Book Title: Mahavagga Tika
Author(s): Vipassana Research Institute Igatpuri
Publisher: Vipassana Research Institute Igatpuri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ site? aut कृष्णपुरी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि- पालि- गन्थमाला [देवनागरी ] दीघनिकाये लीनत्थष्पकासना दुतियो भागो महावग्गटीका गन्थकारो भदन्ताचरियो धम्मपालत्थेरो विपश्यना विशोधन विन्यास इगतपुरी १९९८ 1 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मगिरि- पालि - गन्थमाला- - ८ [ देवनागरी ] दीघनिकाय एवं तत्संबंधित पालि साहित्य ग्यारह ग्रंथों में प्रकाशित किया गया है । प्रथम आवृत्ति : १९९८ ताइवान में मुद्रित, १२०० प्रतियां मूल्य : अनमोल यह ग्रंथ निःशुल्क वितरण हेतु है, विक्रयार्थ नहीं । सर्वाधिकार मुक्त । पुनर्मुद्रण का स्वागत है। इस ग्रंथ के किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन के लिए लिखित अनुमति आवश्यक नहीं । ISBN 81-7414-057-3 यह ग्रंथ छट्ट संगायन संस्करण के पालि ग्रंथ से लिप्यंतरित है । इस ग्रंथ को विपश्यना विशोधन विन्यास के भारत एवं म्यंमा स्थित पालि विद्वानों ने देवनागरी में लिप्यंतरित कर संपादित किया। कंप्यूटर में निवेशन और पेज-सेटिंग का कार्य विपश्यना विशोधन विन्यास, भारत में • हुआ प्रकाशक : विपश्यना विशोधन विन्यास धम्मगिरि, इगतपुरी, महाराष्ट्र- ४२२४०३, भारत फोन : (९१-२५५३) ८४०७६, ८४०८६ फैक्स: (९१-२५५३) ८४१७६ सह-प्रकाशक, मुद्रक एवं दायक : दि कारपोरेट बॉडी ऑफ दि बुद्ध एज्युकेशनल फाउंडेशन ११ वीं मंजिल, ५५ हंग चाउ एस. रोड, सेक्टर १, ताइपे, ताइवान आर. ओ. सी. फोन : (८८६-२) २३९५-१९९८, फैक्स : (८८६-२) २३९१-३४१५ 2 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Päāli-Ganthamālā [Devanagari] Dighanikaye Linatthappakāsanā Dutiyo Bhāgo Mahāvagga-Tikā Ganthakāro Bhadantacariyo Dhammapalatthero Devanagari edition of the Pali text of the Chattha Sangayana Published by Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri -422403, India Co-published, Printed and Donated by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: (886-2)23913415 3 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhammagiri-Pāli-Ganthamālā—8 [Devanāgari] The Digha Nikāya and related literature is being published together in eleven volumes. First Edition: 1998 Printed in Taiwan, 1200 copies Price: Priceless This set of books is for free distribution, not to be sold. No Copyright-Reproduction Welcome. All parts of this set of books may be freely reproduced without prior permission. ISBN 81-7414-057-3 This volume is prepared from the Pali text of the Chattha Sargāyana edition. Typing and typesetting on computers have been done by Vipassana Research Institute, India. MS was transcribed into Devanagari and thoroughly examined by the scholars of Vipassana Research Institute in Myanmar and India. Publisher: Vipassana Research Institute Dhammagiri, Igatpuri, Maharashtra - 422 403, India Tel: (91-2553) 84076, 84086, 84302 Fax: (91-2553) 84176 Co-publisher, Printer and Donor: The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow S. Rd. Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: (886-2)23951198, Fax: 886-23913415 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसय-सूची प्रस्तुत ग्रंथ Present Text संकेत-सूची 3 IM N ~ ७० ~ ७० ७३ ७४ ७५ १. महापदानसुत्तवण्णना पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथावण्णना जातिपरिच्छेदादिवण्णना बोधिपरिच्छेदवण्णना सावकयुगपरिच्छेदवण्णना सावकसन्निपातपरिच्छेदवण्णना उपट्ठाकपरिच्छेदवण्णना सम्बहुलवारवण्णना सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना बोधिसत्तधम्मतावण्णना द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना विपस्सीसमावण्णना जिण्णपुरिसवण्णना ब्याधिपुरिसवण्णना कालकतपुरिसवण्णना पब्बजितवण्णना बोधिसत्तपब्बज्जावण्णना महाजनकायअनुपब्बज्जावण्णना बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना ७८ ब्रह्मयाचनकथावण्णना अग्गसावकयुगवण्णना महाजनकायपब्बज्जावण्णना चारिकाअनुजाननवण्णना देवतारोचनवण्णना २. महानिदानसुत्तवण्णना निदानवण्णना उस्सादनावण्णना पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथावण्णना तित्थवासादिवण्णना पटिच्चसमुप्पादगम्भीरतावण्णना अपसादनावण्णना पटिच्चसमुप्पादवण्णना अत्तपञत्तिवण्णना नअत्तपञत्तिवण्णना अत्तसमनुपस्सनावण्णना सत्तविज्ञाणट्ठितिवण्णना अट्ठविमोक्खवण्णना ३. महापरिनिब्बानसुत्तवण्णना राजअपरिहानियधम्मवण्णना भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना सारिपुत्तसीहनादवण्णना दुस्सीलआदीनववण्णना 9 22MM 2020 ९७ १०१ १०४ १०८ १०९ १११ १२१ १२२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीलवन्तआनिसंसवण्णना पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना अरियसच्चकथावण्णना १२२ १२३ १२५ अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणवण्णना १२५ १२७ १२८ १२९ १३२ १३४ १३६ १३८ १४१ १४२ १४५ १४५ १४६ १४७ १५१ १५२ १५२ १५५ धम्मादासधम्मपरियायवण्णना अम्बपालीगणिकावत्थुवण्णना वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना निमित्तोभासकथावण्णना मारयाचनकथावण्णना आयुसङ्घारओस्सज्जनवण्णना महाभूमिचालवण्णना अट्ठपरिसवण्णना अट्ठअभिभायतनवण्णना अट्ठविमोक्खवण्णना आनन्दयाचनकथावण्णना नागापलोकितवण्णना चतुमहापदेसवण्णना कम्मारपुत्तचुन्दवत्थुवण्णना पानीयाहरणवण्णना पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना यमकसालवण्णना उपवाणत्थेरवण्णना चतुसंवेजनीयट्ठानवण्णना आनन्दपुच्छाकथावण्णना आनन्द अच्छरियधम्मवण्णना महासुदस्सनसुत्तदेसनावण्णा मल्लानं वन्दनावण्णना सुभद्दपरिब्बाजकवत्थुवण्णना तथागतपच्छिमवाचावण्णना परिनिब्बुतकथावण्णना १५९ १६० १६० १६१ १६२ १६३ १६३ १६५ १६७ 6 बुद्धसरीरपूजावण्णना महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना सरीरधातुविभजनवण्णना धातुथूपपूजावण्णना ४. महासुदरसनसुत्तवण्णना कुसावतीराजधानीवण्णना चक्करतनवण्णना हस्थिरतनवण्णना अस्सरतनवण्णना मणिरतनवण्णना इत्थिरतनवण्णना गहपतिरतनवण्णना परिणायकरतनवण्णना चतुइद्धिसमन्नागतवण्णना धम्मपासादपोक्खरणिवण्णना १७९ १८१ १८१ १८१ १८१ झानसम्पत्तिवण्णना १८२ बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना १८३ चतुरासीतिनगरसहस्सादिवण्णना १८३ सुभद्दादेविउपसङ्कमनवण्णना १८४ ब्रह्मलोकूपगमनवण्णना १८४ ५. जनवसभसुत्तवण्णना १८७ नातिकियादिब्याकरणवण्णना आनन्दपरिकथावण्णना जनवसभयक्खवण्णना देवसभावण्णना सनङ्कुमारकथावण्णना भावितइद्धिपादवण्णना तिविधओकासाधिगमवण्णना चतुसतिपट्ठानवण्णना १६८ १६९ १७१ १७२ १७५ १७५ १७६ १७८ १७९ १७९ १८७ १८७ १८८ १८९ १८९ १९१ १९४ १९७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ २७७ २७७ २८० २०० २८३ २०६ २८४ २८४ २८६ २८७ २८९ २९१ २९१ २९५ २९६ २९९ ३१० २१४ सत्तसमाधिपरिक्खारवण्णना ६. महागोविन्दसुत्तवण्णना २०० देवसभावण्णना अट्ठयथाभुच्चवण्णना २०२ सनङ्कुमारकथावण्णना २०६ गोविन्दब्राह्मणवत्थुवण्णना रज्जसंविभजनवण्णना २०७ कित्तिसद्दअब्भुग्गमनवण्णना २०८ ब्रह्मनासाकच्छावण्णना २०९ रेणुराजआमन्तनावण्णना २११ छखत्तियआमन्तनावण्णना २११ ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तनावण्णना २१२ महागोविन्दपब्बज्जावण्णना २१२ ७. महासमयसुत्तवण्णना , २१४ निदानवण्णना देवतासन्निपातवण्णना २१८ ८. सक्कपञ्हसुत्तवण्णना २२८ निदानवण्णना २२८ पञ्चसिखगीतगाथावण्णना सक्कूपसङ्कमनवण्णना गोपकवत्थुवण्णना मघमाणववत्थुवण्णना पञ्हवेय्याकरणवण्णना २३७ वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २४० महासिवत्थेरवत्थुवण्णना २४७ पातिमोक्खसंवरवण्णना २५० इन्द्रियसंवरवण्णना २५२ सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना २५५ ९. महासतिपट्ठानसुत्तवण्णना २५८ उद्देसवारकथावण्णना २५८ कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना इरियापथपब्बवण्णना चतुसम्पजञ्जपब्बवण्णना पटिक्कूलमनसिकारपब्बवण्णना धातुमनसिकारपब्बवण्णना नवसिवथिकपब्बवण्णना वेदनानुपस्सनावण्णना चित्तानुपस्सनावण्णना धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बवण्णना खन्धपब्बवण्णना आयतनपब्बवण्णना बोज्झङ्गपब्बवण्णना चतुसच्चपब्बवण्णना दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना समुदयसच्चनिद्देसवण्णना निरोधसच्चनिद्देसवण्णना मग्गसच्चनिद्देसवण्णना १०. पायासिराजञसुत्तवण्णना पायासिराजझवत्थुवण्णना चन्दिमसूरियउपमावण्णना चोरउपमावण्णना गूथकूपपुरिसउपमावण्णना गब्भिनीउपमावण्णना सुपिनकउपमावण्णना सन्तत्तअयोगुळउपमावण्णना सङ्खधमउपमावण्णना अग्गिकजटिलउपमावण्णना देसत्यवाहउपमावण्णना ३१० ३१४ ३१५ ३१६ ३२३ ३२४ My my my my my ३२४ ३२५ ३२५ ३२५ ३२६ ३२६ ३२७ ३२७ ३२७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० . [१] अक्खधुत्तकउपमावण्णना साणभारिकउपमावण्णना सरणगमनवण्णना यज्ञकथावण्णना उत्तरमाणववत्थुवण्णना له سه س ३२८ | पायासिदेवपुत्तवण्णना ३२८ | सद्दानुक्कमणिका गाथानुक्कमणिका संदर्भ-सूची [३५] [३७] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरं तिद्वतु सद्धम्मो ! चिरस्थायी हो सद्धर्म! बेमे, भिक्खवे, धम्मा सद्धम्मस्स ठितिया असम्मोसाय अनन्तरधानाय संवत्तन्ति। कतमे ढे? सुनिक्खित्तञ्च पदव्यञ्जनं अत्थो च सुनीतो। सुनिक्खित्तस्स, भिक्खवे, पदव्यञ्जनस्स अत्थोपि सुनयो होति। अ०नि० १.२.२१, अधिकरणवग्ग भिक्षुओ, दो बातें हैं जो कि सद्धर्म के कायम रहने का, उसके विकृत न होने का, उसके अंतर्धान न होने का कारण बनती हैं। कौनसी दो बातें? धर्म वाणी सुव्यवस्थित, सुरक्षित रखी जाय और उसके सही, स्वाभाविक, मौलिक अर्थ कायम रखे जांय । भिक्षुओ, सुव्यवस्थित, सुरक्षित वाणी से अर्थ भी स्पष्ट, सही कायम रहते हैं। ...ये वो मया धम्मा अभिञा देसिता, तत्थ सब्बेहेव सङ्गम्म समागम्म अत्थेन अत्थं व्यञ्जनेन व्यञ्जनं सङ्गायितब्बं न विवदितब्बं, यथयिदं ब्रह्मचरियं अनियं अस्स चिरद्वितिकं...। दी०नि० ३.१७७, पासादिकसुत्त ....जिन धर्मों को तुम्हारे लिए मैंने स्वयं अभिज्ञात करके उपदेशित किया है, उसे अर्थ और ब्यंजन सहित सब मिल-जुल कर, बिना विवाद किये संगायन करो, जिससे कि यह धर्माचरण चिर स्थायी हो...। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह भगवान बुद्ध के चौंतीस दीर्घाकार उपदेशों का संग्रह है जो कि तीन खंडों में विभक्त है - सीलक्खन्धवग्ग, महावग्ग, पाथिकवग्ग । इन उपदेशों में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी | उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी-कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ। तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं । जब स्थविर महेन्द्र बुद्धवचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । पांचवी सदी के मध्य में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया । दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक दीघनिकाय-अट्ठकथा का प्रणयन किया । यह भी तीन भागों में विभक्त है। इन अट्ठकथाओं की पुनः व्याख्या करते हुए भदंत आचार्य धम्मपाल थेर ने 'लीनत्थप्पकासना' नामक दीघनिकाय अट्ठकथा-टीका तीन भागों में लिखी । इसके दूसरे भाग महावग्गटीका का मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा। निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dighanikāye Līnatthappakāsanā Dutiyo Bhāgo Mahāvagga-Tīkā 13 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ciram Titthatu Saddhammo! May the Truth-based Dhamma Endure for A Long Time ! “Doeme, Bbikebabe, Dhammã saddhammassa thitiyā asammosāya anantaradhānāya samvattanti. Katame dve? Sunikkhittañca padabyanjanam attho ca sunito. Swnikkbitassa, Bhikkhace, padabyañjanassa atthopi sunayo boti." "There are two things, O monks, which A. N. 1. 2. 21, Adhikaranavagga make the Truth-based Dhamma endure for a long time, without any distortion and without (fear of) eclipse. Which two? Proper placement of words and their natural interpretation. Words properly placed help also in their natural interpretation." ...ye vo maya dhammā abhiñña desitā, tattha sabbeheva sangamma samāgamma atthena attham byañjanena byañjanam sangāyitabbam na vivaditabbam, yathayidam brahmacariyam addhaniyam assa ciratthitikam... ...the dhammas (truths) which I have D. N. 3.177, Pāsādikasutta taught to you after realizing them with my super-knowledge, should be recited by all, in concert and without dissension, in a uniform version collating meaning with meaning and wording with wording. In this way, this teaching with pure practice will last long and endure for a long time... Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Present Text The Dīgha Nikāya is an important collection from the perspective of meditation practice. It contains thirty-four important long discourses of the Buddha, divided into three sections-the Silakkhandhavagga, Mahāvagga and Pathikavagga. In these discourses a lot of material related to sila, samādhi and pañña is available. Various aspects of practice have been elucidated by means of similes drawn from familiar objects and the everyday life of the times. The Buddha's teachings were simple and endearing. His distinctive style was self-explanatory but still, in order to make the Dhamma all the more lucid, he introduced the use of athakathā (commentaries), such as the Cūsaniddesa and the Mahāniddesa. These were recited, along with the discourses of the Buddha, at the first Dhamma Council. In time the other atphakathā commenting on all his discourses came into being. When Ven. Mahinda conveyed the words of the Buddha to Sri Lanka he also took the atthakathā with him. The Sinhalese monks preserved these asthakathā in their own language. Later on, when they had been lost in India, Ven. Buddhaghosa was able to translate them back to Pāli, during the middle of the fifth century A.D. He then compiled the commentary on the Digha Nikāya in three volumes to help clarify the meaning of the Digha Nikāya. To furthur explain and clarify some of the points, Ven. Dhammapāla wrote a sub-commentary (fīkā) on Buddhaghosa's work known as Līnatthappakāsana in three volumes. We sincerely hope that this publication Linatthappakāsanā volume two: Mahāvagga-Tīkā will provide immense benefit to practitioners of Vipassana as well as research scholars. Director, Vipassana Research Institute, Igatpuri, India. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ ० The Pāli alphabets in Devanāgari and Roman characters: Vowels: अ a आ इ ई उ ऊ ए : Consonants with Vowel 37 (a): o ka ukha Tga I gha 5 na 7 ca , cha aja jha Et ña ta ţha 3 da dha una ô ta tha d a y dha 7 na 9 pa pha oba bha म ma a ya ra la ava sa ha la One nasal sound (niggahita): 3 am Vowels in combination with consonants “k” and “kh”: (exceptions: ru, rū) क ka का ka कि ki की ki कु ku कू kā के ke u kha an khā Pakhi em khi į khu į khū cekhe को ko at kho क्ल kla ग्ग gga ग्य gya nga w ñña दृ tta ण्ड nda ñca क्र kra ग्घ ggha rikhya ज्झ jjha 5. ñjha 03 ntha स्थ ttha न dma न्त nta m JE ņķa क्व kva ग्र gra Pangha ज्ह nha țủha ण्ण nna tra dra न्थ ntha 2 Epher TEN DEN atta 4 nya Conjunct-consonants: क्क kkaa ख kkha क्य kya khya Ekhva gva Inka nkha cca ccha ज्ज jja svo ñcha ज्ज hja dda ddha ण्ह nha ६ dda & ddha ध्य dhya ध्व dhva nda me ndha ppa ut ppha bbha bya a bra mbha mma यह yha ल्ल lla ल्य lya स्त्र stra स्र sna स्य sya hthma a hya ahva ? 1 72 73 74 45 tya tva dva ndra nna व nva nha pya bba mpa ro B ntva nya प्ल pla mpha Tyya vha स्म sma mba a vya mya स्त sta ma 5 mha PE lha स्स ssa oba !ha € 6 07 स्व sya (8 89 00 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Notes on the pronunciation of Pāli Pāli was a dialect of northern India in the time of Gotama the Buddha. The earliest known script in which it was written was the Brāhmi script of the third century B.C. After that it was preserved in the scripts of the various countries where Pāli was maintained. In Roman script, the following set of diacritical marks has been established to indicate the proper pronunciation. The alphabet consists of forty-one characters: eight vowels, thirty-two consonants and one nasal sound (niggahita). Vowels (a line over a vowel indicates that it is a long vowel): a - as the “a” in about ā - as the “a” in father i - as the “”in mint i - as the "ee” in see u - as the "u" in put ū - as the "00" in cool e is pronounced as the “ay” in day, except before double consonants when it is pronounced as the "e" in bed: deva, mettā; o is pronounced as the "o" in no, except before double consonants when it is pronounced slightly shorter: loka, photphabba. Consonants are pronounced mostly as in English. g - as the "g" in get c - soft like the "ch" in church v - a very soft -v- or -WAll aspirated consonants are pronounced with an audible expulsion of breath following the normal unaspirated sound. th - not as in ‘three'; rather 't' followed by 'h' (outbreath) ph - not as in ‘photo’; rather 'p' followed by 'h' (outbreath) The retroflex consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tip of the tongueturned back; and l'is pronounced with the tongue retroflexed, almost a combined 'rl sound. The dental consonants: t, th, d, dh, n are pronounced with the tongue touching the upper front teeth. The nasal sounds: n- guttural nasal, like -ng- as in singer ñ - as in Spanish señor n - with tongue retroflexed m - as in hung, ring Double consonants are very frequent in Pāli and must be strictly pronounced as long consonants, thus -nn- is like the English ‘nn' in "unnecessary” 20 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-सूची अ० नि० = अङ्गत्तरनिकाय अट्ठ० = अट्ठकथा अनु टी० = अनुटीका अप० = अपदान अभि० टी० = अभिनवटीका इतिवु० = इतिवृत्तक उदा० = उदान कला० टी० = कलावितरणी टीका कथाव०= कथावत्थु खु० नि० = खुद्दकनिकाय खु० पा० = खुद्दकपाठ चरिया० पि० = चरियापिटक चूळनि० = चूळनिद्देस चूळव० = चूळवग्ग जा० = जातक टी० = टीका थेरगा०-थेरगाथा थेरीगा०-थेरीगाथा दी० नि० = दीघनिकाय ध०प० = धम्मपद ध० स० = धम्मसङ्गणी धातु०=धातुकथा नेत्ति० = नेत्तिपकरण पटि० म० = पटिसम्भिदामग्ग पट्ठा० = पट्ठान परि० = परिवार पाचि० = पाचित्तिय पारा० = पाराजिक पु० टी० = पुराणटीका पु० प० = पुग्गलपञत्ति पे० व० = पेतवत्थु पेटको० = पेटकोपदेस बु० वं० = बुद्धवंस म०नि० = मज्झिमनिकाय महाव० = महावग्ग महानि० = महानिद्देस मि० प० = मिलिन्दपञ्ह मूल टी० = मूलटीका यम० = यमक वि० व० = विमानवत्थु वि० वि० टी० = विमतिविनोदनी टीका वि० सङ्ग० अट्ठ० = विनयसङ्गह अट्ठकथा विनय वि० टी० = विनयविनिच्छय टीका विभं० = विभङ्ग विसुद्धिः = विसुद्धिमग्ग सं० नि० = संयुत्तनिकाय सारत्थ० टी० = सारत्थदीपनी टीका सु० नि० = सुत्तनिपात Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये लीनत्थप्पकासना दुतियो भागो महावग्गटीका 23 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।। दीघनिकाये महावग्गटीका १. महापदानसुत्तवण्णना पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथावण्णना १. यथाजातानं करेरिरुक्खानं घनपत्तसाखाविटपेहि मण्डपसोपेहि सञ्छन्नो पदेसो "करेरिमण्डपो"ति अधिप्पेतो । द्वारेति द्वारसमीपे । द्वारे ठितरुक्खवसेन अञ्जत्थापि समझा अत्थीति दस्सेतुं “यथा"तिआदि वुत्तं । कथं पन भगवा महागन्धकुटियं अवसित्वा तदा करेरिकुटिकायं विहासीति ? सापि बुद्धस्स भगवतो वसनगन्धकुटि एवाति दस्सेन्तो "अन्तोजेतवने"तिआदिमाह। सलळागारन्ति देवदारुरुक्खेहि कतगेहं। पकतिभत्तस्स पच्छतोति भिक्खूनं पाकतिकभत्तकालतो पच्छा, ठितमज्झन्हिकतो उपरीति अत्थो । पिण्डपाततो पटिक्कन्तानन्ति पिण्डपातभोजनतो अपेतानं । तेनाह "भत्तकिच्च"न्तिआदि । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.१-१) मण्डलसण्ठाना माळसङ्केपेन कता निसीदनसाला "मण्डलमाळ"न्ति अधिप्पेताति आह "निसीदनसालाया"ति । पुब्बेनिवासपटिसंयुत्ताति एत्थ पुब्ब-सद्दो अतीतविसयो, निवास-सद्दो कम्मसाधनो, खन्धविनिमुत्तो च निवसितधम्मो नत्थि, खन्धा च सन्तानवसेनेव पवत्तन्तीति आह "पुब्बेनिवुत्थक्खन्धसन्तानसङ्खातेन पुब्बेनिवासेना"ति । योजेत्वाति विसयभावेन योजेत्वा । पवत्तिताति कथिता | धम्मूपसंहितत्ता धम्मतो अनपेताति धम्मी। तेनाह "धम्मसंयुत्ता"ति । उदपादीति पदुद्धारो, तस्स उप्पन्ना जाताति इमिना सम्बन्धो । तं पनस्सा उप्पन्नाकारं पाळियं सङ्खपतोव दस्सितं, वित्थारतो दस्सेतुं "अहो अच्छरिय"न्तिआदि आरद्धं । तत्थ के अनुस्सरन्ति, के नानुस्सरन्तीति पदद्वये पठमयेव सप्पपञ्चनं, न इतरन्ति तदेव पुग्गलभेदतो, कालविभागतो, अनुस्सरणाकारतो, ओपम्मतो निद्दिसन्तेन "तित्थिया अनुस्सरन्ती"तिआदि वुत्तं । अग्गप्पत्तकम्मवादिनोति सिखाप्पत्तकम्मवादिनो “अस्थि कम्म अस्थि कम्मविपाको''ति (पटि० म० १.२३४) एवं कम्मस्सकताजाणे ठिता तापसपरिब्बाजका । चत्तालीसंयेव कप्पे अनुस्सरन्तीति ब्रह्मजालादीसु (दी० नि० १.३३) भगवता तथा परिच्छिज्ज वुत्तत्ता । ततो परं न अनुस्सरन्तीति तथावचनञ्च दिट्ठिगतोपट्टकस्स तेसं आणस्स परिदुब्बलभावतो। सावकाति महासावका तेसहि कप्पसतसहस्सं पुब्बाभिनीहारो । पकतिसावका पन ततो ऊनकमेव अनुस्सरन्ति । यस्मा “कप्पानं लक्खाधिकं एकं, द्वे च असङ्ख्येय्यानी"ति कालवसेन एवं परिमाणो यथाक्कमं अग्गसावकपच्चेकबुद्धानं पुञञाणाभिनीहारो, सावकबोधिपच्चेकबोधिपारमितासम्भरणञ्च, तस्मा वुत्तं "द्वे अग्गसावका...पे०... कप्पसतसहस्सञ्चा"ति । यदि बोधिसम्भारसम्भरणकालपरिच्छिन्नो तेसं तेसं अरियानं अभिजात्राणविभवो, एवं सन्ते बुद्धानम्पिस्स सपरिच्छेदता आपन्नाति चोदनं सन्धायाह "बुद्धानं पन एत्तकन्ति परिच्छेदो नत्थि, यावतकं आकङ्घन्ति, तावतकं अनुस्सरन्ती"ति "यावतकं नेय्यं, तावतकं आणन्ति (महानि० १५६; चूळनि० ८५; पटि० म० ३, ५) वचनतो। सब्ब ताणस्स विय हि बुद्धानं अभिञाआणानम्पि सविसये परिच्छेदो नाम नत्थि, तस्मा यं यं ज्ञातुं इच्छन्ति, ते तं तं जानन्ति एव । अथ वा सतिपि कालपरिच्छेदे करुणूपायकोसल्लपरिग्गहादिना सातिसयत्ता महाबोधिसम्भारानं पञापारमिताय पवत्तिआनुभावस्स परिच्छेदो नाम नत्थि, कुतो तन्निमित्तकानं अभिज्ञाञआणानन्ति वुत्तं "बुद्धानं...पे०... नत्थी'ति । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.१ - १) पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथावण्णना अनुपुब्बपवत्तमानानं खन्धपटिपाटियाति यथापच्चयं खन्धानं अनुपुब्बिया । खन्धप्पवत्तिन्ति वेदनादिक्खन्धप्पवत्तिं । तेसहि अनुभवनादिआकारग्गहणमस्स सातिसयं, तं सञ्ञाभवे तत्थ तत्थ अनुस्सरणवसेन गहेत्वा गच्छन्ता एकवोकारभवे अलभन्ता “न परसन्तीति वुत्ता, जाले पतिता विय सकुणा, मच्छा विय चाति अधिप्पायो । कुण्ठा वियाति दन्धा विय । पङ्गुळा वियाति पीठसप्पिनो विय । दिट्ठि गण्हन्तीति अधिच्चसमुप्पन्निकदिट्ठि गण्हन्ति । यट्टिकोटिहेतुकं गमनं यद्विकोटिगमनं खन्धपरिपाटिया अमुञ्चनतो । एवं सन्तेपीति कामं बुद्धसावकापि असञ्ञभवे खन्धप्पवत्तिं न परसन्ति, एवं सन्तेपि ते बुद्धसावका असञ्ञभवं लङ्घित्वा परतो अनुस्सरन्ति । “वट्टे "तिआदि तथा सं अनुसरणाकारदस्सनं । बुद्धेहि दिन्ननये ठत्वाति " यत्थ पञ्चकप्पसतानि रूपप्पवत्तियेव, न अरूपप्पवत्ति, सो असञ्ञभवो "ति एवं सम्मासम्बुद्धेहि देसितायं धम्मनेत्तियं ठत्वा । एवहि अन्तरा चुतिपटिसन्धियो अपस्सन्ता परतो अनुस्सरन्ति सेय्यथापि आयस्मा सोभितोति (थेरगा० अट्ठ० १.२.१६४ सोभितत्थेरगाथावण्णना) । सो किर पुब्बेनिवासे चिण्णवसी हुत्वा अनुपटिपाटिया अत्तनो निब्बत्तट्ठानं अनुसरन्तो याव सञ्ञभवे अत्तनो अचित्तकपटिसन्धि ताव अद्दस, ततो परं पञ्चकप्पसतपरिमाणे काले चुतिपटिसन्धियो अदिस्वा अवसाने चुतिं दिस्वा “किं नामेत"न्ति आवज्जयमानो नयवसेन “असञ्ञभवो भविस्सती 'ति निट्टं अगमासि । अथ नं भगवा तं कारणं अड्डप्पत्तिं कत्वा पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्तानं अग्गट्ठाने ठपेसि । “चुतिपटिसन्धिं ओलोकेत्वा"ति इदं चुतिपटिसन्धिवसेन तेसं आणस्स सङ्कमनदस्सनं, तेन सब्बसो भवे अनामसित्वा गन्तुं न सक्कोन्तीति दस्सेति । ३ तं तदेव परसन्तीति यथा नाम सरदसमये ठितमज्झन्हिकवेलाय चतुरतनिके गेहे चक्खुमतो पुरिसस्स रूपगतं सुपाकटमेव होतीति लोकसिद्धमेतं, सिया पन तस्स सुखुमतरतिरोहितादिभेदस्स रूपगतस्स अगोचरता । न त्वेव बुद्धानं जतुं इच्छित ञेय्यस्स अगोचरता, अथ खो तं आणालोकेन ओभासितं हत्थतले आमलकं विय सुपाकटं सुविभूतमेव होति तथा भेय्यावरणस्स सुप्पहीनत्ता । तेनाह "बुद्धा पन अत्तना वा परेहि वा दिट्ठकतसुतं, सूरियमण्डलोभाससदिसन्ति च आदि । तथा सावका च पच्चेकबुद्धा चाति । एत्थ तथा सद्देन "अत्तना दिट्ठकतसुतमेव 3 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.२-३-२-३) अनुस्सरन्ती"ति इदं उपसंहरति, तेन सप्पदेसमेव नेसं अनुस्सरणं, न निप्पदेसन्ति निदस्सेति । खज्जोपनकओभाससदिसं आणस्स अतिविय अप्पानुभावताय । सावकानन्ति एत्थ पकतिसावकानं पाकतिकपदीपोभाससदिसं। महासावकानं (थेरगा० अट्ठ० २.२१ वङ्गीसेत्थरगाथावण्णनाय वित्थारो) महापदीपोभाससदिसं। तेनाह विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.४०२) “उक्कापभासदिस"न्ति। ओसधितारकोभाससदिसन्ति उस्सन्ना पभा एताय धीयति, ओसधीनं वा अनुबलप्पदायकत्ता “ओसधी''ति एवं लद्धनामाय तारकाय पभासदिसं। सरदसूरियमण्डलोभाससदिसं सब्बसो अन्धकारविधमनतो। अपटुभावहेतुको विसयग्गहणे चञ्चलभावो खलितं, कुण्ठिभावहेतुको विसयस्स अनभिसमयो पटिघातो। आवज्जनपटिबद्धमेवाति आवज्जनमत्ताधीनं, आवज्जितमत्ते एव यथिच्छितस्स पटिविज्झनकन्ति अत्थो । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । असङ्गअप्पटिहतं पवत्तमानं भगवतो आणं लहुतरेपि विसये, गरुतरे च एकसदिसमेवाति दस्सेतुं "दुब्बलपत्तपुटे"तिआदिना उपमाद्वयं वुत्तं । धम्मकायत्ता भगवतो गुणं आरब्भ पवत्ता "भगवन्तंयेव आरभ उप्पन्ना"ति वुत्तं । तं सब्बम्पीति तं यथावुत्तं सबम्पि पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं कथं । तित्थियानं, सावकानञ्च पुब्बेनिवासानुस्सरणं भगवतो पुब्बेनिवासानुस्सरणस्स हीनुदाहरणदस्सनवसेनेत्थ कथितं । एवज्हि भगवतो महन्तभावो विसेसतो पकासितो होतीति । सोपतोति समासतो । यत्तकोपि पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणस्स पवत्तिभेदो अत्तनो प्राणस्स विसयभूतो, तं सब् तदा यथाकथितं ते भिक्खू सजिपित्वा "इतिपी"ति आहंसु । तस्स च अनेकाकारताय आमेडितवचनं, पि-सद्दो सम्पिण्डनत्यो, "इति खो भिक्खवे सप्पटिभयो बालो"तिआदीसु (म० नि० ३.१२४; अ० नि० १.३.१) विय आकारत्थो इति-सद्दोति दस्सेन्तो "एवम्पी"ति तदत्थमाह । ___ २-३. वृत्तमेवाति एत्थ च इध पाठे यं वत्तब्बं तेन पाठेन साधारणं, तं वुत्तमेवाति अधिप्पेतं, न असाधारणं अपुब्बपदवण्णनाय अधिकतत्ताति तं दस्सेन्तो “अयमेव हि विसेसो"तिआदिमाह । “अस्सोसी"ति इदं सवनकिच्चनिप्फत्तिया वुत्तं सद्दग्गहणमुखेन तदत्थावबोधस्स सिद्धत्ता । तत्थ पन पाळियं “इमं संखियधम्मं विदित्वा'' इच्चेव (दी० नि० १.२) वुत्तं । इमे भिक्खू मम गुणे थोमेन्ति, कथं ? मम पुब्बेनिवासाणं आरब्भाति योजना । निष्फत्तिन्ति किच्चनिप्फत्तिं, तेन कातब्बकिच्चसिद्धन्ति अत्थो । नोति Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४-४) पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तकथावण्णना पुच्छावाची नु-इति इमिना समानत्थो निपातोति वुत्तं "इच्छेय्याथ नू"ति । नन्ति भगवन्तं । "यं भगवा"ति एत्थ यं-सद्देन किरियापरामसनभूतेन “धम्मिं कथं कथेय्या'ति एवं वुत्तं । धम्मिकथाकरणं परामटुं “एतस्सा"ति पदस्स अत्थोति आह "एतस्स धम्मिकथाकरणस्सा"ति, आदरवसेन पन तं द्विक्खत्तुं वुत्तं । ४. सुणाथाति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, एतेन "मनसि करोथा''ति पदं सङ्गण्हाति । सोतावधानं सोतस्स ओदहनं, सुस्सूसाति अत्थो । छिन्नं उपच्छिन्नं वटुमं संसारवटै एतेसन्ति छिन्नवटुमका, सम्मासम्बुद्धा, अञ्जे च खीणासवा, इध पन सम्मासम्बुद्धा अधिप्पेता। तेसहि सब्बसो अनुस्सरणं इतरेसं अविसयो । तेनाह “अनेसं असाधारण"न्ति । पच्चत्तवचने दिस्सति यं-सद्दो कम्मत्थदीपनतो । उपयोगवचने दिस्सति यं-सद्दो पुच्छनकिरियाय कम्मत्थदीपनतो | तन्ति च उपयोगवचनमेव पुच्छति-सद्दस्स द्विकम्मकभावतो। यन्ति येन कारणेनाति अयमेत्थ अत्थोति आह "करणवचने दिस्सती"ति । भुम्मेति दट्ठब्बोति यथा यं-सद्दो न केवलं पच्चत्तउपयोगेसु एव, अथ खो करणेपि दिस्सति, एवं इध भुम्मेति दट्ठब्बो। दससहस्सिलोकधातुन्ति जातिक्खेत्तभूतं दससहस्सचक्कवाळं । उन्नादेन्तो उप्पज्जि अनेकच्छरियपातुभावपटिमण्डितत्ता बुद्धप्पादस्स । कालस्स भद्दता नाम तत्थ सत्तानं गुणविभूतिया, बुद्धप्पादपरमा च गुणविभूतीति तब्बहुलता यस्स कप्पस्स भद्दताति आह “पञ्चबुझुप्पादपटिमण्डितत्ता सुन्दरकप्पे"ति, तथा सारभूतगुणवसेन "सारकप्पे"ति । "इमं कप्पं थोमेन्तो एवमाहा'"ति वत्वा इमस्स कप्पस्स तथा थोमेतब्बता अनञसाधारणाति दस्सेतुं “यतो पट्ठाया"तिआदि वुत्तं । तत्थ यतो पट्टायाति यतो पभुति अभिनीहारो कतोति मनुस्सत्तादिअट्ठङ्गसमन्नागतो अभिनीहारो पवत्तितो। संसारस्स अनादिभावतो इमस्स भगवतो अभिनीहारतो पुरेतरं उप्पन्ना सम्मासम्बुद्धा अनन्ता अपरिमेय्याति तेहि उप्पन्नकप्पे निवत्तेन्तो "एतस्मिं अन्तरे"ति आह । कामं दीपङ्करबुद्धप्पादे अयं भगवा अभिनीहारमकासि, तस्स पन भगवतो निब्बत्ति इमस्स अभिनीहारतो पुरिमतराति वुत्तं "अम्हाकं...पे०... निब्बत्तिंसू"ति । असङ्ख्येय्यकप्पपरियोसानेति महाकप्पानं असङ्ख्येय्यपरियोसाने । एस नयो इतो परेसुपि । "इतो तिंसकप्पसहस्सानं उपरी"ति एतेन पदुमुत्तरस्स भगवतो, सुमेधस्स च भगवतो अन्तरे एकूनसत्ततिकप्पसहस्सानि बुद्धसुञानि अहेसुन्ति दस्सेति। "इतो अट्ठारसत्रं कप्पसहस्सानं उपरी"ति इमिना सुजातस्स भगवतो, अत्थदस्सिस्स च भगवतो Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.४-४) अन्तरे एकेनूनानि द्वादसकप्पसहस्सानि बुद्धसुञानि अहेसुन्ति दस्सेति । "इतो चतुनवुते कप्पे"ति इमिना धम्मदस्सिस्स भगवतो, सिद्धत्थस्स च भगवतो अन्तरे छाधिकनवसतुत्तरानि सत्तरसकप्पसहस्सानि बुद्धसुञानि अहेसुन्ति दस्सेति । “एकतिसे कप्पे"ति इमिना विपस्सिस्स भगवतो, सिखिस्स च भगवतो अन्तरे सट्टि कप्पानि बुद्धसुचानि अहेसुन्ति दस्सेति । ते सब्बेपि पदुमुत्तरस्स भगवतो ओरं सुमेधादीहि उप्पन्नकप्पेहि सद्धिं समोधानियमाना सतसहस्सा कप्पा होन्ति, यत्थ महासावकादयो (थेरगा० अट्ठ० २.२१ वङ्गीसत्थेरगाथावण्णना) विवट्ट पनिस्सयानि कुसलानि सम्भरिंसु । बुद्धसुज्ञेपि लोके पच्चेकबुद्धा उप्पज्जित्वा तेसं पुरिसविसेसानं पुञाभिसन्दाभिबुद्धिया पच्चया होन्ति । "एवमय"न्तिआदि वुत्तमेवत्थं निगमनवसेन वदति । __ "किं पनेत"न्तिआदि पुब्बनिमित्तविभावनत्थाय आरद्धं । तत्थ एतन्ति बुद्धानं उप्पज्जनं । कप्पसण्ठानकालस्मिन्ति विवट्टकप्पस्स सण्ठहनकाले । एकमसङ्ख्येय्यन्ति संवदृट्टायिं सन्धायाह । एकङ्गणं हुत्वा ठितेति पब्बतरुक्खगच्छादीनं, मेघादीनञ्च अभावेन विवटंअङ्गणं हुत्वा ठिते । लोकसनिवासेति भाजनलोकेन सन्निविसितब्बट्टाने । वीसति यट्ठियो उसभं । "उसभमत्ता, द्वे उसभमत्ता'"तिआदिना पच्चेकं मत्ता-सद्दो योजेतब्बो। योजनसहस्समत्ता हुत्वाति पतमानाव उदकधारा योजनसहस्समत्तं आकासट्टानं फरित्वा पवत्तिया योजनसहस्समत्ता हुत्वा । याव अविनटुब्रह्मलोकाति याव आभस्सरब्रह्मलोका, याव सुभकिण्हब्रह्मलोका, याव वेहप्फलब्रह्मलोकाति अत्थो । वातवसेनाति सट्ठिसहस्साधिकनवयोजनसतसहस्सुब्बेधस्स सन्धारकवातमण्डलस्स वसेन । महाबोधिपल्लङ्कोति महाबोधिपल्लङ्कप्पदेसमाह । तस्स पच्छा विनासो, पठमं सण्ठहनञ्च धम्मतावसेन वेदितब् । तत्थाति तस्मिं पदेसे । पुब्बनिमित्तं हुत्वाति बुद्धप्पादस्स पुब्बनिमित्तं हुत्वा। पुब्बनिमित्तसन्निस्सयो हि गच्छो निस्सितवोहारेन तथा वुत्तो। तेनाह "तस्सा"तिआदि । कणिकाबद्धानि हुत्वाति आबद्धकण्णिका विय हुत्वा । सुद्धावासब्रह्मानो अत्तमना...पे०... गच्छन्तीति योजना। वेहप्फलेपि सुभकिण्हे सङ्गहेत्वा "नव ब्रह्मलोका"ति वुत्तं । तथा हि ते चतुत्थिंयेव विज्ञाणट्ठितिं भजन्ति । निक्खमन्तेसूति महाभिनिक्खमनं अभिनिक्खमन्तेसु । अभिजाति पनेत्थ जातिभावसामओन गब्भोक्कन्तियाव सङ्गहिता । निमीयति अनुमीयति फलं एतेनाति निमित्तं, कारणं । आपकम्पि हि कारणं दिस्वा तस्स अब्यभिचारीभावेन फलं सिद्धमेव कत्वा गण्हि, यथा तं असितो इसि अभिजातियं महापुरिसस्स लक्खणानि दिस्वा तेसं अव्यभिचारीभावेन बुद्धगुणे सिद्धे एव कत्वा गण्हि, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५-७-५-७) जातिपरिच्छेदादिवण्णना एवं पन गव्हमानं तन्निमित्तकं फलं तदानुभावेन सिद्धं विय वोहरीयति तब्भावे भावतो । तेनाह "तेसं निमित्तानं आनुभावेना"तिआदि । तथा चाह भगवा “सो तेन लक्खणेन समन्नागतो...पे०... राजा समानो किं लभति, बुद्धो समानो किं लभती"ति (दी० नि० ३.२०२, २०४) च एवमादि । इममत्थन्ति पञ्च बुद्धा इमस्मिं कप्पे उप्पज्जिस्सन्तीति इममत्थं याथावतो जानिंसु । जातिपरिच्छेदादिवण्णना ५-७. कप्पपरिच्छेदवसेनाति “इतो सो एकनवुते कप्पे''तिआदिना यत्थ यत्थ कप्पे ते ते बुद्धा उप्पन्ना, तस्स तस्स कप्पस्स परिच्छिन्दनवसेन परिजाननवसेन । “इदं तन्ति हि नियमेत्वा परिच्छिज्ज जाननं परिच्छिन्दनं परिच्छेदो। परित्तन्ति इत्तरं । लहुकन्ति सल्लहुकं, आयुनो अधिप्पेतत्ता रस्सन्ति वुत्तं होति । तेनाह "उभयमेतं अप्पकस्सेव वेवचन"न्ति । ___ "अप्पं वा भिय्यो"ति अविसेसजोतनं “वीसं वा तिंसं वा''तिआदिना अनियमितवसेनेव यथालाभतो ववत्थपेत्वा अयञ्च नयो अपचुरोति दस्सेन्तो "एवं दीघायुको पन अतिदुल्लभो "ति आह । इदं तं विसेसववत्थापनं पुग्गलेसु पक्खिपित्वा दस्सेन्तो "तत्थ विसाखा"तिआदिमाह । यदि एवं कस्मा अम्हाकं भगवा तत्तकम्पि कालं न जीवि, ननु महाबोधिसत्ता चरिमभवे अतिवियउळारतमेन पुञाभिसङ्घारेन पटिसन्धिं गण्हन्तीति ? सच्चमेतन्ति । तत्थ कारणं दस्सेतुं "विपस्सीआदयो पना"तिआदि वुत्तं । तत्थ अभिजातिया मेत्ताठानताय अभिसङ्खारविज्ञाणस्स मेत्तापुब्बभागता। तदनुगुणन्हि तेसं विसेसतो पटिसन्धिविज्ञाणं । तस्स विसेसतो बहुलं खेमवितक्कूपनिस्सयताय सोमनस्ससहगतता, अनञसाधारणपरोपदेसरहितञाणविसेसूपनिस्सयताय आणसम्पयुत्तता, असारिकता च वेदितब्बा, असङ्ख्येय्यं आयु आधारविसेसतो, निस्सयविसेसतो, पटिपक्खदूरीभावतो, पवत्तिआकारविसेसतो च अपरिमेय्यानुभावताय कारणस्स । तत्थ चिरतरं कालं सन्तानस्स पारमितापरिभावितता आधारविसेसता। अलोभज्झासयादिआसयसम्पदा निस्सयविसेसता। लाभमच्छरियादिपापधम्मविक्खम्भनं पटिपक्खदूरीभावो। सब्बसत्तानं सकलवट्टदुक्खनिस्सरणत्थाय आयूहना पवत्तिआकारविसेसो वेदितब्बो । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.५-७-५-७) अयञ्च नयो सब्बेसं महाबोधिसत्तानं चरिमभवाभिनिब्बत्तककम्मायूहने साधारणोति तस्स फलेनापि एकसदिसेनेव भवितब्बन्ति आह "इति सब्बे बुद्धा असङ्ख्येय्यायुका"ति, असङ्ख्येय्यकालावत्थानायुकाति अत्थो । असङ्ख्येय्यायुकसंवत्तनसमत्थं परिचितं कम्मं होति, बुद्धा पन तदा मनुस्सानं परमायुप्पमाणानुरूपमेव कालं ठत्वा परिनिब्बायन्ति ततो परं ठत्वा साधेतब्बपयोजनाभावतो, धम्मतावेसाति वा वेदितब्बा । अट्ठकथायं पन ततो परं पन अट्ठानस्स "उतुभोजनविपत्तिया''ति (दी० नि० अट्ठ० २.५) कारणं वुत्तं, “तं लोकसाधारणं लोके जातसंवुद्धानं तथागतानं न होती"ति न सक्का वस्तुं । तथा हि नेसं रोगकिलमथादयो होन्तियेव । उतुभोजनवसेनाति असम्पन्नस्स, सम्पन्नस्स च उतुनो, भोजनस्स च वसेन यथाक्कम आयु हायतिपि वड्डतिपि। आयूति च परमायु अधिप्पेतं । तत्थ यं वत्तब्, तं ब्रह्मजालादिटीकायं (दी० नि० टी० १.४०) वुत्तमेव । इदानि तमत्थं समुदागमतो पट्ठाय दस्सेतुं “तत्थ यदा"तिआदि वुत्तं । धम्मे नियुत्ता धम्मिका, न धम्मिका अधम्मिका, हिंसादिअधम्मपसुता । अधम्मिकमेव होति इस्सरजनानं अनुवत्तनेन, परेसं दिवानुगतिआपज्जनेन च। उण्हवलाहका देवताति उण्हउतुनो पच्चयभूतमेघमालासमुट्ठापका देवपुत्ता । तेसं किर तथा चित्तुप्पादसमकालमेव यथिच्छितवानं उण्हं फरमाना वलाहकमाला नातिबहला इतो चितो नभं छादेन्ती वितनोति । एस नयो सीतवलाहकवस्सवलाहकासु। अब्भवलाहका पन देवता सीतुण्हवस्सेहि विना केवलं अब्भपटलस्सेव समुट्ठापका वेदितब्बा | तासन्ति एत्थ “मित्ता''ति पदं आनेत्वा योजना । कामं हेट्ठा वुत्ता सत्तविधापि देवता चातुमहाराजिकाव ता पन तेन तेन विसेसेन वत्वा इदानि तदछे पठमभूमिके कामावचरदेवे सामञतो गण्हन्तो "चातुमहाराजिका"ति आह । तासं अधम्मिकतायाति राजूनं अधम्मिकभावमूलकेन उपराजादिअधम्मिकभावपरम्पराभतेन तासं देवतानं अधम्मिकभावेन । विसमं चन्दिमसूरिया परिहरन्तीति बह्वाबाधतादि अनिट्ठफलूपनिस्सयभूतस्स यथावुत्तअधम्मिकतासञितस्स साधारणस्स पापकम्मस्स बलेन विसमं वायन्तेन वायुना पीळियमाना चन्दिमसूरिया सिनेरुं परिक्खिपन्ता विसमं परिवत्तन्ति यथामग्गेन नप्पवत्तन्तीति । अस्सिदं यथा चन्दिमसूरियानं विसमपरिवत्तनं विसमवातसङ्खोभहेतुकं, एवं उतुवस्सादिविसमप्पवत्तीति दस्सेतुं “वातो यथामग्गेन न वायती"तिआदि वुत्तं । देवतानन्ति सीतवलाहकदेवतादिदेवतानं । तेनाह "सीतुण्हभेदो उतू''तिआदि । तस्मिं असम्पज्जन्तेति तस्मिं यथावुत्ते वस्सबीजभूते उतुम्हि यथाकालं सम्पत्तिं अनुपगच्छन्ते । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८-८) बोधिपरिच्छेदवण्णना "न सम्मा देवो वस्सती"ति सोपतो वुत्तमत्थं विवरन्तो “कदाची"तिआदिमाह । तत्थ कदाचि वस्सतीति कदाचि अवस्सनकाले वस्सति । कदाचि न वस्सतीति कदाचि वस्सितब्बकाले न वस्सति । कत्थचि वस्सति, कत्थचि न वस्सतीति पदेसमाह । "वस्सन्तोपी"तिआदि “कदाचि वस्सति, कदाचि न वस्सती''ति पदद्वयस्सेव अत्थविवरणं । विगतगन्धवण्णरसादीति आदि-सद्देन निरोजतं सङ्गण्हाति। एकस्मिं पदेसेति भत्तपचनभाजनस्स एकपस्से । उत्तण्डुलन्ति पाकतो उक्कन्ततण्डुलं । तीहाकारेहीति सब्बसो अपरिणतं, एकदेसेन परिणतं, दुपरिणतञ्चाति एवं तीहाकारेहि। पच्चति पक्कासयं उपगच्छति । अप्पायुकाति एत्थ “दुब्बण्णा चा"तिपि वत्तब्बं । एवं उतुभोजनवसेन आयु हायति हेतुम्हि अपरिक्खीणेपि पच्चयस्स परिदुब्बलत्ता। __“यदा पना"तिआदि सुक्कपक्खस्स अत्थो वुत्तविपरियायेन वेदितब्बो । वड्डित्वा वड्डित्वा परिहीनन्ति वेदितब्बं । कस्मा ? न हि एकस्मिं अन्तरकप्पे अनेके बुद्धा उप्पज्जन्ति, एको एव पन उप्पज्जतीति । इदानि तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं "कथ"न्तिआदि वुत्तं । चत्तारि ठत्वाति अच्चन्तसंयोगे उपयोगवचनं । यंयंआयुपरिमाणेसूति यत्तकयत्तकपरमायुप्पमाणेसु । तेसम्पीति बुद्धानं । तं तदेव आयुपरिमाणं होति, तत्थ कारणं हेट्ठा वुत्तमेव । जातिपरिच्छेदादिवण्णना निट्ठिता बोधिपरिच्छेदवण्णना ८. मूलेति मूलावयवस्स समीपे । तं पन तस्सा हेट्ठापदेसो होतीति आह "पाटलिरुक्खस्स हेटा'ति । तंदिवसन्ति अत्तना जातदिवसे, तंदिवसन्ति वा तं भगवतो अभिसम्बोधिदिवसे । सो किर बोधिरुक्खो सालकल्याणी विय पथविया अब्भन्तरे एव पुरेतरं वड्डेन्तो अभिसम्बोधिदिवसे पथविं उब्भिज्जित्वा उद्वितो रतनसतं उच्चो, तावदेव च वित्थतो हुत्वा नभं पूरेन्तो अट्ठासि । अयम्पि किरेतस्स रुक्खभावेन विय अजेहि वेमत्तता। घनसंहतनाळवण्टताय कणिकबद्धेहि विय पुप्फेहि। एकसञ्छन्नाति पुप्फानं Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.९-१०) निरन्तरताय एकज्झं सञ्छन्ना, तत्थ तत्थ निबद्ध...पे०... समुज्जलन्ति तहं तह ओलम्बितकुसुमदामेहि चेव तहं तहं खित्तमालापिण्डीहि च इतो. चितो विप्पकिण्णविविधवण्टमुत्तपुप्फेहि च सम्मदेव उज्जलं । अचमनं सिरीसम्पत्तानीति अञमञस्स सिरिया सोभाय सम्पन्नानि । बुद्धगुणविभवसिरिन्ति सम्मासम्बुद्धेहि अभिगन्तब्बगुणविभूतिसोभं | पटिविज्झमानोति अधिगच्छन्तो। सेतम्बरुक्खोति सेतवण्णफलो अम्बरुक्खो। तदेवाति पाटलिया वुत्तप्पमाणमेव । एकतोति एकपस्से । सुरसानीति सुमधुररसानि । एकोव पल्लङ्कोति एकोव पल्लङ्कप्पदेसो। सो सो रुक्खो "बोधी"ति बुच्चति बुज्झन्ति एत्थाति कत्वा । सावकयुगपरिच्छेदवण्णना ९. सावकपरिच्छेदेति सावकयुगपरिच्छेदे | "खण्डतिस्स''न्ति द्वेपि एकज्झं गहेत्वा एकत्तवसेन वुत्तन्ति आह “खण्डो च तिस्सो चा"ति, बुद्धानं सहोदरो, वेमातिकोपि वा जेट्ठभाता न होतीति “एकपितिको कनिट्ठभाता"ति वुत्तं । अवसेसेहि पुत्तेहि । “पञापारमिया मत्थकं पत्तो"ति वत्वा तस्स मत्थकप्पत्तं गुणविसेसं दस्सेतुं “सिखिना भगवता"तिआदि वुत्तं । उत्तरोति उत्तमो। पुन उत्तरोति थेरं नामेन वदति । पारन्ति परकोटिमत्थकं । पञ्जाविसयेति पञ्चाधिकारे | पवत्तिहानवसेन हि पवत्तिं वदति । सावकसन्निपातपरिच्छेदवण्णना १०. उपोसथन्ति आणापातिमोक्खं । दुतियततियेसूति दुतिये, ततिये च सावकसन्निपाते । एसेव नयोति चतुरङ्गिकतं अतिदिसति । अभिनीहारतो पट्ठाय वत्थु कथेत्वा पब्बज्जा दीपेतब्बा, सा पन यस्मा मनोरथपूरणियं अङ्गुत्तरट्ठकथायं (अ० नि० अट्ठ० १.१.२११) वित्थारतो आगता, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बाति । 10 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.११-११) उपट्ठाकपरिच्छेदवण्णना उपट्ठाकपरिच्छेदवण्णना ११. निबद्धपट्ठाकभावन्ति आरम्भतो पट्ठाय याव परिनिब्बाना नियतउपट्ठाकभावं । अनियतुउपट्ठाका पन भगवतो पठमबोधियं बहू अहेसुं । तेनाह "भगवतो ही"तिआदि । इदानि आनन्दत्थेरो येन कारणेन सत्थु निबद्धुपट्ठाकभावं उपगतो, यथा च उपगतो, तं दस्सेतुं “तत्थ एकदा"तिआदि वुत्तं । “अहं इमिना मग्गेन गच्छामी"ति आह अनयब्यसनापादकेन कम्मुना चोदियमानो । अथ नं भगवा तमत्थं अनारोचेत्वाव खेमं मग्गं सन्धाय "एहि भिक्खु इमिना गच्छामा"ति आह। कस्मा पनस्स भगवा तमत्थं नारोचेसीति ? आरोचितेपि असद्दहन्तो नादियिस्सति । तहि तस्स होति दीघरत्तं अहिताय दुक्खायातिति । तेति ते गमनं, "त"न्ति वा पाठो । अन्चासत्तोति अनुबद्धो, उपद्दतो वा । धम्मगारवनिस्सितो संवेगो धम्मसंवेगो “अम्हेसु नाम तिद्वन्तेसु भगवतोपि ईदिसं जात"न्ति। “अहं उपट्ठहिस्सामी"ति वदन्तो धम्मसेनापति अस्थतो एवं वदन्तो नाम होतीति "अहं भन्ते तुम्हे"तिआदि वुत्तं । असुझायेव मे सा दिसाति असुझायेव मम सा दिसा । तत्थ कारणमाह "तव ओवादो बुद्धानं ओवादसदिसो"ति। वसितुं न दस्सतीति एकगन्धकुटियं वासं न लभिस्सतीति अधिप्पायो । परम्मुखा देसितस्सापि धम्मस्साति सुत्तन्तदेसनं सन्धाय वुत्तं । अभिधम्मदेसना पनस्स परम्मुखाव पवत्ता पगेव याचनाय । तस्सा वाचनामग्गोपि सारिपुत्तत्थेरप्पभवो। कस्मा ? सो निद्देसपटिसम्भिदा विय थेरस्स भिक्खुतो गहितधम्मक्खन्धपक्खियो। अपरे पन "धम्मभण्डागारिको पटिपाटिया तिकदुकेसु देवसिकं कतोकासो भगवन्तं पऽहं पुच्छि, भगवापिस्स पुच्छितपुच्छितं नयदानवसेन विस्सज्जेसि । एवं अभिधम्मोपि सत्थारा परम्मुखा देसितोपि थेरेन सम्मुखा पटिग्गहितोव अहोसी"ति वदन्ति | सब्बं वीमंसित्वा गहेतब्बं । अग्गुपट्टाकोति उपट्ठाने सक्कच्चकारिताय अग्गभूतो उपट्ठाको । थेरो हि उपट्ठाकट्ठानं लद्धकालतो पट्ठाय भगवन्तं दुविधेन उदकेन, तिविधेन दन्तकट्ठेन, पादपरिकम्मेन, गन्धकुटिपरिवेणसम्मज्जनेनाति एवमादीहि किच्चेहि उपट्टहन्तो “इमाय नाम वेलाय सत्थु इदं नाम टुं वट्टति, इदं नाम कातुं वट्टती''ति चिन्तेत्वा तं तं निष्फादेन्तो महतिं दण्डदीपिकं गहेत्वा एकरत्तिं गन्धकुटिपरिवेणं नव वारे अनुपरियायति । एवं हिस्स 11 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.१२-१२) अहोसि “सचे मे थिनमिद्धं ओक्कमेय्य, भगवति पक्कोसन्ते पटिवचनं दातुं नाहं सक्कुणेय्य"न्ति, तस्मा सब्बरत्तिं दण्डदीपिकं हत्थेन न मुञ्चति । तेन वुत्तं "अग्गुपट्ठाको'ति । १२. पितुमातुजातनगरपरिच्छेदो पितुमुखेन आगतत्ता “पितिपरिच्छेदो"ति वुत्तो । विहारं पाविसीति गन्धकुटिं पाविसि । एत्तकं कथेत्वाति कप्पपरिच्छेदादिनववारपटिमण्डितं विपस्सीआदीनं सत्तन्नं बुद्धानं पुब्बेनिवासपटिसंयुत्तं एत्तावता देसनं देसेत्वा । कस्मा पनेत्थ भगवा विपस्सीआदीनं सत्तन्नंयेव बुद्धानं पुब्बेनिवासं कथेसि, न बुद्धवंसदेसनायं (बु० ० ६४ गाथादयो) विय पञ्चवीसतिया बुद्धानं, ततो वा पन भिय्योति ? अनधिकारतो, पयोजनाभावतो च । बुद्धवंसदेसनायव्हि (बु० वं० ७५) “कीदिसो ते महावीर, अभिनीहारो नरुत्तम । कम्हि काले तया वीर, पत्थिता बोधिमुत्तमा"ति ।। आदिना - पवत्तं तं पुच्छं अधिकारं अट्ठप्पत्तिं कत्वा यस्स सम्मासम्बुद्धस्स पादमूले अत्तना महाभिनीहारो कतो, तं दीपङ्करं भगवन्तं आदि कत्वा येसं चतुवीसतिया बुद्धानं सन्तिका बोधिया लद्धब्याकरणो हुत्वा तत्थ तत्थ पारमियो पूरेसि, तेसं पटिपत्तिसङ्घातो पुब्बेनिवासो, अत्तनो च पटिपत्ति कथिता, इध पन तादिसो अधिकारो नत्थि, येन दीपङ्करतो पट्ठाय, ततो वा पन पुरतो बुद्धे आरब्भ पुब्बेनिवासं कथेय्य | तस्मा न एत्थ बुद्धवंसदेसनायं विय पुब्बेनिवासो वित्थारितो। यस्मा च बुद्धानं देसना नाम देसनाय भाजनभूतानं पुग्गलानं आणबलानुरूपा, न अत्तनो आणबलानुरूपा, तस्मा तत्थ अग्गसावकानं, महासावकानं, (थेरगा० अट्ठ० २.२१ वङ्गीसत्थेरगाथावण्णना) तादिसानञ्च देवब्रह्मानं वसेन देसना वित्थारिता। इध पन पकतिसावकानं, तादिसानञ्च देवतानं वसेन पुब्बेनिवासं कथेन्तो सत्तन्नमेव बुद्धानं पुब्बेनिवासं कथेसि। तथा हि ने भगवा पलोभनवसेन समुत्तेजेतुं सप्पपञ्चताय कथाय देसनं मत्थकं अपापेत्वाव गन्धकुटिं पाविसि । तथा च इमिस्सा एव देसनाय अनुसारतो आटानाटियपरित्त- (दी० नि० ३.२७५) देसनादयो पवत्ता। