कुमार को रोक दिया। नारद द्वारा प्रद्य म्न का परिचय देना (५४६) तब हँसकर नारद कहने लगे हे कारण ! मेरे वचन सुनिये । यह प्रद्युम्न तुम्हारा ही पुत्र है । इस सम्बन्ध में बहुत कुछ कहना है। (५४६) छठी रात्रि को यह चुरा लिया गया था तथा यह कालसंवर के घर बढ़ा है। इसने सिंहस्थ को जीता है। हे कृष्ण ! यह बडा पुण्यवान है। (५४८) इसको सोलह लाभों का संयोग हुआ है तथा कनकमाला से इसका बिगाड़ हो गया है । इसने कालसंबर को भी उसी स्थान पर जीत लिया तथा पन्द्रह वर्ष समाप्त होने के पश्चात तुमसे मिला है । (५४६) यह प्रद्य म्न बड़ा भारी वीर है तथा रण संग्राम में धैर्यवान एवं साहसी है। इसके पौरुप का कौन अधिक वर्णन कर सकता है ? ऐसा यह रुक्मिणी का पुत्र है। (५५०) इसी प्रकार प्रद्युम्न के पास जाकर मुनि ने समझा कर बात कही । यह तुम्हारे पिता हैं जिनने तुम्हारा खूब पौरुष श्राज देख लिया है। प्रद्युम्न का श्रीकृष्ण के पांच पड़ना (५५१) तब प्रद्य म्न उसी स्थान पर गया और श्रीकृष्ण के पैरों पर गिर गया । तब नारायण ने हृदय में खूब प्रसन्न होकर, प्रद्य म्न को उठाकर अपनी गोद में ले लिया। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४ ) (५५२) उस रुक्मिणी को धन्य है जिसने इसे धारण किया तथा उस सुसंगना (विगाधरी) को भी धन्य है जिसके यहां यह अवतरित हुआ तथा उस स्थान पर इसने वृद्धि प्राप्त की । आज के दिन को भी धन्य है जब मिलाप हुआ है। (५५३) धनुष और बाण को उन्होंने उसी स्थान पर डाल दिये । तथा घूमकर कुमार को गोदी में उठा लिया । जिसके घर पर ऐसा सुपुत्र हो । उसकी सब कोई प्रशंसा करता है। नारद द्वारा नगर प्रवेश का प्रस्ताव (५५४) तब नारद ने इस प्रकार कहा कि मन को भाने वाले ऐसे नगर की ओर चलना चाहिये । प्रधम्न के नगर प्रवेश के अवसर पर नगरी में खूब उत्सव करो। (५५५) श्रीकृष्ण के मन में तो त्रिपाद हो रहा था कि सभी सेना युद्ध में पड़ी हुई है । सभी यादव एवं कुटुम्बी रण में पड़े हुये है। तब क्या नगर प्रवेश मुझे शोभा देगा ? (५५६) नारद ने तम प्रा म्न से कहा कि तुम अपनी मोहिनी को वापिस उठा लो जिससे युद्ध में अति कुशल सभी योद्धा एवं सुभट उठ मोहिनी विद्या को उठा लेने से सेना का उठ खड़ा होना (५५७) तब प्रद्युम्न ने मोहिनी विद्या को छोड़ा जिसने जाकर सब अचेतना दूर कर दी । सभी सेना उठ खड़ी हुई तथा ऐसा आभास होने लगा मानों समुद्र ही उमड़ रहा हो । (५५८) धीर एवं श्रेष्ठ पाण्डव, दशों दिशाओं को वश में करने वाला . हलधर, कोदि यादव एवं सभी प्रचंड क्षत्रिय गण उठ खड़े हुए। (५५६) हाथी, घोड़े, रथवाले तथा पदाति आदि सभी उठ गये मानों विमान चल पड़े हों । इस प्रकार पृथ्वी पर जो सारे क्षत्रिय गण थे वे सभी खड़े हो गये । सधारू कवि कहता है कि ऐसा लगता था मानों सभी सो कर उठे हों। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) प्रधुम्न के आगमन पर आनंदोत्सव का प्रारम्भ (५६०) प्रद्युम्नकुमार को जब देखा तो श्रीकृष्ण पुलकित हो उठे। सीने से लगाकर उसके मस्तक को चूम लिया जिस पर चोट के निशान हो रहे थे। प्रद्युम्न के शरीर पर जो निशान हो गये थे वे भी मन को अच्छे लगने लगे । उनका जन्म आज सफल हुथा है जर्याक प्रद्युम्न घर आया है । सभी कहने लगे कि श्राज परिजनों का देव मानों प्रसन्न हुआ है । श्रीकृष्ण मन में प्रफुल्लित हो रहे हैं जब से प्रद्युम्न उनके नयनों में समा रहा है । (५६१) भेरी और तुरही ग्ब बज रही है तथा आनन्द के शब्द हो रहे हैं । जैसी रुक्मिणी है वैसा ही आज उसको पुत्र मिला है । सकल परिजन एवं कुल का प्राभपण स्वरुप पुत्र उसको मिला है । बड़ा योद्धा एवं वीर है । सज्जनों के नेत्रों को आनन्द दायक है । सकल जन समूछ नगर के सम्मुख चलने लगे जिससे बहुत शोर हुआ तथा तुरही एवं भेरी बजने लगी जिससे ऐसा मालूम होने लगा कि मानों बादल गर्ज रहे हैं । (५३२) मोतियों का चौक पूरा गया तथा सिंहासन लाकर रखा गया जिस पर प्रहा म्न को बैठाया गया । इस घर को श्राज पुन्यवाला समझो। उस घर को भाग्यशाली समझो जहां प्रधम्न बैठा हुआ है । मोती और माणिक से भरे हुये थालों से आरती उतारी गई । युवराज बनाने के लिये तिलक किया गया जो सभी परिजनों को अच्छा लगा। जहां मोतियों का चौक पूरा हुआ था तथा लाया हुआ सिंहासन रखा हुआ था। (५६३) घर घर तोरण एवं मोतियों की बदनबार बँधी हुई थी। घर घर पर गुडियां उछाली जा रही थी तथा मंगलावार हो रहे थे । नवयुवतियां पुन्य (मंगल) कलश लेकर प्रद्य म्न के घर आयी। अगर एवं चंदन से सुशोभित कामिनियां गीत गा रही थी । घर घर मोतियों के बंदनवार एवं तोरण थे ।। (५६१) सकल सेना घर जाने के लिये उठी तथा छप्पनकोटि यादव घर घले । जिस द्वारिका को सजाया गया था उसमें क्षोभ हीन होकर चले। प्रद्युम्न का नगर प्रवेश (५६५) प्रद्युम्न नगर मध्य पहुँचा तो सूर्य की किरणें भी छिप गयीं । गृहों की छतों पर चढ़ कर सुन्दर स्त्रियों ने प्रद्युम्न को देखने की इच्छा की। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) रुक्मिणी को धन्य है जिसने ऐसा पुत्र धारण किया तथा जो नारायण के घर पर अवतरित हुआ। जिसके आगमन पर देव एवं मनुष्य जय जय कार कर रहे थे तथा मनोहर शब्द हो रहे थे । घर घर पर तोरण द्वार बँधे तथा 'छप्पनकोटि यादवों ने खूब उत्सव किया । (५६६) नगर में इतने अधिक उत्सव किये गये कि सारे जगत ने जान लिया । शंख बजने लगे तथा घरों में होने एवं (५६७) जब प्रद्युम्न घर के लोगों के पास गया तो नगर के प्रत्येक घर में बधात्रा गाये जाने लगे । गुडियां उछाली गर्यो तथा कामिनियों ने घर घर मंगलाचार गीत गाये | (५६८) ब्राह्मणों ने चतुर्वेदों का उच्चारण किया तथा श्रेष्ठ कामिनियों ने मंगलाचार किये । पुन्य (मंगल) कलशों को सजाकर सुन्दर नारियां अगवानी को चलीं । (५६६ ) नगर में बहुत उत्सव किया गया जब से प्रथम्न नगर में दिखाई दिया। सिंहासन पर बैठा कर सभी पुरजनों ने उसके तिलक किया । (५७०) दूध, दही एवं अक्षत माथे पर लगाया गया । मोती मासिक के थाल भर कर भारती उतारी गई तथा आशीर्वाद देकर सुन्दर स्त्रियां वहां से चलीं । यमसंवर का मेवकूट से द्वारिका आगमन ( ५७१ ) इतने में ही मेघकूद से विद्याधरों का राजा यम संवर पुत्र एवं कनकमाला सहित द्वारिका नगरी में आ पहुँचा । (५२) बहु विद्यावर पवन के वेग को तरह थाया जिसकी सेना से ( उड़ती हुई धूल के कारण ) कोई स्थान नहीं दिखाई दिया। वह अपने साथ रति नाम की पुत्री को लेकर द्वारिका पुरी में प्राया 1 यमसंवर एवं श्रीकृष्ण का प्रथम मिलन (५३) यमसंबर से श्रीकृष्ण ने भेंट की तब वे भक्ति पूर्वक सत्यभाव से बोले कि तुमने बालक प्रद्युम्न का पालन किया इसलिये तुम्हारे समान अन्य कौन स्वजन है Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१७ ) ( ४७४ ) तत्र रुक्मिणी उसी समय कनकमाला के पैर लगकर बोली कि तुम्हारे घर से मैं कैसे ऋण होगी क्योंकि तुमने मुझे पुत्र की भिक्षा दी है । प्रद्यन का विवाह लग्न निश्चित होना .2 (५७५) उनके आगमन पर बहुत से उत्सव किये गये तथा प्रद्युम्नकुमार का विवाह निश्चित हो गया । ज्योतिपी को बुलाकर लग्न निश्चित किया तब मन में श्रीकृष्ण बड़े सन्तुष्ट हुये | (५७६ ) इरे बांसों का एक विशाल मंडप रचा गया तथा कितने ही प्रकार के तोरण द्वार खड़े किये गये । स्त्रे चौड़े वस्त्र बनाये गये तथा स्वर्ण कलश सिंह द्वारों पर रखे गये 1 विवाह में आने वाले विभिन्न देशों के राजाओं के नाम (५७७) सारे सामान की तैयारी करके श्रीकृष्ण ने सभी राजाओं को निमन्त्रित किया। जितने भी मांडलीक राजा थे सभी द्वारिका नगरी में आये। (५७) गदेश, बंग (बंगाल), कलिंग देश के तथा द्वीप समुद्र के जितने राजा थे वे सभी विवाह में शामिल हुये । लाड देश के चोल प्रदेश के, कान्यकुब्ज प्रदेश के गाजन (गजनी १) मालवा और काश्मीर देश के राजा महाराजा आये । ▸ (५७६) गुर्जर देश के नरेश अत्यधिक सुशोभित हुये तथा सांभर के वेलावल अच्छे थे। विपाडती कान्यकुब्ज के अच्छे थे। पृथ्वी के अन्य सभी राजा नमस्कार करते हुये देखे गये I (२०) शंखों के मधुर शब्द होने लगे तथा स्थान स्थान पर नगाड़े बजने लगे। भेरी और तुरही निरन्तर बजने लगी तथा माधुरी वीणा एवं ताल के शब्द होने लगे । (५८१) विद्वान् ब्राह्मण चारों वेदों का उच्चारण करने लगे तथा कामिनियां घर २ मंगलाचार गीत गाने लगी । नगरोत्सव के कारण कल कल शब्द होने लगे जब प्रद्युम्न विवाह करने के लिये चले । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) रत्नों से जड़ा हुआ छत्र सिर पर रखा गया तथा स्वर्णदंड वाला बर शिर पर हुरने लगा। सोने का मुकुट शिर पर ऐसा चमक रहा था मानो बाल-सूर्य ही किरणें फेंक रहा हो ? (५८३) तम रुक्मिणी ने ईर्ष्या भाव से कहा कि सत्यभामा के केश लाओ । तीनों लोक भी यदि मुझे मना करे तो भी मैं उसके केश उतरवाऊँगी। (५१) केश उतार कर उन्हें पांध से मलूगी तव प्रय म्न विवाह करने जावेगा। लेकिन इतने में ही सत्र परिवार के लोगों ने मिल करके दोनों में मेल करा दिया। ") सभी झम्बी जी के मन में स्सा हुआ कि प्रा म्नकुमार का त्रिवाइ हो रहा है । भाँवर देकर हश्रलेवा किया और इस प्रकार कुमार का पाणिग्रहण हुआ। (५६) विवाह होने के पश्चात लोग घर चले गये तथा राज्य करने लगे और अनेक प्रकार के सुख भोगने लगे । सत्यभामा को व्याकुल देख करके सभी सौतें उसका परिहास करती थी। सत्यभामा द्वारा विवाह का प्रस्ताव लेकर पाटण के राजा के पास दूत भेजना (५८५) तब सत्यभामा ने सलाह करके ब्राह्मण को शीघ्रता से सन्देश लेकर भेजा । उस स्थान पर जहां रत्नसंचय नामक नगर था तथा रत्नचूल नामक राजा रहता था । (५८) ब्राहाण ने शीघ्रता से यहां जा कर विनय पूर्वक कहा कि सत्यभामा ने मुझे यहां भेजा है। रविकीर्ति से उन्हें अत्यधिक स्नेह है इसलिये उसी लड़की को भानुकुमार को दे देवें । भानुकुमार के विवाह का वर्णन (५८६) सभी राजा और विद्याधर मिल करके कल कल शब्द करते हुये द्वारिका को चले । नगर में बहुत उत्सव किये गये जैसे ही भानुकुमार का विवाह होने लगा। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६) (५६०) (लड़की वाले का) सारा परिवार मिलकर तथा विद्याधर व राजा लोग सब विवाह करने को चले । वे मर द्वारिका नगरी पहुँचे जहां मंडप बना हुआ था। (५६१) घर घर पर तोरण लगाये गये तथा सिंह द्वार पर स्वर्ण-कलश स्थापित किये गये । सब कुटुम्ब ने मिलकर उत्सव किया और भानुकुमार का इस प्रकार वियाह हो गया। (५६२) इसके बाद वे राज्य करने लगे तथा विविध प्रकार के भोग क्लिास करने लगे। प्रद्य म्न को सब राज्य के भोग प्राप्त होने लगे । उसके समान पृथ्वी पर दूसरा अन्य कोई राजा नहीं दिखता था। पंचम सर्ग विदेह क्षेत्र में मंधर मुनि को केवलज्ञान की उत्पत्ति (५६३) अब दूसरी कथा चलती है । पूर्व विदेह. में शत्रुकुमार (अच्युत स्वर्ग का देव) गया जहां पुंडरीक नगरी थी तथा जहां ज़मंधर मुनि निवास करते थे। (५६४) जो नियम, धर्म और संयम में प्रधान थे उनको केवलज्ञान उत्पन्न हुना । अच्युत स्वर्ग में जो देव रहता था वह मुनीश्वर की पूजा करने के लिये प्राया। अच्युत स्वर्ग के देव द्वारा अपने भवान्तर की बात पूछना (५६.५) उसने नमस्कार किया तथा अपने पूर्व भव की बात पूछी। हे गुणवान् मुनि ! पूर्व जन्म का जो मेरा सहोदर था वह किस स्थान पर पैदा हुश्रा ? (५६६) संशय हरने वाले उन (केवलज्ञानी ) ने सभा में कहा कि रवी पर पांचवां भरत क्षेत्र उत्तम स्थान है । उसमें सोरठ देश में द्वारिकारती नगरी है । भरत क्षेत्र में इसके समान दूसरी नगरी नहीं दिखती है । (५६) उस नगरी का स्वामी महिम्न श्रीकृष्ण है जो सपूर्ण नियम धर्म को पालन करने वाला है। उसकी भार्चा बड़ी गुणरती है और उसका नास रुक्मिणी है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (५६८) उसके घर पर क्षत्रिय मदन (प्रय स्त) पैदा हुआ । उन्म पुण्यवान् को सभी कोई जानते है । सुन्दरता में उससे बढ़ कर कोई नहीं है और वह पृथ्वी पर राज्य करता है। देव का नारायण की सभा में पहुँचना (५ER.) केबली के बचन सुनकर देव वहां गया जहां सभा में नारायण बैठे थे । देवता ने मणि रत्न जदिन जो हार था उसे नारायण को देकर कहा। देव द्वारा अपने जन्म लेने की बात बतलाना (६००) फिर वह रविदेव कहने लगा कि हे महमद्दण : (महामहिम्न) मेरे वचन सुनिये । जिसको तुम अनुपम हार भेंट देनोगे उसी की कुद से मैं अवतार लूगा । श्रीकृष्ण द्वारा सत्यभामा को हार देने का निश्चय करना (६०१) तब यादवराय मन में आश्चर्य करने लगे तथा मन को भाने वाली मन में चिन्तना करने लगे। चन्द्रकान्त मणियों से चमकने वाला यह हार सत्यभामा को दूगा। प्रद्युम्न द्वारा रुक्मिणी को सूचित करना (६०२.) तत्र प्रद्युम्न के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ और वह पवन वेग की तरह सक्मिणी के पास गया । माता से कहने लगा कि पेरी बात सुनिये मैं तुम्हें एक अनुपम बात बताता हूँ। (६८३) जो मेरा पूर्व भव में सहोदर था वह मुझसे बहुत स्नेह करता था । श्रथ वह स्वर्ग में देव हो गया है और बह रत्नजदित हार लाया है। (६०५) अब उस हार को जो पहिरेगा उसके घर पर वह पाकर पुत्र होगा । हे माता अब तू स्पट कह कि यह द्वार तुझे प्राप्त करा दूं ? (६०५) तब रुक्मिणी ने उससे कहा कि मेरे तो तुम अकेले ही सहर संतान के बराबर हो ! बहुत से पुत्रों से मुझे कोई काम नहीं है । तुम अकेले ही पृथ्वी का राज्य करो। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमवंती के गले में हार पहिनाना (६.६) फिर विचार करके सक्मिणी बोली कि मेरी बहिन जामवती है। हे पुत्र ! तुम्हें विचार कर कहती हूँ कि उसे जाकर हार दिला दो। जामवंती का श्रीकृष्ण के पास जाना (६०) तब ही प्रद्य म्न ने विचार कर कहा कि जामवती को यहां बुला लाओ। जो काममुदडी पहिन लेगी वही सत्यभामा बन जावेगी । (६०८) स्नान करके उसने कपड़े और गहने पहिने । उसके शरीर पर स्वर्ण कंकण सुशोभित हो रहा था । जामवंती वहां गयो जहां श्रीकृष्णजो बैठे थे। (६०६) तब सत्यभामा आ गयी, यह जानकर केशव मन में प्रसन्न हुये । तब कृष्ण ने मन में कोई विचार नहीं किया और उसके वक्षस्थल पर हार डाल दिया। (६१०) हार को पहिना कर उससे आलिंगन किया और उससे कहा कि तुम्हारे शंबुकुमार उत्पन्न होगा । जब उसने अपना वास्तविक रूप दिखलाया तो नारायण मन में चकित हुए। (६११) तब महमहण ने इस प्रकार कहा कि मेरा मन विस्मित और अंचभित कर दिया । यदि यह चरित सत्यभामा ने जान लिया तो विकृत रूप करके मोह लेगी । वास्तव में जो विधाता को स्वीकार है उसे कौन मेद सकता है । श्रीकृष्ण कहने लगे कि पुण्यवान ही निष्कंटक राज्य करता है। (६१२) जब जामवंती के पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसका नाम शंबुकुमार रखा गया । वह अनेक गुणों वाला था तथा चन्द्रमा की कांति को भी लज्जित करने वाला था। सत्यभामा के पुत्र उत्पत्ति (६१३) जिसकी सेवा सुर और नर करते थे ऐसा प्रथम स्वर्ग का देव आयु पूर्ण होने से चय कर सत्यभामा के घर पर उ.पन्न हुआ । (६१४) जो वहां से चयकर अनेक लक्षणों वाला गुणों से पूर्ण अत्यधिक सुन्दर एवं शीलवान सत्यभामा के घर पुत्र हुश्रा उसका नाम सुभानु रखा गया। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) (६१५) दोनों कुमार जिन्होंने एक ही दिन अवतार लिया था चन्द्रमा के समान वृद्धि को प्राप्त होते हुचे एक ही स्थान पर पड़ने लगे। शंबुकुमार और सुभानुकुमार का साथ साथ क्रीडा करना (६१६) एक दिन दोनों ने जुआ खेला तथा करोड़ सुवंद (मोहर) का दांव लगाया । उस दांव में शंबुकुमार जीता तथा सुभानु हार करके घर चला गया। . द्य त क्रीडा का प्रारम्भ (६१७) तय सत्यभामा हुसकर मन में विचार करने लगी। उसने कहा कि इस भुर्गे से फिर खेल खेलो अर्थान लड़ानो और जो हार जावे वहीं दो करोड़ मोहर देवे । (६१८) तब उसने मुर्गा छोड़ दिया और मुर्गे आपस में भिड़ गये । इस खेल में सुभानु का मुर्गा हार गया तव शंबुकुमार ने दो करोड़ मोहर जीत ली। (६१६) इसके पश्चात उसने बहुत से खेल किये । (सत्यभामा) दूसरों से भी काफी मंत्रणा करने के पश्चात् दूत को बुलाकर वहां भेजा जहां विद्याधर रहता था। (६२८) दूत ने वहां जाने में जरा भी देर नहीं लगायी और जाकर विद्याधर को सारी बात बता दी । वहां दूत ने कहा कि जो इच्छा हो वही ले लो और अपनी पुत्री केवल सुभानुकुमार को ही देत्रो। सुभानुकुमार का विवाह (६२१) विद्याधर के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और अपनी कन्या को ... विवाह के लिये दे दिया । जय सुभानु का विवाह हुथा तो द्वारिका नगरी में सुन्दर शब्द होने लगे। (६२२) जब सुभानु का विवाह हो गया तब मुक्मिणी के मन में विचार हुआ और मंत्रणा करके उसने दूत को बुलाया और रूपकुमार के पास भेजा। