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साहित्य को हिंदी साहित्य से अलग स्थान मिलना चाहिए । यह सन्धिकालीन साहित्य परिमाण में कम नहीं है। इसका सर्वश्रेष्ठ व्यावहारिक उत्तर कदाचित यही है कि इसे दोनों साहित्यों को सम्मिलित सम्पत्ति माना जाए। इसे उतना ही हासकालोन अपनश का साहित्य माना जाए जितना इसे आधुनिक भाषाओं के प्रादुर्भाव काल का । और विद्वानों का यह कर्तव्य है कि इस संधिकालीन साहित्य को शेष समस्त अपभ्रंश साहित्य से भाषा लस्यों के आधार पर अलग करके इसे सूची बद्ध करें, तभी हमारे साहित्य के इतिहास के इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उचित रोति से समाधान हो सकता है कि उसका प्रारंभ कब से होता है।
यदि इस संधिकालीन साहित्य का अनुशीलन किया जावे तो यह सुगमता से देखा जा सकता है कि इसके निर्माण में सबसे बड़ा हाय जैन विद्वानों और महात्माओं का रहा है, पर बाल साहिन इनका इतना बड़ा योग रहा है जो कि इस संबिकाल से पूर्व निमित हुअा था । इतना ही नहीं विभिन्न मात्रामों में माधुनिक प्राय भाषाओं के मिश्रण के साय जन विधान और महात्मा सत्रहवीं शती तक बराबर अपनश में रचनाएँ करते पा रहे हैं। अभी अभी जैन कवि पं० भगवतीवास कृत 'महकलेहरिज' ( मृगांकलेखाचरित) नाम की रचना मेरे देखने में प्राई है जो विक्रमोय अठारह शती की रचना है। इसलिए यह प्रकट है कि अपनश के साहित्य को श्रीवृद्धि में जैन कृतिकारों का योग प्रसाधाररम रहा है । जब अपच बोलचाल की भाषा नहीं रह गई थी और उसका स्थान प्राधनिक प्रार्य भाषामों ने ले लिया था, उसके बाद भी साल माठ शताब्दियों तक जैन कृतिकारों ने अपनश की जो सेवा की, वह भारतीय साहित्य के इतिहास में एक ध्यान देने की वस्तु है । इससे उनका अपभ्रंश के प्रति एक धार्मिक अनुराग सूचित होता है। इसलिए यदि परिनिष्ठित अपभ्रंश और संधिकालीन अपभ्रंश का सबसे महत्वपुर्ण प्रवाहमें जैन विद्वानों और कवियों को कृतियों के रूप में मिलता है तो प्राश्चर्य न होना चाहिये।
किंतु एक कारण और भी इस बात का है जो इस साहित्य के कृतिकारों में बे। कषियों और महात्मानों का बाहुल्प दिखाई पड़ता है । वह यह है कि जैन धर्मावलंबियों ने अपने साहित्य को जड़ो निष्ठा पूर्वक सुरक्षा की है । अपनश तथा संधियुग का जितना भी भारतीय साहित्य प्राप्त हुना है, उसका सर्व प्रमुख प्रश अन भंडारों से ही प्राप्त हशा है, इसलिए उस साहित्य में यदि जैन कृतियों का माहुल्य हो तो उसे स्वाभाविक ही मानना धाहिए और इसके प्रमाण प्रत्रता से मिलते हैं कि अपनश और संधि युग में साहित्य-रचना अनेक अनेतर कवियों ने
"इस प्रथ के संपादक श्री कस्तूरचंद कासलीवाल की कृपा से प्राप्त ।