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१२-१२) सम्बहुलवारवण्णना १३ अपिचेत्थ भगवा अत्तनो सुद्धावासचारिकाविभाविनिया उपरिदेसनाय सङ्गहत्थं विपस्सीआदीनं एव सत्तनं सम्मासम्बुद्धानं पुब्बेनिवासं कथेसि । तेसंयेव हि सावका तदा चेव एतरहि च सुद्धावासभूमियं ठिता, न अओसं परिनिब्बुतत्ता । “सिद्धत्थतिस्सफुस्सानं किर बुद्धानं सावका सुद्धावासेसु उपपन्ना उपपत्तिसमनन्तरमेव इमस्मिं सासने उपकादयो विय अरहत्तं अधिगन्त्वा नचिरस्सेव परिनिब्बायिंसु, न तत्थ तत्थ यावतायुकं अटुंसू'ति वदन्ति । तथा येसं सम्मासम्बुद्धानं पटिवेधसासनं एकंसतो निच्छये न अज्जापि धरति, न अन्तरहितं, ते एव कित्तेन्तो विपस्सीआदीनंयेव भगवन्तानं पुब्बेनिवासं इमस्मिं सुत्ते कथेसि वेनेय्यज्झासयवसेन । अपुब्बाचरिमनियमो पन अपरापरं संसरणकसत्तवासवसेन एकिस्सा लोकधातुया इच्छितोति न तेनेतं विरुज्झतीति दट्ठब्बं । निरन्तरं मत्थकं पापेत्वाति अभिजातितो पट्ठाय याव पातिमोक्खुद्देसो याव ता बुद्धकिच्चसिद्धि, ताव मत्थकं सिखं पापेत्वा । न ताव कथितोति योजना । तन्तिन्ति धम्मतन्तिं, परियत्तिन्ति अत्थो । पुत्तपुत्तमातुयानविहारधनविहारदायकादीनं सम्बहुलानं अत्थानं विभावनवसेन पवत्तवारो सम्बहुलवारो। सम्बहुलवारवण्णना कामञ्चायं पाळियं अनागतो, अट्ठकथासु आगतत्ता पन आनेत्वा दीपेतब्बोति तं दीपेन्तो “सब्बबोधिसत्तानही"तिआदिमाह । कुलवंसो कुलानुक्कमो। पवेणीति परम्परा । "कस्मा"ति पुत्तुष्पत्तिया कारणं पुच्छित्वा तं विस्सज्जेन्तो "सब्ब बोधिसत्तानही"तिआदिमाह, तेन तेसं जातनगरादि पञ्जायमानं एकंसतो मनुस्सभावसञ्जाननत्थं इच्छितब्बं, अञथा यथाधिप्पेतबुद्धकिच्चसिद्धि एव न सियाति दस्सेति, यतो महासत्तानं चरिमभवे मनुस्सलोके एव पातुभावो, न अञत्थ । सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना चन्दादीनं सोभाविसेसं रहेति चजापेतीति राहु, राहुग्गहो, इध पन राहु वियाति राहु। बन्धनन्ति च अनत्थुप्पत्तिट्ठानतं सन्धाय वुत्तं । तथा महासत्तेन वुत्तवचनमेव गहेत्वा कुमारस्स "राहुलो"ति नामं अकंसु । अथाति निपातमत्तं । रोचिनीति रोचनसीला, 13 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.१२-१२) उज्जलरूपाति अत्थो। रुचग्गतीति रुचं पभातं आगतिभूता, ग-कारागमं कत्वा वुत्तं । इत्थिरतनभावतो मनुस्सलोके सब्बासं इत्थीनं बिम्बपटिच्छन्नभूताति बिम्बा । झाना वुढायाति पादकज्झानतो उट्ठाय । अट्ठङ्गुलुब्बेधाति अट्ठङ्गुलप्पमाणबहलभावा । चूळंसेन छादेत्वाति तिरियभागेन ठपनवसेन सब् विहारट्ठानं छादेत्वा। सुवण्णयट्ठिफालेहीति फालप्पमाणाहि सुवण्णयट्ठीहि । सुवण्णहत्थिपादानीति पकतिहत्थिपादपरिमाणानि सुवण्णखण्डानि । वुत्तनयेनेवाति चूळंसेनेव । सुवण्णकट्टीहीति सुवण्णखण्डेहि । सलक्खणानन्ति लक्खणसम्पन्नानं सहस्सारानं । ___बोधिपल्लङ्कोति अभिसम्बुज्झनकाले निसज्जट्ठानं । अविजहितोति बुद्धानं तथानिसज्जाय अनञत्थभावीभावतो अपरिच्चत्तो । तेनाह “एकस्मिंयेव ठाने होती"ति । पठमपदगण्ठिकाति पच्छिमे सोपानफलके ठत्वा ठपियमानस्स दक्खिणपादस्स पतिद्वहनट्ठानं । तं पन यस्मा दळ्हं थिरं केनचि अभेज्जं होति, तस्मा “पदगण्ठी"ति वुत्तं । यस्मिं भूमिभागे इदानि जेतवनमहाविहारो, तत्थ यस्मिं ठाने पुरिमानं सब्बबुद्धानं मञ्चा पञ्चत्ता, तस्मिंयेव पदेसे अम्हाकम्पि भगवतो मञ्चो पत्तोति कत्वा "चत्तारि मञ्चपादट्ठानानि अविजहितानेव होन्तीति वुत्तं । मञ्चानं पन महन्तखुद्दकभावेन मञ्चपञापनपदेसस्स महन्तामहन्तता अप्पमाणं, बुद्धानुभावेन पन सो पदेसो सब्बदा एकप्पमाणोयेव होतीति “चत्तारि मञ्चपादट्ठानानि अविजहितानेव होन्ती"ति वुत्तन्ति दट्ठब्बं । विहारोपि न विजहितो येवाति एत्थापि एसेव नयो । पुरिमं विहारट्ठानं न परिच्चजतीति हि अत्थो । विसिट्ठा मत्ता विमत्ता, विमत्ताव वेमत्तं, विसदिसताति अत्थो । पमाणं आरोहो । पधानं दुक्करकिरिया । रस्मीति सरीरप्पभा । “सत्तानं पाकतिकहत्थेन छहत्थो मज्झिमपुरिसो, ततो तिगुणं भगवतो सरीरप्पमाणन्ति भगवा अट्ठारसहत्थो"ति वदन्ति । अपरे पन भणन्ति "मनुस्सानं पाकतिकहत्थेन चतुहत्थो मज्झिमपुरिसो, ततो तिगुणं भगवतो सरीरप्पमाणन्ति भगवा द्वादसहत्थो उपादिन्नकरूपधम्मवसेन, समन्ततो पन ब्याममत्तं ब्यामप्पभा फरतीति उपरि छहत्थं अब्भुग्गतो, बहलतरप्पभा रूपेन सद्धिं अट्ठारसहत्थो होती"ति | 14 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१३-१३) सम्बहुलपरिच्छेदवण्णना अद्धनियन्ति दीघकालं। अज्झासयपटिबद्धन्ति बोधिसम्भारसम्भरणकाले तथापवत्तज्झासयाधीनं, तथापवत्तपत्थनानुरूपं विपुलं, विपुलतरञ्च होतीति अत्थो । स्वायमत्थो चरियापिटकवण्णनायं वृत्तनयेनेव वेदितब्बो। एत्थ च यस्मा सरीरप्पमाणं, पधानं, सरीरप्पभा च बुद्धानं विसदिसाति इध पाळियं अनागता, तस्मा तेहि सद्धिं वेमत्ततासाम न आयुकुलानिपि इध आहरित्वा दीपितानि । पटिविद्धगुणेसूति अधिगतसब्ब गुणेसु । ननु च बोधिसम्भारेसु, वेनेय्यपुग्गलपरिमाणे च वेमत्तं नत्थीति ? सच्चं नत्थि, तदुभयं पन बुद्धगुणग्गहणेन गहितमेव होतीति न उद्धटं। यदग्गेन हि सब्बबुद्धानं बुद्धगुणेसु वेमत्तं नत्थि, तदग्गेन नेसं सम्बोधिसम्भारेसुपि वेमत्तं नत्थीति । कस्मा ? हेतुअनुरूपताय फलस्स, एकन्तेनेव वेनेय्यपुग्गलपरिमाणे वेमत्तभावो विभावितो। महाबोधिसत्तानहि हेतुअवत्थायं सम्भतूपनिस्सयिन्द्रियपरिपाका वेनेय्यपुग्गला चरिमभवे अरहत्तसम्पत्तिया परिपोसितानि कमलवनानि सूरियरस्मिसम्फस्सेन विय तथागतगुणानुभावसम्फस्सेन विबोधं उपगच्छन्तीति दीपेसुं अट्ठकथाचरिया । निधिकुम्भोति चत्तारो महानिधयो सन्धाय वदति । जातो चाति । च-सद्देन कतमहाभिनीहारो चाति अयम्पि अत्थो सङ्गहितोति दट्ठब्बो । वुत्तं हेतं बुद्धवंसे - "तारागणा विरोचन्ति, नक्खत्ता गगनमण्डले । विसाखा चन्दिमायुत्ता, धुवं बुद्धो भविस्सती"ति ।। (बु० वं० ६५) "एतेनेव च सब्बबुद्धानं विसाखानक्खत्तेनेव महाभिनीहारो होती''ति च वदन्ति । १३. अयं गतीति अयं पवत्ति पवत्तनाकारो, अछे पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्ता इमिना आकारेन अनुस्सरन्तीति अत्थो, यस्मा चुतितो पट्ठाय याव पटिसन्धि, ताव अनुस्सरणं आरोहनं अतीतअतीततरअतीततमादिजातिसङ्खाते पुब्बेनिवासे आणस्स अभिमुखभावेन पवत्तीति कत्वा । तस्मा पटिसन्धितो पट्ठाय याव चुति, ताव अनुस्सरणं ओरोहनं पुब्बेनिवासे पटिमुखभावेन आणस्स पवत्तीति आह "पच्छामुखं आणं पेसेत्वा"ति । चुतिगन्तब्बन्ति यं पनिदं चुतिया जाणगतिया गन्तब्, तं गमनं बुज्झनन्ति अत्थो । गरुकन्ति भारियं दुक्करं । तेनाह “आकासे पदं दस्सेन्तो विया"ति । अपरम्पि 15 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ दीघनिकाये महावग्गटीका कारणन्ति छिन्नवटुमानुसरणं पच्छामुखं जाणं पेसनतो अपरं अच्छरियब्भुतकारणं । यत्राति पच्चत्तत्थे, नामाति अच्छरियत्थे निपातो, हि सद्दो अनत्थको । तेनाह “यो नाम तथागतो 'ति । एवञ्च कत्वा " यत्रा "ति निपातवसेन विसुं यत्र सद्दग्गहणं समत्थितं होति । पपञ्चेन्ति सत्तसन्तानं संसारे वित्थारेन्तीति पपञ्चं । कम्मवट्टं वृच्चतीति किलेसवट्टस्स पपञ्चग्गहणेन, विपाकवट्टस्स दुक्खग्गहणेन गहितत्ता । परियादिन्नवट्टेति सब्बसो खेपितवट्टे । ‘“मग्गसीलेन फलसीलेना "ति वत्वा तयिदं मग्गफलसीलं लोकियसीलपुब्बकं, बुद्धानञ्च लोकयसीलम्पि लोकुत्तरसीलं विय अनञ्ञसाधारणं वाि दस्सेतुं “लोकियलोकुत्तरसीलेना "ति वृत्तं । समाधिपञ्ञसुपि एसेव नयो । समाधिपक्खाति समाधि च समाधिपक्खा च समाधिपक्खा, एकदेससरूपेकसेसो दट्ठब्बो | तेनाह " मग्गसमाधिना "तिआदि, " विहारो गहितो वा" ति च । समाधिपक्खा वीरियसतिआदयो । नाम सयन्ति अत्तना । नीवरणादीहीति नीवरणेहि चेव तदेकट्ठेहि च पापधम्मेहि, वितक्कविचारादीहि च । “विमुत्तत्ता विमुत्तीति सङ्घयं गच्छन्ती "ति इमिना विमुत्ति - सद्दस्स कम्मसाधनतं आह अट्ठसमापत्तिआदिविसयत्ता तस्स । विमुत्तत्ताति च “विक्खम्भनवसेन विमुत्तत्ता ''तिआदिना योजेब्बं । तस्स तसाति अनिच्चानुपस्सनादिकस्स । पच्चनीकङ्गवसेनाति पहातब्बपटिपक्ख अङ्गवसेन । पटिप्पस्सद्धन्ते उप्पन्नत्ताति किलेसानं पटिप्परसम्भनं पटिप्पस्सद्धं, सो एव अन्तो परियोसानभावतो, तस्मिं साधेतब्बे निब्बत्तत्ता, तंतंमग्गवज्झकिलेसानं पटिप्पस्सम्भनवसेन पवत्तत्ताति अत्थो । किलेसेहि निस्सटता, अपगमो च निब्बानस्स तेहि विवित्तत्ता एवाति आह “ दूरे ठितत्ता "ति । ( १.१६-१६) १६. धम्मधातूति धम्मानं सभावो, अत्थतो चत्तारि अरियसच्चानि । सुप्पटिविद्धाति सुदु पटिविद्धा सवासनानं सब्बेसं किलेसानं पजहनतो । एवहि सब्बञ्ञता, दसबलत्राणादयो चाति सब्बे बुद्धगुणा भगवता अधिगता अहेसुं । अरहत्तं धम्मधातूति केचि । सब्बञ्जुतञाणन्ति अपरे । द्वीहि पदेहीति द्वीहि वाक्येहि । आबद्धन्ति पटिबद्धं तमूलकत्ता उपरिदेसनाय । देवचारिककोलाहलन्ति अत्तनो देवलोके चारिकायं सुद्धावासदेवानं कुतूहलप्पवत्तिं दस्सेन्तो सुत्तन्तपरियोसाने ( दी० नि० अट्ठ० २.९१) विचारेस्सति, अत्थतो विभावेस्सतीति योजना । अयं देखनाति “इतो सो भिक्खवे "तिआदिना ( दी० नि० २.४) वित्थारतो पवत्तितदेसनमाह । निदानकण्डेति आदितो देसितं उद्देसदेसनमाह । सा हि इमिस्सा देसनाय निदानट्ठानियत्ता तथा वृत्ता । 16 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना 90 बोधिसत्तधम्मतावण्णना १७. “विपस्सीति तस्स नामन्ति वत्वा तस्स अन्वत्थतं दस्सेतुं "तञ्च खो"तिआदि वुत्तं । विविधे अत्थेति तिरोहितविदूरदेसगतादिके नीलादिवसेन नानाविधे, तदजे च इन्द्रियगोचरभूते ते च यथूपगते, वोहारविनिच्छये चाति नानाविधे अत्थे । पस्सनकुसलतायाति दस्सने निपुणभावेन । याथावतो ज्ञेय्यं बुज्झतीति बोधि, सो एव सत्तयोगतो बोधिसत्तोति आह “पण्डितसत्तो बुज्झनकसत्तो"ति । सुचिन्तितचिन्तितादिना पन पण्डितभावे वत्तब्बमेव नत्थि । यदा च पनानेन महाभिनीहारो कतो, ततो पट्ठाय महाबोधियं एकन्तनिन्नत्ता बोधिम्हि सत्तो बोधिसत्तोति आह "बोधिसङ्घातेसू"तिआदि । मग्गजाणपदट्ठानहि सब्ब तञाणं, सब्ब तञाणपदट्ठानञ्च मग्गजाणं "बोधी"ति वुच्चति । “सतो सम्पजानो'"ति इमिना चतुत्थाय गब्भावक्कन्तिया ओक्कमीति दस्सेति । चतस्सो हि गब्भावक्कन्तियो इधेकच्चो गब्भो मातुकुच्छियं ओक्कमने, ठाने, निक्खमनेति तीसु ठानेसु असम्पजानो होति, एकच्चो पठमे ठाने सम्पजानो, न इतरेसु, एकच्चो पठमे, दुतिये च ठाने सम्पजानो, न ततिये, एकच्चो तीसुपि ठानेसु सम्पजानो होति । तत्थ पठमा गब्भावक्कन्ति लोकियमहाजनस्स वसेन वुत्ता, दुतिया असीतिमहासावकानं (थेरगा० अठ्ठ० २.२१ वङ्गीसत्थेरगाथावण्णनाय वित्थारो) वसेन, ततिया द्विन्नं अग्गसावकानं, पच्चेकबुद्धानञ्च वसेन । ते किर कम्मजवातेहि उद्धंपादा अधोसिरा अनेकसतपोरिसे पपाते विय योनिमुखे खित्ता ताळच्छिग्गळेन हत्थी विय सम्बाधेन योनिमुखेन निक्खमन्ता महन्तं दुक्खं पापुणन्ति, तेन नेसं "मयं निक्खमामा'"ति सम्पजनं न होति । चतुत्था सब्ब बोधिसत्तानं वसेन । ते हि मातुकुच्छिम्हि पटिसन्धिं गण्हन्तापि पजानन्ति, तत्थ वसन्तापि पजानन्ति, निक्खमनकालेपि पजानन्ति । न हि ते कम्मजवाता उद्धंपादे अधोसिरे कत्वा खिपितुं सक्कोन्ति, द्वे हत्थे पसारित्वा अक्खीनि उम्मीलेत्वा ठितकाव निक्खमन्तीति । आणेन परिच्छिन्दित्वाति पुब्बभागे पञ्चमहाविलोकनाणेहि चेव “इदानि चवामी''ति चुतिपरिच्छिन्दनाणेन च अपरभागे "इध मया पटिसन्धि गहिता"ति पटिसन्धिपरिच्छिन्दनजाणेन च परिच्छिज्ज जानित्वा । पञ्चन्नं महापरिच्चागानं, आतत्थचरियादीनञ्च सतिपि पारमिया परियापन्नभावे सम्भारविसेसभावदस्सनत्थं विसुं गहणं। तत्थ अङ्गपरिच्चागो, नयनपरिच्चागो, अत्तपरिच्चागो, रज्जपरिच्चागो, पुत्तदारपरिच्चागोति इमे पञ्च महापरिच्चागा। तत्थापि कामं अङ्गपरिच्चागादयोपि दानपारमीयेव, तथापि परिच्चागविसेसभावदस्सनत्थञ्चेव 17 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ दीघनिकाये महावग्गटीका सुदुक्करभावदस्सनत्थञ्च महापरिच्चागानं विसुं गहणं । ततो एव च अङ्गपरिच्चागतोपि विसुं नयनपरिच्चागग्गहणं, परिच्चागभावसामञ्ञेपि रज्जपरिच्चागपुत्तदारपरिच्चागग्गहणञ्च कतं । जातीनं अत्थचरिया आतत्थचरिया, सा च खो करुणायनवसेन । तथा सत्तलोकस्स दिट्ठधम्मिकसम्परायिकपरमत्थानं वसेन हितचरिया लोकत्थचरिया । कम्मस्सकताञाणवसेन, अनवज्जकम्मायतनसिप्पायतनविज्जाठानवसेन, खन्धायतनादिवसेन, लक्खणत्तयादितीरणवसेन च अत्तनो परेसञ्च तत्थ सतिपट्ठानेन आणचारो बुद्धचरिया, सा पनत्थतो पञ्ञापारमीयेव, ञणसम्भारविसेसतादस्सनत्थं पन विसुं गहणं । बुद्धचरियानन्ति बहुवचननिद्देसेन पुब्बयोगपुब्बचरियाधम्मक्खानादीनं सङ्ग्रहो दट्टब्बो | तत्थ गतपच्चागतवत्तसङ्घाताय पुब्बभागपटिपदाय सद्धिं अभिञासमापत्तिनिप्फादनं पुब्बयोगो । दानादीव सातिसयपटिपत्ति पुब्बचरिया । " याव चरियापिटके सङ्गहिता अभिनीहारो पुब्बयोगो, कायादिविवेकवसेन एकचरिया पुब्बचरिया " ति केचि । दानादीनञ्चेव अप्पिच्छतादीनञ्च संसारनिब्बाने आदीनवानिसंसानञ्च विभावनवसेन, सत्तानं बोधत्त पतिट्ठापनपरिपाचनवसेन च पवत्तकथा धम्मक्खानं । कोटिं पत्वाति परं परियन्तं परमुक्कंसं पापुणित्वा । सत्तमहादानानीति अट्ठवस्सिककाले “ हदयमंसादीनिपि याचकानं ददेय्यन्ति अज्झासयं उप्पादेत्वा दिन्नदानं, मङ्गलहत्थिदानं गमनकाले दिन्नं सत्तसत्तकमहादानं, मग्गं गच्छन्तेन दिन्नं अस्सदानं, रथदानं, पुत्तदानं, भरियादानन्ति इमानि सत्त महादानानि ( चरिया० पि० ७९) दत्त्वा । " इदानेव मे मरणं होतू" ति अधिमुच्चित्वा कालकरणं अधिमुत्तिकालकिरिया, तं बोधिसत्तानंयेव, न असं । बोधिसत्ता किर दीघायुकदेवलोके ठिता "इध ठितस्स मे बोधिसम्भारसम्भरणं न सम्भवतीति कत्वा तत्थ वासतो निब्बिन्दमानसा होन्ति, तदा विमानं पविसित्वा अक्खीनि निमीलेत्वा “इतो उद्धं मे जीवितं नप्पवत्ततू" ति चित्तं अधिट्ठाय निसीदन्ति, चित्ताधिट्ठानसमनन्तरमेव मरणं होति । पारमीधम्मान उक्कंसप्पवत्तिया तस्मिं तस्मिं अत्तभावे अभिज्ञासमापत्तीहि सन्तानस्स विसेसितत्ता अत्तसिनेहस्स तनुभावेन, सत्तेसु च महाकरुणाय उळारभावेन अधिट्ठानस्स तिक्खविसदभावापत्तिया बोधिसत्तानं अधिप्पाया समिज्झन्ति । चित्ते, विय कम्मेसु च नेसं वसीभावो, तस्मा यत्थ उपपन्नानं पारमियो सम्मदेव परिब्रूहन्ति । वुत्तनयेन कालं कत्वा तत्थ उपपज्जन्ति । तथा हि अम्हाकं महासत्तो इमस्मिंयेव कप्पे नानाजातीसु अपरिहीनज्झानो कालं कत्वा ब्रह्मलोके निब्बत्तो, अप्पकमेव कालं तत्थ ठत्वा ततो चवित्वा मनुस्सलोके निब्बत्तो, पारमीसम्भरणपसुतो अहोसि । तेन वुत्तं "बोधिसत्तानंयेव, (१.१७-१७) 18 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना न अझेस"न्ति । “एकेनअत्तभावेन अन्तरेन पारमीनं सब्बसो पूरितत्ता"ति इमिना पयोजनाभावतो तत्थ ठत्वा अधिमुत्तिकालकिरिया नाम नाहोसीति दस्सेति । अपि च तत्थ यावतायुकट्टानं चरिमभवे अनेकमहानिधिसमुट्ठानपुब्बिकाय दिब्बसम्पत्तिसदिसाय महासम्पत्तिया निब्बत्ति विय, बुद्धभूतस्स असदिसदानादिवसेन अनञसाधारणलाभुप्पत्ति विय च "इतो परं महापुरिसस्स दिब्बसम्पत्तिअनुभवनं नाम नत्थी''ति उस्साहजातस्स पुञ्जसम्भारस्स वसेनाति दट्ठब् । अयज्हेत्थ धम्मता । ___ मनुस्सगणनावसेन, न देवगणनावसेन । पुब्बनिमित्तानीति चुतिया पुब्बनिमित्तानि । अमिलायित्वाति एत्थ अमिलातग्गहणेनेव तासं मालानं वण्णसम्पदायपि गन्धसम्पदायपि सोभासम्पदायपि अविनासो दस्सितोति दट्ठब्बं । बाहिरब्भन्तरानं रजोजल्लानं लेपस्सपि अभावतो देवानं सरीरगतानि वत्थानि सब्बकालं परिसुद्धप्पभस्सरानेव हुत्वा तिठ्ठन्तीति आह "वत्थेसुपि एसेव नयो"ति । नेव सीतं न उण्हन्ति यस्स सीतस्स पटिकारवसेन अधिकं सेवियमानं उण्हं, सयमेव वा खरतरं हुत्वा अभिभवन्तं सरीरे सेदं उप्पादेय्य, तादिसं नेव सीतं, न उण्हं होति। तस्मिं कालेति यथावुत्तमरणासन्नकाले । बिन्दुबिन्दुवसेनाति छिन्नसुत्ताय आमुत्तमुत्तावलिया निपतन्ता मुत्तगुळिका विय बिन्दु बिन्दु हुत्वा । सेदाति सेदधारा मुच्चन्ति। दन्तानं खण्डितभावो खण्डिच्चं। केसानं पलितभावो पालिच्चं। आदि-सद्देन वलित्तचतं सङ्गण्हाति । किलन्तरूपो अत्तभावो होति, न पन खण्डिच्चपालिच्चादीति अधिप्पायो। उक्कण्ठिताति अनभिरति । सा नत्थि उपरूपरि उळारउळारानमेव भोगानं विसेसतो दुविजाननानं उपतिट्ठहनतो। निस्ससन्तीति उण्हं निस्ससन्ति । विजम्भन्तीति अनभिरतिवसेन विजम्भनं करोन्ति । पण्डिता एवाति बुद्धिसम्पन्ना एव देवता । यथा देवता सम्पतिजाता “कीदिसेन पुञकम्मेन इध निब्बत्ता"ति चिन्तेत्वा “इमिना नाम पुञकम्मेन इध निब्बत्ता''ति जानन्ति, एवं अतीतभवे अत्तना कतं, अञदापि वा एकच्चं पुञकम्मं जानन्तियेव महापुञाति आह “ये महापुञा"तिआदि । न पञ्जायन्ति चिरतरकालत्ता परमायुनो। अनिय्यानिकन्ति न निय्यानावहं सत्तानं अभाजनभावतो। सत्ता न परमायुनो होन्ति नाम पापुस्सन्नतायाति आह "तदा हि सत्ता उस्सनकिलेसा होन्ती"ति । एत्थाह – कस्मा सम्मासम्बुद्धा मनुस्सलोके एव उप्पज्जन्ति, न देवब्रह्मलोकेसूति ? देवलोके ताव नुप्पज्जन्ति ब्रह्मचरियवासस्स अनोकासभावतो, तथा 19 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.१७-१७) अनच्छरियभावतो। अच्छरियधम्मा हि बुद्धा भगवन्तो, तेसं सा अच्छरियधम्मता देवत्तभावे ठितानं न पाकटा होति यथा मनुस्सभूतानं, देवभूते हि सम्मासम्बुद्धे दिस्समानं बुद्धानुभावं देवानुभावतो लोको दहति, न बुद्धानुभावतो, तथा सति "सम्मासम्बुद्धो''ति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति, इस्सरगुत्तग्गाहं न विस्सज्जेति, देवत्तभावस्स च चिरकालाधिट्ठानतो एकच्चसस्सतवादतो न परिमुच्चति । ब्रह्मलोके नुप्पज्जन्तीति एत्थापि एसेव नयो। सत्तानं तादिसग्गाहविनिमोचनत्थहि बुद्धा भगवन्तो मनुस्ससुगतियंयेव उप्पज्जन्ति, न देवसुगतियं । मनुस्ससुगतियं उप्पज्जन्तापि ओपपातिका न होन्ति, सति च ओपपातिकूपपत्तियं वुत्तदोसानतिवत्तनतो, धम्मवेनेय्यानं धम्मतन्तिया ठपनस्स विय धातुवेनेय्यानं धातूनं ठपनस्स इच्छितब्बत्ता च । न हि ओपपातिकानं परिनिब्बानतो उद्धं सरीरधातुयो तिठ्ठन्ति । मनुस्सलोके उप्पज्जन्तापि महाबोधिसत्ता चरिमभवे मनुस्सभावस्स पाकटभावकरणाय पन दारपरिग्गहम्पि करोन्ता याव पुत्तमुखदस्सना अगारमज्झे तिट्ठन्ति, परिपाकगतसीलनेक्खम्मपञादिपारमिकापि न अभिनिक्खमन्तीति । किं वा एताय कारणचिन्ताय “सब्बबुद्धेहि आचिण्णसमाचिण्णा, यदिदं मनुस्सभूतानंयेव अभिसम्बुज्झना, न देवभूतान''न्ति । अयमेत्थ धम्मता। तथा हि तदत्थो महाभिनीहारोपि मनुस्सभूतानंयेव इज्झति, न देवभूतानं । कस्मा पन सम्मासम्बुद्धा जम्बुदीपे एव उप्पज्जन्ति, न सेसदीपेसु ? केचि ताव आहु “यस्मा पथविया नाभिभूता, बुद्धानुभावसहिता अचलट्ठानभूता बोधिमण्डभूमि जम्बूदीपे एव, तस्मा जम्बूदीपे एव उप्पज्जन्ती"ति, तथा "इतरेसम्पि अविजहितट्ठानानं तत्थेव लब्भनतो''ति । अयं पनेत्थ अम्हाकं खन्ति - यस्मा पुरिमबुद्धानं, महाबोधिसत्तानं, पच्चेकबुद्धानञ्च निब्बत्तिया सावकबोधिसत्तानं सावकबोधिया अभिनीहारो, सावकपारमिया सम्भरणं, परिपाचनञ्च बुद्धखेत्तभूते इमस्मिं चक्कवाळे जम्बुदीपे एव इज्झति, न अञ्जत्थ। वेनेय्यानं विनयनत्थो च बुद्धप्पादोति अग्गसावकमहासावकादि वेनेय्यविसेसापेक्खाय एतस्मिं जम्बुदीपे एव बुद्धा निब्बत्तन्ति, न सेसदीपेसु । अयञ्च नयो सब्बबुद्धानं आचिण्णसमाचिण्णोति । तेसं उत्तमपुरिसानं तत्थेव उप्पत्ति सम्पत्तिचक्कानं विय अञमञ्जूपनिस्सयतो अपरापरं वत्ततीति दट्टब्, एतेनेव इमं चक्कवाळं मज्झे कत्वा इमिना सद्धिं चक्कवाळानं दससहस्सस्सेव खेत्तभावो दीपितो इतो अञस्स बुद्धानं उप्पत्तिट्ठानस्स तेपिटके बुद्धवचने अनुपलब्भनतो । तेनाह "तीसु दीपेसु बुद्धा न निब्बत्तन्ति, जम्बुदीपेयेव निब्बत्तन्तीति दीपं पस्सी''ति । इमिना नयेन देसनियामेपि कारणं नीहरित्वा वत्तब्बं । 20 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१७-१७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना इदानि च खत्तियकुलं लोकसम्मतं ब्राह्मणानम्पि पूजनीयभावतो । “राजा पिता भविस्सती"ति कुलं पस्सि पितुवसेन कुलस्स निद्दिसितब्बतो। "दसनं मासानं उपरि सत्त दिवसानी"ति पस्सि, तेन अत्तनो अन्तरायाभावं अञासि, तस्सा च तुसितभवे दिब्बसम्पत्तिपच्चनुभवनं । ता देवताति दससहस्सिचक्कवाळदेवता । कथं पन ता देवता तदा बोधिसत्तस्स पूरितपारमिभावं, कथं चस्स बुद्धभावं जानन्तीति ? महेसक्खानं देवतानं वसेन, येभुय्येन च ता देवता अभिसमयभागिनो। तथा हि भगवतो धम्मदानसंविभागे अनेकवारं दससहस्सचक्कवाळदेवतासन्निपातो अहोसि । "चवामी"ति जानाति चुतिआसन्नजवनेहि आणसहितेहि चुतिया उपट्ठितभावस्स पटिसंविदितत्ता। चुतिचित्तं न जानाति चुतिचित्तक्खणस्स इत्तरभावतो। तथा हि तं चुतूपपातञाणस्सपि अविसयोव । पटिसन्धिचित्तेपि एसेव नयो। आवज्जनपरियायोति आवज्जनक्कमो । यस्मा एकवारं आवज्जितमत्तेन आरम्मणं निच्छिनितुं न सक्का, तस्मा तं एवारम्मणं दुतियं, ततियञ्च आवज्जित्वा निच्छयति । आवज्जनसीसेन चेत्थ जवनवारो गहितो। तेनाह "दुतियततियचित्तवारे एव जानिस्सती"ति। चुतिया पुरेतरं कतिपयचित्तवारतो पट्ठाय "मरणं मे आसन्न'"न्ति जाननतो "चुतिक्खणेपि चवामीति जानाती"ति वुत्तं । पटिसन्धिया पन अपुब्बभावतो पटिसन्धिचित्तं न जानाति। निकन्तिया उप्पत्तितो परतो “असुकस्मिं मे ठाने पटिसन्धि गहिता"ति जानाति। तस्मिं कालेति पटिसन्धिग्गहणकाले । दससहस्सिलोकधातु कम्पतीति एत्थ कम्पनकारणं हेट्ठा ब्रह्मजालवण्णनायं (दी० नि० टी० १.१४९) वुत्तमेव । अत्थतो पनेत्थ यं वत्तब्, तं परतो महापरिनिब्बानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.१७१) आगमिस्सति । महाकारुणिका बुद्धा भगवन्तो सत्तानं हितसुखविधानतप्परताय बहुलं सोमनस्सिकाव होन्तीति तेसं पठममहाविपाकचित्तेन पटिसन्धिग्गहणं अट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० २.१७; ध० स० अट्ठ० ४९८; म० नि० अट्ठ० ४.२००) वुत्तं । महासिवत्थेरो पन यदिपि महाकारुणिका बुद्धा भगवन्तो सत्तानं हितसुखविधानतप्पराव, विवेकज्झासया पन विसङ्खारनिन्ना सब्बसङ्खारेसु अज्झुपेक्खनबहुलाति पञ्चममहाविपाकचित्तेन पटिसन्धिग्गहणमाह । पुरे पुण्णमाय सत्तमदिवसतो पट्टायाति पुण्णमाय पुरे सत्तमदिवसतो पट्ठाय, 21 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.१८-१८) सुक्कपक्खे नवमितो पट्ठायाति अत्थो । सत्तमे दिवसेति नवमितो सत्तमे दिवसे आसळ्हिपुण्णमायं । इदं सुपिनन्ति इदानि वुच्चमानाकारं। मज्झिमट्ठकथायं पन “अनोतत्तदहं नेत्वा एकमन्तं अटुंसु । अथ नेसं देवियो आगन्त्वा मनुस्समलहरणत्थं न्हापेत्वा"ति (म० नि० अट्ठ० ४.२००) वुत्तं । तत्थ नेसं देवियोति महाराजूनं देवियो । चरित्वाति गोचरं चरित्वा ।। हरितपलित्तायाति हरितेन गोमयेन कतपरिभण्डाय । “सो च खो पुरिसगब्भो, न इत्थिगन्भो, पुत्तो ते भविस्सती"ति एत्तकमेव ते ब्राह्मणा अत्तनो सुपिनसत्थनयेन कथेसुं । "सचे अगारं अज्झावसिस्सती"तिआदि पन देवताविग्गहेन तमत्थं याथावतो पवेदेसुं । धम्मताति एत्थ धम्म-सद्दो "जातिधम्मानं भिक्खवे सत्तान''न्तिआदीसु (म० नि० १.१३१; ३.३७३; पटि० म० १.३३) विय पकतिपरियायो, धम्मो एव धम्मता यथा देवो एव देवताति आह "अयं सभावो"ति, अयं पकतीति अत्थो । स्वायं सभावो अत्थतो तथा नियतभावोति आह "अयं नियामोति वुत्तं होती"ति । नियामो पन बहुविधोति ते सब्बे अत्थुधारनयेन उद्धरित्वा इधाधिप्पेतनियाममेव दस्सेतुं "नियामो च नामा"तिआदि वुत्तं । तत्थ कम्मानं नियामो कम्पनियामो। एस नयो उतुनियामादीसु तीसु । इतरो पन धम्मो एव नियामो धम्मनियामो, धम्मता । कुसलस्स कम्मस्स । निसेन्तो तिखिणं करोन्तो। अरूपादिभूमिभागविसेसवसेन उतुविसेसदस्सनतो उतुविसेसेन सिज्झमानानं रुक्खादीनं पुप्फफलादिग्गहणं "तेसु तेसु जनपदेसू"ति विसेसेत्वा वुत्तं । तस्मिं तस्मिं कालेति तस्मिं तस्मिं वसन्तादिकाले ।। मधुरतो बीजतो तित्ततो बीजतोति योजना । १८. वत्तमानसमीपे वत्तमाने विय वोहरितब्बन्ति “ओक्कमती''ति वुत्तन्ति आह "ओक्कन्तो होतीति अयमेवत्थो"ति । एवं होतीति एवं वृत्तप्पकारेनस्स सम्पजानना होति । न ओक्कममाने पटिसन्धिक्खणस्स दुविज्ञेय्यताय । यथा च वुत्तं “पटिसन्धिचित्तं न जानाती'ति । दससहस्सचम्कवाळपत्थरणेन वा अप्पमाणो। अतिविय समुज्जलनभावेन 22 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.१९-१९) बोधिसत्तधम्मतावण्णना उळारो। देवानुभावन्ति देवानं पभानुभावं । देवानहि पभं सो ओभासो अभिभवति, न तेसं आधिपच्चं । तेनाह "निवत्थवत्थस्सा"तिआदि । लोकानं लोकधातूनं अन्तरो विवरो लोकन्तरो, सो एव इथिलिङ्गवसेन "लोकन्तरिका"ति वुत्तो । रुक्खगच्छादिना केनचि न हञन्तीति अघा, असम्बाधा । तेनाह "निच्चविवटा"ति । असंवुताति हेट्टा, उपरि च केनचि न पिहिता। तेन वुत्तं "हेद्वापि अप्पतिद्वा"ति । तत्थ पि-सद्देन यथा हेट्ठा उदकस्स पिधायिका पथवी नत्थीति असंवता लोकन्तरिका, एवं उपरिपि चक्कवाळेसु विय देवविमानानं अभावतो असंवुता अप्पतिट्ठाति दस्सेति । अन्धकारो एत्थ अत्थीति अन्धकारा। चक्खुविज्ञाणं न जायति आलोकस्स अभावतो, न चक्खुनो । तथा हि "तेन ओभासेन अचमनं सजानन्तीति वुत्तं । जम्बुदीपे ठितमज्झन्हिकवेलायं पुब्बविदेहवासीनं अत्थङ्गमनवसेन उपटुं सूरियमण्डलं पञ्जायति, अपरगोयानवासीनं उग्गमनवसेन, एवं सेसदीपेसु पीति आह “एकप्पहारेनेव तीसु दीपेसु पआयन्ती'ति । इतो अञथा पन द्वीसु एव दीपेसु एकप्पहारेन पायन्तीति । एकेकाय दिसाय नव नव योजनसतसहस्सानि अन्धकारविधमनम्पि इमिनाव नयेन दट्टब्बं । पभाय नप्पहोन्तीति अत्तनो पभाय ओभासितुं अनभिसम्भुनन्ति । युगन्धरपब्बतप्पमाणे आकासे विचरणतो "चक्कवाळपब्बतस्स वेमज्झेन विचरन्ती"ति वुत्तं । वावटाति खादनत्थं गण्हितुं उपक्कमन्ता | विपरिवत्तित्वाति विवत्तित्वा । छिज्जित्वाति मुच्छापत्तिया ठितट्ठानतो मुच्चित्वा, अङ्गपच्चङ्गछेदनेन वा छिज्जित्वा । अच्चन्तखारेति आतपसन्तापाभावेन अतिसीतभावमेव सन्धाय अच्चन्तखारता वुत्ता सिया । न हि तं कप्पसण्ठहनउदकं सम्पत्तिकरमहामेघवुटुं पथविसन्धारकं कप्पविनासकं उदकं विय खारं भवितुं अरहति । तथा हि सति पथवीपि विलीयेय्य, तेसं वा पापकम्मबलेन पेतानं उदकस्स पुब्बखेळभावापत्ति विय तस्स उदकस्स तदा खारभावापत्ति होतीति वुत्तं "अच्चन्तखारे उदके"ति । एकयागुपानमत्तम्पीति पत्तादिभाजनगतं यागु गळोचिआदिउद्धरणिया गहेत्वा पिवनमत्तम्पि कालं । समन्ततोति सब्बभागतो छप्पकारम्पि। १९. चतुन्नं महाराजानं वसेनाति वेस्सवणादिचतुमहाराजभावसामनेन । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.२०-२३) यथाविहारन्ति यथासकं विहारं । २०. पकतियाति अत्तनो पकतिया एव । तेनाह "सभावेनेवा"ति । परस्स सन्तिके गहणेन विना अत्तनो सभावेनेव सयमेव अधिट्ठहित्वा सीलसम्पन्ना। बोधिसत्तमातापीति अम्हाकं बोधिसत्तमातापि । कालदेविलस्साति यथा कालदेविलस्स सन्तिके अञदा गण्हाति, बोधिसत्ते पन...पे०... सयमेव सीलं अग्गहेसि, तथा विपस्सीबोधिसत्तमातापीति अधिप्पायो । २१. "मनुस्सेसू"ति इदं पकतिचारित्तवसेन वुत्तं, “मनुस्सित्थिया नाम मनुस्सपुरिसेसु पुरिसाधिप्पायचित्तं उप्पज्जेय्या'ति । बोधिसत्तस्स मातुया पन देवेसुपि तादिसं चित्तं नुप्पज्जतेव । यथा बोधिसत्तस्स आनुभावेन बोधिसत्तमातु पुरिसाधिप्पायचित्तं नुप्पज्जति, एवं तस्स आनुभावेनेव सा केनचि पुरिसेन अनभिभवनीयाति आह “पादा न वहन्ति दिब्बसङ्घलिका विय बज्झन्ती"ति । २२. पुब्बे “कामगुणूपसंहितं चित्तं नुप्पज्जतीति वुत्तं, पुन “पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेती"ति च वुत्तं । कथमिदं अञ्जमों न विरुज्झतीति आह "पुब्बे"तिआदि । वत्थुपटिक्खेपोति अब्रह्मचरियवत्थुपटिसेधो। तेनाह "पुरिसाधिप्पायवसेना'ति । आरम्मणपटिलाभोति रूपादिपञ्चकामगुणारम्मणस्सेव पटिलाभो । २३. किलमथोति खेदो, कायस्स गरुभावकथिनभावादयोपि तस्सा तदा न होन्ति एव । “तिरोकुच्छिगतं पस्सती"ति वुत्तं । कदा पट्ठाय पस्सतीति आह "कललादिकालं अतिक्कमित्वा"तिआदि । दस्सने पयोजनं सयमेव वदति । तस्स अभावतो कललादिकाले न पस्सति । पुत्तेन दहरेन मन्देन उत्तानसेय्यकेन सद्धिं। "यं तं मातू"तिआदि पकतिचारित्तवसेन वुत्तं । चक्कवत्तिगब्भतोपि हि सविसेसं बोधिसत्तगब्भो परिहारं लभति पुञ्जसम्भारस्स सातिसयत्ता, तस्मा बोधिसत्तमाता अतिविय सप्पायाहाराचारा च हुत्वा सक्कच्चं परिहरति । सुखवासत्थन्ति बोधिसत्तस्स सुखवासत्थं । पुरत्थाभिमुखोति मातु पुरिमभागाभिमुखो। इदानि तिरोकुच्छिगतस्स दिस्समानताय अब्भन्तरं, बाहिरञ्च कारणं दस्सेतुं "पुब्बे कतकम्म"न्तिआदि वुत्तं । अस्साति देविया। वत्थुन्ति कुच्छिं । फलिकअब्भपटलादिनो विय बोधिसत्तमातुकुच्छितचस्स पतनुभावेन आलोकस्स विबन्धाभावतो यथा बोधिसत्तमाता कुच्छिगतं बोधिसत्तं पस्सति, किं एवं बोधिसत्तोपि मातरं, अञञ्च पुरतो ठितं रूपगतं पस्सति, नोति आह "बोधिसत्तो पना"तिआदि । 24 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२४-२७) बोधिसत्तधम्मतावण्णना कस्मा पन सति चक्खुम्हि, आलोके च न पस्सतीति आह "न हि अन्तोकच्छियं चक्खुविञआणं उप्पज्जती"ति। अस्सासपस्सासा विय हि तत्थ चक्खुविज्ञाणम्पि न उप्पज्जति तज्जस्स समन्नाहारस्स अभावतो । २४. यथा अञा इत्थियो विजातप्पच्चया तादिसेन रोगेन अभिभूतापि हुत्वा मरन्ति, बोधिसत्तमातु पन बोधिसत्ते कुच्छिगते तस्स विजायननिमित्तं, न कोचि रोगो उप्पज्जति, केवलं आयुपरिक्खयेनेव कालं करोति, स्वायमत्थो हेट्ठा वुत्तो एव । "बोधिसत्तेन वसितद्वानही"तिआदि तस्स कारणवचनं । अनेसं अपरिभोगन्ति अजेहि न परिभुजितब्बं, न परिभोगयोग्यन्ति अत्थो । तथा सति बोधिसत्तपितु अज्ञाय अग्गमहेसिया भवितब्बं, तथापि बोधिसत्तमातरि धरन्तिया अयुज्जमानकन्ति आह "न च सक्का"तिआदि । अपनेत्वाति अग्गमहेसिठानतो नीहरित्वा । अत्तनि छन्दरागवसेनेव बहिद्धा आरम्मणपरियेसनाति विसयिनिसारागो सत्तानं विसयेसु सारागस्स बलवकारणन्ति दस्सेन्तो आह "सत्तानं अत्तभावे छन्दरागो बलवा होती"ति । अनुरक्खितुं न सक्कोतीति सम्मा गब्भपरिहारं नानुयुञ्जति । तेन गन्भो बह्वाबाधो होति। वत्थु विसदं होतीति गब्भासयो विसुद्धो होति। मातु मज्झिमवयस्स ततियकोट्ठासे बोधिसत्तगब्भोक्कमनम्पि तस्सा आयुपरिमाणविलोकनेनेव सङ्गहितं वयोवसेन उप्पज्जनकविकारस्स परिवज्जनतो । इत्थिसभावेन उप्पज्जनकविकारो पन बोधिसत्तस्स आनुभावेनेव वूपसमति । २५. सत्तमासजातोति पटिसन्धिग्गहणतो सत्तमे मासे जातो । सो सीतुण्हक्खमो न होति अतिविय सुखुमालताय । अट्ठमासजातो कामं सत्तमासजाततो बुद्धिवयवा, एकच्चे पन चम्मपदेसा वुद्धिं पापुणन्ता घट्टनं न सहन्ति, तेन सो न जीवति। “सत्तमासजातस्स पन न ताव ते जाता''ति वदन्ति । २७. देवा पठमं पटिग्गण्हन्तीति “लोकनाथं महापुरिसं सयमेव पठम पटिग्गण्हामा''ति सञ्जातगारवबहुमाना अत्तनो पीतिं पवेदेन्ता खीणासवा सुद्धावासब्रह्मानो आदितो पटिग्गण्हन्ति। सूतिवेसन्ति सूतिजग्गनधातिवेसं । एकेति अभयगिरिवासिनो । मच्छक्खिसदिसं छविवसेन । अट्ठासि न निसीदि, न निपज्जि वा । तेन वुत्तं “ठिताव बोधिसत्तं बोधिसत्तमाता विजायतीति । नियुक्खताय ठिता एव हुत्वा विजायति । दुक्खस्स हि बलवभावतो तं दुक्खं असहमाना अञा इथियो निसिन्ना वा निपन्ना वा विजायन्ति । 25 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.२८-३१) २८. अजिनप्पवेणियाति अजिनचम्मेहि सिब्बित्वा कतपवेणिया । महातेजोति महानुभावो । महायसोति महापरिवारो, विपुलकित्तिघोसो च । २६ दीघनिकाये महावग्गटीका २९. भग्गविभग्गाति सम्बाधट्ठानतो निक्खमनेन विभावितत्ता भग्गा, विभग्गा विय च हुत्वा, तेन नेसं अविसदभावमेव दस्सेति । अलग्गो हुत्वाति गब्भासये, योनिपदेसे च कत्थचि अलग्गो असत्तो हुत्वा यतो “धमकरणतो उदकनिक्खमनसदिसन्ति वृत्तं । उदकेनाति गब्भासयगतेन उदकेन । अमक्खितोव निक्खमति सम्मक्खितस्स तादिसस्स उदकसेम्हादिकस्सेव तत्थ अभावतो । बोधिसत्तस्स हि पुञ्ञानुभावतो पटिसन्धिग्गण पट्ठाय तं ठानं पुब्बेपि विसुद्धं विसेसतो परमसुगन्धगन्धकुटि विय चन्दनगन्धं वायन्तं तिट्ठति । उदकवट्टियोति उदकक्खन्धा । ३१. मुहुत्तजातोति मुहुत्तेन जातो हुत्वा मुहुत्तमत्तोव । अनुधारियमानेति अनुकूलवसेन नीयमाने । आगतानेवाति तं ठानं उपगतानि एव । अनेकसाखन्ति रतनमयानेकसतपतिट्ठानहीरकं । सहस्समण्डलन्ति तेसं उपरिट्ठितं अनेकसहस्समण्डलहीरकं । मरूति देवा । न खो पन एवं दट्ठब्बं पदवीतिहारतो पगेव दिसाविलोकनस्स कतत्ता । तेनाह " महासत्तो ही " तिआदि । एकङ्गणानीति विवटभावेन विहारङ्गणपरिवेणङ्गणानि विय एकङ्गणसदिसानि अहेसुं । सदिसोपि नत्थीति तुम्हाकं इदं विलोकनं विसिट्ठे पस्सितुं "इध तुम्हेहि सदिसोपि नत्थि, कुतो उत्तरितरो” ति आहंसु । अग्गोति पधानो, केन पनस्स पधानताति आह " गुणेही "ति । पठम - सद्दो चेत्थ पधानपरियायो । बोधिसत्तस्स पन पधानता अनञ्ञसाधारणाति आह "सब्बपटमो "ति, सब्बपधानोति अत्थो । एतस्सेवाति अग्गसद्दस्सेव । एत्थ च महेसक्खा ताव देवा तथा च वदन्ति, इतरे पन कथन्ति ? महासत्तस्स आनुभावदस्सनादिना । महेसक्खानहि देवानं महासत्तस्स आनुभावो विय तेन सदिसानम्पि आनुभावो पच्चक्खो अहोसीति, इतरे पन तेसं वचनं सुत्वा सद्दहन्ता अनुमिनन्ता तथा आहंसु । परिपाकगतपुब्बहेतुसंसिद्धाय धम्मताय चोदियमानो इमस्मिं... पे०... व्याकासि । जातमत्तस्सेव बोधिसत्तस्स ठानादीनि येसं विसेसाधिगमानं पुब्बनिमित्तभूतानीति ते निद्धारेत्वा दस्सेन्तो " एत्थ चा "तिआदिमाह । तत्थ पतिट्ठानं चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं इद्धिपादवसेन लोकुत्तरधम्मेसु सुप्पतिट्ठितभावसमिज्झनतो । उत्तराभिमुखभावो 26 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.३१-३१) बोधिसत्तधम्मतावण्णना लोकस्स उत्तरणवसेन गमनस्स पुब्बनिमित्तं । तेन हि भगवा सदेवकस्स लोकस्स अभिभूतो, केनचि अनभिभूतो अहोसि । तेनाह “महाजनं अज्झोत्थरित्वा अभिभवित्वा गमनस्स पुब्बनिमित्त "न्ति । तथा सत्तपदगमनं सत्तपदबोज्झङ्गसम्पन्न अरियमग्गगमनस्स । सुविसुद्ध सेतच्छत्तधारणं सुविसुद्धविमुत्तिछत्तधारणस्स । पञ्चराजककुधभण्डसमायोगो पञ्चविधविमुत्तिगुणसमायोगस्स । अनावटदिसानुविलोकनं अनावटञाणताय । "अग्गोहमस्मी'' तिआदिना अछम्भितवाचाभासनं केनचि अविबन्धनीयताय अप्पवत्तियस्स सद्धम्मचक्कप्पवत्तनस्स । " अयमन्तिमा जाती 'ति आयति जातिया अभावकित्तना अनुपादि...पे०... पुब्बनिमित्तन्ति वेदितब्बं तस्स तस्स अनागते लद्धब्बविसेसस्स तं तं निमित्तं अब्यभिचारीति कत्वा । न आगतोति इमस्मिं सुत्ते, अञ्ञत्थ च वक्खमानाय अनुपुब्बिया न आगतो । आहरित्वाति तस्मिं तस्मिं सुत्ते, अट्ठकथासु च आगतनयेन आहरित्वा दीपेतब्बो । “दससहस्सिलोकधातु कम्पीति इदं सतिपि इध पाळियं आगतत्ते वक्खमानानं अच्छरियानं मूलभूतं दस्सेतुं वुत्तं एवं अञ्ञम्पि एवरूपं दट्ठब्बं । तन्तिबद्धा वीणा चम्मबद्धा भेरियोति पञ्चङ्गिकतूरियस्स निदस्सनमत्तं च- सद्देन वा इतरेसम्पि सङ्ग्रहो दट्ठब्बो । “अन्दुबन्धनादीनि तङ्घणे एव छज्जित्वा पुन पाकतिकानेव होन्ति, तथा जच्चन्धादीनं चक्खुसोतादीनि तथारूपकम्मपच्चया तस्मिंयेव खणे उप्पज्जित्वा तावदेव विगच्छन्ती'ति वदन्ति । छिज्जिंसूति च पादेसु बन्धट्ठानेसु छिज्जिंसु । विगच्छिंसूति वूपसमिसु । आकासकरतनानि नाम तंतंविमानगतमणिरतनादीनि । सकतेजोभासितानीति अतिविय समुज्जलाय अत्तनो पभाय ओभासितानि अहेतुं । नप्पवत्तीति न सन्निपातो । न वायति खरो वातो न वायि । मुदुसुखो पन सत्तानं सुखावहो वायि । पथविगता अहे सुं उच्चट्ठाने ठातुं अविसहन्ता । उतुसम्पन्नोति अनुण्हासीततासङ्घातेन उतुना सम्पन्नो | अप्फोटनं वुच्चति भुजहत्थसङ्घट्टनसद्दो, अत्थतो पन वामहत्थं उरे ठपेत्वा दक्खिणेन पुथुपाणिना हत्थताळनेन सद्दकरणं । मुखेन उस्सेळनं सद्दस्स मुञ्चनं सेळनं । एकद्धजमाला अहोसि निरन्तरं धजमालासमोधानगताय । न केवलञ्च एतानि एव, अथ खो अञ्ञानिपि “विचित्तपुप्फसुगन्धपुप्फवस्सदेवोपवस्सि सूरिये दिस्समाने एव तारका ओभासिंसु, अच्छं विप्पसन्नं उदकं पथवितो उब्भिज्जि, बिलासया च तिरच्छाना आसयतो निक्खमिंसु, रागदोसमोहापि तनु भविंसु, पथवियं रजो वूपसमि, अनिट्ठगन्धो विगच्छि, दिब्बगन्धो वायि, रूपिनो देवा सरूपेनेव मनुस्सानं आपाथं अगमंसु, सत्तानं चुतूपपाता नाहेसुन्ति २७ 27 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३१-३१) एवमादीनि यानि महाभिनीहारसमये उप्पन्नानि द्वत्तिंसपुब्बनिमित्तानि, तानि अनवसेसतो तदा अहेसुन्ति। __ तत्रापीति तेसुपि पथविकम्पादीसु एवं पुब्बनिमित्तभावो वेदितब्बो। न केवलं सम्पतिजातस्स ठानादीसु एवाति अधिप्पायो । सब्ब ताणपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं सब्बस्स जेय्यस्स, तित्थकरमतस्स च चालनतो। केनचि अनुस्साहितानंयेव इमस्मिंयेव एकचक्कवाळे सन्निपातो केनचि अनुस्साहितानंयेव एकप्पहारेनेव सन्निपतित्वा धम्मपटिग्गण्हनस्स पुब्बनिमित्तं । पठमं देवतानं पटिग्गहणं दिब्बविहारपटिलाभस्स, पच्छा मनुस्सानं पटिग्गहणं तत्थेव ठानस्स निच्चलसभावतो आनेञ्जविहारपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं। वीणानं सयं वज्जनं परूपदेसेन विना सयमेव अनुपुब्बविहारपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं । भेरीनं वज्जनं चक्कवाळपरियन्ताय परिसाय पवेदनसमत्थस्स धम्मभेरिया अनुसावनस्स अमतदुन्दुभिघोसनस्स पुब्बनिमित्तं । अन्दुबन्धनादीनं छेदो मानविनिबन्धभेदनस्स पुब्बनिमित्तं। महाजनस्स रोगविगमो तस्सेव सकलवट्टदुक्खरोगविगमभूतस्स सच्चपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं। “महाजनस्सा''ति पदं “महाजनस्स दिब्बचक्खुपटिलाभस्स, महाजनस्स दिब्बसोतधातुपटिलाभस्सा'तिआदिना तत्थ तत्थ आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । इद्धिपादभावनावसेन सातिसयजाणजवसम्पत्तिसिद्धीति आह “पीठसप्पीनं जवसम्पदा चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स पुब्बनिमित्त"न्ति। सुपट्टनसम्पापुणनं चतुपटिसम्भिदाधिगमस्स पुब्बनिमित्तं । अत्थादिअनुरूपं अत्थादीसु सम्पटिपत्तिभावतो । रतनानं सकतेजोभासितत्तं यं लोकस्स धम्मोभासं दस्सेस्सति, तेन तस्स सकतेजोभासितत्तस्स पुब्बनिमित्तं। चतुब्रह्मविहारपटिलाभस्स पुब्बनिमित्तं तस्स सब्बसो वेरवूपसमनतो | एकादसअग्गिनिब्बापनस्स पुब्बनिमित्तं दुन्निब्बापननिब्बानभावतो। आणालोकादस्सनस्स पुब्बनिमित्तं अनालोके आलोकदस्सनभावतो। निब्बानरसेनाति किलेसानं निब्बायनरसेन । एकरसभावस्साति सासनस्स सब्बत्थ एकरसभावस्स, तञ्च खो अमधुरस्स लोकस्स सब्बसो मधुरभावापादनेन । द्वासद्विदिट्ठिगतभिन्दनस्स पुब्बनिमित्तं सब्बसो दिविगतवातापनयनवसेन | आकासादिअप्पतिठ्ठविसमचञ्चलट्ठानं पहाय सकुणानं पथविगमनं तादिसं मिच्छागाहं पहाय सत्तानं पाणेहि रतनत्तयसरणगमनस्स पुब्बनित्तं । बहुजनकन्ततायाति चन्दस्स विय बहुजनस्स कन्तताय । सूरियस्स उण्हसीतविवज्जितउतुसुखता परिळाहविवज्जितकायिकचेतसिकसुखप्पत्तिया पुब्बनिमित्तं। देवतानं अप्फोटनादीहि कीळनं पमोदुप्पत्ति भवन्तगमनेन, धम्मसभावबोधनेन च उदानवसेन पमोदविभावनस्स पुब्बनिमितं । धम्मवेगवस्सनस्साति देसनाञाणवेगेन धम्मामतस्स 28 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३१-३१) बोधिसत्तधम्मतावण्णना वस्सनस्स पुब्बनिमित्तं। कायगतासतिवसेन लद्धं झानं पादकं कत्वा उप्पादितमग्गफलसुखानुभवो कायगतासतिअमतपटिलाभो, तस्स पन कायस्सापि अतप्पकसुखावहत्ता खुदापिपासापीळनाभावो पुब्बनिमित्तं वुत्तो। अट्ठकथायं पन खुदं, पिपासञ्च भिन्दित्वा वुत्तं। तत्थ पुब्बनिमित्तानं भेदो विसेससामञविभागेन, गोबलीबद्दञायेन च गहेतब्बो। “सयमेवा"ति पदं “अट्ठङ्गिकमग्गद्वारविवरणस्सा"ति एत्थापि आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । भरितभावस्साति परिपुण्णभावस्स । “अरियद्धजमालामालितायाति कासायद्धजमालावन्तताया"ति केचि, सदेवकस्स लोकस्स पन अरियमग्गबोज्झङ्गद्धजमालाहि मालिभावस्स पुब्बनिमित्तं। यं पनेत्थ अनुद्धटं, तं सुविद्येय्यमेव । एत्थाति “सम्पतिजातो''तिआदिना आगते इमस्मिं वारे । विस्सज्जितोव, तस्मा अम्हेहि इध अपुब्बं वत्तब्बं नत्थीति अधिप्पायो । तदा पथवियं गच्छन्तोपि महासत्तो आकासेन गच्छन्तो विय महाजनस्स तथा उपट्टासीति अयमेत्थ नियति धम्मनियामो बोधिसत्तानं धम्मताति इदं नियतिवादवसेन कथनं । पुब्बे पुरिमजातीसु तादिसस्स पुञ्जसम्भारकम्मस्स कतत्ता उपचितत्ता महाजनस्स तथा उपट्ठासीति इदं पुब्बेकतकम्मवादवसेन कथनं । इमेसं सत्तानं उपरि ईसनसीलताय यथासकं कम्ममेव इस्सरो नाम, तस्स निम्मानं अत्तनो फलस्स निब्बत्तनं महापुरिसोपि सदेवकं लोकं अभिभवितुं समत्थेन उळारेन पुञकम्मेन निब्बत्तितो, तेन इस्सरेन निम्मितो नाम, तस्स चायं निम्मानविसेसो, यदिदं महानुभावता, याय महाजनस्स तथा उपट्ठासीति इदं इस्सरनिम्मानवसेन कथनं । एवं तं तं बहुलं वत्वा किं इमाय परियायकथायाति अवसाने उजुकमेव ब्याकरि । सम्पतिजातो पथवियं कथं पदसा गच्छति, एवं महानुभावो आकासेन मझे गच्छतीति परिकप्पनवसेन आकासेन गच्छन्तो विय अहोसि | सीघतरं पन सत्तपदवीतिहारेन गतत्ता दिस्समानरूपोपि महाजनस्स अदिस्समानो विय अहोसि । अचेलकभावो, खुद्दकसरीरता च तादिसस्स इरियापथस्स न अनुच्छविकाति कम्मानुभावसञ्जनितपाटिहारियवसेन अलङ्कतपटियत्तो विय, सोळसवस्सुद्देसिको विय च महाजनस्स उपट्ठासीति वेदितब्बं । महासत्तस्स पुञानुभावेन तदा तथा उपट्ठानमत्तमेवेतन्ति । पच्छा बालदारकोव अहोसि, न तादिसोति । बुद्धभावानुच्छविकस्स बोधिसत्तानुभावस्स याथावतो पवेदितत्ता परिसा चस्स ब्याकरणेन बुद्धेन विय...पे०... अत्तमना अहोसि। 29 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३३-३३) सब्बधम्मताति सब्बा सोळसविधापि यथावुत्ता धम्मता सब्बबोधिसत्तानं होन्तीति वेदितब्बा पुञञाणसम्भारदस्सनेन नेसं एकसदिसत्ता । द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३३. दुकूलचुम्बटकेति दहरस्स निपज्जनयोग्यतावसेन पटिसंहटदुकूलसुखुमे । "खत्तियो ब्राह्मणो''ति एवमादि जाति। “कोण्डो गोतमो''ति एवमादि गोत्तं । "पोणिका चिक्खल्लिका साकिया कोळिया'ति एवमादि कुलपदेसो। आदि-सद्देन रूपिस्सरियपरिवारादिसब्बसम्पत्तियो सङ्गण्हाति । महन्तस्साति विपुलस्स, उळारस्साति अत्थो । निप्फत्तियोति सिद्धियो । गन्तब्बगतियाति गति-सद्दस्स कम्मसाधनतमाह | उपपज्जनवसेन हि सुचरितदुच्चरितेहि गन्तब्बाति गतियो, उपपत्तिभवविसेसो । गच्छति यथारुचि पवत्ततीति गति, अज्झासयो। पटिसरणेति परायणे अवस्सये। सब्बसङ्घतविसंयुत्तस्स हि अरहतो निब्बानमेव तंपटिसरणं । त्याहन्ति ते अहं । दसविधे कुसलधम्मे, अगरहिते च राजधम्मे (जा० २ महामंसजातके वित्थारो) नियुत्तोति धम्मिको। तेन च धम्मन सकलं लोकं रजेतीति धम्मराजा। यस्मा चक्कवत्ती धम्मेन आयेन रज्जं अधिगच्छति, न अधम्मेन, तस्मा वुत्तं "धम्मेन लद्धरज्जत्ता धम्मराजा"ति । चतूसु दिसासु समुद्दपरियोसानताय चतुरन्ता नाम तत्थ तत्थ दीपे महापथवीति आह "पुरस्थिम...पे०... इस्सरो"ति । विजितावीति विजेतब्बस्स विजितवा, कामकोधादिकस्स अब्भन्तरस्स, पटिराजभूतस्स बाहिरस्स च अरिगणस्स विजयि, विजेत्वा ठितोति अत्थो । कामं चक्कवत्तिनो केनचि युद्धं नाम नत्थि, युद्धेन पन साधेतब्बस्स विजयस्स सिद्धिया "विजितसङ्गामो"ति वुत्तं । जनपदोव चतुब्बिधअच्छरियधम्मादिसमन्नागते अस्मिं राजिनि थावरियं केनचि असंहारियं दळ्हं भत्तभावं पत्तो, जनपदे वा अत्तनो धम्मिकाय पटिपत्तिया थावरियं थिरभावं पत्तोति जनपदत्थावरियप्पत्तो। मनुस्सानं उरे सत्थं ठपेत्वा इच्छितधनहरणादिना परसाहसकारिताय साहसिका। रतिजननद्वेनाति अतप्पकपीतिसोमनस्सप्पादनेन । सहत्थतो पन रमेतीति रतनं। "अहो मनोहर"न्ति चित्ते कत्तब्बताय चित्तीकतं। “स्वायं चित्तीकारो तस्स पूजनीयताया"ति चित्तीकतन्ति पूजनीयन्ति अत्थं वदन्ति । महन्तं विपुलं अपरिमितं मूलं अग्घतीति महग्धं । नत्थि एतस्स तुला उपमाति अतुलं, असदिसं। कदाचि एव उप्पज्जनतो दुक्खेन 30 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३३-३३) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना ३१ लद्धब्बत्ता दुल्लभदस्सनं। अनोमेहि उळारगुणेहेव सत्तेहि परिभुजितब्बतो अनोमसत्तपरिभोगं। इदानि नेसं चित्तीकतादिअत्थानं सविसेसं चक्करतने लब्भमानतं दस्सेत्वा इतरेसुपि ते अतिदिसितुं "चक्करतनस्स चा"तिआदि आरद्धं | अझं देवद्वानं नाम न होति रञो अनञसाधारणिस्सरियादिसम्पत्तिपटिलाभहेतुतो, सत्तानञ्च यथिच्छितत्थपटिलाभहेतुतो। अग्घो नत्थि अतिविय उळारसमुज्जलसत्तरतनमयत्ता, अच्छरियब्भुतमहानुभावताय च । यदग्गेन महग्धं, तदग्गेन अतुलं। सत्तानं पापजिगुच्छनेन विगतकाळको पुञपसुतताय मण्डभूतो यादिसो कालो बुद्धप्पादारहो, तादिसे एव चक्कवत्तीनम्पि सम्भवोति आह “यस्मा च पना"तिआदि । उपमावसेन चेतं वुत्तं, उपमोपमेय्यानञ्च न अच्चन्तमेव सदिसता। तस्मा यथा बुद्धा कदाचि करहचि उप्पज्जन्ति, न तथा चक्कवत्तिनो, एवं सन्तेपि चक्कवत्तिवत्तपरिपूरणस्सापि दुक्करभावतोपि दुल्लभुप्पादायेवाति, इमिना दुल्लभुप्पादतासामधेन तेसं दुल्लभदस्सनता वुत्ताति वेदितब्बं । कामं चक्करतनानुभावेन सिज्झमानो गुणो चक्कवत्तिपरिवारसाधारणो, तथापि “चक्कवत्ती एव नं सामिभावेन विसविताय परिभुञ्जतीति वत्तब्बतं अरहति तदत्थं उप्पज्जनतोति दस्सेन्तो "तदेत"न्तिआदिमाह । यथावुत्तानं पञ्चन्नं, छन्नम्पि वा अत्थानं इतररतनेसुपि लब्भनतो "एवं सेसानिपी"ति वुत्तं । हत्थिअस्स-परिणायकरतनेहि अजितविजयतो, चक्करतनेन च परिवारभावेन, सेसेहि परिभोगूपकरणभावेन समन्नागतो । हत्थिअस्समणिइत्थिरतनेहि परिभोगूपकरणभावेन सेसेहि परिवारभावेनाति योजना | चतुन्नं महादीपानं सिरिविभवन्ति तत्थ लद्धं सिरिसम्पत्तिञ्चेव भोगसम्पत्तिञ्च । तादिसमेवाति “पुरेभत्तमेवा"तिआदिना वृत्तानुभावमेव । योजनप्पमाणं पदेसं ब्यापनेन योजनप्पमाणं अन्धकारं। अतिदीघतादिछब्बिधदोसपरिवज्जितं । सूराति सत्तिवन्तो, निब्भयाति अत्थोति आह "अभीरुका"ति । अङ्गन्ति कारणं । येन कारणेन “वीरा"ति वुच्चेय्यु, तं वीरङ्ग। तेनाह “वीरियस्सेतं नाम"न्ति । याव चक्कवाळपब्बता चक्कस्स वत्तनतो "चक्कवाळपब्बतं सीमं कत्वा ठितसमुद्दपरियन्त"न्ति वुत्तं । “अदण्डेना"ति इमिनाव धनदण्डस्स, सरीरदण्डस्स च अकरणं वुत्तं । "असत्थेना"ति इमिना पन सेनाय युज्झनस्साति तदुभयं दस्सेतुं “ये कतापराधे"तिआदि वुत्तं । वुत्तप्पकारन्ति सागरपरियन्तं । "रञ्जनढेन रागो, तण्हायनढेन तण्हा''ति पवत्तिआकारभेदेन लोभो एव द्विधा 31 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३५-३५) वुत्तो। तथा हिस्स द्विधापि छदनठ्ठो एकन्तिको । यथाह “अन्धतमं तदा होति, यं रागो सहते नर"न्ति, (नेत्ति० ११, २७) “तण्हाछदनछादिता"ति (उदा० ६४) च । इमिना नयेन दोसादीनम्पि छदनट्ठो वत्तब्बो । किलेसग्गहणेन विचिकिच्छादयो सेसकिलेसा वुत्ता | यस्मा ते सब्बे पापधम्मा उप्पज्जमाना सत्तसन्तानं छादेत्वा परियोनन्धित्वा तिठ्ठन्ति कुसलप्पवत्तिं निवारेन्ति, तस्मा ते “छदना, छदा''ति च वुत्ता। विवट्टच्छदाति च ओ-कारस्स आ-कारं कत्वा निद्देसो।। ३५. तासन्ति द्विन्नम्पि निप्फत्तीनं । निमित्तभूतानीति आपककारणभूतानि । तथा हि लक्खीयति महापुरिसभावो एतेहीति लक्खणानि। ठानगमनादीसु भूमियं सुट्ट समं पतिहिता पादा एतस्साति सुप्पतिट्टितपादो। तं पनस्स सुप्पतिट्टितपादतं ब्यतिरेकमुखेन विभावेतुं “यथा"तिआदि वुत्तं । तत्थ अग्गतलन्ति अग्गपादतलं । पण्हीति पण्हितलं । पस्सन्ति पादतलस्स द्वीसु पस्सेसु एकेकं, उभयमेव वा परियन्तं पस्सं । “अस्स पना"तिआदि अन्वयतो अत्थविभावनं । सुवण्णपादुकतलमिव उजुकं निक्खिपियमानं । एकप्पहारेनेवाति एकखणेयेव । सकलं पादतलं भूमि फुसति निक्खिपने । एकप्पहारेनेव सकलं पादतलं भूमितो उट्ठहतीति योजना । तस्मा अयं सुप्पतिट्टितपादोति निगमनं । यं पनेत्थ वत्तब् अनुपुब्बनिन्नादिअच्छरियब्भुतं निस्सन्दफलं, तं परतो लक्खणसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० ३.