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मिणी के दूत का कुंडलपुर नगर को प्रस्थान (६२३) वह दृत शीघ्र कुडलपुर गया गीर रूपचन्द से कहा कि हे स्वामी ! मेरी बात सुनिये मुझे श्रापके पास रुक्मिणी ने भेजा है। (६२४) शंबुकुमार तथा प्रघम्न कुमार के पौरुष को सब कोई जानते । है। दोनों कुमारों को श्राप कन्याए दे दीजिये जिससे आपस में स्नेह बढ़े । (६२५) तब उस अवसर पर रुपचन्द ने कहा कि तुम क्मिणी को जाकर समझा दो कि जो यादव वंश में उत्पन्न होगा उसको कौन अपनी लड़की चेगा? (६२६) उसने (मपर्चद) पुनः समझा कर बात कह दी कि तुम रुक्मिणी से जाकर इस प्रकार कहना कि संभल कर बात बोला करो, ऐसी बात बोलने से तुम्हारा हृदय क्यों नहीं दुखित हुआ। (६२७) तूने हमारा सारा परिवार न करा दिया तथा तू शिशुपाल . को मरा कर चली गई । आज फिर तू यह वचन कहती है कि मदनकुमार ३ को बेटी दे दो। (६२८) उसके वचनों को सुनकर दृत वहां से तत्काल चला और द्वारिका नगरी पहुँच गया । उमसे जो कुछ बात कही थी वह उसने जाकर रुक्मिणी से कह दी। (३२६) नारायण से ऐसा कहना कि हम तुम्हारे मध्य कसे सुखी रह सकते है ? तुम्हारे कितने अवगुणों को कहे। तुमको छोड़ कर इम डूम को देना पसन्द करते हैं। (६३०) यह वचन सुनकर वह व्यथित हो गयी और दोनों आंखों से आंसू बरसने लगे। इस तरह उसने मेरा मान भंग किया है और उसने मेरा हृदय दुखी कर बहुत बुरा किया है। (६३१) रुक्मिणी को व्यथित बदन देखकर प्राम्न ने अपनी माता से कहा कि तू किसकी बोली से दुखी है यह मुझे शीघ्र कह दे । (६३२) हे पुत्र ! मैंने मंत्रणा करके दूत को कुंडलपुर भेजा था। वहां दृत से उसने जो दुष्प वचन कहे हैं, हे पुत्र ! उन्हीं से मेरा हृदय बिंध गया। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ । (६३३) मैंने तो यह जाना था कि वह मेरा भाई है किन्तु उसने नीच बनकर ऐसी बात कही है । वह मुझे विषय पासिनी मानता है। भला ऐसी बात कौन कहता है ? (६३४) रुक्मिणी के वचन सुनकर प्रदान बड़ा कोधित हुआ कि उसने माता से नीच वचन कहे । अत्र रुपचन्द को रण में पछाड़ कर उसकी प्राणों से प्यारी पुत्री को छलकर परागा। प्रद्युम्न का कुंडलपुर को प्रस्थान (६३५) उसी समय प्रद्य म्न ने विचार किया और बहुरुपिणी विद्या को स्मरण किया । शंबुकुमार और प्रदा म्न पवन वेग की तरह कुडलपुर गये। दोनों का ड्रम का भेष धारण कर लेना (६३३) नगरी के द्वार दिखलाई देने पर दोनों ने इम का रूप धारण कर लिया। मदन ने तो हाथ में अलावणि ले ली तथा शंबुकुमार ने मंजीरा ले लिया। (६३७) फिर वे दोनों चीर चौराहे की ओर मुड़े तथा सिंहद्वार पर जाकर खड़े हो गये । वहां राजा अपने बहुत से परिवार के साथ दिखलाई दिया तब मदन ने अपनी माया फैलाई । (६३८) फिर मदन ने बहुत से गीत एवं कवित्त जो यादवों के सम्बन्ध के थे अत्तजित हो हो कर गाये | गीतों को सब ने ध्यान से सुना लेकिन श्रीकृष्ण की प्रशंसा के गीत उन्हें अच्छे नहीं लगे। (६३६) जब उसने यादववंश का नाम लिया तो रूपचंद का मन दुखित हुआ । रूपचंद ने पूछा कि मैं तुम्हारे गीतों का सार जानता हूँ । पर तुम कहाँ से आये हो, यह बतलायो ! रुपचंद को अपना परिचय बतलाना (६४०) हमारे स्थान का नाम द्वारिका नगरी है और जहां यदुराज श्रीकृष्ण राज्य करते हैं । जिनके रुक्मिणी पटरानी है । हे राजन् ! जो तुम्हारी वाहन भी है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ ) (६५१) उस राखी ने जो तुम्हारे पाहूत भेजा था उसने तुम्हारी बहुत सराहना की थी। उसी से वहां जाकर तुम्हारा। उत्तर कहा । उसी के कारण हम यहां आये हैं । ! और (६४२) अपने कहे हुए वचनों को प्रमाण मानों क्योंकि सत्यवक्ता के वचन प्रमाण होते हैं । हे भाग्यवान् हम से स्नेह (संबंध) करके अपनी दोनों कन्यायें दे दो । रूपचंद का उन दोनों को पकड़ने का आदेश देना (६४३) यह सुनकर राजा क्रोधित होकर खड़ा हो गया। ऐसा लगने लगा मानों श्रग्नि में घी डाल दिया हो। उसका सम्पूर्ण श्रंग एवं मस्तक काँप गया तथा बोलने २ प्राण भी उडने लगे। ऐसे बोल तुमने किससे कहे हैं ? उसने आदेश दिया कि इनको बाहर लेजा कर शूली पर चढा दो । यदि यदुराज में ताकत है तो वह इनको आकर छुड़ा लेंगे 1 (६४४) तब उन्होंने पकड़े जाने पर जोर २ से पुकार की कि हम डूम हैं इम हैं । ये शब्द चारों ओर छा गये । उसके हाथ में अलाव रंग (अलगोजा ) थी जिसके सुनने के लिये सारे बाजार एवं हाट भर गये थे । (६४५) उसी समय कुमार रूपचन्द ने सब राजाओं को पुकारा तथा सब बातें बताई। वे हाथी घोड़ों को साथ लेकर एक ही चरण में बां आ पहुँचे । (६४६) तब राजा रुपचंद वहां आये जहां प्रयुम्न और शंबुकुमार थे वे दोनों एक साथ अपने हाथ में एक तारा (सितार) अलावरिण ( अलगोजा ) और वीणा लेकर गाने लगे । (६४७) हम को देखकर राजा के मन में शंका पैदा हुई कि वह नीच जाति पर किस प्रकार प्रहार कर सकता है। धनुष साध करके जब उसने बाण छोड़े तब दूसरों ने भी चौगुणे बाण छोड़े। प्रद्युम्न और रूपचंद के मध्य यृद्ध (६४) तब प्रम्न बड़ा क्रोधित हुआ तथा धनुष चढा कर हाथ में ले लिया । उसने क्रोधित होकर अग्निबाण छोड़ा जिससे लड़ते हुये सभी क्षत्रिय भागने लगे । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) (३४६.) सेना भाग गयी तथा मामा के गले में पांव रख कर उसे बांध लिया। सब दल के भागने पर कन्या को अपने साथ ले लिया और द्वारिका नगरी श्रा पहुँचे। (६५) रूपचंद को लेकर महलों में पहुँचे जहां श्रीकृष्ण बैठे हुये थे। श्रीकृष्ण को रूपचंद ने आंखों से देखा और कहा हमें नारायण का (दर्शन) लाभ कराया गया है ? रूपचंद को पकड़ कर श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित करना (६५१) तब मधुसूदन ने हंस कर कहा कि यह तुम्हारा भानजा है। इसमें बहुत पौरुष एवं विद्याबल है । इसने अपने पिता को भी रण में जीता है। श्रीकृष्ण द्वारा रूपचंद को छोड़ देना (६५२) तब प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने कृपा की और बंधे हुये रूपचंद को छोड़ दिया। प्रद्य म्न ने इंसकर उसे गोद में उठा लिया 1 फिर उसे रुक्मिणी के महलों में ले गया । रूपचंद और रुक्मिणी का मिलन (६५३) वहां जाकर उसने अपनी बहिन से भेंट की । रुक्मिणी ने बहुत प्रेम जताया । बहुत श्रादर के साथ जीमनवार दी गयी जिसमें अमृत का भोजन खिलाया। (६५४) माई, थहिन एवं भानजा अच्छी तरह से एक स्थान पर मिले । रुक्मिणी की बात सुन कर रूपचन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा उसने कन्या को चित्राह के लिये दे दी। प्रद्युम्न एवं शंयुकुमार का विवाह (६५५) तब हरे बांस का मंडप तैयार किया गया तथा बहुत प्रकार के तोरण द्वार खड़े किये गये । छप्पन कोटि यादव प्रसन्न होकर दोनों कुमारों के साथ विवाह करने चले । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) (६५.६) बहुत भांति के शंख एवं भेरी बजी। मधुर बीणा एवं तूर बजा । भांवर डाल कर हथलेवा लिया गया तथा चारों का पाणिग्रहण संस्कार पूरा किया गया । (६५७) नगरी में घर घर उत्सव किया गया और इस प्रकार दोनों बुमारों का विषाह हो गया । जो सज्जन लोग थे वे तो खूब प्रसन्न थे किन्तु अकेली सत्यभामा ऐसी थी जिसका मन जल रहा था। (६५८) रूपचन्द को जाने की प्राशा हुई और वह समधी नारायण के यहां से घर गया । यह कुंडलपुर में राज्य करने लगा। अब कथा का क्रम द्वारिका जाता है । उनका (प्रद्युम्न) मन उस घड़ी धर्म में लगा तथा जिन चैत्यालय की मंदना करने के लिये कैलाश पर्वत पर चले गये । बटा सर्ग प्रद्युम्न द्वारा जिन चैत्यालयों की वंदना करना (६४६.) तब प्रद्युम्तकुमार ने चितवन किया कि संसार समुद्र से तैरना बड़ा कठिन है । मन में धर्म को हड़ करना चाहिये तथा कैलाश पर्वत पर जो जिन मन्दिर है उनकी शुद्ध भाव से पूजा करनी चाहिये । भूत भविष्यत तथा वर्तमान तीर्थकरों के चैत्यालयों को देखा और कहा कि जिनने जिनेन्द्र भगवान के ये चैत्यालय बनाये हैं वे मरत नरेश धन्य हैं। (६६०) फिर प्रद्य म्न ने चैत्यालयों की वंदना को जिनकी ज्योति रत्नों के समान चमकती थी | अष्ट विधि पूजा एवं अभिषेक करके प्रयम्न द्वारिका वापिस चले गये। (६६१) इसके पश्चात् दूसरी कथा का अध्याय प्रारम्भ होता है । कौरव और पाएडवों में कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध हुआ। तब भगवान नेमिनाथ ने संयम धारण किया। (६६२) फिर प्रयम्त द्वारिका जाकर विविध भोग विलासों को भोगने लगे । घटरस व्यंजन से युक्त अमृत के समान भोजन करने लगे । (६६३) वहां सात मंजिल के सुन्दर श्वेत महल थे उनमें वे नित्य नचे भोग विलास करते थे । वे महल अगर तथा चन्दन की सुगन्धि से युक्त थे तथा सुन्दर फूलों के रस से सुवासित थे। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) नेमिनाथ को केवल ज्ञान होना (६६४ ) इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हुआ और फिर नेमिनाथ भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। तब उनके समवशरण में सुरेंद्र, मुनीन्द्र, एवं भवनवासी देव आदि आये । (६६५) छप्पन कोटि यादव मन्त्र शंकर, नारायण एवं हलधर के साथ चले जहां नेमिनाथ स्वामी समवशरण में विराजमान थे। वहीं श्रीकृष्ण तथा इलधर जा पहुँचे | (६६६) देवताओं ने बहुत स्तुति की। फिर श्रीकृष्ण ने (निम्न प्रकार ) स्तुति प्रारम्भ की। हे काम को जीतने वाले तुम्हारी जय हो ! तुम्हारी मुर असुर सेवा करते हैं (हे देव तुम्हारी जय हो । } (६६७) दुष्ट कर्मों को क्षय करने वाले हे देव ! तुम्हारी जय हो ! मेरे जन्म जन्म के शरण, हे जिनेन्द्र ! तुम्हारी जय हो। तुम्हारे प्रसाद से मैं इस संसार समुद्र से तिर जाऊ' तत्रा फिर वापिस न आऊ । (६६) इस प्रकार स्तुति करके, प्रसन्न मन हो मनुष्यों के कोठे में जाकर बैठ गये । तच जिनेन्द्र के मुख से बाणी निकली जिसे देवों, मनुष्यों एवं सब जीवों ने धारण किया । (६६६) धर्म और अधर्म के भी आगम की बात सुनी। उसके यादवों की ऋद्धि के बारे में पूछा । (६७०) हे स्वामिन मुझे बताइये कि नारायण की मृत्यु किस प्रकार से होगी ? द्वारिका नगरी कब तक निश्चल रहेगी ? हे देव ! यह मुझे आगम के अनुसार बतलाइये | गणधर द्वारा द्वारका नगरी का भविष्य बतलाना (६७१) इस प्रकार बात पूछ कर बलराम चुप हो गये। मन में विचार कर गणधर कहने लगे कि बारह वर्ष तक द्वारिका और रहेगी। इसके बाद छप्पन कोटि यादव समाप्त हो जायेंगे । इन सिद्धान्त को सुना तथा प्रद्युम्न ने पश्चात् गणधर देव से छप्पन कोटि (६५२) द्वीपायन ऋषि से ज्वाला निकल कर द्वारिका नगरी में आग लग जावेगी । मदिरा से छप्पन कोड यादव नए हो जावेंगे। केवल श्रीकृष्ण और बलराम श्रचेंगे | Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) (६०३) मुनि के आगमन एवं श्रीकृष्ण की जरवकुमार के हाथ से मृत्यु को कौन रोक सकता है ? मावु, सुभानु, शंत्रुकुमार, प्रद्युम्नकुमार एवं आठ पट्टरानियां संयम धारण करेंगी । (६७४) गणधर के पास बात सुनकर तथा द्वारिका का निश्चित विनाश जानकर द्वीपायन ऋषि तप करने के लिये चले गये तथा जरदकुमार भी बन में चला गया । प्रद्युम्न द्वारा जिन दीक्षा लेना (६७५) दशों दिशाओं में बहुत से यादव इकट्ठे हो गये और संयम व्रत लेने के लिये भगवान नेमिनाथ के पास गये । प्रद्य मनकुमार ने जिन दीक्षा ली तो नारायण चिंतित हुये । 1.9 प्रद्युम्न द्वारा वैराग्य लेने के कारण श्रीकृष्ण का दुखित होना (६७६) श्रीकृष्ण शोकाकुल होकर कहने लगे हे मेरे पुत्र ! हे मेरे पुत्र प्रद्युम्न ! तुम्हारे में आज कौनसी बुद्धि उत्पन्न हुई है ? तुम द्वारिका लेश्रो और राज्य का सुख भोगो । (६७७) तुम राज्य कार्य में धुरंधर हो, जेष्ठ पुत्र हो, तुम्हें बहुत विद्याबल प्राप्त है। तुम्हारे पौरुष को देव भी जानते हैं। हे पुत्र प्रद्यन्न ! तुम अभी तप मत धारण करो । (६) कालसंवर तुम्हारा साहस जानता है। तुमने मुझे रण में बहुत व्यथित किया । तुमने मेरी रुक्मिणी को हरा था तथा बहुत से सुभदों को पछाड़ दिया था | (६७६) नारायण के वचन सुनकर प्रद्युम्न ने उत्तर दिया कि राज्य कार्य एवं घर बार से क्या करना है, संसार तो स्वप्न के समान है। (६०) धन, पौरुप एवं अपार बल का क्या करना है। माता पिता अथवा कुटुम्ब किसके हैं। एक ही घड़ी में न हो जायेंगे। आयु के नष्ट हो जाने पर कौन रख सकता है ? रुक्मिणी का विलाप करना ( ६- १) नारायण को दुखित देख फिर रुक्मिणी वहां दौड़ी आई | वह करुण विलाप करके चिल्लाने लगी तथा कहने लगी कि हे पुत्र किस कारण संयम धारण कर रहे हो ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) (६२) तू मेरे केवल एक ही पुत्र हुआ और तुझे भी होते ही धूमकेतु हर ले गया । हे पुत्र ! तू कनकमाला के घर पर बड़ा हुआ जिस कारण मैं तेरे बचपन का सुख भी नहीं देख सकी। I (६८३) फिर आनंद प्रदान करने वाले तुम आये और पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान तुमने कुल को प्रकाशित किया । तुमने सम्पूर्ण राज्य-भोग प्राप्त किये। अब इस भूमि पर कौन रहेगा ? प्रद्युम्न द्वारा माता को समझाना (६४) माता के वचन सुनकर प्रद्युम्न ने उत्तर दिया कि यह सुन्दर शरीर काल के रूट जाने पर समाप्त हो जावेगा । (६८) इसलिये हे माता अब विवाद मत करो तथा माया, मोह और मान का परिहार करो। व्यर्थ शरीर को दुःख मत दो। कौन मेरी माता है और कौन तुम्हारा पुत्र है ? (६६) रहट की माल के समान यह जीव फिरता रहता है और कभी स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी पर अवतरित होता रहता है। पूर्व जन्म का जो संबंध होता है उसी के आधार पर यह जीव दुर्जन सज्जन होकर शरीर धारण करता रहता है । (६=७) हमारा और तुम्हारा सम्बन्ध पूर्व जन्म में था। उसी को कर्म ने यहां भी मिला दिया है। इस प्रकार माता के मन को समझाया | फिर रुक्मिणी अपने घर पर चली गई । प्रद्युम्न का जिन दीक्षा लेकर तपस्या करना (६) माता रुक्मिणी को समझा कर फिर प्रयुम्न नेमिनाथ के पास जाकर बैठ गये। उनने द्वेष क्रोध आदि को छोड़कर पंचमुष्टि केश लौंच किया । ( ६-६ ) उन्होंने तेरह प्रकार के चारित्र को धारण किया तथा दश लक्षण धर्म का पालन किया । बाईस प्रकार के परी को उन्होंने सड़न किया जिसके कारण बाह्य एवं अभ्यमंतए शरीर क्षीण हो गया। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) प्रद्युम्न को केवलज्ञान एवं निर्वाण की प्राप्ति (६६०) घातिया कर्मों का नाश करने पर उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न नेत्र द्वारा सो-सोक की बात जानने लगे तथा फिर अपने -- हो उनका हृदय अलौकिक ज्ञान के प्रकाश से चमकने लगा । (६६१) उसी समय इन्द्र, चन्द्र, विद्याधर, बलभद्र, धरन्द्र, नारायण, सज्जन लोग, एवं देवी और देवता याये । (६६२ ) इन्द्र वाणी से स्तुति करने लगा । हे मोह रुपी अन्धकार को दूर करने वाले ! तुम्हारी जय हो । हे प्रद्य ुम्न ! तुम्हारी जय हो, तुमने संसार जाल को तोड़ डाला है । (६६३) इस प्रकार इन्द्र ने स्तुति कर धनपति से कहा कि एक बात सुनो। इन मूक केली की विचित्र ऋद्धियां हैं अतः क्षण भर में ही गन्ध कुटी की रचना करो । ग्रंथकार का परिचय (६६४) हे प्रद्युम्न ! तुमने निर्वाण प्राप्त किया जिसका कि मेरे जैसे तुच्छ - बुद्धि ने वर्णन किया है । मेरी अग्रवाल की जाति है जिसकी उत्पत्ति अगरोव नगर में हुई थी । (६६५) गुणवती सुधनु माता के उर में अवतार लिया तथा सामराज के घर पर उत्पन्न हुआ । एरछ नगर में बसकर यह चरित्र सुना तथा मैंने इस पुराण की रचना की । (६६६) उस नगर में श्रावक लोग रहते हैं जो दश लक्षण धर्म का पालन करते हैं। दर्शन और ज्ञान के अतिरिक्त उनके दूसरा कोई काम नहीं है मन में जिनेश्वर देव का ध्यान करते हैं। (६६७ ) इस चरित को जो कोई पढ़ेगा वह मनुष्य स्वर्ग में देव होगा | ar देवां से चय करके मुक्ति रूपी स्त्री को बरेगा। (६६८) जो केवल मन से भी भाव पूर्वक सुनेंगे उनके भी अशुभ कर्म दूर हो जायेंगे। जो मनुष्य इसका वर्णन करेगा उस पर प्रद्युम्न देव प्रसन्न होंगे। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २२२ ) (६६६) जो मनुष्य इसकी प्रतिलिपि करेगा अथवा तैयार करवाकर अपने साथ रखेगा तथा महान गुणों से परिपूर्ण, रचना को पढावेगा वह मनुष्य स्वर्ण भण्डार को प्राप्त करेगा। (७००) यह चरित्र पुण्य का भण्डार है जो इसे पढ़ेगा वह महापुरुष होगा तथा उसको संपत्ति, पुत्र एवं यश प्राप्त होगा और प्रद्य म्न उसे तुरन्त फल दंगे। (०१) कय कहता है कि मैं बुद्धि हीन हूँ और अक्षर तथा मात्रा के भेद को भी नहीं जानता हूँ ! विद्वानों को मैं हाथ जोड़ कर नमस्कार करता हूँ कि वे मेरी ( अक्षर मात्रा की) हीनाधिकता की त्रुटियों पर ध्यान न दें। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hit Liindian रानभासणुबहातेमासुरेश्वरमा रायमातिभिररसरातमा मनिवाडिदिनालिसपERतिविफशिलाभवान वितेसपास केवलासिनियतिरिवविविनामारक मसापानमयदेनिवालामेरालातियुस्गरेएमुक्तियति मालपासणसरिसदप्रावतविपरनामसानिमाड भारनिसरापामारपसावरमादिषतिधर्मराक्षसरिशमान असल मिजियोमस्टेज।पादिसुनीतसिारस्वोदेवतारकास्लु मानवाशिमारायणिशापतितासन दिवसावकराणामधिनाया। सोमवारयाताकागातल्ला HMA - KASAN . मारितिपदमा ४ HDसनमानमाला सवावरन्यवरयासानादिश्मंगलबासमूलसंघालितायत श्रीललितमानिस सासरवासासा: सायम्मशालतमांगल्छदया -. - -.. . अन्तिम पत्र ( शास्त्र भण्डार श्री दि. जैन मन्दिर बधीचन्द जी जयपुर के व्यवस्थापकों के सौजन्य से प्राप्त ) Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J भ्र इस १२, ४६, २०५ इस - ४६, १६५ असो-४३६ अकाल - १४३, २८१ अकुलाउ – ५४ श्रकुलापी - २४७ अकुलानो - २६४ प्रकुला ४८७ अकुलाने --- ५४० अंकुश - २१३ अकेलउ - २८२ केलो - २६० अक्षत - ३७७ अक्षर- ३०१ श्रख एहु --- ३२ अखाडो -१८२ प्रस्वारउ - ४५१ प्रारि ३३१ प्रसासि - ४५१ भगनिवारण – ५२५ अगर- २६, ५६३, ६६३ अगरवाल - ६६४ अशेष—६६४ - अंग ६५ ५७६६ अगलाइ – ५१७ धगडे – ३०२. श्रग्निवायु- ६४८ शब्दानुक्रमणी | | i अग्नि - ४०१ अगिनि - २०८ अगिनी- ११२ अगिवाली - ६ अं - ६६, १३२, ३११, ५०७ अंगुहडो - २०० अनूठा - ६४ अगोडो -- २०६ प्रघान- -- ३४१, ३६१, ३६२ प्रधाउ - २८४ अगले – ३०६ प्रचंकित - २५५ प्रचंड - १५२ श्रबंभव - ४२३ श्रभिउ - २४६ अचंभी - ३६५ अभी-- १६४, ३३७, ५३१ श्रभ्यो - ४५५ प्रचल— २४५. | अत्रुल — ५३६ श्रचरिउ -- ५०२ श्रंखल -- ४३१ श्रद्रह - ४१६ खराय - ६६१ प्रद्योह - ५६४ प्रजर - २३२ अजहु - ३६१, ४१५, ६२७ श्रजितु - = जोडि- २६, ४६६ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) प्रवल–३ अठार - २७६ अठ्ठारह २० प्रखुट-२६६ प्रगंगह-१२१ अरणंगु-१३२, ३११, ३४० अरांस-३४६ प्रयुसरई-२४ अति-३६, ४२, १३४, १३६, २०१, २२७, ३३५, ४२८, अतिगले-३८६ प्रतिवंत-२६१ प्रतिबल-२६० प्रसिस कप-४२८ अतीत–६५६ अतुल-२०२, ४५६ ४६१, ५०२ अतुर-५६१ अपय-३६८ अपवाल-७३ अप्रमाण--१ अपहि-२०७ अपारण-१२ अपार---१८, १६५, २३३, २३४, ३५७, ५५६, ६४४ अपारू–२३०,५६१ मपूरव-१६२, २४ प्रफामु-६०४ अफालिज-७६ अभया-२७४ अभिनंदणुप्रभेड-२९ अंबमाइ-५ अमइ-- २२७५ अमृत–६५३, ६६२ अमर-२३२, २०१, ४६२ अमरवेज-२१८ अमरदेश-२१६, २१७ अमिगिझ-५२६ प्रयस--५३६ प्रसारण-३६२ अर--२११, २३६, ४२२, ५१० अरञ्जन--२२४ अर्जुन-४५६, ४६८, ४७४, ४६३ परसाइ---३५८ प्रर्य--३०१ प्रयु--३७६ प्रद्ध-५१८ परराइ--३५६ परहंत-२३१ मरि---५३प्ररिवल--१७५ अंतरिख-३२५ अंतरीख-४२ प्रतु-२, ४६ अथि-३१४ प्रविरिण-२४३ अधिक-११, ३८६, ७०१ अधिकु-२५३ अनजानत-१४३ अनंत--१०, ३४६,५००,५०४,६८६ मनतु--- अनंदु-५६१ अनागत-६५६ अनिवार-२, १२१, २३६, ६११ अमूपम–६००, ६०२ प्रपमाण-४८३ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) अरियररावल . २१ अरिया–१७१ भरिराउ-५ पर-६, २०, ३४, ४१, ५१, ७१, १०,६६, ११३, ११२, १६२, २५१, २६०, २६५, ३४५, ३६७, ४१६, ४२०, ५०४, ५८, ५१६, ५५६, ६७३, अवतार--६०० अषधारि--६७ अवर--३३२, ४१५, ४१८, ४४५, ५६१,५६५, ६३८, ६४७, प्रवरइ--२८१ अवरु–८, २२, २४६. २६७, ३६३, ५३, ५६.६, ६६१, ७०० प्रवलोई-५४२ प्रबसह-११० अक्सर-४३३ अहि-५१३, ५६१ प्रवास–१८, ४, १११, ३१४, प्रहजे-५०२. परे-३०३ प्रला-१०३ अलावरिंग-४, ५८०, ६३६, ६४४, अलिउ-२६४ अलिसि-४२० प्रलियउ–२६५ प्रलोफरिण-२५५ प्रव-७६, २०७, १४१, १५८, ६५, ३०६, ३१८, ३११, ३२३, ४२६, ४६८, ४६६, प्रविचार-- २३३ अविचारू-२१७, ५६६ प्रविलेखियज-५६५ प्रवेसि-२८८ प्रसगुन--३५६ असलि-४५ असराल–२८१, ५८२ प्रसरातु-६ प्रसवार--३३२ असवारिय---३३७ प्रसिबर–१७८, ४७६, ४४२ प्रतीगी-२३३ असीस-१००, ४१,५७ असुभ-६६८ असुर-२३१, ५३८, ६६६ असुह–२७४ असेस-६८, १६४, ५२८, ५७४, ५१८, ५४१,५४३, ५५१, ६०३, ६०५, ६५३ अवगी-६८५ अवगुण-६२६ अबटाइ-३२७ प्रवालि-५५३ अवतरह-६८६ अवतरणु-१६२ प्रवतरिउ-२३१, ५०२, ५५२, असेसु-३७, १५२, ५३४, ५५४, अवतार--६१५ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • पाए--३६८, ४२६, ५६५, ५७७ असेसह--४६१ प्रसोग-८६, १०२ प्रहह-१४, ३७६, ४०४, ४७२, ४४६. ४५६, ६३३, ६५१ आहष-३६ . मनहर-१४४ अहंकाग-२३० प्रहार--४४३, ६५३ प्रहार- ३८४ अहि-१६६, २३०, ३०८ अहो-३६६ ग्रहोडी-३०७ श्रा माकर-१४, २५६, ४२६ आकास-२७, २१४ प्राक्षित--५७० प्राखउ–३३०, ३४८,४५५, ४५६ पाखट--२६६ पाखरू-१ प्राहि-४४६ भाग -१२०, १९६, १६६, ३८६, ४३६, १५८ आगम-४, ६६६, ६७० प्रागमण--२६, ४२८ प्रागम-६७३ प्रागल-५१४, ६१२ प्रागली–३६ प्रागय--२ मागासव--१६८ आगि-४७८, ५२८, ६४२ प्रांगुल-३२४ म.गुली-३६३, ४२२ मागे-३८६, ५६८ प्राग-५७७ प्राधाइ-५०४ प्राचल-२४१, ३६७ प्राचलइ-१६२ प्राचूक-३७५ प्रायर -५४ भाज-२०, ७४, २६, ४२६, प्राइ-५, ६४, ६६, ७२, ७५, १८७, ११३, ११५, १२२, १३६, १६०, १६५, १६८, २१६, २२०, २२४, २५१, २६२, २८१, २८७, ३०२, ३४०, ३५६, ३५६. २८८, ३६२, ४१६, ४१७, ४३७, ५०५, ५४८, ५७१, ६१८, ६४६; ६६४, ६८१ प्राइस-५६४ प्राइस-१६७, १७१, ४३३, ६५८ आइसी–३०४ प्राइसे--१४५ प्राउ - २८६ माजि--१०१, ४६१ भानु-.-६६, ७, १८६, २५६,५१४, ४१६, ४१७, ४७५, ४६३, ५१५, ५२३, ५५२, ६७६ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७) पाठ-८०,६७३ प्रापरणउ -१५५, २७८, ३२७, प्राठम-८ ३३४,४०७,४२१,४३२, पाठपउ-५८७ भाठयो-६३२ प्रापरणी-४७, १६२, ६३१, ६५३ माह-५३३ प्रापणे-१०.३७१, ३७५, ५२३ प्राडौ--५३६ प्रापणे-३११ मालाइ ... २५७, ३७६,६११ प्रापले--२५८ पारसंदियउ-१८३ अापन-५०७ पारगन्यु-५८ प्रापनो-४५३ प्रारिण-२६, ४६, ५७, ६३, १००, प्राप्यउ-२०३ ११३, १३३, १८५, १६२, प्रापमु-१७३ १६७, २०३, २०७, २०८, प्रापह-६७० २१५, २४४, २५७, २७२, प्रापि-८४ २७३, ३८८, ३६३, ४८३, प्रापिउ--१३३,२८८, २५७ ४७१, ४७२, ५६२, ६७ प्रापी-५२, २६४ प्रापु-३०० मारिणउ-३२७, ३८६ आपुस-३८८ प्रारिणजउ--३४ श्राफइ--२०० मारिणह-.-५८३ प्राफर--१६२, ४१२ भारणी --५७२ श्राफरयर-४४३ प्राण्यो-६८३ श्राफह-२६१ पारगौ--६३ प्राफल-१५, ६.१, ६०२ माधि--५६, २७१ प्राफि--१६३, ३४२ प्रावम-६३८ आफी-६३, १९, २१५, २४७ प्रादह--३६ आफोह-३०४ पादि-३४४ माफुट--६७० भाषासण-३-६ श्राभररस-~१.२, २२६, ६८० माधु-४०४ आभिडई -२६१ आनंद-१२७ प्राम--२१८, ३४७ मानं दिउ--५६० प्राय---३५३ मानंदु-६८३ आमत-२८, ३२, ५३, २१६, प्राप-२४४, २८३ २१. २६३.३०३, ३६२, प्रापइ-२४ ४२८, ५६०, ५६३, ५७३५, प्रापरण-२६८, ४४१,४८७ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, २२६, २४३, २५७, BF FREE ३०३. ३०४, ३३६, ३७८, ३८०,४०६, ४०६, ४४०, ४६७, ४७१, ५००, ५०१, ५१५, ५१६, ५३७, ५५०, ६५, ६०६, ६१०, ६७, ६८६ इक--३४, ३६, १८, १४१, २४१, ३०१, ३२५, ६१५, ६४५, हुकु--३४, २४६. ४३८ प्रायस-६२६ प्रायसु--४७३ प्रायिउ-२१६ आयो--३८, ४५, ६८, १४६, १५६, १५८, ३३६, ४५५, ५६४, ६.३ प्रायो-२५६ प्रारति-५६२,५७८ प्रारंभिज--६६६ प्रारूडो--५२५ प्रालि.-४३१ प्रालिंगनु---६१० मालु-8 आलोक---१४२ पाब-१३६, ६८ प्रावइ--३२१, ३४६, ४१४, ४१५ प्रावत--४३,७०, २०६, २६ प्रावतु-१६ प्रारते-३६७ प्रावष-४५७, ४६७ प्रावले--३५८ अवि--२०८ प्रावधु--४५० प्रायतु--३२१ प्राषा--२५३, ४४६ प्राविउ--५६६ इकुसोवन--१८ इंगल--१५ इणि-२६५, ३६२ इसी–१२३ इतबा--१३२ इसनउ-२३६, ३३० इतडो-१८५, २८६ । इत्वहो-६२६ । इतु-३३ इथंतरि - ६६१ इंदु--५४१ इंदजाल–२०२ इन्द्रलोक-१५३ इन-४० इनउ -४ इन्ह--३३४. १३८, १५८ इनके-४५६ इनकी-१८६ इनडो-२०४ इनी—६.६ । इव-५८५, ६७ प्रास-३३३,५१६ मासीका-३७७ प्रासुपातु--६३० पासू---१४१ माहार--३७८, ३७६, ३८० प्राहि--३६, ५६, १५२, १५४, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { २२८ ) इम-४१, १४३, १४५, १४६, उछ?-५५४ २८३ उछाहु-१३५ पराम्बत-६८ उछाऊ--२२३ इय-६६३ उछाव-मा इप-६७२ उछाह-४१६, ५४ इह-२८, ३६, ७६, ६६, २७, उदाहु-१४, 25, २२९, ३५२, ३०५, ३२३, ३३६, ४३८ ४१३, ५६६, ५६६ ५७k, इहइ---४५३, ५४१ ५, ६२१, ६५४, ६५७ इहर-४५३ उजल-१०३, ३१४ इहि-४०.४४, १२५, १६४,२५२, । उजाणु-१३८ २५४, २५६, ३२६, २२, अधि -२६६ ४३८, ५२७, ५२३, ५३७ । उभाइ-१७० ५४७, ५४८, ६३०, ६५१ । उझावलि-१३६ इहिर-३७१ उझिल---४१८ इहिस-१७६ उठ-३८१, ६७२ उठ-४४४, ४६८ ५१३, ५५६ उठहि---४३७, ४४२ उठाइ–१३२, १३३, १५६, ५५१ उह-१०, ३५६ उठावइ--१२४, १४४ उफठे.-१६१ उठि-४८, १०१, २४४, २७२, उखल-३६३ ५३७, १४३. ५५७, २५६ उगातु-६५, १० उठिउ---२१२, ४१६ उच-१३१ जठियोज-४५१ उचंग-१५ उठी-४००, ४२५, ५६४ उचरह-३६६,५८१, ६३१ उठीयउ---१८० र-: ., ५y:, उची-१३१ उच्छत्यङ–१७३ उठो-२८७, २८ उबलिउ-- १ जड़ी--७३ उछाली-- ७१, ८६, १७५, ४२३, उरणहारि-४० उतपाति-६६४ उछंगह--१३३, ५५१ उतर--५४४ उछगि--५६० उरि-१२३, ३२०, ५४० उच्छव-५६५ । उत्तर-२३६, ४१२,६४१ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३० जतंग-१५ जतंग-३१६ उतारउ-५६२, ५२३ उसारण-४५० उतारि.३४१, ४२२, ५७१, ५८४ उतार्यो-२८७, ५५७ उतारी-१०२ उतिमु-३० अतिरि-२६४ उथल्याउ'-१५७ उदउ-४२, ५२२ सविधिमाल-२६६, ३०५, ३१२ उपरा-३८१,३८२ उपराउपह--१६७, २०५ उपरि-३-१,५५१ उपाइ-३६:१ उपाउ-७६, १६४, १८६, २०२, २५२, २६२, ३२३, ४८१, ५६१ उपाय--२ उबर-६७२ उभउ–२१६, २६६, ३२०, ४५० उभी--६७, ३५७, ४२४ उभे--८E, २१२, ४३५, ४४२, . उभो--२८२, २३८, ३६१, ३७५ उभौ--६ उदो--३२८ उदोत–२६३ उधोत-६-३ उधान-५६, ३३८, २४० उपए-२६५ उपजइ ---११, १५१, १५३, २३२४ ४०५,५५, उपमाह-४३१ उपजी--- ३६ उपराउ----६, ६४, ५६८, ६६० उपरिण-२७ उपरपी-३६३ उपदेस-६१० उपनउ-२७, ११७, ५.१७, ५५७ उपनी-१७६, ४०१, ६७६ उपनो-३३, ३२८, ३७६ उपनौ-२८६ उपर-११, १८१, १८७, २१४. २५८, ३६७, ३४२, २७७, ३८१ उमासे-६८उर--२३०, २५०, ५५२, ६६५ उरम-५३२ उरगि--५४४ उसषु-२६५ उस-४२० उलगाणे-३३६ उबरउ-२७७ उवरू-५०७,४४३ उबरे--२८८ उपसंत-२२३ उधार--४६५ उवारि-४६५ उतार-४६७ उविहारू–२१७ उह----१, ३१३ उहटे--५२६ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊ } ऊंदु - ३५८ ऊटू – ३५६ करण -- ४२० उत्तर—६७६ ऊपरऊपर - ६१८ कभी-२३५. ऊंवर -२३५ ए एक - ३०३, ३८०४४४४४ ५८१, ६०२, ६१६ एक इ--५३६, ६५७ एकठा—२५४ एकल – ६५४ 4 एकतर – ३८० एक हि-६६५, ६४६ एकसामक - ६४६ एकोनो--४७३ एकु -- २५७, २५२, ३५६, ३७८ ३७६, ४३६, ४५७, ५.३६, ६०५, ६२०, ६५२,६६३ एकुइ – ३ एकुउ - ३७६ एकुह् ४७३ एगुएासीर - १० एत - १२६, ४२६, ५८४, ५६३ एतउ – २२१, २६४, ४३३ एह-- ११४, ११५, ६१३ एसहि ५५० (क) एत – ५७१ एते – ३६८, ४२४ | एम - - ३६६, ५५४, ६११ एम्ब – ३६, ६६७ एरछनगर- ६६५ एसी - ६३३, ६५४ एसे - १५१, ४३४, ४६८, ४७८ एस-१५३ एसो – २६८, २८३ एसी- १३६, १४८ एस्यो - १४४ ऐह- १८७, २३५, २६५ देह – ६५, ३२८, ४०६, ६६७ ऐसी - - ४८३, ५१२ सो-- ३६४ ऐतु--६२१, ६४३ श्रो प्रोरइ – ६१६ क कच -- ६५ कइय---३४८ कइबै—- ३३० करसह ३५ इसी – ५४१ कउ -- २, २८४, ३२३, ३३६, ४०२, ४३०, ४८१, ५१६, ५६५, ५६५, ६०६, ६१२, ६५७, ६७६, ६५०, ६६४ करणर्कक रूप --- ६०८ कंकरण--२३६ कंकर -- २६७ कचनारू---३४५ - १६, १६१, ३१३, ६६६ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमाल - २६४, ५७१ कंचरणमाला - १२६, १३३, १३४ -५१४ कछुक- १११ कस-३४८ कजल -- ३० कठिया - ३६८, ३७५ कहा- २३४ कठीया - ३६७ कठाइ -- ४३५, ४४६, ४४७ काख उराउ -- १६१ करणय--२६. ३११, ३६६ करणयमाल – १३५, २४१, २४५, २४६, २५०, ५४८ करण्यक - - १६५ करावी– ३४५ कशिक- ६३ करणौ--३३४ कत- १०८, २३०, ३६२ कतहुती--१ कथंतर--११७, ४३३, ५६.३ कथंत--४१३, ६६१ ( २३२ ) i कथा - ११, १३६, १६३, ४५३, ६५८ कन्ह-- ५०, ५७२, ५७५६०६ कन्ह-- ६२, ६३, ६६,७ कनउ - - ६०३ कमक-- ३७४, ५०६, ४६.१ कनकषालु ----३८५ कनकदंड -- २३, ५२ कनकमाल -- २३, २४६, २५१, २६३, २७७ ४७४ ६८२ कनय -- ५८२ कनयमाल -- २३० कन्या --२२३, ३०७, ६४६, ६५४ कनवजो—- ५.७६ -- ६८४ कंद — ६६८ केंद्र -- २१६, २४३, २६१, ४१८, ५६०, ५६२, ५६३, ६३५, ६३७, ६६.२ कंद्र - - ५.३०, ६३७ कंदलु -- ६८५ कषि-- २१३ कपट -- ६७ कंपइ -- ५०२. कंपत -- ३७५ कंपिउ ६७, २६५, ६४३ कमरण --- ६२६ कमणु-- २७६, २८४ कम्मु-२७ कमल -- ३ कमंडल - २५, ३१. १४६ कमंडलु -- ३६०, ३६१. ३६४, ३६५ कम्मड्डु– ६६७ कम्वरण--४२३ कम्बणु-- १४४, २२६, ३८४, ५२२, ५६८ ६७३ ६८ ६६० कयउ–४३० कपड– २०८, २३३ कयय – २१२ कर- ३, ५, ३३, ६३, ७०, ७२, ७६, ७६, १०३, १६१, २११, २३४, २३५, ३५३, ३६०, ३६५, ३८३, ४१९, ४५५, ४६६, ४४, ४७६,४७६, ४=६, ५३३, ५३६, ५४०, ७०१ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) करइ-२, २१, ३०, ३६, ५२, करम--५८८ ६६, ७, ८२, ८४,८५, । करमबंध--१२६ ८७, १४, १५, १६, ६७, करयउ-- १.६, ११०, १२५, १२७, करबह --५.६६ १४८, १४४, १५७, १६४, करवाल-७०, १७, ४६ ५६८, १८१, १८५, १८, करलेहि-१२ करहं--४ २५.. २५.१, २६५, २६६. का -५:१ १२१, १४३, १८२ २६६, ३, २६१, ६२, २६४, २१८, ३०८, ३२३, करह--४६, ७, ११३, १४८, ३३२, ३३७, ३४२, ३५५, १६६, १७०, ३०५, ३६१, ३५७, ३७७, ३८५, ३६३, ३८५, ३८६, ४८०, ४०१ ३६४, ३६६, ४०५, ४१०, ५५४, ६१५, ६४२ ४१३,४१८, ४२३, ४३६, कराइ-१३६. १३६, १३१, ६५८, ४४५, ४५१, ४५६, ४६२, कराउ-४६, ५५, १००, ३१ ४६५, ४६७, ४ , ५८५, कराए--६६६ ५०७, ५३४, ५६८, ५६६, कराबहु-११४ ५, ५६.७, ५E८, ६०१, फराहि-५२ ६११, ६१२, ६१७, ६३६, करि--१६, २६, २५, ५३, ८२, ६४१, ६३७, ६८१, ६५ ८, १५८, १६, १७७, करई-५७ १७६, १९, २१३, २१६, करइस -५६४ २३७, २३८, २३६, २५०, करउ-७, १३, २७६, ४६१, ६५ २४५, २४६, २५२, २७०, करकइ-४८४ २८०, २६४, ३०७, ३३३, करकंकरण-१०३ ३३४, ३५१, ३७६, ३६९, करटहा--३४८ ४५५, ४८, ४१८, ४१८, करण-४६, ६१, ५६१, ३०८, ५६६, ४६८, ४७२, ४६६ ४०१,५४५,५६४,६४६,६-१, ५१५, ५२५, ५३१, ५३३, करत-३२, १११ ५४०,५७५, ५४७, ६११, करतउ-६०३ ६४८, ६५५. ६६०, ६७५, करत-४२, ६१, ३०१, ३१६, ५२६,५८२, ६५ करिवालु--४६७ करंति-५६३ करिहा---४७६ करतु-१२२, २६२, ५२६ | फरिहि--११० Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४) करी--६५, १४७, १३६, २.१५, । कतिगृ--४३२ २, ३५४. ५१: । कवि--३, ५५६ ४१६, ४८, ६३६ | कवित–६३८ । कवितु-१,७,१३ करे--८०, २२०, २६६, ६ । कसु-१४१, ५२४ कर-.-१३५, २६०, ३५८, ३७८, । कंसु-५३८ ५०१, ६६२ कसमीर-५७८ कर्म--६६८ ___ कह--११५, १६६, २६५ कलकमाल--३१ | कहा-४३, ४४, ५, १६, ११६, कलयर--१२६ १२३, १४४, १४६, २२७, कलयरू--५६१ २६३, २७६, ३०५, ३.६, कलमल--५८६ ३१४, ३६६, ३७८, ३७६, फल यलु--३२१, ६२१ फलस-१६, ५३३.५६८, ५७६, १४३, १४५, ४४६, ४५.६. - - - - ६२७, ६३३, ३४१, ६५१, कलसइ---१६१ कला--२४ कलाप---१ कला--३०८ कलि--३१ कलिंगह--- - कलियर--५६१, ५८१ कसियल--१७३, ६१८ कवरण--१६, १४२. १२५, २०५, कहल-४८, ६३, २३२,५४६, ६ पाहण---७३, १४७, ५, १५६ कहत--७५, १७८, ३८०, १२६ कहर--७४ कहला:-१५, १२५ कहसाकहहि-६२६ कहहु -४८, ६३, २४०, २५२, २८३, २, ४०४, ५४६, कवई ---१२४ कब शु–१२३, १२६, १३५, १३६, १५७, १८७, १९, २१०, २३६, २७, ३२०, १०७. ४६४, ४६८, ४०, ५०१, ५२२, ५२७, ५६२, ६२४, .. | कवस्सु-६३ कहा-२६, ७६. १८६, १५१, २२२, ३२.६, ४१०, ४१२, ४४६, ४४८, ४५६, ५००, ५०८, कहि-३६, ४, ६३, १४०, १६३, २३०, ५६५,६७० Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहिउ – ३३, ३६८, ३५०, ४१२, ४१४५७०६२, ६६६ कहिए - १६८, ४४८,६४० कहिठार - ५६५ कहियउ – १६० कही १५०, १५६, २६६, २६७ कहीए - ५६७ ( २३५ ) Ï कडू- ५७, ५, १००, १०६, १६६, १३७, १७०, २५२, २५४, २६२, २६०, २६७, २६८, ३०१, ३०३, ३०५, २०६, २२६, ३२५, ३३०, ३८४, ३६०, ३६४, ४१०, ४३८, ५४३ ५४५ ५६४, ६०७, ६२४, ६२५, ६२६, ६४२, ६६६, ६७०, ६६८ कहुं - ३४, १०४ कहे – ३६७ ४१५, ५१४, ६३२, कतै – १३६, २=५, ३३५, ४२१. ४४४, ४५५ ४८५ ५१२ ६८ कहो - ३२२ कहो – २५५, ६०६ कहघउ--२०५, २५४, ३४०, ३६६, ५१५ कहयो– ६२३ काके–५५ कागु—४८४ काम - ४२७, ६०५ कालु – ४१६, ५१४ फाटक- ३३६ काटे—४२६ काटियो - ४३४ फायर---१७६ कांड- २६६ कान – ३२४, ३६३, ४२२, ४२५, ४२.