SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८४ ) से (३८०) उसने वह एकत्रित अन्य ब्राह्मणों से कहा कि तुम बहुत हो और मैं अकेला हूँ । वेद और पुराण में जिसको अच्छा बतलाया गया है उस एक उत्तम आहार को तुम बतलादो । (३१) वां त्रह्मणों को लड़ते हुये देख कर सत्यभामा ने कहा कि अरे तुम व्यर्थ ही क्यों लड़ रहे हो । एक तो तुम एक दूसरे के ऊपर बैठे हो और फिर आपस में लड़ने हो ? ·n (३२) अब प्रयम्न की बात सुनो। उसने अपनी जुमणी विद्या को भेजा जिससे ब्राह्मण आपस में लड़ने लगे तथा एक दूसरे का सिर फोड़ने लगे । (३८३) रानी ने बात समझा करके कहा कि इन लड़ने वालों को वायु लग गई है जो दूर हो जायें उसे भोजन डाल दो नहीं तो उसे बाहर निकाल दो | (३८४) तन ने कहा कि भूखे साधुओं की भूख शान्त कर दो । सुनो हमें भूख लग रही है हमको एक मुठ्ठी श्राहार दे दो । (३८५) सत्यभामा ने तब क्या किया कि एक स्वर्ण थाल उसके आगे रख दिया । हे ब्राह्मण ! बैठ कर भोजन करो तथा उनकी सब बातों की ओर ध्यान मत दो। (३६) वह ब्राह्मण अर्द्धासन मार कर बैठ गया और अपने आगे उसने चौका लगाया। हाथ धोने के लिये लौटा दिया। थाल परोस दिया तथा नमक रख दिया । प्रथम्न का सभी भोजन का रखा जाना → (३८७) चौरासी प्रकार के बनाये हुये बहुत से व्यञ्जन उसने परोसे। बड़े बड़े थाल के थाल परोस दिये और वह एक ही प्रास में सबको खा गया । (३८८) चावल परोसे तो चावल खा गया । स्वयं रानी भी वहां आकर बैठ गयी। जितना सामान परोसा था वह सब खा गया। बड़ी कठिनता से वह पत्तल बची। (३८६) उस ब्राह्मण ने कहा कि हे रानी सुनो। मेरे पेट में अधिक ज्वाला उत्पन्न हुई है । उन लोगों को परोसना छोड़ कर मेरे आगे लाकर सामान डाल दो |
SR No.090362
Book TitlePradyumna Charit
Original Sutra AuthorSadharu Kavi
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherKesharlal Bakshi Jaipur
Publication Year
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy