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(६५१) उस राखी ने जो तुम्हारे पाहूत भेजा था उसने तुम्हारी बहुत सराहना की थी। उसी से वहां जाकर तुम्हारा। उत्तर कहा । उसी के कारण हम यहां आये हैं ।
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(६४२) अपने कहे हुए वचनों को प्रमाण मानों क्योंकि सत्यवक्ता के वचन प्रमाण होते हैं । हे भाग्यवान् हम से स्नेह (संबंध) करके अपनी दोनों कन्यायें दे दो ।
रूपचंद का उन दोनों को पकड़ने का आदेश देना
(६४३) यह सुनकर राजा क्रोधित होकर खड़ा हो गया। ऐसा लगने लगा मानों श्रग्नि में घी डाल दिया हो। उसका सम्पूर्ण श्रंग एवं मस्तक काँप गया तथा बोलने २ प्राण भी उडने लगे। ऐसे बोल तुमने किससे कहे हैं ? उसने आदेश दिया कि इनको बाहर लेजा कर शूली पर चढा दो । यदि यदुराज में ताकत है तो वह इनको आकर छुड़ा लेंगे
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(६४४) तब उन्होंने पकड़े जाने पर जोर २ से पुकार की कि हम डूम हैं इम हैं । ये शब्द चारों ओर छा गये । उसके हाथ में अलाव रंग (अलगोजा ) थी जिसके सुनने के लिये सारे बाजार एवं हाट भर गये थे ।
(६४५) उसी समय कुमार रूपचन्द ने सब राजाओं को पुकारा तथा सब बातें बताई। वे हाथी घोड़ों को साथ लेकर एक ही चरण में बां आ पहुँचे ।
(६४६) तब राजा रुपचंद वहां आये जहां प्रयुम्न और शंबुकुमार थे वे दोनों एक साथ अपने हाथ में एक तारा (सितार) अलावरिण ( अलगोजा ) और वीणा लेकर गाने लगे ।
(६४७) हम को देखकर राजा के मन में शंका पैदा हुई कि वह नीच जाति पर किस प्रकार प्रहार कर सकता है। धनुष साध करके जब उसने बाण छोड़े तब दूसरों ने भी चौगुणे बाण छोड़े।
प्रद्युम्न और रूपचंद के मध्य यृद्ध
(६४) तब प्रम्न बड़ा क्रोधित हुआ तथा धनुष चढा कर हाथ में ले लिया । उसने क्रोधित होकर अग्निबाण छोड़ा जिससे लड़ते हुये सभी क्षत्रिय भागने लगे ।