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प्रद्य म्न द्वारा माता को समझाना
माता तरणउ वयगा निमृगोड, तब प्रतिउतरु कंद्रपु देई । लावरण हा सरीरह सारु, जम रूठे सो होइ है छारू ॥६८४॥ अवगी माइन कंदलु करड, माया मोहु माणु परिहरइ । जिन सरीर दुख धरहु बहुत, को मो माइ कवरण तुहि पूतु ॥६८५।। रहटमाल जिउ यह जीउ फिरइ, स्वर्ग पताल पुहमि अवतरइ । पूच्च जनम को सनमधु प्राहि, दुञ्जणा सज्जरण लेइ सो चाहि ॥६८६॥ हम तुम सन्मधु पुवह जम्मु, सोहउ आरिण घटाउ कम्म । इम्ब करि मनु समभावइ ताहि, रूपिणि माइ बहुडि घर जाहि । ६६७
प्रधम्न का जिन दीक्षा लेकर तपस्या करना इम समुझाइ रूपिरिण माइ, फुणि रिणामि पास वइठउ जाइ । देसु कोसु परिहरे असेस, पंचमुबीर उमाले केस ॥६८ तेरह विउ चारितु चरेइ, दह लक्षण विहु धरमु करेइ ।। सहइ परीसह वाइस अंग, वाहिर भीतर छायउ अंग ॥६॥
(६४) १. तब पडि ख ग) तउ परि (क) (६८५) १. दुख (क ख ग) मूल पाठ दुष्ट (६८६) १. रह्हमाल (ख) अरहटमाल (ग) (६८७) १. पूरब जनमि (ग)
(६८८) १. जिरण (क स्स) मुनि (ग) २. वास (ग) ३. पंच मूठि मा केस (क) पंच मुहि सिर उपडि केस (ख) पंचम रुटमा सामे केश (ग)
(६८६) १. विरद्धि चार वतु धार (ग) २. सु. संगु (ग)
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