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( २१६ ) (३४६.) सेना भाग गयी तथा मामा के गले में पांव रख कर उसे बांध लिया। सब दल के भागने पर कन्या को अपने साथ ले लिया और द्वारिका नगरी श्रा पहुँचे।
(६५) रूपचंद को लेकर महलों में पहुँचे जहां श्रीकृष्ण बैठे हुये थे। श्रीकृष्ण को रूपचंद ने आंखों से देखा और कहा हमें नारायण का (दर्शन) लाभ कराया गया है ?
रूपचंद को पकड़ कर श्रीकृष्ण के सम्मुख उपस्थित करना
(६५१) तब मधुसूदन ने हंस कर कहा कि यह तुम्हारा भानजा है। इसमें बहुत पौरुष एवं विद्याबल है । इसने अपने पिता को भी रण में जीता है।
श्रीकृष्ण द्वारा रूपचंद को छोड़ देना
(६५२) तब प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने कृपा की और बंधे हुये रूपचंद को छोड़ दिया। प्रद्य म्न ने इंसकर उसे गोद में उठा लिया 1 फिर उसे रुक्मिणी के महलों में ले गया ।
रूपचंद और रुक्मिणी का मिलन
(६५३) वहां जाकर उसने अपनी बहिन से भेंट की । रुक्मिणी ने बहुत प्रेम जताया । बहुत श्रादर के साथ जीमनवार दी गयी जिसमें अमृत का भोजन खिलाया।
(६५४) माई, थहिन एवं भानजा अच्छी तरह से एक स्थान पर मिले । रुक्मिणी की बात सुन कर रूपचन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई तथा उसने कन्या को चित्राह के लिये दे दी।
प्रद्युम्न एवं शंयुकुमार का विवाह
(६५५) तब हरे बांस का मंडप तैयार किया गया तथा बहुत प्रकार के तोरण द्वार खड़े किये गये । छप्पन कोटि यादव प्रसन्न होकर दोनों कुमारों के साथ विवाह करने चले ।