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(१४८) (५६) तये सारथी ने क्षण भर में रथ को सजाया तथा वायु के वेग के समान कुण्डलपुर पहुँच गया। जहां वन में मन्दिर था वहीं पर कृष्णा एवं इलघर पहुँचे।
(१०) आपस में सलाह की । जरा भी देर नहीं लगायी । दूत के द्वारा समाचार भेज दिये । उस ने जाकर सब बात कह दी कि नंदनवन में श्रीकृष्ण श्रा गए हैं।
(६१) वचनों को सुनकर रुक्मिणी हंसी । मोती एवं माणिक आदि से थाल भरा, बहुत सी सखी सहेलियों को साथ लेकर पूजा के निमित्त मन्दिर में चली गई।
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी को प्रथम मिलन (६२) रुक्मिणी ने यहां जाकर श्रीकृष्ण से भेंट की और सत्यभाष से कहा कि हे यदुराज मेरं वचनों की ओर ध्यान देकर सात ताल वृत्तों को कारणों से बीधिये ।
(६३) तब श्री कृष्ण ने बज मूदड़ी को लेकर हाथ से मसल डाला | मूदही फूट कर चून हो गई मानों गरइट के नीचे चांवलों के कण पिस गये हो।
(६४) तब नारायण ने धनुप लिया और हलधर ने श्राकर अंगूठा दवाया । दबाने से सातों सूधे हो गये और बाणों ने सातो ही ताल वृक्षों को बींध दिया।
(६५) तब रुक्मिणी के मन में स्नेह उत्पन्न हो गया और उसने । मन में जान लिया कि यही नारायण हैं। उन्होंने रथ पर रुक्मिणी को। चढाकर पुकारा और सब बात भीष्म राज को ज्ञात करा दी।
रनपाल द्वारा रुक्मिणी-हरण की सूचना (६३) तब वनपाल ने आकर कहा कि पीछे कोई गर्ष मत करना कि रुविमणी को चुराकर ले गये । जिसमें शक्ति हो वह श्राकर छुडाले ।
(६७) रुक्मिणो को रथ पर बडा लिया तथा उमने (श्रीकृष्णा) पांचजन्य शंख को बजाया। शंख के शब्द को सुनकर सारा देवलोक शंकित हो गया तथा महिमंडल थर थर कांपने लगा। महिलाओं ने जाकर यह पुकार की कि हे पृथ्वीपति सुनिये-- देव मन्दिर में खड़ी हुई रुक्मिणी को श्रीकृष्ण हर ले गये।