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( १५७ ) (१३६) प्रद्युम्न ऐसा वीर बन गया जिसके समान भौर कोई जानकार नहीं था । इस प्रकार बइ यमसंबर के पर बढ़ रहा है। अब यह कथा द्वारिका जा रही है । (अब द्वारिका का वर्णन पदिये)
द्वितीय सर्ग
पुत्र वियोग में रुक्मिणी की दशा
(१४८) इधर द्वारिका में रुक्मिणी करुण विलाप कर रही थी। पुत्र संताप से उसका हदय व्याकुल हो रहा था । वह प्रतिदिन कृष होती गयी एवं उदासीन रहने लगी। विधाता ने उसे ऐसी दुखी क्यों बनायो ।
(१४१) कभी वह संतप्त होती थी तो कभी वह जोर से रोती थी। उसने गानों में शां सभी बकते । पूर्व जन्म में मैंने कौनसा पाप किया था । अब मैं किसे देखकर अपने हृदय को सम्हालू ?
(५४२) क्या मैंने किसी पुरुष को स्त्री से अलग किया था ! अथवा किसी वन में मैंने आग लगायी थी ? क्या मैंने किसी का नमक, तेल और भी चुरा लिया था? यह पुत्र संताप मुझे किस कारण से मिला है ?
(१४३) इस प्रकार जम रह रुक्मिणी सन्ताप कर रही थी उस समय नारायण एवं बलिभद्र वहां आकर बैठे और कहने लगे-हे मुन्दरि १ मन में दुखी न हो | हम बिना जाने क्या कर सकते हैं ?
११४४) स्वर्ग और पाताल में से कोई भी यदि हमें प्रयम्न का पता वत्ताद तो वह हमसे मनचाही वस्तु प्राप्त कर सकता है । सम्पूर्ण शक्ति लगाकर उसे ले जाने वाले को मार डालेंगे तथा उसे श्मसान में से गोध उठावेंग।
(१४५.) जब वे इस तरह उसको समझाते रहे तो वह अपने मन के खेव को भूल गयी । इस प्रकार दुखित होत हुए कितने ही वर्ष व्यतीत हो गये तब नारद ऋषि द्वारिका में आये ।