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________________ ( १८३) (IEE) तब रुक्मिणी ने नमस्कार किया तथा उस खोड़े ने धर्म वृद्धि हो ऐसा कहा । विनय पूर्वक उसने उस ब्रह्मचारी का श्रादर किया तथा स्वर्ण सिंहासन बैठने के लिये दिया । (१००) रुक्मिणी ने तो समझा कर के क्षेमकुशल पूछा किन्तु वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा । रुक्मिणी ने अपनी सखी को बुलाकर सब बात बता दी तथा इसका जीमन कराओ और कुछ भी देर मत लगानो ऐसा कहा । (४०१) तत्काल बह जीमन कराने के लिये उठी तो प्रद्युम्न ने अग्नि स्तंमिनी विद्या को याद किया । उस मारमा न तो भोजन ही पल मका और चूल्हा धुआँ धार हो गया तथा वह भूखा भूखा चिल्लाता रहा । (४८२) मैं सत्यभामा के घर गया था लेकिन वहां भी खाना नहीं मिला तथा उल्टा भूखा रह गया। जो दिया वह भी छीन लिया । इस प्रकार मेरे तीन लंघन हो गये हैं। (४०३) सक्मिणी ने चित्त में मोचा और उसको लड़ लाकर परोस दिये । एक मास तक खाने के लिये जो लह, रस्ने हुये थे वे सब कुबड़े रुप धारी प्रद्युम्न ने खा लिये। (१०४) जिस आधे लड़ को म्या लेने पर नारायण पांच दिन तक तृप्त रहते थे। तब रुक्मिणी ने मन में विचारा कि कुछ कुछ समझ में आता है कि यही वह है अर्थात् मेरा पुत्र है। (४०५) तब रानी के मन में श्राश्चर्य हुआ कि इस प्रकार का पुत्र किस घर में रह सकता है। ऐसा पुत्र उत्पन्न हो सकता है यह कहा नहीं जा सकता । नारायण को कैसे विश्वास कराया जाय । {१८६) तब सक्मिणी के मन में संदेह पैदा हुआ कि यह कालसंबर 1 के घर बड़ा हुआ है वहां उसने कितनी ही त्रियाएं सीख ली है यह उसी विद्या बल का प्रभाव है। . (४४) यह विचार कर रुक्मिणी ने उनसे पूछा कि हे महाराज प्रारका स्थान कौनसा है। आपका श्रागमन कहाँ से हुआ है तथा किस गुरु ने आपको दीक्षा दी है।
SR No.090362
Book TitlePradyumna Charit
Original Sutra AuthorSadharu Kavi
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherKesharlal Bakshi Jaipur
Publication Year
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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