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( २२६) वे कुमार आपस में एक दूसरे का मुंह देख कर कहने लगे कि यह मानना पड़ता है कि यह असाधारण बोर है । हमने प्रद्युम्न को सोलह गुफाओं में भेजा किन्तु वहां भी उसे वस्त्राभरण मिले ।
( २३० ) प्रम्न का अपार बल देख कर कुमारों ने अहंकार छोड़ दिया । सब ने मिलकर उस स्थान पर सलाह की कि पुण्यवान के सब पड़ते हैं ।
( २३१ ) भगवान अरिहन्तदेव ने कहा है कि इस संसार में पुण्य बड़ा बलवान है । पुण्य से ही सुर असुर सेवा करते हैं। पुण्य ही सफल होता है। कहां तो उसने रुक्मिणी के उर में अवतार लिया : कहां धूमकेतु राक्षस ने उसे सिला के नीचे दबा दिया और कहां यमसंवर उसे ले गया और कनकमाला के घर बढ़ा और महान पुण्य के फल से सोलह विद्याओं का लाभ हुआ तथा सिद्धि की प्राप्ति हुई ।
(२३२) पुण्य से ही पृथ्वी में राज्य - सम्पदा मिलती है। पुण्य से ही मनुष्य देव लोक में उत्पन्न होता है। पुण्य से ही अजर अमर पद मिलता है । पुण्य से ही जीव निर्माण पद को प्राप्त करता है।
प्रद्युम्न द्वारा प्राप्त सोलह विद्याओं के नाम
( २३३ से २३६) सोलह विद्याओं को उसने बिना किसी विशेष प्रयत्न के हो प्राप्त कर लिया । चमर, छत्र, सुक्कुट, रत्नों से जटित नागशय्या, श्रीणां, पावड़ी, अग्निवस्त्र, विजयशंख, कौस्तुभमणि, चन्द्रसिंहासन, शेखर हर, हाथ में सुशोभित होने वाली काम मुद्रिका, पुष्प धनुष, हाथ के कंकण, छुरी, कुसुमाण, कानों में पद्दिनने के लिये युगल कुण्डल, दो राजकुमारियों से विवाह, सामने आये हुये हाथी को चढ़ कर वश में करना, रत्नों के युगल कंकण, फूलों की दो मालायें इनके अतिरिक्त अन्य छोटी वस्तुओं को कौन गिने । इन सब को लेकर प्रद्युम्न चला।
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(२३) प्रद्युम्न शीघ्र ही अपने घर को चल दिया और क्षण भर में मेघकूट पर जा पहुँचा। वहां जाकर यमसंबर से भेंट की और विशेष भक्तिपूर्वक उसके चरणों में पड़ गया ।
(२३८) राजा से भेंट करके फिर खड़ा हो गया और रणवास में भेंट करने चल दिया । कनकमाला से शीघ्र ही जाकर भेंट की और बहुत भक्तिपूर्वक उसके चरण स्पर्श किये ।