२०१) आविभविस्सतीति । नाभि दिस्सतीति लक्खणचक्कस्स नाभि परिमण्डलसण्ठाना सुपरिब्यत्ता हुत्वा दिस्सति, लब्भतीति अधिप्पायो । नाभिपरिच्छिन्नाति तस्सं नाभियं परिच्छिन्ना परिच्छेदवसेन ठिता । नाभिमुखपरिक्खेपपट्टोति पकतिचक्कस्स अक्खड्भाहतपरिहरणत्थं नाभिमुखे ठपेतब्बं परिक्खेपपट्टो, तप्पटिच्छन्नो इध अधिप्पेतो। नेमिमणिकाति नेमियं आवलिभावेन ठितमणिकालेखा। सम्बहुलवारोति बहुविधलेखङ्गविभावनवारो। सत्तीति आवुधसत्ति । सिरिवच्छोति सिरिअङ्गा। नन्दीति दक्खिणावत्तं । सोवत्तिकोति सोवत्तिअङ्गो । वटंसकोति आवेळं । वड्डमानकन्ति पुरिमहादीसु दीपकं । मोरहत्थकोति मोरपिञ्छकलापो, मोरपिञ्छपटिसिब्बितो वा बीजनीविसेसो। वाळबीजनीति चामरिवालं । सिद्धत्यादि पुण्णघटपुण्णपातियो। “चक्कवाळो''ति वत्वा तस्स पधानावयवे दस्सेतुं "हिमवा सिनेरु...पे०... सहस्सानी"ति वुत्तं । "चक्कवत्तिरञो परिसं उपादाया"ति इदं हत्थिरतनादीनम्पि तत्थ लब्भमानभावदस्सनं। सब्बोतिसत्तिआदिको यथावुत्तो अङ्गविसेसो चक्कलक्खणस्सेव परिवारोति वेदितब्बो । 32 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३५-३५) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना “आयतपण्ही”ति इदं असं पण्हितो दीघतं सन्धाय वुत्तं, न पन अतिदीघन्ति आह “परिपुण्णपण्ही 'ति । यथा पन पहिलक्खणं परिपुण्णं नाम होति, तं ब्यतिरेकमुखेन दस्सेतुं " यथा ही "तिआदि वृत्तं । आरग्गेनाति मण्डलाय सिखाय । वट्टेत्वाति यथा सुवट्ट होति, एवं वट्टेत्वा । रत्तकम्बलगेण्डुकसदिसाति रत्तकम्बलमयगेण्डुकसदिसा | " मक्कटस्सेवा "ति दीघभावं, समतञ्च सन्धायेतं वृत्तं । छत्तिरितनिय्यासादिनिय्याससम्मिस्सेन तेलेन, यं “ सुरभिनिय्यास "न्तिपि निय्यासते लग्गहणञ्चेत्थ हरितालवट्टिया घनसिनिद्धभावदस्सनत्थं । ३३ यथा सतक्त्तुं विहतं कप्पासपटलं सप्पिमण्डे ओसारितं अतिविय मुदु होति, एवं महापुरिसस्स हत्थपादाति दस्सेन्तो “सप्पिमण्डे ''तिआदिमाह । तलुनाति सुखुमाला । निय्यासतेलेनाति वदन्ति । चम्मेनाति अङ्गुलन्तरवेठितचम्मेन । पटिबद्ध अङ्गुलन्तरोति एकतो सम्बद्धअङ्गुलन्तरो न होति । एकप्पमाणाति दीघतो समानप्पमाणा । यवलक्खणन्ति अब्भन्तरतो अङ्गुलिपब्बेठितं यवलक्खणं । पटिविज्झित्वाति तंतंपब्बानं समानदेसताय अङ्गुलीनं पसारितकालेपि अञ्ञमञ्जं विज्झितानि विय फुसित्वा तिट्ठन्ति । सङ्घा वुच्चन्ति गोप्फका, उद्धं सङ्घा एतेसन्ति उस्सङ्घा, पादा | पिट्ठिपादेति पिट्ठिपादसमीपे । तेनाति पिट्ठिपादे ठितगोप्फकभावेन बद्धा होन्तीति योजना । तयिदं “तेना’”ति पदं उपरिपदद्वयेपि योजेतब्बं " तेन बद्धभावेन न यथासुखं परिवट्टन्ति, तेन यथासुखं नपरिवट्टनेन गच्छन्तानं पादतलानिपि न दिस्सन्ती 'ति । उपरीति पिट्ठिपादतो द्वितिअङ्गुलिमत्तं उद्धं, " चतुरङ्गुलमत्त "न्ति च वदन्ति । निगूळहानि च होन्ति, न असं विय पञ्ञयमानानि । तेनाति गोप्फकानं उपरि पतिट्ठितभावेन । अस्साति महापुरिसस्स । सतिपि सन्तरप्पवत्तियं निच्चलोति दस्सनत्थं नाभिग्गहणं । " अधोकायोव इञ्जती " ति इदं पुरिमपदस्स कारणवचनं । यस्मा अधोकायोव इञ्जति, तस्मा नाभितो...पे०... निच्चलो होति । " सुखेन पादा परिवहन्तीति इदं पन पुरिमस्स, पच्छिमस्स च कारणवचनं । यस्मा सुखेन पादा परिवट्टन्ति, तस्मा अधोकायोव इञ्जति यस्मा सुखेन पादा परिवट्टन्ति, तस्मा पुरतोपि ... पे०... पच्छतोयेवाति । यस्मा एणिमिगस्स समन्ततो एकसदिसमंसा अनुक्कमेन उद्धं थूला जङ्घा होन्ति, 33 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३५-३५) तथा महापुरिसस्सापि, तस्मा वुत्तं "एणिमिगसदिसजको'ति । परिपुण्णजनोति समन्ततो मंसूपचयेन परिपुण्णजङ्घो । तेनाह "न एकतो"तिआदि । एतेनाति “अनोनमन्तो''तिआदिवचनेन, जाणुफासुभावदीपनेनाति अत्थो । अवसेसजनाति इमिना लक्खणेन रहितजना । खुज्जा वा होन्ति हेट्ठिमकायतो उपरिमकायस्स रस्सताय, वामना वा उपरिमकायतो हेट्ठिमकायस्स रस्सताय, एतेन ठपेत्वा सम्मासम्बुद्धं, चक्कवत्तिनञ्च इतरे सत्ता खुज्जपक्खिका, वामनपक्खिका चाति दस्सेति । कामं सब्बापि पदुमकण्णिका सुवण्णवण्णाव, कञ्चनपदुमकण्णिका पन पभस्सरभावेन ततो सातिसयाति आह "सुवण्णपदुमकण्णिकसदिसेही"ति। ओहितन्ति समोहितं अन्तोगधं । तथाभूतं पन तं तेन छन्नं होतीति आह “पटिच्छन्नन्ति । सुवण्णवण्णोति सुवण्णवण्णवण्णोति अयमेत्थ अत्थोति आह "जातिहिङ्गुलकेना"तिआदि, स्वायमत्थो आवुत्तिजायेन च वेदितब्बो । सरीरपरियायो इध वण्ण-सद्दोति अधिप्पायो । पठमविकप्पं वत्वा तथारूपाय पन रुव्हिया अभावं मनसि कत्वा वण्णधातुपरियायमेव वण्ण-सदं गहेत्वा दुतियविकप्पो वुत्तो। तस्मा पदद्वयेनापि सुनिद्धन्तसुवण्णसदिसछविवण्णोति वुत्तं होति । रजोति सुखुमरजो। जल्लन्ति मलीनभावावहो रेणुसञ्चयो । तेनाह “मलं वा"ति । यदि विवत्तति, कथं न्हानादीनीति आह "हत्थधोवनादीनी"तिआदि । आवट्टपरियोसानेति पदक्खिणावट्टनवसेन पवत्तस्स आवट्टस्स अन्ते । ब्रह्मनो सरीरं पुरतो वा पच्छतो वा अनोनमित्वा उजुकमेव उग्गतन्ति आह "ब्रह्मा विय उजुगत्तो"ति । सा पनायं उजुगत्तता अवयवेसु बुद्धिप्पत्तेसु दट्ठब्बा, न दहरकालेति वुत्तं “उग्गतदीघसरीरो भविस्सती"ति । इतरेसूति “खन्धजाणूसू"ति इमेसु बीसु ठानेसु नमन्ता पुरतो नमन्तीति आनेत्वा सम्बन्धो । पस्सवकाति दक्खिणपस्सेन वा वामपस्सेन वा वङ्का । सूलसदिसाति पोत्थकरूपकरणे ठपितसूलपादसदिसा। हत्थपिट्ठिआदिवसेन सत्त सरीरावयवा उस्सदा उपचितमंसा एतस्साति सत्तुस्सदो। 34 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.३५-३५) द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणवण्णना अट्ठिकोटियो पञ्ञायन्तीति योजना । निगूळ्हसिराजालेहीति लक्खणवचनमेतन्ति तेन निगूळ्हअट्ठिकोटीहीतिपि वुत्तमेव होतीति । पिट्ठादी एत्थ आदि-सन अंसकूटखन्धकूटानं सङ्गहे सिद्धे तं एकदेसेन दस्सेन्तो “वट्टेत्वा... पे०... खन्धेना "ति आह। “सिलारूपकं विया "तिआदिना वा निगूळ्हअंसकूटतापि विभाविता येवाति दट्ठब्बं । सीहस्स पुब्बद्धं सीहपुब्बद्धं, परिपुण्णावयवताय सीहपुब्बद्धं विय सकलो कायो अस्साति सीहपुब्बद्धकायो । तेनाह “सीहस्स पुब्बद्धकायो विय सब्बो कायो परिपुण्णोति । सीहस्सेवाति सीहस्स विय। दुस्सण्ठितविसण्ठितो न होतीति दुट्टु सण्ठितो, विरूपसण्ठितो च न होति, तेसं तेसं अवयवानं अयुत्तभावेन, विरूपभावेन च सण्ठिति उपगतो न होतीति अत्थो | सण्ठन्तीति सण्ठहन्ति । दीघेहीति अङ्गुलिनासादीहि । रस्सेहीति गीवादीहि । थूलेहीति ऊरुबाहु आदीहि । किसेहीति केसलोममज्झादीहि । पुथुलेहीति अक्खिहत्थतलादीहि । वट्टेहीति जङ्घहत्थादीहि । ३५ सतपुञ्ञलक्खणताय नानाचित्तेन पुञ्ञचित्तेन चित्तितो सञ्जातचित्तभावो “ ईदिसो एव बुद्धानं धम्मकायस्स अधिट्ठानं भवितुं युत्तो" ति दसपारमीहि सज्जितो अभिसङ्घतो, “दानचित्तेन पुञ्ञचित्तेनाति वा पाठो, दानवसेन, सीलादिवसेन च पवत्तपुञ्ञचित्तेनाति अत्थो । द्विनं कोट्टानं अन्तरन्ति द्विनं पिट्ठिबाहानं वेमज्झं पिट्ठिमज्झस्स उपरिभागो | चितं परिपुण्णन्ति अनिन्नभावेन चितं, द्वीहि कोट्टेहि समतलताय परिपुण्णं । उग्गम्माति उग्गन्त्वा, अनिन्नं समतलं हुत्वाति अधिप्पायो । तेनाह “सुवण्णफलकं विया' 'ति । परिमण्डलनिग्रोधो परिमण्डलो, विय परिमण्डल- सद्दस्स लोपं एकस्स कत्वा निग्रोधो विय परिमण्डलोति “निग्रोधपरिमण्डलपरिमण्डलो 'ति वत्तब्बे " निग्रोधपरिमण्डलो "ति वुत्तो । तेनाह “ समक्खन्धसाखो निग्रोधो " तिआदि । न हि सब्बो निग्रोधो परिमण्डलोति, परिमण्डलसद्दसन्निधानेन वा परिमण्डलोव निग्रोधो गय्हतीति एकस्स परिमण्डलसद्दस्स लोपेन विनापि अयमत्थो लब्भतीति आह " निग्रोधो विय परिमण्डलो " ति । यावतको अस्साति यावतक्वस्स ओ - कारस्स व कारादेसं कत्वा । समवट्टितक्खन्धोति समं सुवट्टितक्खन्धो । कोञ्चा विय दीघगला, बका विय 35 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३५-३५) वङ्कगला, वराहा विय सुवण्णमयखुद्दकमुदिङ्गसदिसो । पुथुलगलाति योजना। सुवण्णाळिङ्गसदिसोति रसग्गसग्गीति मधुरादिभेदं रसं गसन्ति अन्तो पवेसन्तीति रसग्गसा रसग्गसानं अग्गा रसग्गसग्गा, ता एतस्स सन्तीति रसग्गसग्गी। तेनाति ओजाय अफरणेन हीनधातुकत्ता ते बह्वाबाधा होन्ति। हनूति सन्निस्सयदन्ताधारस्स समझा, तं भगवतो सीहस्स हनु विय, तस्मा भगवा सीहहनु । तत्थ यस्मा बुद्धानं रूपकायस्स, धम्मकायस्स च उपमा नाम हीनूपमाव, नत्थि समानूपमा, कुतो अधिकूपमा, तस्मा अयम्पि हीनूपमाति दस्सेतुं "तत्था''तिआदि वुत्तं । यस्मा महापुरिसस्स हेट्ठिमानुरूपवसेनेव उपरिमम्पि सण्ठितं, तस्मा वुत्तं "बेपि परिपुण्णानी"ति, तञ्च खो न सब्बसो परिमण्डलताय, अथ खो तिभागावसेसमण्डलतायाति आह "बादसिया पक्खस्स चन्दसदिसानी"ति | सल्लक्खेत्वाति अत्तनो लक्खणसत्थानुसारेन उपधारेत्वा । दन्तानं उच्चनीचता अब्भन्तरबाहिरपस्सवसेनपि वेदितब्बा, न अग्गवसेनेव । तेनाह “अयपट्टकेन छिन्नसङ्घपटलं विया'ति । अयपट्टकन्ति ककचं अधिप्पेतं । समा भविस्सन्ति, न विसमा, समसण्ठानाति अत्थो। सातिसयं मुदुदीघपुथुलतादिप्पकारगुणा हुत्वा भूता जाताति पभूता, भ-कारस्स ह-कारं कत्वा पहूता जिव्हा एतस्साति पहूतजिव्हो। विच्छिन्दित्वा विच्छिन्दित्वा पवत्तसरताय छिन्नस्सरापि। अनेकाकारताय भिन्नस्सरापि। काकस्स विय अमनुञसरताय काकस्सरापि। अपलिबुद्धत्ताति अनुपडुतवत्थुकत्ता, वत्थूति च अक्खरुप्पत्तिट्ठानं वेदितब्बं । अट्ठङ्गसमन्त्रागतोति एत्थ अङ्गानि परतो आगमिस्सन्ति । मञ्जुघोसोति मधुरस्सरो। ___ अभिनीलनेत्तोति अधिकनीलनेत्तो, अधिकता च सातिसयं नीलभावेन वेदितब्बा, न नेत्तनीलभावस्सेव अधिकभावतोति आह "न सकलनीलनेत्तो"तिआदि । पीतलोहितवण्णा सेतमण्डलगतराजिवसेन । नीलसेतकाळवण्णा पन तंतंमण्डलवसेनेव वेदितब्बा । "चक्खुभण्डन्ति अक्खिदल''न्ति केचि । “अक्खिदलवटुम''न्ति अञ्छे । अक्खिदलेहि 36 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.३७-३७) पन सद्धिं अक्खिबिम्बन्ति वेदितब्बं । एवञ्हि विनिग्गतगम्भीरजोतनापि युत्ता होति । " अधिप्पेत "न्ति इमिना अयमेत्थ अधिप्पायो एकदेसेन समुदायुपलक्खणञायेनाति दस्सेति । यस्मा खुद्द लोके अक्खिदललो निरुळहो, तेनेवाह “मुदुसिनिद्धनीलसुखुमपखुमाचितानि अक्खीनी 'ति । विपस्सीसमञ्ञावण्णना किञ्चापि उण्णा - सद्दो लोके अविसेसतो लोमपरियायो, इध पन लोमविसेसवाचकोति आह " उण्णा लोम' "न्ति । नलाटवेमज्झे जाताति नलाटमज्झगता जाता। ओदातताय उपमा, न मुदुताय । उण्णा हि ततोपि सातिसयं मुदुतरा । तेनाह" सप्पि मण्डे "तिआदि । रजतपुब्बुळकन्ति रजतमयतारकमाह । द्वे अत्थवसे पटिच्च वुत्तन्ति यस्मा बुद्धा, चक्कवत्तिनो च परिपुण्णनलाटताय, परिपुण्णसीसबिम्बताय च " उण्हीससीसा" ति वुच्चन्ति तस्मा ते द्वे अत्थवसे पटिच्च " उण्हीससीसो "ति इदं वृत्तं । इदानि तं अत्थद्वयं महापुरिसे सुप्पतिट्ठितन्ति “ महापुरिसस्स ही”तिआदि वृत्तं । सण्हतमताय, सुवण्णवण्णताय, पभस्सरताय, परिपुण्णताय च रञ बन्धउण्हीसपट्टो विय विरोचति । कपिसीसाति द्विधाभूतसीसा । फलसीसाति फलितसीसा । असीसात मंसस्स अभावतो अतिविय अट्ठिताय, पतनुभावो वा तचोनद्धअट्ठिमत्तसीसा । तुम्बसीसाति लाबुसदिससीसा । पब्भारसीसाति पिट्ठिभागेन ओलम्बमानसीसा । पुरिमनयेनाति परिपुण्णनलाटतापक्खेन । उण्हीसवेठितसीसो वियाति उहीसपट्टेन वेठितसीसपदेसो विय । उण्हीसं वियाति छेकेन सिप्पिना विरचितउण्हीसमण्डलं विय । ३७ विपस्सीसमञ्ञवण्णना ३७. तस्स वित्थारोति तस्स लक्खणपरिग्गण्हने नेमित्तकानं सन्तप्पनस्स वित्थारो वित्थारकथा | गब्भोक्कन्तियं निमित्तभूत सुपिनपटिग्गाहकसन्तप्पने कुत्तोयेव । निद्दोसेनाति खारिकलोणिकादिदोसरहितेन । धातियोति थञ्ञपायिका धातियो । ता हि धापेन्ति थञ पायेन्तीति धातियो । " तथा "ति इमिना "सट्ठि "न्ति पदं उपसंहरति, सेसापीति न्हापिका, धारिका, परिहारिकाति इमा तिविधा । तापि दहन्ति विदहन्ति न्हानं दहन्ति धारेन्तीति "धातियो" त्वेव वुच्चन्ति । तत्थ धारणं उरसा, ऊरुना, हत्थेहि वा सुचिरं वेलं सन्धारणं । 37 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.३८-३९) परिहरणं अचस्स अङ्कतो अत्तनो अङ्घ, अञस्स बाहुतो अत्तनो बाहुं उपसंहरन्तेहि हरणं सम्पापनं। ३८. मञ्जुस्सरोति सहस्सरो। यो हि सण्हो, सो खरो न होतीति आह "अखरस्सरो"ति । वग्गुस्सरोति मनोरम्मस्सरो, मनोरम्मता चस्स चातुरियने पुञयोगतोति आह "छेकनिपुणस्सरो"ति | मधुरस्सरोति सोतसुखस्सरो, सोतसुखता चस्स अतिविय इट्ठभावेनाति आह "सातस्सरो"ति । पेमनीयस्सरोति पियायितब्बस्सरो, पियायितब्बता चस्स सुणन्तानं अत्तनि भत्तिसमुप्पादनेनाति आह "पेमजनकस्सरो"ति। करवीकस्सरोति । करवीकसहो येसं सत्तानं सोतपथं उपगच्छति, ते अत्तनो सरसम्पत्तिया पकतं जहापेत्वा अवसे करोन्तो अत्तनो वसे वत्तेति, एवं मधुरोति दस्सेन्तो "तत्रिद"न्तिआदिमाह । तत्थ "करवीकसकुणे"तिआदि तस्स सभावकथनं । लळितन्ति पीतिवेगसमुट्टितं लीळं । छड्डत्वाति “सङ्घरणम्पि मधुरसद्दसवनन्तरायकर''न्ति तिणानि अपनेत्वा। अनिक्खिपित्वाति भूमियं अनिक्खिपित्वा आकासगतमेव कत्वा । अनुबद्धमिगा वाळमिगेहि । ततो मरणभयं हित्वा । पक्खे पसारेत्वाति पक्खे यथापसारिते कत्वा अपतन्ता तिट्ठन्ति । सुवण्णपञ्जरं विस्सज्जेसि योजनप्पमाणे आकासे अत्तनो आणाय पवत्तनतो । तेनाह "सो राजाणाया"तिआदि । लळिंसूति लळितं कातुं आरभिंसु । तं पीतिन्ति तं बुद्धगुणारम्मणं पीतिं तेनेव नीहारेन पुनप्पुनं पवत्तं पीति अविजहित्वा विक्खम्भितकिलेसा थेरानं सन्तिके लद्धधम्मस्सवनसप्पाया उपनिस्सयसम्पत्तिया परिपक्कआणताय सत्तहि...पे०... पतिहासि। सत्तसतमत्तेन ओरोधजनेन सद्धिं पदसाव थेरानं सन्तिकं उपगतत्ता "सत्तहि जनसतेहि सद्धि"न्ति वुत्तं । ततोति करवीकसदतो। सतभागेन...पे०... वेदितब्बो अनेककप्पकोटिसतसम्भूतपुञ्जसम्भारसमुदागतवत्थुसम्पत्तिभावतो। ३९. कम्मविपाकजन्ति सातिसयसुचरितकम्मनिब्बत्तं पित्तसेम्हरुहिरादीहि अपलिबुद्धं दूरेपि आरम्मणं सम्पटिच्छनसमत्थं कम्मविपाकेन सहजातं, कम्मस्स वा विपाकभावेन जातं पसादचक्खु । दुविधहि दिब्बच कम्ममयं, भावनामयन्ति । तत्रिदं कम्ममयन्ति आह "न भावनामय"न्ति । भावनामयं पन बोधिमूले उप्पज्जिस्सति । अयं “सो"ति सल्लक्खणं कामं मनोविज्ञाणेन होति, चक्खुविज्ञाणेन पन तस्स तथा विभावितत्ता मनोविज्ञाणस्स तत्थ तथापवत्तीति आह "येन निमित्तं...पे०... सक्कोती"ति । 38 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४०-४२) (१.४०-४२) विपस्सीसमञावण्णना ४०. वचनत्थोति सद्दत्थो । निमीलनन्ति निमीलनदस्सनं नविसुद्धं, तथा च अक्खीनि अविवटानि निमीलदस्सनस्स न विसुद्धिभावतो। तब्बिपरियायतो पन दस्सनं विसुद्धं, विवटञ्चाति आह "अन्तरन्तरा'"तिआदि । ४१. नी-इति - जाननत्थं धातुं गहेत्वा आह "पनयति जानाती"ति । यतो वुत्तं “अनिमित्ता न नायरे''ति (विसुद्धि० १.१७४; सं० नि० अठ्ठ० १.१.२०), "विदूभि नेय्यं नरवरस्सा''ति (नेत्ति० सङ्गहवार) च । नी-इति पन पवत्तनत्थं धातुं गहेत्वा "नयति पवत्तेती''ति । अप्पमत्तो अहोसि तेसु तेसु किच्चकरणीयेसु । ४२. वस्सावासो वस्सं उत्तरपदलोपेन, तस्मा वस्सं, वस्से वा, सन्निवासफासुताय अरहतीति वस्सिको, पासादो। मासा पन वस्से उतुम्हि भवाति वस्सिका। इतरेसूति हेमन्तिकं गिम्हिकन्ति इमेसु । एसेव नयोति उत्तरपदलोपेन निद्देसं अतिदिसति । नातिउच्चो होति नातिनीचोति गिम्हिको विय उच्चो, हेमन्तिको विय नीचो न होति, अथ खो तदुभयवेमज्झलक्खणताय नातिउच्चो होति, नातिनीचो। अस्साति पासादस्स | नातिबहूनीति गिम्हिकस्स विय न अतिबहूनि । नातितनूनीति हेमन्तिकस्स विय न खुद्दकानि, तनुतरजालानि च। मिस्सकानेवाति हेमन्तिके विय न उण्हनियानेव, गिम्हिके विय च न सीतनियानेव, अथ खो उभयमिस्सकानेव । तनुकानीति न पुथुलानि । उण्हप्पवेसनत्थायाति सूरियसन्तापानुप्पवेसाय । भित्तिनियूहानीति दक्खिणपस्से भित्तीसु नियूहानि | सिनिद्धन्ति सिनेहवन्तं, सिनिद्धग्गहणेनेव चस्स गरुकतापि वुत्ता एव । कटुकसन्निस्सितन्ति तिकटुकादिकटुकद्रब्बूपसहितं । उदकयन्तानीति उदकधाराविस्सन्दयन्तानि | यथा जलयन्तानि, एवं हिमयन्तानिपि तत्थ करोन्ति एव । तस्मा हेमन्ते विय हिमानि पतन्तानियेव होन्तीति च वेदितब्बं । सब्बट्ठानानिपीति सब्बानि पटिकिरियान्हानभोजनकीळासञ्चरणादिवानानिपि, न निवासट्टानानियेव । तेनाह "दोवारिकापी"तिआदि। तत्थ कारणमाह "राजा किरा"तिआदि । पठमभाणवारवण्णना निहिता । 39 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दीघनिकाये महावग्गटीका जिण्णपुरिसवण्णना ४४. गोपानसिबङ्कन्ति वङ्कगोपानसी विय । वङ्कानञ्हि वङ्कभावस्स निदस्सनत्थं अवङ्कगोपानसीपि गय्हति । आभोग्गवङ्कन्ति आदितो पट्ठाय अब्भुग्गताय कुटिलसरीरताय वङ्कं । तेनाह “खन्धे "तिआदि । दण्डपरं दण्डग्गहणपरं अयनं गमनं एतस्साति दण्डपरायनं, दण्डो वा परं आयनं गमनकारणं एतस्साति दण्डपरायनं । ठानादीसु दण्डो गति अवस्सयो एतस्स तेन विना अप्पवत्तनतोति दण्डगतिकं, गच्छति एतेनाति वा गति, दण्डो गति गमनकारणं एतस्साति दण्डगतिकं । दण्डपटिसरणन्ति एत्थापि एसेव नयो । जरातुरन्ति जराय किलन्तं अस्सवसं । यदा रथो पुरतो होतीति द्वेधापथे सम्पत्ते पुरतो गच्छन्ते बकाये तथ एकं सण्ठानं आरुळ्हो मज्झे गच्छन्तो बोधिसत्तेन आरुळहो रथो इतरं सण्ठानं गच्छन्तो यदा पुरतो होत पच्छा बलकायोति तदा पच्छा होति सब्बो बलकायो । तादिसे ओकासेति तादिसे वृत्तप्पकारे मग्गप्पदेसे । तं पुरिसन्ति तं जिष्णपुरिसं । सुद्धावासाति सिद्धत्थादीनं तिण्णं सम्मासम्बुद्धानं सासने ब्रह्मचरियं चरित्वा सुद्धावासभूमियं निब्बत्तब्रह्मानो । ते हि तदा तत्थ तिट्ठन्ति । " किं पनेसो जिण्णो नामा "ति एसो तया वुच्चमानो किं अत्थतो, तं मे निद्वारेत्वा कथेहीति दस्सेति । अनिद्धारितसरूपत्ता हि तस्स अत्तनो बोधिसत्तो लिङ्गसब्बनामेन तं वदन्तो " कि "न्ति आह । “यथा किं ते जात "न्ति द्वयमेव हि लोके येभुय्यतो जायति इत्थी वा पुरिसो वा, तथापि तं लिङ्गसब्बनामेन वुच्चति एवं सम्पदमिदं वेदितब्बं । " किं वुत्तं होती "तिआदि तस्स अनिद्धारितसरूपतंयेव विभावेति । "तेन ही "तिआदि “ अयञ्च जिण्णभावो सब्बसाधारणत्ता मय्हम्पि उपरि आपत्तितो एवा "ति महासत्तस्स संविज्जनाकारविभावनं । रथं सारेतीति सारथि । कीळाविहारत्थं उय्युत्ता यन्ति उपगच्छन्ति एतन्ति उय्यानं । अलन्ति पटिक्खेपवचनं । नामाति गरहणे निपातो “कथञ्हिनामा’तिआदीसु ( पारा० ३९, ४२, ८७, ८८, ९०, १६६, १७०; पाचि० १, १३, ३६) विय । जातिया आदीनवदस्सनत्थं तंमूलस्स उम्मूलनं विय होतीति, तस्स च अवस्सितभावतो " जातिया मूलं खणन्तो निसीदी" ति आह । सिद्धे हि कारणे फलं सिद्धमेव होतीति। पीळं जनेत्वा अन्तोतुदनवसेन सब्बपठमं हृदयं अनुपविस्स ठितत्ता पठमेन सल्लेन हदये विद्धो विय निसीदीति योजना | (१.४४-४४) 40 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.४७–५४) ब्याधिपुरिसवण्णना ब्याधिपुरिसवण्णना ४७. पुब्बे वुत्तनयेनेवाति “सुद्धावासा किरा"तिआदिना पुब्बे वुत्तेनेव नयेन | आबाधिकन्ति आबाधवन्तं । दुक्खितन्ति सञ्जातदुक्खं । अजातन्ति अजातभावो, निब्बानं वा। कालकतपुरिसवण्णना ५०. भन्तनेत्तकुप्पलादि विविधं कत्वा लातब्बतो विलातो, वह, सिविका चाति आह "विलातन्ति सिविक"न्ति । सिविकाय दिट्ठपुब्बत्ता महासत्तो चितकपञ्जरं "सिविक"न्ति आह। इतो पटिगतन्ति इतो भवतो अपगतं । कतकालन्ति परियोसापितजीवनकालं | तेनाह “यत्तक"न्तिआदि । पब्बजितवण्णना ५३. धम्मं चरतीति धम्मचरणो, तस्स भावो धम्मचरणभावोति धम्मचरियमेव वदति । एवं एकेकस्स पदस्साति यथा “साधुधम्मचरियाति पब्बजितो"ति योजना, एवं “साधुसमचरियाति पब्बजितो"तिआदिना एकेकस्स पदस्स योजना वेदितब्बा। सब्बानीति “साधुधम्मचरिया'तिआदीसु आगतानि सब्बानि धम्मसमकुसलपुञपदानि । दसकुसलकम्मपथवेवचनानीति दानादीनि दसकुसलधम्मपरियायपदानि । बोधिसत्तपब्बज्जावण्णना ५४. पब्बजितस्स धम्मिं कथं सुत्वाति सम्बन्धो । अझञ्च सङ्गीतिअनारुळ्हं तेन तदा वुत्तं धम्मिं कथन्ति योजना । "वंसोवा"ति पदत्तयेन धम्मता एसाति दस्सेति । चिरस्सं चिरस्सं पस्सन्ति दीघायुकभावतो। तथा हि वुत्तं “बहूनं वस्सानं...पे०... अच्चयेना''ति । तेनेवाति न चिरस्सं दिट्ठभावेनेव । अचिरकालन्तरिकमेव पुब्बकालकिरियं दस्सेन्तो "जिण्णञ्च दिस्वा...पे०... पब्बजितञ्च दिस्वा, तस्मा अहं पब्बजितोम्हि राजा"ति आह यथा "न्हत्वा वत्थं परिदहित्वा गन्धं विलिम्पित्वा मालं पिळन्धित्वा भुत्तो''ति । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दीघनिकाये महावग्गटीका महाजनकाय अनुपब्बज्जावण्णना ५५. " कस्मा पनेत्था "तिआदिना तेसं चतुरासीतिया पाणसहस्सानं महासत्ते संभत्ततं, संवेगबहुलतञ्च दस्सेति, यतो सुतट्ठानेयेव ठत्वा जतिमित्तादीसु किञ्चि अनामन्तेत्वा मत्तवरवारणो विय अयोमयबन्धनं घनबन्धनं छिन्दित्वा पब्बज्जं उपगच्छंसु । चत्तारो मासे चारिकं चरि न ताव आणस्स परिपाकं गतत्ता । यदा पन आणं परिपाकं गतं तं दस्सेन्तो “अयं पना "तिआदिमाह । सब्बेव इमे पब्बजिता मम गमनं जानिस्सन्ति, जानन्ता च मं अनुबन्धिस्सन्तीति अधिप्पायो । सन्निसीवेसूति सन्निसिन्नेसु । सणतेवाति सणति विय सद्दं करोति विय । (१.५५-५७) अविवेकारामानन्ति अनभिरतिविवेकानं । अयं कालोति अयं तेसं पब्बजितानं मम गमनस्स अजाननकालो। निक्खमित्वाति पण्णसालाय निग्गन्त्वा, महाभिनिक्खमनं पन पगेव निक्खन्तो । पारमितानुभावेन उट्ठितं उपरि देवताहि दिब्बपच्चत्थरणेहि सुपञ्ञत्तम्पि महासत्तस्स पुञ्ञानुभावेन सिद्धत्ता तेन पञ्ञत्तं विय होतीति वुत्तं “पल्लङ्कं पञ्ञपेत्वा’”ति । “कामं तचो च न्हारु च, अट्ठि च अवसिस्सतू तिआदि (म० नि० २. १८४; सं० नि० १.२.२२, २३७; अ० नि० १.२.५; ३.८.१३; महानि० १७, १९६) नयप्पवत्तं चतुरङ्गवीरियं अधिट्ठहित्वा । वूपकासन्ति विवेकवासं । अज्ञेनेवाति यत्थ महापुरिसो तदा विहरति, ततो अञ्ञेनेव दिसाभागेन । कामं बोधिमण्डो जम्बुदीपस्स मज्झे नाभिट्ठानियो, तदा पन ब्रहार विवित्ते योगीनं पटिसल्लानसारूप्पो हुत्वा तिट्ठति, तदञ्ञो पन जम्बुदीपप्पदेसो येभुय्येन बहुजनो आकिण्णमनुस्सो इद्धो फीतो अहोसि । तेन ते तं तं जनपददेसं उद्दिस्स गता " अन्तो जम्बुदीपाभिमुखा चारिकं पक्कन्ता ति वुत्ता अन्तो जम्बुदीपाभिमुखा, न हिमवन्तादिपब्बताभिमुखाति अत्थो । बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना ५७. कामं भगवा बुद्धो हुत्वा सत्तसत्ताहानि तत्थेव वसि, सब्बपठमं पन 42 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५७-५७) बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना विसाखपुण्णम सन्धाय “एकरत्तिवासं उपगतस्सा''ति वुत्तं । रहोगतस्साति रहो जनविवित्तं ठानं उपगतस्स, तेन गणसङ्गणिकाभावेन महासत्तस्स कायविवेकमाह । पटिसल्लीनस्साति नानारम्मणचारतो चित्तस्स निवत्तिया पति सम्मदेव निलीनस्स तत्थ अविसटचित्तस्स, तेन चित्तसङ्गणिकाभावेनस्स पुब्बभागियं चित्तविवेकमाह | दुक्खन्ति जातिआदिमूलकं दुक्खं । कामं चुतूपपातापि जातिमरणानि एव, मरणजातियोव "जायति मीयती"ति पन वत्वा "चवति उपपज्जती"ति वचनं न एकभवपरियापन्नानं नेसं गहणं, अथ खो नानाभवपरियापन्नानं एकज्झं गहणन्ति दस्सेन्तो आह "इदं द्वयं...पे०... वुत्त"न्ति । कस्मा पन लोकस्स किच्छापत्तिपरिवितक्कने “जरामरणस्सा"ति जरामरणवसेन नियमनं कतन्ति आह “यस्मा''तिआदि। जरामरणमेव उपट्ठाति आदितोति अधिप्पायो । अभिनिविट्ठस्साति आरद्धस्स । पटिच्चसमुप्पादमुखेन विपस्सनारम्भे तस्स जरामरणतो पट्ठाय अभिनिवेसो अग्गतो याव मूलं ओतरणं वियाति आह "भवग्गतो ओतरन्तस्स विया"ति । उपायमनसिकाराति उपायेन मनसिकरणतो मनसिकारस्स पवत्तनतो। इदानि तं उपायमनसिकारपरियायं योनिसोमनसिकारं सरूपतो, पवत्तिआकारतो च दस्सेतुं "अनिच्चादीनि ही"तिआदि वुत्तं। योनिसोमनसिकारो नाम होतीति याथावतो मनसिकारभावतो। अनिच्चादीनीति आदि-सद्देन दुक्खानत्तअसुभादीनं गहणं । अयन्ति "एतदहोसी''ति एवं वुत्तो “किम्हि नु खो सती''तिआदिनयप्पवत्तो मनसिकारो। तेसं अञतरोति तेसु अनिच्चादिमनसिकारेसु अञतरो एको। को पन सोति ? अनिच्चमनसिकारोव, तत्थ कारणमाह "उदयब्बयानुपस्सनावसेन पवत्तत्ता"ति । यहि उप्पज्जति चेव चवति च, तं अनिच्चं उदयवयपरिच्छिन्नत्ता अद्धवन्ति कत्वा । तस्स पन तब्भावदस्सनं याथावमनसिकारताय योनिसोमनसिकारो । इतो योनिसोमनसिकाराति हेतुम्हि निस्सक्कवचनन्ति तस्स इमिना "उपायमनसिकारेना"ति हेतुम्हि करणवचनेन अस्थमाह । समागमो अहोसीति याथावतो पटिविज्झनवसेन सङ्गमो अहोसि । किं पन तन्ति किं पन तं जरामरणकारणन्ति आह "जाती"ति । “जातिया खो''तिआदीसु अयं सोपत्थोकिम्हि नु खो सति जरामरणं होति, किं पच्चया जरामरण''न्ति जरामरणकारणं परिग्गण्हन्तस्स बोधिसत्तस्स “यस्मिं सति यं होति, असति च न होति, तं तस्स कारण"न्ति एवं अव्यभिचारिकारणपरिग्गण्हने “जातिया खो सति जरामरणं होति, जातिपच्चया जरामरण"न्ति या जरामरणस्स कारणपरिग्गाहिका पञ्जा उप्पज्जति, ताय उप्पज्जन्तिया समागमो अहोसीति । सब्बपदानीति "किम्हि नु खो सति जाति होती''तिआदिना आगतानि जातिआदीनि विज्ञाणपरियोसानानि नव पदानि । 43 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ दीघनिकाये महावग्गटीका 66 द्वादसपदिके पटिच्चसमुप्पादे इध यानि द्वे पदानि अग्गहितानि, तेसं अग्गहणे कारणं पुच्छित्वा विस्सज्जेतुकामो तेसं गहेतब्बाकारं ताव दस्सेन्तो “ एत्थ पना "तिआदिमाह । पच्चक्खभूतं पच्चुप्पन्नभवं पठमं गत्वा तदनन्तरं अनागतं “दुतियन्ति गहणे अतीतो ततियो होतीति आह 'अविज्जा सङ्घारा हि अतीतो भवो 'ति । ननु चेत्थ अनागतस्सापि भवस्स गहणं न सम्भवति पच्चुप्पन्नवसेन अभिनिवेसस्स जोतितत्ताति ? सच्चमेतं, कारणे पन गहिते फलं गहितमेव होतीति तथा वुत्तन्त दट्टब्बं । अपि चेत्थ अनागतोपि अद्धा अत्थतो सङ्गहितो एव, यतो परतो “नामरूपपच्चया सळायतन'"न्तिआदिना अनागतद्धसङ्गहिका देसना पवत्ता । तेहीति अविज्जासङ्घारेहि आरम्मणभूतेहि । न घटियति न सम्बज्झति । महापुरिसो हि पच्चुप्पन्नवसेन अभिनिविट्ठोति अघटने कारणमाह । अदिट्ठेहीति अनवबुद्धेहि, इत्थम्भूतलक्खणे चेतं करणवचनं । सति अनुबोधे पटिवेधेन भवितब्बन्ति आह “न सक्का बुद्धेन भवितु "न्ति । इमिनाति महासत्तेन । तेति अविज्जासङ्घारा । भवउपादानतण्हावसेनेवाति भवउपादानतण्हादस्सनवसेनेव । दिट्ठा तंसभावतंसहगतेहि तेहि समानयोगक्खमत्ता | विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० २.५७०) कथिताव, तस्मा न इध कथेतब्बाति अधिप्पायो । ५८. पच्चयतोति हेतुतो, सङ्घारतोति अत्थो । “किम्हि नु खो सति जरामरणं होती”तिआदिना हि हेतुपरम्परावसेन फलपरम्पराय वुच्चमानाय " किम्हि नु खो सति विञ्ञाणं होती"ति विचारणाय “सङ्घारे खो सति विञ्ञाणं होती 'ति विञ्ञाणस्स विसेसकारणभूते सङ्घारे अग्गहिते ततो विञ्ञाणं पटिनिवत्तति नाम, न सब्बपच्चयतो । तेनेवाह “ नामरूपे खो सति विञ्ञाणं होती 'ति ( दी० नि० २.५८), नामम्पि चेत्थ सहजातादिवसेनेव पच्चयभूतं अधिप्पेतं, न कम्मूपनिस्सयवसेन पच्चुप्पन्नवसेन अभिनिविसस्स जोतितत्ता । आरम्मणतोति अविज्जासङ्घारसङ्घातआरम्मणतो, अतीतभवसङ्घातआरम्मणतो वा । अतीतद्धपरियापन्ना हि अविज्जासङ्घारा । यतो पटिनिवत्तमानं विञ्ञाणं अतीतभवतोपि पटिनिवत्तति नाम | उभयम्पीति पटिसन्धिविञ्ञाणम्पि विपस्सनाविञ्ञाणम्पि । नामरूपं नातिक्कमतीति पच्चयभूतं, आरम्मणभूतञ्च नामरूपं नातिक्कमति तेन विना अवत्तनतो । तेनाह “ नामरूपतो परं न गच्छतीति । (१९.५८-५८) विञ्ञणे नामरूपस्स पच्चये होन्तेति विञ्ञाणे नामस्स, रूपस्स, नामरूपस्स च पच्चये होन्ते । नामरूपे च विञ्ञणस्स पच्चये होन्तेति तथा नामे, रूपे, नामरूपे च 44 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.५९-५९) बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना विज्ञाणस्स पच्चये होन्तेति चतुवोकारएकवोकारपञ्चवोकारभववसेन यथारहं योजना वेदितब्बा, द्वीसुपि अञमञ्जपच्चयेसु होन्तेसूति पन पञ्चवोकारभववसेनेव । एत्तकेनाति एवं विज्ञाण नामरूपानं अञमञ्ज उपत्थम्भनवसेन पवत्तिया । जायेथ वा...पे०... उपपज्जेथ वाति “सत्तो जायति...पे०... उपपज्जति वा''ति समझा होति विज्ञाणनामरूपविनिमुत्तस्स सत्तपञत्तिया उपादानभूतस्स धम्मस्स अभावतो। तेनाह "इतो ही"तिआदि । एतदेवाति विज्ञाणं, नामरूपन्ति एतं द्वयमेव । पञ्च पदानीति “जायेथ वा''तिआदीनि पञ्च पदानि । ननु तत्थ पठमततियेहि चतुत्थपञ्चमानि अत्थतो अभिन्नानीति आह "सद्धिं अपरापरं चुतिपटिसन्धीही"ति । पुन तं एत्तावताति वुत्तमत्थन्ति यो “एत्तावता''ति पदेन पुब्बे वुत्तो, तमेव यथावुत्तमत्थं “यदिद"न्तिआदिना निय्यातेन्तो निदस्सेन्तो पुन वत्वा। अनुलोमपच्चयाकारवसेनाति पच्चयधम्मदस्सनपुब्बकं पच्चयुप्पन्नधम्मदस्सनवसेन । पच्चयधम्मानहि अत्तनो पच्चयुप्पन्नस्स पच्चयभावो इदप्पच्चयता पच्चयाकारो, सो च "अविज्जापच्चया सङ्खारा''तिआदिना वुत्तो। संसारप्पवत्तिया अनुलोमनतो अनुलोमपच्चयाकारो। जातिआदिकं सब्बं वट्टदुक्खं चित्तेन समिहितेन कतं समूहवसेन गहेत्वा पाळियं “दुक्खक्खन्धस्सा''ति वुत्तन्ति आह "जाति...पे०... दुक्खरासिस्सा"ति । ५९. दुक्खक्खन्धस्स अनेकवारं समुदयदस्सनवसेन विज्ञाणस्स पवत्तत्ता "समुदयो समुदयो"ति आमेडितवचनं अवोच। अथ वा “एवं समुदयो होती"ति इदं न केवलं निब्बत्तिनिदस्सनपदं, अथ खो पटिच्चसमुप्पाद-सद्दो विय समुप्पादमुखेन इध समुदय-सद्दो निब्बत्तिमुखेन पच्चयत्तं वदति । विज्ञाणादयो भवन्ता इध पच्चयधम्मा निद्दिट्टा, ते सामञ्जरूपेन ब्यापनिच्छावसेन गण्हन्तो “समुदयो समुदयो'ति आह, एवञ्च कत्वा यं वक्खति “इमस्मिं सति इदं होतीति पच्चयसञ्जाननमत्तं कथित''न्ति, (दी० नि० अट्ठ० २.५९) तं समत्थितं होति । यदि एवं “उदयदस्सनपञ्जा वेसा''ति इदं कथन्ति ? नायं दोसो पच्चयतो उदयदस्सनमुखेन निब्बत्तिलक्खणदस्सनस्स सम्भवतो । दस्सनट्रेन चक्खूति समुदयस्स पच्चक्खतो दस्सनभावेन चक्खु वियाति चक्खु । आतकरणद्वेनाति यथा समुदयो सम्मदेव जातो होति अवबुद्धो, एवं करणढेन । पजाननटेनाति “विज्ञाणादितंतंपच्चयुप्पत्तिया एतस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होती"ति पकारतो जाननटेन । निबिज्झित्वा पटिविज्झित्वा उप्पन्नटेनाति अनिबिज्झित्वा पुब्बे उदयदस्सनपञ्जाय पटिपक्खधम्मे निब्बिज्झित्वा “अयं समुदयो''ति पच्चयतो, खणतो च, सरूपतो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.६१-६२) पटिविज्झित्वा उप्पन्नभावेन, निबिज्झनटेन पटिविज्झनटेन विज्जाति वुत्तं होति । ओभासद्वेनाति समुदयसभावपटिच्छादनकस्स मोहन्धकारस्स च किलेसन्धकारस्स च विधमनवसेन अवभासकभावेन । इदानि यथावुत्तमत्थं पटिपाटिया विभावेतुं “यथाहा"तिआदि वुत्तं । तत्थ चक्खुं उदपादीति पाळियं पदुद्धारो। कथं उदपादीति चेति आह "दस्सनटेना"ति । “समुदयस्स पच्चक्खतो दस्सनभावेनाति वुत्तो वायमत्थो । इमिना नयेन सेसपदेसुपि अत्थो वेदितब्बो । चक्खुधम्मोति चक्खूति पाळिधम्मो । दस्सनट्ठो अत्थोति दस्सनसभावो तेन पकासेतब्बो अत्थो । सेसेसुपि एसेव नयो । एत्तकेहि पदेहीति इमेहि पञ्चहि पदेहि । "किं कथित"न्ति पिण्डत्थं पुच्छति । पच्चयसञ्जाननमत्तन्ति विज्ञाणादीनं पच्चयधम्मानं नामरूपादिपच्चयुप्पन्नस्स पच्चयसभावसञ्जाननमत्तं कथितं अविसेसतो पच्चयसभावसल्लक्खणस्स जोतितत्ता । सङ्घारानं सम्मदेव उदयदस्सनस्स जोतितत्ता “वीथिपटिपना तरुणविपस्सना कथिता"ति च वुत्तं । ६१. अत्तना अधिगतत्ता आसन्नपच्चक्खताय “अय"न्ति वुत्तं, अरियमग्गादीनं मग्गनवेन मग्गोति । पुब्बभागविपस्सना हेसा। तेनाह "बोधाया"ति । बोधपदस्स भावसाधनतं सन्धायाह "चतुसच्चबुज्झनत्थाया'ति । परिञापहानभावनाभिसमया यावदेव सच्छिकिरियाभिसमयत्था निब्बानाधिगमत्थत्ता ब्रह्मचरियवासस्साति वुत्तं "निब्बानबुज्झनत्थाय एव वा"ति | "निब्बानं परमं सुख"न्ति (म० नि० २.२१५, २१७; ध० प० २०४) हि वुत्तं । बुज्झतीति चत्तारि अरियसच्चानि एकपटिवेधेन पटिविज्झति, तेन बोध-सद्दस्स कत्तुसाधनत्तमाह । पच्चत्तपदेहीति पठमाविभत्तिदीपकेहि पदेहि। निब्बानमेव कथितं विज्ञाणादि निरुज्झति एत्थाति कत्वा । अनिब्बत्तिनिरोधन्ति सब्बसो पच्चयनिरोधेन अनुप्पादनिरोधं अच्चन्तनिरोधं । ६२. सब्बेहेव एतेहि पदेहीति "चक्खू"तिआदीहि पञ्चहि पदेहि । निरोधसजाननमत्तमेवाति “निरोधो निरोधोति खो"तिआदिना निरोधस्स सञ्जाननमत्तमेव कथितं पुब्बारम्भभावतो, न तस्स पटिविज्झनवसेन पच्चक्खतो दस्सनं अरियमग्गस्स अनधिगतत्ता। सङ्घारानं सम्मदेव निरोधदस्सनं नाम सिखाप्पत्ताय विपस्सनाय वसेन इच्छितब्बन्ति “बुढानगामिनी बलवविपस्सना कथिता"ति च वुत्तं । 46 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६३-६३) बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना ४७ ६३. विदित्वाति पुब्बभागियेन जाणेन जानित्वा । ततो अपरभागेति वुत्तनयेन पच्चयनिरोधजाननतो पच्छाभागे। उपादानस्स पच्चयभूतेसूति चतुब्बिधस्सपि उपादानस्स आरम्मणपच्चयादिना पच्चयभूतेसु, उपादानियेसूति अत्थो । वहन्तोति पवत्तेन्तो। इदन्ति “अपरेन समयेना'"तिआदि वचनं । कस्मा वुत्तन्ति “याय पटिपत्तिया सब्बेपि महाबोधिसत्ता चरिमभवे बोधाय पटिपज्जन्ति, विपस्सनाय महाबोधिसत्तेन तथेव पटिपन्न''न्ति कथेतुकम्यतावसेन पुच्छावचनं । तेनाह "सब्बेयेव ही"तिआदि । तत्थ पुत्तस्स जातदिवसे महाभिनिक्खमनं, पधानानुयोगो च धम्मतावसेन वेदितब्बो, इतरं इतिकत्तब्बतावसेन । तत्थापि चिरकालपरिभावनाय लद्धासेवनाय महाकरुणाय सञ्चोदितमानसत्ता “किच्छं वतायं लोको आपन्नो'"तिआदिना (दी० नि० २.५७; सं० नि० १.२.४, १०) संसारदुक्खतो मोचेतुं इच्छितस्स सत्तलोकस्स किच्छापत्तिदस्सनमुखेन जरामरणतो पट्ठाय पच्चयाकारसम्मसनम्पि धम्मताव । तथा अत्ताधीनताय, केनचि अनुपखतत्ता, असेचनकसुखविहारताय, चतुत्थज्झानिकताय च आनापानकम्मट्ठानानुयोगो । पञ्चसु खन्धेसु अभिनिविसित्वाति विज्ञाणनामरूपादिपरियायेन गहितेसु पञ्चसु उपादानक्खन्धेसु विपस्सनाभिनिवेसवसेन अभिनिविसित्वा पटिपत्तिं आरभित्वा । अनुक्कमन्ति अनु अनु गामितब्बतो पटिपज्जितब्बतो “अनुक्कम"न्ति लद्धनामं अनुपुब्बपटिपत्तिं । कत्वाति पटिपज्जित्वा । इति रूपन्ति एत्थ दुतियो इति-सद्दो निदस्सनत्थो, तेन पठमो इति-सद्दो सरूपस्स, परिमाणस्स च बोधको अनेकत्थत्ता निपातानं,आवृत्तिआदिवसेन वायमत्थो वेदितब्बो । अन्तोगधावधारणञ्च वाक्यं दस्सेन्तो "इदं रूपं, एत्तकं रूपं, इतो उद्धं रूपं नत्थी"तिआदिमाह । तत्थ "रुप्पनसभाव"न्ति इमिना सामञतो रूपस्स सभावो दस्सितो, "भूतुपादायभेद"न्तिआदिना विसेसतो, तदुभयेनपि “इदं रूप"न्ति पदस्स अत्थो निद्दिठ्ठो । तत्थ लक्खणं नाम तस्स तस्स रूपविसेसस्स अनञसाधारणो सभावो । रसो तस्सेव अत्तनो फलं पति पच्चयभावो । पच्चुपट्टानं तस्स परमत्थतो विज्जमानत्ता याथावतो आणस्स गोचरभावो। पट्टानं आसन्नकारणं, तेनस्स पच्चयायत्तवुत्तिता दस्सिता । "अनवसेसरूपपरिग्गहो"ति इमिना पन "एत्तकं रूपं, इतो उद्धं" रूपं नत्थीति पदद्वयस्सापि अत्थो निद्दिट्ठो रूपस्स सब्बसो परियादानवसेन नियामनतो। “इति रूपस्स समुदयो'"ति एत्थ पन इति-सद्दो "इति खो भिक्खवे सप्पटिभयो बालो"तिआदीसु (म० नि० ३.१२४; अ० नि० १.३.१) विय पकारत्थोति आह "इतीति एव"न्ति । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.६३-६३) अविज्जासमुदयाति अविज्जाय उप्पादा, अस्थिभावाति अत्थो । निरोधनिरोधी हि उप्पादो अत्थिभाववाचकोपि होति, तस्मा पुरिमभवसिद्धाय अविज्जाय सति इमस्मिं भवे रूपसमुदयो, रूपस्स उप्पादो होतीति अत्थो । “तहासमुदया"तिआदीसुपि एसेव नयो । आहारसमुदयाति एत्थ पन पवत्तिपच्चयेसु कबळीकाराहारस्स बलवताय सो एव गहितो । तस्मिं पन गहिते पवत्तिपच्चयतासामओन उतुचित्तानि गहितानेव होन्तीति चतुसमुठ्ठानिकरूपस्स पच्चयतो उदयदस्सनं विभावितमेवाति दट्टब्बं । "निब्बत्तिलक्खण"न्तिआदिना कालवसेन उदयदस्सनमाह । तत्थ निब्बत्तिलक्खणन्ति रूपस्स उप्पादसङ्खातं सङ्खतलक्खणं । पस्सन्तोपीति न केवलं पच्चयसमुदयमेव, अथ खो खणतो उदयं पस्सन्तोपि । अद्धावसेन हि पठमं उदयं पस्सित्वा ठितो पुन सन्ततिवसेन दिस्वा अनुक्कमेन खणवसेन पस्सति । अविज्जानिरोधा रूपनिरोधोति अग्गमग्गेन अविज्जाय अनुप्पादनिरोधतो अनागतस्स रूपस्स अनुप्पादनिरोधो होति पच्चयाभावे अभावतो । तहानिरोधा कम्मनिरोधोति एत्थापि एसेव नयो। आहारनिरोधाति पवत्तिपच्चयस्स कबळीकाराहारस्स अभावेन । रूपनिरोधोति तंसमुट्ठानरूपस्स अभावो होति। सेसं वुत्तनयमेव | "विपरिणामलक्खणन्ति भङ्गकालवसेन हेतं वयदस्सनं, तस्मा तं अद्धावसेन पठमं पस्सित्वा पुन सन्ततिवसेन दिस्वा अनुक्कमेन खणवसेन पस्सति । अयञ्च नयो पाकतिकविपस्सकवसेन वुत्तो, बोधिसत्तानं पनेतं नत्थि । एस नयो उदयदस्सनेपि । "इति वेदना"तिआदीसुपि हेट्ठा रूपे वुत्तनयानुसारेन अत्थो वेदितब्बो। तेनाह "अयं वेदना, एत्तका वेदना"तिआदि । तत्थ वेदयित...पे०... सभावन्ति एत्थ "वेदयितसभावं...पे०... विजाननसभाव"न्ति पच्चेकं सभाव- सद्दो योजेतब्बो । वेदयितसभावन्ति अनुभवनसभावं । सञ्जाननसभावन्ति “नीलं पीत''न्तिआदिना आरम्मणस्स सल्लक्खणसभावं । अभिसङ्घरणसभावन्ति आयूहनसभावं । विजाननसभावन्ति आरम्मणस्स उपलद्धिसभावं । सुखादीति , आदि-सद्देन दुक्खसोमनस्सदोमनस्सुपेक्खावेदनानं सङ्गहो रूपसज्ञादीति आदि-सद्देन सद्दसञ्जादीनं, फस्सादीति आदि-सद्देन चेतना वितक्कादीनं चक्खुविज्ञाणादीनन्ति आदि-सद्देन सब्बेसं लोकियविाणानं सङ्गहो । यथा च विज्ञाणे, एस नयो वेदनादीसुपि। तेसन्ति “समुदयो'"ति वुत्तधम्मानं | तीसु खन्धेसूति वेदनासआसङ्घारक्खन्धेसु । “फुट्ठो वेदेति, फुट्ठो सञ्जानाति, फुट्ठो चेतेती"ति (सं० नि० २.४.९३) वचनतो "फस्ससमुदया"ति वत्तब्बं । "नामरूपपच्चयापि विज्ञाण"न्ति (विभं० २४६; दी० नि० २.९७) वचनतो विज्ञाणक्खन्धे “नामरूपसमुदया"ति वत्तब्बं । तेसं 48 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६३-६३) बोधिसत्तअभिनिवेसवण्णना येवाति तीसु खन्धेसु “फस्सस्स विचाणक्खन्धे नामरूपस्सा"ति फस्सनामरूपानंयेव वसेन अत्थङ्गमपदम्पि योजेतब्बं, अविज्जादयो पन रूपे वुत्तसदिसा एवाति अधिप्पायो । समपासलक्खणवसेनाति पच्चयतो वीसति खणतो पञ्चाति पञ्चवीसतिया उदयलक्खणानं, पच्चयतो वीसति खणतो पञ्चाति पञ्चवीसतिया एव वयलक्खणानं चाति समपञ्जासाय उदयवयलक्खणानं वसेन । तत्थ पञ्चन्नं खन्धानं उदयो लक्खीयति एतेहीति लक्खणानीति वुच्चन्ति अविज्जादिसमुदयोति, तथा तेसं अनुप्पादनिरोधो लक्खीयति एतेहीति लक्खणानीति वुच्चन्ति अविज्जादीनं अच्चन्तनिरोधो । निब्बत्तिविपरिणामलक्खणानि पन सङ्घतलक्खणमेवाति । एवं एतानि समपासलक्खणानि सरूपतो वेदितब्बानि । यथानुक्कमेन वडितेति यथावुत्तउदयब्बयाणे तिक्खे सूरे पसन्ने हुत्वा वहन्ते ततो परं वत्तब्बानं भङ्गाणादीनं उप्पत्तिपटिपाटिया बुद्धिप्पत्ते परमुक्कंसगते विपस्सनाजाणे। पगेव हि छत्तिंसकोटिसतसहस्समुखेन पवत्तेन सब्ब ताणानुच्छविकेन महावजिरञाणसङ्खातेन सम्मसनत्राणेन सम्भतानुभावं गब्भं गण्हन्तं परिपाकं गच्छन्तं पटिपदाविसुद्धिञाणं अपरिमितकाले सम्भताय पञापारमिया आनुभावेन उक्कंसपारमिप्पत्तं अनुक्कमेन वुट्ठानगामिनिभावं उपगन्त्वा यदा अरियमग्गेन घटेति, तदा अरियमग्गचित्तं सब्बकिलेसेहि मग्गपटिपाटिया विमुच्चति, विमुच्चन्तञ्च तथा विमुच्चति, यथा सब्बत्रेय्यावरणप्पहानं होति । यं किलेसानं “सवासनप्पहान"न्ति वुच्चति, तयिदं पहानं अस्थतो अनुप्पत्तिनिरोधोति आह "अनुप्पादनिरोधेना"ति । आसवसकातेहि किलेसेहीति भवतो आभवग्गं, धम्मतो आगोत्रभुं सवनतो पवत्तनतो आसवसञ्जितेहि रागो, दिट्ठि, मोहोति इमेहि किलेसेहि। लक्खणवचनञ्चेतं, पाळियं यदिदं “आसवेही"ति, तदेकद्रुताय पन सब्बेहिपि किलेसेहि सब्बेहिपि पापधम्मेहि चित्तं विमुच्चति । अग्गहेत्वाति तेसं किलेसानं लेसमत्तम्पि अग्गहेत्वा । मग्गक्खणे विमुच्चति नाम तंतंमग्गवज्झकिलेसेहि फलक्खणे विमुत्तं नाम। मग्गक्खणे वा विमुत्तञ्चेव विमुच्चति चाति उपरिमग्गक्खणे हेट्ठिममग्गवज्झेहि विमुत्तञ्चेव यथासकं पहातब्बेहि विमुच्चति च । फलक्खणे विमुत्तमेवाति सब्बस्मिम्पि फलक्खणे विमुत्तमेव, न विमुच्चति नाम। सब्बबन्धनाति ओरम्भागियुद्धम्भागियसङ्गहिता सब्बस्मापि भवसञोजना, विप्पमुत्तो विसेसतो पकारेहि मुत्तो। सुविकसितचित्तसन्तानोति सातिसयं आणरस्मिसम्फस्सेन सुटु 49 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.६३-६३) सम्मदेव सम्फुल्लचित्तसन्तानो। “चत्तारि मग्गजाणानी"तिआदि येहि जाणेहि सुविकसितचित्तसन्तानो, तेसं एकदेसेन दस्सनं । निप्पदेसतो दस्सनं पन परतो आगमिस्सति, तस्मा तत्थेव तानि विभजिस्साम । सकले च बुद्धगुणेति अतीतंसे अप्पटिहतञाणादिके सब्बेपि बुद्धगुणे । यदा हि लोकनाथो अग्गमग्गं अधिगच्छति, तदा सब्बे गुणे हत्थगते करोति नाम । ततो परं “हत्थगते कत्वा ठितो''ति वुच्चति । “परिपुण्णसङ्कप्पो'ति वत्वा परिपुण्णसङ्कप्पतापरिदीपनं उदानं दस्सेतुं "अनेकजातिसंसार"न्तिआदि वुत्तं । तत्थ आदितो द्विन्नं गाथानमत्थो हेट्ठा ब्रह्मजालनिदानवण्णनायं (दी० नि० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) वुत्तो एव । परतो पन अयोधनहतस्साति अयो हजति एतेनाति अयोधनं, कम्मारानं अयोकूटं, अयोमुट्ठि च, तेन अयोघनेन हतस्स पहतस्स | एव-सद्दो चेत्थ निपातमत्तं । जलतो जातवेदसोति जलयमानस्स अग्गिस्स, अनादरे वा एतं सामिवचनं। अनुपुब्बूपसन्तस्साति अनुक्कमेन उपसन्तस्स विक्खम्भन्तस्स निरुद्धस्स । यथा न आयते गतीति यथा तस्स गति न जायति । इदं वुत्तं होति- अयोमुट्ठिकूटादिना पहतत्ता अयोधनेन हतस्स पहतस्स अयोगतस्स, कंसभाजनादिगतस्स वा जलमानस्स अग्गिस्स अनुक्कमेन उपसन्तस्स दससु दिसासु न कत्थचि गति पञ्चायति पच्चयनिरोधेन अप्पटिसन्धिकनिरुद्धत्ताति । एवं सम्माविमुत्तानन्ति सम्मा हेतुना आयेन तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तिपुब्बङ्गमाय समुच्छेदविमुत्तिया अरियमग्गेन चतूहिपि उपादानेहि, आसवेहि च मुत्तत्ता सम्मा विमुत्तानं, ततो एव कामबन्धनसङ्खातं कामोघभवोघादिभेदं अवसिट्टओघञ्च तरित्वा ठितत्ता कामबन्धोघतारीनं सुट्ठ पटिपस्सम्भितसब्बकिलेसविप्फन्दितत्ता किलेसाभिसङ्खारवातेहि अकम्पनीयताय अचलं निब्बानसङ्खातं सङ्घारूपसमं सुखं पत्तानं अधिगतानं खीणासवानं गति देवमनुस्सादिभेदासु गतीसु "अयं नामा"ति पापेतब्बताय अभावतो पज्ञापेतुं नत्थि न उपलब्भति, यथावुत्तजातवेदो विय अपञत्तिकभावमेव ते गच्छन्तीति अत्थो । एवं मनसि करोन्तोति "एवं अनेकजातिसंसार''न्तिआदिना (ध० प० १५३) अत्तनो कतकिच्चत्तं मनसि करोन्तो बोधिपल्लङ्के निसिन्नोव विरोचित्थाति योजना। दुतियभाणवारवण्णना निद्विता । 50 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६४-६४) ब्रह्मयाचनकथावण्णना ब्रह्मयाचनकथावण्णना ६४. यन्नूनाति परिवितक्कनत्थे निपातो, अहन्ति भगवा अत्तानं निद्दिसतीति आह “यदि पनाह"न्ति । " अट्ठमे सत्ताहे "तिआदि यथा अम्हाकं भगवा अभिसम्बुद्धो हुत्वा विमुत्तिसुखपटिसंवेदनादिवसेन सत्त सत्तासु पटिपज्जि, ततो परञ्च धम्मगम्भीरतापच्चवेक्खणादिवसेन, एवमेव सब्बेपि सम्मासम्बुद्धा अभिसम्बुद्धकाले पटिपज्जिंसु, ते च सत्ताहादयो तथेव ववत्थपीयन्तीति अयं सब्बेसम्पि बुद्धानं धम्मता । तस्मा विपस्सी भगवा अभिसम्बुद्धकाले तथा पटिपज्जीति दस्सेतुं आरद्धं । तत्थ "अट्ठ सत्ताहे " ति इदं सत्तमसत्ताहतो परं, सत्ताहतो ओरिमे च पवत्ताय पटिपत्तिया वसेन वुत्तं, न पल्लङ्कसत्ताहस्स विय अट्टमस्स नाम सत्ताहस्स ववत्थितस्स लब्भमानत्ता । अनन्तरोति “ अधिगतो खो म्यायं धम्मो "तिआदिको वितक्को (दी० नि० २.६७; म० नि० १.२८१; २.३३७; सं० नि० १.१.१७२; महाव० ७, ८) । पटिविद्धोति सयम्भुञणेन " इदं दुक्ख "न्तिआदिना पटिमुखं पटिविज्झनवसेन पवत्तो, यथाभूतं अवबुद्धोति अत्थो । धम्मोति चतुसच्चधम्मो तब्बिनिमुत्तस्स पटिविज्झितब्बधम्मस्स अभावतो । गम्भीरोति महासमुद्दो विय मकसतुण्डसूचिया अञ समुपचितपरिपक्कञाणसम्भारेहि अञसं आणेन अलब्भनेय्यप्पतिट्टो | तेनाह “उत्तानभावपटिक्खेपवचनमेत "न्ति । अलब्भनेय्यप्पतिट्ठो ओगाहितुं असक्कुणेय्यताय सरूपतो विसेसतो च पस्सितुं न सक्काति आह " गम्भीरत्ताव दुद्दसो "ति । दुक्खेन दट्ठब्बोति किच्छेन केनचि कदाचिदेव दट्ठब्बो | यं पन दट्टुमेव न सक्का, तस्स ओगाहेत्वा अनु अनु बुज्झने कथा एव नत्थीति आह “दुद्दसत्ताव दुरनुबोधोति । दुक्खेन अवबुज्झितब्बो अवबोधस्स दुक्करभावतो । इमस्मिं ठाने "तं किं मञ्ञथ भिक्खवे दुक्करतरं वा दुरभिसम्भवतरं वा "ति (सं० नि० ३.५.१११५) सुत्तपदं वत्तब्बं । सन्तारम्मणताय वा सन्तो। निब्बुतसब्बपरिळाहताय निब्बुतो । पधानभावं नीतोति वा पणीतो । अतित्तिकरट्टेन अतप्पको सादुरसभोजनं विय। एत्थ च निरोधसच्चं सन्तं आरम्मणन्ति सन्तारम्मणं, मग्गसच्वं सन्तं, सन्तारम्मणञ्चाति सन्तारम्मणं अनुपसन्तसभावानं किलेसानं, सङ्घारानञ्च अभावतो सन्तो निब्बुतसब्बपरिळाहत्ता निब्बुतो, सन्तपणीतभावेनेव तदत्थाय असेचनकताय अतप्पकता दट्ठब्बा । तेनाह “ इदं द्वयं लोकुत्तरमेव सन्धाय वुत्त" न्ति । उत्तमञाणस्स विसयत्ता न तक्केन अवचरितब्बो, ततो एव निपुणञाणगोचरताय, सण्हसुखुमसभावत्ता च निपुणो । बालानं अविसयत्ता पण्डितेहि एव वेदितब्बोति पण्डितवेदनीयो । आलीयन्ति ५१ 51 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.६४-६४) अभिरमितब्बद्वेन सेवीयन्तीति आलया, पञ्च कामगुणा। आलयन्ति अभिरमणवसेन सेवन्तीति आलया, तण्हाविचरितानि । आलयरताति आलयनिरता । सुट्ठ मुदिता अतिविय मुदिता अनुक्कण्ठनतो । रमतीति रतिं विन्दति कीळति लळति । इमे सत्ता यथा कामगुणे, एवं रागम्पि अस्सादेन्ति अभिनन्दन्ति येवाति वुत्तं "दुविधम्पी"तिआदि । ___ठानं सन्धायाति ठान-सदं सन्धाय । अत्थतो पन "ठान"न्ति च पटिच्चसमुप्पादो एव अधिप्पेतो। तिट्ठति एत्थ फलं तदायत्तवुत्तितायाति ठानं, सङ्घारादीनं पच्चयभूता अविज्जादयो । इमेसं सङ्खारादीनं पच्चयाति इदप्पच्चया, अविज्जादयोव । इदप्पच्चया एव इदप्पच्चयता यथा देवो एव देवता, इदप्पच्चयानं वा अविज्जादीनं अत्तनो फलं पटिच्च पच्चयभावो उप्पादनसमत्थता इदप्पच्चयता, तेन परमत्थपच्चयलक्खणो पटिच्चसमुप्पादो दस्सितो होति । पटिच्च समुप्पज्जति फलं एतस्माति पटिच्चसमुप्पादो। पदद्वयेनापि धम्मानं पच्चयट्ठो एव विभावितो। तेनाह “सङ्घारादिपच्चयानं अविज्जादीनमेतं अधिवचन"न्ति । अयमेत्थ सङ्केपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गसंवण्णनासु (विसुद्धि० २.५७०) वुत्तनयेन वेदितब्बो। सब्बसङ्घारसमथोतिआदि सब्बन्ति सब्बसङ्घारसमथादिपदाभिधेय्यं सब्, अत्थतो निब्बानमेव । इदानि तस्स निब्बानभावं दस्सेतुं “यस्मा ही"तिआदि वुत्तं । तन्ति निब्बानं । आगम्माति पटिच्च अरियमग्गस्स आरम्मणपच्चयहेतु । सम्मन्तीति अप्पटिसन्धिकूपसमवसेन सम्मन्ति । तथा सन्ता च सविसेसं उपसन्ता नाम होन्तीति आह "वूपसम्मन्ती"ति, एतेन सब्बे सङ्खारा सम्मन्ति एत्थाति सब्बसङ्घारसमथो, निब्बानन्ति दस्सेति । सब्बसङ्खारविसंयुत्ते हि निब्बाने सब्बसङ्खारवूपसमपरियायो आयागतो येवाति । सेसेपदेसुपि एसेव नयो । उपधीयति एत्थ दुक्खन्ति उपधि, खन्धादयो । पटिनिस्सट्ठाति समुच्छेदवसेन परिच्चत्ता होन्ति। सब्बा तण्हाति अट्ठसतप्पभेदा सब्बापि तहा। सब्बे किलेसरागाति कामरागरूपरागादिभेदा सब्बेपि किलेसभूता रागा, सब्बेपि वा किलेसा इध किलेसरागाति वेदितब्बा, न लोभविसेसा एव चित्तस्स विपरीतभावापादनतो | यथाह "रत्तम्पि चित्तं विपरिणतं, दुट्ठम्पि चित्तं विपरिणतं, मूळ्हम्पि चित्तं विपरिणत''न्ति (पारा० २७१) विरज्जन्तीति अत्तनो सभावं विजहन्ति । सब् दुक्खन्ति जरामरणादिभेदं सब्बं वट्टदुक्खं | भवेन भवन्ति तेन तेन भवेन भवन्तरं । भवनिकन्तिभावेन संसिब्बति, फलेन वा सद्धिं कम्मं सतण्हस्सेव आयतिं पुनब्भवभावतो । ततो वानतो निक्खन्तं तत्थ तस्स सब्बसो अभावतो । चिरनिसज्जाचिरभासनेहि पिट्ठिआगिलायनतालुगलसोसादिवसेन कायकिलमथो चेव 52 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.६५-६५) ब्रह्मयाचनकथावण्णना कायविसा च वेदितब्बा । सा च खो देसनाय अत्थं अजानन्तानं, अप्पटिपज्जन्तानञ्च वसेन, जानन्तानं, पन पटिपज्जन्तानञ्च देसनाय कायपरिस्समोपि सत्थु अपरिस्समोव । तेनाह भगवा " न च मं धम्माधिकरणं विहेसेसी 'ति (उदा० १० ) । तथा हि वृत्तं " या अजानन्तानं देसना नाम, सो मम किलमथो अस्सा "ति । उभयन्ति चित्तकिलमथो, चित्तविहेसा चाति उभयं पेतं बुद्धानं नत्थि, बोधिमूलेयेव समुच्छिन्नत्ता । ६५. अनुब्रूहनं सम्पिण्डनं । सोति "अपिस्सू "ति निपातो । विपस्सिन्ति पटि-सद्दयोगेन सामिअत्थे उपयोगवचनन्ति आह " विपस्सिस्सा "ति । वुद्धिप्पत्ता अच्छरिया वा अनच्छरिया । वुद्धिअत्थोपि हि अकारो होति यथा" असेक्खा धम्मा "ति (ध० स० तिकमातिकाय ११) । कप्पानं चत्तारि असङ्ख्येय्यानि सतसहस्सञ्च सदेवकस्स लोकस्स धम्मसंविभागकरणत्थमेव पारमियो पूरेत्वा इदानि समधिगतधम्मराजस्स तत्थ अप्पोस्सुक्कतापत्तिदीपनता, गाथात्थस्स अच्छरियता, तस्स वुद्धिप्पत्ति चाति वेदितब्बा । अत्थद्वारेन हि गाथानं अनच्छरियता । गोचरा अहेसुन्ति उपट्टहिंसु । उपट्ठानञ्च वितक्केतब्बतावाति आह " परिवितक्कयितब्बतं पापुणिसूति । ५३ यदि सुखापटिपदाव कथं किच्छताति आह "पारमीपूरणकाले" तिआदि । एवमादीनि दुप्परिच्चजानि देन्तस्स । ह-इति वा व्यत्तन्ति एतस्मिं अत्थे निपातो, “एकंसत्थे 'ति केचि । ह ब्यत्तं एकंसेन वा अलं निप्पयोजनं एवं किच्छेन अधिगतस्स धम्मस्स देसेतुन्ति योजना । हलन्ति “अल "न्ति इमिना समानत्थं पदं " हलन्ति वदामी" तिआदीसु (सं० नि० ०१.१७२) विय | रागदोसफुट्टेहीति फुट्ठविसेन विय सप्पेन रागेन, दोसेन च सम्फुट्ठेहि अभिभूतेहि । रागदोसानुगतेहीति रागदोसेहि अनुबन्धेहि । निच्चादीनन्ति निच्चग्गाहादीनं । एवं गतन्ति एवं पवत्तं अनिच्चादिआकारेन पवत्तं । " चतुसच्चधम्म "न्ति इदं अनिच्चादीसु, सच्चेसु च यथालाभवसेन गहेतब्बं । एवं गतन्ति वा एवं “अनिच्च’”न्तिआदिना अभिनिविसित्वा मया, अञ्ञेहि च सम्मासम्बुद्धेहि गतं, ञातं पटिविद्धन्ति अत्थो । कामरागेन, भवरागेन च रत्ता नीवरणेहि निवुतचित्तताय, दिट्टरागेन रत्ता विपरीताभिनिवेसेन न दक्खन्ति याथावतो इमं धम्मं नप्पटिविज्झिस्सन्ति । एवं गाहापेतुन्ति " अनिच्च "न्तिआदिना सभावेन याथावतो धम्मे जानापेतुं । रागदोसपरेततापि नेसं सम्मूळहभावेनेवाति आह " तमोखन्धेन आवुटा " ति । 53 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.६६-६६) धम्मदेसनाय अप्पोस्सुक्कतापत्तिया कारणं विभावेतुं “कस्मा पना"तिआदिना सयमेव चोदनं समुट्ठापेति । तत्थ यथायं इदानि धम्मदेसनाय अप्पोस्सुक्कतापत्ति सब्बबुद्धानं आचिण्णसमाचिण्णधम्मतावसेन, सब्बबोधिसत्तानं आदितो “किं मे अज्ञातवेसेना"तिआदिना (बु० वं० २.९९) महाभिनीहारे अत्तनो चित्तस्स समुस्साहनं आचिण्णसमाचिण्णधम्मता वाति आह "किं मे"तिआदि । तत्थ अञातवेसेनाति सदेवकं लोकं उन्नादेन्तो बुद्धो अहुत्वा केवलं बुद्धानं सावकभावूपगमनवसेन अज्ञातरूपेन । तिविधं कारणं अप्पोस्सुक्कतापत्तिया पटिपक्खस्स बलवभावो, धम्मस्स परमगम्भीरता, तत्थ च भगवतो सातिसयं गारवन्ति तं दस्सेतुं "तस्स ही"तिआदि आरद्धं । तत्थ पटिपक्खा नाम रागादयो किलेसा सम्मापटिपत्तिया अन्तरायकरत्ता। तेसं बलवभावतो चिरपरिभावनाय सत्तसन्तानतो दुब्बिसोधियताय ते सत्ते मत्तहत्थिनो विय दुब्बलं पुरिसं अज्झोत्थरित्वा अनयब्यसनं आपादेन्ता अनेकसतयोजनायामवित्थारं सुनिचितं घनसन्निवेसं कण्टकदुग्गम्पि अधिसेन्ति। दूरप्पभेद दुच्छेज्जताहि दुब्बिसोधियतं पन दस्सेतुं "अथस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ च अन्तो आमट्ठताय कञ्जिकपुण्णलाबु चिरपरिवासिकताय तक्कभरितचाटि स्नेहतिन्तदुब्बलभावेन वसातेलपीतपिलोतिका; तेलमिस्सितताय अञ्जनमक्खितहत्था दुब्बिसोधनीया वुत्ता । हीनूपमा चेता रूपप्पबन्धभावतो, अचिरकालिकत्ता च मलीनताय, किलेससंकिलेसो एव पन दुब्बिसोधनीयतरो अनादिकालिकत्ता, अनुसयितत्ता च। तेनाह "अतिसंकिलिट्ठा'ति । यथा च दुब्बिसोधनीयताय एवं गम्भीरदुद्दसदुरनुबोधानम्पि वुत्तउपमा हीनूपमाव । गम्भीरोपि धम्मो पटिपक्खविधमनेन सुपाकटो भवेय्य, पटिपक्खविधमनं पन सम्मापटिपत्तिपटिबद्धं, सा सद्धम्मसवनाधीना, तं सत्थरि, धम्मे च पसादायत्तं । सो विसेसतो लोके सम्भावनीयस्स गरुकातब्बस्स अभिपत्थनाहेतुकोति पनाळिकाय सत्तानं धम्मसम्पटिपत्तिया ब्रह्मयाचनादिनिमित्तन्ति तं दस्सेन्तो "अपिचा"तिआदिमाह । ६६. “अञ्जतरो"ति अप्पञातो विय किञ्चापि वुत्तं, अथ खो पाकटो पञातोति दस्सेतुं "इमस्मिं चक्कवाळे जेट्टकमहाब्रह्मा"ति वुत्तं । महाब्रह्मभवने जेटकमहाब्रह्मा। सो हि सक्को विय कामदेवलोके, ब्रह्मलोके च पाकटो पञातो । उपक्किलेसभूतं अप्पं रागादिरजं एतस्साति अप्परजं, अप्परजं अक्खि पञाचक्खु येसं ते तंसभावाति कत्वा अप्परजक्खजातिकाति इममत्थं दस्सेतुं "पामये"तिआदिमाह । अप्पं रागादिरजं येसं ते तंसभावा अप्परजक्खजातिकाति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो । अस्सवनताति 54 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.६९-६९) ब्रह्मयाचनकथादण्णना “सयं अभिञ्ञा'तिआदीसु (र्द ० नि० १.२८, ४०५; म० नि० १.१५४, ४४४) विय करणे पच्चत्तवचनन्ति आह "अस्सवनताया ''ति । दसपुञ्ञकिरियवत्थुवसेनाति दानादिदसविधविमुत्तिपरिपाचनीयपुञ्ञकिरियवत्थूनं वसेन । तेनाह “कताधिकारा "तिआदि । पपञ्चसूदनियं पन "द्वादसपुञ्ञकिरियवसेना "ति (म० नि० अट्ठ० २.२८२) वुत्तं तं दानादीसु सरणगमनपरहितपरिणामनद्वय पक्खिपनवसेन वृत्तं । ६९. गरुट्ठानियेसु गारववसेन गरुकरपत्थना अज्झेसना, सापि अत्थतो पत्थना एवाति वृत्तं " याचन "न्ति । पदेसविसयत्राणदस्सनं हुत्वा बुद्धानंयेव आवेणिकभावतो इदं णद्वयं "बुद्धचक्खू' ति वुच्चतीति आह “इमेसह द्विन्नं आणानं बुद्धचक्खूति नाम "न्ति । तिणं मग्गआणानन्ति हेट्ठिमानं तिण्णं मग्गञाणानं “ धम्मचक्खू'" ति नामं चतुसच्चधम्मदस्सनन्ति कत्वा दस्सनमत्तभावतो । यतो तानि आणानि विज्जूपमाभावेन वृत्तानि, अग्गमग्गजाणं पन आणकिच्चस्स सिखाप्पत्तिया दस्सनमत्तं न होतीति “धम्मचक्खू' "ति न वुच्चतीति । यतो तं वजिरूपमाभावेन वुत्तं । वृत्तनयेनेवाति " अप्परजक्खजातिका "ति एत्थ वुत्तनयेनेव । यस्मा मन्दकिलेसा "अप्परजक्खा "ति वुत्ता, तस्मा बहलकिलेसा " महारजक्खा "ति वेदितब्बा । पटिपक्खविधमनसमत्थताय तिक्खानि सूरानि विसदानि वुत्तविपरियायेन मुदूनि । सद्धादयो आकाराति सद्दहनादिप्पकारे वदति । सुन्दराति कल्याणा | सम्मोहविनोदनियं पन "येसं आसयादयो कोट्टासा सुन्दरा, ते स्वाकारा "ति (विभं० अट्ठ० ८१४) वृत्तं तं इमाय अत्थवण्णनाय अञ्ञदत्थु संसन्दति समेतीति दट्ठब्बं । यतो सद्धासम्पदादिवसेन अज्झासयस्स सुन्दरताति, तब्बिपरियायतो असुन्दरताति । कारणं नाम पच्चयाकारो, सच्चानि वा । परलोकन्ति सम्परायं । तं दुक्खावहं वज्जं विय भयतो पस्सितब्बन्ति वत्तं " परलोकञ्चेव वज्जञ्च भयतो परसन्ती 'ति । सम्पत्तिभवतो वा अञ्ञत्ता विपत्तिभवो " परलोको "ति वृत्तं " पर... पे० ... पस्सन्ती " ति । ५५ अयं पनेत्थ पाळीति एत्थ "अप्परजक्खा "दिपदानं अत्थविभावने अयं तस्स तथाभावसाधकपाळि | सद्धादीनहि विमुत्तिपरिपाचकधम्मानं बलवभावो तप्पटिपक्खानं पापधम्मानं दुब्बलभावेनेव होति, तेसञ्च बलवभावो सद्धादीनं दुब्बलभावेनाति विमुत्तिपरिपाचकधम्मानं सविसेसं अत्थितानत्थितः वसेन " अप्परजक्खा महारजक्खा "ति आदयो पाळियं (पटि० म० १.१११) विभजित्वा दस्सिता । इति सद्धादीनं वसेन पञ्च अप्परजक्खा, असद्धियादीनं वसेन पञ्च महारजक्खा । एवं तिक्खिन्द्रियमुदिन्द्रियाद विभाविता पञ्ञास पुग्गला । सद्धादीनं पन अन्तरभेदेन अनेकभेदा वेदितब्बा । खन्धादयो 55 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकायें महावग्गटीका (१.६९-६९) एव लुज्जनपलुज्जनठून लोको, सम्पत्तिभवभूतो लोको सम्पत्तिभवलोको, सुगतिसङ्घातो उपपत्तिभवो, सम्पत्ति सम्भवति एतेनाति सम्पत्तिसम्भवलोको सुगतिसंवत्तनियो कम्मभवो । दुग्गतिसङ्घातउपपत्तिभवदुग्गतिसंवत्तनियकम्मभवा विपत्तिभवलोकविपत्तिसम्भवलोका। ___ पुन एककदुकादिवसेन लोकं विभजित्वा दासेतुं "एको लोको"तिआदि वुत्तं । आहारादयो हि लुज्जनपलुज्जनटेन लोकोति। तत्थ "एको लोको सब्बे सत्ता आहारवितिका"ति (दी० नि० ३.३०३; अ० नि० ३.१०.२७, २८; पटि० म० १.२, ११२, २०८) यायं पुग्गलाधिट्ठानाय कथाय सब्बसङ्घारानं पच्चयायत्तवुत्तिता वुत्ता, ताय सब्बो सङ्खारलोको एको एकविधो पकारन्तरस्साभावतो | "द्वे लोका"तिआदीसुपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो। नामग्गहणेन चेत्थ निब्बानस्स अग्गहणं तस्स अलोकसभावत्ता । ननु च "आहारट्ठितिका"ति एत्थ पच्चयायत्तवृत्तिताय मग्गफलानम्पि लोकता आपज्जतीति ? नापज्जति परिझेय्यानं दुक्खसच्चधम्मानं "इध लोको''ति अधिप्पेतत्ता । अथ वा न लुज्जति न पलुज्जतीति यो गहितो, तथा न होति, सो लोकोति तंगहणरहितानं लोकुत्तरानं नत्थि लोकता । उपादानानं आरम्मणभूता खन्धा उपादानक्खन्धा। अनुरोधादिवत्थुभूता लाभादयो अट्ठ लोकधम्मा। दसायतनानीति दस रूपायतनानि विवट्टज्झासयस्स अधिप्पेतत्ता । तस्स च सुब्बं तेभूमककम्मं गरहितब्द, वज्जितब्बञ्च हुत्वा उपट्ठातीति वुत्तं "सब्बे अभिसङ्घारा वज्जं, सब्बे भवगामिकम्मा वज्ज"न्ति । येसं पुग्गलानं सद्धादयो मन्दा, ते इध “अस्सद्धा'"तिआदिना वुत्ता। न पन सब्बेन सब्बं सद्धादीनं अभावतोति अप्परजक्खदुकादीसु पञ्चसु दुकेसु एकेकस्मिं दस दस कत्वा "पज्ञासाय आकारेहि इमानि पञ्चिन्द्रियानि जानाती"ति वुत्तं । अथ वा अन्वयतो, ब्यतिरेकतो च सद्धादीनं इन्द्रियानं परोपरियत्तं जानातीति कत्वा तथा वुत्तं । एत्थ च अप्परजक्खादिवसेन आवज्जन्तस्स भगवतो ते सत्ता पुञ्जपुञ्जाव हुत्वा उपट्टहन्ति, न एकेका। उप्पलानि एत्थ सन्तीति उप्पलिनी, गच्छोपि जलासयोपि, इध पन जलासयो अधिप्पेतोति आह "उप्पलवने"ति । यानि उदकस्स अन्तो निमुग्गानेव हुत्वा पुसन्ति वड्डन्ति, तानि अन्तोनिमुग्गपोसीनी। दीपितानीति अट्ठकथायं पकासितानि, इधेव वा "अञानिपी''तिआदिना दीपितानि । उग्घटितति उग्घटनं नाम जाणुग्घटनं, आणे उग्घटितमत्ते एव जानातीति अत्थो । विपञ्चितं वित्थारमेवमत्थं जानातीति विपञ्चित। उद्देसादीहि नेतब्बोति नेय्यो। सह उदाहटवेलायाति उदाहारे धम्मस्स उद्देसे उदाहटमत्ते एव । धम्माभिसमयोति चतुसच्चधम्मस्स आणेन सद्धिं अभिसमयो । अयं बुच्चतीति अयं “चत्तारो 56 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १.७०-७० ) ब्रह्मयाचनकथावण्णना सतिपट्ठाना''तिआदिना नयेन सङ्घित्तेन मातिकाय दीपियमानाय देसनानुसारेन आणं पेसेत्वा अरहत्तं गण्हितुं समत्थो “ पुग्गलो उग्घटितञ्जू" ति वुच्चति । अयं बुच्चीत अयं सङ्घित्तेन मातिकं ठपेत्वा वित्थारेन अत्थे विभजियमाने अरहत्तं पापुणितुं समत्थो “पुग्गलो विपञ्चितञ्जू”ति वुच्चति । उद्देसतोति उद्देसहेतु, उद्दिसन्तस्स, उद्दिसापेन्तस्स वाति अत्थो । परिपुच्छतोति अत्थं परिपुच्छन्तस्स । अनुपुब्बेन धम्माभिसमयो होतीति अनुक्कमेन अरहत्तप्पत्ती होति । न ताय जातिया धम्माभिसमयो होतीति तेन अत्तभावेन मग्गं वा फलं वा अन्तमसो झानं वा विपस्सनं वा निब्बत्तेतुं न सक्कोति । अयं वुच्चति पुग्गलो पदपरमोति अयं पुग्गलो ब्यञ्जनपदमेव परमं अस्साति “ पदपरमो 'ति वुच्चति । येति ये दुविधे पुग्गले सन्धाय वुत्तं विभङ्गे कम्मावरणेनाति पञ्चविधेन आनन्तरियकम्मेन | विपाकावरणेनाति अहेतुकपटिसन्धिया । यस्मा दुकान अरियमग्गपटिवेधो नत्थि, तस्मा दुहेतुकपटिसन्धिपि “विपाकावरणमेवा "ति वेदितब्बा | किलेसावरणेनाति नियतमिच्छादिट्ठिया । अस्सद्धाति बुद्धादीसु सद्धा रहिता । अच्छन्ति कत्तुकम्यताकुसलच्छन्दरहिता, उत्तरकुरुका मनुस्सा अच्छन्दिकट्ठानं पविठ्ठा । दुप्पञाति भवङ्गपञ्ञय परिहीना, भवङ्गपञ्ञाय पन परिपुण्णायपि यस्स भवङ्गं लोकुत्तरस्स पच्चयो न होति, सोपि दुप्पञ्ञो एव नाम । अभब्बा नियामं ओक्कमितुं कुसलेसु धम्मेसु सम्पत्तन्ति कुसलेसु धम्मेसु सम्मत्तनियामसङ्घातं अरियमग्गं ओक्कमितुं अधिगन्तुं अभब्बा। “न कम्मावरणेना’”तिआदीनि वृत्तविपरियायेन वेदितब्बानि । ५७ “ रागचरिता”तिआदीसु यं वत्तब्बं, तं परमत्थदीपनियं [परमत्थमञ्जूसायं विसुद्धिमग्गसंवण्णनायन्ति भवितब्बं - " सा एसा परमत्थानं, तत्थ तत्थ यथारहं । निधानतो परमत्थ- मञ्जूसा नाम नामतो 'ति । । (विसुद्धिमग्गमहाटीकाय निगमने सयमेव वृत्तत्ता)] विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं वुत्तनयेन वेदितब्बं । ७०. आरब्भाति अत्तनो अधिप्पेतस्स अत्थस्स भगवतो जानापनं उद्दिस्साति अत्थो । सेलो पब्बतो उच्चो होति थिरो च, न पंसुपब्बतो, मिस्सकपब्बतो वाति आह “ सेले यथा पब्बतमुद्धनीति । धम्ममयं पासादन्ति लोकुत्तरधम्ममाह । सो हि पब्बतसदिसो च होति सब्बधम्मे अतिक्कम्म अब्भुग्गतट्ठेन पासादसदिसो च पञ्ञापरियायो वा इध 57 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.७१-७३) धम्म-सद्दो । सा हि अब्भुग्गतढेन पासादोति अभिधम् (ध० स० अट्ठ० १६) निद्दिट्ठा । तथा चाह “पञापासादमारुव्ह, असोको सोकिनिं पजं । पब्बतट्टोव भूमढे, धीरो बाले अवेक्खती''ति ।। (ध० प० २८) "यथा ही"तिआदीसु यथा पब्बते ठत्वा रत्तन्धकारे हेट्ठा ओलोकेन्तस्स पुरिसस्स खेत्ते केदारपाळिकुटियो, तत्थ सयितमनुस्सा च न पायन्ति अनुज्जलभावतो। कुटिकासु पन अग्गिजाला पञ्जायति उज्जलभावतो एवं धम्मपासादमारुय्ह सत्तलोकं ओलोकयतो भगवतो जाणस्स आपाथं नागच्छन्ति अकतकल्याणा सत्ता जाणग्गिना अनुज्जलभावतो, अनुळारभावतो च रत्तिं खित्ता सरा विय होन्ति । कतकल्याणा पन भब्बपुग्गला दूरे ठितापि भगवतो आणस्स आपाथं आगच्छन्ति परिपक्कञाणग्गिताय समुज्जलभावतो, उळारसन्तानताय हिमवन्तपब्बतो विय चाति एवं योजना वेदितब्बा। उदेहीति त्वं धम्मदेसनाय अप्पोस्सुक्कतासङ्घातसङ्कोचापत्तितो किलासुभावतो उट्ठह । वीरियवन्ततायाति सातिसय चतुब्बिधसम्मप्पधानवीरियवन्तताय । वीरस्स हि भावो, कम्मं वा वीरियं। किलेसमारस्स विय मच्चुमारस्सपि आयतिं असम्भवतो "मच्चुकिलेसमारान"न्ति वुत्तं । अभिसङ्घारमारविजयस्स अग्गहणं किलेसमारविजयेनेव तब्बिजयस्स जोतितभावतो । वाहनसमत्थतायाति संसारमहाकन्तारतो निब्बानसङ्खातं खेमप्पदेसं सम्पापनसमत्थताय । ७१. “अपारुतं तेसं अमतस्स द्वार"न्ति केचि पठन्ति । निब्बानस्स द्वारं पविसनमग्गो विवरित्वा ठपितो महाकरुणूपनिस्सयेन सयम्भुजाणेन अधिगतत्ता। सद्धं पमुञ्चन्तूति सद्धं पवेदेन्तु, अत्तनो सद्दहनाकारं उपट्टापेन्तूति अत्थो । सुखेन अकिच्छेन पवत्तनीयताय सुप्पवत्तितं। न भासिं न भासिस्सामीति. चिन्तेसि । अग्गसावकयुगवण्णना ७३. सल्लपित्वाति “विप्पसन्नानि खो ते आधुसो इन्द्रियानी''तिआदिना (महाव० ६०) आलापसल्लापं कत्वा | तहिस्स अपरभागे सत्थु सन्तिकं उपसङ्कमनस्स पच्चयो अहोसि । 58 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७५-६-७५-६) अग्गसावकयुगवण्णना ७५-६. अनुपुब्बिं कथन्ति अनुपुब्बिया अनुपुब्बं कथेतब्बं कथं । का पन साति ? दानादिकथा । तत्थ दानकथा ताव पचुरजनेसु पवत्तिया सब्बसाधारणत्ता, सुकरत्ता, सीले पतिट्ठानस्स उपायभावतो च आदितो कथिता । परिच्चागसीलो हि पुग्गलो परिग्गहवत्थूसु निस्सङ्गभावतो सुखेनेव सीलानि समादियति, तत्थ च सुप्पतिट्ठितो होति । सीलेन दायकपटिग्गाहकविसुद्धितो परानुग्गहं वत्वा परपीळानिवत्तिवचनतो, किरियधम्म वत्वा अकिरियधम्मवचनतो, भोगसम्पत्तिहेतुं वत्वा भवसम्पत्तिहेतुवचनतो च दानकथानन्तरं सीलकथा कथिता, तञ्चे दानसीलं वट्टनिस्सितं, अयं भवसम्पत्ति तस्स फलन्ति दस्सनत्थं, इमेहि च दानसीलमयेहि पणीतपणीततरादिभेदभिन्नेहि पुञ्जकिरियवत्थूहि एता चातुमहाराजिकादीसु पणीतपणीततरादिभेदभिन्ना अपरिमेय्या दिब्बभोगभवसम्पत्तियो होन्तीति दस्सनत्थं तदनन्तरं सग्गकथं। वत्वा अयं सग्गो रागादीहि उपक्किलिट्ठो, सब्बदा अनुपक्किलिट्ठो अरियमग्गोति दस्सनत्थं सग्गानन्तरं मग्गकथा कथेतब्बा । मग्गञ्च कथेन्तेन तदधिगमुपायदस्सनत्थं सग्गपरियापन्नापि, पगेव इतरे सब्बेपि कामा नाम बह्वादीनवा, अनिच्चा अधुवा, विपरिणामधम्माति कामानं आदीनवो, हीना, गम्मा, पोथुज्जनिका, अनरिया, अनत्थसहिताति तेसं ओकारो लामकभावो, सब्बेपि भवा किलेसानं वत्थुभूताति तत्थ संकिलेसो, सब्बसो किलेसविप्पमुत्तं निब्बानन्ति नेक्खम्मे आनिसंसो च कथेतब्बोति अयमत्थो मग्गन्तीति एत्थ इति-सद्देन आदिअत्थजोतकेन बोधितोति वेदितबं । सुखानं निदानन्ति दिठ्ठधम्मिकानं, सम्परायिकानं, निब्बानपटिसंयुत्तानञ्चाति सब्बेसम्पि सुखानं कारणं । यहि किञ्चि लोके भोगसुखं नाम, तं सब्बं दाननिदानन्ति पाकटो यमत्थो। यं पन तं झानविपस्सनामग्गफलनिब्बानपटिसंयुत्तं सुखं, तस्सापि दानं उपनिस्सयपच्चयो होतियेव । सम्पत्तीनं मूलन्ति या इमा लोके पदेसरज्जं सिरिस्सरियं सत्तरतनसमुज्जलचक्कवत्तिसम्पदाति एवंपभेदा मानुसिका सम्पत्तियो, या च चातुमहाराजिकचातुमहाराजादिभेदा दिब्बसम्पत्तियो, या वा पनापि सम्पत्तियो, तासं सब्बासं इदं दानं नाम मूलं कारणं । भोगानन्ति भुजितब्बटेन "भोगो"ति लद्धनामानं मनापियरूपादीनं, तन्निस्सयानञ्च उपभोगसुखानं । अवस्सयढेन पतिहा। विसमगतस्साति ब्यसनप्पत्तस्स । ताणन्ति रक्खा ततो परिपालनतो। लेणन्ति ब्यसनेहि परिपाचियमानस्स ओलीयनपदेसो । गतीति गन्तब्बट्टानं । परायणन्ति पटिसरणं । अवस्सयोति विनिपतितुं अदेन्तो निस्सयो । आरम्मणन्ति ओलुब्भारम्मणं | रतनमयसीहासनसदिसन्ति सब्बरतनमयसत्तङ्गमहासीहासनसदिसं महग्धं हत्वा सब्बसो 59 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.७५-६-७५-६) विनिपतितुं अप्पदानतो। महापथविसदिसं गतगतवाने पतिवाय लभापनतो । आलम्बनरज्जुसदिसन्ति यथा दुब्बलस्स पुरिसस्स आलम्बनरज्जु उत्तिट्ठतो, तिठ्ठतो च उपत्थम्भो, एवं दानं सत्तानं सम्पत्तिभवे उप्पत्तिया, ठितिया च पच्चयभावतो । दुक्खनित्थरणद्वेनाति दुग्गतिदुक्खनित्थरणढेन । समस्सासनद्वेनाति लोभमच्छरियादिपटिसत्तुपद्दवतो सम्मदेव अस्सासनद्वैन । भयपरित्ताणद्वेनाति दालिद्दियभयतो परिपालनटेन । मच्छरमलादीहीति मच्छरलोभदोसइस्साविचिकिच्छादिट्टि आदिचित्तमलेहि । अनुपलित्तद्वेनाति अनुपक्किलिट्ठताय । तेसन्ति मच्छेरमलादिकचवरानं । एतेहि एव दुरासदद्वेन। असन्तासनतुनाति अनभिभवनीयताय सन्तासाभावेन । यो हि दायको दानपति, सो सम्पतिपि कुतोचि न भायति, पगेव आयतिं । धम्मसीसेन पुग्गलो वुत्तो । बलवन्तद्वेनाति महाबलवताय । दायको हि दानपति सम्पति पक्खबलेन बलवा होति, आयतिं पन कायबलादीहिपि । अभिमङ्गलसम्मतट्रेनाति "वडिकारण''न्ति अभिसम्मतभावेन । विपत्तिभवतो सम्पत्तिभवूपनयनं खेमन्तभूमिसम्पापनं, भवसङ्गामतो योगक्खेमसम्पापनञ्च खेमन्तभूमिसम्पापनट्ठो। इदानि दानं वट्टगता उक्कंसप्पत्ता सम्पत्तियो विय विवट्टगतापि ता सम्पादेतीति बोधिचरियभावेनपि दानगुणे दस्सेतुं “दानही"तिआदि वुत्तं । तत्थ सक्कमारब्रह्मसम्पत्तियो अत्तहिताय एव, चक्कवत्तिसम्पत्ति पन अत्तहिताय, परहिताय चाति दस्सेतुं सा तासं परतो वुत्ता, एता लोकिया, इमा पन लोकुत्तराति दस्सेतुं ततो परं "सावकपारमीजाण"न्तिआदि वुत्तं । तत्थापि उक्कट्ठक्कट्ठतरुक्कट्ठतमाति दस्सेतुं कमेन आणत्तयं वुत्तं । तेसं पन दानस्स पच्चयभावो हेट्ठा वुत्तो एव । एतेनेवस्स ब्रह्मसम्पत्तियापि पच्चयभावो दीपितोति वेदितब्बो । दानञ्च नाम दक्खिणेय्येसु हितज्झासयेन वा पूजनज्झासयेन वा अत्तनो सन्तकस्स परेसं परिच्चजनं, तस्मा दायको सत्तेसु एकन्तहितज्झासयो पुरिसपुग्गलो, सो “परेसं हिंसति, परेसं वा सन्तकं हरती''ति अट्ठानमेतन्ति आह “दानं ददन्तो सीलं समादातुं सक्कोती"ति । सीलसदिसो अलङ्कारो नत्थीति अकित्तिमं हुत्वा सब्बकालं सोभाविसेसावहत्ता | सीलपुष्फसदिसं पुष्पं नत्थीति एत्थापि एसेव नयो । सीलगन्धसदिसो गन्धो नत्थीति एत्थ “चन्दनं तगरं वापी''तिआदिका (ध० प० ५५) गाथा, “गन्धो इसीनं चिरदिक्खितानं, काया चुतो गच्छति मालुतेना'तिआदिका (जा० २.१७.५५) च 60 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७५-६-७५-६) अग्गसावकयुगवण्णना वत्तब्बा। सीलज्हि सत्तानं आभरणञ्चेव अलङ्कारो च गन्धविलेपनञ्च परस्स दस्सनीयभावावहञ्च । तेनाह "सीलालङ्कारेन ही"तिआदि। "अयं सग्गो लब्भती"ति इदं मज्झिमेहि छन्दादीहि आरद्धं सीलं सन्धायाह । तेनाह सक्को देवराजा "हीनेन ब्रह्मचरियेन, खत्तिये उपपज्जति । मज्झिमेन च देवत्तं, उत्तमेन विसुज्झती''ति ।। (जा० २.२२.४२९) इट्ठोति सुखो, कन्तोति कमनीयो, मनापोति मनवड्डनको, तं पनस्स इट्टादिभावं दस्सेतुं "निच्चमेत्थ कीळा"तिआदि वुत्तं। निच्चन्ति सब्बकालं कीळाति कामूपसंहिता सुखविहारा । सम्पत्तियोति भोगसम्पत्तियो । दिब्बन्ति दिब्बभवं देवलोकपरियापन्नं । सुखन्ति कायिकं, चेतसिकञ्च सुखं । दिब्बसम्पत्तिन्ति दिब्बभवं आयुसम्पत्तिं, वण्णयसइस्सरियसम्पत्तिं, रूपादिसम्पत्तिञ्च । एवमादीति आदि-सद्देन यामादीहि अनुभवितब्बं दिब्बसम्पत्तिं वदति । .. अप्पस्सादाति निरस्सादा पण्डितेहि यथाभूतं पस्सन्तेहि तत्थ अस्सादेतब्बताभावतो । बहुदुक्खाति महादुक्खा सम्पति, आयतिञ्च विपुलदुक्खानुबन्धत्ता। बहुपायासाति अनेकविधपरिस्सया । एत्थाति कामेसु । भिय्योति बहुं । दोसोति अनिच्चतादिना, अप्पस्सादतादिना च दूसितभावो, यतो ते विझूनं चित्तं नाराधेन्ति । अथ वा आदीनं वाति पवत्ततीति आदीनवो, परमकपणता, तथा च कामा यथाभूतं पच्चवेक्खन्तानं पच्चुपतिद्वन्ति । लामकभावोति निहीनभावो असेटेहि सेवितब्बत्ता, सेटेहि न सेवितब्बत्ता च । संकिलिस्सनन्ति विबाधेतब्बता उपतापेतब्बता । नेक्खम्मे आनिसंसन्ति एत्थ यत्तका कामेसु आदीनवा, तप्पटिपक्खतो तत्तका नेक्खम्मे आनिसंसा। अपि च “नेक्खम्म नामेतं असम्बाधं असंकिलिटुं, निक्खन्तं कामेहि, निक्खन्तं कामसाय, निक्खन्तं कामवितक्केहि, निक्खन्तं कामपरिळाहेहि, निक्खन्तं ब्यापादतो''तिआदिना (सारत्थ० टी० ३.२६ महावग्गे) नयेन नेक्खम्मे आनिसंसे पकासेसि, पब्बज्जाय, झानादीसु च गुणे विभावेसि वण्णेसि । वुत्तनयन्ति एत्थ यं अवुत्तनयं “कल्लचित्ते"तिआदि, तत्थ कल्लचित्तेति कम्मनियचित्ते, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ दीघनिकाये महावग्गटीका ट्ठा पवत्तितदेसनाय अस्सद्धियादीनं चित्तदोसानं विगतत्ता उपरदेसनाय भाजनभावूपगमनेन कम्मक्खमचित्तेति अत्थो । अस्सद्धियादयो हि यस्मा चित्तस्स रोगभूता तदा ते विगता, तस्मा अरोगचित्तेति अत्थो । दिट्ठिमानादिकिलेसविगमनेन मुदुचित्ते । कामच्छन्दादिविगमेन विनीवरणचित्ते । सम्मापटिपत्तियं उळारपीतिपामोज्जयोगेन उदग्गचित्ते । तत्थ सद्धासम्पत्तिया पसन्नचित्ते । यदा च भगवा अञ्ञासीति सम्बन्धो । अथ वा कल्लचित्तेति कामच्छन्दविगमेन अरोगचित्ते । मुदुचित्तेति ब्यापादविगमेन मेत्तावसेन अकथिनचित्ते । विनीवरणचित्तेति उद्धच्चकुक्कुच्चविगमेन विक्खेपस्स विगतत्ता तेन अपिहितचित्ते । उदग्गचित्तेति थिनमिद्धविगमेन सम्पग्गहितवसेन अलीनचित्ते । पसन्नचित्तेति विचिकिच्छाविगमेन सम्मापटिपत्तियं अधिमुत्तचित्ते, एवम्पेत्थ अत्थो वेदितब्बो । अरियमग्गुप्पादञ्च रजनन्ति "सेय्यथापी "तिआदिना उपमावसेन नेसं संकिलेसप्पहानं, दस्सेति । अपगतकाळकन्ति विगतकाळकं । सम्पदेवाति सुटु एव । नीलपीतादिरङ्गजातं । पटिग्गण्हेय्याति गण्हेय्य पभस्सरं भवेय्य । तस्मिंयेव आसनेति तिस्समेव निसज्जायं, एतेन नेसं लहुविपस्सकता, तिक्खपञ्ञता, सुखपटिपदाखिप्पाभिञ्ञता च सिता होति । विरजन्ति अपायगमनीयरागरजादीनं विगमेन विरजं । अनवसेसदिट्ठिविचिकिच्छामलापगमनेन वीतमलं । पठममग्गवज्झकिलेसरजाभावेन वा विरजं । पञ्चविधदुस्सील्यमलापगमनेन वीतमलं । धम्मचक्खुन्ति ब्रह्मायुसुत्ते (म० नि० २.३८३) हेट्ठिमा तयो मग्गा वुत्ता, चूळराहुलोवादे (म० नि० ३.४१६ ) आसवक्खयो, इध पन सोतापत्तिमग्गो अधिप्पेतो । “यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म "न्ति तस्स उप्पत्तिआकारदस्सनन्ति । ननु च मग्गञाणं असङ्घतधम्मारम्मणं, न सङ्घतधम्मारम्मणन्ति ? सच्चमेतं । यस्मा तं निरोधं आरम्मणं कत्वा किच्चवसेन सब्बसङ्घतं पटिविज्झन्तं उप्पज्जति, तस्मा तथा वृत्तं । (१.७५-६-७५-६) "सुद्धं वत्थ "न्ति निदस्सितउपमायं इदं उपमासंसन्दनं वत्थं विय चित्तं वत्थस्स आगन्तुकमलेहि किलिट्ठभावो विय चित्तस्स रागादिमलेहि संकिलिट्ठभावो, धोवनसिला वि अनुपुब्बिकथा, उदकं विय सद्धा, उदके तेमेत्वा ऊसगोमयछारिकाभरेहि काळकपदेसे समुच्छिन्दित्वा वत्थस्स धोवनपयोगी विय सद्धासिनेहेन तेमेत्वा तेमेत्वा सतिसमाधिपञ्ञाहि दोसे सिथिली कत्वा सुतादिविधिना चित्तस्स सोधने वीरियारम्भो, तेन पयोगेन वत्थे नानाकाळकापगमो विय वीरियारम्भेन किलेसविक्खम्भनं, रङ्गजातं विय अरियमग्गो, तेन सुद्धस्स वत्थस्स पभस्सरभावी विय विक्खम्भितकिलेसस्स चित्तस्स मग्गेन परियोदपनन्ति । 62 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.७७-७७) अग्गसावकयुगवण्णना "दिठ्ठधम्मा''ति वत्वा दस्सनं नाम जाणदस्सनतो अझम्पि अत्थीति तं निवत्तनत्थं "पत्तधम्मा"ति वुत्तं । पत्ति च आणसम्पत्तितो अचम्पि विज्जतीति ततो विसेसदस्सनत्थं "विदितधम्मा"ति वुत्तं । सा पन विदितधम्मता धम्मेसु एकदेसेनापि होतीति निप्पदेसतो विदितभावं दस्सेतुं “परियोगाळ्हधम्मा"ति वुत्तं, तेन नेसं सच्चाभिसम्बोधियेव विभावेति । मग्गाणहि एकाभिसमयवसेन परिञादिकिच्चं साधेन्तं निप्पदेसतोव चतुसच्चधम्म समन्ततो ओगाहन्तं पटिविज्झतीति । सेसं हेट्ठा वुत्तनयमेव । ७७. चीवरदानादीनीति चीवरादिपरिक्खारदानं सन्धायाह । यो हि चीवरादिके अट्ठ परिक्खारे, पत्तचीवरमेव वा सोतापन्नादिअरियस्स, पुथुज्जनस्सेव वा सीलसम्पन्नस्स दत्वा "इदं परिक्खारदानं अनागते एहिभिक्खुभावाय पच्चयो होतू"ति पत्थनं पठ्ठपेसि, तस्स च सति अधिकारसम्पत्तियं बुद्धानं सम्मुखीभावे इद्धिमयपरिक्खारलाभाय संवत्ततीति वेदितब्बं । वस्ससतिकत्थेरा विय आकप्पसम्पन्नाति अधिप्पायो । सन्दस्सेसीति सुट्ट पच्चक्खं कत्वा दस्सेसि। इधलोकत्थन्ति इधलोकभूतं खन्धपञ्चकसङ्खातमत्थं । परलोकत्थन्ति एत्थापि एसेव नयो । दस्सेसीति सामञलक्खणतो, सलक्खणतो च दस्सेसि । तेनाह “अनिच्च"न्तिआदि । तत्थ हुत्वा अभावतो अनिच्चन्ति दस्सेसि। उदयब्बयपटिपीळनतो दुक्खन्ति दस्सेसि। अवसवत्तनतो अनत्ताति दस्सेसि। इमे रुप्पनादिलक्खणा पञ्चक्खन्धाति रासढेन खन्धे दस्सेसि। इमे चक्खादिसभावा निस्सत्तनिज्जीवढेन अट्ठारस धातुयोति दस्सेसि। इमानि चक्खादिसभावानेव द्वारारम्मणभूतानि द्वादस आयतनानीति दस्सेसि। इमे अविज्जादयो जरामरणपरियोसाना द्वादस पच्चयधम्मा पटिच्चसमुप्पादोति दस्सेसि। रूपक्खन्धस्स हेट्ठा वुत्तनयेन पच्चयतो चत्तारि, खणतो एकन्ति इमानि पञ्च लक्खणानि दस्सेसि। तथाति इमिना “पञ्च लक्खणानी''ति पदं आकड्डति । दस्सेन्तोति इति-सदो निदस्सनत्थो, एवन्ति अत्थो । निरयन्ति अट्ठमहानिरयसोळसउस्सदनिरयप्पभेदं सब्बसो निरयं दस्सेसि। तिरच्छानयोनिन्ति अपदद्विपदचतुप्पदबहुप्पदादिभेदं मिगपसुपक्खिसरीसपादिविभागं नानाविधं तिरच्छानलोकं । पेत्तिविसयन्ति खुप्पिपासिकवन्तासिकपरदत्तूपजीविनिज्झामतण्हिकादिभेदभिन्नं नानाविधं पेतसत्तलोकं । असुरकायन्ति कालकञ्चिकासुरनिकायं । एवं ताव दुग्गतिभूतं परलोकत्थं वत्वा इदानि सुगतिभूतं वत्तुं "तिण्णं कुसलानं विपाक"न्तिआदि वुत्तं । वेहप्फले सुभकिण्णेयेव सङ्गहेत्वा असञीसु, अरूपीपु च सम्पत्तिया दस्सेतब्बाय अभावतो दुविनेय्यताय “नवन्नं ब्रह्मलोकान"न्त्वेव वुत्तं । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.७७-७७) गण्हापेसीति ते धम्मे समादिन्ने कारापेसि। समुत्तेजनं नाम समादिन्नधम्मानं यथा अनुपकारका धम्मा परिहायन्ति, पहीयन्ति च, उपकारका धम्मा परिवड्डन्ति, विसुज्झन्ति च, तथा नेसं उस्साहुप्पादनन्ति आह "अब्भुस्साहसी"ति । यथा पन तं उस्साहुप्पादनं होति, तं दस्सेतुं "इधलोकत्थञ्चेवा"तिआदि वुत्तं । तासेत्वा तासेत्वाति परिब्यत्तभावापादनेन तेजेत्वा तेजेत्वा । अधिगतं विय कत्वाति येसं कथेति, तेहि तमत्थं पच्चक्खतो अनुभुय्यमानं विय कत्वा। वेनेय्यानहि बुद्धेहि पकासियमानो अत्थो पच्चक्खतोपि पाकटतरो हुत्वा उपट्ठाति । तथा हि भगवा एवं थोमीयति - "आदित्तोपि अयं लोको, एकादसहि अग्गिभि । न तथा याति संवेगं, सम्मोहपलिगुण्ठितो ।। सुत्वादीनवस त्तं, यथा वाचं महेसिनो । पच्चक्खतोपि बुद्धानं, वचनं सुट्टु पाकट"न्ति ।। तेनाह "दत्तिंसकम्मकारणपञ्चवीसतिमहाभयप्पभेदही"तिआदि। द्वत्तिंसकम्मकारणानि "हत्थम्पि छिन्दन्ती''तिआदिना (म० नि० १.१७८) दुक्खक्खन्धसुत्ते आगतनयेन वेदितब्बानि । पञ्चवीसतिमहाभयानि “जातिभयं जराभयं ब्याधिभयं मरणभय"न्तिआदिना (चूळनि० १२३) तत्थ तत्थ सुत्ते आगतनयेन वेदितब्बानि | आघातनभण्डिका अधिकुट्टनकळिङ्गरं, यं “अच्चाधान''न्तिपि वुच्चति । पटिलद्धगुणेन चोदेसीति "तंतंगुणाधिगमेन अयम्पि तुम्हेहि पटिलद्धो, आनिसंसो अयम्पी''ति पच्चक्खतो दस्सेन्तो “किं इतो पुब्बे एवरूपं अत्थी''ति चोदेन्तो विय अहोसि । तेनाह "महानिसंसं कत्वा कथेसी'ति । तप्पच्चयञ्च किलमथन्ति सङ्घारपवत्तिहेतुकं तस्मिं तस्मिं सत्तसन्ताने उप्पज्जनकपरिस्समं संविघातं विहेसं। इधाति हेट्ठा पठममग्गाधिगमत्थाय कथाय । सब्बसारूपसमभावतो सन्तं। अतित्तिकरपरमसुखताय पणीतं। सकलसंसारब्यसनतो 64 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.८०-८६) महाजनकायपब्बज्जावण्णना तायनत्थेन ताणं। ततो निबिन्दहदयानं निलीयनट्ठानताय लेणं। आदि-सद्देन गतिपटिसरणं परमस्सासोति एवमादीनं सङ्गहो । महाजनकायपब्बज्जावण्णना ८०. सङ्घप्पहोनकानं भिक्खूनं अभावा “सङ्घस्स अपरिपुण्णत्ता"ति वुत्तं । द्वे अग्गसावका एव हि तदा अहेसुं । चारिकाअनुजाननवण्णना ८६. “कदा उदपादी"ति पुच्छं “सम्बोधितो''तिआदिना सङ्घपतो विस्सज्जेत्वा पुन तं वित्थारतो दस्सेतुं "भगवा किरा"तिआदि वुत्तं । पितु सङ्गहं करोन्तो विहासि सम्बोधितो “सत्त संवच्छरानि सत्त मासे सत्त दिवसे"ति आनेत्वा सम्बन्धो, तञ्च खो वेनेय्यानं तदा अभावतो | किलजेहि बहि छादापेत्वा, वत्थेहि अन्तो पटिच्छादापेत्वा, उपरि च वत्थेहि छादापेत्वा, तस्स हेट्ठा सुवण्ण...पे०... वितानं कारापेत्वा। मालावच्छकेति पुप्फमालाहि वच्छाकारेन वेठिते । गन्धन्तरेति चाटिभरितगन्धस्स अन्तरे । पुष्फानीति चाटिआदिभरितानि जलजपुप्फानि चेव चङ्कोतकादिभरितानि थलजपुप्फानि च।। कामञ्चायं राजा बुद्धपिता, तथापि बुद्धा नाम लोकगरुनो, न ते केनचि वसे वत्तेतब्बा, अथ खो ते एव परे अत्तनो वसे वत्तेन्ति, तस्मा राजा "नाहं भिक्खुसङ्ख देमी"ति आह । दानमुखन्ति दानकरणूपाय, दानवत्तन्ति अत्थो । न दानि मे अनुजाताति इदानि मे दानं न अनुज्ञाता, नो न अनुजानन्तीति अत्थो । परितस्सनजीवितन्ति दुक्खजीविका दालिद्दियन्ति अत्थो । सब्बेसं भिक्खून पहोसीति भगवतो अट्ठसट्टि च भिक्खुसतसहस्सानं भागतो दातुं पहोसि, न सब्बेसं परियत्तभावेन । तेनाह "सेनापतिपि अत्तनो देय्यधम्मं अदासी"ति । जेट्टिकट्ठानेति जेट्टिकदेविट्ठाने । 65 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.९०-९०) तथेव कत्वाति चरपुरिसे ठपेत्वा । सुचिन्ति सुद्धं । पणीतन्ति उळारं, भावनपुंसकञ्चेतं “एकमन्त''न्तिआदीसु (पारा० २) विय | भज्जित्वाति मद्दित्वा, पीळेत्वाति अत्थो । जातिसप्पिखीरादीहियेवाति अन्तोजातसप्पिखीरादीहियेव, अम्हाकमेव गाविआदितो गहितसप्पिआदीहियेवाति अत्थो । ९०. परापवाद, परापकारं, सीतुण्हादिभेदञ्च गुणापराधं खमति सहति अधिवासेतीति खन्ति। सा पन यस्मा सीलादीनं पटिपखधम्मे सविसेसं तपति सन्तपति विधमतीति परमं उत्तमं तपो। तेनाह “अधिवासनखन्ति नाम परमं तपो"ति । “अधिवासनखन्ती''ति इमिना धम्मनिज्झानक्खन्तितो विसेसेति । तितिक्खनं खमनं तितिक्खा। अक्खरचिन्तका हि खमायं तितिक्खा-सदं वण्णेन्ति । तेनेवाह "खन्तिया एव वेवचन"न्तिआदि। सब्बाकारेनाति सन्तपणीतनिपुणसिवखेमादिना. सब्बप्पकारेन । सो पब्बजितो नाम न होति पब्बाजितब्बधम्मस्स अपब्बाजनतो। तस्सेव ततियपदस्स वेवचनं अनत्थन्तरत्ता। "न ही"तिआदिना तं एवत्थं विवरति । उत्तमत्थेन परमन्ति वुच्चति पर-सद्दस्स सेट्ठवाचकत्ता, “पुग्गलपरोपर 'तिआदीसु (अ० नि० २.७.६८; नेत्ति० ११८) विय । परन्ति अझं । इदानि पर-सदं अञपरियायमेव गहेत्वा अत्थं दस्सेतुं “अथ वा"तिआदि वुत्तं । मलस्साति पापमलस्स। अपब्बाजितत्ताति अनीहटत्ता अनिराकतत्ता। समितत्ताति निरोधितत्ता तेसं पापधम्मानं । “समितत्ता हि पापानं समणोति पवुच्चती"ति हि वुत्तं । अपिच भगवा भिक्खूनं पातिमोक्खं उद्दिसन्तो पातिमोक्खकथाय च सीलपधानत्ता सीलस्स च विसेसतो दोसो पटिपक्खोति तस्स निग्गण्हनविधि दस्सेतुं आदितो “खन्ती परमं तपो"ति आह, तेन अनिट्ठस्स पटिहननूपायो वुत्तो, तितिक्खागहणेन पन इट्ठस्स, तदुभयेनपि उप्पन्नं रति अभिभुय्य विहरतीति अयमत्थो दस्सितोति । तण्हावानस्स वूपसमनतो निब्बानं परमं वदन्ति बुद्धा। तत्थ खन्तिग्गहणेन पयोगविपत्तिया अभावो दस्सितो, तितिक्खागहणेन आसयविपत्तिया अभावो । तथा खन्तिग्गहणेन परापराधसहता, तितिक्खागहणेन परेसु अनपरज्झना दस्सिता । एवं कारणमुखेन अन्वयतो पातिमोक्खं दस्सेत्वा इदानि ब्यतिरेकतो तं दस्सेतुं "न ही"तिआदि वुत्तं, तेन यथा सत्तानं जीविता वोरोपनं, पाणिलेड्डदण्डादीहि विबाधनञ्च “परूपघातो, परविहेठनन्ति वुच्चति, एवं तेसं मूलसापतेय्यावहरणं, दारपरामसनं, विसंवादनं, अमञभेदनं, फरुसवचनेन मम्मघट्टनं, 66 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९०-९०) चारिकाअनुजाननवण्णना निरत्थकविप्पलापो, परसन्तकगिज्झनं, उच्छेदविन्दनं, मिच्छाभिनिवेसनञ्चउपघातो, विहेठनञ्च होतीति यस्स कस्सचि अकुसलस्स कम्मपथस्स, कम्मस्स च करणेन पब्बजितो, समणो च न होतीति दस्सेति । सब्बाकुसलस्साति सब्बस्सापि द्वादसाकुसलचित्तुप्पादसङ्गहितस्स सावज्जधम्मस्स । करणं नाम तस्स अत्तनो सन्ताने उप्पादनन्ति तप्पटिक्खेपतो अकरणं "अनुप्पादन"न्ति वुत्तं । "कुसलस्सा"ति इदं “एतं बुद्धान सासनन्ति वक्खमानत्ता अरियमग्गधम्मे, तेसञ्च सम्भारभूते तेभूमककुसलधम्मे सम्बोधेतीति आह "चतुभूमककुसलस्सा"ति । उपसम्पदाति उपसम्पादनं, तं पन तस्स समधिगमोति आह “पटिलाभो"ति । चित्तजोतनन्ति चित्तस्स पभस्सरभावकरणं सब्बसो परिसोधनं । यस्मा अग्गमग्गसमङ्गिनो चित्तं सब्बसो परियोदपीयति नाम, अग्गफलक्खणे पन परियोदपितं होति पुन परियोदपेतब्बताय अभावतो, इति परिनिहितपरियोदपनतं सन्धायाह "तं पन अरहत्तेन होती"ति । सब्बपापं पहाय तदङ्गादिवसेनेवाति अधिप्पायो । “सीलसंवरेना"ति हि इमिना तेभूमकस्सापि सङ्गहे इतरप्पहानानम्पि सङ्गहो होतीति, एवञ्च कत्वा सब्बग्गहणं समत्थितं होति । समथविपस्सनाहीति लोकियलोकुत्तराहि समथविपस्सनाहि । सम्पादेत्वाति निप्फादेत्वा । सम्पादनञ्चेत्थ हेतुभूताहि फलभूतस्स सहजाताहिपि, पगेव पुरिमसिद्धाहीति दट्ठब्बं । कस्सचीति हीनादीसु कस्सचि सत्तस्स कस्सचि उपवादस्स, तेन दवकम्यतायपि उपवदनं पटिक्खिपति । उपघातस्स अकरणन्ति एत्थापि “कस्सची"ति आनेत्वा सम्बन्धो । कायेनाति च निदस्सनमत्तमेतं मनसापि परेसं अनत्थचिन्तनादिवसेन उपघातकरणस्स वज्जेतब्बत्ता। कायेनाति वा एत्थ अरूपकायस्सापि सङ्गहो दट्ठब्बो, न चोपनकायकरजकायानमेव । प अतिमोक्खन्ति पकारतो अतिविय सीलेसु मुख्यभूतं । "अतिपमोक्ख"न्ति तमेव पदं उपसग्गब्यत्तयेन वदति । एवं भेदतो पदवण्णनं कत्वा तत्वतो वदति "उत्तमसील"न्ति । "पाति वा"तिआदिना पालनतो रक्खणतो अतिविय मोक्खनतो अतिविय मोचनतो पातिमोक्खन्ति दस्सेति । “पापा अति मोक्खेतीति अतिमोक्खो"ति निमित्तस्स कत्तुभावेन उपचरितब्बतो । यो वा नन्ति यो वा पुग्गलो नं पातिमोक्खसंवरसीलं पाति समादियित्वा अविकोपेन्तो रक्खति, तं “पाती"ति लद्धनामं पातिमोक्खसंवरसीले ठितं मोक्खेतीति पातिमोक्खन्ति अयमेत्थ सोपो, वित्थारतो पन पातिमोक्खपदस्स अत्थो विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं (विसुद्धि० टी० १.१४) वुत्तनयेन वेदितब्बो । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१.९१-९१) मत्त ताति भोजने मत्तञ्जता, सा पन विसेसतो पच्चयसनिस्सितसीलवसेन गहेतब्बाति आह “पटिग्गहणपरिभोगवसेन पमाण ता"ति । आजीवपारिसुद्धिसीलवसेनापि गव्हमाने "परियेसनविस्सज्जनवसेना''तिपि वत्तब्बं । सट्टनविरहितन्ति जनसङ्घट्टनविरहितं, निरजनसम्बाधं विवित्तन्ति अत्थो। चतुपच्चयसन्तोसो दीपितो पच्चयसन्तोसतासामनेन इतरद्वयस्सापि लक्खणहारनयेन जोतितभावतो। “अट्ठसमापत्तिवसिभावाया"ति इमिना पयोजनदस्सनवसेन यदत्थं विवित्तसेनासनसेवनं इच्छितं, सो अधिचित्तानुयोगो वुत्तो। अट्ठ समापत्तियो चेत्थ विपस्सनाय पादकभूता अधिप्पेता, न या काचीति सकलस्सापि अधिचित्तानुयोगस्स जोतितभावो वेदितब्बो । देवतारोचनवण्णना ९१. एत्तावताति एत्तकेन सुत्तपदेसेन । तत्थापि च इमिना...पे०... कथनेन सुप्पटिविद्धभावं पकासेत्वाति योजना। च-सद्दो ब्यतिरेकत्थो, तेन इदानि वुच्चमानत्थं उल्लङ्गेति । एकमिदाहन्ति एकं अहं । इदं-सद्दो निपातमत्तं । आदि-सद्देन "भिक्खवे समय"न्ति एवमादि पाठो सङ्गहितो । अहं भिक्खवे एकं समयन्ति एवं पेत्थ पदयोजना । सुभगवनेति सुभगत्ता सुभगं, सुन्दरसिरिकत्ता, सुन्दरकामत्ता वाति अत्थो । सुभगहि तं सिरिसम्पत्तिया, सुन्दरे चेत्थ कामे मनुस्सा पत्थेन्ति । बहुजनकन्ततायपि तं सुभगं । वनयतीति वनं, अत्तसम्पत्तिया अत्तनि सिनेहं उप्पादेतीति अत्थो । वनुते इति वा वनं, अत्तसम्पत्तिया एव “मं परिभुञ्जथा"ति सत्ते याचति वियाति अत्थो। सुभगञ्च तं वनञ्चाति सुभगवनं, तस्मिं सुभगवने। अट्ठकथायं पन किं इमिना पपञ्चेनाति “एवं नामके वने"ति वुत्तं । कामं सालरुक्खोपि “सालो''ति वुच्चति, यो कोचि रुक्खोपि वनप्पति जेट्टकरुक्खोपि। इध पन पच्छिमो एव अधिप्पेतोति आह "वनप्पतिजेट्ठकस्स मूले"ति । मूलसमुग्धातवसेनाति अनुसयसमुच्छिन्दनवसेन । न विहायन्तीति अकुप्पधम्मताय न विजहन्ति । “न कञ्चि सत्तं तपन्तीति अतप्पा"ति इदं तेसु तस्सा समजाय निरुळ्हताय वुत्तं, अञथा सब्बेपि सुद्धावासा न कञ्चि सत्तं तपन्तीति अतप्पा नाम सियुं । “न विहायन्ती"तिआदिनिब्बचनेसुपि एसेव नयो। सुन्दरदस्सनाति दस्सनीयाति अयमत्थोति आह "अभिरूपा"तिआदि । सुन्दरमेतेसं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१.९१-९१) देवतारोचनवण्णना दस्सनन्ति सोभनमेतेसं चक्खुना दस्सनं, विञ्ञणेन दस्सनं पीति अत्थो । सब्बे हेव... पे०... जेट्ठा पञ्चवोकारभवे ततो विसिद्वानं अभावतो । सत्तन्नं बुद्धानं वसेनाति सत्तन्नं सम्मासम्बुद्धानं अपदानवसेन । अविहेहि अज्झिन एकेन अविहाब्रह्मना कथिता तेहि सब्बेहि कथिता नाम होन्तीति वुत्तं “ तथा अविहेही 'ति । एसेव नयो सेसेसुपि । तेनाह भगवा " देवता मं एतदवोचु "न्ति। यं पन पाळियं “ अनेकानि देवतासतानी "ति वुत्तं तं सब्बं पच्छा अत्तनो सासने विसेसं अधिगन्त्वा तत्थ उप्पन्नानं वसेन वुत्तं । अनुसन्धिद्वयम्पीति धम्मधातुपदानुसन्धि, देवतारोचनपदानुसन्धीति दुविधं अनुसन्धिं । निय्यातेन्तोति निगमेन्तो । यं पत्थ अथो अविभत्तं, तं सुविञ्ञेय्यमेवाति । महापदान सुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना । ६९ 69 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. महानिदानसुत्तवण्णना निदानवण्णना ९५. जनपदिनोति जनपदवन्तो, जनपदस्स वा इस्सरसामिनो राजकुमारा गोत्तवसेन कुरू नाम । तेसं निवासो यदि एको जनपदो, कथं बहुवचनन्ति आह " रुळ्हिसद्देना "ति । अक्खरचिन्तका हि ईदिसेसु ठानेसु युत्ते विय ईदिसलिङ्गवचनानि इच्छन्ति । अयमेत्थ रुळ्हि यथा अञ्ञत्थापि " अङ्गेसु विहरति, मल्लेसु विहरती 'ति च । तब्बिसेसनेपि जनपदसद्दे जातिसद्दे एकवचनमेव । अट्ठकथाचरिया पनाति पन - सद्दो विसेसत्थजोतनो, तेन “पुथुअत्थविसयताय एवेतं पुथुवचन "न्ति “बहुके पना "तिआदिना वक्खमानं विसेसं जोतेति । सुत्वाति मन्धातुमहाराजस्स आनुभावदस्सनानुसारेन परम्परानुगतं कथं सुत्वा । अनुयाया अनुविचरन्तेन । एतेसं ठानन्ति चन्दिमसूरियमुखेन चातुमहाराजिकभवनमाह । तेनाह “ तत्थ अगमासी "तिआदि । सोति मन्धातुमहाराजा । चातुमहाराजिकरज्जं । गहेत्वाति सम्पटिच्छित्वा । पुन पुच्छि परिणायकरतनं । दोवारिकभूमियं तिट्ठन्ति सुधम्माय देवसभाय, देवपुरस्स च चतूसु द्वारेसु आरक्खाय अधिगतत्ता । "दिब्बरुक्खसहस्सपटिमण्डित "न्ति इदं "चित्तलतावन "न्तिआदीसुपि योजेतब्बं । पथवियं पतिट्ठासीति भस्सित्वा पथविया आसन्नट्टाने अट्टासि । न हि चक्करतनं भूमियं पतति, तथाठितञ्च नचिरस्सेव अन्तरधायि तेनत्तभावेन चक्कवत्तिइस्सरियस्स अभावतो । “चिरतरं कालं ठत्वा" ति अपरे । राजा एककोव अगमासि अत्तनो आनुभावेन । मनुस्सभावोति मनुस्सगन्धसरीरनिस्सन्दादिमनुस्सभावो । पातुरहोसीति देवलोके पवत्तिविपाकदायिनो अपरापरियाय वेदनीयस्स कम्मस्स कतोकासत्ता सब्बदा सोळसवस्सुद्देसिकता मालामिलायनादि दिब्बभावो पातुरहोसि । तदा मनुस्सानं 70 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) निदानवण्णना असोय्यायुकताय सक्करजं कारेत्वा। “किं मे इमिना उपद्धरज्जेना"ति अत्रिच्छताय अतित्तोव। मनुस्सलोके उतुनो कक्खळताय वातातपेन फुट्ठगत्तो कालमकासि। अवयवेसु सिद्धो विसेसो समुदायस्स विसेसको होतीति एकम्पि रटुं बहुवचनेन वोहरियति। द-कारेन अत्थं वण्णयन्ति निरुत्तिनयेन । कम्मासोति कम्मासपादो वुच्चति उत्तरपदलोपेन यथा “रूपभवो रूप"न्ति । कथं पन सो “कम्मासपादो"ति वुच्चतीति आह "तस्स किरा"तिआदि । दमितोति एत्थ कीदिसं दमनं अधिप्पेतन्ति आह "पोरिसादभावतो पटिसेधितो"ति। "इमे पन थेराति मज्झिमभाणका"ति केचि। अपरे पन “अट्ठकथाचरिया''ति, “दीघभाणका"ति वदन्ति । उभयथापि चूळकम्मासदम्मं सन्धाय तथा वदन्ति । यक्खिनिपुत्तो हि कम्मासपादो अलीनसत्तुकुमारकाले (चरिया० २.७५) बोधिसत्तेन तत्थ दमितो। सुतसोमकाले (जा० २.२१.३७१) पन बाराणसिराजा पोरिसादभावपटिसेधनेन यत्थ दमितो, तं महाकम्मासदम्मं नाम | "पुत्तो"ति वत्वा "अत्रजोति वचनं ओरसपुत्तभावदस्सनत्थं । येहि आवसितप्पदेसो “कुरुरट्ठ"न्ति नाम लभि, ते उत्तरकुरुतो आगतमनुस्सा तत्थ रक्खितनियामेनेव पञ्च सीलानि रक्खिंसु । तेसं दिवानुगतिया पच्छिमजनताति सो देसधम्मवसेन अविच्छेदतो पवत्तमानो कुरुवत्तधम्मोति पञायित्थ । अयञ्च अत्थो कुरुधम्मजातकेन दीपेतब्बो । सो अपरभागे पठमं यत्थ संकिलिट्ठो जातो, तं दस्सेतुं "कुरुरट्ठवासीन"न्तिआदि वुत्तं । यत्थ भगवतो वसनोकासभूतो कोचि विहारो न होति, तत्थ केवलं गोचरगामकित्तनं निदानकथाय पकति यथा तं सक्केसु विहरति देवदहं नाम सक्यानं निगमोति इममत्थं दस्सेन्तो “अवसनोकासतो"तिआदिमाह । "आयस्मा"ति वा “देवानं पिया'ति वा “तत्र भव"न्ति वा पियसमुदाहारो एसोति आह "आयस्माति पियवचनमेत"न्ति । तयिदं पियवचनं गरुगारववसेन वुच्चतीति आह "गारववचनमेत"न्ति । अतिदूरअच्चासन्नवज्जनेन नातिदूरनाच्चासन्नं नाम गहितं, तं पन अवकंसतो उभिन्नं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दीघनिकाये महावग्गटीका पसारितहत्थानं सङ्घट्टनेन वेदितब्बं । चक्खुना चक्खुं आहच्च दट्ठब्बं होति, तेनापि अगारवमेव कतं होति । गीवं परिवत्तेत्वाति परिवत्तनवसेन गीवं पसारेत्वा सहस्स भण्डिकं कुलसङ्गहत्थायाति कुलानुद्दयतावसेन कुलानं अनुग्गहनत्थाय निक्खिपन्तो विय भिक्खपटिग्गण्हनेन तेसं महतो पुञ्ञाभिसन्दस्स जननेन । पटिसम्मज्जित्वाति अन्तेवासिकेहि सम्मज्जनट्ठानं सक्कच्चकारिताय पुन सम्मज्जित्वा । तिक्खत्तुन्ति " आदितो पट्ठाय अन्त "न्तिआदिना वुत्तचतुराकारूपसञ्हिते तयो वारे, तेनस्स द्वादसक्खत्तुं सम्मसितभावमाह । 6. " अम्हाकं भगवतो गम्भीरभावेनेव कथितत्ता सेसबुद्धेहिपि एवमेव कथितोति धम्मन्वये ठत्वा वुत्तं "सब्बबुद्धेहि... पे०... कथितो 'ति । सालिन्दन्ति सपरिभण्डं । “सिनेरुं उक्खिपन्तो वियाति इमिना तादिसाय देसनाय सुदुक्करभावमाह । सुत्तमेव " सुत्तन्तकथ" न्ति आह धम्मक्खन्धभावतो । यथा विनयपण्णत्तिभूमन्तरसमयन्तरानं विजाननं अनञ्ञसाधारणं सब्बञ्ञतञाणस्सेव विसयो, एवं अन्तद्वयविनिमुत्तस्स कारकवेदकरहितस्स पच्चयाकारस्स विभजनं पीति दस्सेतुं “बुद्धानञ्ही "तिआदि आरद्धं । तत्थ ठानानीति कारणानि | गज्जितं महन्तं होतीति तं देसेतब्बस्सेव अनेकविधताय, दुविज्ञेय्यताय च नानानयेहि पवत्तमानं देसनागज्जितं महन्तं विपुलं, बहुभेदञ्च होति । ञाणं अनुपविसतीति ततो एव देसनाञाणं देसेतब्बधम्मे विभागसो कुरुमानं अनु अनु पविसति, तेन अनुपविस्स ठितं विय होतीति अत्थो । बुद्धञाणस्स महन्तभावो पञ्ञायतीति एवंविधस्स नाम धम्मस्स देसकं, पटिवेधकञ्चाति बुद्धानं देसनाञाणस्स, पटिवेधञाणस्स च उळारभावो पाकटो होति । एत्थ च किञ्चापि "सब्बं वचीकम्मं बुद्धस्स भगवतो ञाणपुब्बङ्गमं आणानुपरिवत्त "न्ति (महानि० ६९, १६९ चूळनि० ८५ पटि० म० ३.५; नेत्ति० १४) वचनतो सब्बापि भगवतो देसना ञाणरहिता नत्थि, सीहसमानवुत्तिताय सब्बत्थ समानप्पवत्ति । देसेतब्बवसेन पन देसना विसेसतो आणेन अनुपविट्ठा, गम्भीरतरा च होतीति दट्टब्बं । कथं पन विनयपञ्ञत्तिं पत्वा देसना तिलक्खणभाहता सुञतपटिसंयुत्ता होतीति ? तत्थापि सन्निसिन्नपरिसाय अज्झासयानुरूपं पवत्तमाना देसना सङ्घारानं अनिच्चतादिविभावनं, सब्बधम्मानं अत्तत्तनियताभावप्पकासनञ्च होति । ते वाह 'अनेकपरियायेन धम्मिं कथं कत्वा"तिआदि । आपज्जाति पत्वा यथा आणकोञ्चनादं विस्सज्जेति, एवं पापुणित्वा । (२.९५ - ९५) 72 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) उस्सादनावण्णना पमाणातिक्कमेति अपरिमाणत्थे "यावञ्चिदं तेन भगवता''तिआदीसु (दी० नि० १.४) विय । अपरिमेय्यभावजोतनो हि अयं याव-सद्दो । तेनाह “अतिगम्भीरो अत्थो"ति । अवभासतीति आयति उपट्ठाति । आणस्स तथा उपट्टानहि सन्धाय "दिस्सती"ति वुत्तं । ननु एस पटिच्चसमुप्पादो एकन्तगम्भीरोव, तत्थ कस्मा गम्भीरावभासता जोतिताति ? सच्चमेतं, एकन्तगम्भीरतादस्सनत्थमेव पनस्स गम्भीरावभासग्गहणं । तस्मा अञत्थ लब्भमानं चतुकोटिकं ब्यतिरेकमुखेन निदस्सेत्वा तं एवस्स एकन्तगम्भीरतं विभावेतुं "एकही"तिआदि वुत्तं । एतं नत्थीति अगम्भीरो, अगम्भीरावभासो चाति एतं द्वयं नत्थि, तेन यथादस्सिते चतुकोटिके पच्छिमा एक कोटि लब्भतीति दस्सेति । तेनाह "अयही"तिआदि । येहि गम्भीरभावेहि पटिच्चसमुप्पादो “गम्भीरो"ति वुच्चति, ते चतूहि उपमाहि उल्लिङ्गेन्तो "भवग्गग्गहणाया"तिआदिमाह । यथा भवग्गं हत्थं पसारेत्वा गहेतुं न सक्का दूरभावतो, एवं सङ्खारादीनं अविज्जादिपच्चयसम्भूतसमुदागतट्ठो पाकतिकजाणेन गहेतुं न सक्का । यथा सिनेरुं भिन्दित्वा मिजं पब्बतरसं पाकतिकपुरिसेन नीहरितुं न सक्का, एवं पटिच्चसमुप्पादगते धम्मत्थादिके पाकतिकजाणेन भिन्दित्वा विभज्ज पटिविज्झनवसेन जानितुं न सक्का । यथा महासमुदं पाकतिकपुरिसस्स बाहुद्वयेन पधारितुं न सक्का, एवं वेपुल्लटेन महासमुद्दसदिसं पटिच्चसमुप्पादं पाकतिकजाणेन देसनावसेन पधारितुं न सक्का । यथा महापथविं परिवत्तेत्वा पाकतिकपुरिसस्स पथवोजं गहेतुं न सक्का, एवं "इत्थं अविज्जादयो सङ्खारादीनं पच्चया होन्ती"ति तेसं पच्चयभावो पाकतिकजाणेन नीहरित्वा गहेतुं न सक्काति । एवं चतुब्बिधगम्भीरतावसेन चतस्सो उपमा योजेतब्बा । पाकतिकजाणवसेन चायमत्थयोजना कता दिट्ठसच्चानं तत्थ पटिवेधसभावतो, तथापि यस्मा सावकानं, पच्चेकबुद्धानञ्च तत्थ सप्पदेसमेव आणं, बुद्धानंयेव निप्पदेसं, तस्मा वुत्तं "बुद्धविसयं पह"न्तिआदि । उस्सादेन्तोति पाय उक्कंसेन्तो, उग्गण्हन्तोति अत्थो । अपसादेन्तोति निब्भच्छन्तो, निग्गण्हन्तोति अत्थो । उस्सादनावण्णना तेनाति महापाभावेन । तत्थाति थेरस्स सतिपि उत्तानभावे, Jain Education Interational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.