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________________ रहने लगी कि उसका शरीर कृश हो गया और उसकी सारी प्रसन्नता जाती रही। करुण-रस का यह प्रसंग भी हृदयंगम करने लायक है-- जहिं सो रूपिणि करइ, पूत्र संतापु ह्यि गहवरइ । निन नित छीजइ विलखी खरी, काहे दुखी विधाज्ञा करी ।। १४०। इक घाजइ अरू रोवइ वयण, प्रासू बहत न थाके नयण । पूब्ब जन्म मैं काहउ कियउ, अव कसु देखि सहारउ हिय उ।।१४१।। की मइ पुरिष विछोही नारि, की दम्ब घाली वह मझारि । की मैं लेगु तेल घृतु हरउ, पूत संताप कवण गुरण परय् उ ॥१४२॥ प्रद्य म्न ने जो नाना स्थलों पर अपनी अलौकिक विद्याओं का प्रयोग किया है उसे पढ कर पाठक आश्चर्य में डूब जाता है। ये विद्यायें सामान्य जन को प्राप्त नहीं है, इसलिए प्रद्युम्न की अद्भुतता में कोई संदेह नहीं रहता यही चीज रस बन कर पाठक पर छा जाती हैं। सत्यभामा ने कपट-भेपी ब्राह्मण प्रद्युम्न को जितना सामान परोसा बह सभी खा गया । ८४ हांडियों में तैयार किये हुए व्यंजनों को तो बह पात की बात में षट कर गया । यही नहीं इसके अतिरिक्त जो कुछ सामान सत्यभामा के पास था वह सभी प्रद्युम्न के उदरस्थ हो गया ! फिर भी वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा इस अद्भुतता का भी पाठक रसास्वादन करें:- . चउरासी हाडी ते जाणि, व्यंजन बहुत परोसे आरिण। माडे कडे परोसे तासु, सबु समेलि गउ एकइ गासु ॥३८७॥ भातु परोसइ भातुइ खाइ, आपुण राणी बैठि प्राइ । जेतउ घालइ सत्रु संघरइ, बड़े भाग पातलि उवरइ ॥३८८॥ काव्य में अलंकारों का भी खूब प्रयोग किया गया है । वैसे मुख्य मुख्य अलंकारों में उपमा, रूपक, उपेक्षा, उदाहरण, दृष्टान्तः अपहति अर्थातरन्यास एवं स्वभावोक्ति आदि के नाम गिनाये जा सकते हैं। काव्य में अनूठी उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया गया है जिससे काव्य-सौन्दर्य अधिक विकसित हुआ है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं१. सैन उठी वहु सादु समुदु, जाणौ उपनउ उथल्यउ समुदु।।५५७॥
SR No.090362
Book TitlePradyumna Charit
Original Sutra AuthorSadharu Kavi
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherKesharlal Bakshi Jaipur
Publication Year
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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