६ prachf-kos कान्ह-- ६०, ६६, १००, ४५२, ६६५ का– ५६, ४५, ५४२, ६२८ कांपइ--२३८ कापहु---४५३ कापर खाए-- ५७ कांति-- ६१२ कालि -- ११३, २४१,२४७ ९७२ ३६१,५१७ काम – ५७, ३४१, ३४३, ४३३, ४३४ कामवाण -- १२, ५४, २३६ कामसुदर्श२३४ काम' बरी - २१५ ६०७ फामरस—२४१ कामि – १२१ कामिणी -- ३५६, ४१६, ५६३, ५६७, ५६८ ५८१ कारण - २६५ ३६६, ४०६४१५, ४१६, २० कारणु-- १२७, १४०, २४१, कार—२.६४ काल- ३१, ६०, १६८, २०५ २७६, ४८६,५०२५३६ कालर्सवर -- १३६, १५६, १७२ २५१, २५२, २८५, ५४७५४८,६७ कालसंवर२७ कालासुर--१६८ कालि-४४६ | कालु–४६६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालगत -- ६६४ कालू --१५ कालो -२८४ कामर ४६१, ५७६ कासमीर—२ काह--५६० काह - १४९, २७२ काहा—४०८ ( २३६ ) कास्य – ३६ काहे -- २५५, ३३३, ३=१ काहो - १०८ ३४८ ३६२ ३६३ काही - १२४, १४३, ३५५ ३८५, ૨, ૦ किउ ६६०, ६६१ किए -- ६८३ किंकर -२०० कि-४०४ किजइ -- ५६६ जि-- ६५६ किन- ३१०, ३३४, ३४८ ३५१, ४७१.४३ किन्तु ३६३ फिम ७२, १७७, ३२३, ४५८, ६४७ किमइ -- ४४० किम् - ३०२, ४६०, ५५५ किम्बह३-५७४ किमान – १७ किमि – २८४ किसु - ४०५, ४०६ किय :-- १४१, २१०, ३२८,३२६, ३३६, ३६७, ४३२, ५३३. ४६२, ६०, ६१६, ६२६, ६५०, ६५६ कियो- १८७ किरण - ५६५ फिलकइ – ५०४ किसन-२४२ कोए-२०७४ ४१४६६० कीम- १४२ कोम्बई-४३ | कीपर – २८, ३२, ४३, ५८, ७६, ८६. १७६, १८५ १=६, २२१, २४८, २५२, २७२, २७३, २८४, ३४२, ३६४ ४३६, ४५५, ६०६, ६१६, ६३०, ६५२,६७, ૬૪ | ! I की यह - ५३० कीयो-५६१ कोर--५७६ कोरति कीरती -२४३ कीहु-४७ क्रीडा - १३०, १८७ कुकहि-६१७ फुकडा—६१८ कुकुबार - ३८२ कुकुवार०—२५० T | कुटम -- ५५५, ५८५ फुटमु - ५६० | फुटंब -५६१,६८०, ६६० कुंड कुंडल–२३५ कुंडलपुर --५६, ४६, ८४८७२ ६२३. ६३२, ६५८ कुंडलपुरि- ३८, ६३५ कुंदु-३४६ * t Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) कुतासु–३२, ६५, ११० ६२२, ६-४, ६४५, ६५५, ६५७, ६५६ कुमर - १७६, १५२, १८७, २५१, कुवरहि--५८५ कुरि--३८, ५६, ६६, २१६, कुमरहि-२६४, ५३ कुमरन्हि--१६७ कुबरु--१५६, १५६, २३८, २५८, २६५, ३२२, ४७१,५६०, कुमार--२५५, ३५ ६३७ कुमारु--३३३४६१ कुम्वर--२२२२, १२७, २५८, २४८, कुसमवारण--२२४ २५७, २५८, २५४,४८५ कसमरस--६६३ कुम्वरन्दि-१८५,२१८, २३०, कसल-- कुम्वर--१३३, २१३ कुसुमबाणा-~२६५, ५१६ -१२१ कुम्बार-२१४ कुम्बरि--१०, ११, ३०३, ३०५, कृषि-६० कुम्बार-३६, १३४,१३८ कुरवाइ--११४ कूटइ-२५०, ३४२ कुरवि--४६१ कूटहि--३२ कुरुखेत--७६,६६१ कूटि-४१५ कृष--२४६ कुस--६८३ कुलदेष:---५३७ फूडोवूधी--१८६ कुलमंडा---१६१ कूडोया-३२, २४६ कूया--१६१, ३१४ कुलीकुवडर-२२ कुण्डा --३६५ कुवर--१२, १३६, १५७, १६५, १६६, १६७. १७२, १७५, १४७, १८६, १६२, १६E, केउ-४७६, ४७६, ४७८, ४६१, ४६२ केतउ-२७३ केते—६२६ केमु-६८१ केम्दु-५०१, ३७० केला--३५७ केलि-३४६ २४३, २५४, २६४, २६६, ३०६, ३५१, ३३५, ४३५, ४६४, ५४५, ५५३, ५५४, । । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवरण -- ३४५ केवर–६६४ केवलज्ञान - ५६४ केवलज्ञानु-- १५२ केवलरणाण -- १२ केवली - - १६०, २६० केवलु -- ६६० केस - २५०, ४२०, ४८३४८४ ६-३, ६८५ ( २३८ ) केस-५८३ केस - ४८६, ५०१, ५१०, ५०४, ५३५, ५५१ केसु–५०६ कैसे-- ६४ कैलासहि— ६५६ कोड-१, ३०, ४०, ४७, ५५, ६६, १०५, १२४, १३४, १६६, १६, १६६, १७६, १८३, १६२, २१, २४३, २६७, २७ ३३६, ३५४, ३५६, ४४४, ४८६ ४६७, ५११, ५३६, ५५३, ५६६, ५६८, ६६३, ६६७ कोड ४७६ कोट— ३१४ कोठि-६६८ कोण - १६६, ४४६ को-२२. ५१६, ६१७, ६१= कोडिधुम-- १६ फोडी - ३०७, ३८६ को-- १७६ को--४७१, ४७४ कोलिगु -- ३१४ कों---४७६. I | कोम-४६६,५०८ ५१७, ५२० कोपा -- ३३१ कोपा ७६, ४५१, ४६३, ५१८ ૭, ૬૪= कोवा - ३३१, ५२५ कोपि— ६८ २१०, ३४०, ४३५, ४७४, ५०६, ५११, ५३७, ५८२ कोपि - ६७, २५६, ३६३, ६५३ कोपिय-- ३०४ कोपु – ३३,४२३ | कोध्यो- १७२, ४६०४७४४८० ५१६ I वयो-५१३, ५२४ कोमल - ५२ कोड - ४७४ कोड -- ६४ | कोवानल – ३३ कोवि५०२ कोसु ६ कोह-२७ कौल--४६७ कौतीनन्दना--८५६ करू- ४६६ ५२० कौशे- २७६, ६६१ कौसाद--- २३४ क्षण- ३७, ४४० क्षत्री - ५५६ क्षिपति - ६० क्षिम - ५४ ख खइ--२५, २७० --- ४४४ ६१३ K Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 -- ३७, २६७, ५.६.८ स्वष्ठी --- ५३ खण--३५, १२२, १३९, २१८, २२१, २२५, २३ा एक, २६१, २६२, ३६०, ४०२, ४२४, ४३०, ४३१, ५३४, ५४५, ६२८, ६६६, ६६० खत्री - २०, ४६०, ४६४, ४७३, ४६५, ४३० ५१० ५११, ५१२, ५२२, ५३०, ५५६, ६०६,६४८ खंड – ४६, ३०६, ५३४ खंडउ--३६ खंडव --- ४६८ खंधार--३६७ स्वपइ--+ स्वयंकर—६६६ स्वयं तु-- ५०२ खर- ५०६, ५३२ ख९३---३१६, ६४३ खरग - ५४० खरी -- ६१, ६ १३१, १४० खरे - ८१, १६१, १८३, ४५८, ५३६, ६१५, ६३२ खरी -- ४४४ खल -- ५४१ खली - ३६४ ( २३६ ) खाइ – ३४, २०६, ३५०, ३५३, ३६१, ४०४, ४४४, ५६६ खाची -- ३३८ खाजतू - ३५५ खाट-१७ खात - ४४४ खारि ४६६ खिउकररण-- ६६७ खिल -- २६४, ५२१ पालु ६ खिरणी -- ३४८ लीप - ३५७ खीर- १६२, ४०८ खुटी -- ३६३ खधा- ३८४ खुर--७१ पुर-४६३ लूडउ – ३६४, ४११ स्वडा-- ३६६ डे - ४०३ खेज – ५७, २१६ खेत–५.३७, ५३८ मेसु - ९६०४ खेत – ५८७ खेव — ५५२ खेल--६१७, ६०ε बेलर--१८७ खेमंध - १५०, ५६.३ बेह७३, १७५, ४८३ लोढा - ४८३ लोडि - ३०७, ३५३, ७०१ खोडी - २७७, २६८, ३७१. ४११ खोल-- ३०५ लोणी - २७६ ग गइ - - १०५, ४५३, ६०५ गई - ४२४, ४२५ १११, २५५, ३५६, -२०६३७२ ३८८ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गऊ --६३ गए - ६६. १२०, १६६, ३३५, ४३५, ४३६, ४४१, ५६७, ६१५ गगन--- १६३ गज – ३१६ गजा -- ५१, ४६६, ४७४ ४६५ गग्गुत-२० गरण -- ५६६, ६७१, ६७४ गराइ -- १६३ गणे – ३१२, ५७६ गरौँ--२३६ ( २४० ) | गंज हि - १.३५ गंभीर - १६ गबलि-- २० ग- ४८२, ५०४, ५२७, ५३०, ५३२, ५५६, ६४५ गयउ - २६, ४१, ५३, ५६, ६७, ६६, १०२, ११६, १३३, १३५, १३७, १४५, १४८, १५०, १२, १६१, १६.७, २१०, २१२, २१६, २२५, २३०, २६२, २६४, २६८, २७०, २३, २६६, ३२०, ३३७, ३५६, ३६५, ३६८, ३७६, ३६७, ४०२, ४१४, ४४२, ५१६, ५५२, ५५५, ५६ ६०२, ६३६, ६४६, ६४३, ६५५ ६६४, ६७४, ६७५ गण -- १७३ गय लिहि-- १७५ गयवर -50 ग्यारह -६, ११ | i गये -- ११, ६४, ६१, १०२, १११, ११४, २१२, २१८, २२१, २५४ २७४, ४.३२ गयो-२१०१. १६३, २०४, २४४, २५२, २६५, ४४६. ४२०, ६२० ६२३ गर्ज – २१ नग६-२७६ गरडु–३१६ गर्भ- १११ गरव -६६ गरवो-२१३ गरहट ६३ प्रसद्द – ५०५ गरहु--५३८ गरदो--५४६ गलि - ३३६ गले-- ३०६, ६४६ गलै १८२ गङ्घउ--२८२ गहवरद्द - १४०, ५६ गहवर --- १४७ यहि - २०२, २१५, ३२३ ४३८, ४४०, ४४६, ४४६, ४५१ हिउ - २४१ २४५, ५४० गहिर - १६ गही-३४५ गहे—६४४ गाइ---४६८ गाउ–२८४ गाउ गाउ - ३७ गाए - ६३८ गाज -- ३८१ गाजिउ - १७४ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) गाजरण-१७८ गाजहि-४१ गाजे--५६१ गांठि--६५ गाठी-१७, पाम्ब१५ गामति-४२३ गावइ-१२०, ४५७, ५६७ गाव-३५६ गावहि-१२१ गामु—३८७ गिरवरि--१८९ गिरि-२८०, २६५, ३७३, ५४१ गिरिधर-५०६ गीत–५६३, ६३८ गीष--१४४,१८० गोधौरिए-५०५ गोम्ब--६४४ गुपत -१५ गुफा–१-६, १६७, १९, २० २०१, २१८, २२६ गुवातु-७५, ११० गुर-४ , ५२१ गुरष्ट्र-७०, ४७ गुरु–१३.४७ गूजर-५७ नडी-.. गेह-११४ गंपर-३७, १७३, २३५, ४६५ गयरु-२१२, २१३ गवर--२५६,४७५, ४७७ गोडइ-१४ गोड-४३८, ४४०, ४४६,४५१ गोतु-४०७ गोहत-४११ गोहिच-४३८ गोहिण-५८, ६१, १.५. १२६. गुटिकासिधि-१६? गुराहि-४५७ गोहिणी-४१६ गुडी---५६३, ५६७ गुडे--१७३, २५ गुण-५२, १३६, १४२, ३११, ५२०, ६ गराउ-७०१ गुण गिलज-१२ गुरणवह-६६५ गुणवंत--४६५, ५७, ६१२, ६१४ । गुणः-३२ गुणे-६४७ गुणे-६१७ घटइ--४० घटाउ-६८५ घटाटोप-४८१ घटिक-६८० घण-१२,१७३, २८१ घरगज–११, ३६, २६६, ३००, ३१६,३१८, ४०६, ४५८ ५४६, ५५०, ५६६, ६५१, ६८० धरणधीर-२०१ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घी – ६४, १०८ १०६, १५४ २४१, २४३, २५७ रेलक ३६४, ४३४, ४५४, घ- २४, ६०, ३४७, ३४= ३५५, ४२६, ५२६, ५७ इ घणौ-- १५४, ४५३ घंट- २६३ घर—=का ११५, १२३, १३६. १७७, १८४, १६२, २३७ २, २३६, २६४, ३५८ ३८३, ३५४, ३६६, ४०६ ४१४, ४१६, ४२२, ४२५. ४४३, ५५.३, ५६०, ४६२, ५६३, ५६४ ५६५, ५६६, ५.६७, ५७२, ५७४, ३८६, ५६६ ५६६, ६०४, ६१३ ६५२, ६२, ६३,६८७ ( २४२ ) घरइ-- ४०५ घर घर २४ १२० ५६२,५८१, ५६१६५७ घर - १५४, २४३ परवाद - ६७५ घरह -- ११७, ६६५ घर - २३०, ४०२, ६१६ घरिघरि - १२१ घाइ - ३६५, ६६० घाउ -- ६८, १७७, ५४५५६०६४७ घाघरो-२३३ धानी- ५३१ धार- २६१ बाल- ३८३,३८५५२१ धालज – १२५ - घालि - १२४, २५६, २५८, ३६३, ४५१, ४०५, ५.३०, ६१० घालि - २६२, ५३६, ६०, ६६२ | पालिय- ३२७, ४५.१ घाली - १४२, २७, ३५०, ३५.३ ५१ घालं – १७७ घाल्यो - २५६, ३३१ घी- २५३, ६४३ घुल- ४७४ मृतु-- १४२ घेह - ७१ घेड - ७१: ३५ घोडे घोडो - ३४२ ३३४, ३३४, ३३८, ३४१ घोडौ - १२७ घोमि १२२ घोर - १६८ घोरो - ३२६, ३३७ इरल – ७६ च चइ–३१४ च - ५२६, ६४७ चडक - ५६२ चउत्थउ - = तीसह १२ चउपास- १८, ३१६ चजवारे - १६ चरंग - १७३, २६, २८७, ४६६, ५.३२ उरं २६२, २७६ बउरासी # Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवल- -२३ चवीस-७ चउबोस चकचुर – ५२ चक्र --५१, ८१ चकला--३८७ 5--1 A चक- ४६. १५३ क्वति-- १५० चक्केसरि - २१ चकेसरी - ५ -- चकाइ – ६७ चढाय ---५१७ डिउ -- ५२१ -- २१३, ३३६ चढइ -- २१४, ३३७, ३५८, ३६६, ४३८४७७, ५०६, ५०६ चढउ बढद्द – ६८ चढाइ--६५ चढाई – २८०, ४६६, ६४ ३३४ चढाव -- ३३५, ३३६, ३५६ चढावह - ३५० चढि – १११, १२०, १३५, १५५ १८६, २३५, २६५. ३५७ afea-22.33? 'बी–३, १८७, ३४३, ३५४ चीड़ -- ४६४ – १०२, २८१, ४६२, ४६६ चढ्यो - २६३ चतुरंग - ७२ चंचल --- ३२३, ३२४ चंद - १३६. ६४१ चंद्रकांत मरि--- ६०१ ( २४३ ) ! | -- ३३, ६३, ६६६ चंदरप चंद्र - २०१, २३४, ५१८५४० | चंद्रचर्या - १२ चंद्रहंस—५३६. चंदु ५४१ चमकइ -- ५२६ घमक्य – ६८२. चमतकार- ३३ चंपइ – ६२ चंप-- ३४५ चंप - ३६ पिज – २३१ चमर -- ७२ चमरंत--७२ | चम्बर – २३३ च - ६१३, ६२४ चर--४२६ चरण --- ३३६, ३४० चरण – ३७४ बरहु -- ३४१ चरित -- २६६, २६७, ४२१, ६६२ ६६.५ रितु ११, १४, १८३, १६८ २६५, २७३, ३२० ४२६, ४३२, ४६२, ५३५, ६६७, ७८० घरेइ – ६८६ चलंस -- ५०२ चल--८५ १५२, २०६, २६७ २६४, ४७६, ५५४ चल ई-- ३३ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) चलज--१७३, १६६, ३०८, ४४ । चारि-३२५, ४५७, ५८१ ध्यारि-८०,३७४, ३६७, ५६८ चलत--२६०, ३१२ पारिसो नानारपो-२५६ चला--४६, १०१, ४८१, ५०५ चारू--३४५ चारयो-३२४ चलिउ-१२४, १५८. १६४. १७३ २८. २४६, ३१२, ३२६ चालि--१४५, ५१५ ३५५, ३६०, ३६५, ४४१, चाले-८८, ४७८, ५६४ चाल--४६७ ५८१, ५६०, ६५८ चाल्यो--१४६, ६२८ धस्लिउ--१८३ चावर-५८२ चलिपर-२०८ | चाहि-१४४, १६५, २२६, ३०३, ६०५, ६८६, ६८६ चली-६१, ८५, २६६.३६, ३५६ ४१६, ४-३.५२८, ५६३, । व है--५४५ चाहो - ३३४ चलीउ--३४, १३०, ४४६ चित--१४७,५१६, ६५६ ६६३ चले--१२८, १७, १८७, ३०४ चित्तब-६६० ४२, ५२६, ५२२६, ५४० चितह-३६३, ४२३ ५६१. ३४८, ६५५, ६६५ । चित-६१, ६०१ मल्पी---३५, ८३, २३७, ६२७ चितइ-३५, ३८, ३४६, ६२२ चल्योउ--३३, २३६ चितइत–३६ चबई-४६, ११२, ३४३ चितयउ-३६७ अवर--१६६ चितपक-६११ चवरंग-३२० चितवइ-४१ चवरंगु-८३ चितावस्थ--६७५ पहि-५३ चिदिउ-१२२ चाउ-८०, २८०, ४०१, ४.६ ५१६, ५२०, ५२५, ६४८ चाउरंग--४८२ चापि---१२६, ३४४ चाप्यौ–१३०, १५५ चाम्बइ-५५० सामर-२३ । चिन्ह--७२ । चिसलार--४००,४०१ चीतह-६३८ खेडी--३६२ स्वेताले-६६० बेरी-३६१ । बेली-१०६ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५ ) छपनकोडी-- छल-४७२ छलि-६३४ चुटो-१४६ मइ-४२६ चुमियउ-५६० पुरइ---४.१ बूटी-२५ जून-१३ तरह---, १७६ चूलिह-४२१ बोपटुन्-३४२ चौयास-३१४, ३१७, ३६६ चोर-५७८ चोरी-६६, ६६, ७६ चौहटे-५८, ३६५, ६३७, ६४४ चौबहस-११ चोरी-४७२ घौजए-६५६ छवाइछटरस-६६ छाई---१ छाए-१७,५७६ छाउद-४ छाति-१६६, १६१, २४१ छाग-२७२,३६६ छात-४८२ छामो-५५७ छाड़....६८४ छायज-६८६ छिनि-२ छोनि-२६५, ३८८, ४०२, ५१६, छइ-८६, ६३२ छटि-१२२, १२७ छठी-५४७ वरण-६४५ छतरि-६६३ छत्र--१६६, २३३, ५०३, ५५२ । छजि-५००, ५२६ छत्री-६५, १४६, ४१ खंड-१३७ अपनकोटि-१२८, ३७३, ४४८ ४५३, ४६०, ५५८, ६५५, ६६५, ६६६, ६७१, ६७, छपनकोडि-२२,४६,४६६, ५६४, छीनी-२६४ छोने-५२३ छुडाबह-६४३ छुरी २१५, २३४ छुरीकार-२६० छुहारी-३४८ छूट-२४ छुरो–४७६ छेय-४५६ छोटो-३६६ छोउद-२६५ छोस्-८५ छोडहि-४२७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २४६ ) छोरि-४६, ४५, ५४, १८४, २६८, । जश गि-२४३ २७३, ३०७, ३७२, ५१६, । जगणी-२४८, ६६५ ६६ जयान -६२६ छोडिज-२३५, ६५२ जगह-०१ छोडी-६१, २२१, २५०, ५१६, जगा-४५६ जणा-५५, ६६, २४७, ३६२, छोडो-२८७ ३७५, ४००, ४३५, ६२० छोरी-८, २८७ जगायहि-५०५ जणि उ१४५ जणित -३१४ जा-७, १५३, ४६५, ५६० इ-5, ४०, १६.२४५, ३०० । जो-६ ३०४, ३१५, ३२२, ३३५, ! जग-१६६ ३४६, ५०५, १४८, ४८८ जद-१०५ ५-३, ६४३, ६५४. ६६७ । जन---५६३ ६७६ जनकु - ६३ जइउ--४२६ जननी -६३१ जइसी-३५२ जन्म-१४१, ५५० जइसे-३८० जन्मभूमि-५०% जल-१३,७६, २१२, २४६, २५७ । जनम- १५.५, २४५. ६६५, ६८ जनु-१,५०५, ५०६, ५६१ अनेउ - २७१ जक्ष-१६ जपई.---१-३, २२६ जा-१२३ जपिउ - २३१ जगत-२६६ जम्बूदीप – १५२ जगु-१७५ अंगदेश-१४ जडिउ ३१३, ५६E अंपइ-५०, १७७, २५२, २६, अडित-१६२ ३०३, ३१५, ३१७, ३६२२ जडो-५२ ३७१, ४१२, ४१३, ४२४ जरे - ११, ५८२ ४७३, ५१०, ५१२, ५२२ जण--३३५, ३३६, ४.१, ५५२, । ५३८,६११ ६२८, ६३२, ६३६, ६५६, अंगारण -४८२ ६५७, ७०१ | जंपाशु-५५६ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४७ ) ४६३, ५४०, ५४३ ५६०, जंपिउ-२६५, ६४३ जम--५०६, १८४ जमधिजमपाथि-५३५ जमराइ-५.५ जंभीर–३४५ जवा-६१२ जंववती-१८६, ६-७ जमसंचर-१२६, १३२, २.२४, २४७ २५८, २६२ २६२, २३ जवइ--४६७ जयते-५६६ जयहि-१३ जवसंबर--१६५ अस---३.६ जसु--७८० जसोधा-२७४ जह...२.४३, ३१६५ जहां--३८, ६०, १२, ६४, ६५ १.४, १२४, १३०, १५३, १५५, १६६, २२६, २६०, २२५, २२८, २४.. २५८, जमसंवरु-२३१, २३५, २६४,४१४ - . - - - जम्मह-२४२ जमि-३१४ जम्मु–१८७ जंबु.४३ जय-६६६, ६६७, ६६२ जयकजयजयकार--५६५ जयन--१५२ जरजरवकुमार--६७३ जरदकुमार-६७४ जरासंध ४६५, ५२४, ५२८ जरी-२३३ जल-२०५, ३६४, ५२६ जलमह--१०६ जल सोख पी--१६३, जलहर--५६१ जब--८,६६, १४७, १६३, १६४, १६७, २८८, २१६, २६५, २६६, २६७, ३७२, ४६., ३६१, ४१६, ४२६, ४३४, ४५.२, ४६३, ५४४, ५६३, ५६६., ६५०, ६४६, ६६५ जाहि---३०,६६, १२६. १४०, १५० १६४, २२६, २६३, ३१५ ३१७, ३१८, ३४६, ३६० ४०६ आइ---३५, ५८, ६०, ६२, ६७, ५,७६, ८१, ३, १०१, १०४, ११०, ११४, १२६, १३०, १३६, १४१, १४३, - १७५, १८, २२०, २२४, २३२, २३७, २३८, २४६, २५१, २५७, २६१, २६३, २७, २५, २६४, ३३८, ३४४, ३४५, ३३६, ३५२, ३५८, ३५६, ३६०, ३६१, ३६०, ३६८, ३७१, ३४३, ३७५, ३५७. ४३५, ४३४, . Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५, ०६३, ४८६, ५१७, ५२६, ५४३, ५४४, ४५० ५.५, ५५७, ५०, ५६३, ६०६, ६१६, ६२६, ६२८, ६४३: ६५३, ६५-६६०, ६६२, ६६८, ६०, ६१२, ६६५ जाइति-२५२ जाके - - ११२ जगह-- १२६ जागरण -- १२२ जागनु-- १२७ जागि- ६६, ११७, ६७२ जागिउ - १२८ ( २४८ ) ! जाख -- १६० जाण -- १३८, ३००, ३०१, ३०२, ३०४,३५७, ३६०, ४६० जाप इ-- ३६, १२६, १५४. १५७, १७०, १६६, १६२ ३१५, ३४४, ४४, ४३५, ४६६, ६०७, ६१०, ६२४, ६७७, ६७ जागर - १४६, ४०५, ४६६ जाहि-२० जागहु - ६३६ जाणि - ४, १३३, १३८, १६५, २०३, २५, २४१, २४४, ३८७ ५६२ जारिए - ६५, ७६, ४२६, ५६५ जारिए -- १६ जारिक-- ४७४, ४८६ आणि ति-- ४३६ खाणी -- २४१, ४५२, ६४५ जाण१३८ | | I जा-- १६५, १७५, २५३, ३२०, ४६८, ४७४ जाण्प्रोउ ६२३ जागौ -- १७, ७२, ७७, २८०, ९८१ ४२.५ ४८३, ५३६, ४४१, ५५.७५८२६४३, ७०१ जात--६६४ जाति - ६४७ जाबन--२२. ४६ जावडराइ ६२ जावउराउ - २७ १००, ६०१ जादडवी – ५४ मादकराउ - १७ जादम - - ४६१, ५२६, ५५५, ५६०, ६३८, ६५५, ६६५, ६६६, ६७५ जावम्ब - - ५०२ जादमराउ - ४७५, ५१० आमराय – २४२, ६३६ जादमुराउ – ६४० जादव - ४६८, ५५८ जादहि--- ४७४ जादवराउ -- १२५ जावो -- ४६६ जादौ - ४३८, ४६०, ५०२, ६२५, ६४३ जावोनी - ४५७ नादीराउ -- ५२५ जानि- ६६५ जाप - १०३, २२३ जाम - ३२, ५४, ६८, १२२, १४५ १६३, १८१, २८०, २८२, २६.२, ४१९, ४०१, ५१८ ५१६,५४०५४२, ५६४, ६२२ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) | जित्यो । जि.-१२,७५, ११६, १५६, जिनके .-४६० जितुलारा ६६५ जिन्हहि-५८२ जिन्हि - ५३६ जिम्व-४१२, ४२३. ६६०, जिम-१०४, १०६, ४६ ५८६, ६८३ जिमहि-५५६ जिमू--१८१ जिमि -१८७, १३६ जित्यर–१८३ ५०५, जिपत-१८५ मामबंसी-६.