९५-९५) पटिच्चसमुप्पादस्सअञ्जेसं गम्भीरभावे । सुभोजनरसपुटुस्साति सुन्दरेन भोजनरसेन पोसितस्स । कतयोगस्साति निबद्धपयोगेन कतपरिचयस्स। मल्लपासाणन्ति । मल्लेहि महब्बलेहेव उक्खिपितब्बपासाणं । कुहिं इमस्स भारियवानन्ति कस्मिं पस्से इमस्स पासाणस्स गरुतरप्पदेसोति तस्स सल्लहुकभावं दीपेन्तो वदति । तिमिरपिङ्गलेनेव दीपेन्ति तस्स महाविप्फारभावतो | तेनाह "तस्स किरा"तिआदि । पक्कुथतीति पक्कुथन्तं विय परिवत्तति परितो विवत्तति । लक्खणवचनव्हेतं । पिट्ठियं सकलिनपदकापिटुं | कायूपपनस्साति महता कायेन उपेतस्स, महाकायस्साति अत्थो । पिञ्छवट्टीति पिञ्छकलापो। सुपण्णवातन्ति नागग्गहणादीसु पक्खपप्फोटनवसेन उप्पज्जनकवातं । पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिकथावण्णना "पुब्बूपनिस्सयसम्पत्तिया"तिआदिना उद्दिढकारणानि वित्थारतो विवरितुं "इतो किरा"तिआदि वुत्तं । तत्थ इतोति इतो कप्पतो। सतसहस्सिमेति सतसहस्समे। हंसावती नाम नगरं अहोसि जातनगरं । धुरपत्तानीति बाहिरपत्तानि, यानि दीघतमानि । कनिट्ठभाताति वेमातिकभाता कनिट्ठो यथा अम्हाकं भगवतो नन्दत्थेरो । बुद्धानहि सहोदरा भातरो नाम न होन्ति । कथं जेट्टा ताव न उप्पज्जन्ति, कनिट्ठानं पन असम्भवो एव । भोगन्ति विभवं। उपसन्तोति चोरजनितसङ्घोभवूपसमेन उपसन्तो जनपदो। ढे साटके निवासेत्वाति साटकद्वयमेव अत्तनो कायपरिहारिकं कत्वा इतरं सब्बसम्भार अत्ततो मोचेत्वा । पत्तग्गहणत्थन्ति अन्तोपक्खित्तउण्हभोजनत्ता अपरापरं हत्थे परिवत्तेन्तस्स पत्तग्गहणत्थं । उत्तरिसाटकन्ति अत्तनो उत्तरिसाटकं । एतानि पाकट्ठानानीति एतानि यथावुत्तानि भगवतो देसनाय पाकटानि थेरस्स पुञ्जकरणट्ठानानि । 74 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) तित्थवासादिवण्णना पटिसन्धिं गहेत्वाति अम्हाकं महाबोधिसत्तस्स पटिसन्धिग्गहणदिवसे एव पटिसन्धिं गत्वा । तित्थवासादिवण्णना उग्गहणं पाळिया उग्गहनं । सवनं अत्थसवनं । परिपुच्छनं गण्ठिट्ठानेसु अत्थपरिपुच्छनं । धारणं पाळियापि पाळिअत्थस्सपि चित्ते ठपनं । सब्बञ्चेतं इध पटिच्चसमुप्पादवसेन वेदितब्बं । सोतापन्नानञ्च...पे०.. उपट्ठाति तत्थ सम्मोहविद्धंसनेन “यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म”न्ति (दी० नि० १.२९८ सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १६; चूळनि० ४, ७, ८) अत्तपच्चक्खवसेन उपट्टानतो । नामरूपपरिच्छेदोति सह पच्चयेन नामरूपस्स परिच्छिज्ज अवबोधो । 44 ७५ पटिच्चसमुप्पादगम्भीरतावण्णना 'अत्थगम्भीरताया 'तिआदिना सङ्क्षेपतो वुत्तमत्थं विवरितुं " तत्था" तिआदि आरद्धं । जातिपच्चयसम्भूतसमुदागतट्ठोति जातिपच्चयतो सम्भूतं हुत्वा सहितस्स अत्तनो पच्चयानुरूपस्स जरामरणस्स उद्धं उद्धं आगतभावो, अनुपवत्तत्थोति अत्थो । अथ वा सम्भूतट्ठो च समुदागतट्ठी च सम्भूतसमुदागतट्ठो । “न जातितो जरामरणं न होति,” न च जातिं विना “अञ्ञतो होती "ति हि जातिपच्चयसम्भूतट्ठो वुत्तो, इत्थञ्च त समुदागच्छतीति जातिपच्चयसमुदागतट्ठो, या या जाति यथा यथा पच्चयो होति, तदनुरूपपातुभावोति अत्थो । सो अनुपचितकुसलसम्भारानं आणस्स तत्थ प् अगाधट्टेन गम्भीरो। सेसपदेसुपि एसेव नयो । अविज्जाय सङ्घारानं पच्चयट्ठोति येनाकारेन यदवत्था अविज्जा सङ्घारानं पच्चयो होति । येन हि पवत्तिआकारेन, याय च अवत्थाय अवत्थिता अविज्जा तेसं तेसं सङ्घारानं पच्चयो होति, तदुभयस्सपि दुरवबोधनीयतो अविज्जा सङ्घारानं नवहि आकारेहि पच्चयट्ठो अनुपचितकुसलसम्भारानं आणस्स तत्थ अप्पतिट्ठताय अगाधट्ठेन गम्भीरो । एस नयो सेसपदेसुपि । 75 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.९५-९५) कत्थचि अनुलोमतो देसीयति, कत्थचि पटिलोमतोति इध पन पच्चयुप्पादा पच्चयुप्पन्नुप्पादसङ्खातो अनुलोमो, पच्चयनिरोधा पच्चयुप्पन्ननिरोधसङ्खातो च पटिलोमो अधिप्पेतो | आदितो पन पट्ठाय अन्तगमनं अनुलोमो, अन्ततो च आदिगमनं पटिलोमोति अधिप्पेतो । आदितो पट्ठाय अनुलोमदेसनाय, अन्ततो पट्ठाय पटिलोमदेसनाय च तिसन्धि चतुसङ्केपो। "इमे भिक्खवे चत्तारो आहारा किं निदाना"तिआदिकाय (सं० नि० १.२.११) च वेमज्झतो पट्ठाय पटिलोमदेसनाय, "चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो, फस्सपच्चया वेदना'तिआदिकाय (सं० नि० १.२.४३, ४५) अनुलोमदेसनाय च द्विसन्धि तिसङ्केपो। “संयोजनियेसु भिक्खवे धम्मेसु अस्सादानुपस्सिनो विहरतो तण्हा पवड्डति, तण्हापच्चया उपादान''न्तिआदीसु (सं० नि० १.२.५३, ५७) एकसन्धि द्विसङ्केपो। एकङ्गो हि पटिच्चसमुप्पादो देसितो। लब्भतेव हि सो "तत्र भिक्खवे सुतवा अरियसावको पटिच्चसमुप्पादंयेव साधुकं योनिसो मनसि करोति 'इति इमस्मिं सति इदं होति...पे०... निरुज्झती'ति । सुखवेदनियं भिक्खवे फस्सं पटिच्च उप्पज्जति सुखवेदना'ति (सं० नि० १.२.६२) इमस्स सुत्तस्स वसेन वेदितब्बो। इति तेन तेन कारणेन तथा तथा पवत्तेतब्बत्ता पटिच्चसमुप्पादो देसनाय गम्भीरो । तेनाह "अयं देसनागम्भीरता"ति । न हि तत्थ सब्बतञाणतो अझं आणं पतिद्वं लभति । "अविज्जाय पना"तिआदीसु जाननलक्खणस्स जाणस्स पटिपक्खभूतो अविज्जाय अज्ञाणट्ठो। आरम्मणस्स पच्चक्खकरणेन दस्सनभूतस्स पटिपक्खभूतो अदस्सनट्ठो। येनेसा अत्तनो सभावेन दुक्खादीनं याथावसरसं पटिविज्झितुं न देति छादेत्वा परियोनन्धित्वा तिट्ठति, सो तस्सा सच्चासम्पटिवेधट्ठो | अभिसङ्घरणं संविधानं, पकप्पनन्ति अत्थो । आयूहनं सम्पिण्डनं, सम्पयुत्तधम्मानं अत्तनो किच्चानुरूपताय रासीकरणन्ति अत्थो । अपुञाभिसङ्खारेकदेसो सरागो। अञ्जो विरागो। रागस्स वा अप्पटिपक्खभावतो रागप्पवड्डको, रागुप्पत्तिपच्चयो च सब्बोपि अपुञाभिसङ्घारो सरागो। इतरो तब्बिदूरभावतो विरागो। “दीघरत्तं हेतं भिक्खवे अस्सुतवतो पुथुज्जनस्स अज्झोसितं ममायितं परामटुं 'एतं मम, एसोहमस्मि, एसो मे अत्ताति" (सं० नि० १.२.६१) अत्तपरामासस्स विज्ञाणं विसेसतो वत्थु वुत्तन्ति विज्ञाणस्स सुञतहो गम्भीरो। अत्ता विजानाति संसरतीति सब्यापारतासङ्ग्रन्तिअभिनिवेसबलवताय अब्यापारअसन्तिपटिसन्धिपातभावदा च गम्भीरा । नामरूपस्स पटिसन्धिक्खणे एकतोव उप्पादो एकुप्पादो, पवत्तियं विसुं विसुं यथारहं एकुप्पादो। नामस्स रूपेन, रूपस्स च नामेन असम्पयोगतो विनिम्भोगो नामस्स 76 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५-९५) पटिच्चसमुप्पादगम्भीरतावण्णना ७७ नामेन, रूपस्स च रूपेन एकच्चस्स एकच्चेन अविनिब्भोगो (नामस्स नामेन अविनिब्भोगो विभ० मूल० टी० २४२) योजेतब्बो । एकुप्पादेकनिरोधेहि अविनिब्भोगे अधिप्पेते सो रूपस्स च एककलापपवत्तिनो रूपेन लब्भतीति । अथ वा एकचतुवोकारभवेसु नामरूपानं असहवत्तनतो अचमनं विनिब्भोगो, पञ्चवोकारभवे सहवत्तनतो अविनिब्भोगो च वेदितब्बो। नामस्स आरम्मणाभिमुखं नमनं नमनट्ठो। रूपस्स विरोधिपच्चयसमवाये विसदिसुप्पत्ति रुप्पनट्ठो। इन्द्रियपच्चयभावो अधिपतियट्ठो। “लोकोपेसो, द्वारापेसा, खेत्तं पेत''न्ति वुत्तलोकादिअत्थो चक्खादीसु पञ्चसु योजेतब्बो। मनायतनस्स पन लुज्जनतो, मनोसम्फस्सादीनं द्वारखेत्तभावतो च एते अत्था वेदितब्बा। आपाथगतानं रूपादीनं पकासनयोग्यतालक्खणं ओभासनं चक्खादीनं विसयिभावो, मनायतनस्स विजाननं । सट्टनट्ठो विसेसतो चक्खुसम्फस्सादीनं पञ्चन्नं, इतरे छन्नम्पि योजेतब्बा | फुसनञ्च फस्सस्स सभावो । सङ्घट्टनं रसो, इतरे उपट्ठानाकारा | आरम्मणरसानुभवनट्ठो रसवसेन वुत्तो, वेदयितट्ठो लक्खणवसेन। सुखदुक्खम अज्झत्तभावो यथाक्कम तिस्सन्नं वेदनानं सभाववसेन वुत्तो। “अत्ता वेदयती"ति अभिनिवेसस्स बलवभावतो निज्जीवट्ठो वेदनाय गम्भीरो। निज्जीवाय वा वेदनाय वेदयितं निज्जीववेदयितं, सो एव अत्थोति निज्जीववेदयितट्ठो। सप्पीतिकतण्हाय अभिनन्दितट्ठो। बलवतरतण्हाय गिलित्वा परिनिट्ठापनं अज्झोसानट्ठो। इतरे पन जेट्ठभावओसारणसमुद्ददुरतिक्कमअपारिपूरिवसेन वेदितब्बा। आदानग्गहणाभिनिवेसा चतन्नम्पि उपादानानं समाना. परामासदो दिपादानादीनमेव. तथा दरतिक “दिट्ठिकन्तारो'"ति (ध० स० ३९२) हि वचनतो दिट्ठीनं दुरतिक्कमता। दळ्हग्गहणत्ता वा चतुन्नम्पि दुरतिक्कमट्ठो योजेतब्बो । योनिगतिठितिनिवासेसुखिपनन्ति समासे भुम्मवचनस्स अलोपो दब्बो । एवन्हि तेन आयहनाभिसङ्करणपदानं समासो होति । यथा तथा जायनं जातिअत्थो। तस्सा पन सन्निपाततो जायनं सज्जातिअत्थो। मातकच्छिं ओक्कमित्वा विय जायनं ओक्कन्तिअत्थो। सो जातितो निब्बत्तनं निब्बत्तिअत्थो। केवलं पातुभवनं पातुभावहो। जरामरणङ्गं मरणप्पधानन्ति तस्स मरणट्ठा एव खयादयो गम्भीराति दस्सिता । उप्पन्नउप्पन्नानहि नवनवानं खयेन कमेन खण्डिच्चादिपरिपक्कपवत्तियं लोके 77 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.९५-९५) जरावोहारोति । खयट्ठो वा जराय वुत्तोति दट्टब्बो। नवभावापगमो हि "खयो"ति वत्तुं युत्तोति विपरिणामट्ठो द्विन्नम्पि वसेन योजेतब्बो, सन्ततिवसेन वा जराय खयवयभावा, सम्मुतिखणिकवसेन मरणस्स भेदविपरिणामट्ठा योजेतब्बा। अविज्जादीनं सभावो पटिविज्झीयतीति पटिवेधो । वुत्तज्हेतं निदानकथायं “तेसं तेसं वा तत्थ तत्थ वुत्तधम्मानं पटिविज्झितब्बो सलक्खणसङ्घातो अविपरीतसभावो पटिवेधो''ति । (दी० नि० अट्ठ० पठममहासङ्गीतिकथा; अभि० अठ्ठ० निदानकथा) सो हि अविज्जादीनं सभावो मग्गजाणेनेव असम्मोहपटिवेधवसेन पटिविज्झितब्बतो अाणस्स अलब्भनेय्यपतिद्वताय अगाधटेन गम्भीरो। सा सब्बापीति सा यथावुत्ता सङ्खपतो चतुबिधा वित्थारतो अनेकप्पभेदा सब्बापि पटिच्चसमुप्पादस्स गम्भीरता थेरस्स उत्तानका विय उपट्टासि चतूहि अङ्गेहि समन्नागतत्ता । उदाहु अओसम्पीति “महं ताव एस पटिच्चसमुप्पादो उत्तानको हुत्वा उपट्ठाति, किं नु खो अ सम्पि एवं उत्तानको हुत्वा उपट्ठाती"ति मा एवं अवच मयाव दिन्ननये चतुसच्चकम्मट्ठानविधिम्हि ठत्वा । अपसादनावण्णना ओळारिकन्ति वत्थुवीतिक्कमसमत्थतावसेन थूलं । कामं कामरागपटिघायेव अत्थतो कामरागपटिघसंयोजनानि, कामरागपटिघानुसया च, तथापि अञ्जोयेव संयोजनट्ठो बन्धनभावतो, अञ्जो अनुसयनट्ठो अप्पहीनभावेन सन्ताने थामगमनन्ति कत्वा, इति किच्चविसेसविसिट्ठभेदे गहेत्वा "चत्तारो किलेसे"ति च वुत्तं । एसेव नयो इतरेसुपि । अणुसहगतेति अणुसभावं उपगते। तब्भावत्थो हि अयं सहगत सद्दो "नन्दिरागसहगता"तिआदीसु (दी० नि० २.४००; म० नि० १.९१, १३३, ४६०; ३.३७४; सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १४; विभं० २०३; पटि० म० १.३४; २.३०) विय । यथा उपरिमग्गाधिगमनवसेन सच्चसम्पटिवेधो पच्चयाकारपटिवेधवसेन, एवं सावकबोधिपच्चेकबोधिसम्मासम्बोधिअधिगमनवसेनपि सच्चसम्पटिवेधो पच्चयाकारपटिवेधवसेनेवाति दस्सेतुं “कस्मा चा"तिआदि वुत्तं । सब्बथावाति सब्बप्पकारेनेव किञ्चिपि पकारं असेसेत्वाति अत्थो। ये कताभिनीहारानं महाबोधिसत्तानं वीरियस्स उक्कट्ठमज्झिममुदुतावसेन बोधिसम्भारसम्भरणे कालभेदा इच्छिता, ते दस्सेन्तो "चत्तारि, अट्ठ, सोळस वा असङ्ख्येय्यानी"ति आह, स्वायमत्थो चरियापिटकवण्णनाय गहेतब्बो । सावको 18 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५ - ९५ ) अपसादनावण्णना पदेसत्राणे ठितोति सावको हुत्वा सेक्खभावतो तत्थापि पदेसत्राणे ठितो । बुद्धानं कथाय “तं तथागतो अभिसमेती' 'तिआदिकाय पच्चनीकं होति । अनञ्ञसाधारणस्स हि वसेन बुद्धानं सीहनादो, न अञ्ञसाधारणस्स । “वायमन्तस्सेवा "ति इमिना विसेसतो आणसम्भारसम्भरणं पञ्ञापारमितापूरणं वदति । तस्स च सब्बम्पि पुञ्ञ उपनिस्सयो । " एस देवमनुस्सानं, सब्बकामददो निधि । यं यदेवाभिपत्थेन्ति, सब्बमेतेन लब्भती 'ति । । ( खु० पा० ८.१० ) - ७९ हि वृत्तं । तस्मा महाबोधिसत्तानं सब्बेसम्पि पुञ्ञसम्भारो यावदेव ञाणसम्भारत्थो सम्मासम्बोधिसमधिगमसमत्थत्ताति आह " पच्चयाकारं ... पे०... नत्थी" ति । इदानि पच्चयाकारपटिवेधस्सेव वा महानुभावतादस्सनमुखेन पटिच्चसमुप्पादस्सेव परमगम्भीरतं दस्सेतुं “अविज्जा"ति आदि वृत्तं । नवहि आकारेहीति उप्पादादीहि नवहि आकारेहि । अविज्जा हि सङ्घारानं उप्पादो हुत्वा पच्चयो होति, पवत्तं हुत्वा निमित्तं, आयूहनं, संयोगो, पलिबोधो, समुदयो, हेतु, पच्चयो हुत्वा पच्चयो होति । एवं सङ्घारादयो विञ्ञाणादीनं । वृत्ततं पटिसम्भिदामग्गे “कथं पच्चयपरिग्गहे पञ्ञा धम्मट्ठितिञाणं ? अविज्जा सङ्घारानं उप्पादट्ठिति च पवत्तट्ठिति च निमित्तट्ठिति च आयूहनट्ठिति च सञगट्ठति च पलिबोधट्ठिति च समुदयट्ठिति च हेतुट्ठिति च पच्चयट्ठिति च इमेहि नवहाकारेहि अविज्जापच्चया सङ्घारा पच्चयसमुप्पन्ना 'तिआदि (पटि० म० १.४५) । तत्थ नवहाकारेहीति नवहि पच्चयभावूपगमनाकारेहि । उप्पज्जति एतस्मा फलन्ति उप्पादो, फलुप्पत्तिया कारणभावो । सति च अविज्जाय सङ्घारा उप्पज्जन्ति, नासति, तस्मा अविज्जा सङ्घारानं उप्पादो हुत्वा पच्चयो होति । तथा अविज्जाय सति सङ्घारा पवत्तन्ति नीयन्ति च । यथा च भवादीसु खिपन्ति एवं तेसं अविज्जा पच्चयो होति । तथा आयूहन्ति फलुप्पत्तिया घटेन्ति, संयुज्जन्ति अत्तनो फलेन । यस्मिं सन्ताने सयं उप्पन्ना, तं पलिबुन्धन्ति । पच्चयन्तरसमवाये उदयन्ति उप्पज्जन्ति । हिनोति च सङ्घारानं कारणभावं गच्छति । पटिच्च अविज्जं सङ्घारा अयन्ति पवत्तन्तीति एवं अविज्जाय सङ्घारानं कारणभावूपगमनविसेसा उप्पादादयो वेदितब्बा । तत्थ तथा सङ्घारादीनं विञ्ञाणादीसु उप्पादट्ठितिआदीसुपि । तिट्ठति एतेनाति ठिति, कारणं । उप्पादो एव ठिति 79 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० दीघनिकाये महावग्गटीका उप्पादट्ठिति । एसेव नयो सेसेसुपि । " पच्चयो होती "ति इदं इध लोकनाथेन तदा पच्चयपरिग्गहस्स आरद्धभावदस्सनं । सो च आरम्भो जायारुळहो “यथा च पुरिमेहि महाबोधिसत्तेहि बोधिमूले पवत्तितो, तथैव च पवत्तितो 'ति । अच्छरियवेगाभिहता दससहस्सिलोकधातु सङ्कम्पि सम्पकम्पीति दस्सेन्तो “ दिट्ठमत्तेवा" ति आदिमाह । एतस्स धम्मस्साति एतस्स पटिच्चसमुप्पादसञ्ञितस्स धम्मस्स । सो पन यस्मा अथ भवानं तेनाह " एतस्स पच्चयधम्मस्सा 'ति, जाति आदीनं जरामरणादिपच्चयतायाति अत्थो । नामरूपपरिच्छेदो, तस्स च पच्चयपरिग्गहो न पठमाभिनिवेसमत्तेन होति, अथ खो तत्थ अपरापरं जाणुप्पत्तिसञ्जितेन अनु अनु बुज्झनेन, तदुभयाभावं पन दस्सेन्तो “जातपरिञावसेन अननुबुज्झना”ति आह । निच्चसञ्ञादीनं पजहनवसेन वत्तमाना विपस्सना धम्मे च पटिविज्झन्ती एव नाम होति परिपक्खविक्खम्भनेन तिक्खविसदभावापत्तितो, तदधिट्ठानभूता च तीरणपरिञ, अरियमग्गो च परिञ्ञापहानाभिसमयवसेन पवत्तिया तीरणपहानपरिञ्ञासङ्गहो चाति तदुभयपटिवेधाभावं दस्सेन्तो “तीरण... पे०... अप्पटिविज्झना "ति आह । तन्तं वच्च वत्थवीननत्थं तन्तवायेहि दण्डके आसञ्जित्वा पसारितसुत्तपट्टी तनीयतीति कत्वा । तं पन सुत्तसन्तानाकुलताय निदस्सनभावेन आकुलमेव गहितन्ति आह "तन्तं विय आकुलकजाता'ति । सङ्क्षेपतो वुत्तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं “यथा नामा "तिआदि वृत्तं । समानेन्ति पुब्बेन परं समं कत्वा आनेतुं, अविसमं उजुं कातुन्ति अत्थो । आकुलं तन्ताकुलं, तन्ताकुलं विय जाता भूताति तन्ताकुलजाता । मज्झिमं पटिपदं अनुपगन्त्वा अन्तद्वयपतनेन पच्चयाकारे खलिता आकुला ब्याकुला होन्ति । तेनेव अन्तद्वयपतनेन तंतंदिट्टिगाहवसेन परिब्भमन्ता उजुकं धम्मट्टिति कथं पटिपज्जितुं न जानन्ति । तेनाह “न सक्कोन्ति तं पच्चयाकारं उजुं कातु " न्ति । द्वे बोधिसत्तेति पच्चेकबोधिसत्तमहाबोधिसत्ते । अत्तनो धम्मतायाति अत्तनो सभावेन, परोपदेसेन विनाति अत्थो । तत्थ तत्थ गुळकजातन्ति तस्मिं तस्मिं ठाने जातगुळकम्पि गण्ठीति सुत्तगण्ठि । ततो एव गण्ठिबद्धं बद्धगण्ठिकं । पच्चयेसु पक्खलित्वाति अनिच्चदुक्खानत्तादिसभावेसु पच्चयधम्मेसु निच्चादिग्गाहवसेन पक्खलित्वा । पच्चये उजुं कातुं असक्कोन्ताति तस्सेव निच्चादिग्गाहस्स अविस्सज्जनतो पच्चयधम्मनिमित्तं अत्तनो दस्सनं उजुं कातुं असक्कोन्ता इदंसच्चाभिनिवेसकायगन्धवसेन गण्ठकजाता होन्तीति आह " द्वासट्ठि... पे०... गण्ठिबद्धाति । ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा सस्सतदिट्ठिआदिदिट्ठियो निस्सिता अल्लीना । (२.९५-९५) 80 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९५ - ९५ ) पटिच्चसमुप्पादवण्णना विननतो “कुला "ति इत्थिलिङ्गवसेन लद्धनामस्स तन्तवायस्स गण्ठिकं नाम आकुलभावेन अग्गतो वा मूलतो वा दुविञ्ञेय्यायेव खलिततन्तसुत्तन्ति आह “कुलागण्ठिकं वुच्चति पेसकारकञ्जियसुत्त "न्ति । सकुणिकाति कुलावकसकुणिका । रुक्खसाखासु ओलम्बनकुलावका होति । तहि सा कुलावकं ततो ततो तिणहीरादिके आत्वा तथा विनन्धति, यथा ते पेसकारकजियसुत्तं विय अग्गेन वा अग्गं मूलेन वा मूलं समानेतुं विवेचेतुं वा न सक्का । तेनाह " यथा ही "तिआदि । तदुभयम्प “कुलागण्ठिक "न्ति वुत्तं कञ्जियसुत्तं, कुलावकञ्च । पुरिमनयेनेवाति “एवमेव सत्ता' तिआदिना पुब्बे वुत्तनयेनेव । कामं मुञ्जपब्बतिणानि यथाजातानिपि दीघभावेन पतित्वा अरञ्ञट्ठाने अञ्ञम विनन्धित्वा आकुलब्याकुलानि हुत्वा तिट्ठन्ति तानि पन न तथा दुब्बिवेचियानि, यथा रज्जुभूतानीति दस्सेतुं “यथा तानी" तिआदि वृत्तं । सेसमेत्थ हेट्ठा वुत्तनयमेव । ८१ 44 अपायाति अवड्डिता, सुखेन, सुखहेतुना वा विरहिताति अत्थो । दुक्खस्स गतिभावतोति आपायिकस्स दुक्खस्स पवत्तिट्ठानभावतो । सुखसमुस्सयतोति अब्भुदयतो । विनिपतितत्ताति विरूपं निपतितत्ता यथा तेनत्तभावेन सुखसमुस्सयो न होति, एवं निपतितत्ता । इतरोति संसारो । ननु 'अपाय ''न्तिआदिना वुत्तोपि संसारो एवाति ? सच्चमेतं, निरयादीनं पन अधिमत्तदुक्खभावदस्सनत्थं अपायादिग्गहणं । गोबलीबद्दआयेनायमत्थो वेदितब्बो । खन्धानञ्च परिपाटीति पञ्चन्नं खन्धानं हेतुफलभावेन अपरापरं पवत्ति । अब्बोच्छिन्नं वत्तमानाति अविच्छेदेन पवत्तमाना । तं सब्बम्पीति तं “अपाय”न्तिआदिना वुत्तं सब्बं अपायदुक्खञ्चेव वट्टदुक्खञ्च । “महासमुद्दे बातुक्खित्तनावा विया "ति इदं परिब्भमट्ठानस्स महन्तदस्सनत्थञ्चेव परिब्भमनस्स अनवट्ठिततादस्सनत्थञ्च “ उपमाय । यन्तेसु युत्तगोणो विया "ति इदं पन दुप्पमोक्खभावदस्सनत्थञ्चाति वेदितब्बं । अवसभावदस्सनत्थञ्चेव पटिच्चसमुप्पादवण्णना इमिना तावाति एत्थ ताव - सद्दो कमत्थो, तेन " तन्ताकुलकजाता "ति पदस्स अनुसन्धि परतो आविभविस्सतीति दीपेति । अस्थि इदप्पच्चयाति एत्थ अयं पच्चयोति इदप्पच्चयो, तस्मा इदप्पच्चया, इमस्मा पच्चयाति अत्थो । इदं वृत्तं होति - “ इमस्मा नाम पच्चया 81 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ दीघनिकाये महावग्गटीका जरामरण' "न्ति एवं वत्तब्बो अत्थि नु खो जरामरणस्स पच्चयोति । तेनाह “अस्थि नु खो... पे०... भवेय्या "ति । एत्थ हि " किं पच्चया जरामरणं ? जातिपच्चया जरामरण' "न्ति उपरि जातिसद्दपच्चयसद्दसमानाधिकरणेन किं सद्देन इदं सद्दस्स समानाधिकरणतादस्सनतो कम्मधारयसमासता इदप्पच्चयसद्दस्स युज्जति । न हेत्थ "इमस्स पच्चया इदप्पच्चया ति जरामरणस्स, अञ्ञस्स वा पच्चयतो जरामरणसम्भवपुच्छा सम्भवति विञ्ञातभावतो, असम्भवतो च, जरामरणस्स पन पच्चयपुच्छा सम्भवति । पच्चयसद्दसमानाधिकरणतायञ्च इदं - सद्दस्स "इमस्मा पच्चया" ति पच्चयपुच्छा युज्जति । सा पन समानाधिकरणता यदिपि अञ्ञपदत्थसमासेपि लब्भति, अञ्ञपदत्थवचनिच्छाभावतो पनेत्थ कम्मधारयसमासो वेदितब्बो । सामिवचनसमासपक्खे पन नत्थेव समानाधिकरणतासम्भवोति । ननु च "इदप्पच्चयता पटिच्चसमुप्पादोति एत्थ इदप्पच्चय-सद्दो सामिवचनसमासो इच्छितोति ? सच्चं इच्छितो उजुकमेव तत्थ पटिच्चसमुप्पादवचनिच्छाति कत्वा, इध पन केवलं जरामरणस्स पच्चयपरिपुच्छा अधिप्पेता, तस्मा यथा तत्थ इदं-सद्दस्स पटिच्चसमुप्पादविसेसनता, इध च “ पुच्छितब्बपच्चयत्थता सम्भवति, तथा तत्थ, इध च समासकप्पना वेदितब्बा । कस्मा पन तत्थ कम्मधारयसमासो न इच्छितोति ? हेतुप्पभवानं हेतु पटिच्चसमुप्पादोति इमस्स अत्थस्स कम्मधारयसमासे असम्भवतोति इमस्स, अत्तनो पच्चयानुरूपस्स अनुरूपो पच्चयो इदप्पच्चयोति एतस्स च अत्थस्स इच्छितत्ता । यो पनेत्थ इदं सद्देन गहितो अत्थो, सो “अत्थि इदप्पच्चया जरामरण'न्ति जरामरणग्गहणेनेव गहितोति इदं सद्दो पटिच्चसमुप्पादतो परिच्चजनतो अञ्ञस्स असम्भवतो पच्चये अवतिट्ठति, तेनेत्थ कम्मधारयसमासो । तत्थ पन इदं- सद्दस्स ततो परिच्चजनकारणं नत्थीति सामिवचनसमासो एव इच्छितो । अट्ठकथायं पन यस्मा जरामरणादीनं पच्चयपुच्छामुखेनायं पटिच्चसमुप्पाददेसना आरद्धा, पटिच्चसमुप्पादो च नाम अत्थतो हेतुप्पभवानं हेतूति वुत्तो वायमत्थो, तस्मा “इमस्स जरामरणस्स पच्चयो ति एवमत्थवण्णना कता । (२.९५ - ९५ ) पण्डितेनाति एकंसब्याकरणीयादिपञ्हाविसेसजाननसमत्थाय पञ्ञाय समन्नागतेन । तमेव हिस्स पण्डिच्चं दस्सेतुं " यथा "तिआदि वृत्तं । यादिसस्स जीवस्स दिट्ठिगतिको सरीरतो अनञ्ञत्तं पुच्छति "तं जीवं तं सरीर "न्ति, सो एवं परमत्थतो नुपलब्भति, कथं तस्स वञ्झातनयस्स विय दीघरस्सता सरीरतो अञ्ञता वा अनञ्ञता वा ब्याकातब्बा सिया, तस्मास्स पञ्हस्स ठपनीयता वेदितब्बा । तुण्हीभावो नामेस पुच्छतो अनादरो 82 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चिसमुप्पादवण्णना विहेसा विय होतीति " अब्याकतमेत "न्ति पकारन्तरमाह । एवं अब्याकरणकारणं तुकामस्स कथेतब्बं होति कथिते च जानन्तस्स पमादोपि एवं सिया, कथनविधि पन "यादिसस्सा 'तिआदिना दस्सितो एव । एवं अप्पटिपज्जित्वाति एवं ठपनीयपञ्हे विय तुम्हीभावादिं अनापज्जित्वा एव । "अप्पटिपज्जित्वा "ति वचनं निदस्सनमत्तमेतं । “किं सब्बं अनिच्च”न्ति वुत्ते “किं सङ्घतं सन्धाय पुच्छसि, उदाहु असङ्घत "न्ति पटिपुच्छित्वा ब्याकातब्बं होति “किं खन्धपञ्चकं परिञेय्य "न्ति पुट्ठे " अत्थि तत्थ परिञेय्यं, अस्थि न परिञेय्यन्ति विभज्ज ब्याकातब्बं होति, एवं अप्पटिपज्जित्वाति च अयमेत्थ अत्थो इच्छितोति । पुब्बे यस्स पच्चयस्स अत्थितामत्तं चोदितन्ति अत्थितामत्तं विस्सज्जितं । पुच्छासभागेन हि विस्सज्जनन्ति । इदानि तस्सेव सरूपपुच्छा करीयतीति "पुन कि "न्ति वृत्तं । इधापि " यथा "तिआदि सब्बं आनेत्वा वत्तब्बं । (२.९५ - ९५) “एस नयो सब्बपदेसू "ति अतिदेसवसेन उस्सुक्कं कत्वा “नामरूपपच्चया’”तिआदिना तत्थ अपवादो आरद्धो । यस्मा दस्सेतुकामो, तस्मा इदं वुत्तन्ति योजना | छन्नं विपाकसम्फस्सानंयेव गहणं होति विञ्ञाणादि वेदनापरियोसाना विपाकविधीति कत्वा अनेकेसु सुत्तपदेसु, (म० नि० ३.१२६; उदा० १) अभिधम्मे (विभं० २२५) च येभुय्येन तेसंयेव गहणस्स निरुळ्हत्ता । इधाति इमस्मिं सुत्ते । च- सद्दो ब्यतिरेकत्थो, तेनेत्थ "गहितम्पी तिआदिना वुच्चमानंयेव विसेसं जोतेति । पच्चयभावो नाम पच्चयुप्पन्नापेक्खो तेन विना तस्स असम्भवतो । तस्मा सळायतनप्पच्चयाति "सळायतनपच्चया फस्सो "ति इमिना पदेनाति योजना । अवयवेन वा समुदायोपलक्खणमेतं "सळायतनपच्चया 'ति, तस्मा 'सळायतनपच्चया फस्सो ”ति इमिना पदेनाति वृत्तं होति । गहितम्पीति छब्बिधं विपाकफस्सम्पि । अग्गहितम्पीति अविपाकफस्सम्पि कुसलाकुसलकिरियाफस्सम्पि । पच्चयुप्पन्नविसेसं दस्सेतुकामोति पच्चयुप्पन्नोव उपादिन्नो इच्छितो, अथ खो पच्चयोपि अज्झत्तिकायतनस्सेव सळायतनग्गहणेन गहणन्ति कत्वा वुत्तं दस्सेतुकामो 'ति । न हि फस्सस्स चक्खादिसळायतनमेव पच्चयो, अथ खो "चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविञ्ञाणं, तिण्णं सङ्गति फस्सो ”तिआदि (म० नि० ३.४२१, ४२५, ४२६; सं० नि० १.२.४४, ४५, २.४.६०; कथाव० ४६५, ४६७) वचनतो रूपायतनादिरूपञ्च चक्खुविञ्ञाणादिनामञ्च पच्चयो, तस्मा इमं चक्खादिसळायतनतो अतिरित्तं आवज्जनादि विय साधारणं अहुत्वा, तस्स तस्स फस्सस्स साधारणताय अञ्ञं विसेसपच्चयं पि-सद्देन अविसिद्धं साधारणपच्चयं पिदस्सेतुकामो भगवा, योजना । न चेत्थ उपादिन्नो इच्छितोति “सळायतनतो... पे०... 83 " ८३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.९८-९८) ८४ “नामरूपपच्चया फस्सो''ति इदं वुत्तन्ति योजना । अभिधम्मभाजनीयेपि इममेव पच्चयं सन्धाय "नामरूपपच्चया फस्सो'"ति वुत्तन्ति तदट्ठकथायं (विभं० अट्ठ० २४३) “पच्चयविसेसदस्सनत्थञ्चेव महानिदानदेसनासनहत्थञ्चा"ति अत्थवण्णना कता । पच्चयानन्ति जातिआदीनं पच्चयधम्मानं । निदानं कथितन्ति जरामरणादिकस्स निदानत्तं कथितं एकंसिको पच्चयभावो कथितो। तहि तेसं पच्चयभावे अब्यभिचारीति दस्सेतुं “इति खो पनेत"न्तिआदिना उपरि देसना पवत्ता। निजटेति निज्जालके । निग्गुम्बेति निक्खेपे । पदद्वयेनापि आकुलाभावमेव दस्सेति, तस्मा अनाकुलं अब्याकुलं महन्तं पच्चयनिदानमेत्थ कथितन्ति महानिदानं सुत्तं अञथाभावस्स अभावतो । ९८. तेसं तेसं पच्चयानन्ति तेसं तेसं जातिआदीनं पच्चयानं । यस्मा पच्चयभावो नाम तेहि तेहि पच्चयेहि अनूनाधिकेहेव तस्स तस्स फलस्स सम्भवतो तथो तच्छो, तप्पकारो वा सामग्गिउपगतेसु पच्चयेसु मुहुत्तम्पि तथो निब्बत्तनधम्मानं असम्भवाभावतो । अवितथो अविसंवादनको विसंवादनाकारविरहितो अजधम्मपच्चयेहि अञधम्मानुप्पत्तितो । "अनजथा"ति वुच्चति अचथाभावस्स अभावतो। तस्मा "तथं अवितथं अनजथं पच्चयभावं दस्सेतु"न्ति वुत्तं । परियायति अत्तनो फलं परिग्गहेत्वा वत्ततीति परियायो, हेतूति आह "परियायेनाति कारणेना"ति | सब्बेन सब्बन्ति देवत्तादिना सब्बभावेन सब्बा जाति । सब्बथा सब्बन्ति तत्थापि चातुमहाराजिकादिसब्बाकारेन सब्बा, निपातद्वयमेतं, निपातञ्च अब्ययं, तञ्च सब्बलिङ्गविभत्तिवचनेसु एकाकारमेव होतीति पाळियं “सब्बेन सब्बं सब्बथा सब्ब"न्ति वुत्तं। अस्थवचने पन तस्स तस्स जातिसद्दापेक्खाय इथिअथवुत्तितं दस्सेतुं "सब्बाकारेन सब्बा"तिआदि वुत्तं । इमिनाव नयेनाति इमिना जातिवारे वुत्तेनेव नयेन । देवादीसूति आदि-सद्देन गन्धब्बयक्खादिके पाळियं (दी० नि० २.९८) आगते, तदन्तरभेदे च सङ्गण्हाति । इध निक्खित्तअत्थविभजनत्थेति इमस्मिं “कस्सचि किम्हिची"ति अनियमतो उद्देसवसेन वुत्तत्थस्स निद्दिसनत्थे जोतेतब्बे निपातो, तदत्थजोतनं निपातपदन्ति अत्थो । तस्साति तस्स पदस्स । तेति धम्मदेसनाय सम्पदानभूतं थेरं वदति । सेय्यथिदन्ति वा ते कतमेति चेति अत्थो। ये हि "कस्सची'"ति, "किम्हिची"ति च अनियमतो वुत्तो अत्थो, ते कतमेति । कथेतुकम्यतापुच्छा हेसा। देवभावायाति देवभावत्थं । खन्धजातीति खन्धपातुभावो, यथा खन्धेसु उप्पन्नेसु "देवा"ति समझा होति, तथा तेसं उप्पादोति अत्थो । तेनाह “याया'"ति आह । सब्बपदेसूति “गन्धब्बानं गन्धब्बत्थाया''तिआदीसु सब्बेसु 84 . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.९९-९९) पटिच्चसमुप्पादवण्णना जातिनिद्देसपदेसु, भवादिपदेसु च । येन हि नयेन सचे हि जातीति अयमत्थयोजना कता, जातिनिद्देसपदेसोव “भवो''तिआदिना भवादिपदेसुपि सो कातब्बोति । देवाति उपपत्तिदेवा चातुमहाराजिकतो पट्ठाय याव भवग्गा दिब्बन्ति कामगुणादीहि कीळन्ति लळन्ति विहरन्ति जोतन्तीति कत्वा । गन्धं अब्बन्ति परिभुञ्जन्तीति गन्धब्बा, धतरट्ठस्स महाराजस्स परिवारभूता। यजन्ति वेस्सवणसक्कादिके पूजेन्तीति यक्खा, तेन तेन वा पणिधिकम्मादिना यजितब्बा पूजेतब्बाति यक्खा, वेस्सवणस्स महाराजस्स परिवारभूता । अट्ठकथायं पन “अमनुस्सा"ति अविसेसेन वुत्तं । भूताति कुम्भण्डा, विरूळहकस्स महाराजस्स परिवारभूता। अट्ठकथायं पन “ये केचि निब्बत्तसत्ता''ति अविसेसेन वुत्तं । अट्ठिपक्खा भमरतुप्पळादयो। चम्मपक्खा जतुसिङ्गालादयो। लोमपक्खा हंसमोरादयो । सरीसपा अहिविच्छिकसतपदिआदयो । "तेसं तेस"न्ति इदं न येवापनकनिद्देसो विय अवुत्तसङ्गहत्थं वचनं, अथ खो अयेवापनकनिद्देसो विय वुत्तसङ्गहत्थन्ति । आदि-सद्देनेव च आमेडितत्थो सङ्गय्हतीति आह "तेसं तेसं देवगन्धब्बादीन"न्ति । तदत्तायाति तंभावाय, यथारूपेसु खन्धेसु पवत्तमानेसु "देवा गन्धब्बा"ति लोकसमा होति, तथारूपतायाति अत्थो। तेनाह "देवगन्धब्बादिभावाया"ति । “निरोधो, विगमो''ति च पटिलद्धत्तालाभस्स भावो वुच्चति, इध पन अच्चन्ताभावो अधिप्पेतो “सब्बसो जातिया असती''ति अवत्वा "जातिनिरोधा''ति वुत्तत्ताति आह "अभावाति अत्थो"ति ।। फलत्थाय हिनोतीति यथा फलं ततो निब्बत्तति, एवं हिनोति पवत्तति, तस्स हेतुभावं उपगच्छतीति अत्थो । इदं गण्हथ नन्ति “इदं मे फलं, गण्हथ नन्ति एवं अप्पेति विय निय्यातेति विय । “एस नयो"ति अविसेसं अतिदिसित्वा विसेसमत्तस्स अत्थं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । ननु चायं जाति परिनिप्फन्ना, सङ्घतभावा च न होति विकारभावतो, तथा जरामरणं, तस्स कथं सा हेतु होतीति चोदनं सन्धायाह "जरामरणस्स ही"तिआदि । तब्भावे भावो, तदभावे च अभावो जरामरणस्स जातिया उपनिस्सयता । ९९. ओकासपरिग्गहोति पवत्तिहानपरिग्गहो । उपपत्तिभवे युज्जति उपपत्तिक्खन्धानं यथावुत्तट्ठानतो अञत्थ अनुप्पज्जनतो | इध पनाति इमस्मिं सुत्ते “कामभवो"तिआदिना आगते इमस्मि ठाने । कम्मभवे युज्जति कामभवादिजोतना विसेसतो तस्स जातिया पच्चयभावतोति । तेनाह "सो हि जातिया उपनिस्सयकोटियाव पच्चयो"ति । ननु च 85 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ दीघनिकाये महावग्गटीका उपपत्तिभवोपि जातिया उपनिस्सयवसेन पच्चयो होतीति ? सच्चं होति, सो पन न तथा पधानभूतो, कम्मभवो पन पधानभूतो पच्चयो जनकभावतोति । " सो हि जातिया 'तिआदि वृत्तं कामभवूपगं कम्मं कामभवो । एस नयो रूपारूपभवेसुपि । ओकासपरिग्गहोव कतो " किम्हिची " ति इमिना सत्तपरिग्गहस्स कतत्ता । 1 १००. तिण्णम्पि कम्मभवानन्ति कामकम्मभवादीनं तिण्णम्पि कम्मभवानं । तिण्णञ्च उपपत्तिभवानन्ति कामुपपत्तिभवादीनं तिण्णञ्च उपपत्तिभवानं । तथा सानिपीति दिट्टुपादानादीनि सेसुपादानानिपि तिण्णम्पि कम्मभवानं तिण्णञ्च उपपत्तिभवानं पच्चयोति अत्थो । इतीति एवं वृत्तनयेन । द्वादस कम्मभवा द्वादस उपपत्तिभवाति चतुवीसतिभवा वेदितब्बा । यस्मा कम्मभवस्स पच्चयभावमुखेनेव उपादानं उपपत्तिभवस्स पच्चयो नाम होति, न अञ्ञथा, तस्मा उपादानं कम्मभवस्स उजुकमेव पच्चयभावोति आह " निप्परियायेनेत्थ द्वादस कम्मभवा लब्भन्ती 'ति । तेसन्ति कम्मभवानं । सहजातकोटियाति अकुसलस्स कम्मभवस्स सहजातं उपादानं सहजातकोटिया, इतरं अनन्तरूपनिस्सयादिवसेन उपनिस्सयकोटिया, कुसलस्स कम्मभवस्स पन उपनिस्सयकोटियाव पच्चयो । एत्थ च यथा अञ्ञमञ्ञनिस्सयसम्पयुत्तअत्थिअविगतादिपच्चयानं सहजातपच्चयेन एकसङ्ग्रहतं दस्सेतुं ‘“सहजातकोटिया’”ति वुत्तं, एवं आरम्मणूपनिस्सयअनन्तरूपनिस्सयपकतूपनिस्सयानं एक गहणवसेन “उपनिस्सयकोटिया "ति वुत्तन्ति दट्ठब्बं । ( २.१०० - १०३ ) १०१. उपादानस्साति एत्थ कामुपादानस्स तण्हा उपनिस्सयकोटियाव पच्चयो, सेसुपादानानं सहजातकोटियापि उपनिस्सयकोटियापि विञ्ञणादि च वेदनापरियोसाना विपाकविधीति कत्वा । १०२. यदिदं वेदनाति एत्थ विपाकवेदनाति तमेव ताव उपनिस्सयकोटिया पच्चयो इतरकोटिया असम्भवतो । अञाति कुसलाकुसलकिरियवेदना । अञ्ञथापीति सहजातकोटियापि । १०३. एत्तावताति जरामरणादीनं पच्चयपरम्परादस्सनवसेन पवत्ताय एत्तकाय देसनाय । पुरिमतण्हन्ति पुरिमभवसिद्धं तण्हं । “एस पच्चयो तण्हाय, यदिदं वेदना वत्वा तदनन्तरं “फस्सपच्चया वेदनाति इति खो पनेतं वुत्त "न्तिआदिना वेदनाय पच्चयभूतस्स फस्सस्स उद्धरणं अञ्ञेसु सुत्तेसु आगतनयेन पटिच्चसमुप्पाद 86 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१०३-१०३) पटिच्चसमुप्पादवण्णना ८७ देसनामग्गो, तं पन अनोतरित्वा समुदाचारतण्हादस्सनमुखेनेव तण्हामूलकधम्मे देसेन्तो आचिण्णदेसनामग्गतो ओक्कमन्तो विय, तञ्च देसनं पस्सतो अप्पवत्तन्ति पसरह बलक्कारेन देसेन्तो विय च होतीति आह "इदानी"तिआदि । द्वे तण्हाति इधाधिप्पेततण्हा एव द्विधा भिन्दन्तो आह । एसनतण्हाति भोगानं परियेसनवसेन पवत्ततण्हा । एसिततण्हाति परियितुसु भोगेसु उप्पज्जमानतण्हा । समुदाचारतण्हायाति परियुट्ठानवसेन पवत्ततण्हाय । दुविधापेसा वेदनं पटिच्च तण्हा नाम वेदनापच्चया च अप्पटिलद्धानं भोगानं पटिलाभाय परियेसना, लद्धेसु च तेसुपातब्यतापत्तिआदि होतीति । परितस्सनवसेन परियेसति एतायाति परियेसना। आसयतो, पयोगतो च परियेसना तथापवत्तो चित्तुप्पादो। तेनाह "तण्हाय सति होती'ति । रूपादिआरम्मणपटिलाभोति सवत्थुकानं रूपादिआरम्मणानं गवेसनवसेन, पवत्तियं पन अपरियिट्ठयेव लब्भति, तम्पि अत्थतो परियेसनाय द्धमेव नाम तथारूपस्स कम्मस्स पुब्बेकतत्ता एव लब्भनतो । तेनाह "सो हि परियेसनाय सति होती"ति । सुखविनिच्छयन्ति सुखं विसेसतो निच्छिनोतीति सुखविनिच्छयो, सुखं सभावतो, समुदयतो, अत्थङ्गमनतो, निस्सरणतो च याथावतो जानित्वा पवत्ताणं, तं सुखविनिच्छयं । जञाति जानेय्य । “सुभसुख'"न्तिआदिकं आरम्मणे अभूताकारं विविधं निन्नभावेन निच्छिनोति आरोपेतीति विनिच्छयो। अस्सादानुपस्सनतण्हादिट्ठियापि एवमेव विनिच्छयभावो वेदितब्बो। इमस्मिं पन सुत्ते वितक्कोयेव आगतोति योजना । इमस्मिं पन सुत्तेति सक्कपञ्चसुत्ते । (दी० नि० २.३५८) तत्थ हि "छन्दो खो, देवानं इन्द, वितक्कनिदानो"ति आगतं । इधाति इमस्मिं महानिदानसुत्ते। "वितक्केनेव विनिच्छिनाती"ति एतेन “विनिच्छीयति एतेनाति विनिच्छयो'"ति विनिच्छय-सद्दस्स करणसाधनमाह। "एत्तक"न्तिआदि विनिच्छयनाकारदस्सनं । छन्दनद्वेन छन्दो, एवं रञ्जनठून रागो, स्वायं अनासेवनताय मन्दो हुत्वा पवत्तो इधाधिप्पेतोति आह "दुब्बलरागस्साधिवचन"न्ति । अज्झोसानन्ति तण्हादिट्टिवसेन अभिनिविसनं । “मव्हं इद"न्ति हि तण्हागाहो येभुय्येन अत्तग्गाहसन्निस्सयोव होति । तेनाह “अहं मम"न्ति, "बलवसन्निट्ठान"न्ति च तेसं गाहानं थिरभावप्पत्तिमाह । तण्हादिट्ठिवसेन परिग्गहकरणन्ति “अहं मम"न्ति बलवसन्निट्ठानवसेन अभिनिविट्ठस्स अत्तत्तनियग्गाहवत्थुनो अज्ञासाधारणं विय कत्वा परिग्गहेत्वा ठानं, तथापवत्तो लोभसहगतचित्तुप्पादो। अत्तना परिग्गहितस्स वत्थुनो यस्स वसेन परेहि साधारणभावस्स 87 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.११२-११२) असहमानो होति पुग्गलो, सो धम्मो असहनता। एवं वचनत्थं वदन्ति निरुत्तिनयेन | सद्दलक्खणे पन यस्स धम्मस्स बसेन मच्छरिययोगतो पुग्गलो मच्छरो, तस्स भावो, कम्म वा मच्छरियं, मच्छेरो धम्मो । मच्छरियस्स बलवभावतो आदरेन रक्खणं आरक्खोति आह "द्वार...पे०... सुव रक्खण"न्ति । अत्तनो फलं करोतीति करणं, यं किञ्चि कारणं, अधिकं करणन्ति अधिकरणं, विसेसकारणं। विसेसकारणञ्च भोगानं आरक्खदण्डादानादिअनत्थसम्भवस्साति वुत्तं “आरक्खाधिकरण"न्तिआदि । परनिसेधनत्थन्ति मारणादिना परेसं विबाधनत्थं । आदीयति एतेनाति आदानं, दण्डस्स आदानं दण्डादानं, अभिभवित्वा परविहेठनचित्तुप्पादो। सत्थादानेपि एसेव नयो। हत्थपरामासादिवसेन कायेन कातब्बकलहो कायकलहो। मम्मघट्टनादिवसेन वाचाय कातब्बकलहो वाचाकलहो। विरुज्झनवसेन विरूपं गण्हाति एतेनाति विग्गहो। विरुद्धं वदति एतेनाति विवादो। तुवं तुवन्ति अगारववचनसहचरणतो तुवं तुवं, सब्बेते तथापवत्ता दोससहगतचित्तुप्पादा वेदितब्बा। तेनाह भगवा “अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्तीति (दी० नि० २.१०४)। ११२. देसनं निवत्तेसीति “तण्हं पटिच्च परियेसना"तिआदिना अनुलोमनयेन पवत्तितं देसनं पटिलोमनयेन पुन “आरक्खाधिकरण''न्ति - आरभन्तो निवत्तेसि | पञ्चकामगुणिकरागवसेनाति आरम्मणभूता पञ्च कामगुणा एतस्स अत्थीति पञ्चकामगुणिको, तत्थ रञ्जनवसेन अभिरमणवसेन पवत्तरागो, तस्स वसेन उप्पना रञ्जनवसेन तण्हायनवसेन पवत्ता रूपादितण्हाव कामेसु तण्हाति कामतण्हा। भवति अस्थि सब्बकालं तिद्वतीति पवत्ता भवदिट्ठि उत्तरपदलोपेन भवो, तंसहगता तण्हा भवतण्हा। विभवति विनस्सति उच्छिज्जतीति पवत्ता विभवदिट्टि विभवो उत्तरपदलोपेन, तंसहगता तण्हा विभवतण्हाति आह "सस्सतदिट्ठी"तिआदि । इमे द्वे धम्माति “एस पच्चयो उपादानस्स, यदिदं तण्हा"ति (दी० नि० २.१०१) एवं वुत्ता वट्टमूलतण्हा च "तण्हं पटिच्च परियेसना"ति (दी० नि० २.१०३) एवं वुत्ता समुदाचारतण्हा चाति इमे द्वे धम्मा । वट्टमूलसमुदाचारवसेनाति वट्टमूलवसेन चेव समुदाचारवसेन च । द्वीहि कोट्ठासेहीति द्वीहि भागेहि । द्वीहि अवयवेहि समोसरन्ति निब्बत्तनवसेन समं वत्तन्ति इतोति समोसरणं, पच्चयो, एकं समोसरणं एतासन्ति एकसमोसरणा। केन पन एकसमोसरणाति आह "वेदनाया"ति। द्वेपि हि तण्हा वेदनापच्चया एवाति। तेनाह "वेदनापच्चयेन एकपच्चया"ति। ततो ततो ओसरित्वा आगन्त्वा समवसनट्ठानं ओसरण समोसरणं । 88 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११३-११४) पटिच्चसमुप्पादवण्णना वेदनाय समं सह एकस्मिं आरम्मणे ओसरणकपवत्तनका वेदना समोसरणाति आह "इदं सहजातसमोसरणं नामा"ति । ११३. सब्बेति उप्पत्तिद्वारवसेन भिन्दित्वा वुत्ता सविपाकफस्सा एव विज्ञाणादि वेदनापरियोसाना विपाकविथीति कत्वा । पटिच्चसमुप्पादकथा नाम वट्टकथाति आह "ठपेत्वा चत्तारो लोकुत्तरविपाकफस्से"ति। बहुधाति बहुप्पकारेन । अयहि पञ्चद्वारे चक्खुपसादादिवत्थुकानं पञ्चन्नं वेदनानं चक्खुसम्फस्सादिको फस्सो सहजातअञमञनिस्सयविपाकआहारसम्पयुत्तअत्थिअविगतवसेनं अट्ठधा पच्चयो होति । सेसानं पन एकेकस्मिं द्वारे सम्पटिच्छनसन्तीरणतदारम्मणवसेन पवत्तानं कामावचरविपाकवेदनानं चक्खुसम्फस्सादिको फस्सो उपनिस्सयवसेन एकधाव पच्चयो होति । मनोद्वारेपि तदारम्मणवसेन पवत्तानं कामावचरविपाकवेदनानं सहजातमनोसम्फस्सो तथेव अठ्ठधा पच्चयो होति, तथा पटिसन्धिभवङ्गचुतिवसेन पवत्तानं तेभूमकविपाकवेदनानं । या पन ता मनोद्वारे तदारम्मणवसेन पवत्ता कामावचरवेदना, तासं मनोद्वारावज्जनसम्पयुत्तो मनोसम्फस्सो उपनिस्सयवसेन एकधाव पच्चयो होतीति एवं फस्सो बहुधा वेदनाय पच्चयो होतीति वेदितब्बं । ११४. वेदनादीनन्ति वेदनासञ्जासङ्घारविज्ञाणानं । असदिसभावाति अनुभवनसञ्जाननाभिसङ्घरणविजाननभावा । ते हि अञमञविधुरेन वेदयितादिरूपेन आकिरियन्ति पञ्जायन्तीति आकाराति बुच्चन्ति। तेयेवाति वेदनादीनं ते एव वेदयितादिआकारा । साधुकं दस्सियमानाति सक्कच्चं पच्चक्खतो विय पकासियमाना। तं तं लीनमत्थं गमेन्तीति “अरूपट्ठो आरम्मणाभिमुखनमनट्ठो''ति एवमादिकं तं तं लीनं अपाकटमत्थं गमेन्ति आपेन्तीति लिङ्गानि। तस्स तस्स सञ्जाननहेतुतोति तस्स तस्स अरूपठ्ठादिकस्स सल्लक्खणस्स कारणत्ता । निमीयन्ति अनुमीयन्ति एतेहीति निमित्तानि । तथा तथा अरूपभावादिप्पकारेन, वेदयितादिप्पकारेन च उद्दिसितब्बतो कथेतब्बतो उद्देसा । तस्माति “असदिसभावा''तिआदिना वुत्तमेवत्थं कारणभावेन पच्चामसति । यस्मा वेदनादीनं अञमञ्जअसदिसभावा यथावुत्तेनत्थेन आकारादयो, तस्मा अयं इदानि वुच्चमानो एत्थ पाळिपदे अत्थो। नामसमूहस्साति आरम्मणाभिमुखं नमनटेन “नाम''न्ति लद्धसमञस्स वेदनादिचतुक्खन्धसङ्घातस्स अरूपधम्मपुञ्जस्स। पञत्तीति “नामकायो अरूपकलापो 80 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० दीघनिकाये महावग्गटीका अरूपिनो खन्धा ''तिआदिका पञ्ञापना होति । चेतनापधानत्ता सङ्घारक्खन्धधम्मानं “ सङ्घारानं चेतनाकारे "तिआदि वृत्तं । तथा हि सुत्तन्तभाजनीये सङ्घारक्खन्धविभजने " या चेतना सञ्चेतना सञ्चेतयितत्तन्ति (विभं० २४९ अभिधम्मभाजनीये) चेतनाव निद्दिट्ठा । असतीति असन्तेसु । वचनविपल्लासेन हि एवं वृत्तं । चत्तारो खन्धे वत्युं कत्वाति वेदना सञ्ञा चित्तं चेतनादयोति इमे चतुक्खन्धसञ्ञिते निस्सयपच्चयभूते धम्मे वत्युं कत्वा । अयञ्च नयो पञ्चद्वारेपि सम्भवतीति “मनोद्वारे "ति विसेसितं । अधिवचनसम्फस्सवेवचनोति अधिवचनमुखेन पञ्ञत्तिमुखेन गहेतब्बत्ता “अधिवचनसम्फस्सो "ति लद्धनामो । सोति मनोसम्फस्सो | पञ्चवोकारे च हृदयवत्युं निस्साय लब्भनतो रूपकाये पञ्ञयतेव, अयं पन नयो इध न इच्छितो वेदनादिपटिक्खेपवसेन असम्भवपरियायस्स जोतितत्ताति " पञ्चपसादे वत्थं कत्वा उप्पज्जेय्या "ति अत्थो वुत्तो । न हि वेदनासन्निस्सयेन विना पञ्चपसादे वत्युं कत्वा मनोसम्फस्सस्स सम्भवो अत्थि । उप्पत्तिट्ठाने असति अनुप्पत्तिट्ठानतो फलस्स उप्पत्ति नाम कदाचिपि नत्थीति इममत्थं यथाधिगतस्स अत्थस्स निदस्सनवसेन दस्सेन्तो " अम्बरुक्खे 'तिआदिमाह । रूपकायतोति केवलं रूपकायतो । तस्साति मनोसम्फस्सस्स । विरोधिपच्चयसन्निपाते विभूततरा विसदिसुप्पत्ति, तस्मिं वा सति अत्तनो सन्ताने विज्जमानस्सेव विसदिसुप्पत्तिहेतुभावो रुप्पनाकारो । सो एव रूप्पनाकारो वत्थुसप्पटिघादिकं तं तं लीनमत्थं गमेतीति लिङ्गं । तस्स तस्स सञ्जाननहेतुतो निमित्तं । तथा तथा उद्दिसितब्बतो उद्देसोति एवमेत्थ आकारादयो अत्थतो वेदितब्बा । वत्थारम्मणानं अञ्ञमञ्ञपटिहननं पटिघो, ततो घो जात पटिघसम्फस्सो । तेनाह " सप्पटिघ "न्तिआदि । नामकायतोति केवलं नामकायतो । तस्साति पटिघसम्फस्सस्स । सेसं पठमपहे वृत्तनयमेव । (२.११४ - ११४) उभयवसेनाति नामकायो रूपकायोति उभयसन्निस्सयस्स अधिवचनसम्फस्सो पटिघसम्फस्सोति उभयसम्फस्सस्स वसेन । विसुं विसुं पच्चयं दस्सेत्वाति ब्यतिरेकमुखेन पच्चेकं नामकायरूपकायसञ्जितं पच्चयं दस्सेत्वा । तेसन्ति फस्सानं । अविसेसतोति विसेसं अकत्वा सामञ्ञतो । दस्सेतुन्ति ब्यतिरेकमुखेनेव दस्सेतुं । एसेव हेतूति एस छसुपि द्वारेसु पवत्तो नामरूपसङ्घातो हेतु यथारहं द्विन्नम्पि फस्सानं । इदानि तं यथारहं पवत्तिं विभजित्वा दस्सेतुं "चक्खुद्वारादीसु ही "तिआदि वृत्तं । 90 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११५-११५) पटिच्चसमुप्पादवण्णना सम्पयुत्तका खन्धाति फस्सेन सम्पयुत्ता वेदनादयो खन्धा। आवज्जनस्सापि सम्पयुत्तक्खन्धग्गहणेनेवेत्थ गहणं दट्टब्बं तदविनाभावतो । परतो मनोसम्फस्सेपि एसेव नयो । पञ्चविधोपीति चक्खुसम्फस्सादिवसेन पञ्चविधोपि । सो फस्सोति पटिघसम्फस्सो। बहुधाति बहुप्पकारेन । तथा हि विपाकनामं विपाकस्स अनेकभेदस्स मनोसम्फस्सस्स सहजातअज्ञमञनिस्सयविपाकसम्पयुत्तअत्थिअविगतवसेन सत्तधा पच्चयो होति । यं पनेत्थ आहारकिच्चं, तं आहारपच्चयवसेन | यं इन्द्रियकिच्चं, तं इन्द्रियपच्चयवसेन पच्चयो होति । अविपाकं पन नामं अविपाकस्स मनोसम्फस्सस्स ठपेत्वा विपाकपच्चयं इतरेसं वसेन पच्चयो होति । रूपं पन चक्खायतनादिभेदं चक्खुसम्फस्सादिकस्स पञ्चविधस्स फस्सस्स निस्सयपुरेजातइन्द्रियविप्पयुत्तअत्थिअविगतवसेन छधा पच्चयो होति । रूपायतनादिभेदं तस्स पञ्चविधस्स आरम्मणपुरेजातअस्थिअविगतवसेन चतुधा पच्चयो होति। मनोसम्फस्सस्स पन तानि रूपायतनादीनि, धम्मारम्मणञ्च तथा च आरम्मणपच्चयमत्तेनेव पच्चयो होति । वत्थुरूपं पन मनोसम्फस्सस्स निस्सयपुरेजातविप्पयुत्तअस्थिअविगतवसेन पञ्चधा पच्चयो होति । एवं नामरूपं अस्स फस्सस्स बहुधा पच्चयो होतीति वेदितब्बं । ११५. पठमुष्पत्तियं विआणं नामरूपस्स विसेसपच्चयोति इममत्थं ब्यतिरेकमुखेन दस्सेतुं पाळियं “मातुकुच्छिम्हि न ओक्कमिस्सथा'"तिआदि वुत्तं । गब्भसेय्यकपटिसन्धि हि बाहिरतो मातुकुच्छिं ओक्कमन्तस्स विय होन्तीपि अत्थतो यथापच्चयं खन्धानं तत्थ पठमुष्पत्तियेव । तेनाह "पविसित्वा...पे०... न वत्तिस्सथा"ति । सुद्धन्ति केवलं विज्ञाणेन अमिस्सितं विरहितं । “अवसेस''न्ति इदं नामापेक्खं, तस्मा अवसेसं नामरूपन्ति इमं विज्ञाणं ठपेत्वा अवसेसं नामरूपं वाति अत्थो। पटिसन्धिवसेन ओक्कन्तन्ति पटिसन्धिग्गहणवसेन, मातुकुच्छिं ओक्कमन्तस्स वा पठमावयवभावेन ओतिण्णं । वोक्कमिस्सथाति सन्ततिविच्छेदं विनासं उपगमिस्सथ, तं पन मरणं नाम होतीति आह "चुतिवसेना"ति । अस्साति विज्ञाणस्स, तञ्च खो विाणसामञ्जवसेन वुत्तं । तेनाह "तस्सेव चित्तस्स निरोधेना"ति, पटिसन्धिचित्तस्सेव निरोधेनाति अत्थो। ततोति पटिसन्धिचित्ततो । पटिसन्धिचित्तस्स, ततो दुतियततियचित्तानं वा निरोधेन चुति न होतीति वुत्तमत्थं युत्तितो विभावेतुं “पटिसन्धिचित्तेन ही"तिआदि वुत्तं । एतस्मिं अन्तरेति एतस्मिं सोळसचित्तक्खणे काले । अन्तरायो नत्थीति एत्थ दारकस्स ताव मरणन्तरायो मा होतु तदा चुतिचित्तस्स असम्भवतो, मातु पन कथं तदा मरणन्तरायाभावोति ? तं तं कालं 91 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.११५-११५) अनतिक्कमित्वा तदन्तरेयेव चवनधम्माय गब्भग्गहणस्सेव असम्भवतो। तेनाह “अयव्हि अनोकासो नामा"ति, चुतियाति अधिप्पायो। पटिसन्धिचित्तेन सद्धिं समुट्ठितरूपानीति ओक्कन्तिक्खणे उप्पन्नकम्मजरूपानि वदति । तानि हि निप्परियायतो पटिसन्धिचित्तेन सद्धिं समुट्ठितरूपानि नाम, न उतुसमुट्ठानानि पटिसन्धिचित्तस्स उप्पादतो पच्छा समुट्ठितत्ता । चित्तजाहारजानं पन तदा असम्भवो एव | यानि पटिसन्धिचित्तेन सद्धिं समुट्ठितरूपानि, तानि तिविधानि तस्स उप्पादक्खणे समुट्ठितानि, ठितिक्खणे समुट्टितानि, भङ्गक्खणे समुट्ठितानीति । तेसु उप्पादक्खणे समुट्ठितानि सत्तरसमस्स भवङ्गस्स उप्पादक्खणे निरुज्झन्ति, ठितिक्खणे समुट्ठितानि ठितिक्खणे निरुज्झन्ति, भङ्गक्खणे समुट्ठितानि भङ्गक्खणे निरुज्झन्ति । तत्थ “भञ्जमानो धम्मो भञ्जमानस्स धम्मस्स पच्चयो होती"ति न सक्का वत्तुं, उप्पादे, पन ठितियञ्च न न सक्काति “सत्तरसमस्स भवङ्गस्स उप्पादक्खणे, ठितिक्खणे च धरन्तानं वसेन तस्स पच्चयम्पि दातुं न सक्कोन्ती"ति वुत्तं । रूपकायूपत्थम्भितस्सेव हि नामकायस्स पञ्चवोकारे पवत्तीति । तेहि रूपधम्मेहि तस्स चित्तस्स बलवतरं सन्धायाह "सत्तरसमस्स...पे०... पवत्ति पवत्तती"ति। पवेणी घटियतीति अठ्ठचत्तालीसकम्मजस्सरूपपवेणी सम्बन्धा हुत्वा पवत्तति । पठमहि पटिसन्धिचित्तं, ततो याव सोळसमं भवङ्गचित्तं, तेसु एकेकस्स उप्पादठितिभङ्गवसेन तयो तयो खणा। तत्थ एकेकस्स चित्तस्स तीसु तीसु खणेसु समतिंस समतिंस कम्मजरूपानि उप्पज्जन्ति । इति सोळसतिका अठ्ठचत्तालीसं होन्ति । एस नयो ततो परेसुपि । तं सन्धाय वुत्तं "अठ्ठचत्तालीसकम्मजस्स रूपपवेणी सम्बन्धा हुत्वा पवत्ततीति । सचे पन न सक्कोन्तीति पटिसन्धिचित्तेन सद्धिं समुट्ठितरूपानि सत्तरसमस्स भवङ्गस्स पच्चयं दातुं सचे न सक्कोन्ति । यदि हि पटिसन्धिचित्ततो सत्तरसमं चुतिचित्तं सिया, पटिसन्धिचित्तस्स ठितिभङ्गक्खणेसुपि कम्मजरूपं न उप्पज्जेय्य, पगेव भवङ्गचित्तक्खणेसु । तथा सति नत्थेव तस्स चित्तस्स पच्चयलाभोति पवत्ति नप्पवत्तति, पवेणी न घटियतेव, अञदत्थु विच्छिज्जति । तेनाह "वोक्कमतिति नाम होती"तिआदि । इत्थत्तायाति इत्थंपकारताय । यादिसो गब्भसेय्यकस्स अत्तभावो, तं सन्धायेतं वुत्तं । तस्स च पञ्चक्खन्धा अनूना एव होन्तीति आह "एवं परिपुण्णपञ्चक्खन्धभावाया"ति । उपच्छिज्जिस्सथाति सन्तानविच्छेदेन विच्छिन्देय्य । सुद्धं नामरूपमेवाति विज्ञआणविरहितं केवलं नामरूपमेव । अवयवानं पारिपूरि बुड्डि। थिरभावप्पत्ति विरून्हि। महल्लकभावप्पत्ति वेपुल्लं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११५-११५) पटिच्चसमुप्पादवण्णना तानि च यथाक्कम पठमादिवयवसेन होन्तीति वुत्तं “पठमवयवसेना"तिआदि । वा-सद्दो अनियमत्थो, तेन वस्ससहस्सद्वयादीनं सङ्गहो दट्टब्बो । विज्ञाणमेवाति नियमवचनं, इतो बाहिरकप्पितस्स अत्तनो, इस्सरादीनञ्च पटिक्खेपपदं, न अविज्जादिफस्सादिपटिक्खेपपदं पटियोगीनिवत्तनपदत्ता अवधारणस्स । तेनाह "एसेव हेतू'तिआदि । अयञ्च नयो हेट्ठापि सब्बपदेसु यथारहं वत्तब्बो । इदानि विाणमेव नामरूपस्स पधानकारणन्ति इममत्थं ओपम्मवसेन विभावेतुं “यथा ही"तिआदि वुत्तं । पच्चेकं विय समुदितस्सापि नामरूपस्स विज्ञाणेन विना अत्तकिच्चासमत्थतं दस्सेतुं "त्वं नामरूपं नामा"ति एकज्झं गहणं। पुरेचारिकेति पुब्बङ्गमेव । विज्ञाणज्हि सहजातधम्मानं पुब्बङ्गमं । तेनाह भगवा “मनोपुब्बङ्गमा धम्मा'ति । (ध० प० १, नेत्ति० ९०, ९२; पेटको० १३, ८३) बहुधाति अनेकप्पकारेन पच्चयो होति। कथं ? विपाकनामस्स हि पटिसन्धियं अनं वा विचाणं सहजातअञमञनिस्सयविपाकआहारइन्द्रियसम्पयुत्तअस्थिअविगतपच्चयेहि नवधा पच्चयो होति। वत्थुरूपस्स पटिसन्धियं सहजातअञमनिस्सयविपाकआहारइन्द्रियविप्पयुत्तअथिअविगतपच्चयेहि नवधा पच्चयो होति । ठपेत्वा पन वत्थरूपं सेसरूपस्स इमेस नवस अञमञ्जपच्चयं अपनेत्वा सेसेहि अट्ठहि पच्चयेहि पच्चयो होति । अभिसङ्खारविज्ञाणं पन असञ्जसत्तरूपस्स, पञ्चवोकारे वा कम्मजस्स सुत्तन्तिकपरियायतो उपनिस्सयवसेन एकधाव पच्चयो होति । अवसेसहि पठमभवङ्गतो पभुति सब्बम्पि विणं तस्स नामरूपस्स यथारहं पच्चयो होतीति वेदितब्बं । अयमेत्थ सोपो, वित्थारतो पन पच्चयनये दस्सियमाने सब्बापि महापकरणकथा आनेतब्बा होतीति न वित्थारिता। कथं पनेतं पच्चेतब्बं “पटिसन्धिनामरूपं विज्ञआणपच्चया होती"ति ? सुत्ततो, युत्तितो च । पाळियहि “चित्तानुपरिवत्तिनो धम्मा''तिआदिना (ध० स० मातिका ६२) नयेन बहुधा वेदनादीनं विज्ञाणपच्चयता आगता। युत्तितो पन इध चित्तजेन रूपेन दिढेन अदिट्ठस्सापि रूपस्स विज्ञाणं पच्चयो होतीति विज्ञायति । चित्तेहि पसन्ने, अप्पसन्ने वा तदनुरूपानि रूपानि उप्पज्जमानानि दिट्ठानि, दिवेन च अदिट्टस्स अनुमानं होतीति । इमिना इध “दितुन चित्तजरूपेन अदिट्ठस्सापि पटिसन्धिरूपस्स विजाणं पच्चयो होती"ति पच्चेतब्बमेतं । कम्मसमुट्ठानस्सापि हि रूपस्स चित्तसमुट्ठानस्स विय विज्ञाणपच्चयता पट्ठाने आगताति । 93 Jain Education Interational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.११६-११६) ११६. इध समुदय-सद्दो समुदाय-सद्दो विय समूहपरियायोति आह "दुक्खरासिसम्भवो"ति । एककोति असहायो राजपरिसारहितो। पस्सेय्याम ते राजभावं अम्हेहि विनाति अधिप्पायो । यथारहं परिसं रजेतीति हि राजा। अस्थतोति अत्थसिद्धितो अवदन्तम्पि वदति विय। "हदयवत्थु"न्ति इमिनाव तन्निस्सयोपि गहितो वाति दट्ठब्बं । आनन्तरियभावतो निस्सयनिस्सयोपि “निस्सयो" त्वेव वुच्चतीति । पटिसन्धिविज्ञाणं नाम भवेय्यासि, नेतं ठानं विज्जतीति अत्थो । तेनाह "पस्सेय्यामा"तिआदि । बहुधाति अनेकधा पच्चयो होति। कथं ? नामं ताव पटिसन्धियं सहजातअज्ञमञनिस्सयविपाकसम्पयुत्तअत्थिअविगतपच्चयेहि सत्तधा विज्ञाणस्स पच्चयो होतीति । किञ्चि पनेत्थ हेतुपच्चयेन, किञ्चि आहारपच्चयेनाति एवं अञथापि पच्चयो होति । अविपाकं पन नामं यथावत्तेस पच्चयेस ठपेत्वा विपाकपच्चयं इतरेहि छहि पच्चयेहि पच्चयो होति । किञ्चि पनेत्थ हेतपच्चयेन, किञ्चि आहारपच्चयेनाति अञथापि पच्चयो होति. तञ्च खो पवत्तियंयेव. न पटिसन्धियं । रूपतो पन हदयवत्थु पटिसन्धियं विञआणस्स सहजातअञमञनिस्सयविप्पयुत्तअस्थि अविगतपच्चयेहि छधाव पच्चयो होति । पवत्तियं पन सहजातअज्ञमञपच्चयवज्जितेहि पञ्चहि पुरेजातपच्चयेन सह तेहेव पच्चयेहि पच्चयो होति । चक्खायतनादिभेदं पन पञ्चविधम्पि रूपं यथाक्कम चक्खुविज्ञाणादिभेदस्स विणस्स निस्सयपुरेजातइन्द्रियविप्पयुत्तअत्थिअविगतपच्चयेहि पच्चयो होतीति एवं नामरूपं विज्ञाणस्स बहुधा पच्चयो होतीति वेदितब्बं । स्वायमनुक्कमेन विज्ञाणस्स नामरूपं, पटिसन्धिनामरूपस्स, च विज्ञाणं पति पच्चयभावो, सो कदाचि विज्ञाणस्स सातिसयो, कदाचि नामरूपस्स, कदाचि उभिन्नं सदिसोति तिविधोपि सो "एत्तावता"ति पदेन एकज्झं गहितोति दस्सेन्तो "विज्ञाणे...पे०... पवत्तेसू"ति वत्वा पुन यमिदम्पि विज्ञाणं नामरूपसञ्जितानं पञ्चन्नं खन्धानं अञमनिस्सयेन पवत्तानं एत्तकेन सब्बा संसारवट्टप्पवत्तीति इममत्थं दस्सेन्तो "एत्तकेन...पे०... पटिसन्धियो"ति आह । तत्थ एत्तकेनाति एत्तकेनेव, न इतो अजेन केनचि कारकवेदकसभावेन अत्तना, इस्सरादिना वाति अत्थो । अन्तोगधावधारणज्हेतं पदं । वचनमत्तमेव अधिकिच्चाति दासादीसु सिरिवड्डकादि-सद्दा विय अतथत्ता वचनमत्तमेव अधिकारं कत्वा पवत्तस्स। तेनाह “अत्थं अदिस्वा"ति । वोहारस्साति वोहरणमत्तस्स । पथोति पवत्तिमग्गो पवत्तिया विसयो। यस्मा सरणकिरियावसेन पुग्गलो "सतो"ति वुच्चति, सम्पजाननकिरियावसेन “सम्पजानो"ति, तस्मा वुत्तं "कारणापदेसवसेना"ति । 94 Jain Education Interational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११७-११७) अत्तपञत्तिवण्णना ९५ कारणं निद्धारेत्वा उत्ति निरुत्तीति । एकमेव अत्थं “पण्डितो''तिआदिना पकारतो आपनतो "पञत्ती"ति वदन्ति । सो एव हि “पण्डितो"ति च "ब्यत्तो''ति च "मेधावी''ति च पञआपीयतीति । पण्डिच्चप्पकारतो पन पण्डितो, वेय्यत्तियप्पकारतो व्यत्तोति पापीयतीति एवं पकारतो पञापनतो पत्ति । यस्मा इध अधिवचननिरुत्तिपञत्तिपदानि समानत्थानि । सब्बञ्च वचनं अधिवचनादिभावं भजति, तस्मा केसुचि वचनविसेसेसु विसेसेन पवत्तेहि अधिवचनादिसद्देहि सब्बानि वचनानि पञत्तिअत्थप्पकासनसामओन वुत्तानीति इमिना अधिप्पायेन अयमत्थयोजना कताति वेदितब्बा। अथ वा अधि-सद्दो उपरिभावे, उपरि वचनं अधिवचनं। कस्स उपरि ? पकासेतब्बस्स अत्थस्साति पाकटो यमत्थो । अधीनं वा वचनं अधिवचनं । केन अधीनं ? अत्थेन । तथा तंतंअत्थप्पकासेन निच्छितं, नियतं वा वचनं निरुत्ति। पथवीधातुपुरिसादितंतंपकारेन ञापनतो पञत्तीति एवं अधिवचनादिपदानं सब्बवचनेसु पवत्ति वेदितब्बा, अञथा सिरिवड्डकधनवड्डकप्पकारानमेव निरुत्तिता, “पण्डितो वियत्तो"ति एवं पकारानमेव एकमेव अत्थं तेन तेन पकारेन आपेन्तानं पञत्तिता च आपज्जेय्याति । एवं तीहिपि नामेहि वुत्तस्स वोहारस्स पवत्तिमग्गोपि सह विज्ञाणेन नामरूपन्ति एत्तावताव इच्छितब्बो। तेनाह "इती"तिआदि । पञ्जाय अवचरितब्बन्ति पञाय पवत्तितब्बं, जेय्यन्ति अत्थो । तेनाह "जानितब्ब"न्ति । वट्टन्ति किलेसवढें, कम्मवर्ल्ड, विपाकवट्टन्ति तिविधम्पि वढें । वत्ततीति पवत्तति । तयिदं “जायेथा'तिआदिना पञ्चहि पदेहि वृत्तस्स अत्थस्स निगमनवसेन वुत्तं । आदि-सद्देन इत्थीतिपुरिसातिआदीनम्पि सङ्गहो दट्टब्बो । नामपञत्तत्थायाति खन्धादिफस्सादिसत्तादिइत्यादिनामस्स पञापनत्थाय । वत्थुपि एत्तावताव । तेनाह "खन्धपञ्चकम्पि एत्तावताव पञ्जायती"ति । एतावता एत्तकेन, सह विज्ञाणेन नामरूपप्पवत्तियाति अत्थो । अत्तपञत्तिवण्णना ११७. अनुसन्धियति एतेनाति अनुसन्धि, हेट्ठा आगतदेसनाय अनुसन्धानवसेन पवत्ता उपरिदेसना, सा पठमपदस्स दस्सिता, इदानि दुतियपदस्स दस्सेतब्बाति तमत्थं दस्सेन्तो "इति भगवा"तिआदिमाह । रूपिन्ति रूपवन्तं । परित्तन्ति न विपुलं, अप्पकन्ति अत्थो । यस्मा अत्ता नाम कोचि परमत्थतो नत्थि । केवलं पन दिट्टिगतिकानं 95 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.११८-११८) परिकप्पितमत्तं, तस्मा यत्थ नेसं अत्तसञ्जा, यथा चस्स रूपिभावादिपरिकप्पना होति, तं दस्सेन्तो “यो"तिआदिमाह। रूपिं परित्तन्ति अत्तनो उपट्टितकसिणरूपवसेन रूपिं, तस्स अवड्डितभावेन परित्तं । पञपेति नीलकसिणादिवसेन नानाकसिणलाभी । तन्ति अत्तानं । अनन्तन्ति कसिणनिमित्तस्स अप्पमाणताय परिच्छेदस्स अनुपट्ठानतो अन्तरहितं । उग्घाटेत्वाति भावनाय अपनेत्वा । निमित्तफुटोकासन्ति तेन कसिणनिमित्तेन फुट्ठप्पदेसं । तेसूति चतूसु अरूपक्खन्धेसु । विज्ञाणमत्तमेवाति “विज्ञाणमयो अत्ता''ति एवंवादी। ११८. "एतरही"ति सावधारणमिदं पदन्ति तदत्थं दस्सेन्तो “इदानेवाति वत्वा अवधारणेन निवत्तितमत्थं आह "न इतो पर"न्ति । तत्थ तत्थेव सत्ता उच्छिज्जन्तीति उच्छेदवादी, तेनाह "उच्छेदवसेनेतं वुत्त"न्ति । भाविन्ति सब् सदा भाविं अविनस्सनकं । तेनाह "सस्सतवसेनेतं वुत्त"न्ति । अतथासभावन्ति यथा परवादी वदन्ति, न तथा सभावं । तथभावायाति उच्छेदभावाय वा सस्सतभावाय वा अनियमवचनहेतं वत्तं सामञ्जजोतनावसेन । सम्पादेस्सामीति तथभावं अस्स सम्पन्नं कत्वा दस्सयिस्सामि, पतिट्ठापेस्सामीति अत्थो । तथा हि वक्खति “सस्सतवादञ्च जानापेत्वा''तिआदि । (दी० नि० अट्ठ० २.११८) इमिनाति “अतथं वा पना"तिआदि वचनेन, अनुच्छेदसभावम्पि समानं सस्सतवादिनो मतिवसेनाति अधिप्पायो । उपकप्पेस्सामीति उपेच्च समत्थयिस्सामि । __ एवं समानन्ति एवं भूतं समानं । रूपकसिणज्झानं रूपं उत्तरपदलोपेन, अधिगमनवसेन तं एतस्स अत्थीति रूपीति आह "रूपिन्ति रूपकसिणलाभि"न्ति | परित्तत्तानुदिट्ठीति एत्थ रूपी-सद्दोपिआवृत्तिआदिनयेन आनेत्वा वत्तब्बो, रूपीभावम्पि हि सो दिद्विगतिको परित्तभावं विय अत्तनो अभिनिविस्स ठितोति । अरूपिन्ति एत्थापि एसेव नयो । “पत्तपलासबहुलगच्छसङ्केपेन घनगहनजटाविताना नातिदीघसन्ताना वल्लि, तब्बिपरीता लता"ति वदन्ति । अप्पहीनद्वेनाति मग्गेन असमुच्छिन्नभावेन । कारणलाभे सति उप्पज्जनारहता अनुसयनह्रो । अरूपकसिणं नाम कसिणुग्घाटिं आकासं, न परिच्छिन्नाकासकसिणं । “उभयम्पि अरूपकसिणमेवा"ति केचि । अरूपक्खन्धगोचरं वाति वेदनादयो अरूपक्खन्धा “अत्ता''ति अभिनिवेसस्स गोचरो एतस्साति अरूपक्खन्धगोचरो, दिट्ठिगतिको, तं अरूपक्खन्धगोचरं । वा-सद्दो वुत्तविकप्पत्थो । सद्दयोजना पन अरूपं अरूपक्खन्धा गोचरभूता एतस्स अत्थीति अरूपी, तं अरूपिं । लाभिनो चत्तारोति रूपकसिणादिलाभवसेन तं तं दिट्टिवादं सयमेव 96 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.११९-१२१) नअत्तपञत्तिवण्णना २७) परिकप्पेत्वा तं आदाय पग्गयह पञापनका चत्तारो दिह्रिगतिका । तेसं अन्तेवासिकाति तेसं लाभीनं वादं पच्चक्खतो, परम्पराय च उग्गहेत्वा तथेव नं खमित्वा रोचेत्वा पञापनका चत्तारो । तक्किका चत्तारोति कसिणज्झानस्स अलाभिनो केवलं तक्कनवसेनेव यथावुत्ते चत्तारो दिट्ठिवादे सयमेव अभिनिविस्स पग्गयह ठिता चत्तारो । तेसं अन्तेवासिका पुब्बे वुत्तनयेन वेदितब्बा। नअत्तपञत्तिवण्णना ११९. आरद्धविपस्सकोपीति सम्परायिकविपस्सकोपि, तेन बलवविपस्सनाय ठितं पुग्गलं दस्सेति । न पञपेति एव अबहुस्सुतो पीति अधिप्पायो । तादिसो हि विपस्सनाय आनुभावो | सासनिकोपि झानाभिञालाभी “न पञपेती''ति न वत्तब्बोति सो इध न उद्धटो। इदानि नेसं अपञापने कारणं दस्सेति “एतेसही"तिआदिना । इच्चेव आणं होति, न विपरीतग्गाहो तस्स कारणस्स दूरसमुस्सारितत्ता। अरूपक्खन्धा इच्चेव आणं होतीति योजना। अत्तसमनुपस्सनावण्णना १२१. दिद्विवसेन समनुपस्सित्वा, न आणवसेन । सा च समनुपस्सना अत्थतो दिट्टिदस्सनवसेन । “वेदनं अत्ततो समनुपस्सती"ति एवं आगता वेदनाक्खन्धवत्थुका सक्कायदिट्ठि। इट्ठादिभेदं आरम्मणं न पटिसंवेदेतीति अप्पटिसंवेदनोति वेदकभावपटिक्खेपमुखेन सञ्जाननादिभावोपि पटिक्खित्तो होति तदविनाभावतोति आह "इमिना रूपक्खन्धवत्थुका सक्कायदिढि कथिता"ति । "अत्ता मे वेदियती"ति इमिना अप्पटिसंवेदनत्तं पटिक्खिपति । तेनाह “नोपि अप्पटिसंवेदनो''ति । "वेदनाधम्मो"ति पन इमिना “वेदना मे अत्ता''ति इमं वादं पटिक्खिपति । वेदनासङ्घातो धम्मो एतस्स अत्थीति हि वेदनाधम्मोति वेदनाय समन्नागतभावं तस्स पटिजानाति । तेनाह “एतस्स च वेदनाधम्मो अविप्पयुत्तसभावो"ति | सञ्जासङ्घारविज्ञाणक्खन्धवत्थुका सक्कायदिट्ठि कथिताति आनेत्वा सम्बन्धो । "वेदनासम्पयुत्तत्ता वेदियती"ति तंसम्पयोगतो तंकिच्चकतमाह यथा चेतनायोगतो चेतनो पुरिसोति । सब्बेसम्पि तं सारम्मणधम्मानं आरम्मणानुभवनं लब्भतेव, तञ्च खो एकदेसतो Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.१२२-१२३) फुट्ठतामत्ततो, वेदनाय पन विस्सविताय सामिभावेन आरम्मणरसानुभवनन्ति । तस्सा वसेन सञादयोपि तंसम्पयुत्तत्ता “वेदियतीति वुच्चन्ति। तथा हि वुत्तं अट्ठसालिनियं "आरम्मणरसानुभवनट्ठानं पत्वा सेससम्पयुत्तधम्मा एकदेसमत्तकमेव अनुभवन्ती''ति, (ध० स० अट्ठ० १ धम्मुद्देसकथा) राजसूदनिदस्सनेन वायमत्थो तत्थ विभावितो एव । एतस्साति सादिक्खन्धत्तयस्स । “अविष्पयुत्तसभावो"ति इमिना अविसंयोगजनितं कञ्चि विसेसं ठानं दीपेति । १२२. तत्थाति तेसु वारेसु । तीसु दिट्ठिगतिकेसूति “वेदना मे अत्ता"ति, "अप्पटिसंवेदनो मे अत्ता''ति, “वेदनाधम्मो मे अत्ता"ति च एवंवादेसु तीसु दिट्ठिगतिकेसु । तिस्सन्नं वेदनानं भिन्नसभावत्ता सुखं वेदनं “अत्ता''ति समनुपस्सतो दुक्खं, अदुक्खमसुखं वा वेदनं “अत्ता'"ति समनुपस्सना न युत्ता। एवं सेसद्वये पीति आह “यो यो यं यं वेदनं अत्ताति समनुपस्सती"ति । १२३. "हुत्वा अभावतो"ति इमिना उदयब्बयवन्तताय अनिच्चाति दस्सेति, "तेहि तेही"तिआदिना अनेककारणसङ्घतत्ता सङ्ग्रताति । तं तं पच्चयन्ति “इन्द्रियं, आरम्मणं, विज्ञाणं, सुख, वेदनीयो फस्सो'"ति एवं आदिकं तं तं अत्तनो कारणं पटिच्च निस्साय सम्मा सस्सतादिभावस्स, उच्छेदादिभावस्स च अभावेन जायेन समकारणेन सदिसकारणेन अनुरूपकारणेन उप्पन्ना। खयसभावाति खयधम्मा, वयसभावाति वयधम्मा विरज्जनसभावाति विरागधम्मा, निरुज्झनसभावाति निरोधधम्मा, चतूहिपि पदेहि वेदनाय भङ्गभावमेव दस्सेति । तेनाह "खयोति...पे०... खयधम्मातिआदि वुत्त"न्ति । विगतोति सभावविगमेन विगतो। एकस्सेवाति एकस्सेव दिट्ठिगतिकस्स । तीसुपि कालेसूति तिस्सन्नं वेदनानं पवत्तिकालेसु | एसो मे अत्ताति “एसो सुखवेदनासभावो, दुक्खअदुक्खमसुखवेदनासभावो मे अत्ता"ति किं पन होती, एकस्सेव भिन्नसभावतं अनुम्मत्तको कथं पच्चेतीति अधिप्पायेन पुच्छति । इतरो एवम्पि तस्स न होति येवाति दस्सेन्तो "किं पन न भविस्सती"तिआदिमाह । विसेसेनाति सुखादिविभागेन । सुखञ्च दुक्खञ्चाति एत्थ च-सद्देन अदुक्खमसुखं सङ्गण्हाति, सुखसङ्गहमेव वा तेन कतं सन्तसुखुमभावतो । अविसेसेनाति अविभागेन वेदनासामनेन । वोकिण्णन्ति सुखादिभेदेन वोमिस्सकं । तं तिविधम्पि वेदनं एस दिट्ठिगतिको एकज्झं गहेत्वा अत्ताति समनुपस्सति । एकक्खणे च बहूनं वेदनानं उप्पादो आपज्जति अविसेसेन वेदनासभावत्ता। अत्तनो हि 98 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२४-१२६) अत्तसमनुपस्सनावण्णना तस्मिं सति सदा सब्बवेदनापवत्तिप्पसङ्गतो दिहिगतिको अगतिया एकक्खणेपि बहूनम्पि वेदनानं उप्पत्तिं पटिजानेय्याति तस्स अवसरं अदेन्तो "न एकक्खणे बहूनं वेदनानं उप्पत्ति अत्थी"ति आह, पच्चक्खविरुद्धमेतन्ति अधिप्पायो । एतेन पेतं नक्खमतीति एतेन विरुद्धत्तसाधनेनपि सब्बेन सबं अत्तनो अभावेनपि पण्डितानं न रुच्चति, एतं दस्सनं धीरा नक्खमन्तीति अत्थो । १२४. इन्द्रियबद्धेपि रूपप्पबन्धे वायोधातुविष्फारवसेन काचि किरिया नाम लब्भतीति सुद्धरूपक्खन्धेपि यत्थ कदाचि वायोधातुविष्फारो लब्भति, तमेव निदस्सनभावेन गण्हन्तो "तालवण्टे वा वातपाने वा"ति आह । वेदनाधम्मेसूति वेदनाधम्मवन्तेसु । "अहमस्मी"ति इमिना तयोपि खन्धे एकज्झं गहेत्वा अहंकारस्स उप्पज्जनाकारो वुत्तोति । "अयमहमस्मी"ति पन इमिना तत्थ एकं एकं गहेत्वा अहंकारस्स उप्पज्जनाकारो वृत्तो । तेनाह "एकधम्मोपी"तिआदि। तन्ति “अहमस्मीति अहंकारुप्पत्तिं। सा हि चतुक्खन्धनिरोधेन अनुपलब्भमानसन्निस्सया ससविसाणतिखिणता विय न भवेय्यावाति । एत्तावताति “कित्तावता च आनन्दा''तिआदिना "तन्ताकुलकजाता"ति पदस्स अनुसन्धिदस्सनवसेन पवत्तेन एत्तकेन देसनाधम्मेन । कामं हेट्ठापि वट्टकथाव कथिता, इध पन दिट्ठिगतिकस्स वट्टतो सीसुक्खिपनासमत्थताविभावनवसेन मिच्छादिट्ठिया महासावज्जभावदीपनियकथा पकासिताति तं दस्सेन्तो "वट्टकथा कथिता"ति आह । ननु वट्टमूलं अविज्जा तण्हा, ता अनामसित्वा ततो अञथा कस्मा इध वट्टकथा कथिताति आह "भगवा ही"तिआदि । अविज्जासीसेनाति अविज्जं उत्तमङ्गं कत्वा, अविज्जामुखेनाति अत्थो । कोटि न पचायतीति “असुकस्स नाम सम्मासम्बुद्धस्स, चक्कवत्तिनो वा काले अविज्जा उप्पन्ना, न ततो पुब्बे अत्थी''ति अविज्जाय आदि मरियादा अप्पटिहतस्स मम सब्ब तञाणस्सापि न पञ्जायति अविज्जमानत्ता एवाति अत्थो । अयं पच्चयो इदप्पच्चयो, तस्मा इदप्पच्चया, इमस्मा आसवादिकारणाति अत्थो । भवतण्हायाति भवसंयोजनभूताय तण्हाय । भवदिट्ठियाति सस्सतदिट्ठिया । “तत्थ तत्थ उपपज्जन्तो"ति इमिना “इतो एत्थ एत्तो इधा''ति एवं अपरियन्तं अपरापरुप्पत्तिं दस्सेति । तेनाह "महासमुद्दे"तिआदि । १२६. पच्चयाकारमूळहस्साति भूतकथनमेतं, न विसेसनं । सब्बोपि हि दिट्ठिगतिको पच्चयाकारमूळ्हो एवाति । विवढे कथेन्तोति वट्टतो विनिमुत्तत्ता विवढें, विमोक्खो, तं 99 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० दीघनिकाये महावग्गटीका (२.१२६-१२६) कथेन्तो। कारकस्साति सत्थुओवादकारकस्स, सम्मापटिपज्जन्तस्साति अत्थो। तेनाह "सतिपट्ठानविहारिनो"ति । सो हि वेदनानुपस्सनाय, धम्मानुपस्सनाय च सम्मापटिपत्तिया "नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सती"तिआदिना वत्तब्बतं अरहति । तेनाह "एवरूपो ही"तिआदि। सब्बधम्मेसूति सब्बेसु तेभूमकधम्मेसु । ते हि सम्मसनीया । न अञन्ति वेदनाय अनं सज्ञादिधम्मं अत्तानं न समनुपस्सतीति । "खन्धलोकादयो"ति रूपादिधम्मा एव वुच्चन्ति, तेसं समूहोति दस्सेतुं “रूपादीसु धम्मेसूति वुत्तं । न उपादियति दिद्वितण्हागाहवसेन । “सेय्योहमस्मी"तिआदिना (सं० नि० २.४.१०८; महानि० २१, १७८; ध० स० ११२१; विभं० ८३२, ८६६) पवत्तमानमञनापि तण्हादिट्ठिमञ्जना विय परितस्सनरूपा एवाति आह "तण्हादिट्ठिमानपरितस्सनायपी'ति । सा एवं दिट्ठीति सा अरहतो एवंपकारा दिट्ठीति यो वदेय्य, तदकल्लं, तं न युत्तन्ति अत्थो। एवमस्स दिट्ठीति एत्थापि एवंपकारा अस्स अरहतो दिट्ठीतिआदिना योजेतब्बं । एवहि सतीति यो वदेय्य “होति तथागतो परं मरणा इतिस्स दिट्ठी"ति, तस्स चे वचनं तथेवाति अत्थो । “अरहा न किञ्चि जानाती"ति वुत्तं भवेय्य जानतो तथा दिट्ठिया अभावतो। तेनेवाति तथा वत्तुमयुत्तत्ता एव । चतुम्पि नयानन्ति “होति तथागतो"तिआदिना आगतानं चतन्नं वारानं । आदितो तीस वारेस सजिपित्वा परियोसानवारे वित्थारितत्ता “अवसाने 'तं किस्स हेतू'तिआदिमाहा"ति वुत्तं । “आदितो तीसु वारेसु तथैव देसना पवत्ता, यथा परियोसानवारे, पाळि पन सङित्ता''ति केचि । वोहारोति “सत्तो इत्थी पुरिसो''तिआदिना, “खन्धाआयतनानी''तिआदिना, “फस्सो वेदना'तिआदिना च वोहारितब्बवोहारो। तस्स पन वोहारस्स पवत्तिट्ठानं नाम सङ्केपतो इमे एवाति आह “खन्धा आयतनानि धातुयो"ति । यस्मा निब्बानं पुब्बभागे सङ्घारानं निरोधभावेनेव पापियति च, तस्मा तस्सापि खन्धमुखेन अवचरितब्बता लब्भतीति "पाय अवचरितळ खन्धपञ्चक"न्ति वुत्तं । तेनाह भगवा “इमस्मिंयेव ब्याममत्ते कळेवरे ससअिम्हि समनके लोकञ्च पञपेमि लोकसमुदयञ्च लोकनिरोधञ्च लोकनिरोधगामिनिञ्च पटिपद"न्ति । (सं० नि० १.१.१०७; अ० नि० १.४.४५) पञ्जावचरन्ति वा तेभूमकधम्मानमेतं गहणन्ति “खन्धपञ्चक"न्त्वेव वुत्तं, तस्मा “यावता पञ्जा''ति एत्थापि लोकियपञ्जाय एव गहणं दट्ठब्बं । वट्टकथा हेसाति । तथा हि “यावता वर्ल्ड वट्टति" इच्चेव वुत्तं । तेनेवाह "तन्ताकुलकपदस्सेव अनुसन्धि दस्सितो''ति । यस्मा भगवा दिट्ठिसीसेनेत्थ वट्टकथं कथेत्वा यथानुसन्धिनापि वट्टकथं कथेसि, तस्मा 100 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२७-१२७) सत्तविञ्ञाणट्ठितिवण्णना “तन्ताकुलकपदस्सेव अनुसन्धि दस्सितो" ति सावधारणं कत्वा वृत्तं । पटिच्चसमुप्पादकथा पनेत्थ यावदेव तस्स गम्भीरभावविभावनत्थाय वित्थारिता, विवट्टकथापि समाना इध पच्चामट्ठाति दट्टब्बं । सत्तविञ्ञाणद्वितिवण्णना १२७. गच्छन्तो गच्छन्तोति समथपटिपत्तियं सुप्पतिट्ठितो हुत्वा विपस्सनागमनेन, मग्गगमनेन च गच्छन्तो गच्छन्तो । उभोहि भागेहि मुच्चनतो उभतोभागविमुत्तो नाम होति । सो “एवं असमनुपस्सन्तो 'ति वुत्तो विपस्सनायानिकोति कत्वा “यो च न समनुपस्सतीति वुत्तो सो यस्मा गच्छन्तो गच्छन्तो पञ्ञाविमुत्तो नाम होती "ति वृत्तं । हेट्ठा वुत्तानन्ति "कित्तावता च, आनन्द, अत्तानं न पञ्ञपेन्तो न पञ्ञापेती 'ति आदिना (दी० नि० २.११९), “यतो खो, आनन्द, भिक्खु नेव वेदनं अत्तानं समनुपस्सती 'तिआदिना (दी० नि० २.१२५ आदयो) च हेट्ठा पाळियं आगतानं द्विन्नं पुथुज्जनभिक्खूनं । निगमनन्ति निस्सरणं | नामन्ति पञ्ञाविमुत्तादिनामं । १०१ पटिसन्धिवसेन वृत्ताति नानत्तकायनानत्तसञ्ञिताविसेसविसिट्ठपटिसन्धिवसेन वुत्ता सत्त विञ्ञाणट्ठितियो । तंतंसत्तनिकायं पति निस्सयतो हि नानत्तकायादिता तंपरियापन्नपटिसन्धिसमुदागताति दट्ठब्बा तदभिनिब्बत्तककम्मभवस्स तथा आयूहितत्ता | चतस्सो आगमिस्सन्तीति रूपवेदनासञ्ञासङ्घारक्खन्धवसेन चतस्सो विञ्ञाणट्ठितियो आगमिस्सन्ति ‘“रूपुपायं वा आवुसो विञ्ञाणं तिट्ठमानं तिट्ठतीतिआदिना (दी० नि० ३.३११)। विञ्ञाणपतिट्ठानस्साति पटिसन्धिविञ्ञाणस्स एतरहि पतिट्ठानकारणस्स । अत्थतो वुत्तविसेसविसिट्ठा पञ्चवोकारे रूपवेदनासञसङ्घारक्खन्धा, चतुवोकारे वेदनादयो यो खन्धा वेदितब्बा | सत्तावासभावं उपादाय " द्वे च आयतनानीति द्वे निवासट्टानानी " ति वुत्तं । निवासट्ठानपरियायोपि आयतनसद्दो होति यथा “देवायतनद्वय "न्ति । सब्बन्ति विञ्ञाणट्ठिति आयतनद्वयन्ति सकलं । तस्मा गहितं तत्थ एकमेव अग्गहेत्वाति अधिप्पायो । परियादानं अनवसेसग्गहणं न गच्छति वट्टं विञ्ञाणट्ठिति आयतनद्वयानं अञ्ञमञ्ञअन्तोगधत्ता । निदस्सनत्थे निपातो, तस्मा सेय्यथापि मनुस्साति यथा मनुस्साति वृत्तं होति । विसेसो होतियेव सतिपि बाहिरस्स कारकस्स अभेदे अज्झत्तिकस्स भिन्नता । नानत्तं काये एतेसं 101 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.१२७-१२७) नानत्तो वा कायो एतेसन्ति नानत्तकाया, इमिना नयेन सेसपदेसुपि अत्थो वेदितब्बो । नेसन्ति मनुस्सानं । नानत्ता सञ्जा एतेसं अत्थीति नानत्तसञिनो। सुखसमुस्सयतो विनिपातो एतेसं अत्थीति विनिपातिका सतिपि देवभावे दिब्बसम्पत्तिया अभावतो, अपायेसु वा गतो नत्थि निपातो एतेसन्ति विनिपातिका। तेनाह "चतुअपायविनिमुत्ता'ति । धम्मपदन्ति सतिपट्ठानादिधम्मकोट्ठासं । विजानियाति सुतमयेन ताव आणेन विजानित्वा । तदनुसारेन योनिसोमनसिकारं परिब्रूहन्तो सीलविसुद्धिआदिकं सम्मापटिपत्तिं अपि पटिपज्जेम। सा च पटिपत्ति हिताय दिट्ठधम्मिकादिसकलहिताय अम्हाकं सिया। इदानि तत्थ सीलपटिपत्तिं ताव विभागेन दस्सेन्तो “पाणेसु चा"ति गाथमाह । ब्रह्मकाये पठमज्झाननिब्बत्ते ब्रह्मसमूहे, ब्रह्मनिकाये वा भवाति ब्रह्मकायिका। महाब्रह्मनो परिसाय भवाति ब्रह्मपारिसज्जा तस्स परिचारकट्ठाने ठितत्ता। महाब्रह्मनो पुरोहितवाने ठिताति ब्रह्मपुरोहिता। आयुवण्णादीहि महन्तो ब्रह्मानोति महाब्रह्मनो। सतिपि तेसं तिविधानम्पि पठमेन झानेन अभिनिब्बत्तभावे झानस्स पन पवत्तिभेदेन अयं विसेसोति दस्सेतुं "ब्रह्मपारिसज्जा पना"तिआदि वुत्तं । परित्तेनाति हीनेन, सा चस्स हीनता छन्दादीनं हीनताय वेदितब्बा, पटिलद्धमत्तं वा हीनं। कप्पस्साति असङ्ख्येय्यकप्पस्स । हीनपणीतानं मज्झे भवत्ता मज्झिमेन, सा चस्स मज्झिमता छन्दादीनं मज्झिमताय वेदितब्बा, पटिलभित्वा नातिसुभावितं वा मज्झिमं। उपटकप्पोति असङ्ख्येय्यकप्पस्स उपड्डकप्पो । विष्फारिकतरोति ब्रह्मपारिसज्जेहि पमाणतो विपुलतरो, सभावतो उळारतरो च होति । सभावेनपि हि उळारतरोव, तं पनेत्थ अप्पमाणं | तथा हि परित्ताभादीनं, परित्तसभादीनञ्च काये सतिपि सभाववेमत्ते एकत्तवसेनेव ववत्थापीयतीति "एकत्तकाया" त्वेव वुच्चन्ति । पणीतेनाति उक्कटेन, सा चस्स उक्कट्ठता छन्दादीनं उक्कट्ठताय वेदितब्बा, सुभावितं वा सम्मदेव वसिभावं पापितं पणीतं पधानभावं नीतन्ति कत्वा, इधापि कप्पो असङ्ख्येय्यकप्पवसेनेव वेदितब्बो परिपुण्णस्स महाकप्पस्स असम्भवतो । इतीति एवं वुत्तप्पकारेन । तेति “ब्रह्मकायिका''ति वुत्ता तिविधापि ब्रह्मानो । सजाय एकत्ताति तिहेतुकभावेन सजाय एकत्तसभावत्ता । न हि तस्सा सम्पयुत्तधम्मवसेन अझोपि कोचि भेदो अस्थि । एवन्ति इमिना नानत्तकायएकत्तसञिनोति दस्सेति । दण्डउक्कायाति दण्डदीपिकाय | सरतीति धावति विय । विस्सरतीति विप्पकिण्णा विय 102 Jain Education Interational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१२८-१२८) सत्तविज्ञाणट्ठितिवण्णना १०३ धावति । द्वे कप्पाति द्वे महाकप्पा। इतो परेसुपि एसेव नयो। इधाति इमस्मिं सुत्ते । उक्कट्ठपरिच्छेदवसेन आभस्सरग्गहणेनेव सब्बेपि ते परित्ताभा, अप्पमाणाभापि गहिता। सोभना पभा सुभा, सुभाय किण्णा सुभाकिण्णाति वत्तब्बे आ-कारस्स रस्सत्तं, अन्तिम-ण-कारस्स ह-कारञ्च कत्वा "सुभकिण्हा"ति वुत्ता, अट्ठकथायं पन निच्चलाय एकग्घनाय पभाय सुभोति परियायवचनन्ति “सुभेन ओकिण्णा विकिण्णा"ति अत्थो वुत्तो, एत्थापि अन्तिम-ण-कारस्स ह-कारकरणं इच्छितब्बमेव । न छिज्जित्वा छिज्जित्वा पभा गच्छति एकग्घनत्ता। चतुत्थविज्ञाणहितिमेव भजन्ति कायस्स, सञ्जाय च एकरूपत्ता । विपुलसन्तसुखायुवण्णादिफलत्ता वेहप्फला। एत्थाति विआणट्ठितियं । विवट्टपक्खे ठिता नपुनरावत्तनतो। “न सब्बकालिका"ति वत्वा तमेव असब्बकालिकत्तं विभावेतुं "कप्पसतसहस्सम्पी"तिआदि वुत्तं । सोळसकप्पसहस्सच्चयेन उप्पन्नानं सुद्धावासब्रह्मानं परिनिब्बायनतो, अओसञ्च तत्थ अनुप्पज्जनतो बुद्धसुझे लोके सुझं तं ठानं होति, तस्मा सुद्धावासा न सब्बकालिका, खन्धावारट्ठानसदिसा होन्ति सुद्धावासभूमियो । इमिना सुत्तेन सुद्धावासानं सत्तावासभावदीपनेनेव विज्ञाणट्ठितिभावो दीपितो, तस्मा सुद्धावासापि सत्तसु विज्ञाणहितीसु चतुत्थविज्ञाणद्वितिं नवसु सत्तावासेसु चतुत्थसत्तावासंयेव भजन्ति। सुखुमत्ताति सङ्घारावसेससुखुमभावप्पत्तत्ता। परिब्यत्तविज्ञाणकिच्चाभावतो नेव विज्ञाणं, सब्बसो अविाणं न होतीति नाविज्ञाणं, तस्मा परिप्फुटविज्ञाणकिच्चवन्तीसु विाणद्वितीसु अवत्वा। १२८. तञ्च विाणद्वितिन्ति पठमं विज्ञाणट्ठिति । हेट्ठा वुत्तनयेन सरूपतो, मनुस्सादिविभागतो, सोपतो, “नामञ्च रूपञ्चा"ति भेदतो च पजानाति। तस्सा समुदयञ्चाति तस्सा पठमाय विज्ञाणट्ठितिया पञ्चवीसतिविधं समुदयञ्च पजानाति । अत्थङ्गमेपि एसेव नयो। अस्सादेतब्बतो, अस्सादतो च अस्सादं। अयं अनिच्चादिभावो आदीनवो। छन्दरागो विनीयति एतेन, एत्थ वाति छन्दरागविनयो, सह मग्गेन निब्बानं । छन्दरागप्पहानन्ति एत्थापि एसेव नयो । मानदिट्टीनं वसेनाहन्ति वा, तण्हावसेन ममन्ति वा अभिनन्दनापि मानस्स परितस्सना विय दट्ठब्बा। सब्बत्थाति सब्बेसु सेसेसु अट्ठसुपि वारेसु । तत्थाति उपरि तीसु विज्ञाणहितीसु दुतियायतनेसु । तत्थ हि रूपं नत्थि । पुन 103 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दीघनिकाये महावग्गटीका तत्थाति पठमायतने । तत्थ हि एको रूपक्खन्धोव । एत्थाति च तमेव सन्धाय वृत्तं । तत्थ हि रूपस्स कम्मसमुट्ठानत्ता आहारवसेन योजना न सम्भवति । यतो खोति एत्थ तो- सद्दो दा -सद्दो विय कालवचनो “यतो खो, सारिपुत्त, भिक्खुसङ्घो 'तिआदीसु (पारा० २१) वियाति वुत्तं " यदा खोति । अग्गहेत्वाति कञ्चिपि सङ्घारं “एतं ममा’तिआदिना अग्गहेत्वा । पञ्ञाविमुत्तोति अट्ठन्नं विमोक्खानं अनधिगतत्ता सातिसयस्स समाधिबलस्स अभावतो पञ्ञाबलेनेव विमुत्तो । तेनाह “ अट्ठ विमोक्खे असच्छिकत्वा पञ्ञाबलेनेवा "तिआदि । अप्पवत्तिन्ति आयति अप्पवत्तिं कत्वा । पजानन्तो विमुत्तोति वा पञ्ञाविमुत्तो, पठमज्झानफस्सेन विना परिजाननादिप्पकारेहि चत्तारि सच्चानि जानन्तो पटिविज्झन्तो तेसं किच्चानं मत्थकप्पत्तिया निट्ठितकिच्चताय विसेसेन मुत्तोति विमुत्तो । सो पञ्ञाविमुत्तो । सुक्खविपस्सकोति समथभावनासिनेहाभावेन सुक्खा लूखा, असिनिद्धा वा विपस्सना एतस्साति सुक्खविपस्सको । ठत्वाति पादककरणवसेन ठत्वा । अञ्ञतरस्मिन्ति च अञ्ञतर अञ्ञतरस्मिं, एकेकस्मिन्ति अत्थो । एवहिस्स पञ्चविधता सिया। “न हेव खो अट्ठ विमोक्खे कायेन फुसित्वा विहरती 'ति इमिना सातिसयस्स समाधिबलस्स अभावो दीपितो । "पञ्ञाय चस्स दिस्वा" तिआदिना सातिसयस्स पञ्ञबलस्स भावो । पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्तीति न आसवा पञ्ञाय पस्सन्ति, दस्सनकारणा पन परिक्खीणा “दिस्वा परिक्खीणाति वृत्ता । दरसनायत्तपरिक्खयत्ता एव हि दस्सनं आसवानं खयस्स पुरिमकिरिया होति । अविमोक्खवण्णना (२.१२९ - १२९) १२९. एकस्स भिक्खुनो सत्त अरियपुग्गलेसु एकस्स भिक्खुनो । विञ्ञाणट्ठितिआदिना परिजाननादिवसप्प वत्तनिग्गमनञ्च पञ्ञविमुत्तनामञ्च । इतरस्साति उभतोभागविमुत्तस्स । इमे सन्धाय हि पुब्बे “द्विन्नं भिक्खून "न्ति वृत्तं । नट्ठेनाति सभावेन | सभावो हि जाणेन याथावतो अरणीयतो ञातब्बतो " अत्थो ति वुच्चति, सो एव त्थ- कारस्स ट्ठ-कारं कत्वा " अट्ठो "ति वुत्तो । अधिमुच्चनट्ठेनाति अधिकं सविसेसं मुच्चनट्ठेन, एतेन सतिपि सब्बस्सापि रूपावचरज्झानस्स विक्खम्भनवसेन परिपक्खतो विमुत्तभावे येन भावनाविसेसेन तं झानं सातिसयं पटिपक्खतो विमुच्चित्वा पवत्तति, सो भावनाविसेसो दीपितो । भवति समानजातियुत्त भावनाविसेसेन पवत्तिआकारविसेसो, यथा तं सद्धाविमुत्तता दिट्ठप्पत्तस्स । तथा पच्चनीकधम्मेहि सुटु हि 104 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१३०-१३०) अट्ठविमोक्खवण्णना १०५ विमुत्तताय, एवं अनिग्गहितभावेन निरासङ्घताय अभिरतिवसेन सुट्ठ अधिमुच्चनद्वेनपि विमोक्खो। तेनाह “आरम्मणे चा"तिआदि । अयं पनत्थोति अयं अधिमुच्चनट्ठो पच्छिमे विमोक्खे निरोधे नत्थि, केवलो विमुत्तट्ठो एव तत्थ लब्भति, तं सयमेव परतो वक्खति । रूपीति येनायं ससन्ततिपरियापन्नेन रूपेन समन्नागतो, तं यस्स झानस्स हेतुभावेन विसिटुं रूपं होति, येन विसिढेन रूपेन “रूपी"ति वुच्चेय्य रूपी-सद्दस्स अतिसयत्थदीपनतो, तदेव ससन्ततिपरियापन्नरूपवसेन पटिलद्धं झानं इध परमस्थतो रूपीभावसाधकन्ति दट्ठब्बं । तेनाह "अज्झत्त"न्तिआदि । रूपज्झानं रूपं उत्तरपदलोपेन । रूपानीति पनेत्थ पुरिमपदलोपो दट्टब्बो। तेन वुत्तं "नीलकसिणादिरूपानी"ति । रूपे कसिणरूपे सञा रूपसा , सा एतस्स अत्थीति रूपसञी, सञासीसेन झानं वदति । तप्पटिक्खेपेन अरूपसञी । तेनाह "अज्झत्तं न रूपसञ्जी"तिआदि । “अन्तो अप्पनायं सुभन्ति आभोगो नत्थी"ति इमिना पुब्बाभोगवसेन तथा अधिमुत्ति सियाति दस्सेति । एवज्हेत्थ तथावत्तब्बतापत्तिचोदना समत्थिता होति । यस्मा सुविसुद्धेसु नीलादीसु वण्णकसिणेसु तत्थ कताधिकारानं अभिरतिवसेन सुट्टु अधिमुच्चनट्ठो सम्भवति, तस्मा अट्ठकथायं तथा ततियो विमोक्खो संवण्णितो, यस्मा पन मेत्तावसेन पवत्तमाना भावना सत्ते अप्पटिकूलतो दहन्ति तेसु ततो अधिमुच्चित्वाव पवत्तति, तस्मा पटिसम्भिदामग्गे (पटि० म० २१२) "ब्रह्मविहारभावना सुभविमोक्खो''ति वुत्ता, तयिदं उभयम्पि तेन तेन परियायेन वुत्तत्ता न विरुज्झतीति दट्ठब्बं । सब्बसोति अनवसेसतो। न हि चतुन्नं अरूपक्खन्धानं एकदेसोपि तत्थ अवस्सिस्सति। विसुद्धत्ताति यथापरिच्छिन्नकाले निरोधितत्ता। उत्तमो विमोक्खो नाम अरियेहेव समापज्जितब्बतो, अरियफलपरियोसानत्ता दिढेव धम्मे निब्बानप्पत्तिभावतो च । १३०. आदितो पढायाति पठमसमापत्तितो पट्ठाय । याव परियोसाना समापत्ति, ताव । अद्वत्वाति कत्थचि समापत्तियं अट्टितो एव, निरन्तरमेव पटिपाटिया, उप्पटिपाटिया च समापज्जतेवाति अत्थो । तेनाह "इतो चितो च सञ्चरणवसेन वुत्त"न्ति । इच्छति समापज्जितुं । तत्थ "समापज्जति पविसती"ति समापत्तिसमङ्गीपुग्गलो तं तं पविठ्ठो विय होतीति कत्वा वुत्तं । 105 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ दीघनिकाये महावग्गटीका (२.१३०-१३०) दीहि भागेहि विमुत्तोति अरूपज्झानेन विक्खम्भनविमोक्खेन, मग्गेन समुच्छेदविमोक्खेनाति द्वीहि विमुच्चनभागेहि, अरूपसमापत्तिया रूपकायतो, मग्गेन नामकायतोति द्वीहि विमुच्चितब्बभागेहि च विमुत्तो। तेनाह "अरूपसमापत्तिया"तिआदि । विमुत्तोति हि किलेसेहि विमुत्तो, विमुच्चन्तो च किलेसानं विक्खम्भनसमुच्छिन्दनेहि कायद्वयतो विमुत्तोति अयमेत्थ अत्थो । गाथाय च आकिञ्चचायतनलाभिनो उपसिवब्राह्मणस्स भगवता "नामकाया विमुत्तो"ति उभतोभागविमुत्तो मुनि अक्खातो । तत्थ अत्थं पलेतीति अत्थं गच्छति । न उपेति सङ्घन्ति “असुकं नाम दिसं गतो"ति वोहारं न गच्छति । एवं मुनि नामकाया विमुत्तोति एवं अरूपं उपपन्नो सेक्खमुनि पकतिया पुब्बेव रूपकाया विमुत्तो, तत्थ च चतुत्थमग्गं निब्बत्तेत्वा नामकायस्स परिञातत्ता पुन नामकायापि विमुत्तो। उभतोभागविमुत्तो खीणासवो हुत्वा अनुपादाय परिनिब्बानसङ्खातं अत्थं पलेति न उपेति सङ्ख, "खत्तियो ब्राह्मणो"ति एवं आदिकं समनं न गच्छतीति अत्थो । "अञ्जतरतो वुट्ठाया''ति इदं किं आकासानञ्चायतनादीसु अञ्जतरलाभीवसेन वुत्तं, उदाहु सब्बारुप्पलाभीवसेनाति यथिच्छसि, तथा होतु, यदि सब्बारुप्पलाभीवसेन वुत्तं, न कोचि विरोधो । अथ तत्थ अझतरलाभीवसेन वुत्तं, “यतो खो, आनन्द, भिक्खु इमे अट्ठ विमोक्खे अनुलोमम्पि समापज्जती"तिआदिवचनेन विरुज्झेय्याति ? यस्मा अरूपावचरज्झानेसु एकस्सापि लाभी “अट्ठविमोक्खलाभी" त्वेव वुच्चति अट्ठविमोक्खे एकदेसस्सापि तंनामदानसमत्थतासम्भवतो। अयहि अट्ठविमोक्खसमञा समुदाये विय तदेकदेसेपि निरुळ्हापत्तिसमझा वियाति । तेन वुत्तं “आकासानञ्चायतनादीसु अञ्जतरतो वुट्ठाया''ति । “पञ्चविधो होती"ति वत्वा छब्बिधतंपिस्स केचि परिकप्पेन्ति, तं तेसं मतिमत्तं, निच्छितोवायं पञ्हो पुब्बाचरियेहीति दस्सेतुं “केचि पना"तिआदि वुत्तं । तत्थ केचीति उत्तरविहारवासिनो, सारसमासाचरिया च । ते हि "उभतोभागविमुत्तोति उभयभागविमुत्तो समाधिविपस्सनातोति वत्वा रूपावचरसमाधिनापि समाधिपरिपन्थतो विमुत्तिं मञन्ति । एवं रूपज्झानभागेन, अरूपज्झानभागेन च उभतो विमुत्तोति पायसमानो । “तादिसमेवा"ति इमिना यादिसं अरूपावचरज्झानं किलेसविक्खम्भने, तादिसं रूपावचरचतुत्थज्झानं पीति इममत्थं उल्लङ्गेति । तेनाह "तस्मा"तिआदि । उभतोभागविमुत्तपहोति उभतोभागविमुत्तस्स छब्बिधतं निस्साय उप्पन्नपज्हो। वण्णनं निस्सायाति तस्स पदस्स अत्थवचनं निस्साय । चिरेनाति थेरस्स अपरभागे चिरेन कालेन । 106 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२.१३०-१३०) अट्ठविमोक्खवण्णना १०७ विनिच्छयन्ति संसयछेदकं सन्निट्ठानं पत्तो। तं पञ्हन्ति तमत्थं । ञातुं इच्छितो हि अत्थो पहो । न केनचि सुतपुब्बन्ति केनचि किञ्चि न सुतपुब्बं, इदं अत्थजातन्ति अधिप्पायो । किञ्चापि उपेक्खासहगतं, किञ्चापि किलेसे विक्खम्भेतीति पच्चेकं किञ्चापि-सद्दो योजेतब्बो। समुदाचरतीति पवत्तति । तत्थ कारणमाह "इमे ही"तिआदिना, तेन रूपावचरभावनतो आरुप्पभावना सविसेसं किलेसे विक्खम्भेति रूपविरागभावनाभावतो, उपरिभावनाभावतो चाति दस्सेतीति । एवञ्च कत्वा अट्ठकथायं आरुप्पभावनानिइसे यं वुत्तं “तस्सेवं तस्मिं निमित्ते पुनप्पुनं चित्तं चारेन्तस्स नीवरणानि विक्खम्भन्ति सति सन्तिद्वती"तिआदि, (विसुद्धि० १.२८१) तं समत्थतं होतीति । इदं सुत्तन्ति पुग्गलपञ्जत्तिपाठमाह (पु० प० निद्देस २७)। सब्बहि बुद्धवचनं अत्थसूचनादिअत्थेन सुत्तन्ति वुत्तो वायमत्थो । यं पन तत्थ वत्तब्बं, तं हेट्ठा वुत्तमेव । अट्ठन्नं विमोक्खानं अनुलोमादितो समापज्जनेन सातिसयं सन्तानस्स अभिसङ्घतत्ता, अट्ठमञ्च उत्तमं विमोक्खं पदट्ठानं कत्वा विपस्सनं वड्डेत्वा अग्गमग्गाधिगमेन उभतोभागविमुच्चनतो च इमाय उभतोभागविमुत्तिया सब्बसेठ्ठता वेदिताति दट्ठब्बा । महानिदानसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 107 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. महापरिनिब्बानसुत्तवण्णना १३१. पूजनीयभावतो, बुद्धसम्पदञ्च पहाय पवत्तता महन्तञ्च तं परिनिब्बानञ्चाति महापरिनिब्बानं; सवासनप्पहानतो महन्तं किलेसक्खयं निस्साय पवत्तं परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बानं; महता कालेन महता वा गुणरासिना साधितं परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बानं; महन्तभावाय, धातूनं बहुभावाय परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बान; महतो लोकतो निस्सटं परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बानं; सब्बलोकासाधारणत्ता बुद्धानं सीलादिगुणेहि महतो बुद्धस्स भगवतो परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बानं; महति सासने पतिहिते परिनिब्बानन्तिपि महापरिनिब्बानन्ति बुद्धस्स भगवतो परिनिब्बानं वुच्चति, तप्पटिसंयुत्तं सुत्तं महापरिनिब्बानसुत्तं। गिज्झा एत्थ वसन्तीति गिझं, गिज्झं कूटं एतस्साति गिज्झकूटो, गिज्झं विय वा गिझं, कूटं, तं एतस्साति गिज्झकूटो, पब्बतो, तस्मिं गिज्झकूटे। तेनाह "गिज्झा"तिआदि । अभियातुकामोति एत्थ अभि-सद्दो अभिभवनत्थो, “अभिविजानातू"तिआदीसु (दी० नि० २.२४४; ३.८५; म० नि० ३.२५६) वियाति आह "अभिभवनत्थाय यातुकामो"ति । वज्जिराजानोति “वज्जेतब्बा इमे"तिआदितो पवत्तं वचनं उपादाय “वज्जी"ति लद्धनामा राजानो, वज्जीरट्ठस्स वा राजानो वज्जिराजानो। वज्जिरट्ठस्स पन वज्जिसमा तन्निवासिराजकुमारवसेन वेदितब्बा। राजिद्धियाति राजभावानुगतेन सभावेन । सो पन सभावो नेसं गणराजूनं मिथो सामग्गिया लोके पाकटो, चिरट्ठायी च अहोसीति “समग्गभावं कथेसी"ति वुत्तं । अनु अनु तंसमङ्गिनो भावेति वड्ढेतीति अनुभावो, अनुभावो एव आनुभावो, पतापो, सो पन नेसं पतापो हथिअस्सादिवाहनसम्पत्तिया, तत्थ च सुसिक्खितभावेन लोके पाकटो जातोति "एतेन...पे०... कथेसी"ति वुत्तं । ताळच्छिग्गलेनाति कुञ्चिकाछिद्देन । असनन्ति सरं । अतिपातयिस्सन्तीति अतिक्कामेन्ति । पोवानुपोङ्घन्ति पोङ्खस्स अनुपोज़, पुरिमसरस्स पोङ्खपदानुगतपोचं इतरं सरं कत्वाति अत्थो । अविराधितन्ति अविरज्झितं । उच्छिन्दिस्सामीति उम्मूलनवसेन कुलसन्ततिं छिन्दिस्सामि | 108 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३४ - १३४) अयनं वड्डनं अयो, तप्पटिक्खेपेन अनयोति आह " अवड्डिया एतं नाम "न्ति । विक्खिपतीति विदूरतो खिपति, अपनेतीति अत्थो । राजअपरिहानियधम्मवण्णना गङ्गायन्ति गङ्गासमीपे। पट्टनगामन्ति सकटपट्टनगामं । आणाति आणा वत्तति । अड्ढयोजनन्ति च तस्मिं पट्टने अड्ढयोजनट्ठानवासिनो सन्धाय वृत्तं । तत्राति तस्मिं पट्टने । बलवाघातजातोति उप्पन्नबलवकोधो । मेति मय्हं । गतेनाति गमनेन । सन्निपात भेरियाति ओसीदमानेति हायमाने । राज अपरिहानियधम्मवण्णना १३४. सीतं वा उण्हं वा नत्थि, तायं वेलायं पुञ्ञानुभावेन बुद्धानं सब्बकालं समसीतुण्हाव उतु होति तं सन्धाय तथा वृत्तं । अभिण्हं सन्निपाताति निच्चसन्निपाता, तं पन निच्चसन्निपाततं दस्सेतुं “दिवसस्सा "तिआदि वृत्तं । सन्निपातबहुलाति परसन्निपाता । वोसानन्ति सङ्कोचं । “यावकीवन्ति एकमेवेतं पदं अनियमतो परिमाणवाची, कालो चेत्थ अधिप्पेतोति आह “यत्तकं काल "न्ति । " वुद्धियेवा" तिआदिना वुत्तमत्थं व्यतिरेकमुखेन दस्सेतुं “अभिहं असन्निपतन्ता ही "तिआदि वृत्तं । आकुलाति खुभिता, न पसन्ना । भिज्जित्वाति वग्गबन्धतो विभज्ज विसुं विसुं हुत्वा । सन्निपातारोचनभेरिया । अड्डभुत्ता १०९ पुब्बे अकतन्ति पुब्बे अनिब्बत्तं । सुन्ति भण्डं गहेत्वा गच्छन्तेहि पब्बतखण्ड नदीतित्थगामद्वारादीसु राजपुरिसानं दातब्बभागं । बलिन्ति निप्फन्नसस्सादितो छभागं, सत्तभागन्ति आदिना लद्धकरं । दण्डन्ति दसवीसतिकहापणादिकं अपराधानुरूपं गहेतब्बधनदण्डं | वज्जिधम्मन्ति वज्जिराजधम्मं । इदानि अपञ्ञत्तपञ्ञापनादीसु तप्पटिक्खेप आदीनवानिसंसे वित्थारतो दस्सेतुं “तेसं अपञ्ञत्त "न्तिआदि वृत्तं । पारिचरियक्खमाति उपट्ठानक्खमा । कुलभोगइस्सरियादिवसेन महती मत्ता पमाणं एतेसन्ति महामत्ता, नीतिसत्थविहिते 109 सामिभुत्ता च । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१३५-१३५) विनिच्छये ठपिता महामत्ता विनिच्छयमहामत्ता, तेसं । देन्तीति निय्यातेन्ति । सचे चोरोति एवंसचिनो सचे होन्ति | पापभीरुताय अत्तना किञ्चि अवत्वा। दण्डनीतिसञिते वोहारे नियुत्ताति वोहारिका, ये “धम्मट्ठा"ति वुच्चन्ति। सुत्तधरा नीतिसुत्तधरा, ईदिसे वोहारविनिच्छये नियमेत्वा ठपिता । परम्पराभतेसु अट्ठसु कुलेसु जाता अगतिगमनविरता अट्ठमहल्लकपुरिसा अट्टकुलिका। सक्कारन्ति उपकारं । गरुभावं पच्चुपट्टपेत्वाति “इमे अम्हाकं गरुनो''ति तत्थ गरुभावं पति पति उपट्टपेत्वा । मानेन्तीति सम्मानेन्ति, तं पन सम्माननं तेसु नेसं अत्तमनतापुब्बकन्ति आह “मनेन पियायन्ती"ति। निपच्चकारन्ति पणिपातं । दस्सेन्तीति “इमे अम्हाकं पितामहा, मातामहा''तिआदिना नीचचित्ता हुत्वा गरुचित्ताकारं दस्सेन्ति | सन्धारेतुन्ति सम्बन्धं अविच्छिन्नं कत्वा घटेतुं । पसरहाकारस्साति बलक्कारस्स । कामं वुद्धिया पूजनीयताय “वुद्धिहानियो''ति वुत्तं, अत्थो पन वुत्तानुक्कमेनेव योजेतब्बो, पाळियं वा यस्मा “बुद्धियेव पाटिकङ्खा, नो परिहानी"ति वुत्तं, तस्मा तदनुक्कमेन "बुद्धिहानियोति वुत्तं। . विपच्चितुं अलद्धोकासे पापकम्मे, तस्स कम्मस्स विपाके वा अनवसरोव देवतोपसग्गो, तस्मिं पन लद्धोकासे सिया देवतोपसग्गस्स अवसरोति आह "अनुप्पन्नं...पे०... वड्डेन्ती"ति । एतेनेव अनुष्पन्नं सुखन्ति एत्थापि अत्थो वेदितब्बो । "बलकायस्स दिगुणतिगुणतादस्सनं, पटिभयभावदस्सन"न्ति एवं आदिना देवतानं सङ्गामसीसे सहायता वेदितब्बा। अनिच्छितन्ति अनिढें । आवरणतोति निसेधनतो । यस्स धम्मतो अनपेता धम्मियाति इध "धम्मिका"ति वुत्ता। मिगसूकरादिघाताय सुनखादीनं कड्डित्वा वनचरणं वाजो, मिगवा, तत्थ नियुत्ता, ते वा वाजेन्ति नेन्तीति वाजिका, मिगवधचारिनो | चित्तप्पवत्तिं पुच्छति। कायिकवाचसिकपयोगेन हि सा लोके पाकटा पकासभूताति । १३५. देवायतनभावेन चितत्ता, लोकस्स चित्तीकारट्ठानत्ता च चेतियं अहोसि। कामकारवसेन किञ्चिपि न करणीयाति अकरणीया। कामकारो पन 110 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३६-१३६) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १११ हत्थगतकरणवसेनाति आह “अग्गहेतब्बाति अत्थो"ति । अभिमुखयुद्धेनाति अभिमुखं उजुकमेव सङ्गामकरणेन । उपलापनं सामं दानञ्चाति दस्सेतुं “अल"न्तिआदि वुत्तं । भेदोपि इध उपायो एवाति वुत्तं "अञत्र मिथुभेदाया'ति । युद्धस्स पन अनुपायता पगेव पकासिता। इदन्ति "अअत्र उपलापनाय. अमत्र मिथभेदा"ति च इदं वचनं । कथाय नयं लभित्वाति “यावकीवञ्च...पे०... नो परिहानी''ति इमाय भगवतो कथाय नयं उपायं लभित्वा । अनुकम्पायाति वज्जिराजेसु अनुग्गहेन । अस्साति भगवतो । कथन्ति वज्जीहि सद्धिं कातब्बयुद्धकथं । उजुं करिस्सामीति पटिराजानो आनेत्वा पाकारपरिखानं अञ्जथाभावापादनेन उजुभावं करिस्सामि । पतिद्वितगुणोति पतिहिताचरियगुणो । इस्सरा सनिपतन्तु, मयं अनिस्सरा, तत्थ गन्त्वा किं करिस्सामाति लिच्छविनो न सत्रिपतिंसूति योजना | सूरा सनिपतन्तूति एत्थापि एसेव नयो। बलभेरिन्ति युद्धाय बलकायस्स उट्ठानभेरिं । भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना १३६. अपरिहानाय हिताति अपरिहानिया, न परिहायन्ति एतेहीति वा अपरिहानिया, ते पन यस्मा अपरिहानिया कारका नाम होन्ति, तस्मा वुत्तं "अपरिहानिकरे"ति । यस्मा पन ते परिहानिकरानं उजुपटिपक्खभूता, तस्मा आह "वुद्धिहेतुभूते"ति। यस्मा भगवतो देसना उपरूपरि आणालोकं पसादेन्ती सत्तानं हदयन्धकारं विधमति, पकासेतब्बे च अत्थे हत्थतले आमलकं विय सुटुतरं पाकटे कत्वा दस्सेति, तस्मा वुत्तं “चन्दसहस्सं...पे०... कथयिस्सामी'ति । यस्मा भगवा "तस्स ब्राह्मणस्स सम्मुखा वज्जीनं अभिण्हसन्निपातादिपटिपत्तिं कथेन्तोयेव अयं अपरिहानियकथा अनिय्यानिका वट्टनिस्सिता, मय्हं पन सासने तथारूपी कथा कथेतब्बा, सा होति निय्यानिका विवट्टनिस्सिता, याय सासनं मय्हं परिनिब्बानतो 111 Jain Education Interational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१३६-१३६) परम्प अद्धनियं अस्स चिरट्ठितिक"न्ति चिन्तेसि, तस्मा भिक्खू सन्निपातापेत्वा तेसं अपरिहानिये धम्मे देसेन्तो तेनेव नियामेन देसेसि । तेन वुत्तं "इदं वज्जिसत्तके वुत्तसदिसमेवा"ति । एवं सोपतो वुत्तमत्थं वित्थारतो दस्सेन्तो "इधापि चा"तिआदिमाह । तत्थ “ततो"तिआदि दिसासु आगतसासने वुत्तं तं कथनं । विहारसीमा आकुला यस्मा, तस्मा उपोसथपवारणा ठिता। ओलीयमानकोति पाळितो, अत्थतो च विनस्समानो। उक्खिपापेन्ताति पगुणभावकरणेन, अत्थसंवण्णनेन च पग्गण्हन्ता । सावत्थियं भिक्खू विय पाचित्तियं देसापेतब्बोति (पारा० ५६५ वित्थारवत्थु)। वज्जिपुत्तका विय दसवत्थुदीपनेन (चळव० ४४६ वित्थारवत्थ)। "गिहिगतानीति गिहिपटिसंयुत्तानी"ति वदन्ति । गिहीसु गतानि, तेहि आतानि गिहिगतानि। धूमकालो एतस्साति धूमकालिकं चितकधूमवूपसमतो परं अप्पवत्तनतो । थिरभावप्पत्ताति सासने थिरभावं अनिवत्तितभावं उपगता। थेरकारकेहीति थेरभावसाधकेहि सीलादिगुणेहि असेक्खधम्मेहि । बहू रतियोति पब्बजिता हुत्वा बहू रत्तियो जानन्ति। सीलादिगुणेसु पतिठ्ठापनमेव सासने परिणायकताति आह "तीसु सिक्खासु पवत्तेन्ती"ति । ओवादं न देन्ति अभाजनभावतो। पवेणीकथन्ति आचरियपरम्पराभतं सम्मापटिपत्तिदीपनं धम्मकथं । सारभूतं धम्मपरियायन्ति समथविपस्सनामग्गफलसम्पापनेन सारभूतंबोज्झङ्गकोसल्लअनुत्तरसीतीभावअधिचित्तसुत्तादिधम्मतन्तिं । पुनब्भवदानं पुनन्भवो उत्तरपदलोपेन । इतरेति आमिसचक्खुका, ते न गच्छन्ति तण्हाय वसं । ये न पच्चयवसिका न आरञ्जकेसूति अरञभागेसु अरञपरियापन्नेसु | ननु यत्थ कत्थचिपि तण्हा सावज्जा एवाति चोदनं सन्धायाह "गामन्तसेनासनेसु ही"तिआदि, तेन "अनुत्तरेसु विमोक्खेसु पिहं उपट्ठापयतो"ति एत्थ वुत्तसिनेहादयो विय आरञकेसु सेनासनेसु सालयता सेवितब्बपक्खिया एवाति दस्सेति । 112 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३७-१३८) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना अत्तनावाति सयमेव, तेन परेहि अनुस्साहितानं सरसेनेव अनागतानं पेसलानं भिक्खूनं आगमनं, आगतानञ्च फासुविहारं पच्चासिसन्तीति दस्सेति । इमिना नीहारेनाति इमाय पटिपत्तिया । अग्गहितधम्मग्गहणन्ति अग्गहितस्स परियत्तिधम्मस्स उग्गहणं । गहितसज्झायकरणन्ति उग्गहितस्स सुट्ठ अत्थचिन्तनं । चिन्तनत्थो हि सज्झायसहो । एन्तीति उपगच्छन्ति । निसीदन्ति आसनपञापनादिना । १३७. आरमितब्बढेन कम्मं आरामो। कम्मे रता, न गन्थधुरे, वासधुरे वाति कम्मरता, अनुयुत्ताति तप्परभावेन पुनप्पुनं पसुता । इति कातब्बकम्मन्ति तं तं भिक्खूनं कातब्बं उच्चावचकम्मं चीवरविचारणादि । तेनाह "सेय्यथिद"न्तिआदि । उपत्थम्भनन्ति दुपट्टतिपट्टादिकरणं । तहि पठमपटलादीनं उपत्थम्भनकारणत्ता तथा वुत्तं । यदि एवं कथं अयं कम्मरामता पटिक्खित्ताति आह "एकच्चो ही"तिआदि । करोन्तो येवाति यथावुत्ततिरच्छानकथं कथेन्तोयेव । अतिरच्छानकथाभावेपि तस्स तत्थ तप्परभावदस्सनत्थं अवधारणवचनं । परियन्तकारीति सपरियन्तं कत्वा वत्ता । “परियन्तवतिं वाचं भासिता''ति (दी० नि० १.९, १९४) हि वुत्तं । अप्पभस्सो वाति परिमितकथोयेव एकन्तेन कथेतब्बस्सेव कथनतो | समापत्तिसमापज्जनं अरियो तुण्हीभावो। निहायतियेवाति निद्दोक्कमने अनादीनवदस्सी निद्दायतियेव । इरियापथपरिवत्तनादिना न नं विनोदेति । एवं संसट्ठो वाति वुत्तनयेन गणसङ्गणिकाय संसट्ठो एव विहरति । दुस्सीला पापिच्छा नामाति सयं निस्सीला असन्तगुणसम्भावनिच्छाय समन्नागतत्ता पापा लामका इच्छा एतेसन्ति पापिच्छा। पापपुग्गलेहि मेत्तिकरणतो पापमित्ता। तेहि सदा सह पवत्तनेन पापसहाया। तत्थ निन्नतादिना तदधिमुत्तताय पापसम्पवङ्का । १३८. सद्धा एतेसं अत्थीति सद्धाति आह "सद्धासम्पन्ना'ति । आगमनीयपटिपदाय 113 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ दीघनिकाये महावग्गटीका अदु० आगतसद्धा आगमनीयसद्धा, सा सातिसया महाबोधिसत्तानं परोपदेसेन विना सद्धेय्यवत्थं अविपरीततो ओगाहेत्वा अधिमुच्चनतोति आह “ सब्बञबोधिसत्तानं होती 'ति । सच्चपटिवेधतो आगतसद्धा अधिगमसद्धा सुरबन्धादीनं (दी० नि० अट्ठ० ३.११८; ध० प० अट्ठ० १.सुप्पबुद्धकुट्ठिवत्थु; उदा० अट्ठ० ४३) विय । “ सम्मासम्बुद्धो भगवा 'तिआदिना बुद्धादीसु उप्पज्जनकपसादो पसादसद्धा महाकप्पिनराजादीनं (अ० नि० १.१.२३१; ध० प० अट्ठ० १. महाकप्पिनत्थेरवत्थु थेरगा० अट्ठ० २.महाकप्पिनत्थेरगाथावण्णना, वित्थारो) विय । " एवमेत"न्ति ओक्कन्तित्वा पक्खन्दित्वा सद्दहनवसेन कप्पनं ओकप्पनं । दुविधापीति पसादसद्धापि ओकप्पनसद्धापि । तत्थ पसादसद्धा अपरनेय्यरूपा होति सवनमत्तेन पसीदनतो । ओकप्पनसद्धा सद्धेय्यवत्थं ओगाहेत्वा अनुपविसित्वा " एवमेत"न्ति पच्चक्खं करोन्ती विय पवत्तति । ह “सद्धाधिमुत्तो वक्कलित्थेरसदिसो होती"ति । तस्स हीति ओकप्पनसद्धाय समन्नागतस्स । हिरी एतस्स अत्थीति हिरि, हिरि मनो एतेसन्ति हिरिमनाति आह "पाप... पे०... चित्ताति । पापतो ओत्तप्पेन्ति उब्बिज्जन्ति भायन्तीति ओत्तप्पी । बहु सुतं सुत्तगेय्यादि एतेनाति बहुस्सुतो, सुतग्गहणं चेत्थ निदस्सनमत्तं धारणपरिचयपरिपुच्छानुपेक्खनदिट्ठिनिज्झानानं पेत्थ इच्छितब्बत्ता । सवनमूलकत्ता वा सम्प तग्गहणेनेव गहणं दट्ठब्बं । अत्थकामेन परियापुणितब्बतो, दिट्ठधम्मिकादिपुरिसत्थसिद्धिया परियत्तभावतो च परियत्ति, तीणि पिटकानि । सच्चप्पटिवेधो सच्चानं पटिविज्झनं । तदपि बाहुसच्चं यथावुत्तबाहुसच्चकिच्चनिप्फत्तितो । परियत्ति अधिप्पेता सच्चपटिवेधावहेन बाहुसच्चेन बहुस्सुतभावस्स इध इच्छितत्ता । सोति परियत्तिबहुस्सुतो । चतुब्बिधो हो पञ्चमस्स पकारस्स अभावतो । सब्बत्थकबहुस्सुतोति निस्सयमुच्चनकबहुस्सुतादयो विय पदेसिको अहुत्वा पिटकत्तये सब्बत्थकमेव बाहुसच्चसब्भावतो सब्बस्स अत्थस्स कायनतो कथनतो सब्बत्थकबहुस्सुतो । ते इध अधिप्पेता पटिपत्तिपटिवेधसद्धम्मानं मूलभूते परियत्तिसद्धम्मे सुप्पतिट्ठितभावतो । (३.