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________________ ( २१७ ) (६५.६) बहुत भांति के शंख एवं भेरी बजी। मधुर बीणा एवं तूर बजा । भांवर डाल कर हथलेवा लिया गया तथा चारों का पाणिग्रहण संस्कार पूरा किया गया । (६५७) नगरी में घर घर उत्सव किया गया और इस प्रकार दोनों बुमारों का विषाह हो गया । जो सज्जन लोग थे वे तो खूब प्रसन्न थे किन्तु अकेली सत्यभामा ऐसी थी जिसका मन जल रहा था। (६५८) रूपचन्द को जाने की प्राशा हुई और वह समधी नारायण के यहां से घर गया । यह कुंडलपुर में राज्य करने लगा। अब कथा का क्रम द्वारिका जाता है । उनका (प्रद्युम्न) मन उस घड़ी धर्म में लगा तथा जिन चैत्यालय की मंदना करने के लिये कैलाश पर्वत पर चले गये । बटा सर्ग प्रद्युम्न द्वारा जिन चैत्यालयों की वंदना करना (६४६.) तब प्रद्युम्तकुमार ने चितवन किया कि संसार समुद्र से तैरना बड़ा कठिन है । मन में धर्म को हड़ करना चाहिये तथा कैलाश पर्वत पर जो जिन मन्दिर है उनकी शुद्ध भाव से पूजा करनी चाहिये । भूत भविष्यत तथा वर्तमान तीर्थकरों के चैत्यालयों को देखा और कहा कि जिनने जिनेन्द्र भगवान के ये चैत्यालय बनाये हैं वे मरत नरेश धन्य हैं। (६६०) फिर प्रद्य म्न ने चैत्यालयों की वंदना को जिनकी ज्योति रत्नों के समान चमकती थी | अष्ट विधि पूजा एवं अभिषेक करके प्रयम्न द्वारिका वापिस चले गये। (६६१) इसके पश्चात् दूसरी कथा का अध्याय प्रारम्भ होता है । कौरव और पाएडवों में कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध हुआ। तब भगवान नेमिनाथ ने संयम धारण किया। (६६२) फिर प्रयम्त द्वारिका जाकर विविध भोग विलासों को भोगने लगे । घटरस व्यंजन से युक्त अमृत के समान भोजन करने लगे । (६६३) वहां सात मंजिल के सुन्दर श्वेत महल थे उनमें वे नित्य नचे भोग विलास करते थे । वे महल अगर तथा चन्दन की सुगन्धि से युक्त थे तथा सुन्दर फूलों के रस से सुवासित थे।
SR No.090362
Book TitlePradyumna Charit
Original Sutra AuthorSadharu Kavi
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherKesharlal Bakshi Jaipur
Publication Year
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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