८ जाम्ब-५२८ जायो-२७४ जालइ-४४० जालामुखी-५ जासु-१ जाह-१७७ जाहि-.-१०१, ११२, ३०१, ४३७, ४४२, ४६४, ५१६, ६५७ जाह-३८९ जिज--५४३, ६-६ जिजजामुति --५७६ मिग-७, ११३, १८७ २६६, २६७, ३३१,५१७,६७४ जिरण-४६,४७० जिरण:-४६१ जिराभवरण-२६५ जिणभवण--१८७, १८६ जिणभूवरण--२७ जिरणमु–१६६ जिरणवर-२,३१४, ६५६, ६७५ जिरणवह-१२,४६१ जिपवारणी-६६८ जिणसासरण-६ जिगह-६६४ निरिण--५५२, ६२७, ६५१ जिणिज-२११. ५१४ जिगद-६५६ जिरिषि-१७४, ४६१ जिरण -६५८ जिसी-५०% जिरणे-५५२, ६१८ जिरणेसर-६६६ मिसह-५२२ जिसकी-५७२ जिहां-८६ जिहि-४७, १२७, २६४, २६६, २७३, २८४, ३१८, ४८०, ५१३. ५५०, ५५२, ५५३, ५६५, १८,६०० जीउ--२२०, २६६,६६८, ६८३ जीतई–५३६ जीतहु-१६५ जीतहुगे-७३ जोतिन-५३८,६५१ जोत्नो---18 जीभ-२७२, ४८६, ५३६ जीव--२३२,४८५ जीवण-४०१ जीवत–३७ जीवदानु-५११ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० जेनि--२ जबरग-४०० जैसे -१२४, १८६ जहहि -३२६ जीइ.-४०, ३०१ जोइस--४७० जोहसी-४५०, ५७५. ओणु--२६.४०,६४,३७०, ५४८ जोजए--१६ जोइ--२३ जोडप-२११ जोरि--३, १४, १६१, २०२, २२२, ३५३, ४५४, ०१ नोति-.-६५२ ज्यो-४०४ ज्योति--६६० ज्योनार-६५३, ६६२ जोवर-१८६ ३६६ जुगत--३.४ सुगतउ-२४० २४ जुगति--४८, ४३४ जुगतौ-२४६ मुगल-३६८ जुगलु-२११, २३६ सुझ--१६५, २७४, ४६७ शुभह-५४२ शुभरह-२०६ शुझस-४६६, ६५८ तुझ-२१०, ५३६ जुष-१६५ जुबल-२३५ मुबलु-२१७ सुही-३४३ जूझ-१३८, १६८, १-२, २२४, ४५८, ५१४, जूझइ-४५१, ४६२ जूझए-४७८ जझि-१८१, ४६८, ५२१, ५५५ जभू-१८० जूबा-६१३ मर-१६६ जेटउ-११४, ११६, ६७७ जूत-- जधु-४६५ जेवणु-४३१ जेते--३६५ जेवण-३६०, ४३ अम्भ-३६१ जम्बहिगे-३६२ अनि ५६० । झकोल इ-१६ भणी---३६२ झवाण-४८५ भल--५२५ झाण--६० मायउ--६६० भाल-१५०,३८६ झावहि-६६६ झुणकार--१२८ अलाइ-- अरज--११६ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टंक-३६६, ३७०, ३७१ टंकारिज--२८० टंकार---७, ४६५ टलरल्यज---५४१ दलिउ-७ २९-११६ टल्यउ---२४९ दौर--३७२ दाटण---४७८ टाल--२५८ टीको-३६२ टेकतु-३६०, ३७६ दोई-४२५ टोपा-४७८ ( २५१ ) ___ठाउ-२३, २८. ४५, ५६, ५८, ७१,८०, ८२, १२६, १५२, १५५, १५६, १६७, १६६, १७८, ११८, २३७, २४२, २६६, २६६, ४१२, १५४, ४७१, ४६३, ४६४.५०३, ५४३, २५२, ५७२, ६४०, ४ाइY--५२२ ठाता-६८, ६०, ४७६, ५००, ५० ठाइउ--२६, ३३, ११६, २८२ ठाई-४३६ ठाढी-१०४ ठादो-१६०, १६६ ठाए--१८१ बरइ--१६६,३०८ ध्यउ--४४, २७६, ४३६, ५२४, ५६२, ५७५, ५७६, ५८४, व्यहु--२२३ ठये--६५५ ठयो--६०, ५२८, ५६२, ६१६, असइ--१६८ अहणु--४६८ डाझहि--५२६ उरोम१२६, ६३६, ६४४,६४७ सोरे--४१६ बोला-३१७ डोलहि--५७६ बोले--२८० वा-३० उवाफ--३२७ ठाइ--२०, ३०, १०६, १२६, १५७, २३०, २८३, ६५, २६६, ३२७, ३४४, ३८८, ४१२, ४३७, ४७३, ४-१, ४-६, ५०४, ५३०, ५४८, ५५१, ५७४, ५८७, ६१५, ६५६, दलह---२३, ५२ हलीय-६४३ उत्पा -.-.७६,४७४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२ ) २७८, २८३, २६७, २६, ३.३, ३०५, ३०७, ३६८, ३७१, ३८४, ३६५, ३६८, ४२८, ४३७, ४३८, ४४२, ४५७, ४७१, ४७४, ४८६. ५०६, ५५८, ५१८, ५१५, ५५२, ३८३, ६०१, ६१, . एंकालु–२१४ रणवरण---१८३, ६१४ खयर---५, ५६५ रुषि-१ गविवि--१२ रण मेसु--६७ पपरशारणवशु--५६१ पाण---१२ पारि--२२६, ४१६ णिन्चल-३१४ गिगाय--२ सिमि--६८८ रिणय--८५, २६३, ३१५, ३५६, तण उ--११, ६६, ११६, १६५, ३१५, १८, ३१६, ३२२, ३७६, ३७६, ४२१, ४४८, ४६६, ४६४, ५४६,५५८, ६२३, ६१८, ६३८, ६६९, ६८०, ६८४ तनि-४० त उपट--३५१ तक-१३७, ६४३, ६५३ तजिज---३२७ रिपलउ---१२ रिगवसह--२१४ रिगवारणा--२३२ सिसुराह--२७१ गीगांयु-१३ ता--४६, २१४, ३०३, ३६२, ४६५, ५१०, ५१५, ५१६, ५२३, ५५०, ५७३, ५७४, ६.६, ६६६, ६७८ सर-२७, २८, ३३, ३६, ४८, ५०, ५८, ५६, ६३, ६५, ६८, ८५, ६४, ६५, ६६, ६७, ६, ११६, १.२, १५२, १६७, २१२, २१५. २२६, २२७, २४६, २५०, २४५, तरण उ--६६, ६५, २२५, २६८, २७८, ३२७, ४.६ तो -४४, ५६, ६४, १२३, १२८, १४८, १५६, १६२, २४१, २४२, ३६२, ३८२, ४३३, ४७२, ५०६, ५१६, ५६७, ६.६, ६२३, ६४०, ६७८ । तणुउ--३१४ तणे-३४६, ४३०, ५२३, ५२६, ५७८ । सलो--१६६, ५३४ । तौ--११३, ३६५ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३) तत्सपि.-३६ ६५२, ६५४, ६५५, ६६४, ततर--५६१ संखण-५०८, ६४५, ६६१ ! तवई--६८, २६६, २५५, ३५१, तंक्षिणी-४१ ३५८, ४३५, ४५५, ४४६, तंखली-२८८, ४.१,४१८ ८८८, ५३३, ५३७, ६२२, तंखिणी-१२३, २४२, ५६५, ६३५ तन-४२२ तम्व--५८४ तमी-५१५ सबहि-१८५, २२०, ३२६, ४०, तनो-३३२ तप-१६१,२७४ तबहो---६-२ तपचरणह--६७५ --२६४ तपु–१६७ तस-३८५ तर--६७, ३४२ तसु--४, ५६.१४८, १५६, १६२, तरुणे-३३३ १६५, २३६, ५०७, ६१२ तल-~-६३, १२५, १२६, १६२, । तह--३६, १२७, १४७, १५१, २४४, ३८१,५८४ तलही--१२६ ३१७, ४२१, ४, ५६८, तव-५०, ६६, ८, ८३, ८४,८७, ५६७, ६०४, ६१३, ६२१, - तहतह-२२६ सहा-२५, २८, ३, VE, ६२, १६२, १६६, १७१, १७२, १७६, १२३, १४, १५, २.२, २०७४, २१, २२८, २३०, २४६, २५४, २५६, २६३, २८२, २८४, ३०२, ३२०, २५६, ३५१, ३६६ ३७२, ३६६, ४०४, ४००, ४२५, ४२८, ४४२, ४४४, ४४७, ४५३, ४५६, ४६६, ४६८, ५.२, १८७, ५१६: ५२०, ५२४, ५२७. ५३०, ५३१, ५३५, ३६, ५४६, ५५१, ५५४, ५५८, ५४५. ५८३, ५८४, ६०५, ६६, ६१५, ६२२, ६४८, ६५१, १०३, १२२, १२४, १४६, १५१, १५२, १५३, १५५, १५८, १८८, १६, २१४ २१८, २२०, २२५, २२८, २४०, २५८, २६१, ३२३, ३२६, ३३८, ३४३, ३५२, ३५४, ३५५, ३६१, ३६८, ३६८, ४१६, ४२६, ४३२२, ४३४, ४५२, ४५४, ४६३, ४५४, ५४४, ६, ६८, ६०६, ६१४, ६१६, ६५०, । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) तहि २१, १२६, १५०, १५२, १५५, १५६, १६५, १५३, १८०, ११०, २०, २१५, २१६, २१६, २२४, २३०. २४१, ३२६ ३६३, ४१५. ४२८, ४५०, ४५४ ५१७, ५६१, ५८६, ३, ५६६, ६१६, ६४७, ६६८, ७०० तहरि-- ५६२ ताकी - १५४, २४३, २७१ ताके---१६८, ३२४ ताकौ — १५४ ताज - २२७ ताजे--१८३ ताम – २२, ३६, ७७, १२२, १४४, - १६३, १२१, २६९, २८०० २२, ४११, ५०१, ५१८, ५१६,५२८ ५४०, ४५२, ५५५,५६४, ६१० तारणी - १६२, २०४ ताल - २४, ६२, २६४, ३६३, ५५० तालु – ५१, ६४ तास-६१३ ताह - १६२ ताहि -४० ५२ १७७. ३०४, ३७०, ४०६, ४४०, ४४२, ५२४, ५६१, ६=७ तिज - ३६४ तिजयाहू - १२ तिण – ६:३ तिथि - ६५९ तिराउ – ३६० दिन- १६७, १७०, ३४०, ४८५ ५६५ I तिनकी— ३४४ तिनके २४ तिनसु - ३४३ तिनस्यो - ४०२ तित्रि- १, ६५ ३५२, ६६० तिन्ह – ३४१ तिन्हहि - १६७ तिनष्ठु - ४२२ तिनि- ४६, २६६, ६१६ तिनी - २६ तिप्त - ५०५ तिम्बक - २६६ तिम - १६७, १७०, ३५२ तिमुत्रिभु—३८६ लिय- २६४ तिथवर २० तिरउ – ६६७ तिरिय--४२, २६५, २६६ तिरियहि-२६५ तिरी – २४३ तिलकु--२६ ५६२, ५६६ तिलोत्तम - ५५ तिवद्द—२६= तिस – २, ३६, १२८, १५७, ४७३, ४८६, ६२५ तिसके- १३४ जिसको — ६२५ सिंह- २०४, २३३, २६३ तिहा—२०४ तिहार - २५३, २५८ तिहारे—५१४ तिहार ४५० तिहारी-- ३७८, ५४६ तिहारी- २८६, ४२१, ४६३ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहि-१४, २०, २२, ३०, ३७, ४१, ४२, ४६, ५७, ८६, ६४, ५०६, ११२, १३, १४७, १८३, १५, १६८, तुम–२८, ४, ६.. ११३. ११४. ११७, १२७, २८, २६, २६७, ३८२ ३३२, ३३३, ३३४, ३८०, ४२४, ४३३, ४६४, ४३६, ४७३, ५१५, ५२३, ५५०, ६२३, ६२४. ६२८, ६२६, ६६७, ६६४. तुमि-१५८, ३.५, ४५८, HEY तुम्ह--१२०, ४२० तुम्हारउ-२६ तुम्हारी-३७० तुम्हि-२४८, ३५०, ३८०, ४५७, तुहि-४७८ तुम्ही–४७२ मुरंग-२५६ तुरंगु-३२७, ३३१, ३५ तुरंत—६२३ तुरंतु–१३५, १७१, २१२, २३४, २१८, २०५, २३७, २१२, २१३, २७१, २४३, २४६, २८४, ३०६, ३२०, ३२७, ३३५, ३४५, ५५२, ३५५, ३७३, ३६१, ४१२ ४१६, ४३२, ५१३, ५३६, ५४८, ५५१, ५५२, ५४४, ५-४, ६०, ६२, ६०६, ६१०। । ६२४, ६४१, ६६१ लिहिता-६०० तिहिम्मो - ५५०, ५५३ ति--२१ सीजी-२० तीजे-२७१ तीन–४.२ तीनवर-२१ तीनि-२०३, २४५, २४६, २७१, ३०६, ५२.१, ५४८, ५-३ तरेनिङ–२४७ तीन्यो-२६३ तोस...१२८ सुजि-५२१ पुटि-३७१, ५२१ तुहि-२६१ पुणह-४२६ तुम्ही-३८५ सुरय-५२६ तुरगा-३३१ तुरिय-६८, २५६, ३२३ तुरिहय–१५३ तुरोप–६७, ३३५ तुरीयड-३२४ तुरी-३३५, ३४०, ४६५ सुरीन–४४४ तुष-३१४, ६११ वह-२४२, ५२८, ५४६, ५११, सुहारे-६२६ तुहि-५०, १४८, १६७, १६२, २५५, २७०, ३१६, ३२२, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) १७१. ४०४, १७०, ५१५. । ६२, ६०४, ६०६, ६४३, । तौहि-६६ थ तुहोतु:-५११ तूटे-५० तुष्टिगो-५१६ तूठउ-१७२, ५७७. ५६ तूठी-३७ तूर-३४ तरी-५.३ तब-२५५ तेउ-३६०, ५८६ तेज-२५ तेगा-१५६ तेरउ-६, १८, १३६, १७८ तेरह-६८६ तेरे-५१६ तेल–१४२, ३५६, ३५७ तेसो---५७ तोडइ-१२, २६.१ तोडहि-२१० तोडि--२६१, ३५१, ३४२, ५२० तोडिषि-६२ तोडीतोपह-५६७, ४७१, ५३० तोरण-८६, ५६३, ५६५, ५६१, थाहर--१६२, २५० भ--१६४ गंभीणी-४०१ भरहरा-६६२ थल-४७५, ५० याफे--१४१ यापिउ-२५२, २७२ यापे–१२१, ५६१ थाल--३५०, ५५२, ५७० यालु-६१ थतिवि-६६३ वइ-२८, ११,२७०, ३१५, ३३०, ४२७, ५८५, ६४६ वउ-२८०, ५४२ वक्षश-४४ वंत-२१ तोरण-५७६ तोरी–३५४ तोहि-७४, २५६, २६३, ३०४, धम्ब-१४२ दम्बण–३४६ दरर-४८३ वर्पण–३१ -३.१ ५१५, ५२२, ५७५, ५८३, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५७ ) बल-२१, ७१, ७५, २६१, २७६, । दिखि-२५२ २३, २८५, ३२०, ४८६, दिखियाष...-६६ विगु-५८७ दलबल-२१ दिजः-६५६ बलु–७२, ७५, ८३, १७१, २६२, विद्ध.---१२३ २८२, २८६, ५३२, ६४६ विठ-४२६ -६, १३६, ३३५, ३३६, ४२६, विठउ–३२, ३३७ ४४१, ५२६, ५५६, ६६६ दिठि-७६ बसइ–४५८ विठु-२८२, १११ बसदिसार--६७५ विठु--६५६ सह-४६६ दहि-५७० दिन–११, १११, ११५, १६३ विनर--३८५ दाज-२४८, २५४ विनि-६२१ वाल-३४७, ३४८ वाण–३०० विपद-३१३, ६०१, ६६० वाशिम्य--२४७ विस-११०, ४०३, ४०४, १३, बांत-३६५ दावानल-७२ विवसु-३५६ काहिरा-१४ विवावद--६०६ वाहिणा-५०७ विस-१६,४८४ दाहिएज-५०७ दिसा–१६१ वाहिनी-४८४ विसंतर–४१० दिसा–४६६, ४८१, ४४, ४६८, विझलाउ--३३४ विशालाहि-४५६ दिसि-१४ दिखलाव,-४६४ विस्वाइ-४६४ बौख-४०६ दिखाउ-७४ दीस्या-७५ विलालह-१८६, १६७ वीजइ---४४६ विलालउ-४३२ दो-४८५ विखालि-६१० दी-५६ विलालिच-५४ कोठ-३२, ८६,६६, १४७, २०६, विषा-४६ ३२०, ४४२,५१४, ५१८, विशावर-४६६ ५२३, ५४५, ५५०, ५६०, विसावहि--४६३ ६३६, ६३७, ६६०, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ( २५८) गोटि–४०, ६३१ दुवारि-४३६ बोटी-२७,४१, ८, Le, २०१, । दुवार-४४१ बा.-२३ वोठे-३७, ३४४, ३६७, ६५६ दुष्ट-७६, १२०, ६३२, ६८५ बगड६४८ दुह-, १६१ बोनउ-२६, २१६, ३३०, ३३६, धुहागिणि-१०७ ३७२, ३८७, ५११, ५२० ४–१११, ११५, १२०, ५८४, दीनी-४४, २२३, २२८, २५८, ६२४, ६५७ २६७, ३४३, ४०८, ५७४, ६५४ दूषित-६२६ गोने-३५० दूस्यो–६३० गोप-५७ बूजई–११८, ५२३ घोपर-१६१ दूजज-५२४ वीयो-४०२ दूजी-१६७ कौस-३२४, ६६३ दूर्ग-१ गौस-१६, १८, २२, ७२, २१७, दूत-६०, ११४, ११७, ११८, ४३७ ३१३, ३१६, ५०३, ५२६, ६१६, ६२०, ६२८, ६४१ ५.२,५९६ दूतर-६६७ सह-१७ बूतह-११४ बीसहि-१६२, ४८२ -४३५ पुर–३३, ७१, ७६, २११, २२२, दूयरू-२१२ २३५, ३०६, ३४१, ३४८, बुरउ-३८३ ३५३, ४८१, ६१७ दुइज-१३६ दूर-३३३ दूरि---६६८ बुइनो-२७४ दूव-५७० पुख-१२५, ४२६, ४४५, दूवाह-४६२ बह-६८६, ६६६ दुमण--६८६ बेह-३, ५, ६४,७६, ११७, ११८, दुर्भ-३०६ १६७, १७२, १८४, २११, दुठ-६६६ २१३, २१७, २२२, २६८, २६९, ३००, ३०१, ३०२, परिस-६ ३४१, ३७६, ३७७, ४४८, ४६२, ५७८, ६००, ६१७, Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L + ६१८, ६२५, ६२६, ६-४, ७०% बेज - २११, ३२८, ६०३, ६१३, ६६.६ वेसह ३८, १०५, १३१, १३२, १८३, १८६, २८१, ४२५, ५०३ वेखत -- ३१, ३०२, ५१२ उ-- १३२ वेखह - १३४ देवाहि-- ३३० देखि - ३२, ४३, १२५, १४१, १५६, १५६, १७६, १७०७, १८४, १६०, १६६, २०२ २०५, २३०, २३४, २६०, २६६, ३०, ३१३, ३१५, ३२६, ३६५, ४२४, ४३६, ४५२, ४६४, ४८७, ४६.३, ५०५, ५३४, ६४ = देखि ६८२ देखित- ५६६ देखिय - ३१, ४३, ५१८ देखी--६८, १३१, ३४६ (२४६ ) बेली यज-४ बेसु -- ३०५ देव – १५, २८, ५७, ६२, ३१७, ३७०, ५४७, ३८८ ६६६, ६६७, ६६८ ५६४, देवता - ६६७ देवतु- ५३५ बेबल - १५ बेवलहि—६७ देव- ६६६. देवी - ४, १०३, १०६, १०७ रेस- १४, ३७, ३५, ३४४, ५६६ वेसु - १५२, ६ देह - १२१, ३६५ बेहश्व – ५७ वेहि–१०, २४६, २४८, ३८२, ३८३ -- ४, १०६, १०१, ३०५, ३४०, ३६६, ४२०,६२४, ६२७ बेहरह- ४६ बेहरे–४७, ६१ यसु - १६८ बैव-- ५६० दोइ - १८१, १२, ४५१,५३६, ६१५ दोज - ८१, १८१, १८२, २८१, ४६२, ४८६, ६३६, ६४२, ६५५ वोह - २७६ दोस -- ६६, २७६ दो - ६३, डाइ–३३० ६-२३६ जावस - ३७४ द्वार-४४२ द्वारिका - ५८६, ६०, ६२१, ६२८, ६४०, ६४६, ६५८, ६६०, ६६२, ६७० ६७१, ६७२, ६७४, ६७६ द्वारिकापुरी - १६, २७, १३८, १४५ १५२, १५७, २८३, २६६, ३१४, ५३४, ५६४ ५७१,४७७ द्रोपायन – ६७२ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६.) दीपायनु-६७४ -७,२७६ देस-३५३ घाउ-४४६ धण-REE, २६२ धरघुक-६४६ धणय-१६ घचहधन-५६५, ६८७ धनकु-५२० धनष-४६२, ५१७, ५.१६, ५०३ घनसु-५३३ धनहर-७८, ५१६, ५२१, ५२८, ५३६ धनि-५५२ निसु-५५३ धनियउ–५१% धनु-५५२, ६५६ धनुक-२६० धनुके–३१३ धनुष--७६, ८२, १३७, २८० १८६, ५५३ थम्मूधर-८१, १६८, २३, २४४, धरण--१६१ परणि-५१५, ५६८ पररिंगदु-६६१ धरनी–६३० घरम-२६, १५४, २५२, ३६६ धर्म-२०, १५२, ५६४ धर्म-५६२, ६५६, ६६६, ६६७ । धर्मभू–१६४ धर्मह-६५८ धर्माधर्म-६६६ घरमु-६७१, ६८९ घरपा-६१२ धरपो-५३५, ५६०, ६५३ । घरहि-२५ । घर--२८६, ६४२, ६८५ । धरि-४, १३, ८०, १५४. २७१, ४४, ५७५, ६५२, ६६७ धरिज-४२६, ५६५, ६६५ परी--१६, ४४, १३१, २८३, ३६६, ४२२ | धरीउ-२१६,५५५ धरे-३६०,४०३ धरै–१४६ धवलहर-१५, १८ धवलहरू-३१६ धवहर--३१४ । यसश्यो-२४६ , पाई-२१६, २१७, २३६, ४३१ । धाइयो-५३१ । धाए--२०५ । बाजइ-१४१ । धातुक। धायउ-५५४, ५२६, ५३२ | धाराबंधणी-१३५ धरव-२४, ३१, ६७, १४३, १६६, २१७, २५०, २५६, २८५, १६१, २६२, २६८, ३०१, ३५५, ३८५, ४१८, ४३६, ४६६, ५४५, ६३१, ६६८ घर-१२५ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६१) पीजइ.---१४० नमस्कार-२६, ४३, १५८, २४०, धीय-५८८, ६२५ घोर---२५६, ३४१, ४२७, ४५८, नमस्कार–३६६ ४६७, ४६८, ५१०, ५५८, नमशु-४०८ नमि-१० धोक-१६२, २०१ नमू-७०१ धुजा-२६३, ३१६, ३१७, ३१८, नयण-३०, १२५, १४१, १४१, २२७, ५६०, ६५० पणि-६४३ नयपा-६६ धु घाइ-४०१ नयन-५६६ धुरंपर-६७७ नयर–१५, ३७, १०, १२४, १२८, धूजा-३१६ २६२, ३२७, ३६.२. ४२३, ५६१, ५६३, ५६५, ५८ षम्पोउ.-४१५ नरि-१२०, १३५, २६६, ३१६. धूमकेतु-१२२, १२५, १५४ ५६५, ५६६, ५८१, ६२८, धोइ---६०८ धोरो-३२५, ३२६ नथरी–४४, ३२०, ५५३, ५६४, घोवती-३६०,३७४ ५७१, ५६०, ६२१, ६४०, षोल-६६३ ६५५, ६७, ६७२ मयरू-५६, ८४, २७१,३१३, ६३६ नर-६५, १४८, ५६५, ६१३, ६६८ त नरमाह-४७ मरव:-५४, २५३, २६५, २८, मह-५६३ नउ , १३ नकुल-४७४ नक्षत्र–११ नगर-४२३ नवी–३६५ नन्दरण---११८, १२० नंवरणवणनंबरवण---६. नरबै—१६७ भरायण--२ मरिक-१३२, ६५६ नरेस-६६, ५७६ नरेसह-४६१ नरेसु–१६४, ५३४ नर-२२६, ४८० नषा-५ नंदन--१०४,५५५, ४५३ नंबतु-५५३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबउमय -४६० नवणी-१३ नषि-६३६ १५०, १५२, २८५, २६१, २६२, २६७, १०६, ३१३, ३१४, ३६६, ४१४, ४५६, नहीं-१४७, ४०, ४६५, ५७३ ! . मा -३४,४३, ५३, २६५, ५४४ नाररिवि-५ नारायण-२८, ४३, ४, ५१. १०१, १०२, १.१४, ११८, १२७, २६३, ४००, ३०५, ३०६,४०४, ४०५, ४५२, ४६१, ४६५, ४७२, ५३०, नह–६०, २७८, ५०२, ६२६ न्हवन-६६. मार-१२ नाईउ--११६ नाउ-३२७, ४१६, ४२१, ४२५, ५६७, ६१२ नाक-३६३, ४२२, ४२५ नाग-२०१ नागपासी-२०४, २५६, २८२, ३८७ नागसेज-२०३, २३३ नागु-१८६, २०१, ४८४ नाचण–३४ नाचरिण---२४ नाहि--५६६ नाजु--४०१ नाटक-१३७ माण-२०४ नाता–६ मानारिषि-२५, २८, ३०, ३३, ३५ ३८, ५६, १४५, १४६, १५१, २३, २८८, ४४५, ५४५, ५५४, ५५५, ५६५, ५६६, ६१०, ६२६, ६६५, ६४०, ६७२, ६७६, ६८१, ६६१ नाराय--२६, २६, ५३, ६४, ६५, ७, ८५ BE, ६४, ६५, १५५, १५३, ३३२, ३६८, ४६२, ६४०, ६५०, ६७६ नारायनु-५२ नारायण-८२ नारि-५५, न, ६७, ११५, १२०, १४२, २२६, २२७, २७१, २७६, ३६५, ४२२, ४२३, ४२६, ५४१, ५६३, ५६५, ५७०, ५८४,६०८, ६३४ नारिंग-३४७ नारी-१२३ नासु-६६२ नाहि-४५, -३ नाही-२८७, २८, २७७, ३३२, ३७१, ४५E, ५१५, ५२२, नाम-४६,६१४ नामु-१६८ भारत-२६, ३१, ३७, ४१, ४६, ४८, ५१, १४७, १४६, । । हाइ–२०५, ६०८ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१) महामो-२३६ निरजासु-६७०, ६१५ निकंटकु-१८६ निरवाशु-६६४ मिकलह-४६१ निरास-२३३ निकलिज-३६४ निस्त-११२, २३३, ३६६, ४१४ निकलो-२१४, ४२३ निलउ-६१३, ६६५ निकालि-३८३, ५४८ निवली-३४६ निकासु-३, ८, १३८ निवारि-५४३ निकुतार-१३२, ५७७ निवसह-१५६, २२० निकुल-४५६, ४७१, ४६३ निवसहि-१६, २० निगहा-६४३ निश्चल-६७० नीषण–६४७ निश्चे-१६०, ४२७ निपाति-३५० निसाण--४८३ नि-६३३ निसारगह-५६० निसाणा-६८, ५६, निज-६५ निसि-१२२ निजिगि-२१६ निसिपूत–१२७ नि--७०, ४१ निसिहि-५४७ निति नित-६१, १४० लिपुणह--३०५ नित्रा-६ निसुगाउ---२६६ निपजावइ–३३८. ३४६ निमुणतु-११, १७४, ४०१, १६२, निपाए-६५६ निनजंत-७२ निसुग्गि--२६, ४२, ४८, ५१, ६४, निमजि-५ १२४, १५८, १७२. १७८, निमति-५७७ १५३, १८७, १८६, २४६, निमसे—५७६ २५३, २५६, २६४, २५६, निमस-२४२ ३०१, ३१४,३१५, ३२०, निमसइ-१५२, २७१, ५८७, ५६३, । ३२२, ३२८, ३३१, ३८६, ६१९ ४२१, ४२६, ४२५, ४३८, निमस-११६, १६४, ६३४ ४४१,४५५, ४५६, १०४, निम्पल-१६१ ५८७, ५४३, ५६६, ६००, मियमण-६ ६.