१३८ - १३८) आरद्धन्ति पग्गहितं । तं पन दुविधम्पि वीरियारम्भविभागेन दस्सेतुं “ तत्था "तिआदि तं । तत्थ एककात एकाकिनो, वूपकट्ठविहारिनोति अत्थो । पुच्छित्वाति परतो पुच्छित्वा । सम्पटिच्छापेतुन्ति " त्वं असुकनामो 'ति वत्वा तेहि “आमा”ति पटिजानापेतुन्ति अत्थो । एवं चिरकतादि अनुस्सरणसमत्थसतिनेपक्कानं 114 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१३९-१३९) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना ११५ अप्पकसिरेनेव सतिसम्बोज्झङ्गभावनापारिपूरिं गच्छतीति दस्सनत्थं "एवरूपे भिक्खू सन्धाया"ति वुत्तं । तेनेवाह “अपिचा"तिआदि । १३९. बुज्झति एतायाति “बोधी''ति लद्धनामाय सम्मादिट्ठिआदिधम्मसामग्गिया अङ्गोति बोज्झङ्गो, पसत्थो, सुन्दरो वा बोज्झङ्गो सम्बोज्झङ्गो। उपट्टानलक्खणोति कायवेदनाचित्तधम्मानं असुभदुक्खानिच्चानत्तभावसल्लक्खणसङ्खातं आरम्मणे उपट्ठानं लक्खणं एतस्साति उपट्ठानलक्खणो । चतुन्नं अरियसच्चानं पीळनादिप्पकारतो विचयो उपपरिक्खा लक्खणं एतस्साति पविचयलक्खणो। अनुप्पन्ना कुसलानुप्पादनादिवसेन चित्तस्स पग्गहो पग्गण्हनं लक्खणं एतस्साति पग्गहलक्खणो। फरणं विप्फारिकता लक्खणं एतस्साति फरणलक्षणो। उपसमो कायचित्तपरिळाहानं वूपसमनं लक्खणं एतस्साति उपसमलक्खणो। अविखेपो विक्खेपविद्धंसनं लक्खणं एतस्साति अविखेपलक्खणो। लीनुद्धच्चरहिते अधिचित्ते पवत्तमाने पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु अब्यावटत्ता अज्झुपेक्खनं पटिसङ्खानं लक्खणं एतस्साति पटिसङ्खानलक्खणो। चतूहि कारणेहीति सतिसम्पजनं, मुट्ठस्सतिपुग्गलपरिवज्जना, उपद्वितस्सतिपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तताति इमेहि चतूहि कारणेहि । छहि कारणेहीति परिपुच्छकता, वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना, दुप्पञपुग्गलपरिवज्जना, पञ्जवन्तपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तताति इमेहि छहि कारणेहि । महासतिपट्ठानवण्णनायं पन “सत्तहि कारणेही" (दी० नि० अठ्ठ० २.३८५; म० नि० अट्ठ० १.११८) वक्खति, तं गम्भीरञाणचरियापच्चवेक्खणाति इमं कारणं पक्खिपित्वा वेदितब्बं । नवहि कारणेहीति अपायभयपच्चवेक्खणा, गमनवीथिपच्चवेक्खणा, पिण्डपातस्स अपचायनता, दायज्जमहत्तपच्चवेक्खणा, सत्थुमहत्तपच्चवेक्खणा, सब्रह्मचारीमहत्तपच्चवेक्खणा, कुसीतपुग्गलपरिवज्जना, आरद्धवीरियपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तताति इमेहि नवहि कारणेहि । महासतिपढानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.३८५; म० नि० अट्ठ० १.११८) पन आनिसंसदस्साविता, जातिमहत्तपच्चवेक्खणाति इमेहि सद्धिं “एकादसा"ति वक्खति । दसहि कारणेहीति बुद्धानुस्सति, धम्मानुस्सति, सङ्घसीलचागदेवताउपसमानुस्सति, लूखपुग्गलपरिवज्जना, सिनिद्धपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तताति इमेहि दसहि । महासतिपट्ठानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.३८५; म० नि० अट्ठ० १.११८) पन पसादनियसुत्तन्तपच्चवेक्षणाय सद्धिं “एकादसा"ति वक्खति । सत्तहि कारणेहीति पणीतभोजनसेवनता, उतुसुखसेवनता, इरियापथसुखसेवनता, मज्झत्तपयोगता, 115 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१४०-१४१) सारद्धकायपुग्गलपरिवज्जनता, पस्सद्धकायपुग्गलसेवनता, तदधिमुत्तताति इमेहि सत्तहि । दसहि कारणेहीति वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना, निमित्तकुसलता, समये चित्तस्स पग्गहणं, समये चित्तस्स निग्गहणं, समये चित्तस्स सम्पहंसनं, समये चित्तस्स अज्झुपेक्खनं, असमाहितपुग्गलपरिवज्जनं, समाहितपुग्गलसेवनं, तदधिमुत्तताति इमेहि दसहि कारणेहि । महासतिपट्ठानवण्णनायं (दी० नि० अठ्ठ० २.३८५; म० नि० अट्ठ० १.११८) पन “झानविमोक्खपच्चवेक्षणा''ति इमिना सद्धिं “एकादसही"ति वक्खति । पञ्चहि कारणेहीति सत्तमज्झत्तता, सङ्घारमज्झत्तता, सत्तसङ्खारकेलायनपुग्गलपरिवज्जना, सत्तसङ्घारमज्झत्तपुग्गलसेवना, तदधिमुत्तताति इमेहि पञ्चहि कारणेहि । यं पनेत्थ वत्तब्बं, तं महासतिपट्ठानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.३८५; म० नि० अट्ठ० १.११८) आगमिस्सति । कामं बोधिपक्खियधम्मा नाम निप्परियायतो अरियमग्गसम्पयुत्ता एव निय्यानिकभावतो। सुत्तन्तदेसना नाम परियायकथाति "इमिना विपस्सना...पे०... कथेसी"ति वुत्तं । १४०. तेभूमके सङ्घारे “अनिच्चा''ति अनुपस्सति एतायाति अनिच्चानुपस्सना, तथा पवत्ता विपस्सना, सा पन यस्मा अत्तना सहगतसाय भाविताय विभाविता एव होतीति वुत्तं “अनिच्चानुपस्सनाय सद्धिं उप्पन्नसा"ति | सञ्जासीसेन वायं विपस्सनाय एव निद्देसो। अनत्तसञआदीसुपि एसेव नयो। लोकियविपस्सनापि होन्ति, यस्मा "अनिच्च''न्तिआदिना ता पवत्तन्तीति । लोकियविपस्सनापीति पि-सद्देन मिस्सकापेत्थ सन्तीति अत्थतो आपन्नन्ति अत्थापत्तिसिद्धमत्थं निद्धारेत्वा सरूपतो दस्सेतुं "विरागो"तिआदि वुत्तं । तत्थ आगतवसेनाति तथा आगतपाळिवसेन “विरागो निरोधो"ति हि तत्थ निब्बानं वुत्तन्ति इध “विरागसञ्जा, निरोधसञ्जा''ति वुत्तसञ्जा निब्बानारम्मणापि सियुं । तेन वुत्तं "द्वे लोकुत्तरापि होन्ती"ति । १४१. मेत्ता एतस्स अत्थीति मेत्तं, चित्तं । तंसमुट्ठानं कायकम्मं मेत्तं कायकम्मं । एस नयो सेसद्वयेपि। इमानिपि मेत्ताकायकम्मादीनि भिक्खूनं वसेन आगतानि तेसं सेट्ठपरिसभावतो। यथा पन भिक्खूसुपि लब्भन्ति, एवं गिहीसुपि लब्भन्ति चतुपरिससाधारणत्ताति तं दस्सेन्तो "भिक्खूनही"तिआदिमाह। कामं आदिब्रह्मचरियकधम्मस्सवनेनपि मेत्ताकायकम्मानि लब्भन्ति, निप्परियायतो पन चारित्तधम्मस्सवनेन अयमत्थो इच्छितोति दस्सेन्तो "आभिसमाचारिकधम्मपूरण"न्ति आह । तेपिटकम्पि बुद्धवचनं परिपुच्छनअत्थकथनवसेन पवत्तियमानं हितज्झासयेन पवत्तितब्बतो । 116 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४१-१४१) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना ११७ आवीति पकासं, पकासभावो चेत्थ यं उद्दिस्स तं कायकम्मं करीयति, तस्स सम्मुखभावतोति आह "सम्मुखा"ति । रहोति अप्पकासं, अप्पकासता च यं उद्दिस्स तं कायकम्मं करीयति, तस्स पच्चक्खाभावतोति आह “परम्मुखा"ति । सहायभावगमनं तेसं पुरतो। उभयेहीति नवकेहि, थेरेहि च । पग्गयहाति पग्गण्हित्वा उच्चं कत्वा । कामं मेत्तासिनेहसिनिद्धानं नयनानं उम्मीलना, पसन्नेन मुखेन ओलोकनञ्च मेत्तं कायकम्ममेव, यस्स पन चित्तस्स वसेन नयनानं मेत्तासिनेहसिनिद्धता, मुखस्स च पसन्नता, तं सन्धाय वुत्तं "मेत्तं मनोकम्मं नामा"ति । लाभसद्दो कम्मसाधनो “लाभावत, लाभो लद्धो"तिआदीसु विय, सो चेत्थ "धम्मलद्धा'"ति वचनतो अतीतकालिकोति आह "चीवरादयो लद्धपच्चया"ति । धम्मतो आगताति धम्मिका। तेनाह "धम्मलद्धा"ति । इममेव हि अत्थं दस्सेतुं "कुहनादी"तिआदि वुत्तं । चित्तेन विभजनपुब्बकं कायेन विभजनन्ति मूलमेव दस्सेतुं "एवं चित्तेन विभजन"न्ति वुत्तं, तेन चित्तुप्पादमत्तेनपि पटिविभागो न कातब्बोति दस्सेति । अप्पटिविभत्तन्ति भावनपुंसकनिद्देसो, अप्पटिविभत्तं वा लाभं भुञ्जतीति कम्मनिद्देसो एव । तं तं नेव गिहीनं देति अत्तनो आजीवसोधनत्थं । न अत्तना भुजतीति अत्तनाव न परिभुजति “महं असाधारणभोगिता मा होतू"ति। "पटिग्गण्हन्तो च...पे०... पस्सती"ति इमिना तस्स लाभस्स तीसपि कालेस साधारणतो ठपनं दस्सितं । "पटिग्गण्हन्तो । च सङ्केन साधारणं होतू"ति इमिना पटिग्गहणकालो दस्सितो. "गहेत्वा...पे०... पस्सती"ति इमिना पटिग्गहितकालो, तदुभयं पन तादिसेन पुब्बाभोगेन विना न होतीति अत्थसिद्धो पुरिमकालो। तयिदं पटिग्गहणतो पुब्बे वस्स होति “सङ्घन साधारणं होतति पटिग्गहेस्सामी"ति। पटिग्गण्हन्तस्स होति “सङ्केन साधारणं होतति पटिग्गण्हामी"ति । पटिग्गहेत्वा होति “सङ्घन साधारणं होतूति पटिग्गहितं मया''ति एवं तिलक्खणसम्पन्नं कत्वा लद्धलाभं ओसानलक्खणं अविकोपेत्वा परिभुञ्जन्तो साधारणभोगी, अप्पटिविभत्तभोगी च होति । इमं पन सारणीयधम्मन्ति इमं चतुत्थं सरितब्बयुत्तधम्मं । न हि...पे०... गण्हन्ति, 117 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ दीघनिकाये महावग्गटीका तस्मा साधारणभोगिता एव दुस्सीलस्स नत्थीति आरम्भोपि ताव न सम्भवति, कुतो पूरणन्ति अधिप्पायो । “परिसुद्धसीलो "ति इमिना लाभस्स धम्मिकभावं दस्सेति । "वत्तं अखण्डेन्तो’”ति इमिना अप्पटिविभत्तभोगितं, साधारणभोगितञ्च दस्सेति । सति पन तदुभये सारणीयधम्मो पूरितो एव होतीति आह "पूरेती"ति । "ओदिस्सकं कत्वा" ति एतेन अनोदिस्सकं कत्वा पितुनो, आचरियुपज्झायादीनं वा थेरासनतो पट्ठाय देन्तस्स सारणीयधम्मोयेव होतीति । सारणीयधम्मो पनस्स न होतीति पटिजग्गनट्टाने ओदिस्सकं कत्वा दिन्नत्ता । तेनाह “पलिबोधजग्गनं नाम होती "तिआदि । यदि एवं सब्बेन सब्बं सारणीयधम्मपूरकस्स ओदिस्सकदानं न वट्टतीति ? नो न वट्टति युत्तट्ठानेति दस्सेन्तो " तेन पना "तिआदिमाह । गिलानादीनं ओदिस्सकं कत्वा दानं अप्पटिविभागपक्खिकं " असुकस्स न दस्सामी 'ति पटिक्खेपस्स अभावतो । ब्यतिरेकप्पधानो हि पटिविभागो । तेनाह “अवसेस"न्तिआदि । अदातुम्पीति पि-सन दातुम्पि वट्टतीति दस्सेति, तञ्च खो करुणायनवसेन, न वत्तपूरणवसेन । सुसिक्खितायाति सारणीयधम्मपूरणविधिम्हि सुटु सिक्खिताय, सुकुसलायाति अत्थो । इदानि तस्सा कोसल्लं दस्सेतुं " सुसिक्खिताय ही " तिआदि वृत्तं । " द्वादसहि वस्सेहि पूरति, न ततो ओर" न्ति इमिना तस्स दुप्पूरणं दस्सेति । तथा हि सो महफ्फलो महानिसंसो, दिट्ठधम्मिकेहिपि ताव गरुतरेहि फलानिसंसेहि च अनुगतो। तंसमङ्गी च पुग्गलो विसेसलाभी अरियपुग्गलो विय लोके अच्छरियब्भुतधम्मसमन्नागतो होति । तथा हि सो दुप्पजहं दानमयस्स, सीलमयस्स च पुञ्ञस्स पटिपक्खधम्मं सुदूरे विक्खम्भितं कत्वा सुविसुद्धेन चेतसा लोके पाकटो पञ्ञातो हुत्वा विहरति, तस्सिममत्थं ब्यतिरेकतो, अन्वयतो च विभावेतुं "सचे ही "तिआदि वृत्तं तं सुविज्ञेय्यमेव । ( ३.१४१ - १४१) इदान सम्परायिके, दिट्ठधम्मिके च आनिसंसे दस्सेतुं " एव "न्तिआदि वृत्तं । नेव इस्सा, न मच्छरियं होति चिरकालभावनाय विधुतभावतो । मनुस्सानं पियो होति परिच्चागसीलताय विसुद्धत्ता । तेनाह “ददं पियो होति भजन्ति नं बहू 'तिआदि (अ० नि० २.५.३४) । सुलभपच्चयो होति दानवसेन उळारज्झासयानं इधानिसंसभावतो दानस्स । पत्तगतं अस्स दिव्यमानं न खीयति पत्तगतवसेन द्वादसवस्तिकस्स महापत्तस्स अविच्छेदेन पूरितत्ता । अग्गभण्डं लभति देवसिकं दक्खिय्यानं अग्गतो पट्ठाय दिन्नत्ता | भयेवा... पे०... आपज्जन्ति पच्चयलाभस्स दानस्स 118 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४१-१४१) भिक्खुअपरिहानियधम्मवण्णना देय्यपटिग्गाहकविकपं पसादितचित्तत्ता। अकत्वा अत्तनि निरपेक्खचित्तेन चिरकालं दानपूरताय तत्राति तेसु आनिसंसेसु विभावेतब्बेसु । इमानि तं दीपनानि वत्थूनि कारणानि । अलभन्तापीति अमहापुञ्जताय न लाभिनो समानापि। भिक्खाचारमग्गसभागन्ति सभागं तब्भागियं भिक्खाचारमग्गं जानन्ति। अनुत्तरिमनुस्सधम्मत्ता, थेरानं संसयविनोदनत्थञ्च "सारणीयधम्मो मे भन्ते पूरितो"ति आह। तथा हि दुतियवत्थुस्मिम्पि थेरेन अत्ता पकासितो। मनुस्सानं पियताय, सुलभपच्चयतायपि इदं वत्थुमेव । पत्तगताखीयनस्स पन विसेसं विभावनतो "इदं ताव...पे०... एत्थ वत्थु"न्ति वुत्तं । गिरिभण्डमहापूजायाति चेतियगिरिम्हि सकललङ्कादीपे, योजनप्पमाणे समुद्दे च नावासङ्घाटादिके ठपेत्वा दीपपुप्फगन्धादीहि करियमानमहापूजायं । परियायेनपीति लेसेनपि । अनुच्छविकन्ति सारणीयधम्मपूरणतोपि इदं यथाभूतप्पवेदनं तुम्हाकं अनुच्छविकन्ति अत्थो । अनारोचेत्वाव पलायिंसु चोरभयेन । “अत्तनो दुज्जीविकाया''ति च वदन्ति । वट्टिस्सतीति कप्पिस्सति । थेरी सारणीयधम्मपूरिका अहोसि, थेरस्स पन सीलतेजेनेव देवता उस्सुक्कं आपज्जि । नत्थि एतेसं खण्डन्ति अखण्डानि। तं पन नेसं खण्डं दस्सेतुं “यस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ उपसम्पन्नसीलानं उद्देसक्कमेन आदि अन्ता वेदितब्बा। तेनाह "सत्तसू"तिआदि । अनुपसम्पन्नसीलानं पन समादानक्कमेनपि आदि अन्ता लब्भन्ति । परियन्ते छिन्नसाटको वियाति वत्थन्ते, दसन्ते वा छिन्नवत्थं विय, विसदिसूदाहरणं चेतं "अखण्डानी"ति इमस्स अधिगतत्ता । एवं सेसानिपि उदाहरणानि । खण्डितभिन्नता खण्डं, तं एतस्स अत्थीति खण्डं, सीलं। “छिद्द"न्तिआदीसुपि एसेव नयो। वेमज्झे भिन्न विनिविज्झनवसेन विसभागवण्णेन गावी वियाति सम्बन्धो । सबलरहितानि असबलानि । तथा अकम्मासानि। सीलस्स तण्हादासब्यतो मोचनं विवढूपनिस्सयभावापादनं । यस्मा च तंसमङ्गीपुग्गलो सेरी सयंवसी भुजिस्सो नाम होति, तस्मापि भुजिस्सानि । तेनेवाह 119 Jain Education Interational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१४२-१४२) "भुजिस्सभावकारणतो भुजिस्सानी"ति । सुपरिसुद्धभावेन पासंसत्ता विशुपसत्थानि। इमिनाहं सीलेन देवो वा भवेय्यं, देवचतरो वा, तत्थ “निच्चो धुवो सस्सतो''ति, “सीलेन सुद्धी"ति च एवं आदिना तण्हादिट्ठीहि अपरामट्ठत्ता। “अयं ते सीलेसु दोसो"ति चतूसुपि विपत्तीसु याय कायचि विपत्तिया दस्सनेन परामटुं अनुद्धंसेतुं । समाधिसंवत्तनप्पयोजनानि समाधिसंवत्तनिकानि। समानभावूपगतसीलाति सीलसम्पत्तिया समानभावं उपगतसीला सभागवुत्तिका । कामं पुथुज्जनानञ्च चतुपारिसुद्धिसीले नानत्तं न सिया, तं पन न एकन्तिकं, इदं एकन्तिकं नियतभावतोति आह "नत्थि मग्गसीले नानत्त"न्ति । तं सन्धायेतं वुत्तन्ति मग्गसीलं सन्धाय एतं “यानि तानि सीलानी"तिआदि वुत्तं । यायन्ति या अयं मय्हञ्चेव तुम्हाकञ्च पच्चक्खभूता। दिट्ठीति मग्गसम्मादिट्टि । निदोसाति निधुतदोसा, समुच्छिन्नरागादिपापधम्माति अत्थो । निय्यातीति वट्टदुक्खतो निस्सरति निगच्छति । सयं निय्यन्तस्सेव हि "तंसमङ्गीपुग्गलं वट्टदुक्खतो निय्यापेती"ति वुच्चति । या सत्थु अनुसिट्टि, तं करोतीति तक्करो, तस्स, यथानुसिटुं पटिपज्जनकस्साति अत्थो । समानदिविभावन्ति सदिसदिट्ठिभावं सच्चसम्पटिवेधेन अभिन्नदिट्ठिभावं । वुद्धियेवाति अरियविनये गुणेहि वुड्डियेव, नो परिहानीति अयं अपरिहानियधम्मदेसना अत्तनोपि सासनस्स अद्धनियतं आकङ्क्षन्तेन भगवता इध देसिता। १४२. आसनपरिनिब्बानत्ताति कतिपयमासाधिकेन संवच्छरमत्तेन परिनिब्बानं भविस्सतीति कत्वा वुत्तं । एतंयेवाति “इति सील"न्तिआदिकंयेव इति सीलन्ति एत्थ इति-सद्दो पकारत्थो, परिमाणत्थो च एकझं कत्वा गहितोति आह "एवं सीलं एत्तकं सील"न्ति । एवं सीलन्ति एवं पभेदं सीलं। एतकन्ति एतं परमं, न इतो भिय्यो । चतुपारिसुद्धिसीलन्ति मग्गस्स सम्भारभूतं लोकियचतुपारिसुद्धिसीलं। चित्तेकग्गता समाधीति एत्थापि एसेव नयो । यस्मिं सीले ठत्वाति यस्मिं लोकुत्तरकुसलस्स पदट्टानभूते "पुब्बेव खो पनस्स कायकम्मं वचीकम्मं आजीवो सुपरिसुद्धो होती"ति (म० नि० ३.४३१; कथाव० ८७४) एवं वुत्तसीले पतिट्ठाय | एसोति मग्गफलसमाधि । परिभावितोति तेन सीलेन सब्बसो भावितो सम्भावितो। महप्फलो होति महानिसंसोति मग्गसमाधि ताव सामञफलेहि महप्फलो, वट्टदुक्खवूपसमेन महानिसंसो । इतरो पटिप्पस्सद्धिप्पहानेन महप्फलो, निब्बुतिसुखुप्पत्तिया महानिसंसो। यहि समाधिम्हि ठत्वाति यस्मिं 120 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१४३-१४५) सारिपुत्तसीहनादवण्णना १२१ लोकुत्तरकुसलस्स पदट्ठानभूते पादकज्झानसमाधिम्हि चेव वुट्ठानगामिनिसमाधिम्हि च ठत्वा । साति मग्गफलपञआ। तेन परिभाविताति तेन यथावुत्तसमाधिना सब्बसो भाविता परिभाविता । महप्फलमहानिसंसता समाधिम्हि वुत्तनयेन वेदितब्बा। अपि च ते बोज्झङ्गमग्गङ्गझानङ्गप्पभेदहेतुताय महप्फला सत्तदक्खिणेय्यपुग्गलविभागहेतुताय महानिसंसाति वेदितब्बा। याय पञ्जाय ठत्वाति यायं विपस्सनापञ्जायं, समाधिविपस्सनापायं वा ठत्वा । समथयानिकस्स हि समाधिसहगतापि पञ्जा मग्गाधिगमाय विसेसपच्चयो होतियेव | सम्मदेवाति सुद्द्येव यथा आसवानं लेसोपि नावसिस्सति, एवं सब्बसो आसवेहि विमुच्चति । अग्गमग्गक्खणहि सन्धायेतं वुत्तं । १४३. लोकियस्थसद्दानं विय अभिरन्त-सद्दस्स सिद्धि दट्ठब्बा। अभिरन्तं अभिरतं अभिरतीति हि अत्थतो एकं। अभिरन्त-सद्दो चायं अभिरुचिपरियायो, न अस्सादपरियायो । अस्सादवसेन हि कत्थचि वसन्तस्स अस्सादवथुविगमेन सिया तस्स तत्थ अनभिरति, यदिदं खीणासवानं नत्थि, पगेव बुद्धानन्ति आह "बुद्धानं...पे०... नत्थी'ति । अभिरतिवसेन कत्थचि वसित्वा तदभावतो अञत्थ गमनं नाम बुद्धानं नत्थ । वेनेय्यविनयनत्थं पन कत्थचि वसित्वा तस्मिं सिद्धे वेनेय्यविनयनत्थमेव ततो अञत्थ गच्छन्ति, अयमेत्थ यथारुचि । आयामाति एत्थ आ-सद्दो “आगच्छा"ति इमिना समानत्थोति आह "एहि यामा"ति । अयामाति पन पाठे अ-कारो निपातमत्तं । सन्तिकावचरत्ता थेरं आलपति, न पन तदा सत्थु सन्तिके वसन्तानं भिक्खूनं अभावतो । अपरिच्छिन्नगणनो हि तदा भगवतो सन्तिके भिक्खुसङ्घो। तेनाह “महता भिक्खुसङ्घन सद्धि"न्ति । अम्बलढिकागमनन्ति अम्बलट्ठिकागमनपटिसंयुत्तपाठमाह । पाटलिगमनेति एत्थापि एसेव नयो । उत्तानमेव अनन्तरं, हेट्ठा च संवण्णितरूपत्ता । सारिपुत्तसीहनादवण्णना १४५. “आयस्मा सारिपुत्तो"तिआदि पाठजातं । सम्पसादनीयेति सम्पसादनीयसुत्ते (दी० नि० ३.१४१) वित्थारितं पोराणट्ठकथायं, तस्मा मयम्पि तत्थेव नं अत्थतो वित्थारयिस्सामाति अधिप्पायो । 121 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१४८-१५०) दुस्सीलआदीनववण्णना १४८. आगन्त्वा वसन्ति एत्थ आगन्तुकाति आवसथो, तदेव अगारन्ति आह "आवसथागारन्ति आगन्तुकानं आवसथगेह"न्ति । द्विनं राजूनन्ति लिच्छविराजमगधराजूनं । सहायकाति सेवका । कुलानीति कुटुम्बिके । सन्थतन्ति सन्थरि, सब्बं सन्थरि सब्बसन्थरि, तं सब्बसन्थरिं। भावनपुंसकनिद्देसो चायं । तेनाह "यथा सब्बं सन्थतं होति, एव"न्ति । १४९. दुस्सीलोति एत्थ दु-सद्दो अभावत्थो “दुप्पो '"तिआदीसु (म० नि० १.४४९; अ० नि० २.५.१०) विय, न गरहत्थोति आह "असीलो निस्सीलो"ति । भिन्नसंवरोति एत्थ यो समादिन्नसीलो केनचि कारणेन सीलभेदं पत्तो, सो ताव भिन्नसंवरो होति । यो पन सब्बेन सब्बं असमादिन्नसीलो आचारहीनो, सो. कथं भिन्नसंवरो नाम होतीति ? सोपि साधुसमाचारस्स परिहानियस्स भेदितत्ता भिन्नसंवरो एव नाम | विस्सट्ठसंवरो संवररहितोति हि वुत्तं होति । तं तं सिप्पट्ठानं । माघातकालेति “मा घातेथ पाणिनो"ति एवं माघाताति घोसनं घोसितदिवसे । अब्भुग्गच्छति पापको कित्तिसद्दो । अज्झासयेन मङ्गु होतियेव विप्पटिसारिभावतो । तस्साति दुस्सीलस्स। समादाय पत्तिहानन्ति उट्ठाय समुट्ठाय कतकारणं । आपाथं आगच्छतीति तं मनसो उपठ्ठाति। उम्मीलेत्वा इधलोकन्ति उम्मीलनकाले अत्तनो पुत्तदारादिदस्सनवसेन इध लोकं पस्सति। निमीलेत्वा परलोकन्ति निमीलनकाले गतिनिमित्तुपट्ठानवसेन परलोकं पस्सति। तेनाह "चत्तारो अपाया"तिआदि । पञ्चमपदन्ति "कायस्स भेदा'"तिआदिना वुत्तो पञ्चमो आदीनवकोट्ठासो । सीलवन्तआनिसंसवण्णना १५०. वुत्तविपरियायेनाति वुत्ताय आदीनवकथाय विपरियायेन । “अप्पमत्तो तं तं 122 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१५१-१५२) पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना १२३ कसिवाणिज्जादिं यथाकालं सम्पादेतुं सक्कोती'"तिआदिना “पासंसं सीलमस्स अत्थीति सीलवा। सीलसम्पन्नोति सीलेन समन्नागतो । सम्पन्नसीलो"ति एवमादिकं पन अत्थवचनं सुकरन्ति अनामढें । १५१. पाळिमुत्तकायाति सङ्गीतिअनारुळहाय धम्मिकथाय। तत्थेवाति आवसथागारे एव। पाटलिपुत्तनगरमापनवण्णना १५२. इस्सरियमत्तायाति इस्सरियप्पमाणेन, इस्सरियेन चेव वित्तूपकरणेन चाति एवं वा अत्थो दट्टब्बो। उपभोगूपकरणानिपि हि लोके “मत्ता''ति वुच्चन्ति । पाटलिगाम नगरं कत्वाति पुब्बे “पाटलिगामो"ति लद्धनामं ठानं इदानि नगरं कत्वा । मापेन्तीति पतिट्ठापेन्ति । आयमुखपच्छिन्दनत्थन्ति आयद्वारानं उपच्छेदनाय । “सहस्ससेवा"ति वा पाठो, सहस्ससो एव । तेनाह "एकेकवग्गवसेन सहस्सं सहस्सं हुत्वा"ति। घरवत्थूनीति घरपतिठ्ठापनट्ठानानि । चित्तानि नमन्तीति तंतंदेवतानुभावेन तत्थ तत्थेव चित्तानि नमन्ति वत्थुविज्जापाठकानं, यत्थ यत्थ ताहि वत्थूनि परिग्गहितानि । सिप्पानुभावेनाति सिप्पानुगतविज्जानुभावेन | नागग्गाहोति नागानं निवासप्परिग्गहो। सेसद्वयेसुपि एसेव नयो । पासाणोति अप्पलक्खणपासाणो । खाणुकोति यो कोचि खाणुको । सिप्पं जप्पित्वा तादिसं सारम्भट्ठानं परिहरित्वा अनारम्भे ठाने ताहि वत्थुपरिग्गाहिकाहि देवताहि सद्धिं मन्तयमाना विय तंतंगेहानि मापेन्ति उपदेसदानवसेन | नेसन्ति वत्थुविज्जापाठकानं, सब्बासं देवतानं । मङ्गलं वड्डापेस्सन्तीति मङ्गलं ब्रूहेस्सन्ति । पण्डितदस्सनादीनि हि उत्तममङ्गलानि । तेनाह “अथ मय"न्तिआदि । सद्दो अन्भुग्गच्छति अवयवधम्मेन समुदायस्स अपदिसितब्बतो यथा “अलङ्कतो देवदत्तो'"ति । अरियकमनुस्सानन्ति अरियदेसवासिमनुस्सानं । रासिवसेनेवाति “सहस्सं सतसहस्स"न्तिआदिना रासिवसेनेव, अप्पकस्स पन भण्डस्स कयविक्कयो अञत्थापि लब्भतेवाति “रासिवसेनेवा"ति वुत्तं । वाणिजाय पथो पवत्तिट्ठानन्ति वणिप्पथोति पुरिमविकप्पे अत्थो दुतियविकप्पे पन वाणिजानं पथो पवत्तिट्ठानन्ति, वणिप्पथोति इममत्थं 123 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१५३-१५४) दस्सेन्तो “वाणिजानं वसनट्ठान"न्ति आह । भण्डपुटे भिन्दन्ति मोचेन्ति एत्थाति पुटभेदनन्ति अयमेत्थ अत्थोति आह "भण्डपुटे...पे०... वुत्तं होती"ति । च-कारस्थो समुच्चयत्थो वा-सद्दो। १५३. काळकण्णी सत्ताति अत्तना कण्हधम्मबहुलताय परेसञ्च कण्हविपाकानथनिब्बत्तिनिमित्तताय "काळकण्णी"ति लद्धनामा परूपद्दवकरा अप्पेसक्खसत्ता। तन्ति भगवन्तं । पुब्बण्हसमयन्ति पुब्बण्हे एकं समयं । गामप्पविसननीहारेनाति गामप्पवेसन निवसनाकारेन । कायपटिबद्धं कत्वाति चीवरं पारुपित्वा, पत्तं हत्थेन गहेत्वाति अत्थो । वा सकप्पितप्पदेसे। सञतेति सम्मदेव सञते एत्थाति एतस्मिं सुसंवुतकायवाचाचित्ते। पत्तिं ददेय्याति अत्तना पसुतं पुछ तासं देवतानं अनुप्पदज्जेय्य । "पूजिता"तिआदीसु तदेव पत्तिदानं पूजा, अनागते एव उपद्दवे आरक्खसंविधानं पटिपूजा। “येभुय्येन जातिमनुस्सा जातिपेतानं पत्तिदानादिना पूजनमाननादीनि करोन्ति इमे पन अज्ञातकापि समाना तथा करोन्ति, तस्मा नेसं सक्कच्चं आरक्खा संविधातब्बा"ति अचमनं सम्पवारेत्वा देवता तत्थ उस्सुक्कं आपज्जन्तीति दस्सेन्तो "इमे"तिआदिमाह । बलिकम्मकरणं माननं, सम्पति उप्पन्नपरिस्सयहरणं पटिमानन्ति दस्सेतुं "एते"तिआदि वुत्तं । सुन्दरानि पस्सतीति सुन्दरानि इट्ठानि एव पस्सति, न अनिट्ठानि । १५४. आणियो कोट्टेत्वाति लहुके दारुदण्डे गहेत्वा कवाटफलके विय अञमधे सम्बन्धे कातुं आणियो कोठूत्वा । नावास पेन कतं उलुम्पं, वेळुनळादिके सचरित्वा वल्लिआदीहि कलापवसेन बन्धित्वा कत्तब् कुल्लं। उदकट्ठानस्सेतं अधिवचनन्ति यथावुत्तस्स यस्स कस्सचि उदकट्ठानस्स एतं "अण्णव"न्ति अधिवचनं, समुद्दस्सेवाति अधिप्पायो । सरन्ति इध नदी अधिप्पेता सरति 124 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१५५-१५६) अरियसच्चकथावण्णना १२५ सन्दतीति कत्वा । गम्भीरवित्थतन्ति अगाधटेन गम्भीरं, सकललोकत्तयब्यापिताय वित्थतं । विसज्जाति अनासज्ज अप्पत्वा । पल्ललानि तेसं अतरणतो। विनायेव कुल्लेनाति ईदिसं उदकं कुल्लेन ईदिसेन विना एव तिण्णा मेधाविनो जना, तण्हासरं पन अरियमग्गसङ्खातं सेतुं कत्वा नित्तिण्णाति योजना । पठमभाणवारवण्णना निहिता । अरियसच्चकथावण्णना १५५. महापनादस्स रो। पासादकोटियं कतगामोति पासादस्स पतितथुपिकाय पतिट्ठितवाने निविठ्ठगामो । अरियभावकरानन्ति ये पटिविज्झन्ति, तेसं अरियभावकरानं निमित्तस्स कत्तुभावूपचारवसेनेव वुत्तं। तच्छाविपल्लासभूतभावेन सच्चानं। अनुबोधो पुब्बभागियं आणं, पटिवेधो मग्गजाणेन अभिसमयो, तत्थ यस्मा अनुबोधपुब्बको पटिवेधो अनुबोधेन विना न होति, अनुबोधोपि एकच्चो पटिवेधेन सम्बन्धो, तदुभयाभावहेतुकञ्च वट्टेव संसरणं, तस्मा वुत्तं पाळियं “अननुबोधा...पे०... तुम्हाकञ्चा''ति । पटिसन्धिग्गहणवसेन भवतो भवन्तरूपगमनं सन्धावनं, अपरापरं चवनुपपज्जनवसेन सञ्चरणं संसरणन्ति आह "भवतो"तिआदि । सन्धावितसंसरितपदानं कम्मसाधनतं सन्धायाह "मया च तुम्हेहि चा"ति पठमविकप्पे | दुतियविकप्पे पन भावसाधनतं हदये कत्वा "ममञ्चेव तुम्हाकञ्चा"ति यथारुतवसेनेव वुत्तं । नयनसमत्थाति पापनसमत्था, दीघरज्जुना बद्धसकुणं विय रज्जुहत्थो पुरिसो देसन्तरं तण्हारज्जुना बद्धं सत्तसन्तानं अभिसङ्खारो भवन्तरं नेति एतायाति भवनेत्ति, तण्हा, सा अरियमग्गसत्थेन सुटु हता छिन्नाति भवनेत्तिसमूहता। अनावत्तिधम्मसम्बोधिपरायणवण्णना १५६. द्वे गामा "नातिका'"ति एवं लद्धनामो, ञ-कारस्स चायं न कारादेसेन निद्देसो “अनिमित्ता न नायरे"तिआदीसु (विसुद्धि० १.१७४; जा० अट्ठ० २.२.३४) विय । तेनाह "आतिगामके'ति । गिजका वुच्चन्ति इट्ठका, गिञ्जकाहि एव कतो 125 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१५७-१५७) आवसथोति गिजकावसथो। सो किर आवासो यथा सुधापरिकम्मेन सम्पयोजनं नत्थि, एवं इट्टकाहि एव चिनित्वा छादेत्वा कतो। तेन वुत्तं "इट्टकामये आवसथे"ति । तुलादण्डकवाटफलकानि पन दारुमयानेव । १५७. ओरं वुच्चति कामधातु, पच्चयभावेन तं ओरं भजन्तीति ओरम्भागियानि, ओरम्भागस्स वा हितानि ओरम्भागियानि। तेनाह "हेट्ठाभागियान"न्तिआदि । तीहि मग्गेहीति हेट्ठिमेहि तीहि मग्गेहि। तेहि पहातब्बताय हि नेसं संयोजनानं ओरम्भागियता। ओरम्भजियानि वा ओरम्भागियानि वुत्तानि निरुत्तिनयेन । इदानि ब्यतिरेकमुखेन नेसं ओरम्भागियभावं विभावेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । विक्खम्भितानि समत्थताविघातेन पुथुज्जनानं, समुच्छिन्नानि सब्बसो अभावेन अरियानं रूपारूपभवूपपत्तिया विबन्धाय न होन्तीति वुत्तं "अविक्खम्भितानि असमुच्छिन्नानी"ति | निब्बत्तवसेनाति पटिसन्धिग्गहणवसेन । गन्तुं न देन्ति महग्गतगामिकम्मायूहनस्स विनिबन्धनतो। सक्कायदिद्विआदीनि तीणि संयोजनानि कामच्छन्दब्यापादा विय महग्गतूपपत्तिया अविनिबन्धभूतानिपि कामभवूपपत्तिया विसेसपच्चयत्ता तत्थ महग्गतभवे निब्बत्तम्पि तन्निब्बत्तिहेतुकम्मपरिक्खये कामभवूपपत्तिपच्चयताय महग्गतभवतो आनेत्वा पुन इधेव कामभवे एव निब्बत्तापेन्ति, तस्मा सब्बानिपि पञ्चपि संयोजनानि ओरम्भागियानि एव। पटिसन्धिवसेन अनागमनसभावाति पटिसन्धिग्गहणवसेन तस्मा लोका इध न आगमनसभावा । बुद्धदस्सनथेरदस्सनधम्मस्सवनानं पनत्थायस्स आगमनं अनिवारितं । ___ कदाचि करहचि उप्पत्तिया सविरळाकारता परियुट्ठानमन्दताय अबहलताति द्वेधापि तनुभावो। अभिण्हन्ति बहुसो । बहलबहलाति तिब्बतिब्बा । यत्थ उप्पज्जन्ति, तं सन्तानं मद्दन्ता, फरन्ता, साधेन्ता, अन्धकारं करोन्ता उप्पज्जन्ति, द्वीहि पन मग्गेहि पहीनत्ता तनुकतनुका मन्दमन्दा उप्पज्जन्ति। "पुत्तधीतरो होन्ती"ति इदं अकारणं। तथा हि अङ्गपच्चङ्गपरामसनमत्तेनपि ते होन्ति । इदन्ति “रागदोसमोहानं तनुत्ता"ति इदं वचनं । भवतनुकवसेनाति अप्पकभववसेन । तन्ति महासिवत्थेरस्स वचनं पटिक्खित्तन्ति सम्बन्धो । ये भवा अरियानं लब्भन्ति, ते परिपुण्णलक्खणभवा एव । ये न लब्भन्ति, तत्थ कीदिसं तं भवतनुकं, तस्मा उभयथापि भवतनुकस्स असम्भवो एवाति दस्सेतुं "सोतापनस्सा"तिआदि वुत्तं । अट्ठमे भवे भवतनुकं नत्थि अट्ठमस्सेव भवस्स सब्बस्सेव अभावतो । सेसेसुपि एसेव नयो। 126 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१५८-१५८) धम्मादासधम्मपरियायवण्णना १२७ कामावचरलोकं सन्धाय वुत्तं इतरस्स लोकस्स वसेन तथा वत्तुं असक्कुणेय्यत्ता। यो हि सकदागामी देवमनुस्सलोकेसु वोमिस्सकवसेन निब्बत्तति, सोपि कामभववसेनेव परिच्छिन्दितब्बो । भगवता च कामलोके ठत्वा “सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा'"ति वुत्तं, "इमं लोकं आगन्त्वाति च इमिना पञ्चसु सकदागामीसु चत्तारो वज्जेत्वा एकोव गहितो। एकच्चो हि इध सकदागामिफलं पत्वा इधेव परिनिब्बायति, एकच्चो इध पत्वा देवलोके परिनिब्बायति, एकच्चो देवलोके पत्वा तत्थेव परिनिब्बायति, एकच्चो देवलोके पत्वा इधूपपज्जित्वा परिनिब्बायति, इमे चत्तारो इध न लब्भन्ति । यो पन इध पत्वा देवलोके यावतायुकं वसित्वा पुन इधूपपज्जित्वा परिनिब्बायति, अयं इध अधिप्पेतो । अट्ठकथायं पन इमं लोकन्ति कामभवो अधिप्पेतोति इममत्थं विभावेतुं “सचे ही"तिआदिना अख्येव चतुक्कं दस्सितं ।। चतूसु...पे०... सभावोति अत्थो अपायगमनीयानं पापधम्मानं सब्बसो पहीनत्ता । धम्मनियामेनाति मग्गधम्मनियामेन । नियतो उपरिमग्गाधिगमस्स अवस्संभाविभावतो। तेनाह "सम्बोधिपरायणो"ति । धम्मादासधम्मपरियायवण्णना १५८. तेसं तेसं आणगतिन्ति तेसं तेसं सत्तानं "असुको सोतापन्नो, असुको सकदागामी"तिआदिना तंतंत्राणाधिगमनं । जाणूपपत्तिं आणाभिसम्परायन्ति ततो परम्प "नियतो सम्बोधिपरायणो, सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती"तिआदिना च आणसहितं उप्पत्तिपच्चयभावं । ओलोकेन्तस्स आणचक्खुना पेक्खन्तस्स कायकिलमथोव, न तेन काचि वेनेय्यानं अत्थसिद्धीति अधिप्पायो। चित्तविहेसाति चित्तखेदो, सा किलेसूपसंहितत्ता बुद्धानं नत्थि। आदीयति आलोकीयति अत्ता एतेनाति आदासं, धम्मभूतं आदासं धम्मादासं, अरियमग्गाणस्सेतं अधिवचनं, तेन अरियसावका चतूसु अरियसच्चेसु विद्धस्तसम्मोहत्ता अत्तानम्पि याथावतो ञत्वा याथावतो ब्याकरेय्य, तप्पकासनतो पन धम्मपरियायस्स सुत्तस्स धम्मादासता वेदितब्बा। येन धम्मादासेनाति इध पन मग्गधम्ममेव वदति । अवेच्च याथावतो जानित्वा तन्निमित्तउप्पन्नपसादो अवेच्चपसादो, मग्गाधिगमेन 127 Jain Education Interational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ दीघनिकाये महावगटीका (३.१६१-१६१) उप्पन्नपसादो, सो पन यस्मा पासाणपब्बतो विय निच्चलो, न च केनचि कारणेन विगच्छति, तस्मा वुत्तं "अचलेन अच्चुतेना"ति । “पञ्चसीलानी"ति गहठ्ठवसेनेतं वुत्तं तेहि एकन्तपरिहरणीयतो। अरियानं पन सब्बानि सीलानि कन्तानेव । तेनाह "सब्बोपि पनेत्थ संवरो लब्भतियेवा"ति । सब्बेसन्ति सब्बेसं अरियानं । सिक्खापदाविरोधेनाति यथा भूतरोचनापत्ति न होति, एवं । युत्तट्ठानेति कातुं युत्तट्ठाने | अम्बपालीगणिकावत्थुवण्णना १६१. तदा किर वेसाली इद्धा फीता सब्बङ्गसम्पन्ना अहोसि वेपुल्लप्पत्ता, तं सन्धायाह "खन्धके वुत्तनयेन वेसालिया सम्पन्नभावो वेदितब्बो"ति । तस्मिं किर भिक्खुसङ्के पञ्चसतमत्ता भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अहेसुं ओसन्नवीरिया च । तथा हि वक्खति “तत्थ किर एकच्चे भिक्खू ओसन्नवीरिया''तिआदि (दी० नि० अट्ट० २.१६५) । सतिपच्चुपट्ठानत्थन्ति तेसं सतिपच्चुपट्ठापनत्थं । सरतीति कायादिके यथासभावतो जाणसम्पयुत्ताय सतिया अनुस्सरति उपधारेति । सम्पजानातीति समं पकारेहि जानाति अवबुज्झति । अयमेत्थ सङ्ग्रेपो, वित्थारो पन परतो सतिपट्ठानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.३७३; म० नि० अट्ठ० १.१०६) आगमिस्सति । सब्बसङ्गाहकन्ति सरीरगतस्स चेव वत्थालङ्कारगतस्स चाति सब्बस्स नीलभावस्स सङ्गाहकं वचनं । तस्सेवाति नीलाति सब्बसङ्गाहकवसेन वुत्तअत्थस्सेव । विभागदस्सनन्ति पभेददस्सनं । यथा ते लिच्छविराजानो अपीतादिवण्णा एव केचि विलेपनवसेन पीतादिवण्णा खायिंसु, एवं अनीलादिवण्णा एव केचि विलेपनवसेन नीलादिवण्णा खायिंसूति वुत्तं “न तेसं पकतिवण्णो नीलो"तिआदि । नीलो मणि एतेसूति नीलमणि, इन्दनीलमहानीलादिनीलरतनविनद्धा अलङ्कारा । ते किर सुवण्णविरचिते हि मणिओभासेहि एकनीला विय खायन्ति । नीलमणिखचिताति नीलरतनपरिक्खित्ता। नीलवत्थपरिक्खित्ताति नीलवत्थनीलकम्पलपरिक्खेपा । नीलवम्मिकेहीति नीलकघटपरिक्खित्तेहि | सब्बपदेसूति “पीता होन्ती''तिआदिसब्बपदेसु | परिवट्टेसीति पटिघट्टेसि | आहरन्ति इमस्मा राजपुरिसा बलिन्ति आहारो, तप्पत्तजनपदोति आह "साहारन्ति सजनपद"न्ति । अङ्गुलिफोटोपि अङ्गुलिया 128 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६३-१६४) वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना चालनवसेनेव होतीति वुत्तं “अङ्गुलिं चालेसु"न्ति । अम्बकायाति मातुगामेन । उपचारवचने हेतं इत्थीसु, यदिदं “अम्बका मातुगामो जननिका''ति । अवलोकेथाति अपवत्तित्वा ओलोकनं ओलोकेथ । तं पन अपवत्तित्वा ओलोकनं अनु अनु दस्सनं होतीति आह "पुनप्पुनं पस्सथा"ति। उपनेथाति “यथायं लिच्छविराजपरिसा सोभातिसयेन युत्ता, एवं तावतिसपरिसा'ति उपनयं करोथ | तेनाह "तावतिंसेहि समके कत्वा पस्सथा"ति । “उपसंहरथ भिक्खवे लिच्छविपरिसं तावतिंससदिस''न्ति नयिदं निमित्तग्गाहे नियोजनं, केवलं पन दिब्बसम्पत्तिसदिसा एतेसं राजूनं इस्सरियसम्पत्तीति अनुपुब्बिकथाय सग्गसम्पत्तिकथनं विय दट्ठब् । तेसु पन भिक्खूसु एकच्चानं तत्थ निमित्तग्गाहोपि सिया, तं सन्धाय वुत्तं "निमित्तग्गाहे उय्योजेती"ति । हितकामताय तेसं भिक्खूनं यथा आयस्मतो नन्दस्स हितकामताय सग्गसम्पत्तिदस्सनं । तेनाह "तत्र किरा"तिआदि । ओसन्नवीरियाति सम्मापटिपत्तियं अवसन्नवीरिया, ओस्सट्ठवीरिया वाति अत्थो । अनिच्चलक्खणविभावनत्थन्ति तेसं राजूनं वसेन भिक्खूनं अनिच्चलक्खणविभूतभावत्थं । वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना १६३. समीपे वेळुवगामोति पुब्बण्हं वा सायन्हं वा गन्त्वा निवत्तनयोग्ये आसन्नट्ठाने निविठ्ठा परिवारगामो | सङ्गम्माति सम्मा गन्त्वा । अस्साति भगवतो । १६४. फरुसोति कक्खळो, गरुतरोति अत्थो । विसभागरोगोति धातुविसभागताय समुट्ठितो बहलतररोगो, न आबाधमत्तं । आणेन परिच्छिन्दित्वाति वेदनानं खणिकतं, दुक्खतं, अत्तसुञतञ्च याथावतो आणेन परिच्छिज्ज परितुलेत्वा । अधिवासेसीति ता अभिभवन्तो यथापरिमद्दिताकारसल्लक्खणेन अत्तनि आरोपेत्वा वासेसि, न ताहि अभिभुय्यमानो। तेनाह "अविहञमानो"तिआदि। अदक्खियमानोति चेतोदक्खवसेन अदुक्खियमानो, कायदुक्खं पन “नत्थी''ति न सक्का वत्तुं । असति हि तस्मिं अधिवासनाय एव असम्भवोति। अनामन्तेत्वाति अनालपित्वा। अनपलोकेत्वाति अविस्सज्जित्वा । तेनाह "ओवादानुसासनिं अदत्वाति वुत्तं होती"ति । पुब्बभागवीरियेनाति फलसमापत्तिया परिकम्मवीरियेन। फलसमापत्तिवीरियेनाति फलसमापत्तिसम्पयुत्तवीरियेन । 129 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१६५-१६५) विक्खम्भेत्वाति विनोदेत्वा । यथा नाम पुप्फनसमये चम्पकादिरुक्खे वेखे दिन्ने याव सो वेखो नापनीयति, तावस्स पुप्फनसमत्थता विक्खम्भिता विनोदिता होति, एवमेव यथावुत्तवीरियवेखदानेन ता वेदना सत्थु सरीरे यथापरिच्छिन्नं कालं विक्खम्भिता विनोदिता अहेसुं। तेन वुत्तं “विक्खम्भेत्वाति विनोदेत्वा"ति । जीवितम्पि जीवितसङ्घारो कम्मुना सङ्घरीयतीति कत्वा। छिज्जमानं विरोधिपच्चयसमायोगेन पयोगसम्पत्तिया घटेत्वा ठपीयति। अधिटायाति अधिट्ठानं कत्वा। तेनाह “दसमासे मा उप्पज्जित्थाति समापत्तिं समापज्जी'ति । तं पन “अधिट्टानं, पवत्तन"न्ति च वत्तब्बतं अरहतीति वुत्तं "अधिट्ठहित्वा पवत्तेत्वा"ति । खणिकसमापत्तीति तादिसं पुब्बाभिसङ्घारं अकत्वा ठानसो समापज्जितब्बसमापत्ति । पुन सरीरं वेदना अज्झोत्थरति सविसेसपुब्बाभिसङ्खारस्स अकतत्ता । रूपसत्तकअरूपसत्तकानि विसुद्धिमग्गसंवण्णनासु (विसुद्धि० टी० २.७०६, ७१७) वित्थारितनयेन वेदितब्बानि । सुटु विक्खम्भेति पुब्बाभिसङ्खारस्स सातिसयत्ता। इदानि तमत्थं उपमाय विभावेतुं "यथा नामा"तिआदि वुत्तं। अपब्यूळ्होति अपनीतो। चुद्दसहाकारेहि सनेत्वाति तेसंयेव रूपसत्तकअरूपसत्तकानं वसेन चुद्दसहि पकारेहि विपस्सनाचित्तं, सकलमेव वा. अत्तभावं विसभागरोगसञ्जनितलूखभावनिरोगकरणाय सिनेहेत्वा न उप्पज्जियेव सम्मासम्बुद्धन सातिसयसमापत्तिवेगेन सुविक्खम्भितत्ता। गिलानो हुत्वा पुन वुद्वितोति पुब्बे गिलानो हुत्वा पुन ततो गिलानभावतो वुद्वितो । मधुरकभावो नाम सरीरस्स थम्भितत्तं, तं पन गरुभावपुब्बकन्ति आह "सञ्जातगरुभावो सजातथद्धभावो"ति | "नानाकारतो न उपट्ठहन्ती"ति इमिना दिसासम्मोहोपि मे अहोसि सोकबलेनाति दस्सेति । सतिपट्ठानादिधम्माति कायानुपस्सनादयो अनुपस्सनाधम्मा पुब्बे विभूता हुत्वा उपट्ठहन्तापि इदानि महं पाकटा न होन्ति। १६५. अब्भन्तरं करोति नाम अत्तनियेव ठपनतो । पुग्गलं अन्भन्तरं करोति नाम समानत्ततावसेन धम्मेन पुब्बे तस्स सङ्गण्हतो। दहरकालेति अत्तनो दहरकाले । कस्सचि अकथेत्वाति कस्सचि अत्तनो अन्तेवासिकस्स उपनिगूहभूतं गन्थं अकथेत्वा । मुट्ठि कत्वाति मुट्टिगतं विय रहसिभूतं कत्वा | यस्मिं वा नढे सब्बो तंमूलको धम्मो विनस्सति, सो आदितो मूलभूतो धम्मो, मुस्सति विनस्सति धम्मो एतेन नटेनाति मुट्टि, तं तथारूपं मुट्टि कत्वा परिहरित्वा उपितं किञ्चि नत्थीति दस्सेति । 130 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६५ - १६५) वेळुवगामवस्सूपगमनवण्णना अहमेवाति अवधारणं भिक्खुसङ्घपरिहरणस्स अञ्ञसाधारणिच्छादस्सनत्थं, अवधारणेन पन विना “अहं भिक्खुसङ्घ "न्तिआदि भिक्खुसङ्घपरिहरणे अहंकारममंकाराभावदस्सनन्ति दट्ठब्बं । उद्दिसितब्बट्ठेनाति "सत्था "ति उद्दिसितब्बट्टेन । मा वा अहेसुं भिक्खूति अधिप्पायो । " मा वा अहोसी "ति वा पाठो । एवं न होतीति “अहं भिक्खुस परिहरिस्सामी ''तिआदि आकारेन चित्तप्पवत्ति न होति । " पच्छिमवय अनुप्पत्तभावदीपनत्थं वुत्तन्ति इमिना वयो विय बुद्धकिच्चम्पि परियोसितकम्मन्ति दीपेति । सकटस्स बाहप्पदेसे दळहीभावाय वेठदानं बाहबन्धो । चक्कनेमिसन्धीनं दळहीभावाय वेठदानं चक्कबन्धो । तमत्थन्ति वेठमिस्सकेन मञेति वुत्तमत्थं । रूपादयो एव धम्मा सविग्गहो विय उपट्ठानतो रूपनिमित्तादयो, तेसं रूपनिमित्तादीनं । लोकियानं वेदनानन्ति यासं निरोधनेन फलसमापत्ति समापज्जितब्बा, तासं निरोधा फासु होति, तथा बाळ्हवेदनाभितुन्नसरीरस्सापि । तदत्थायाति फलसमापत्तिविहारत्थाय । द्वीहि भागेहि आपो गतो एत्थाति दीपो, ओघेन परिगतो हुत्वा अनज्झोत्थटो भूमिभागो, इध पन चतूहि पि ओघेहि, संसारमहोघेनेव वा अनज्झोत्थटो अत्ता " दीपो 'ति अधिप्पेतो । तेनाह " महासमुद्दगता 'तिआदि । अत्तस्सरणाति अत्तप्पटिसरणा । अत्तगतिका वाति अत्तपरायणाव । मा अञ्ञगतिकाति अञ्यं किञ्चि गतिं पटिसरणं परायणं मा चिन्तयित्थ । कस्मा अत्ता नामेत्थ परमत्थतो धम्मो अब्भन्तरट्ठेन, सो एवं सम्पादितो तुम्हाकं दीपं ताणं गति परायणन्ति। तेन वुत्तं " धम्मदीपा "तिआदि । तथा चाह " अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया "ति (ध० प० १६०, ३८०) उपदेसमत्तमेव हि परस्मिं पटिबद्धं, अञ्ञा सब्बा सम्पत्ति पुरिसस्स अत्ताधीना एव । तेनाह भगवा “तुम्हेहि किच्चं आतप्पं, अक्खातारो तथागता "ति (ध० प० २७६ ) । तमग्गेति तमयोगस्स अग्गे तस्स अतिक्कन्ताभावतो । तेनेवाह “ इमे अग्गतमा "तिआदि । ममाति मम सासने । सब्बेपि ते चतुसतिपट्ठानगोचरा वाति चतुब्बिधं सतिपट्ठानं भावेत्वा ब्रूहेत्वा तदेव गोचरं अत्तनो पवत्तिट्ठानं कत्वा ठिता एव भिक्खू अग्गे भविस्सन्ति । दुतियभाणवारवण्णना निट्ठिता । १३१ 131 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१६६-१६६) निमित्तोभासकथावण्णना १६६. अनेकवारं भगवा वेसालियं विहरति, तस्मा इमं वेसालिप्पवेसनं नियमेत्वा दस्सेतुं “कदा पाविसी"ति पुच्छित्वा आगमनतो पट्ठाय तं दस्सेन्तो "भगवा किरा"तिआदिमाह। आगतमग्गेनेवाति पुब्बे याव वेळुवगामका आगतमग्गेनेव पटिनिवत्तेन्तो । यथापरिच्छेदेनाति यथापरिच्छिन्नकालेन । ततोति फलसमापत्तितो। अयन्ति इदानि वुच्चमानाकारो। दिवाद्वानोलोकनादि परिनिब्बानस्स एकन्तिकभावदस्सनं । ओस्सट्ठोति विस्सठ्ठो आयुसङ्घारो “सत्ताहमेव मया जीवितब्ब''न्ति । जेट्टकनिट्ठभातिकानन्ति सब्बेव सब्रह्मचारिनो सन्धाय वदति । पटिपादेस्सामीति मग्गपटिपत्तिया नियोजेस्सामि । मणिफलकेति मणिखचिते पमुखे अत्थतफलके । तं पठमं दस्सनन्ति यं वेळुवने परिब्बाजकरूपेन आगतस्स सिद्ध दस्सनं, तं पठमदस्सनं । यं वा अनोमदस्सिस्स भगवतो वचनं सद्दहन्तेन तदा अभिनीहारकाले पच्चक्खतो विय तुम्हाकं दस्सनं सिद्धं, तं पठमदस्सनं । पच्चागमनचारिकन्ति पच्चागमनत्थं चारिकं । सत्ताहन्ति अच्चन्तसंयोगे उपयोगवचनं । थेरस्स जातोवरकगेहं किर इतरगेहतो विवेकटुं, विवटङ्गणञ्च, तस्मा देवब्रह्मानं उपसङ्कमनयोग्यन्ति “जातोवरकं पटिजग्गथा"ति वुत्तं । सोति उपरेवतो । तं पवत्तिन्ति तत्थ वसितुकामताय वुत्तं तं । ___ "जानन्तापि तथागता पुच्छन्ती"ति (पारा० १६, १६५) इमिना नीहारेन थेरो “के तुम्हे"ति पुच्छि । “त्वं चतूहि महाराजेहि महन्ततरो"ति पुट्ठो अत्तनो महत्तं सत्थु उपरि पक्खिपन्तो “आरामिकसदिसा एते उपासिके अम्हाकं सत्थुनोति आह । सावकसम्पत्तिकित्तनम्पि हि अत्थतो सत्थु सम्पत्तिंयेव विभावेति । सोतापत्तिफले पतिट्ठायाति थेरस्स देसनानुभावेन, अत्तनो च उपनिस्सयसम्पत्तिया आणस्स परिपक्कत्ता सोतापत्तिफले पतिठ्ठहित्वा । 132 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६७–१६७) निमित्तोभासकथावण्णना १३३ अयन्ति यथावुत्ता । एत्थाति “वेसालिं पिण्डाय पाविसी''ति एतस्मिं वेसालीपवेसे । अनुपुब्बीकथाति अनुपुब्बदीपनी कथा । १६७. उदेनयक्खस्स चेतियट्ठानेति उदेनस्स नाम यक्खस्स आयतनभावेन इट्टकाहि चिते महाजनस्स चित्तीकतट्ठाने । कतविहारोति भगवन्तं उद्दिस्स कतविहारो। बुच्चतीति पुरिमवोहारेन “उदेनचेतिय"न्ति वुच्चति । गोतमकादीसुपीति “गोतमकचेतिय"न्ति एवं आदीसुपि। एसेव नयोति चेतियट्ठाने कतविहारभावं - अतिदिसति। वड्डिताति भावनापारिपूरिवसेन परिब्रूहिता। पुनप्पुनं कताति भावनाय बहुलीकरणेन अपरापरं पवत्तिता। युत्तयानं विय कताति यथा युत्तं आजञयानं छेकेन सारथिना अधिद्वितं यथारुचि पवत्तति, एवं यथारुचिपवत्तिरहतं गमिता । पतिद्वानटेनाति अधिट्ठानद्वैन । वत्थु विय कताति सब्बसो उपक्किलेसविसोधनेन इद्धिविसयताय पवत्तिट्ठानभावतो सुविसोधितपरिस्सयवत्थु विय कता। अधिट्टिताति पटिपक्खदूरीभावतो सुभावितभावेन तंतंअधिट्ठानयोग्यताय ठपिता । समन्ततो चिताति सब्बभागेन भावनुपचयं गमिता । तेनाह "सुवहिता"ति । सुटु समारद्धाति इद्धिभावनाय सिखाप्पत्तिया सम्मदेव संसेविता।। अनियमेनाति “यस्स कस्सची"ति अनियमवचनेन । नियमत्वाति “तथागतस्सा"ति सरूपदस्सनेन नियमेत्वा । आयुप्पमाणन्ति परमायुप्पमाणं वदति, तस्सेव गहणे कारणं ब्रह्मजालसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० १.४०; दी० नि० टी० १.४०) वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । महासिवत्थेरो पन “महाबोधिसत्तानं चरिमभवे पटिसन्धिदायिनो कम्मस्स असङ्ख्येय्यायुकतासंवत्तनसमत्थतं हदये ठपेत्वा बुद्धानं आयुसङ्खारस्स परिस्सयविक्खम्भनसमत्थता पाळियं आगता एवाति इमं भद्दकप्पमेव तिट्ठय्या''ति अवोच । "खण्डिच्चादीहि अभिभुय्यती"ति एतेन यथा इद्धिबलेन जराय न पटिघातो, एवं तेन मरणस्सपि न पटिघातोति अत्थतो आपन्नमेवाति । “क्व सरो खित्तो, क्व च निपतितो"ति अञ्चथा वुट्ठितेनापि थेरवादेन अट्ठकथावचनमेव समस्थितन्ति दट्टब्बं । तेनाह "सो न रुच्चति...पे०... नियमित"न्ति । परियुट्टितचित्तोति यथा किञ्चि अत्थानत्थं सल्लक्खेतुं न सक्का, एवं अभिभूतचित्तो । सो पन अभिभवो महता उदकोघेन अप्पकस्स उदकस्स अज्झोत्थरणं विय अहोसीति वुत्तं "अज्झोत्थटचित्तो"ति । अञोपीति थेरतो, अरियेहि वा अओपि यो कोचि पुथुज्जनो। पुथुज्जनग्गहणञ्चेत्थ यथा सब्बेन सब्द अप्पहीनविपल्लासो मारेन परियुट्टितचित्तो 133 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१६८-१६८) किञ्चि अत्थं सल्लक्खेतुं न सक्कोति, एवं थेरो भगवता कतं निमित्तोभासं सब्बसो न सल्लक्खेसीति दस्सनत्थं । तेनाह "मारो हो"तिआदि । चत्तारो विपल्लासाति असुभे "सुभ"न्ति साविपल्लासो, चित्तविपल्लासो, दुक्खे "सुख''न्ति सज्ञाविपल्लासो, चित्तविपल्लासोति इमे चत्तारो विपल्लासा। तेनाति यदिपि इतरे अट्ठ विपल्लासा पहीना, तथापि यथावुत्तानं चतुन्नं विपल्लासानं अप्पहीनभावेन। अस्साति थेरस्स । मद्दतीति फुसनमत्तेन मद्दन्तो विय होति, अञथा तेन मद्दिते सत्तानं मरणमेव सिया। किं सक्खिस्सति, न सक्खिस्सतीति अधिप्पायो | कस्मा न सक्खिस्सति, ननु एस अग्गसावकस्स कुच्छिं पविठ्ठोति ? सच्चं पविट्ठो, तञ्च खो अत्तनो आनुभावदस्सनत्थं, न विबाधनाधिप्पायेन । विबाधनाधिप्पायेन पन इध “किं सक्खिस्सती"ति वुत्तं हदयमद्दनस्स अधिगतत्ता । निमित्तोभासन्ति एत्थ “तिठ्ठतु भगवा कप्प"न्ति सकलकप्पं अवट्ठानयाचनाय “यस्स कस्सचि आनन्द चत्तारो इद्धिपादा भाविता"तिआदिना अापदेसेन अत्तनो चतुरिद्धिपादभावनानुभावेन कप्पं अवट्टानसमत्थतावसेन सझुप्पादनं निमित्तं, तथा पन परियायं मुञ्चित्वा उजुकंयेव अत्तनो अधिप्पायविभावनं ओभासो। जानन्तोयेव वाति मारेन परियुट्टितभावं जानन्तो एव । अत्तनो अपराधहेतुतो सत्तानं सोको तनुको होति, न बलवाति आह "दोसारोपनेन सोकतनुकरणत्थ"न्ति। किं . पन थेरो मारेन परियुट्टितचित्तकाले पवत्तिं पच्छा जानातीति ? न जानाति सभावेन, बुद्धानुभावेन पन अनुजानाति । मारयाचनकथावण्णना १६८. अनत्थे नियोजेन्तो गुणमारणेन मारेति, विरागविबन्धनेन वा जातिनिमित्तताय तत्थ तत्थ जातं जातं मारेन्तो विय होतीति "मारेतीति मारो"ति वुत्तं । अतिविय पापताय पापिमा। कण्हधम्मेहि समन्नागतो कण्हो। विरागादिगुणानं अन्तकरणतो अन्तको। सत्तानं अनत्थावहपटिपत्तिं न मुच्चतीति नमुचि। अत्तनो मारपासेन पमत्ते बन्धति, पमत्ता वा बन्धू एतस्साति पमत्तबन्धु। सत्तमसत्ताहतो परं सत्त अहानि सन्धायाह "अट्ठमे सत्ताहे"ति न पन पल्लङ्कसत्ताहादि विय नियतकिच्चस्स अट्ठमसत्ताहस्स नाम लब्भनतो । सत्तमसत्ताहस्स हि परतो अजपालनिग्रोधमूले महाब्रह्मनो, सक्कस्स च देवरो पटिञातधम्मदेसनं भगवन्तं ञत्वा "इदानि सत्ते धम्मदेसनाय मम विसयं अतिक्कमापेस्सती"ति सञ्जातदोमनस्सो हुत्वा ठितो चिन्तेसि "हन्द दानाहं नं उपायेन परिनिब्बापेस्सामि, एवमस्स मनोरथो अञथत्तं गमिस्सति, मम च मनोरथो 134 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६८ - १६८) मारयाचनकथावण्णना 66 इज्झिस्सती 'ति । एवं पन चिन्तेत्वा भगवन्तं उपसङ्कमित्वा एकं अन्तं ठितो " परिनिब्बातु दानि भन्ते भगवा 'तिआदिना परिनिब्बानं याचि तं सन्धाय वुत्तं 'अट्टमे सत्ताहे "तिआदि । तत्थ अज्जाति आयुसमारोस्सज्जनदिवसं सन्धायाह । भगवा चस्स अभिसन्धिं जानन्तोपि तं अनाविकत्वा परिनिब्बानस्स अकालभावमेव पकासेन्तो याचनं पटिक्खिपि । तेनाह "न तावाह "न्तिआदि । मग्गवसेन वियत्ताति सच्चसम्पटिवेधवेय्यत्तियेन ब्यत्ता । तथैव विनीताति मग्गवसेन किलेसानं समुच्छेदविनयनेन विनीता । तथा विसारदाति अरियमग्गाधिगमेनेव सत्थुसासने वेसारज्जप्पत्तिया विसारदा, सारज्जकरानं दिट्ठिविचिकिच्छादिपापधम्मानं विगमेन विसारदभावं पत्ताति अत्थो । यस्स सुतस्स वसेन वट्टदुक्खतो निस्सरणं सम्भवति, तं इध उक्कट्ठनिद्देसेन “सुत”न्ति अधिप्पेतन्ति आह “ तेपिटकवसेना "ति । तिण्णं पिटकानं समूहो पिटकं, तीणि वा पिटकानि तिपिटकं, तिपिटकमेव तेपिटकं, तस्स वसेन । तमेवाति यं तं तेपिटकं सोतब्बभावेन " सुत "न्ति वुत्तं तमेव । धम्मन्ति परियत्तिधम्मं । धारेन्तीति सुवण्णभाजने पक्खित्तसीहवसं विय अविनस्सन्तं कत्वा सुप्पगुणसुप्पवत्तिभावेन धारेन्ति हदये ठपेन्ति । इति परियत्तिधम्मवसेन बहुस्सुतधम्मधरभावं दस्सेत्वा इदानि पटिवेधधम्मवसेनपि तं दस्सेतुं “ अथ वा "तिआदि वृत्तं । अरियधम्मस्साति मग्गफलधम्मस्स, नवविधस्सापि वा लोकुत्तरधम्मस्स । अनुधम्मभूतन्ति अधिगमाय अनुरूपधम्मभूतं । अनुच्छविकपटिपदन्ति च तमेव विपस्सनाधम्ममाह, छब्बिधा विसुद्धियो वा । अनुधम्मन्ति तस्सा यथावुत्तपटिपदाय अनुरूपं अभिसल्लेखितं अप्पिच्छतादिधम्मं । चरणसीलाति समादाय पवत्तनसीला । अनु मग्गफलधम्मो एतिस्साति वा अनुधम्मा, वुट्ठानगामिनिविपस्सना, तस्सा चरणसीला । अत्तनो आचरियवादन्ति अत्तनो आचरियस्स सम्मासम्बुद्धस्स वादं । सदेवकस्स लोकस्स आचारसिक्खापनेन आचरियो, भगवा । तस्स वादो, चतुसच्चदेसना । १३५ आचिक्खिस्सन्तीति आदिती कथेस्सन्ति, अत्तना उग्गहितनियामेन परे उग्गण्हापेस्सन्तीति अत्थो । देसेस्सन्तीति वाचेस्सन्ति, पाळिं सम्मा पबोधेस्सन्तीति अत्थो । पञ्ञापेस्सन्तीति पजानापेस्सन्ति, सङ्कापेस्सन्तीति अत्थो । पटुपेस्सन्तीति पकारेहि ठपेस्सन्ति, पकासेस्सन्तीति अत्थो । विवरिस्सन्तीति विवटं करिस्सन्ति । विभजिस्सन्तीति विभत्तं करिस्सन्ति । उत्तानि करिस्सन्तीति अनुत्तानं गम्भीरं उत्तानं पाकटं करिस्सन्ति । सह धम्मेनाति एत्थ धम्म-सद्दो कारणपरियायो “ हेतुम्हि ञाणं धम्मपटिसम्भिदा "तिआदी (विभं० २७०) वियाति आह "सहेतुकेन सकारणेन वचनेना" ति । सप्पाटिहारियन्ति 135 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१६९-१६९) सनिस्सरणं, यथा परवादं भञ्जित्वा सकवादो पतिट्ठहति, एवं हेतुदाहरणेहि यथाधिगतमत्थं सम्पादेत्वा धम्मं कथेस्सन्ति । तेनाह "निय्यानिकं कत्वा धम्म देसेस्सन्ती"ति, नवविधं लोकुत्तरधम्मं पबोधेस्सन्तीति अत्थो। एत्थ च “पञापेस्सन्ती''तिआदीहि छहि पदेहि छ अत्थपदानि दस्सितानि, आदितो पन द्वीहि पदेहि छ ब्यञ्जनपदानि । एत्तावता तेपिटकं बुद्धवचनं संवण्णनानयेन सङ्गहेत्वा दस्सितं होति । वुत्तज्हेतं नेत्तियं “द्वादसपदानि सुत्तं, तं सब्बं ब्यञ्जनञ्च अत्थो चा"ति (नेत्ति० सङ्खारे)। सिक्खत्तयसङ्गहितन्ति अधिसीलसिक्खादिसिक्खत्तयसङ्गहणं । सकलं सासनब्रह्मचरियन्ति अनवसेसं सत्थुसासनभूतं सेठ्ठचरियं । समिद्धन्ति सम्मदेव वड्डितं । झानस्सादवसेनाति तेहि तेहि भिक्खूहि समधिगतझानसुखवसेन | बुद्धिप्पत्तन्ति उळारपणीतभावगमनेन सब्बसो परिवुद्धिं उपगतं । सब्बपालिफुल्लं विय अभिञासम्पत्तिवसेन अभिज्ञासम्पदाहि सासनाभिवुद्धिया मत्थकप्पत्तितो । पतिद्वितवसेनाति पतिट्ठानवसेन, पतिठ्ठप्पत्तियाति अत्थो । पटिवेधवसेन बहुनो जनस्स हितन्ति बाहुजनं। तेनाह "बहुजनाभिसमयवसेना"ति | पुथु पुथुलं भूतं जातं, पुथु वा पुथुत्तं भूतं पत्तन्ति पुथुभूतं। तेनाह "सब्बाकार...