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________________ ( २२१ ) प्रद्युम्न को केवलज्ञान एवं निर्वाण की प्राप्ति (६६०) घातिया कर्मों का नाश करने पर उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न नेत्र द्वारा सो-सोक की बात जानने लगे तथा फिर अपने -- हो उनका हृदय अलौकिक ज्ञान के प्रकाश से चमकने लगा । (६६१) उसी समय इन्द्र, चन्द्र, विद्याधर, बलभद्र, धरन्द्र, नारायण, सज्जन लोग, एवं देवी और देवता याये । (६६२ ) इन्द्र वाणी से स्तुति करने लगा । हे मोह रुपी अन्धकार को दूर करने वाले ! तुम्हारी जय हो । हे प्रद्य ुम्न ! तुम्हारी जय हो, तुमने संसार जाल को तोड़ डाला है । (६६३) इस प्रकार इन्द्र ने स्तुति कर धनपति से कहा कि एक बात सुनो। इन मूक केली की विचित्र ऋद्धियां हैं अतः क्षण भर में ही गन्ध कुटी की रचना करो । ग्रंथकार का परिचय (६६४) हे प्रद्युम्न ! तुमने निर्वाण प्राप्त किया जिसका कि मेरे जैसे तुच्छ - बुद्धि ने वर्णन किया है । मेरी अग्रवाल की जाति है जिसकी उत्पत्ति अगरोव नगर में हुई थी । (६६५) गुणवती सुधनु माता के उर में अवतार लिया तथा सामराज के घर पर उत्पन्न हुआ । एरछ नगर में बसकर यह चरित्र सुना तथा मैंने इस पुराण की रचना की । (६६६) उस नगर में श्रावक लोग रहते हैं जो दश लक्षण धर्म का पालन करते हैं। दर्शन और ज्ञान के अतिरिक्त उनके दूसरा कोई काम नहीं है मन में जिनेश्वर देव का ध्यान करते हैं। (६६७ ) इस चरित को जो कोई पढ़ेगा वह मनुष्य स्वर्ग में देव होगा | ar देवां से चय करके मुक्ति रूपी स्त्री को बरेगा। (६६८) जो केवल मन से भी भाव पूर्वक सुनेंगे उनके भी अशुभ कर्म दूर हो जायेंगे। जो मनुष्य इसका वर्णन करेगा उस पर प्रद्युम्न देव प्रसन्न होंगे।
SR No.090362
Book TitlePradyumna Charit
Original Sutra AuthorSadharu Kavi
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherKesharlal Bakshi Jaipur
Publication Year
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size5 MB
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