६, ६२८, ६३०, ६३४, निपनिष-६६३ ६४३, ६५४४ मियरो-१६६ निसुगिउ--३२७ । निसुगी--३०६, ५१० Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमुणे- ४३० ६८४ निसुणो--- ४६६ त्रिसुणी - ४५४, ५६५ निसुन- ३६२ निश्चे—६७४ निहाउ -- ५८० निहालिउ - २०१ निहूड २६५ नीकलइ - ४७६ नीच - २६८ नीची—२६८ नीबू - ६५४ नीर- ५२८ ५२६ नीरु-१६, ७, ३७७ नीसरइ -- ६६८ नेम - २२, ३६, ५८४ नेम्म - ५६७ नेमि - १०, ४६१, ६६४ मोस्वर --६६१ नेमिसर-१२ नेहु-- ६२४ न्योते -- ३६० न्योत्यो - ३६२ प पइ - ६०, ३०४, ३७०, ४८७ पइज-३६३ पठे --- ३५१, ३५३ पप-- ४४२ पइस रद्द -- २०० पइसार– १३८ पउ – २४ पडलि – ३१४ ( २६४ ) | पएसु-- ५५४ पकड-१६० पकरि ४५७, ४६३, ५४५ पखारे – ३२४ पंलि -- ४८५ गाय -- १८६ पारि २२, १६२ २११. ४५०, ४६५ ४६०, ४६४, ४६६, ५३२, ५३८५४३, ५४७ ६३४ पचारे--६७८ पचार - ५४२ पचास – ७६ पछिता -४१७ पविता-३६ पचिताव -- ५१७ पत्ता - ४२६ पछतायो - २८६ पजलद्द --- ३६ जुलंभु-- ५२५ पजुन -- ६६४ पडून-५३३ पजुनहा--५२६ पजूसह -- ११ पटरानी - ३७४ पटु - १८२ पह ८७, १०४, १२०, ७०१ पठज---७७ पहए - ६०, २५५, ६३६६४१, पठयउ-४३३ पठयो ५६ पठायो - २१८, २२६, ६१६ ६६६. पाव पठितु - १३७ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५) पठे-१. पसियाइपव्यो-४२,६२२, ३२३ पयंतरि- २ पठइ-.-४२० पदमवतोरणा -2 परा--१२०, ५५१ पत-१४६ पाउ--४३६ पदमावती-५ पडल्वर-५०५ पशु-१३८ पवारय-५२, ३१३ पबह-६३८ पत्र -१३, २४,१६,३११,३१६, पह--१७३ ४८४,४३० पडाइ-५३२ पंच -४३६. पडि--४५६,४७, ५१५ पंच- ११ पजिउ--७५ १६६, ३३२, ३५६, पंचज--१२ पंचति-१५४ पडिगयउ--३७२ पंचमु-५६६ पडिय--१७३ पंचमुवीर--६८ पडियो-४५२ पंचसय--१८३ परिहार--४८४ पंचायय--१८० पडी--६३, १५३, ५१४ पंडव-४५६ पडे -४६८, ४९६, ५००, १२, पंचित-७०१ पंडौं-५८२ पद--३१८ पदंत-३७१ पढग....१३७ पउ-३७६ पढम--६१३ पंथ-४६६ पहमद्य--१३ पंथि-७७ पहायतु- ३७६ पंद्रह....५४८ पहावइ-१७६ पभरण-२२६ पद--६१५ पभणइ-३ पणमा-१ पवरण-१३५ परावा-४ पम्बारण-४१५ पम्बारा---.६४२. पगि--२६४ पय-१३, १६, १८६,२७१ पस्थय-२६५ पयठ-२१२ पता--१०६ पपड़ी-२६८ पतिगइ - २६६ पघंपर-३४०. ४२४, ४६३ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) १८६,४२८, ४२६, ४६४ ५४२, ५७३, ६५.६, ६६६ - - - एयसार -४४० पयाइ--१६४ पयार-१०७ पयाल-५६२ पयालि-१४४,१४६ पपासइ-१४ पयास-४१२ पयासहु-१८ पथासु-१२ पपासो-४५८ पयाहिप-६६६ पर-२१६, ४४५, ४६१, ४८८ ११६ १२३, १२७ १३५, १३६, १४, १५४, १८७ १६२, १६२, १६८, २६० २२५, २३६, २४, २१० ४६२, ५५१, ६२४, ६७५ - । परद-५४२, ६६७ परखिउ-५१५ परगट---४२७ परचंड-५५८ परजलइ-६५५, २७५ परजल्पा --४४१ परजलीउ-२५३ परजल-१७० परठयो-६२२ परगइ-४५ परणउ-५७, ६३४ पराउ-१६ परणी-८, ३०३ परदमणु-४१३, ५६६, ६४६,७५० परदमनु--६३५. परवम्बर–१४४ परदम्वुरण--१३० परमम्वन-३२० परववरण --२२५, ३१४, ३२०, ५८४ परदवणू--१५५, १५७. १६०, १७३ १७६, १७८, १८, १७ परववन-३२ परदबनु--६३४ परवेस-४०८ परदेसो---२७७ परधान--१८५ परपंच-२६५ परभाव--४५६ परम--३१० परमेसर--६६५ पर्यत-३५ पर्वता---५४१ परवतधारण-५३३ परपउ-७६, १४० परयो-५३० परसपर-३८१ परहरी–६ परहि-५३२ प्रछन्न--१२४ प्रजलंतु---७४ प्रअलेह-२०६ प्रतिउतर--६८४ प्रतिपालिज--२८४ प्रवण--५४६ प्रवणु-५२२ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७) प्रवषम-४५५ परिहसु-५८६, ६१७ प्रववन-६७६ परिहाजउ-३२८ प्रधनु-१३६, १३८ परी--३०६,५०१, ५१२ प्रमाण-३६७ परोधर-१८१ प्रभाइ--४१ परीवार--१५ प्रवाह-५२६ पोसह-६८९ प्रहार--४६५, ५३४ पारुति-३८२ प्रहारु--४६७ परे–२५६, ५०३ पराइ--२ परोसा -३८८ पराग-१४४,३०८, ४७०, ५२२ परोसिउ-३-६, ३० परा--५१८ परोसे-३८७,४५३ परान-२७४ परोसो-३६३ परापति-१८३, ५८८, २३० पलगाह-६४५, ६४९ परि-२८६, ३०२, ३६१, ६४५, पलरगाह-२५७ पलाई-३, ३५२, ५१६, ५२५, परिउ--२५३ परिगह---२४८, ५१६, ५४७ पसारणह-६८, ६६ परिग---५५५, ६२७ पलारिणउ-१७५ परिणइ--२३५ पला--१७३ परिधनु....५२ पलाणे-२५८ परिभानही---५८ पलि-१४४ परिमल-६६३ पध्वज-५०६ परिमला-२३ पवरण---५६, ७२, २५२, २६९ परिभानु ३५४, ३८६, ४३५, ४४१, परिमह-४५ परिरहे-६४४ परिए-२८ परियण--२७५, ५६८,५६१, ५३२ पदा–५३३ परियाशि--२ पवन-५७२ परिहरे-६८९ पवय--२८८ परिवार---२२, ६३७ पवर-६६२ परिहरह-६८५ परिष–३३४, ४५६, ४६८, ४६६, परिहरघउ--३८८ परिहाइ---३५ परिपु---४७१, ४६३, ५३३, ६५१, परिस--१, ६६, १४५ ६७ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २३८ ) परिशु-७४, १६६, ४६४ पहत3-१३०, २०६, २२०, २२४; परिसु--५३४, ६२४ २६१, ३३८, ३३६, ३४३, पवलि--४४० ३४४, ३६७, ४३४, ६४५ पहि-१५६ पहुतो--४१६ पवाड--६२६ पहते-५E, १४, २५१, २६६ पवारण-६४२ ५६५,६४६.६६५ पवित्त –२८ पहुतो-५४५, ३४६, ६५० पसाइ-१४० पहपचाप-२३४ पसर-५६४ पहुपयाल--३१४ पसाउ-७, १३, २८, २५, १०६, । पटुममालु-२११ १६६, १७२, १६२, १८४, पहूत--५७१, ६२ २८८, ३२८, ३७७, ६५२ पहूतउ-३६० पसारि-४० पाह-१०६, १८, १६, १२८, पसारी-४८६ २००, २२२, २३०, २३७, पसार-५३६ २३८, २६४, ४२०, ४५४, पह--३६, ११४, ५१८, १६३, २५६ ५७८, ५५१ पारक-२६०, २६१, ४६. ४३५, ४४०, ४४१, ४५३, । पापकस्यौ-२६२ ४६५, ५२२, ६०२, ६२३, । पहात–११६ ६४७, ६५२, ६७५ पाउ-१२२, २६८, ३३६, ४८५, ५४५, ६४६ पहचाइ–३२४ पाख-१३ पहरण-५१ पाखर--२५६, ६५८ पहर-३५२ पांच--१३६, ४६६ पहरह-४७८,४६६, ६०७ पाचसह--२५३ पहरे-६५८ पांच-२५१ पहरेइ-८,२, १७६, २३५ पाचसो-१६५ पहाणु–१५, ५६४ पाछ-३१,६६, ११२,४१४, ६१६ पहार-५३६ पाछिलउ-४१३ पहिवारण-५० पाटधरणि--४३ पहिलइ ---११२ पाटण--२७१, ५८७ पाटमहावे-६४० • पहुंत--६, २५, ७२, ११४, १२२, पाठद--४५४ १३५, २६३ पाठए--३६६ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ( २६६ ) पाठयज-५७ पासि--१६ हायो- ४६५.. माधु-.-१८. १२६, २०, ६७, पाउल-३४५ पाहिउ---१६ पाहरु-१२७ पांडव-६६१ पिउ-२६७ पांडवह ---४६१ पिडलजरी--३५५ पांडो-२७६, ५५ पिता-४०८, ५५०,६५१ पारण--६३४ पियउ-३६१ पागल-६४३ पियरे-१६२ पाणिज--३६१ पोतिय-४४% पारिखगहनु--६५६ पीमरेपाणिगहणु-५EL पुकार-६२७, १२८, २५१, ३५४, पारिणग्रहन-- ५५,६४४, ६४५ पाणी--१६१, ५२८ पाणविंधणी-१६४ पुकारिउ-६६ पुकारियज--६५, २५० पातलि-३८ पुकारो—६५ पातालगामिनी-१६३ पाथि-५३५ पुकारपो—३५२ पाप--३२४, ५०४ पुण-११६, २३० पापह–१६६ पुण-४,५४ पाय--६७५ पुरिण-८५, १.३, ५०६, २१४, पायो-४८२ पार-१३, ५६५ पालक-२५२ पुत्री-६२०, ६४२ पालकु-१८५ पुर-४१३, ४२६, ६६६ पालि-६४२ पुन-१८८ पालिउ-२४४,५७३ पाप-३३६ पुनवंत-२३० पावइ-३६२, ३६२ पनवंत-५४७, ५६२, ५६१, ६११ पावडी-२०३, २११, २३३ पुनवंतु-५११ पावयः-५२ पावः-१५ पुनहि-२३२ पास---१०१, २६५, ४१७, ५५०, पुन्तु-३३१ ६२२, ६ | पुर–३, ६६४, ६६६ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरमन-५५३ पुराइयज-५६२ पुराह, -- -३१८, ६८०, ६६५ पुरायड़-५६२ परि–८, ३४२, ५५५ पुरिषु १६२ पुरी ..१६, १५२, ३१३ पुर-७६ पुध-२४५ ( २७० ) पूजी-५६५ पूंडरीकरणी-५६३ पूत--११२, ११५, ११७, ११६, १२७, १४२, १७१, २५२, २८५, ३७४, ३६६, ४१४, ४६१, ४६२, ४, ५.७४, * ६०४, ६१२, ६३२, ६७६, ६७७, ६८१,६८३ पूतहि-२८४, ३०६ पूतु-२४८, ४१५, ५४६, ५६१, पुष्प-२३६ पुष्पयाप-२१६ पुहपमान -५२७ पुमि-१४६, १७, ३०६, ५४६, ५५७, ५७६, १६२, ६५६, पुहमिराय-६७ पुहिम-८१ पूर-६३ पूछ-१६०, २१५ पूछई-.-६, ६३, २२६, २४०, ३२०, ३२६, ४००, ४४ ४८, ४०६,४४७, ४६८, पूत्र-१४० पूग्न-५६८ पुन्योपूरउ-२५४,४४२ पूर्व-४७, १२६, १४२ पूरव-१५०, १५५, १६८, २.८, पूछा-.४४७ पूछ-१६१ पूछि -२, ६३१, ६७१ पूछिल-१५१, २२६, ४५३ पूछो-४८८ प्रज-१८पूजा--१२, २४३, ४२७, ४६७, पूरि-२२, ३६२ पूरिष-१४२, ४२३ पूरिहि-५६६ पूरे-४७, ३६७,४१५ पूर्व-५६५, ६.३ पूज्य-५६३, ६५६ पूडबह-६८७ पेखि-१२५, २४१ पेट–१४८, ३८६, ४३६, ४४३ पेम---२६. पेमरस -२४५ पेलिउ-५०७ पेस -२४६, २४६ पूज्जद-६५६ पूजए -३५७ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैठा - ६० पैम – २४७ पेखरणो-- २४ पोरिष - ५२२ पौषि - ४५३ ५४६ पौरिशु - २३० पौरिसु ६० ና फटिक - १६, १९४ फटिकसिला - २२६ फए -- ५४१ फरकिड - ५०७ फरहरह-२५ फरहरे- १४६ फरह ३२ करो-४७५ फल- ३५१, ७०० फलु - २.३० फले १६२,३४८ ३६७ फल्य – २०६ - फहत – ३१६ फाडि २६५ फाटहि - ५३६ फारह -- २५० फिरह - ३१, ३३७, ६८६ फिरत - ३८ फिरहि-- ४१० किराम (~~-२१५ फिरि ३५, ३४२, ५०३, ६६२ फिरे -- ३७, ६३७ फुंकार--१ फुडि ६३ ( २७१ : फुड – ६०४, ३१४ फुलबद्द -- २२५ फुणि–३, ११०, ११८, १२८, १३७, १२५, १५६, १७७, १८४, १६६, १६६, २०० २०२, २०४, २१५२ २१५, २१६, २२१, २२२, २२३, २२५, २२८, २३०, २३५, २३६, २३६, २५०, २४८ २७०, २७१, २७६, २४३, २६६, ३०८ ३१२, ३२०, २०६, ३३८, ३५१. ३५:७, ३६०, ३६२, २३३, ३६४, ३६५, ३५३, ३६५, ४०८, ४१४, ४१६, ४२२, ४४७, ४२६, ४३०, ४३२, ४३६, ४३८. ४५० ४५५, ४७२ ४६४, ५.१५, ५२०, ५२४,५८४५६६, ६००, ६०६, ६१०, ६५२, ६६८, ६६६, ६७१, ६७ ६८१, ६-३, ६, ६६३, ६६५ फुरिगर - ६६४ कुनि २६ फुलइ -- २६७ फुलवादि - - १०१ ३४४, ३५० फुलि -- ३६५. फटि— ५३४ फूलो - ३४४ फेकर - ४४ फेर - ८२. फेट १४ फीफल – ३४५ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) ३३४,४५०, ४५८, ४८०, बतीस--- बलिभव-५१ बहुत-२३७, बाढी-१ ८ भ[त--१६ झगाडि-१७ भण- १७६ भंग.--२५ भंगु-१२६, ३४ अंजा--१७५ भंडार-३७६, २६३ भंति---१७ भंती-५७६ बघि--२५६ बांधिउ-२२८, २१ बांध्यो-११८४ बात-२४२, २७, २५५, २८५, २६० खुलाइ-२५५ बोलई--७५, २६७, २६८, ३.६ घोलु–१७८ भया-८, ६, २८, ३३, ११.३, भइ-६३, ६६., १४६, २४६, ३४१, ३५४, ३५६, ८, ४२५, १२८, १३६, १४७, १४क, १५१, १४३, १८८, १८५, २१६, २२३, २४५, २५४, २५५, २६४, २७०, २७५, २७६, २८०, २८६, २६E ३२०, ३२६, ३३७, ३५६, ३६०, ३६१, ३७३, ३७६. ३६४, ३६८, ४०२. ४१३, ४३३, ४३२, ४३३, ४५०, १६३, ४७५, ५७६. ४८१, भउ-२६६, ५६०, ६४७, ६५६ भए-११, ६४, ६८, १०२, १२०, २१२, १३३, ४३५, ४३६., ४२, ४८६, ५४५, ५६७, IAGE ६३७, ६५३ भगति-१८, २२३, २३५, २३, ५४८,५५२, ५५५, ५६०, ५६१,५६५, ५६६, ५८०, ५५५, ५६, ५६१, ५६३, । ६०२, ६०३, ६१३, ६१४, १२१, १३५५ ६३६, ६४८, भज्ज--५६७ भज----४५. भरण्इ-४४, ५१, १२३, १७५, । २८३, २४, ३०१, ३०४, । ३०७, ३१४, ३२०, ३१३, । भयो-२८, ६५, ७२, २७, १०६, १५४, २०४, २३८, २६२, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७३.३५६, ४०६, ४२८, ४७५, ५१६, ५२७, ५३१, ५४३, ५६१,३२१,६४६ भये-११५, १८३, २५४ ।। भए–६७५ भवियह-६ भवणु-२६५, ५-३ भहरा-५३१ भाइ-.-२४, २६, ६५६, भाउ–७, १३, २७, १४४, २७८, २.१, २, ३२ ३४१, ३७६, ३७७, ४०७, भरह-८५, २५६, ३६४ भरष–१३७ भरत-५८ भरह--६५६ भरहखेत-१४, १५२, ५६६ भरा--३६१ भरिउ-४४३,५५२, ५६२ भरिभाउ--२६६, २८४ भरिबाउ-२१, ७४, ७६, ८३, १६४, १६, १७१, १४, १८२, १८६, २०२ २५६, ३३, ३३६, ४६५, ६४५ भरि-२८६, ३१३, २६ मरिहि--२४ भरी ६१,६६, ३४८ भरे--१६१ भरेइ–६१, ५७० भरोसउ---२५७ मलउ-२८, ३२५, ३८०, ५१४, भाल-६४२ भाग-३८८ भागिउ--२५८ भागी-६४६ भाजि--३५६, ४६१ भाजउ-१७१ भारण--१६४ भाणिज--६५४ भाए-२६३, ३३६ भाणेज--६५१ भांति--१८, २१, ३४४, ३५८, भातु--३८८ भावो-१७५ भावम्व-४८३ भान-३२६, ३३६, ६५८, ६७३ भाना-१८, २८४,३५६, ६२० भानउ-१७१. १४, १८६, ३२६, भल्पउ--२४२ भली--२६०, ३.२ भले....२३३, ५२६, ५७E, ६५४ भलो-४७३ भव-६६७ भवंतर--५६५ भानु-६१२ भामकुम्बर–३२७, ३५२ भानकुमार-३२०, ३२८, ३२६, ३३३, ४१६, म ५६१ भानकुमार--३२२ मान्मर-२०२ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान्यो - ४६५ भानहि- २६७ मानिउ ७६ भानु-- ३०६, ३३१, ३३२, ३५५, ३५६, ३५८ भानुइ -- ३ भानो--२५६ आमिनो -- ५१०, ५१३ भाउ – ५६०, ५६२, ६३३, ६५४ भारत – ३३५ भारध - २७६ भारह--६६१ भाऊ - ६७३ भावरि ५८५, ६५६ ( २७४ } भावहु- ५५७ भासमु -- १७० भिटाउ - १००, १०४ भिडइ ७८, १७६ १८०, २१४, ४६६, ४६२ भिडिउ - - २०१, २१६ मिरे – ४६२, ४६० भिडे – २८१, ४६८ भिभिउ - - ६५०, ६११ भिरइ -- १६५, २६६, ४५१, ४६८, ४६८ भिरउ – २१३ भिरहु-- ४७३ भिरे – ६१८ भिलु – ३०४, ३०८ भीरइ-- ५४३ भोरहि- ४६१ भील - २६५, ३०७, ३०६ भीलु — ३०२ भीष्म-८३ मी मराइ – ६५ भीषमु— ४४ भीषमुराउ ५६, ६८, ४१, ८३, ८५ भुइ – ४५० भुजंड -- ६५७ भूजही - ५७= भूजं -- ६०५ भूजिउ-- ५२३ भुवर- ३२४, ६५६ भुवन -- ५४१ भूखउ - ३६१, ३७५, ३७६, ३६१, ३६३, ४००, ४०१, ४०२ भूखे – ३४०, ३८४ भूजइ-- १२६ भू जहि - ११५ भूमि – ३७२ ३७३ भूमिय३१४ भूमिद – ६८३ भूली- ४११ भेज - १६५, १६७, ४६६, ६०६, ७.२१ भेट - ४४ भेटइ - १८७ भेटि -२३८ भेटिज – २७, ६२, २३७, ५७३ भेटो-- १५६, ६५३ भेरि - १२१, १७३, ५६१, ४८०, ६५६ भेस - २६८ भोग - ६१, ५६२, ६६२, ६६३ भोगत - ६८३ भोगवद्द --- २६७ भोगु - २३२,५८६, ६६१ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) भोगन–३६५, ४१९, ४६६, ६५३, । मंजीरा-६३६ मंशप-६५५ मंडपु-६,५५, ५७६, ५६ मझलीक-५७७ भंत-२७, ६१६ मई-५६,३३५,४२६,४४३,४४५, मंतु--६०, १६, १८७ YEE, ५३३, ६३२, ६३३, मंत्र-१८७, ६१७, ६२२, ६३२ ६६४ मंत्र-५८४ मइगल--७८, १७६ मंत्र-५८० भइयासह–५१७ भंडार--३४६ मछा--३५५ मंदिर-१५, १८, ६०, ६५, २६३, मझार-८६, ६०, १००, १४२, २१२, २२६, ३६५, ४२३, मंदिरि--३५६ मन--२५, २६, ३२,३६, ३८,५४, माउ--४३६ ५८, ६५, ६, ८४, ८७, मण -२४६, २७, REE, ५१८ मरणा-३६२ मणि-१२, १७, १६८, २६२, ३१४, ३१६, ३१६, ५६ मणोजो-२२० मत-२४४ मति--१ मथुराराज-४६५ मद-६७२ महण--१२ मनसूबनु –६५१ मधुर--६७ मंगल-१२१, ५६६ मंगलबार--१२०, ५६३, ५६७ मंगलचार-.-७ मंगलु--५६८, ५८१ . मंगलवार-३५७ १६६, १७२, १८, १९४, १६४, २०२, २२७, २२८, २४८, २५६, २८०, २८६, २८७, २८८, २८८, २६१, ३२२, ३२६, ३२८, ३२६, ३३१, ३४२, ३४६, ३७१, ३७३, ३६२, ३६८, ४०४, ४०५, ४११, ४१२, ४१३, ४१७, ४८८, ४६६, ५३०, ५३३, ५३५, ५४१, ५४२, ५४४, ५५४, ५५५, ५६०, ५६५, ५७५, ६१, ६८२, ६०७, ६०६, ६१०, ६११, ६१७, ६०, ६२१, ६२२, ६४२, ६५२, ६४५, ६६५, ६७१, ६-१, ... ... . मनमा-३५, ४१, ४८, ३५७, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) मवि-६४७ | मय--१७२, १४३, १६०, १६०, ममह--२२२, ५३१, ६१८ २००, २१०, २२०, २२५, मनाइ-६२५ २३८, २४०, २८४, २६२, मनावा--४५१ ३१५, ३२०, ३२२, ३६४, मनावहि-१७ ४१२, ४४७, ४६२, ५१२, मनि-१२२, १५८, २२३, २६८, . ५१६, ५६०, ५६२, ५EE, मनु--४२, ३०८, ३२६, ४१३, मनुह-५१५ मनुहारि--२१४ मनोजउ-२२१,२२२ मय-३११ मयज्वउ.-२६२ मयगल-४६०,५०४ मयण--५७, १७२, १७४, १२, १८३, २०२, २०३, २११, २१२, २१४, २१८, २२०, २२२, २२८, २२६, २३७, २३६, ३५४, २५५ २५६ २६०, २८३, राम, २८८, २६५, २६, ३०६, ३२२, ३३८, ३४४, ३५८, ३६७, ४०१, ४३०, ४३६, ४६३० ४८८, ५१८, ५२१, ५३५, ५४५, ५५०, ५५४, ५५६, ५५७, ४६५, ५६७ ५७५, ५८५, ६०१, ६३६, ६८, मयमंत-२६१, ५० मयमंतु-२८१, २१३. ५०४ मयरष–२०७ मयरघउ-३५५ मयरद्ध-२२५,३६०, ४६L, ५१५, ५२१,५४४ मयरद्धज-२-३, ३६६, ४५७, ५२१, ५.२४, ५६२ मयरत-१६८ मयरुछु-४६१ मयरच.---१६६,५८१ मयर–५२६, ६५२ मया-१७७ मया-४१८, ४१६ मयायउ-३२३, ५२४ मर-१२८, २६६, ४४० मरख-१२५,४३८ मरण-७, २६६, ४८१, ६७० मरणा-३११, ४७१ मरा–५४२,६७३ मरवाइ-६२७ मरुषा-३४६ मल्ल-५६१ मलसि-६E मलयबस-२६१ मलयागिरि-२१६ मसावभ-४५१ मयाकुबर-६२७ मबहरामा--५५७ अपराह:-२३० मय -५३४ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) मलावहु-४०० | मा-१०, ८५, १६३, ३०१, ५१० मस्तिनायु-१० मनु---६३ महरि-१२१, ४८५, ५८०, ६५६ मसाहरण-५६० माइ-४१२, ४४७, ५४, ४५६, मह-४६, ५८, १६७. २५७, २५८, ४५७, ४५८, ६३४, ६५, २६२, ४८६, ६. ७०० ६४, ६८ महह-३४६ माइन--६८५ महका–८, २४५ माग–३०१ महरिर--५८ मागह-३८३, ३२८, ३२६, ३७६, महरणी--२ ४३१, ५१३, ६६७ महतह-६७८ मागि-३७६ महंत-२३०, ४२६ मागित-४१८ महंतु-५०२ मागी-६ महमंडल-२४३ मागो-४५७ महमहइ-३४६ माजि-४७ महमहण-६०, ७३, ४.५ , मांझ-३१. १२४. १३, १३१, १५२, २६६, ३५४, ३१६ माटी-३४२ महमहणु-५८१, ५१६, ५४६ माड-३६४ महमहन-५०६ माडे-३८ महल–३०५ मारणस-१५१, १५३, २६६ महलई-३०४ मागिउ-६० महलज-६१, ३०१, ३०३, ३८६, मारिएक-६१, २६३, ५६२, ५७०, महले--६७, ८३ महापुणराथु -- ६६६ महावे.