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नारद ऋषि का आगमन (२५) इनने में हाथ में कमंडल लिये हुए मुडे हुये सिर पर चोटी धारण करने वाले, विमान पर चढ़े हुये प्रसन्न मन राजर्षि नारद वहां जा पहुँचे।
(२६ श्रीकृष्ण ने उनको नमस्कार करके बैठने के लिये स्वर्ण सिंहासन दिया। एकान्त पाकर नारायण ने उनसे पूछा कि आपका आगमन कहांसे हुआ।
(२७) हम अाकाश में उड़ते हुये मर्त्यलोक के जिन मन्दिरों की वन्दना करने गये थे। द्वारिका दीखने पर यह विचार उत्पन्न हुया कि यादवराय से ही भेंट करते चलें।
(क) तब नारायण ने विनय के साथ कहा कि अच्छा हुआ कि आप यहां पधारे । हे मारद ऋषि ? आपने हमारे ऊपर कृपा की । आज यह स्थान पवित्र हो गया।
(२६) बचनों को सुनकर नारद ऋघि मन ही मन हमने लगे तथा उनने सत्यभारः की बालबार्ता पछी । नारद जी आशीर्वाद देकर खड़े हो गये और फिर रणवास में चले गये।
(३०) जहां सत्यभामा श्रृंगार कर रही थी तथा आंखों में काजल लगा रही थी। चन्द्रमा के समान ललाट पर जब वह तिलक लगा रही थी उसी समय नारद ऋषि वहां पहुंचे।
(३१) हाथ में कमण्डल लिये हुये ऋषि रूप और कला को देखते फिरते थे। वे सत्यभामा के पीछे जाकर खड़े हो गये और सत्यभाग का दर्पण में रूप देखा।
(३२) सत्यभामा ने जब ऋषि का विकृत रूप देखा तो मन में बाहत विस्मित हुई । उस मंद-बुद्धि ने कुतर्क किया कि यहां पर कोई मार डालने वाला पिशाच ा गया है।
नारद का क्रोधित होकर प्रस्थान
(३३) बड़ी देर तक ऋषि खड़े रहे। सत्यभामा ने न तो दोनों हाथ जोड़े और न उनसे बैठने के लिये ही कहा । तब नारद ऋषि को क्रोध उत्पन्न हो गया और वे उसे सहन नहीं कर सके । तत्र नारदजी फटकारते हुये पापिस चले गये।