१३३,२७०, ६७३ महाहरु–२१०, २७४, २७६, ५३६, माणु-३३६, ६८५ माणसु-६६८ मातह-७८१ माता-२४१,३१६, ४०५, ४०८, ४१५, ४१८, ४३०, ४३२, १६३, ४५७, ६०२, ६०४, महि-२३२, ५४२ महिमंडल--५३२ महियल-५२८ महियतु-५०६ मही-६०५ मासे-४७७ माये-४५८ मायो--४१७ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधव – ६५२-६६६ मान -- १२, ३५, ३६, ४५, १८४, २०७, ३२६, ३६४, ४६१, ४० मानक - १०६, ६३३, ६६६ मानन - २२६ मानभंग – ६३० मानहि-- ४८७ माऊ - ६४६ माया -- ३६७, ४६६, ६८३ मायामद – ३५५ मार – ४६ १ - मारउ - ५१७ मार्च - १७ (२७८८) I मारा - २५५ बारि - =३, १४४, २४३, २६२, ३८७,५३८५४१ मारिउ - २११, ५२४ मारिदंतु -- २१३ भारत -- ५३१ मारयो – २७० पाल--२३६, ३१६, ४५५, ५०३ मालव - ५७८ माला-- १२६ मालाहि - १३३ मालि – ३५२, ३५३ मालो – ३५४ मास - १६३, ४०६ मासइ - ४२४ माह - ४३०, ४६५, ६२६, ६४५ माहि- १४१६१०१,१२८, ६६६ मित्र - ३६७ मिल - १२८, १८६ मिला -- ३४, २०७, ५६२ T | | | मिल्यउ - १८६, २६६ मिल्यो - ४१७ T | मिलहि-२२६ मिलहु -- ४६६, ४१५८६ मिलाइ -- ४६८ मिलावक ५६१ मिलि, २३०, २५४, २६६, ५८४,५६१ मिलिउ - ४८२, ५६१, ५६० मिलिसइ - - १६० मिली-४०, ६१, १०५, २६०. ३५६, ४१६,५४८ मिले - १६०, १८७, ३०७ ६४७, ६५४ मिसि १८७ गो-- ५४३ मुकट - १६६, २३३,५८२ मुकटू – २१७ मुकति-- ६६७ मुकराइ – ६४८ मुकलाइ - २३२ ३५०, मुके मुखमंडल -- ४४८ मुखह--२ मुष्णा- २३२ मुझ--३१५ मुंड-१४६, २६१ मुंडा-४१६ मुडुकेयली--६६३ मुखि - १५१, ५६५ मुस्उि-- १४४, १८० | मुलियर--२४२ मुलिवर - ४८ I ३८२. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. ( २७६ ) मुनि - ४०, ५३, १५८, १६३, २६८ | 3 - २२, १४६, ३६३ ३६७ ४१५ ५५० ५६३, मरी–३४१ ६७३ मुनिराह - ३६ --- मुनिसर - ५६४ मुडी - ५२६, ६२ मुबरी -- ३४३ मुंब—६३ मुनिश्वर-२४० मुनिवर - १५२ मुरारि ५०, ६७, ६६० ६७, १००, १०३, ५४७, ५७२, ५७४, ६०‍ मुह-२०७, २४९, ३००, २११, ६०५, ६३०, ६६.६७८ मुंह- १२, १६७ महलु --:६ मुहवि—४६१ मुहामुह—२२६ मुहि- १०६, १२३, १४, २१०, २४१, २६८, ३००, ३०२, ३०३ ३०७, ४१४, ५५५, ५२३, १३३, ६७६, ६६४ मुही--२६० मुह - ३२ भूठिक- ३८४ सू२५ सूबउ–४३६ – ११३ मूत्र - ११२ मूड - ४२१ मूंडी - ३६५, ४२२ सुरसुतु - १० मूल ३०१ | | | मेड -- ३१८ मेघ - १७६, २८१ मेघकूट १२६, १५६, २३५, ४५४, ५.७१ मेघना -- ५२८ मेघवारण --- ५२७ मेघमाली - ५३१ मेट ४७, १६, २७७ ४८६, -- ६७३. मेटरण – १२६, २७७ मेटरणहार - ६१९ मेहं -- ३१७ मेदो-- ३६७ मेवनी- २१ मेरज -- ३२६, ६३० मेरी – ३७१, ५३७, ६६४ मेरु – १४, ६७ मेरो -- ५४२ मेल -- ८० मेड -- ५५२. मेल्हइ – ७६ मैली -- ५३३ मेह – ७१, १७३, ४८३ मेह - ३७२ मेहटि - - १५४ मेहु – ५.३० मंगल - १८०, ४६०, ५०० मेडो -- ३६४, ३६६, ३७२ मंचन - - १८१ मैलइ – ५२१ मोकली - ४२४ ! मोबि -- २६२, ३५१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) मोडी-६१८ ५०१, ५०२, ५०, ५३८, मोती--१५, ६१, ३१३, ५०३... ५४६, ५४७, ५४६, ६८६ ५६२, ५६३, ५७० यहर--४२३ मोपह--२६४, ४६७, ४७१ पह-१२३, ३३२, ३६२, ५०२, मोलु-३४० ५४१,७०० मोस्यो-२६५ माको-५३५ मोसा--२०६ यारण-१११ मोसिर--१६०,.५२२ मोह--२८७, ६८५, ६६२ मोहण ---६११ रए-६५५ मोहणो-५५, १६३, २८७ रखवाल-२०५ मोहतिमिरहरसूर-६६२ . रखवतो. १६.३४०. ३४१, मोहि-१७१, २४६, २४८, २६३, । २६५, ३०४, ३११ ३३०। । रसहि-३१५ ३८६, ४०, ४१२, ४३२, रचतु--१२२ ४५७, ४५५, ४५६, ४६६, रहि-६६३ १६३, ५११, ५४६, ५७४, रधि--१६, २६१,२५३, २६२ ५८३, ६०२, ६०३, ६०४, रचिउ--३६५ ६४०, ६८३ रचित-४७, २७७ मोहिणी---५५७ रचितु–१२६ मोहहि-१५ रची-४७,२६० मोह-४३१ रच्यो-२६३ मोहे-४६६ रण-७२,७३, १, ३, १६५, १६६, १७४, १७६, १८१, २६११ २८१, ४६१, ४६२, पउ-६११ यः-१५, ५५, १६, १०६, १६२, । ४६०, ४६१, ४६२, ४६६, २०७, २१०, २२६, २२७, । ४६८, ४६६, ५०१, ५०२, २२६, २५, २६७, ३०४, । ५०६, ५०७, ५१२, ५३७, ३१४, ३२०, ३९२, ३३६, । ५३८, ५४२, ५४४, ५४६ ३३२, ३३३, ३६२, ३६१, ५५५, ५५६, ६३४, ६७६ ।। ४०६, ४५८, ४२६, ४४७, । रणधीर--५०८ ४४८, ४५२, ४५५, ४५६, रणव-४० -- - - - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखवासह--२६, ४१, २३८ रबहाक-५२७ रहस--२६ रहस्पउ--१२७ रहा--६७१ रसिनामा--२२०, ५७२ रय-५३, ५, ६५, ३५४, ३५७, ३५८, ५२४,५४०,५४५ रम्यो-२७० रयण-३१३, ५०३, ५८७, ५EL, ५४५,४६५, ६८०, ६८१ रहाएरहायो--२८४ रहि--४४,८१ रहिउ--२०५, ६२६ रहिवर-६०, ७५, २५, ५०, ५०४, ५२६, ५२९ रहोगे-६३ राइ , १८५, ५५५, ५७६, ६४१ रयरणपूल-५E0 रपराजित-६०३ रयणसरसपी-१६३ स्याह--११२ रपरिण-१२७, २३६ रपण--५४० स्य नि ---५०० रसा--६५७ रलर-३२६ रस्यल–१३०, १५८, २४८, ३३१ रखी-४, ६५० रले-३३३, ६५५, ६६५ रस-२४७, ६६३ रसु-११ रसोई-३६१ रह-८, १४३, १४६, ४०५, १२, ५३२, ६४५ रहाइ-२६८, ४०४, ४५०, ६७१ रहज-३४०, ४४६, ५७६ रसटमाल-६८५ राहदाम-४४३ रहयजः-५३३, ५३८ राउ-२१, १४, १२६, १३३, १३७ १५३, १६६, १७२, १४४, १७७, १८३, १८४, ६६१, २३८, २५४, २५६, २६६, २६६, २७, २८२, २८४, २८६, २८८, ३६६, ३७२, ३७३, ४५४, ५०३, ५६० राको--१७१ राखि—-४, २०५, ५२३ राखिउ-.-०५७ राखियउ---१८५ राज-२२, २३२, ५६२ ५६८, ६०५, ६११, ६५८ ६७ राजकुर-२३५ राजा-६६. १३४, १६२, २५१, २५७, २५८, २६६, ६४५, रान–१११, १६, १६१, ५२३, पद-२६२ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२) ५७६,५८६,५६१ राजभोग-६६ राडि–२७५ राडो-१ राणी--६१, १११, १३३, २७४, ३७६, ३७७, ३७६, ३८३, ३८८, ३६१, ३६५, ३६४, ३६५,४०५ राणे-५२६ राति-११० राम-२७५ राहिल-२६४ राय-२५५, २५७, ५६०, ५८६, रिसागर-४११ रिसारणा-२५६ रिसातोरीति--३६४ रोष्य-५४४ चक्मणी---५०४ रक्मिणो-४४७, ५०, ५८३, ५१६ । सकमिणी-४७, १०४.१०७, १८८, १८६, १४८, २४३, ४४२, ५४६ वकिमिरिण-१८२ रुक्मीणी-१५४ किमीणी–१५६ रुकुमणी-६२१ कख-३५१ रुधि-५३३ स्वनु-१६ रूप-३१, ३२, ३६, ३६, ५५, ६८, ६७, १०३, १३४, १६०, ३१८, २१६, ३११, ३३८, ४०३, ४५०, ५८२, ५६८, ६१२, ६३४, ६३६, ६५०, ६८४ रालि---३५८, ३५३, ५३६, ५५३ रालयउ-३६५, ४५८ रालिघाउ--४४६. रावण-२७५ रस्वत–६०, ७५, १७८, -६१, ४६० रावतस्मो-२६१ राबल--४२४, ४२६ रावलइ–६५० रावतहो –३३८ रिधि-६६६ रोति-६६३ रिद्ध-२६३ रिस -६६६ रिषभु--- रिषि-२६, ३२, ३३, ४६, ४६, १५६, २६८, ५४५ रिसाइ--३४, ३५, ३०२, ३३६, ४३८,४४५, ४४६, ५८३, रूपचंद--८५ ६२३, ६३६, ६४५, रूपचंच-८४, ६२५, ६३४, ६५० रूपरिण-४०३ रूपि-४५१ हपिरिए--५०, ६१, ६२, ६५, ६७, ६६ २४,६०,६५, ६, २०२, १०४, ११६, ११७, १२७, १४०, १४३, १४६, १४४, १६०, १६३, २३१, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३) ३६६,४०५, ४०७,४११, । ल ४१३, ४१७,४१८,४१६, ४२५, ४२६, ४२८, ४२६, ला-६६, ७१.७६, १५२, २१२, ४४१,४५६,४६३, ४६५, २३३, २४८, २४६, २७४, ४६६, ४६७, ४६८, १७१, ३०८, ३२६, ४७४, ४४७, ४८५,५५५,५११,५१२, ४४०, ४६७, ५६०, ५६३, ५१५, ४२,५४४.४६१, ५६५, ५७४, ६-२, ६०५, लाइय-६७,३७ ६२५, ६५२, ६७८,६८१, लउ-२२१, ४७४, ५३५ ६८७, ६८ लए-१६५, ३५४, ४८६, ४६५, रूपिणी-५६, ७३, ११०, १२६, ३६८, ४०६,४१८, ४२५, सक्ससावंत-४२ ४५३, ४५४, ५५२, ५४७, लक्षण---३६, १३४, १३६, १३७, ४२८, ६८६, ६६६ रूपिन-४२% लक्षणवंतु-४२८, ६१४ रूपी-३६७ लकुटि-६ कपीरिण---५३, ७६,४५, ६२२, लखण–१३२, ३११ कपीणी--७४, ४३४ लान-४४,५,४७५ लगाई-- हपुकुवर-६२२ . लगि-२७४,३२२ रूपो--४३२ लइन--३८२ रूठे...६८४ सडणु-१३८ रूसइ--४१० लड़ाई-३७१ सहइ-१२ लड-३८१ रूहडे-२६५ लडी-३६५ सहिरु-५०४ संका-३७५, ३५२ रेख--३० लंघ-२६५ रोइ-४२५ सपऊ-१३३, १३४, १८४, २७२, रोप--६४३ २८०, २८६, ३६०, ३६५, शेपे---५६१ ४०८, ४१३, ५२०, ५२५, रोवर--१४१, २५१ ५३३, ५.४२, ५५७, ५५१, रोवति--३५६ ४५३, ६४८, ६३१, ६४४, रोस-२८० रोहिणि-५ लयो-४५०, ५३१ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २८४ ) | लावण-६८४ लापा-५७, ३५३, ४००, ४११, सरइ-४५१, ४६१, ५२५, सनंग-३४८ लवर-हि-१४ लह--५८० लिउ--३११ लिक्षा-५३ जिलि--.६. लिखितु--१३७ लिखियावा-.-६६८ लिखी-५५ लियो-४८६ लियज–५३, १३७, १८७, ४१४, सहज-२४३ लहणौ-२७७ लहरि -१६ लाइ-६०, १०६, २७५, ६२०, लाउ-५७८ लाए–६४६ लागइ-१०८, ११२, २२२, २२३, २६४, ३००, ४३१,४७२, लागउ-६०० लागरात -११३ लागर्ने-४३३ लागह-१२७ लागि-२७५ लागी-७३, १२८, १४७, २३६, २६०, ३१२, ३५३, ५७४, ६८४ लागे-२३०. ४८० लागो-२३७, २३०, ५०६, ५४६ । साघण-४०२ साज-१७६, २४६, ५१३ लाजइ-१७१ लाठी-३६०, ३७१ लाइ-४०३ लाडू-२५०,३६८, ४०३, ४०४ लाभ-१-३,२०४,२६१,५४८ लाभइ-१७८, २७८, ३.२ लाभु-६५० लायन--४२६ लालची–४४४ लियो-५८,८२, २४४ लिलाट--३० लोए-४६३ लोजहि-२४५ लीय-३६५ लोयउ–४२६, ४६६, ५२७ लोयो-४०२, ५३६ लुधि--२४७, २७२ तुम-२६५ लेह-५, ६४, ६६, ७, ८E, ११६, १६६, १७२, १७६, १६२, २०६, २११, २२७, २३५, २३६, ३७७, ४६८, ४४७, ४५८, ४६६, ४६५ ५६८, ६२०, ६२५, ६४५, ले -१०४, १६५, ६०० ६२६ लेफर-३७ लेख गि-३ लेगयो-१५४ लेचस्याउ--५१० लेबल्यो--४६४ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) लेश-१४२, १४६ माइसारि--१०३ गइ-४५७ बहतारिज-~५६२, ५६६ लेताह-२० बसि-३८५ लेनि--२३६ वखारगइ-६९लेहि-७२, १४४, २९, ३०१, : बलाण--६६४ ४१०,६०४,६७६ बचन-५४६, ६२, ६३२ ले-६६, ७५, १४६, ३४२, ४२०, । बलि -६८९ ४६४, ४६६, ४७४, ६२० बजा-१७३ लेह--२७७ वख-५२, ६३, २०६, २५८, संगय-१५६ २६४, ५२४ लोइज-६७ वजहि-५६६ लोग-२७, १०, ३४६, पटवाल---३०८ लोगु-३००, ३३२, ३८८, ३६, बडउ--३३२, ३६२, ४२३, ४३६, ३६२, ४२३, ४५२, ५८६, पडी--३३, ३८१ . लोटइ---४३१ वडे--३८५, ३८८, ३६५ लोण-३७ परण-१६, १८१, १३०, १३१, लोपि--२६३ १६६, १८७, २१२, २०, सोपियर-५६५ २२१, २२४, २२६, २४१, सोपी--७३ २५४, ३३६, ३४२, ४ लोवरण-६० ६६६ लोयपमाण पण्ण-६६३ लोयशु---५०७ घगवेइ---५५ वणवेवी-१०५ वल्बर-३१४ वणवाल--६६ बह-३६, ५७८, ५६८,५६६, वणवासी-६६४ ६००, ६४१, ६६३, ६७ घरगह-८६, १००, १४२, २१२, २२४, २२६, ३३८ पाठल .२३, ३५, १४, २४८ वणिज-७२ २५८,४६३, ६६८ परिणसरग--३३ पहले--१२, २५१, ३१८, ४३४, ६०८ । वतीस-- बटो--३५, ११७, ५, ६४० बसोस-० पासा--३४१ । बीसी-१३२ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , बनि--६३१ वदतु-२१५ बंदे--२७ वधाए--५६७ वधावज–११६, ११७, ११८,५६३ वधावा--१२० वधु-४५० बो-४६५ चन--१३०, २२५, २३८, : . बनखंड-१२४ वलयवनवासा-६७४ बंग--५८ बंवनमाल-१७, ८ दंबर-३५०, ३५१, ३५३, ३५४ संवरुदेउ-२६६ चंवल--३५८ वंदे-२६५, ६६० बंज-१६३ *षि–१८३. बंधिवि--३४३ वंस–११०, ५७६, ६२५, ६५५ थपु--१२ वभंगु-१६८ वंभर.-५२०, ३१८, ३६३,.३७८, ३८२,४४३ वंभणु--३६८, ३६३ वयठज--५३, ११६, २२०, ५६. वयरो--१०८, २२६ वयरण-२६, ४६, ६१, ६२, ४, ३७१, ३६७, ४२१, ४२०, ४३८, ४४१, ४५४, ४५५, ४७०, ५१०, ५५६, ५LE, ६००, ३०२, ६२७, २८, ६३०, ६३१, ६३४, ६५४, ६७, ६४ वयन-६०, ४, १४६, १६०, २६५, ३६१, ३१५, ३३१, ३७,५४,४१२, ४२६, ४३०,४३२,५१६ व्यंजन -३८८ वयर--१२३ वपराउ--४६८ वपर--८४ पयसंदह-१७० वयसरि–५८ वयसारि-११६ वयसारियउ–५६२ वर-४४,२८१, २०६, २२६, २३६५ २५६, ३१५, ३४३, ३५६, ४११, ४२८, ४६७, ५२२, ५५६, ५५६, ५५८, ५६१, ५६८, ५७० बरजइ-५८३ घरजे-३७५ । वर्ण-५४६ चरत-२६६, ६५६ वरतु-४८८ वरंगिरिप-६६७ घरम्हा-५३६ वरम्हा ४५४ .. पररंगिरणी-५६५ १७२, १७६, १८६, १६२, २४८, २५६, ५३, २४, २८६, २८६, २६८,. ३१६, .... | Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 वरस---१३६, ५५३ वरसइ- --ड वरसहि-- २८१ बरहा सेल - २१८ ब्रह्मचारि- ३६८ ब्रह्माउ - ६३७ वृद्धि - १३६, ५४७ वराह–२१= परि - ६०५ वरिस - १५७, १६०, १६३,५४८, ६७१ परिसउ -- ५३० बरिसहि- १७६ बरिसुह १४५ यरी - २६, ३०६, व६-७०० ★ बल - १३२, २०२, २८७, २६३, ४०६, ४५३, ४५६, ४६१. ५०२, ५७६, ६४३, ६५० ( २८७ वलि - ११६, ४६६ वलिवंड - ४६०, ५५८ लिभन - २२, ७, १२, ११३, ३१५, ४३३, ४३४, ४४४, ४४५, ४४६, ४४८ ४६७, ४६४ वलिउ -- २३० लियो – ४६४, ४६७, ४०१ लिवंत - १२७, ५३६ बलिउ - २०३ क्लो-४५८ लोभद्र - ४४२ वसु--- ६६, २७६, ३०७ ४६४, ४५६६६, ६५१ I बबलु - ३४५ चलसिरि- ३४५ शुबिउ – ३६८ वेज३७३ वसद्द - १४, १५, २०, १०१, ३१३, ३१४, ४६० वसई- २१६ इस -५६५ वसंत - २२७ असंतु- २२१ बस्त - १६२, २१७, २३६, ३०१, ૬ वस्त्र - ४, १०३, २२६ वस्त्र - ३०० वस हि – २०, ६६६ वसा-5 वसारि ४५७ वसो -- ४७० वमुण - २०० देउ – ३७१, ३७२ वसुदेव ३१७, ३६७, ४६६, ४६४, ४६८ वह ७६, ८०, १०५, १०७, २४५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६, ३७६, २२३, २४५, ३१६, ३१७, ३१८, ३१६, ३७६, ४००, ६०४ यहइ ५२० ५२६ बहुउ- ३६५ वहुत - १४९ -- २८२, ५३८ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) . पह-५२६ वहै-१६२ बहोडि-४३७ बहोडी--२२१, २४७, ३७१, ४३७, पहि-५०४,६४३ पहि-१३०, ५२८, २९ बहिण --११०, २७९, ६०६ पहिरिण-६४३, ६५४ पहिणी-१०॥ पा-३६, ४२, ६१, ६६ १०१, १८५, १३७, १४३, २२३, २६२, ३१४, ३१६, ३४८, ३५०, ३५६, ३८०, ४१८, ४१६, ४३८, ४५०, ४५१, ४, ५२४, ५५७, १६१, ५६३, ५७५, ५७६, ५८१, ५८६, ५६०, ५६७, ६०३, बहोरी-- २८७ बार-१०८, ४२०, ४४ बाइस-६, ६८६ वासर-३२५ वाखरपउ-३२५ धाग-३२४ वाचा-६६७ । ६६३, ६७५, ६६१ बहुत-८४, ८५, २६१, ५१३, ६८७ पाडी-२७६ बहुत-१८, २४,४४, ६१, १०५, ११५, २३०, २३८, २६४, ३२२, ३४४, ३४७, ३८०, ४१६, ४३१, ४४३, ५७३, ५७६, ५८६, ६०५, ६१६, ६३२, ६३६., ६५५, ६७४, खाजग-४-३ वाजंस-६५६ धाजहि-४, १२१, १७५, ५६१ पाजे-१७५ बार-३५४, ३०७, ४८४ वाह-४३६ पाहि-३०२, ३४४ बाडिय--३१४ पानी-१०५, ३४३, ३४६, ३५०, ३५१, ३५३, ३४४ बाइ-६२४ बाहि-५०६ वाढी-२७५ वाण-८, E, E२, १३८, १४६ - २८१, ५१८, ५२१, ५२३, ५३१, ५३३, ६४७ पारणनि-५१, ६२, ८१ पाणि -२ वाहिये-१६ वाणी-६६२ बसई-४६८ बह-५४६, ५६१ परिण-१६४ कहमती-४ बरि-४११, ६१६ वर-३२८ बहुपिणी-६३४ बहूत--४६०, ६४१, ६६६ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ < A षाश्च -- ५३५, ५५३ बात- २६, ४२,४८,५३, ७५, ६३,६४,६६, ११६, १५०, १५४, २६७, ३२६, ३६६, ३८२ ३८२, ४४४, ४४७, ४५३, ४७० ४७२, ४८० ५१२, ५२, ५५०, ४६५ ६२३, ६२६, ६३०, ६३१, ६३३, ६७१, ६७४ वावर ३४६ वाषि-७ ६५ > बाधि–८५, ५१७, ६४६, ६५२ बांधि-- ४४६ वाद- ४६२ वापर – २=५ वापी - २५८, ३६२, ३६८ वपु – ६५० वरण - ३२५, ३३५, ३६५, ३७०, ३७५, ३७६, ३७८, ३८० ३६०, ३६३, ३६४, ४३७ ४३६, ४४२, ४४३ बाभणु – ३२६, ३२७, ३६३, ३८०, ३६१, ४३६ वाभ्वन २३१ वामन १२५ वामा --७४ पाह–४०६, ६२१ ब्याहू ६२१ धार---११, ४३, ६०, ७६, ६, २६०, ३१२, ३२, ४००, ५६५ ५६ ५६१, ६२० वार १६ ( २८८ ) वारवार – १०८ वारम – १५६, २४२, ५७२, ५६६ वारम्वइ – ३१२ - बारह - १६, १५७, ६७० बारहसह - १२६ बारहै—१६८ ब्राह्मण – २० वारि–७, १६१, ६५१ वारु--- ११ बाल – १७७, २६४, ३०० बालउ -- १६८, १७०, १८८, ४३०, ५३ बालखमंत - ३५२ वाला – ४२६ बहु-११६ चालुका ३२७ वाले - १६७, ३२, ६४२ वाले हि---१७७ बाले– १७१ जातो – १७६ बावरण – १५५ वाडी – १०५, ३६०, ३६३, ३६४ बावरी - १०२, १०४ बायो-२१४ बावीस ११ बास–२३, ६६३ बासु – ३ वानुपू६ बाह - ४०१ ४५७, ४६३, ५४५ बाहिर - ३-३, ४४६, ६४३, ६८६ बाहिरी ४३६ दात्रु - ३६६ बाहुड-५११ बाहु ८६, १७, २४६, ३०८, ४३६,५५२,६०६, ६६०, ६६६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६.) वाइडि3-३७२ विजोगु-३३२, ३६२, ४५२, ५४८ वाहो-१३३, १५, ३६५, ६०६ विड़-७६ वाहुरि- १४०, १६३, २४२, ४५३, विवर-२११ ६२५, ६५८, ६६६ विणह-३४ बाहरी–७४, ३४३ विरणासु-६७४, ६६० पाहरे-४२२ । विशु-१ विज–६८ विद्यारि -५७६ विउलमग-२२५ विवेह-१५०, ५३ विकाहइ-११२ विद्या--१२६, १३२, १६१, २०३, विगतिहि-४३४ २०५, २२२, २३३, २४५, विग्रह-३७६ विगहु-१६४ २५५, २६३, २६५, २६३, विगाह -२८५ ३६४, ३८२, ४०६, ४१८, विगुचोन-३३६ ४५४, ४८८, ६५१ विगोइ-२५२, ५२४, ५१३ विधातारणी-१६४ विघन-६ विद्याधर--- विधारि...३६, ६३, २१२, २२७ विद्यावल-६७७ विचार–३०४. ३२०, ३८४, ६५६, विधाता--१४० ६.७, ६०६. वितह-६२,६४, ४३४ विवाहण- ४८६ विनज--३६६ विचित्त-६६३ विनइ-२७, ११८, ४२०, ५८८ विछोही-११२ विनाण-२४३ विष-४२३ विनोद-२४ सिजउरे-३४७ विप्र--३२३, ३२६, ३२८, ३३३, विजयसंख–२३४ ३३४, ३३७, ३६२, ३४४, विजयसंखु-२१६ ३८०, ३८१, ३८५, ३६०, . विजयागिरि-१८७ ३६५, ४३५, ४३६, ४३१, विजाहर.-३८, १८४, २२६, २६५, ४४२, ४५६, ५६८, ५५१ . ३१८, ५७२, ६१६, ६२१, विप्रह---४४५ विग्रह-३४५ विजाहरनी - ६२० विपरित-३२, ४२४ विवाहरि-.-५५, २२१ विस-३२६, ३३०, ३०, ३६२ _ विबाहर-२२३, २६२, ५७१ विभ-३६६, ५०१ पिधु-५८६ विभि-१६० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलु–६ विमारा – २५, ५३, २६१, २६२, २६५, ३१२, ३२०, ४३५, ४८७, ४५६ ★ विभाग – ४६२, ५४४ विमा - १३३, ६५५ ( विमाणि - १२४ विमा - १३३, १३५, १८६ विमाना- ४६६ विव— २६६ विरुवा - १३०, ३१८ विश्वालहु - १३९ विश्वाणु - १२२ २६५ विषय – ३१ वियाग - २६६ विद्या- ३८४ विटमी - ४२२, ४२६ विरख४, १०२, १६२, ३४४, ३४७, ३५१ विखं -- २०६ विधि - १५७, ३६६, ४०६, ४३०, ६१७, ६८२ विधि - १३६ विरजु - २२५ विरूद्ध – २५४ विरूप - ३१ विपी - ३६५ विलख - ८३, २१५, २६६, २६.२, ५०१, ५२४, ६३१, ६७६ विषख - २६२: ३२६, ४१५ लिहि- १४३ विलखाई -- १६०, ३६१ ६८१ विलखाण --- ६३० ( २८१ } पिराजी ६०, १४०, ३५६, ३६२, ४०५ विलखो - ६७६ विलतरंग - २२५ बिजलाह - ४००, ६१ विलसद - ५६६ विलसाह - ५६२, ६६२ विलास - ११३, ६६२, ६६३ विलिख -- १४६ विदारण-- १५७ विवासहि- २८१ विवाहरण- ३०६ ५८१५८४ विवाह - ४६, ४० त्रिवाहि—- २२७ विवाहे - ६२२ विवाह ४४, ४, ८, २२३, २८६ ४१३५८४, ५०६, , ५६६ ६५४ ६५५ वित्रिह - १०७ विष्णु - ७६ विषम् - २०१, २०७ २२६, ३३१ विषय वारिणी - ६३३ विस– १६६ २७० सिखाती - ४७६ विस्तार - १६ विसधाह-६६ विसमद्द – ५३५ विसमज - १४३, १८५, २५०, ४०४, ५५५, ६११, ६३१ वितमादी– ३२ विसरो - १४५ बिसहर - १६०, २०२ २०६२१४, २१५ विसहरु - २१४ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसाग - २२२ विसाले - २६६ विसाहु २१६ विसु- ५६६ विरइ - ४१२ विशेष – १५ विस्तु–५२१, ५४५ विसास - २६६ विहडाइ – ४३१, ६५० विहडाउ – ४६१ विल - ४४ त्रिलंघन - २५० त्रिति ५६ ६५, २६६,३७०, }; ४५ विहसत - ६० विहतु - २४, ११७ विहसित - ६०६ विहार--२६, १५६, २०० बिहसेइ - ६१ विहि— ४०, ४२६ महिला-६६१ विहिता – ६६८ बिहु - ६८६ वीजाहराउ – १५३ बीड- ५.३६. वीडा - १७२. . चोए - ४.५० वोरणा - ३०३, २३३ वांद्या - २७५ वीनयो--६.३ वो – १३ ( २६२ ) वीर–७, ११३६१५५, १६३, ११, १२, १८६, २०१, २०६, २१२, २२१, २३६, ३४३, ४०३, ४२७ ४४७, ४४६ ५८४६७, ४६२५ ४६ ५८२, ५१०, ५४६, ५५६, ५५८, ५६१, ६३७ वीरा - ३५२ बोरु १०, १३०, १६२, १६६, २०७, २०८, २०६, २१०, २१४, २२०, २२४, २२५, २२६, २५६, ३१५, ३४५. ३४६, ३६०, ५०१ वीवो - १६७ वोस -- ३३५, ३३६ वीसक - ४४१ चुषा -- १८५ तुझाह–५२८ बुझिवि १३७ बुधि - १, २६८, ३६४, ४३५, ४८ ७० १ वुद्धि--४१, ६३५,६७६ I बुरो - ६३० | बुलाइ --१०७, ६२२ बुलाय--१०४ बुल्लिउ - १८३ वृचइ ---- २२५, २६६, ६४० वृभाइ – १, १३६ बुझिउ – १३= नूढउ -- ३२५, ३३४ | बूढे—३३२ चुषो-- ४८१ नद---३११ दूरे--४-५ नुलाई-४०० वेग --- ५६, ७५, १३५, २६८, ३५४, ५७२ ५८ ५५६ · Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- L वेग - ३६८ बेगि - ६१, १६५, १७०, २५३ ४४१, २८६, २६०, ४३५, ६०२, ६०५, ६३६ वेगु - ६३४ वेगे -- २८६ गो-५४३ बेटा -- ३६ बेटी - ३६, ६२४, ६२७ बेवियन - - १४ वेण - ६५६ बेताल – ५०४ - तालु - ३२ वेधि-- ६४ वेद-७, ३२८, ३७४, ३८०, ४६८ ५२१ वेबउ ४३० बेल-३४८ बेलज - १२५ वेला -- ५७६ वेलु - ३४५. वेसु --- ३०६ बेकार -- ६३६ ३ - १०१, ३८७ बैठि -- ३८१ बैठी बैठो - ३५२ बंद - १५५ १०५, ३४२६ रुप - ६११ वैशुरू - ४७४ ( २६३ ) स—२० सह-- ४-५ सण- ३६६ संवर-६ सुदर --- ६४३ सरहि-३५१ वोछी -- ४=१ बोल -- ४५, ३७२, ४२१, ४५७ ४७३, ५६०, ६३१ बोलह-४३, ४५ ५६, ८४, ६६ ६७, ६६, १०२, १०६ ११७, १४६, १५२. १६७ २०६, २६६, २८, ३०६ ३१३, ३६८, ३८४, ४०६ ४४५, ४४७ ४६४, ४६३ ५४४, ५५४, ५५६ ५७३ ५.७४, ५८३, ६०७, ६२५. ६३४. बोलत -- ६४३ बोलति - ६४२ खोलसे—- ६४३ खोलि - ११६ बोलिउ -- ५१६ वोलिय - ६६ वोल्यउ - ५१७ बोले -- ६०५ बोलं – १४८, ६०६ बोलो - ४७३ बोहयो-१७, ५०१ श ष स श्रीगो-- ३५ धनु--६ पण -- ३०, ३६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइन - २३ सउ – ३७, ७६, १६८, १६, २२४ २५२, ४== ६२६, ६७६ सह-- १६८, ३६२ ४६६, ५३२ ६३० सफेज - ३३१, ४३७, ४४३ सकति - २६८ सक्पहु – ३३ सकलतउ - - १३० कहि - ३३० सके-५२३ सकेलइ -- ५५६ सक्यो -- २०२ सखी-४०० सगली --- ४५२ सग्गि – ६१३ सगुन– ४८५ सघरण- सच-- ५६७ सभामु—३६ सजिउ -- ४७५ समर - ६६, ६६१ सहु -$5 सतुत - २६३ सज्ज - १८३ सज्जे - १७३ सभूत—१७५ सटक - ३३५ ( २९४ ) सठ २७ सजे-- ६३८ सतखरण---६६३ सतभाई -२६, ३३० सतभाउ - ४५, ४३६८ सतभाषा --- ३०, ३१. ६१, ६६ १०८, ६१३ सतरह — १० सति--६४ सतिभाउ – ४५६, १२, १०० १५२, १६१, २२३, २७४ ३२६, ५१७, ५४३ ५३, ५८५. सतिभाम--४०२ सतिभामा - ६३, ६४,६५,६६, ६६ १०३, १०४, १०६ ११२, ११३, ११६ ११८, १२७, ३४३, ३६१, ३६२ ३१८ ३७३ ३७५, ३८५ ८६, ४१६, ४२८, ४३४ ४३३, ४४३ ५८७५५.७, ६०१, ६०६ ६११, ६१४, ६१७ ६५७ सतीभामा -- ६२ सवाची -- ६४२ सवा -- ६६३ सदाफल-- ३४७ सारण-- ६४७ सधार -- १, ३, ५५६ सबाह-५, ३०० सधे ६४ सहि-- १८३ सन -- ५३२ सनधु-- १७३ सनद्धच - ४७५ सनमब--- २४५ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६.) सनमधु६८६ २ -४७९ समाह--४७ सनीरधर-११ सतह-६०३ सनेहु--५८८, ६४२ संफ---३६६, ३७१ संख-५१, १२१, ३४८, ५६६ ५८०, ६५६ संगइ--२६८ संग्राम-१०, ४६७, ४६८, ४६३ ४, ५००, ५०६, ५४६ संवेसउ-३६८ संबह-४०६ संघहु-१६, ३०५, ५३० संधारण--८० साम-६८७ सन्यास-३३१ संसार---६५६ संसारि-६६० संसार--३१ संहरे--३६० संहार--१६१ सपतर-.-१५६, २२८, २४८, ३५५ संपामु-२६६, ५०८ संघरह--२५, २८३, ३८८, ६७२ संघर--१६५, ६७१ संघ ---५१० संघरि-२८६ संघरी-३५१ संघरे-४०३ संघार---४६१ संघारू-४२ संघाणु-st संघासण---२३४ संचरत-३० संघारित--५१६ संजमु--५६४, ६६६, ६७३, ६७५ संजुत---७२ संजुत-३२०, ४८२, ५७१ संमोमु-१० संतिसंतापु-१४०, १४२ संतोषी--१६३ सपत्तउ–१५० सपत्ती--६८१ सफ्ते--४ सपराग--८१,१८१ सपरागु-२६ सपरान–१५८ सफलु--२३१,४२६, ५६२ सब-२२, १११, १६२, १७५ १८७ २४४, २५५, ३५८, ३५६ ३५३, ३५, ४२५, ४७३ ४८१, ५८२, ५.१२, ५८६ । सबदु--२४ सबहू-२३० सभा-२३, ५३, ३३२, ३३७ ३७२, ३७३, ४५७, ४६३ सभाइ-११०, २५५, ३१२, ३६० सभाउ-२५७, ५६६ सभाला-५२१ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाति – ४७७ ५३६. सभा लिउ - - ७६ सम--७२, २४३, ४२८५२२५६२ समउसरण -- ६६५ समझाइ -- ६६, १४५, ३६२, ६२८ समझावद्द – ६८७ समय-- २०६ समवि--२६४ सभाविउ-- १८४ समदिनारायण ६५८ सम्बर - ३०३, ४०६ समय मुहं-- १२ समरं गिरि-- ७६ समराण -- १७५ समरी — ४८८ समवसरण -- १५१, ६६४ समाइ २७६ समारग – १५ समाधान – ४०० समान—१५ समु - ३३२, ५७३ समुझार - १५०, २८५, ३८३ ४०० ४८०५५०६ समुझावे --- ४८६ समुख - ३२७ समुदु -- ४५७, ६५६ समुद्र -- १२५ ५५७ समूह – ५७८ समेलि -- ३८६ ( २८.६ ) संपत -- ६५, २२५ संपत्ति - ७०० सबु - ४५, ६६, १६७, २८३,५०८ ५५३, ५६४, ५६६, ६२४ ६४६ संभव - ५६३, ६१० र--01 सभरि --- ५७६ ६१२, ६२४ सबकुम्बा सबकुवर - ६१६, ६१८ संवतु – ११ सम्बल - २३५ सम्हारइ—–४७६ संसंयह--५६६ सम्हालि - १२३, १६२, ४५२, ४५१ सयपंच - २२८ सयन - २६०, ३२०, ४७४, ४८३, ४८५१० ५१४, ५२६. ५२८ ५५६, ५७७, ६४६ सपना -- ५१२, ५६४ समनु-- ४८७, ५०६, ५७२, स- २५८ ३५० ३६५, ३६०, ३६१, ४६६, ५२६, ५५८, ५६१, ५६३, ५६४, ५८६, ५८७, ५५६, ५६१, ६१४, ६६८ सपल — ४६१ सयलु -- ३७, ३८६ ४१३, ५१०, ५५५, ५७७ सर– ६४, १७६, २२४ सरर - १३ सरणा- ३११ सरल - १४४ सर-६४३ सरवह सरस- ११, ६६३ सरसती - ४ सरसूती - १ मरस्वती - ६२८ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) सरिस-१७२, २६५, २६४, ४२५, । ३८८, ३६, ३६०, २६२, ४६३, ४७१,५३६, ५६१ सरिसो-४६५ सब-५८० सरीर-५४,५०८,६८५ स -५८४ सरीरह-६८४ सरिसु-१३४ सरीरु--२३६, ३४६ ससि---१५, ४२, ७३, १०६, २६३ सरु--१,५२० ससिगलह-८२ सरप-३८, ३६, ४२, १३६, २२७, मसिगाइ-३०, ६१५ २३८, ४२८. ६१४ ससिहर---६१२ सरुपु--१३४ सहद-५३७, ६१ सरे--२१, ३२० हल-१२ सरोवर-२०४ सहदेउ-४५६ सरोवरु-३, २०५ सहयो-४७०.४७ सत-६४, २१३, ५५४ सहन-८३ सलकिड-५६ सहनारण,१३३ सहनासु-५० सलहरा-६३६, ६१ सलहिल-२३० सहस-६०५ सलि-२१६ सहाइ... ५.३७ सष-५७६, ६३८, ६४३, ६४६ सहाउ--११०, २६ सवई .. ३६७,४१५ सहारह-५२७ संबह-६११ सहारउ-१४१ सहारि-३३ ३३१, ३४०, ४६६, सवतिसालसर्वातसातु-२३ सहि-३१६ सब-५६६ सहित-१२ सनि-३७५ सहिनाण-३१८, ३६ सब-४८७ सहिनाणु-४१५ सवल-१७५, १५१, ५६२.६५३ सहिखो-४६३ सबसिद्धि-१४४ साहिली--६१, १०५ सवारि-५६८ सहीए-२६ सम्व-४२२ सहु-११०, २१०, ३४०, ५१६, सम्बह-४६१ सवु-२, १३५, १३६, १३८, १८३, । सहेर-४६, ५७, ६४२ १६२, २.३६, ३००, ३८७, | सहोदर-५१ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८ ) सामकुमार-६३६ सामकुम्बार-६४६ सामहण-२७६, ५७ सामहराज-६५ सामि-१२, १५० सामिउ--२१,४६२ सामिकुमार-६७३ माभिणि-१०६, ४२६ मामी-१६६, २६४, ३५३, ४०७, | सहोरि-४४ सहोवरु--२१ सहोयर-१६६, २२८ सहोरि --६४० सहोवर-५५, ६०३ सही-१३१ सहपउ--११५ सागालाए---६४६ साचन--३७८, ४२१, साज-४८८ साज-४७६ साजर-४४ ब्राजि-४७६, ४४७, ४७६, ४२६ साजिउ.-५८, १७३ साजियउ--५६ साहि-१७५ साजह-६६,४७५ साजे-२५६ साह-४७५ साजे-४७६ सारण--२०७ सात-५१, ६२ सातउ - ६४ साति--३२ साप-८४, २६८, ५७२, ५३८ सामुहे--५६१ सायर--१६, १५२, ४७ मायरह-३७४ सार-६, ६४, १२८, १५६, ३१२, ३६७, ३७५, ४५०, ४३५, सारंगपाणि-२६, ५१७ सारगपाणि-६३ सारंगमरिण-७७ सारथि--y८, ५६, ४८५, ५०७, । साथि-५१३ सारपी-४८६ सारर-१, २, ३ सारिउ--१५५ सारी-६५ मारु--५, ११, ३६, १३४, १३६, ३४५, ३७८, ३८०, ४४८ ४७१, ६.३, ६८४, ७०० सावयलोय-६६६ सास-६७१ सासण-५ सासु-१२ साधु---५५० सापित-१८, ५२७ साधु-३०४ साभ-३२४ साभार-६२६ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९ ) सिंहवार-५७६ सिह-११२, ११६, १६४, १५. सास-१६२, १४८, २०८, २५६, २६५, २७३, ३४६, ४२७. ४५८, ४६८, ५४६, ५५६, सिङ-४६०,५४६, ५४८, ६३७ . सिंखरु-२१४ सिगली--३७३ मिगिरि-४८२, ५४९ सिलू-४१० सिषि-६६६ सिद्धि–२३१ सिंगा-६४४ सिगार--३० सिगा-३५७ सिंघ-१३८, १६५, ११, १८२, ३१५, ४४८, ४५१ सिंघरह-२६४, १६८, १७४, १८३ सिंघासरग-२६, ५६६ सिंघास-२०३, ३६६, ५६२ गिदुरु--३४६ सिंधु--१६६ सिंह-१७४, ४५०, ४६० सियानु-४८४ सिर-२३, ३३३, २५२, २५६, २७२, २८६, ३६३, ३४८, ३८२, ४१६, ४२१, ४२६, ४२६, ५६०, ५६२, ५७०, ५८२,५८३, ६५६ सिरि-३४५ सिल-२५८ सिला---३५, १२४, १२५, १२६, १३१, १३२, १५५, २३०, २४४, २५६ सिव---१८३ ५८, ५८ सीज-१६० सोस्यत-४५३, ५२२ सीझर-~-६५३, ६६२ सोतलसीहार-३७५ सीषउ--४१६ सोया--२७५ सीलम्वंत-६१४ सीस-१,१२ सौसु-८२, ६४३ सीहबार-४४२, ५६१ सोहबा--४३५, सीहवारि-६३७ सीहिरिण-१६६ सीहु-१६६ सुपर---२२ सुमठे-३५८ मुद--५८ सुइन-१ सुइरी–३६४,४०१ सुख-११,१११ सुखह-६८२ सुखासम--१८२ सुख-६०६ सुगरणा--१८६ सुगम-४८६ सुगु-१८३ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजन--५७३ सजागु-५५ सुभद-७१ ( ३.." मुभानकुवर–६२१ सुभानु-६१४. ६४३ सुभानुकुवर--६१६ सुमति-८ सुमिरो--४१८,४८८, ६३५ सुपण-५६१ नुर-१८३, २०५, २३०, ५३८, ५६५, ५६, ६००, ६०३, ६१३, ६६६, ६६८, ६६३. सुग्कारमुण्यउ--४१७ सुरगइ--३८४, ६६३, मुरगह-२०७१ सुरिण-२६५, ४५८, ६६४ मुरिणा-१३५, २६५, ६६४ सुरिणद--६६४ सुरणे-४२६ सुरणेह-६७६ सुरगो-६२३ सुष्यो-३७६ मुतारि-५५ मुदंसरगु-१४, २७४ सुविन-१२ सुध-६६५ सुधाकारणो--१६३ सुषि-~-६३, १४४, १४८, १५७, सुन्दरि-३२, ४१, ३१२, ४२१ सुनीर---२६८ सुपनखा- २७५ सुपवित्त --१३ मुपासुसुरिनंतरु-२५ मुपियार-६१५ सुपिधार-१३६, ७७३ सुभ--१६३ सुभदया-४५६ सुभ परिसरणी - १६६ । सुभाम सुग-१४६ सुरंगिनि-५४१ सुरजनुहु-२७८ सुरदेउ-२१६ सुरनारि-५० सुरमणि-५५२ सुरभवरण--६४७ सुरया--६६१ सुर्रारदु-६६४ सुरसोइ–२३२ सुरसुवरि-४१, ४३, ४५, ४८ सुरिंदु-६६१ सुरेस्वर-६६२ सुघंव-५१६ सुवरीय--२७ सुबास-६६३ सुविचार---१८ सुविधुसुमपालु-४५ सुहा-२६४ सुहद्ध-७०, १५, १६, ४४५, ५४३,५५६,५५८, ६७८ सुहनि-४० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहानु-४म सुहर-४४७, ४६ सुहण-४७, ४६६ सहवसरण-२७४ सुहनाली-२२७ सुहल-५३६ सुहार-३२६ सुहिनाल-२७१ मुके--१६१ प्रभा-२३, ६८, १७३, ५०३, ६०२ सुरिणउ--५१४, ५६६ सुवरि-१४३ सरि--६५७ सक---१६८ सूली-६४३ सुपर-२१६ सूबा-५७ सहो-१२० सहज-३५७ सेखरा-२३४ सेटि-२७१, २७२ सेरी-२७२ सेत-४,१०३ सेती-६४५ सेना-५०१ सेनाकरि--२६० सेनाकरी-२०४ संभउ--- सेम्बष्टि-२३१ सेल-४७E सेव-२८, ६२, २११, ४४५, ५८६, सेवा-२१५ सेस–५०६ सेसपाल-४४, ६६, ७१, ४, ७५, ७६, ७७, ७, ८३, ६२७ सेसे–११६ सं.-50 सैन–२८८, ५५ सना–५०३ सोइ---३५, ३८, ४२, ४३, ४७, १०५, १७, ११२, ११४, ११८, १४, १३१, १४०, १८, १६८, १९६, १६, २१३, २१५, २१, २२४, २३५, २४०, २५७, २५२, ३३५, ३२८, ३४६, ३६४, ४०६, ४१५, ४२४, ४३१, ४७, ५३४, ५६६, ५EE, ६०४,६६, ६२५ सोउ-१८७,५२१ सोखह-२७० सोखरणी-१६३, ३६४ सोतज-२४२ सोनो-३०१ सोयो-२६६ सोभ--५५५ सोभ-५६३ सोरठ-१४, १४६, २४२, ५६६ सोलह--०, १६१, २२६, २३१, २३३ सोलहससोला-१-३, १६, १६२, ५४८ सोले-६३२ सोवत-.-१२८ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहा--४२, ५२, १०३, २३४, हाइ-५०६ हाई-५३२ हडि-१५४, २६५, ४१३, ४१४ हडिलइ-६७ हनी–५८८,५१२ हडे--५७६ सोहउ--६८० सोहि--३०३ सोहि–१७, ४६७, ४६५ स्तुति--६६८ स्मरि-४६१, ४६३ स्यंघर--१५ स्पंधरय—५४७ स्य॑घराज-१८४ स्वर्ग---६८६, ६६७ स्वर्ग---५६४ स्वाति--१२ स्वामि-६३५ स्वामो-४, ६५, ११८, १४७, १४८ ५६५, ५६७, ६२३ स्पा-५०५ स्पाली-३४ हराउ--६२ हगवंत-३.३ हरणे-६४७ हस्थ--२०६ हति--१२४ हथलेवो-- हथलेवउ---५८५, ६५६ हथियार--३५४ हथियार-४६७, ४७१, ४७६ । हइ--८७, ६३, २२५, ३२७, ४०६, ४४६,४५१,४८०, ५६३ हावर-२६१ हउ--१५४, १२८, १६६, २६३, २७३, ३०, ३८, ३७१, ३८०, ४१७, ४६४, १७३, ५३६, ६०, ६२३, ६६७, हंस मिरिण--४२ हम---४१०,४११, ४२५, ४३७ हमा--६५० हमारत-१८५, ३०६ हमारी-११३,३५० हमारेहमि-७, १४३, १४४, ३८४, ४४२, ६४१, ६४२ हम्यु-२४८ हम-४८२, ५०४, ५२६, ५२६, : ५३२,५५६, ६४५ हयउ---४४, २३६ पवर-५५५ ध्या-२७१, २४२ हर-~१२७, ४५८, ६६३ हक राउ--३७६ हकारज-३.६ हकारि--५८, ११६, १२०, २५३, ३४३, १५, १७, ६१६ | Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { हर - १७६ हरण हरण्यो – १८६ हर सिद्ध--- ३२० हरि - ३६, ६६, ११६, १४३, १६२, ३४४, ४४८४८०, ५०६, ५१६,५४७, ६५०, ६७३ -- १२७ हरिवेज - १०७, ५१३ हरिनंद – ३०३ हरिनंदनु-- ३०२ हरिराज - २३, ६२, ७६, ४६३, ४६४,५६०, ५७३ हरिस-७६ हरिय – १४७ हरिबंसह --- १२ हरियो-२६५ हरिसय – १६६ हरी - १२१, ४५२, ६७, ६२ हरीन - ६६ इष—३१४ हरे – ६५५ हरेइ–६ हल-४६७ लउ - ६४ ( ३०५ ) हलहर - ५५, ११६, ३३४, ४४४, ४३६, ४४१, ४४७, ४५२, ४६१, ४७२, ४६७, ६६१, हलहरु- ५६, ८६, १४३, ४२६ लहर - ५६, १४३, ४४६. लह-६६५, ६७१, ६७२ इलहल-३४, ५५८ --- --- हलिउ - ४७५ हलिउ—७४ हली - ३५१ ह-- ४५० हलुवद्द -- ६६७ दुबइ –४२१ एसइ - १०७ हाइ–३७३ हसि - ६५, ६७, १००, १४६, ४४४, ५१२, ५१५, ५४६, ६२२, ६५९, ६५२, हसिज-५५१ हस्ती - १६१ हहडज – ३६ हहि- २२६ ह - ३८० हाइ-- १०६ हाक-४६२, ५०६, ५२७ ५३७ हाकद ४६१ हाकि ७० १६० १६६, २६१ हाकी- ४१५ हाट ६४४ हाडो हाथ - ६, २५, ३१, ५२, ६२, ११७, १२५, १३१, १४६, १४८, १५५, १७२, १६.६, २०२, २०६, २२२, २३४, २८०, २६६, ३०६, ३४३, ३७७, ४१७, ४२२ ४६६, ४६७, ५०६, ५२०, ५३१, ५३३. ५.३५, ५४०, ६४४, ६४६, ६ ६७३ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हायह-२११, २३५ हाधि-४७, ८२, २१३, २४६ हाय-३८७ हारह---११२, ११३ हारसु-६०४ हारि-२६२, ६१६ हारिउ–१८२, ५१४ हारी-४१६ हार-२३४, ५, ६००, ६०१, ६२४.६०६, ६०६. ६१० हार-६१७ हाल-५०६ हास-३७३ हासो-२६१, ३३२, ४२२ हाहाकार-५०१ हिंस-३२४ .. ...--- हुतासरण-२५३ हतो-३५० हुसे-६३६ हतो-२६६ हुरि-५ हुबो-१३५ हेम-२६०, ३०१, ६२६, ६५६ हैबर--१८०, ४५५, ४६२ होइ–१, ६, ७, ३५, ४०,४३, ४८, १४, १७, १०६, ११२, ११४, ११७, १३१, १६८, १७६, १३, १८६, १६०, १६२, १६, २०२, २१५, २२४, २३२, २३५, २४०, २४३, २४८, २५०, २६७, २७८८, ३१०, ३३५, ३३८, ३३, ३६४, ३६५, ३८३, ३६१, ४२६, ४१५, ४२७, ४४४, ४६४, ४७८, ४८१, ५०४, ५११, ५१३, ५१४, ५३५, ५३६, ५५३, ५५५, ५८६, ६-४, ६०७, ६३३, ६७०, ६७५, ६८४, ६६७, ६ होइहि--१६२ होउ–१३, ५७३ होण-५६८ . --. हिय प्रलोक-१९३. हिया–११ यिह-६०१ हियड-१४१, २६५, ३४२. १२६, | हिवस-५१६ हीएह-४८६ होग-२७८,७०१ होगु–६३४ होयङ–२४६,५५१, ६३हीपरा-१६० हुर–११, १२४, १७१, १७३, २८० ४२२, ५३३.६४४ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति १०३ शुद्ध रुक्मिणी अशुद्ध रुिक्मणी रुक्मिणी राद उराड़ रुक्मणि रूक्मिणी नारयण रूक्मिणी निम्पल जाद राई रुक्मिणी प्रद्यात दग्धति गुण त्रावास वृक्ष मंगल प्राप्त सकने मक्मिारिण नारायण रुक्मिणी निभ्यत प्रधम्न दग्धन्ति गुर अवाम वृक्षों मंगल प्राप्त कर सकने रुक्मिणी x awr or w * * * * * •ew on.or दाः दोन १२० १२० रूक्मिणि जामवती मानहि रुक्मिणि बाम रुक्मिणि अठरहवें १२६ क्रिमणी जामवती सुभानहि फक्मिणी डोम रुक्मिणी अठारहवें भयंकर १५० भयकर Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख 151 दुख सहेलयो पहिल दुःख दुःख नेत्रों सहेलियों पहिले का प्रद्य म्न विद्याओं रूप धारण कर 154 प्रधान विधाओं रुप धारण बनाकर के समा रुपचन्द बहुरूपिणी पचन्द 162 214 सभा रूपचन्द बहुरूपिणी 215 215 " अभ्यपंतये अभ्यंतर