पे०... पत्त"न्ति । सुटु पकासितन्ति सुटु सम्मदेव आदिकल्याणादिभावेन पवेदितं । आयुसङ्खारओस्सज्जनवण्णना १६९. सतिं सूपट्टितं कत्वाति अयं कायादिविभागो अत्तभावसञितो दुक्खभारो मया एत्तकं कालं वहितो, इदानि पन न वहितब्बो, एतस्स अवहनत्थं चिरतरं कालं अरियमग्गसम्भारो सम्भतो, स्वायं अरियमग्गो पटिविद्धो, यतो इमे कायादयो असुभादितो सम्मदेव परिञाता, चतुब्बिधम्पि सम्मासतिं यथातथं विसये सुटु उपट्टितं कत्वा । आणेन परिच्छिन्दित्वाति यस्मा इमस्स अत्तभावसञितस्स दुक्खभारस्स वहने पयोजनभूतं अत्तहितं ताव महाबोधिमूले एव परिसमापितं, परहितं पन बुद्धवेनेय्यविनयनं परिसमापितब्बं, तं इदानि मासत्तयेनेव परिसमापनं पापुणिस्सति, तस्मा अभासि "विसाखपुण्णमायं परिनिब्बायिस्सामी''ति, एवं बुद्धआणेन परिच्छिन्दित्वा सब्बभागेन निच्छयं कत्वा। आयुसङ्घारं विस्सज्जीति आयुनो जीवितस्स अभिसङ्खारकं फलसमापत्तिधम्म "न समापज्जिस्सामी''ति विस्सज्जि तंविस्सज्जनेनेव तेन अभिसङ्खरियमानं जीवितसङ्घारं "नप्पवत्तेस्सामी"ति विस्सज्जि। तेनाह "तत्था"तिआदि। ठानमहन्ततायपि पवत्तिआकारमहन्ततायपि महन्तो पथवीकम्पो। तत्थ ठानमहन्तताय भूमिचालस्स महत्तं 136 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१६९-१६९) आयुसङ्घारओस्सज्जनवण्णना दस्सेतुं “ तदा किर... पे०... कम्पित्था" ति वुत्तं । सा पन जातिक्खेत्तभूता दससस्सी लोकधातु एव न या काचि, या महाभिनीहारमहाजाति आदीसुपि कम्पित्थ । तदापि तत्तिकाय एव कम्पने किं कारणं ? जातिक्खेत्तभावेन तस्सेव आदितो परिग्गहस्स कतत्ता | परिग्गहकरणं चस्स धम्मताक्सेन वेदितब्बं । तथा हि पुरिमबुद्धानम्पि तावतकमेव जातिक्खेत्तं अहोसि । तथा हि वुत्तं “दससहस्सी लोकधातू, निस्सद्दा होन्ति निराकुला...पे०... महासमुद्दो आभुजति, दससहस्सी पकम्पती 'ति च आदि (बु० वं० ८४-९१) । उदकपरियन्तं कत्वा छप्पकारपवेधनेन अवीतरागे भिसेतीति भिसनो, सो एव भिसनकोति आह “भयजनको’ति । देवभेरियोति देवदुन्दुभिसद्दस्स परियायवचनमत्तं । न चेत्थ काचि भेरी "देवदुन्दुभी 'ति अधिप्पेता, अथ खो उप्पातभावेन लब्भमानो आकासगतो निग्घोससद्दो । तेनाह “देवो "तिआदि । देवोति मेघो । तस्स हि अच्छभावेन आकासस्स वस्साभावेन सुक्खगज्जितसञ्जिते सद्दे निच्छरन्ते देवदुन्दुभिसमञ्ञा । तेनाह “देवो सुक्खगज्जितं गज्जी " ति | पीतिवेगविस्सट्ठन्ति “ एवं चिरतरं कालं वहितो अयं अत्तभावसञ्ञितो दुक्खभारो, इदानि न चिरस्सेव निक्खिपिस्सती 'ति सञ्जातसोमनस्सो भगवा सभावेनेव पीतिवेगविस्स उदानं उदानेसि । एवं पन उदानेन्तेन अयम्पि अत्थो साधितो होतीति दस्सनत्थं अट्ठकथायं “कस्मा "तिआदि वृत्तं । तुलीयतीति तुलन्ति तुल- सद्दो कम्मसाधनोति दस्सेतुं "तुलित "न्ति वृत्तं । अप्पानुभावताय परिच्छिन्नं । तथा हि तं परितो खण्डितभावेन " परित्त "न्ति वुच्चति । परिपक्खविक्खम्भनतो दीघसन्तानताय, विपुलफलताय च न तुलं न परिच्छिन्नं । येहि कारणेहि पुब्बे अविसेसतो महग्गतं " अतुल "न्ति वुत्तं तानि कारणानि रूपावचरतो आरुप्पस्स सातिसयानि विज्जन्तीति “अरूपावचरं अतुल "न्ति वुत्तं, इतरञ्च " तुल" न्ति, अप्पविपाकं तीसुपि कम्मेसु यं तनुविपाकं हीनं, तं तुलं । बहुविपाकन्ति यं महाविपाकं पणीतं तं अतुलं । यं पनेत्थ मज्झिमं तं हीनं, उक्कट्ठन्ति द्विधा भिन्दित्वा द्वीसु भागेसु पक्खिपितब्बं । हीनत्तिकवण्णनायं वृत्तनयेनेव अप्पबहुविपाकतं निद्धारेत्वा तस्स वसेन तुलातुलभावो वेदितब्बो । सम्भवति एतस्माति सम्भवत आह 'सम्भवस्स हेतुभूत "न्ति । नियकज्झत्तरतोति ससन्तानधम्मेसु विपस्सनावसेन, गोचरासेवनाय च निरतो । सविपाकं समानं पवत्तिविपाकमत्तदायिकम्मं सविपाकट्ठेन सम्भवं । न च तं कामादिभवाभिसङ्घारकन्ति ततो विसेसनत्थं " सम्भव "न्ति वत्वा "भवसङ्कार "न्ति वृत्तं । ओस्सज्जीति अरियमग्गेन १३७ 137 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१७१-१७१) अवस्सज्जि । कवचं विय अत्तभावं परियोनन्धित्वा ठितं अत्तनि सम्भूतत्ता अत्तसम्भवं किलेसञ्च अभिन्दीति किलेसभेदसहभाविकम्मोस्सज्जनं दस्सेन्तो तदुभयस्स कारणं अवोच "अज्झत्तरतो समाहितो"ति । तीरेन्तोति “उप्पादो भयं, अनुप्पादो खेम"न्तिआदिना वीमंसन्तो। "तुलेन्तो तीरेन्तो''तिआदिना सङ्घपतो वुत्तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं “पञ्चक्खन्धा"ति आदि वत्वा भवसङ्खारस्स अवस्सज्जनाकारं सरूपतो दस्सेसि । “एव"न्तिआदिना पन उदानवण्णनायं आदितो वुत्तमत्थं निगमनवसेन दस्सेसि । महाभूमिचालवण्णना वण्णना १७१. यन्ति करणे वा अधिकरणे वा पच्चत्तवचनन्ति अधिप्पायेन आह "येन समयेन, यस्मिं वा समये"ति | उक्खेपकवाताति उदकसन्धारकवातं उपच्छिन्दित्वा ठितट्ठानतो खेपकवाता । “सहि...पे०... बहल"न्ति इदं तस्स वातस्स उब्बेधप्पमाणमेव गहेत्वा वुत्तं, आयामवित्थारतो पन दससहस्सचक्कवाळप्पमाणम्पि उदकसन्धारकवातं उपच्छिन्दतियेव । आकासेति पुब्बे वातेन पतिहितोकासे । पुन वातोति उक्खेपकवाते तथाकत्वा विगते उदकसन्धारकवातो पुन आबन्धित्वा गण्हाति यथा तं उदकं न भस्सति, एवं उत्थम्भेन्तं आबन्धनवितानवसेन बन्धित्वा गण्हाति । ततो उदकं उग्गच्छतीति ततो आबन्धित्वा गहणतो तेन वातेन उत्थम्भितं उदकं उग्गच्छति उपरि गच्छति । होतियेवाति अन्तरन्तरा होतियेव । बहलभावेनाति महापथविया महन्तभावेन । सकला हि महापथवी तदा ओग्गच्छति, उग्गच्छति च, तस्मा कम्पनं न पञ्जायति। इज्झनस्साति इच्छितत्थसिज्झनस्स । अनुभवितब्बस्सइस्सरियसम्पत्तिआदिकस्स | परित्ताति पटिलद्धमत्ता नातिसुभाविता। तथा च भावना बलवती न होतीति आह "दुब्बला"ति । सञासीसेन हि भावना वुत्ता । अप्पमाणाति पगुणा सुभाविता | सा हि थिरा दळहतरा होतीति आह "बलवा"ति। “परित्ता पथवीसञ्जा, अप्पमाणा आपोसञ्जा"ति देसनामत्तमेव, आपोसञ्जाय पन सुभाविताय पथवीकम्पो सुखेनेव इज्झतीति अयमेत्थ अधिप्पायो वेदितब्बो । संवेजेन्तो दिब्बसम्पत्तिया पमत्तं सक्कं देवराजानं । वीमंसन्तो वा तावदेव समधिगतं अत्तनो इद्धिबलं । महामोग्गल्लानत्थेरस्स पासादकम्पनं पाकटन्ति तं अनामसित्वा सङ्घरक्खितसामणेरस्स पासादकम्पनं दस्सेतुं “सो किरायस्मा"तिआदि वुत्तं । 138 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७१-१७१) महाभूमिचालवण्णना १ पूतिमिस्सो गन्धो एतस्साति पूतिगन्धो, तेन पूतिगन्धेनेव अधिगतमातुकुच्छिसम्भवं विय गन्धेनेव सीसेन, अतिविय दारको एवाति अत्थो । आचरियन्ति आचरियूपदेसं। इद्धाभिसङ्खारो नाम इद्धिविधप्पटिपक्खादीभावेन इच्छितब्बो, सो च उपाये कोसल्लस्स अत्तना न सम्मा उग्गहितत्ता न ताव सिक्खितोति आह "असिक्खित्वाव युद्धं पविट्ठोसी"ति । "पिलवन्त"न्ति इमिना सकलमेव पासादवत्थु उदकं कत्वा अधिट्ठातब्बपासादोव तत्थ पिलवतीति दस्सेति । अधिट्ठानक्कम पन उपमाय दस्सेन्तो "तात...पे०... जानाही"ति आह । तत्थ कपल्लकपूवन्ति आसित्तकपूर्व, तं पचन्ता कपाले पठमं किञ्चि पिढें ठपेत्वा अनुक्कमेन वड्वेत्वा अन्तन्तेन परिच्छिन्दन्ति पूर्व समन्ततो परिच्छिन्नं कत्वा ठपेन्ति, एवं “आपोकसिणवसेन 'पासादेन पतिहितट्टानं उदकं होत'ति अधिद्रहन्तो समन्ततो पासादस्स याव परियन्ता यथा उदकं होति, तथा अधिवातब्ब"न्ति उपमाय उपदिसति । महापदाने वुत्तमेवाति “धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो तुसिता काया चवित्वा मातुकुच्छिं ओक्कमती"ति (दी० नि० २.१८) वत्वा “अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधती"ति (दी० नि० २.१८), तथा "धम्मता एसा, भिक्खवे, यदा बोधिसत्तो मातुकुच्छिम्हा निक्खमती"ति (दी० नि० २.३०) वत्वा "अयञ्च दससहस्सी लोकधातु सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधती"ति (दी० नि० २.३२) च महाबोधिसत्तस्स गब्भोक्कन्तियं, अभिजातियञ्च धम्मतावसेन महापदाने पथवीकम्पस्स वुत्तत्ता इतरेसुपि चतूसु ठानेसु पथवीकम्पो धम्मतावसेनेवाति महापदाने अत्थतो वुत्तं एवाति अधिप्पायो। इदानि नेसं पथवीकम्पनं कारणतो, पवत्तिआकारतो च विभागं दस्सेतुं "इति इमेसू"तिआदि वुत्तं । धातुकोपेनाति उक्खेपकधातुसङ्घाताय वायोधातुया पकोपेन । इद्धानुभावेनाति आणिद्धिया वा कम्मविपाकजिद्धिया वा पभावेन, तेजेनाति अत्थो । पुचतेजेनाति पुञानुभावेन, महाबोधिसत्तस्स पुञबलेनाति अत्थो। आणतेजेनाति पटिवेधाणानुभावेन । साधुकारदानवसेनाति यथा अनञसाधारणेन पटिवेधाणानुभावेन अभिहता महापथवी अभिसम्बोधियं अकम्पित्थ, एवं अनञसाधारणेन देसनााणानुभावेन अभिहता महापथवी अकम्पित्थ, तं पनस्सा साधुकारदानं विय होतीति "साधुकारदानवसेना''ति वुत्तं । 139 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१७१-१७१) १४० येन पन भगवा असीतिअनुब्यञ्जनपटिमण्डितद्वत्तिंसमहापुरिसलक्खण- (दी० नि० २.३३, ३.१९८; म० नि० २.३८५) विचित्ररूपकायो सब्बाकारपरिसुद्धसीलक्खन्धादिगुणरतनसमिद्धिधम्मकायो पुञमहत्तथाममहत्तयसमहत्तइद्धिमहत्तपञआमहत्तानं परमुक्कंसगतो असमो असमसमो अप्पटिपुग्गलो अरहं सम्मासम्बुद्धो अत्तनो अत्तभावसञ्जितं खन्धपञ्चकं कप्पं वा कप्पावसेसं वा ठपेतुं समत्थोपि सङ्घतधम्म पटिजिगुच्छनाकारप्पवत्तेन आणविसेसेन तिणायपि अमञमानो आयुसङ्खारोस्सज्जनविधिना निरपेक्खो ओस्सज्जि । तदनुभावाभिहता महापथवी आयुसङ्खारोस्सज्जने अकम्पित्थ, तं पनस्सा कारुञसभावसण्ठिता विय होतीति वुत्तं "कारुञसभावेना"ति । यस्मा भगवा परिनिब्बानसमये चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससङ्ख्या समापत्तियो समापज्जि अन्तरन्तरा फलसमापत्तिसमापज्जनेन, तस्स पुब्बभागे सातिसयं तिक्खं सूरं विपस्सनाञाणञ्च पवत्तेसि, “यदत्थञ्च मया एवं सुचिरकालं अनञसाधारणो परमुक्कंसगतो ज्ञाणसम्भारो सम्भतो, अनुत्तरो च विमोक्खो समधिगतो, तस्स वत मे सिखाप्पत्तफलभूता अच्चन्तनिट्ठा अनुपादिसेसनिब्बानधातु अज्ज समिज्झती"ति भिय्यो अतिविय सोमनस्सप्पत्तस्स भगवतो पीतिविप्फारादिगुणविपुलतरानुभावो परेहि असाधारणञाणातिसयो उदपादि, यस्स समापत्तिबलसमुपब्रूहितस्स जाणातिसयस्स आनुभावं सन्धाय इदं वुत्तं "द्वेमे पिण्डपाता समसमफला समसमविपाका''तिआदि (उदा० ७५), तस्मा तस्स आनुभावेन समभिहता महापथवी अकम्पित्थ । तं पनस्सा तस्सं वेलायं आरोदनाकारप्पत्ति विय होतीति “अट्ठमो आरोदनेना"ति वुत्तं । इदानि सङ्खपतो वुत्तमत्थं विवरन्तो “मातुकुच्छिं ओक्कमन्ते"तिआदिमाह । अयं पनत्थोति “साधुकारदानवसेना''तिआदिना वुत्तो अत्थो। पथवीदेवताय वसेनाति एत्थ समुद्ददेवता विय महापथविया अधिदेवता किर नाम अस्थि । तादिसे कारणे सति तस्सा चित्तवसेन अयं महापथवी सङ्कम्पति सम्पकम्पति सम्पवेधति, यथा वातवलाहकदेवतानं चित्तवसेन वाता वायन्ति, सीतुण्हअब्भवस्सवलाहकदेवतानं चित्तवसेन सीतादयो भवन्ति । तथा हि विसाखपुण्णमायं अभिसम्बोधिअत्थं बोधिरुक्खमूले निसिन्नस्स लोकनाथस्स अन्तरायकरणत्थं उपद्वितं मारबलं विधमितुं - "अचेतनायं पथवी, अविजय सुखं दुखं । सापि दानबला महं, सत्तक्खत्तुं पकम्पथा''ति ।। (चरिया० पि० १.१२४) 140 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७२-१७२) अट्टपरिसवण्णना १४१ वचनसमनन्तरं महापथवी भिज्जित्वा सपरिसं मारं परिवत्तेसि । एतन्ति साधुकारदानादि । यदिपि नत्थि अचेतनत्ता, धम्मतावसेन पन वुत्तनयेन सियाति सक्का वत्तुं । धम्मता पन अत्थतो धम्मसभावो, सो पुञ्जधम्मस्स वा आणधम्मस्स वा आनुभावसभावोति । तयिदं सब् विचारितमेव, एवञ्च कत्वा "इमे धम्मे सम्मसतो, सभावसरसलक्खणे । धम्मतेजेन वसुधा, दससहस्सी पकम्पथा''ति ।। (बु० वं० १.१६६) आदि वचनञ्च समत्थितं होति । निद्दिवनिदस्सनन्ति निद्दिवस्स अत्थस्स निय्यातनं, निगमनन्ति अत्थो। एत्तावताति पथवीकम्पादिउप्पादजननेन चेव पथवीकम्पस्स भगवतो हेतुनिदस्सनेन च । “अद्धा अज्ज भगवता आयुसङ्घारो ओस्सट्टो"ति सल्लक्खेसि पारिसेसत्रायेन । एवहि तदा थेरो तमत्थं वीमंसेय्य नायं भूमिकम्पो धातुप्पकोपहेतुको तस्स अपञ्जायमानरूपत्ता, बाहिरकोपि इसि एवं महानुभावो बुद्धकाले नत्थि, सासनिकोपि सत्थु अनारोचेत्वा एवं करोन्तो नाम नत्थि, सेसानं पञ्चन्नं इदानि असम्भवो, एवं भूमिकम्पो चायं महाभिंसनको सलोमहंसो अहोसि, तस्मा पारिसेसतो आह “अज्ज भगवता आयुसङ्खारो ओस्सट्ठोति सल्लक्खेसी"ति । अट्ठपरिसवण्णना १७२. ओकासं अदत्वाति “तिद्वतु भन्ते भगवा कप्प"न्तिआदि (दी० नि० २.१७८) नयप्पवत्ताय थेरस्स आयाचनाय अवसरं अदत्वा । अञानिपि अट्ठकानि सम्पिण्डेन्तो हेतुअट्ठकतो अञानि परिसाभिभायतनविमोक्खवसेन तीणि अट्ठकानि सङ्गहेत्वा दस्सेन्तो “अटु खो इमा"तिआदिमाह। “आयस्मतो आनन्दस्स सोकुप्पत्तिं परिहरन्तो विक्खेपं करोन्तो''ति केचि सहसा भणिते बलवसोको उप्पज्जेय्याति । समागन्तब्बतो, समागच्छतीति वा समागमो, परिसा । बिम्बिसारपमुखो समागमो बिम्बिसारसमागमो। सेसद्वयेपि एसेव नयो। बिम्बिसार...पे०... समागमादिसदिसं खत्तियपरिसन्ति योजना | अ सु चक्कवाळेसुपि लभतेयेव सत्थु खत्तियपरिसादिउपसङ्कमनं । आदितो तेहि सद्धिं सत्थु भासनं आलापो। कथनपटिकथनं सल्लापो। धम्मुपसज्हिता पुच्छा 141 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ (३.१७३-१७३) पटिपुच्छा धम्मसाकच्छा | सण्ठानं पटिच्च कथनं सण्ठानपरियायत्ता वण्ण - सद्दस्स “ महन्तं हत्थिराजवण्णं अभिनिम्मिनित्वा 'तिआदीसु (सं० नि० १.१.१३८) विय । " तेस "न्ति पदं उभयपदापेक्खं “तेसम्पि लक्खणसण्ठानं विय सत्थु सरीरसण्ठानं, तेसं केवलं पञ्ञायति एवा”ति । नापि आमुक्कमणिकुण्डलो भगवा होतीति योजना । छिन्नस्सराति द्विधाभूतस्सरा । गग्गरस्सराति जज्जरितस्सरा । भासन्तरन्ति तेसं सत्तानं भासतो अञ्ञं भासं । वीमंसाति चिन्तना । “किमत्थं...पे०... देसेती 'ति इदं ननु अत्तानं जानापेत्वा धम्मे कथिते ते सातिसयो पसादो होतीति इमिना अधिप्पायेन वुत्तं ? येसं अत्तानं अजानापेत्वाव धम्मे कथिते पसादो होति, न जानापेत्वा, तादिसे सन्धाय सत्था तथा करोति । तत्थ पयोजनमाह " वासनत्थाया "ति । एवं सुतोपीति एवं अविञ्ञातदेसको अविञ्ञातागमनोपि सुतो धम्मो अत्तनो धम्मसुधम्मतायेव अनागते पच्चयो होति सुणन्तस्स । दीघनिकाये महावग्गटीका " आनन्दा " तिआदिको सङ्गीतिअनारुळहो पाळिधम्मो एव तथा दस्सितो । एस नयो इतो परेसुपि एवरूपेसु ठानेसु । अट्ठअभिभायतनवण्णना १७३. अभिभवतीति अभिभु, परिकम्मं, आणं वा । अभिभु आयतनं एतरसात अभिभायतनं, झानं । अभिभवितब्बं वा आरम्मणसङ्घातं आयतनं एतस्साति अभिभायतनं । आरम्मणाभिभवनतो अभिभु च तं आयतनञ्च योगिनो सुखविसेसानं अधिट्ठानभावतो, मनायतनधम्मायतनभावतो वातिपि ससम्पयुत्तं झानं अभिभायतनं । तेनाह “अभिभवनकारणानी 'तिआदि । तानि हीति अभिभायतनसञ्ञितानि झानानि । “ पुग्गलस्स त्राणुत्तरियताया" ति इदं उभयत्थापि योजेतब्बं । कथं ? पटिपक्खभावेन पच्चनीकधम्मे अभिभवन्ति पुग्गलस्स आणुत्तरियताय आरम्मणानि अभिभवन्ति । ञणबलेनेव हि आरम्मणाभिभवनं विय परिपक्खाभिभवो पीति । परिकम्मवसेन अज्झत्तं रूपसञ्ञी, न अप्पनावसेन । न हि पटिभागनिमित्तारम्मणा अप्पना अज्झत्तविसया सम्भवति, तं पन अज्झत्तपरिकम्मवसेन लद्धं कसिणनिमित्तं अविसुद्धमेव होति, न बहिद्धापरिकम्मवसेन लद्धं विय विसुद्धं । 142 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७३-१७३) अट्ठअभिभायतनवण्णना १४३ ___ परित्तानीति यथालद्धानि सुप्पसरावमत्तानि । तेनाह "अवड्डितानी''ति । परित्तवसेनेवाति वण्णवसेन आभोगे विज्जमानेपि परित्तवसेनेव इदं अभिभायतनं वुत्तं। परित्तता हेत्थ अभिभवनस्स कारणं। वण्णाभोगे सतिपि असतिपि अभिभायतनभावना नाम तिक्खपञस्सेव सम्भवति, न इतरस्साति आह "आणुत्तरिको पुग्गलो"ति । अभिभवित्वा समापज्जतीति एत्थ अभिभवनं, समापज्जनञ्च उपचारज्झानाधिगमसमनन्तरमेव अप्पनाझानुप्पादनन्ति आह "सह निमित्तुष्पादेनेवेत्थ अप्पनं पापेती"ति। सह निमित्तुष्पादेनाति च अप्पनापरिवासाभावस्स लक्खणं वचनमेतं । यो “खिप्पाभिओ"ति वुच्चति, ततोपि आणुतरस्सेव अभिभायतनभावना। एत्थाति एतस्मिं निमित्ते। अप्पनं पापेतीति भावनं अप्पनं नेति । एत्थ च केचि “उप्पन्ने उपचारज्झाने तं आरब्भ ये हेट्ठिमन्तेन द्वे तयो जवनवारा पवत्तन्ति, ते उपचारज्झानपक्खिका एव, तदनन्तरञ्च भवङ्गपरिवासेन, उपचारासेवनाय च विना अप्पना होति, सह निमित्तुप्पादेनेव अप्पनं पापेती''ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं । न हि परिवासितपरिकम्मेन अप्पनावारो इच्छितो, नापि महग्गतप्पमाणज्झानेसु विय उपचारज्झाने एकन्ततो पच्चवेक्खणा इच्छितब्बा, तस्मा उपचारज्झानाधिगमनतो परं कतिपयभवङ्गचित्तावसाने अप्पनं पापुणन्तो “सह निमित्तुप्पादेनेवेत्थ अप्पनं पापेती"ति वुत्तो । सह निमित्तुष्पादेनेवाति च अधिप्पायिकमिदं वचनं, न नीतत्थं, अधिप्पायो वुत्तनयेनेव वेदितब्बो, न अन्तोसमापत्तियं तदा तथारूपस्स आभोगस्स असम्भवतो । समापत्तितो वुट्टितस्स आभोगो पुब्बभागभावनायवसेन झानक्खणे पवत्तं अभिभवनाकारं गहेत्वा पवत्तोति दट्ठब्बं । अभिधम्मट्ठकथायं पन “इमिना तस्स पुब्बाभोगो कथितो''ति (ध० स० अट्ठ० २०४) वुत्तं । अन्तोसमापत्तियं तथा आभोगाभावे कस्मा “झानसझायपी''ति वुत्तन्ति आह "अभिभवन...पे०... अत्थी'ति । वहितप्पमाणानीति विपुलप्पमाणानीति अत्थो, न एकङ्गुलद्वङ्गुलादिवसेन वढेि पापितानीति तथा वड्डनस्सेवेत्थ असम्भवतो। तेनाह "महन्तानी"ति । भत्तवड्डितकन्ति भुञ्जनभाजनं वड्वेत्वा दिन्नभत्तं, एकासने पुरिसेन भुजितब्बभत्ततो उपड्डभत्तन्ति अत्थो । रूपे सञा रूपसा, सा अस्स अत्थीति रूपसञ्जी, न रूपसञी अरूपसञ्जी, सासीसेन झानं वदति । रूपसआय अनुप्पादनं एवेत्थ अलाभिता । 143 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१७३-१७३) बहिद्धाव उप्पन्नन्ति बहिद्धा वत्थुस्मिंयेव उप्पन्नं । अभिधम्मे पन "अज्झत्तं अरूपसझी बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि...पे०... अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानी''ति (ध० स० २२०) एवं चतुन्नं अभिभायतनानं आगतत्ता अभिधम्मट्ठकथायं (ध० स० अट्ठ० २०४) “कस्मा पन 'यथा सुत्तन्ते अज्झत्तं रूपसञ्जी एको बहिन्द्धा रूपानि पस्सति परित्तानीतिआदि वुत्तं, एवं अवत्वा इध चतूसुपि अभिभायतनेसु अज्झत्तं अरूपसञ्जिताव वुत्ता'ति चोदनं कत्वा 'अज्झत्तरूपानं अनभिभवनीयतो'ति कारणं वत्वा, तत्थ वा हि इध वा बहिद्धा रूपानेव अभिभवितब्बानि, तस्मा तानि नियमतो वत्तब्बानीति तत्रापि इधापि वुत्तानि । 'अज्झत्तं रूपसञ्जी'ति इदं पन सत्थु देसनाविलासमत्तमेवा"ति वुत्तं । एत्थ च वण्णाभोगरहितानि, सहितानि च सब्बानि परित्तानि “परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानी''ति वुत्तानि, तथा अप्पमाणानि “अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानी''ति । अत्थि हि सो परियायो परित्तानि अभिभुय्य तानि चे कदाचि वण्णवसेन आभुजितानि होन्ति, सुवण्णदुब्बण्णानि अभिभुय्याति । परियायकथा हि सुत्तन्तदेसनाति । अभिधम्मे (ध० स० २२२) पन निप्परियायदेसनत्ता वण्णाभोगरहितानि विसुं वुत्तानि, तथा सहितानि । अत्थि हि उभयत्थ अभिभवनविसेसोति । तथा इध परियायदेसनत्ता विमोक्खानम्पि अभिभवनपरियायो अत्थीति "अज्झत्तं रूपसञी''तिआदिना पठमदुतियअभिभायतनेसु पठमविमोक्खो, ततियचतुत्थअभिभायतनेसु दुतियविमोक्खो, वण्णाभिभायतनेसु ततियविमोक्खो च अभिभवनप्पवत्तितो सङ्गहितो । अभिधम्मे पन निप्परियायदेसनत्ता विमोक्खाभिभायतनानि असङ्करतो दस्सेतुं विमोक्खे वज्जेत्वा अभिभायतनानि कथितानि; सब्बानि च विमोक्खकिच्चानि झानानि विमोक्खदेसनायं वुत्तानि । तदेतं “अज्झत्तं रूपसञ्जी"ति आगतस्स अभिभायतनद्वयस्स अभिधम्मे अभिभायतनेसु अवचनतो “रूपी रूपानि पस्सती"तिआदीनञ्च सब्बठिमोक्खकिच्चसाधारणवचनभावतो ववत्थानं कतन्ति विज्ञायति । "अज्झत्तरूपानं अनभिभवनीयतो''ति इदं कत्थचिपि “अज्झत्तं रूपानि पस्सती"ति अवत्वा सब्बत्थ यं वुत्तं "बहिद्धा रूपानि पस्सती"ति, तस्स कारणवचनं, तेन यं अञहेतुकं, तं तेन हेतुना वुत्तं । यं पन देसनाविलासहेतुकं अज्झत्तं अरूपसञिताय एव अभिधम्मे (ध० स० २२३) वचनं, न तस्स अचं कारणं मग्गितब्बन्ति दस्सेति । अज्झत्तरूपानं अनभिभवनीयता च तेसं बहिद्धा रूपानं विय अभूतत्ता। देसनाविलासो च यथावुत्तववत्थानवसेन वेदितब्बो वेनेय्यज्झासयवसेन विज्जमानपरियायकथाभावतो । "सुवण्णदुब्बण्णानी''ति एतेनेव सिद्धत्ता न नीलादि अभिभायतनानि वत्तब्बानीति चे ? तं न, नीलादीसु कताधिकारानं नीलादिभावस्सेव अभिभवनकारणत्ता। न हि तेसं 144 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१७४-१८३) अविमोक्खवण्णना परिसुद्धापरिसुद्धवण्णानं परित्तता, अप्पमाणता वा अभिभवनकारणं, अथ खो नीलादिभावो एवाति । एतेसु च परित्तादिकसिणरूपेसु यं यं चरितस्स इमानि अभिभायतनानि इज्झन्ति, तं दस्सेतुं “ इमेसु पना "तिआदि वृत्तं । सब्बसङ्गाहकवसेनाति सकलनीलवण्णनीलनिदस्सननीलनिभासानं साधारणवसेन । वण्णवसेनाति सभाववण्णवसेन । निदस्सनवसेनाति पस्सितब्बतावसेन चक्खुविञ्ञाणादिविञ्ञाणवीथिया गहेतब्बतावसेन । ओभासवसेनाति सप्पभासताय अवभासनवसेन | उमापुप्फन्ति अतसिपुष्पं । नीलमेव होति वण्णसङ्कराभावतो । बाराणसिसम्भवन्ति वाराणस समुट्ठितं । एकच्चस्स इतो बाहिरकस्स अप्पमाणं अतिवित्थारितं कसिणनिमित्तं ओलोकेन्तस्स भयं उप्पज्जेय्य “किं नु खो इदं सकलं लोकं अभिभवित्वा अज्झोत्थरित्वा गण्हाती' 'ति, तथागतस्स पन तादिसं भयं वा सारज्जं वा नत्थीति अभीतभावदस्सनत्थमेव आनीतानि । अविमोक्खवण्णना १७४. उत्तानत्थायेव हेट्ठा अत्थतो विभत्तत्ता । एकच्चस्स विमोक्खोति घोसोपि भयावहो वट्टाभिरतभावतो, तथागतस्स पन विमोक्खे उपसम्पज्ज विहरतोपि तं नत्थीति अभीभावदस्सनत्थमेव आनीतानि । १४५ आनन्दयाचनकथावण्णना १७८. बोधीति सब्बञ्जुतञणं । तहि “चतुमग्गञाणपटिवेध "न्त्वेव वुत्तं सब्बञ्जतञाणप्पटिवेधस्स तंमूलकत्ता । एवं वुत्तभावन्ति “ आकङ्घमानो आनन्द तथागत कप्पं वा तिट्ठेय्या" ति ( दी० नि० २.१६६) एवं वुत्तभावं । १७९. तम्पि ओळारिर्कानिमित्तं कतं तस्स मारेन परियुट्ठितचेतसो न पटिविद्धं न सल्लक्खितं । १८३. आदिकेहीति एवमादीहि मित्तामच्चसुहज्जाहि । पियायितब्बतो पियेहि । 145 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१८४-१८६) मनवनतो मनापेहि। जातियाति जातिअनुरूपगमनेन । नानाभावो विसुंभावो असम्बद्धभावो। मरणेन विनाभावोति चुतिया तेनत्तभावेन अपुनरावत्तनतो विप्पयोगो । भवेन अञ्जथाभावोति भवन्तरग्गहणेन पुरिमाकारतो अञाकारता “कामावचरसत्तो रूपावचरो होती"तिआदिना, तत्थापि “मनुस्सो देवो होती''तिआदिनापि योजेतब्बो । कुतेत्थ लब्भाति कुतो कुहिं किस्मिं नाम ठाने एत्थ एतस्मिं खन्धप्पवत्ते “यं तं जातं...पे०... मा पलुज्जी''ति लद्धं सक्का । न सक्का एव तादिसस्स कारणस्स अभावतोति आह "नेतं ठानं विज्जती"ति । एवं अच्छरियब्भुतधम्मं तथागतस्सापि सरीरं, किमङ्गं पन अङ्ग्रेसन्ति अधिप्पायो । “पच्चावमिस्सती"ति नेतं ठानं विज्जति सतिं सूपद्वितं कत्वा आणेन परिच्छिन्दित्वा आयुसङ्खारानं ओस्सद्वत्ता, बुद्धकिच्चस्स च परियोसापितत्ता । न हेत्थ मासत्तयतो परं बुद्धवेनेय्या लब्भन्तीति । १८४. सासनस्स चिरट्ठिति नाम ससम्भारेहि अरियमग्गधम्मेहि केवलेहीति आह "सब्बं लोकियलोकुत्तरवसेनेव कथित"न्ति लोकियाहि सीलसमाधिपाहि विना लोकुत्तरधम्मसमधिगमस्सअसम्भवतो । ततियभाणवारवण्णना निद्विता । नागापलोकितवण्णना १८६. नागापलोकितन्ति नागस्स विय अपलोकितं, हत्थिनागस्स अपलोकनसदिसं अपलोकनन्ति अत्थो । आहच्चाति फुसित्वा । अडसकलग्गानि वियाति अङ्कुसकानि विय अञमञ्जस्मिं लग्गानि आसत्तानि हुत्वा ठितानि । एकाबद्धानीति अञमजं एकतो आबद्धानि । तस्माति गीवट्ठीनं एकग्घनानं विय एकाबद्धभावेन, न केवलं गीवट्ठीनंयेव, अथ खो सब्बानिपि तानि बुद्धानं ठपेत्वा बाहुसन्धिआदिका द्वादस महासन्धियो, अङ्गुलिसन्धियो च इतरसन्धीसु एकाबद्धानि हुत्वा ठितानि, यतो नेसं पकतिहत्थीनं कोटिसहस्सबलप्पमाणं कायबलं होति । वेसालिनगराभिमुखं अकासि कण्टकपरिवत्तने विय कपिलनगराभिमुखं । यदि एवं कथं तं नागापलोकितं नाम जातं? तदज्झासयं उपादाय । 146 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१८७-१८७) चतुमहापदेसवण्णना १४७ भगवा हि नागापलोकितवसेनेव अपलोकेतुकामो जातो, पुञानुभावेन पनस्स पतिहितहानं परिवत्ति, तेन तं "नागापलोकितं" त्वेव वुच्चति । "इदं पच्छिमकं आनन्द तथागतस्स वेसालिया दस्सन'"न्ति नयिदं वेसालिया अपलोकनस्स कारणवचनं अनेकन्तिकत्ता, भूतकथनमत्तं पनेतं । मग्गसोधनवसेन तं दस्सेत्वा अञदेवेत्थ अपलोकनकारणं दस्सेतुकामो "ननु चा"तिआदिमाह। तं तं सब्बं पच्छिमदस्सनमेव अनुक्कमेन कुसिनारं गन्त्वा परिनिब्बातुकामताय ततो ततो निक्खन्तत्ता। "अनच्छरियत्ता"ति इमिना यथावुत्तं अनेकन्तिकत्तं परिहरति, तयिदं सोधनमत्तं । इदं पनेत्थ अविपरीतं कारणन्ति दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । न हि भगवा सापेक्खो वेसालिं अपलोकेसि, “इदं पन मे गमनं अपुनरागमनन्ति दस्सनमुखेन बहुजनहिताय बहुजनसुखाय लोकानुकम्पाय अपलोकेसि । तेनाह “अपिच वेसालिराजानो"तिआदि । अन्तकरोति सकलवट्टदुक्खस्स सकसन्ताने, परसन्ताने च विनासकरो अभावकरो । बुद्धचक्खुधम्मचक्खुदिब्बचक्खुमंसचक्खुसमन्तचक्खुसङ्खातेहि पञ्चहि चक्खूहि चक्खुमा । सवासनानं किलेसानं समुच्छिन्नत्ता सातिसयं किलेसपरिनिब्बानेन परिनिब्बुतो। चतुमहापदेसवण्णना १८७. महाओकासेति महन्ते ओकासे । महन्तानि धम्मस्स पतिट्ठापनट्ठानानि । येसु पतिट्ठापितो धम्मो निच्छीयति असन्देहतो, कानि पन तानि ? आगमनविसिट्ठानि सुत्तोतरणादीनि । दुतियविकप्पे अपदिसन्तीति अपदेसा, “सम्मुखा मेतं आवुसो भगवतो सुत"न्तिआदिना केनचि आभतस्स “धम्मोति विनिच्छिनने कारणं । किं पन तन्ति ? तस्स यथाभतस्स सुत्तोतरणादि एव । यदि एवं कथं चत्तारोति ? यस्मा धम्मस्स द्वे सम्पराया सत्था, सावका च, तेसु च सावका सङ्घगणपुग्गलवसेन तिविधा, एवं “तुम्हाकं मया यं धम्मो पटिग्गहितो"ति अपदिसितब्बानं भेदेन चत्तारो । तेनाह “सम्मुखा मे तं आवुसो भगवतो सुत''न्तिआदि । तथा च वुत्तं नेत्तियं “चत्तारो महापदेसा बुद्धापदेसो सङ्घापदेसो सम्बहुलत्थेरापदेसो एकत्थेरापदेसो। इमे चत्तारो महापदेसा'ति (नेत्ति० १८) बुद्धो अपदेसो एतस्साति बुद्धापदेसो। एस नयो सेसेसुपि। तेनाह "बुद्धादयो...पे०... महाकारणानी"ति। 147 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१८८-१८८) १८८. नेव अभिनन्दितब्बन्ति न सम्पटिच्छितबं । गन्थस्स सम्पटिच्छनं नाम सवनन्ति आह "न सोतब्ब"न्ति । पदब्यञ्जनानीति पदानि च ब्यञ्जनानि च, अत्थपदानि, ब्यञ्जनपदानि चाति अत्थो। पज्जति अत्थो एतेहीति पदानि, अक्खरादीनि ब्यञ्जनपदानि । पज्जितब्बतो पदानि, सङ्कासनादीनि अस्थपदानि। अट्ठकथायं पन " 'पदसङ्खातानि ब्यञ्जनानी ति ब्यञ्जनपदानेव वुत्तानी"ति केचि, तं न, अत्थं ब्यञ्जन्तीति ब्यञ्जनानि, ब्यञ्जनपदानि, तेहि ब्यजितब्बतो ब्यञ्जनानि, अत्थपदानीति उभयसङ्गहतो। इमस्मिं ठानेति तेनाभतसुत्तस्स इमस्मिं पदेसे । पाळि वुत्ताति केवलो पाळिधम्मो पवत्तो । अत्थो वुत्तोति पाळिया अत्थो पवत्तो निद्दिठ्ठो । अनुसन्धि कथितोति यथारद्धदेसनाय, उपरि देसनाय च अनुसन्धानं कथितं सम्बन्धो कथितो । पुब्बापरं कथितन्ति पुब्बेनापरं अविरुज्झनञ्चेव विसेसाधानञ्च कथितं पकासितं । एवं पाळिधम्मादीनि सम्मदेव सल्लक्खेत्वा गहणं साधुकं उग्गहणन्ति आह "सुटु गहेत्वा"ति । सुत्ते ओतारेतब्बानीति आणेन सुत्ते ओगाहेत्वा तारेतब्बानि, तं पन ओगाहेत्वा तरणं तत्थ ओतरणं अनुप्पवेसनं होतीति वुत्तं "सुत्ते ओतारेतब्बानी"ति | संसन्देत्वा दस्सनं सन्दस्सनन्ति आह "विनये संसन्देतब्बानी"ति । किं पन तं सुत्तं, को वा विनयोति विचारणाय आचरियानं मतिभेदमुखेन तमत्थं दस्सेतुं "एत्थ चा"तिआदि वुत्तं । विनयोति विभङ्गपाठमाह । सो हि मातिकासञितस्स सुत्तस्स अत्थसूचनतो "सुत्त"न्ति वत्तब्बतं अरहति । विविधनयत्ता, विसिट्ठनयत्ता च विनयो, खन्धकपाठो। एवन्ति एवं सुत्तविनयेसु परिग्गय्हमानेसु विनयपिटकम्पि न परियादीयति परिवारपाळिया असङ्गहितत्ता। सुत्तन्ताभिधम्मपिटकानि वा सुत्तं अत्थसूचनादिअत्थसम्भवतो। एवम्पीति “सुत्तन्ताभिधम्मपिटकानि सुत्तं, विनयपिटकं विनयो"ति एवं सुत्तविनयविभागे वुच्चमानेपि । न ताव परियादीयन्तीति न ताव अनवसेसतो परिग्गय्हन्ति, कस्माति आह "असुत्तनामकञ्ही"तिआदि । यस्मा “सुत्त"न्ति इमं नामं अनारोपेत्वा सङ्गीतम्पि जातकादिबुद्धवचनं अत्थि, तस्मा वुत्तनयेन तीणि पिटकानि न परियादिण्णानीति । सुत्तनिपातउदानइतिवृत्तकादीनि दीघनिकायादयो विय सुत्तनामं आरोपेत्वा असङ्गीतानीति अधिप्पाये पनेत्थ जातकादीहि सद्धिं तानिपि गहितानि | बुद्धवंसचरियापिटकानं पनेत्थ अग्गहणे कारणं मग्गितब्, किं वा तेन मग्गनेन ? सब्बोपायं वण्णनानयो थेरवादं दस्सनमुखेन पटिक्खित्तो एवाति ।। अत्थीति किं अत्थि, असुत्तनामकं बुद्धवचनं नत्थि एवाति दस्सेति । तथा हि 148 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१८८-१८८) चतुमहापदेसवण्णना १४९ निदानवण्णनायं (दी० नि० टी० १.पटममहासङ्गीतिकथावण्णना; सारत्थ० टी० १.पठममहासङ्गीतिकथावण्णना) अम्हेहि वुत्तं “सुत्तन्ति सामञविधि, विसेसविधयो परे'ति । तं सबं पटिक्खिपित्वा "सुत्तन्ति विनयो'"तिआदिना वुत्तं संवण्णनानयं "नायमत्थो इधाधिप्पेतो"ति पटिसोधेत्वा। विनेति एतेन किलेसेति विनयो, किलेसविनयनूपायो, सो एव च नं करोतीति कारणन्ति आह “विनयो पन कारण"न्ति । धम्मेति परियत्तिधम्मे। सरागायाति सरागभावाय कामरागभवरागपरिब्रूहनाय । सओगायाति भवसंयोजनाय। आचयायाति वट्टस्स वड्डनत्थाय । महिच्छतायाति महिच्छभावाय । असन्तुट्ठियाति असन्तुट्ठिभावाय । सङ्गणिकायाति किलेससङ्गणगणसङ्गणविहाराय । कोसज्जायाति कुसीतभावाय । दुब्भरतायाति दुप्पोसताय । विरागायाति सकलवट्टतो विरज्जनत्थाय । विसञ्जोगायाति कामभवादीहि विसंयुज्जनत्थाय । अपचयायाति सब्बस्सापि वट्टस्स अपचयनाय, निब्बानायाति अत्थो । अप्पिच्छतायाति पच्चयप्पिच्छतादिवसेन सब्बसो इच्छापगमाय। सन्तुट्ठियाति द्वादसविधसन्तुट्ठिभावाय । पविवेकायाति पविवित्तभावाय, कायविवेकादितदङ्गविवेकादिविवेकसिद्धिया। वीरियारम्भायाति कायिकस्स चेव, चेतसिकस्स च वीरियस्स पग्गहणत्थाय । सुभरतायाति सुखपोसनत्थाय । एवं यो परियत्तिधम्मो उग्गहणधारणपरिपुच्छामनसिकारवसेन योनिसो पटिपज्जन्तस्स सरागादिभावपरिवज्जनस्स कारणं हुत्वा विरागादिभावाय संवत्तति, एकंसतो एसो धम्मो । एसो विनयो, सम्मदेव अपायादीसु अपतनवसेन धारणतो, किलेसानं विनयनतो, सत्थु सम्मासम्बुद्धस्स ओवादानुसिट्ठिभावतो एतं सत्थुसासनन्ति धारेय्यासि जानेय्यासि, अवबुज्झेय्यासीति अत्थो। चतुसच्चस्स सूचनं सुत्तन्ति आह "सुत्तेति तेपिटके बुद्धवचने"ति । तेपिटकहि बुद्धवचनं सच्चविनिमुत्तं नत्थि | रागादिविनयनकारणं तथागतेन सुत्तपदेन पकासितन्ति आह "विनयेति एतस्मिं रागादिविनयकारणे'ति । सुत्ते ओसरणञ्चेत्थ तेपिटके बुद्धवचने परियापन्नतावसेनेव वेदितब्बं, न अञथाति आह "सुत्तपटिपाटिया कत्थचि अनागन्त्वा"ति। छल्लिं उट्ठपेत्वाति अरोगस्स महतो रुक्खस्स तिठ्ठतो उपक्कमेन छल्लिया सकलिकाय, पपटिकाय वा उट्ठपनं विय अरोगस्स सासनधम्मस्स तिट्ठतो ब्यञ्जनमत्तेन तप्परियापन्नं विय हुत्वा छल्लिसदिसं पुब्बापरविरुद्धतादिदोसं उट्ठपेत्वा परिदीपेत्वा, तादिसानि पन एकंसतो गुळहवेस्सन्तरादिपरियापन्नानि होन्तीति आह “गुळ्हवेस्सन्तर...पे०...पञ्जायन्तीति 149 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१८८-१८८) अत्थो"ति | रागादिविनयेति रागादीनं विनयनत्थे । तदाकारताय न पञ्जायमानानि न दिस्समानानि छड्वेतब्बानि वज्जितब्बानि न गहेतब्बानि । सब्बत्थाति सब्बवारेसु । इमस्मिं पन ठानेति इमस्मिं महापदेसनिद्देसट्ठाने । “सुत्ते चत्तारो महापदेसा"तिआदिना वुत्तम्पि अवुत्तेन सद्धिं गहेत्वा पकिण्णककथाय मातिकं उद्दिसति । आतुं इच्छितो अत्थो पहो, तस्स विस्सज्जनानि पहाव्याकरणानि, अत्थसूचनादिअत्थेन सुत्तं, पाळि, तं सुत्तं अनुलोमेति अनुकूलेतीति सुत्तानुलोमं, महापदेसो । आचरिया वदन्ति संवण्णेन्ति पाळिं एतेनाति आचरियवादो अट्ठकथा । तस्स तस्स थेरस्स अत्तनो एव मति अधिप्पायोति अत्तनोमति। धम्मविनिच्छये पत्तेति धम्मे विनिच्छिनितब्बे उपट्ठिते । इमेति अनन्तरं वुत्ता चत्तारो महापदेसा। पमीयति धम्मो परिच्छिज्जति विनिच्छीयति एतेनाति पमाणं। तेनाह "यं एत्थ समेती"तिआदि । इतरन्ति महापदेसेसु असमेन्तं । पुन इतरन्ति अकप्पियं अनुलोमेन्तं कप्पियं पटिबाहन्तं सन्धायाह । एकंसेनेव ब्याकातब्बो विस्सज्जेतब्बोति एकंसव्याकरणीयो। विभज्जाति पुच्छितमत्थं अवधारणादिभेदेन विभजित्वा । पटिपुच्छाति पुच्छन्तं पुग्गलं पटिपुच्छित्वा । ठपनीयोति तिधापि अविस्सज्जनीयत्ता ठपनीयो ब्याकरणं अकत्वा ठपेतब्बो । “चर्पा अनिच्च"न्ति पञ्हे उत्तरपदावधारणं सन्धाय "एकंसेनेव ब्याकातब्बन्ति वुत्तं निच्चताय लेसस्सापि तत्थ अभावतो । पुरिमपदावधारणे पन विभज्जब्याकरणीयता चक्खुसोतेसु विसेसत्थसामञ्जत्थानं असाधारणभावतो। द्विन्नं तेसं सदिसताचोदना पटिपुच्छनमुखेनेव ब्याकरणीया पटिक्खेपवसेन, अनुज्ञातवसेन च विस्सज्जितब्बतोति आह “यथा चक्खु, तथा सोतं...पे०... अयं पटिपुच्छाब्याकरणीयो पञ्हो"ति । तं जीवं तं सरीरन्ति जीवसरीरानं अनञतापहो। यस्स येन अनञताचोदिता, सो एव परमत्थतो नुपलब्भतीति वझातनयस्स मत्तेय्यताकित्तनसदिसोति अब्याकातब्बताय ठपनीयो वुत्तोति । इमानि चत्तारि पहव्याकरणानि पमाणं तेनेव नयेन तेसं पञ्हानं ब्याकातब्बतो । विनयमहापदेसो कप्पियानुलोमविधानतो निप्परियायतो अनुलोमकप्पियं नाम, महापदेसभावेन पन तंसदिसताय सुत्तन्तमहापदेसेसुपि “अनुलोमकप्पिय"न्ति अयं अट्ठकथावोहारो। यदिपि तत्थ तत्थ भगवता पवत्तितपकिण्णकदेसनाव अट्ठकथा, सा पन धम्मसङ्गाहकेहि पठमं तीणि पिटकानि सङ्गायित्वा तस्स अथवण्णनानुरूपेनेव वाचनामग्गं आरोपितत्ता “आचरियवादो"ति वुच्चति आचरिया वदन्ति संवण्णेन्ति पाळिं एतेनाति । 150 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१८९-१९०) कम्मारपुत्तचुन्दवत्थुवण्णना १५१ तेनाह "आचरियवादो नाम अट्ठकथा"ति। तिस्सो सङ्गीतियो आरुळहो एव च बुद्धवचनस्स अत्थसंवण्णनाभूतो कथामग्गो महिन्दत्थेरेन तम्बपण्णिदीपं आभतो पच्छा तम्बपण्णियेहि महाथेरेहि सोहळभासाय ठपितो निकायन्तरलद्धिसङ्करपरिहरणत्थं । अत्तनोमति नाम थेरवादो । नयग्गाहेनाति सुत्तादितो लब्भमाननयग्गहणेन | अनुबुद्धियाति सुत्तादीनियेव अनुगतबुद्धिया। अत्तनो पटिभानन्ति अत्तनो एव तस्स अत्थस्स वुत्तनयेन उपट्टानं, यथाउपट्ठिता अत्था एव तथा वुत्ता | समेन्तमेव गहेतब्बन्ति यथा सुत्तेन संसन्दति, एवं महापदेसतो अत्था उद्धरितब्बाति दस्सेति । पमादपाठवसेन आचरियवादस्स कदाचि पाळिया असंसन्दनापि सिया, सो न गहेतब्बोति दस्सेन्तो आह “आचरियवादोपि सुत्तेन समेन्तोयेव गहेतब्बो"ति । सब्बदुब्बला पुग्गलस्स सयं पटिभानभावतो। तथा च सापि गहेतब्बा, कीदिसी ? सुत्तेन समेन्ता येवाति योजना । तासूति तीसु सङ्गीतीसु । “आगतमेव पमाण"न्ति इमिना महाकस्सपादीहि सङ्गीतमेव “सुत्तन्ति इधाधिप्पेतन्ति तदञस्स सुत्तभावमेव पटिक्खिपति । तदत्था एव हि तिस्सो सङ्गीतियो । तत्थाति गारव्हसुत्ते । न चेव सुत्ते ओसरन्ति, न च विनये सन्दिस्सन्तीति वेदितब्बानि तस्स असुत्तभावतो तेन "अनुलोमकप्पियं सुत्तेन समेन्तमेव गहेतब्ब"न्ति वुत्तं एवत्थं निगमनवसेन निदस्सेति । सब्बत्थ "न इतर"न्ति वचनं तत्थ तत्थ गहितावधारणफलदस्सनं दट्टब् । कम्मारपुत्तचुन्दवत्थुवण्णना १८९. सूकरमद्दवन्ति वनवराहस्स मुदुमंसं । यस्मा चुन्दो अरियसावको सोतापन्नो, अछे च भगवतो, भिक्खुसङ्घस्स च आहारं पटियादेन्ता अनवज्जमेव पटियादेन्ति, तस्मा वुत्तं "पवत्तमंस"न्ति । तं किराति "नातितरुणस्सा"तिआदिना वुत्तविसेसं । तथा हि तं "मुदु चेव सिनिद्धञ्चा"ति वुत्तं । मुदुमंसभावतो हि अभिसङ्घरणविसेसेन च "मद्दव"न्ति वुत्तं । ओजं पखिपिंसु “अयं भगवतो पच्छिमको आहारो"ति पुञ्जविसेसापेक्खाय, तं पन तथापक्खित्तदिब्बोजताय गरुतरं जातं ।। अझे यं दुज्जीरं, तं अजानन्ता “कस्सचि अदत्वा विनासित''न्ति उपवदेय्युन्ति परूपवादमोचनत्थं भगवा “नाहं त"न्तिआदिना सीहनादं नदति । १९०. कथं पनायं सीहनादो ननु तं भगवतोपि सम्मापरिणामं न गतन्ति ? नयिदं एवं दट्ठब्बं, यस्मा “सम्मदेव तं भगवतो परिणामं गत"न्ति वत्तुं अरहति तप्पच्चया 151 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१९१-१९३) उप्पन्नस्स विकारस्स अभावतो, अञपच्चयस्स च विकारस्स मुदुभावं आपादितत्ता। तेनाह "न पन भुत्तप्पच्चया"तिआदि । न हि भगवा, अछे वा पन खीणासवा नववेदनुप्पादनवसेन आहारं परिभुजन्ति अट्ठङ्गसमन्नागतमेव कत्वा आहारस्स उपभुञ्जनतो। यदि एवं कस्मा पाळियं “भत्तं भुत्ताविस्स खरो आबाधो उप्पज्जी"तिआदि वुत्तं ? तं भोजनुत्तरकालं उप्पन्नत्ता वुत्तं । “न पन भुत्तपच्चया"ति वुत्तो वायमत्थो अट्ठकथायं। कतुपचितस्स लद्धोकासस्स कम्मस्स बसेन बलवतिपि रोगे उप्पन्ने गरुसिनिद्धभोजनप्पच्चया वेदनानिग्गहो जातो, तेनाह "यदि ही"तिआदि । पत्थितवानेति इच्छितट्ठाने, इच्छा चस्स तत्थ गन्त्वा विनेतब्बवेनेय्यापेक्खा दट्ठब्बा । गाथायम्पि "सुत"न्ति इमिना सुतमत्तं, परेसं वचनमत्तमेतं, न पन भोजनप्पच्चया आबाधं फुसि धीरोति दस्सेति । पानीयाहरणवण्णना १९१. पसन्नभावेन उदकस्स अच्छभावो वेदितब्बोति आह “अच्छोदकाति पसनोदका'ति । सादुरसत्ता सातताति आह "मधुरोदका"ति । तनुकमेव सलिलं विसेसतो सीतलं, न बहलन्ति आह "तनुसीतलसलिला"ति । निक्कद्दमाति सेतभावस्स कारणमाह । पङ्कचिक्खल्लादिवसेन हि उदकस्स विवण्णता, सभावतो पन तं सेतवण्णं एवाति । पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना १९२. धुरवातेति पटिमुखवाते। दीघपिङ्गलोति दीघो हुत्वा पिङ्गलचक्खुको । पिङ्गलक्खिको हि सो “आळारो"ति पञायित्थ । एवरूपन्ति दक्खति करिस्सति भविस्सतीति ईदिसं । ईदिसेसूति यत्र यंचाति एवरूपनिपातसद्दयुत्तहानेसु । १९३. विचरन्तियो मेघगब्भतो निच्छरन्तियो विय होन्तीति वुत्तं "निच्छरन्तीसूति विचरन्तीसू"ति । नवविधायाति नवप्पकाराय | नवसु हि पकारेसु एकविधापि असनि तप्परियापन्नताय “नवविधा" त्वेव वुच्चति । ईदिसी हि एसा रुळ्हि अट्ठविमोक्खपत्तिपि समझा विय । असनं करोति, यो तस्सा सद्देन, तेजसा च अज्झोत्थटो । एकं चक्कन्ति एकं मण्डलं । सङ्कारं तीरेन्ती परिछिज्जन्ती विय दस्सेतीति सतेरा। गग्गरायमानाति गग्गरातिसदं करोन्ती, अनुरवदस्सनव्हेतं । कपिसीसाति कपिसीसाकारवती । 152 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९४-१९५) पुक्कुसमल्लपुत्तवत्थुवण्णना १५३ मच्छविलोलिकाति उदके परिप्फन्दमानमच्छो विय विलुळिताकारा । कुक्कुटसदिसाति पसारितपक्खकुक्कुटाकारा। नङ्गलस्स कस्सनकाले कस्सकानं हत्थेन गहेतब्बट्टाने मणिका होति, तं उपादाय नङ्गलं "दण्डमणिका''ति वुच्चति, तस्मा दण्डमणिकाकारा दण्डमणिका। तेनाह "नङ्गलसदिसा'ति । देवे वस्सन्तेपि सजोतिभूतताय उदकेन अतेमेतब्बतो महासनि "सुक्खासनी"ति वुत्ता । तेनाह "पतितवानं समुग्धाटेती"ति । भुसागारकेति भुसमये अगारके । तत्थ किर महन्तं पलालपुर्ज अब्भन्तरतो पलालं निक्कड्डित्वा सालासदिसं पब्बजितानं वसनयोग्गट्ठानं कतं, तदा भगवा तत्थ वसि, तं पन खलमण्डलं सालासदिसन्ति आह "खलसालाय"न्ति । एत्थाति हेतुम्हि भुम्मवचनन्ति आह "एतस्मिं कारणे"ति, असनिपातेन छन्नं जनानं हतकारणेति अत्थो । सो त्वं भन्तेति अयमेव वा पाठो । १९४. सिङ्गी नाम किर उत्तमं अतिविय पभस्सरं बुद्धानं छविवण्णोभासं देवलोकतो आगतसुवण्णं । तेनेवाह "सिङ्गीसुवण्णवण्ण"न्ति । “किं पन थेरो तं गण्ही''ति सयमेव पुच्छं समुट्ठापेत्वा तत्थ कारणं दस्सेन्तो "किञ्चापी"तिआदिमाह । तेनेव कारणेनाति उपट्ठाकट्ठानस्स मत्थकप्पत्ति, परेसं वचनोकासपच्छेदनं, तेन वत्थेन सत्थु पूजनं, सत्थु अज्झासयानुवत्तनन्ति इमिना तेनेव यथावुत्तेन चतुब्बिधेन कारणेन । । १९५. थेरो च तावदेव तं सिङ्गीवण्णं मट्ठदुस्सं भगवतो उपनामेसि “पटिग्गण्हतु मे भन्ते भगवा इमं मट्ठदुस्सं, तं ममस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया"ति । पटिग्गहेसि भगवा, पटिग्गहेत्वाव नं परिभुञ्जि । तेन वुत्तं "भगवापि ततो एकं निवासेसि, एकं पारुपी"ति। तावदेव किर तं भिक्खू ओवट्टिकरणमत्तेन तुन्नकम्मं निट्ठापेत्वा थेरस्स उपनेसुं, थेरो भगवतो उपनामेसि । हतच्चिकं वियाति पटिहतप्पभं, विय-सद्दो निपातमत्तं । भगवतो हि सरीरप्पभाहि अभिभुय्यमाना तस्स वत्थयुगस्स पभस्सरता नाहोसि । अन्तन्तेनेवाति अन्तो अन्तो एव, अब्भन्तरतो एवाति अत्थो । तेनाह "बहिपनस्स पभा नत्थी"ति। "पसन्नरूपं समुट्ठापेती"ति एतेनेतस्स आहारस्स भुत्तप्पच्चया न सो रोगोति अयमत्थो दीपितो। द्वीसु कालेसु एवं होति द्विन्नं निब्बानधातूनं समधिगमसमयभावतो । उपवत्तने अन्तरेन यमकसालानन्ति एत्थ वत्तब्बं परतो आगमिस्सति । 153 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ दीघनिकाये महावग्गटीका १९६ . सब्बं सुवण्णवण्णमेव अहोसि अतिविय परिसुद्धाय पभस्सराय एकग्घनाय भगवतो सरीरप्पभाय निरन्तरं अभिभूतत्ता । धम्मेति परियत्तिधम्मे । पवत्ताति पावचनभावेन देसेता । पुरतोव निसीदि ओवादप्पटिकरणभावतो । (३.१९६-१९७) १९७. दानानिसंससङ्घाता लाभाति वण्णदानबलदानादिभेदा दानस्स आनिसंससञ्ञिता दिट्ठधम्मिका, सम्परायिका च लाभा इच्छितब्बा । ते अलाभाति ते सब्बे तुम्हं अलाभा, लाभा एव न होन्ति । दिट्ठेव धम्मे पच्चक्खभूते इमस्मिंयेव अत्तभावे भवा दिट्ठधम्मिका । सम्परेतब्बतो पेच्च गन्तब्बतो “सम्परायो 'ति लद्धनामे परलोके भवा सम्परायिका । दिट्ठधम्मिका च सम्परायिका च दिट्ठधम्मिकसम्परायिका । दानानिसंससङ्घाता लाभाति दानानिसंसभूता लाभा । सब्बथा सममेव हुत्वा समं फलं एतेसं न एकदेसेनाति समसमफला। पिण्डपाताति तब्बिसयं दानमयं पुञ्ञमाह । यदि खेत्तवसेन नेसं समफलता अधिप्पेता, सतिपि एकसन्तानभावे पुथुज्जन अरहन्तभावसिद्धं ननु तेसं खेत्तं विसिट्ठन्ति दस्सेतुं " ननु चा" तिआदिमाह । परिनिब्बानसमतायाति किलेसपरिनिब्बानखन्धपरिनिब्बानभावेन परिनिब्बानसमताय " परिभुञ्जित्वा परिनिब्बुतो "ति एतेन यथा पणीतपिण्डपातपरिभोगूपत्थम्भितरूपकायसन्निस्सयो धम्मकायो सुखेनेव किलेसे परिच्चजि, भोजनसप्पायसंसिद्धिया एवं सुखेनेव खन्धे परिच्चजीति एवं किलेसपरिच्चागस्स, खन्धपरिच्चागस्स च सुखसिद्धिनिमित्तता उभिन्नं पिण्डपातानं समफलता जोतिता । " पिण्डपातसीसेन च पिण्डपातदानं जोतित "न्ति वुत्तो वायमत्थो । यथा हि सुजाताय “इमं आहारं निस्साय मय्हं देवताय वण्णसुखबलादिगुणा सम्मदेव सम्पज्जेय्यु'"न्ति उळारो अज्झासयो तदा अहोसि, एवं चुन्दस्सपि कम्मारपुत्तस्स “इमं आहारं निस्साय भगवतो वण्णसुखबलादिगुणा सम्मदेव सम्पज्जेय्यु "न्ति उळारो अज्झासयोति एवम्पि सं उभिन्नं समफलता वेदितब्बा | सतिपि चतुवीसतिकोटिसतसहस्ससमापत्तीनं देवसिकं वळञ्जनसमापत्तिभावे यथा पन अभिसम्बुज्झनदिवसे अभिनवविपस्सनं पट्टपेन्तो रूपसत्तकादि (विसुद्धि० टी० २.७०७ वित्थारो) वसेन चुद्दसहाकारेहि सन्नेत्वा महाविपस्सनामुखेन ता समापत्तियो समापज्जि, एवं परिनिब्बानदिवसेपि सब्बा ता समापज्जीति एवं समापत्तिसमतायपि तेसं समफलता । चुन्दस्स ताव अनुसरणं उळारतरं होतु भगवतो दिन्नभावेन अञ्ञथत्ताभावतो, सुजाताय 154 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९८-१९८) यमकसालवण्णना १५५ पन कथं देवताय दिन्नन्ति ? एवंसञिभावतोति आह "सुजाता चा"तिआदि । अपरभागेति अभिसम्बोधितो अपरभागे । पुन अपरभागेति परिनिब्बानतो परतो। धम्मसीसन्ति धम्मानं मत्थकभूतं निब्बानं । मे गहितन्ति मम वसेन गहितं । तेनाह "महं किरा"तिआदि । अधिपतिभावो आधिपतेय्यन्ति आह "जेट्ठभावसंवत्तनियक"न्ति । संवरेति सीलसंवरे । वेरन्ति पाणातिपातादिपञ्चविधं वरं । तहि वेरिधम्मभावतो, वेरहेतुताय च “वेर''न्ति वुच्चति । कोसल्लं वुच्चति आणं, तेन युत्तो कुसलोति आह "कुसलो पन आणसम्पनो"ति। आणसम्पदा नाम आणपारिपूरी, सा च अग्गमग्गवसेन वेदितब्बा, अग्गमग्गो च निरवसेसतो किलेसे पजहतीति आह “अरियमग्गेन...पे०... जहाती"ति । इमं पापकं जहित्वाति दानेन ताव लोभमच्छरियादिपापकं, सीलेन पाणातिपातादिपापकं जहित्वा तदङ्गवसेन पहाय ततो समथविपस्सनाधम्मेहि विक्खम्भनवसेन, ततो मग्गपटिपाटिया समुच्छेदवसेन अनवसेसं पापकं पहाय । तथा पहीनत्ता एव रागादीनं खया किलेसनिब्बानेन सब्बसो किलेसवूपसमेन निब्बुतो परिनिब्बुतोति सउपादिसेसाय निब्बानधातुया देसनाय कूटं गण्हन्तो "इति चुन्दस्स...पे०... सम्पस्समानो उदानं उदानेसी"ति । चतुत्थभाणवारवण्णना निहिता। यमकसालवण्णना १९८. एवं तं कुसिनारायं होतीति यथा अनुराधपुरस्स थूपारामो दक्षिणपच्छिमदिसायं, एवं तं उय्यानं कुसिनाराय दक्षिणपच्छिमदिसायं होति । तस्माति यस्मा नगरं पविसितुकामा उय्यानतो उपेच्च वत्तन्ति गच्छन्ति एतेनाति "उपवत्तन"न्ति वुच्चति, तं सालपन्तिभावेन ठितं सालवनं । अन्तरेनाति वेमज्झे । तस्स किर मञ्चकस्साति तत्थ पञपियमानस्स तस्स मञ्चकस्स । तत्रापि...पे०... एको पादभागस्स, तस्मा “अन्तरेन यमकसालान'"न्ति वुत्तं । संसिबित्वाति अञमञआसत्तविटपसाखताय संसिब्बित्वा विय । “ठितसाखा"तिपि वुत्तं अट्ठकथायं । यं पन पाळियं "उत्तरसीसकं 155 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ दीघनिकाये महावग्गटीका मञ्चकं पञ्ञपेही "ति वुत्तं तं पच्छिमदरसनं दट्टु आगतानं देवतानं दट्टु योग्यतावसेन वृत्तं । केचि पन “उत्तरदिसाविलोकनमुखं पुब्बदिसासीसकं कत्वा मञ्चकं पञ्ञपेहीति अत्थो 'ति वदन्ति, तं तेसं मतिमत्तं । एते नागानमुत्तमाति एते गोत्ततो गोचरिआदिनामका हत्थिनागेसु बलेन सेट्ठतमा । मज्झिमट्ठकथायं (म० नि० अट्ठ० १.१४८) पन केचि हत्थिनो इतो अञ्ञथा आगता, सो पन नेसं नाममत्तकतो भेदो दट्ठब्बो । परिभुत्तकालतो पाय... पे०... परिक्खयं गतं, “न पन परिभुत्तप्पच्चया "ति हेट्ठा वुत्तनयेनेव अत्थो दट्ठब्बो । चङ्गवारेति ऊमियं । कतोकासस्स कम्मस्स वसेन यथासमुट्ठ रोगो आरोग्यं अभिमद्दतीति कत्वा एतमत्थं दस्सेन्तो “विया "ति वृत्तं । यस्मा भगवा हेट्ठा वृत्तनयेन कप्पं, कप्पावसेसं वा ठातुं समत्थो एव तत्तकं कालं ठाने पयोजनाभावतो आयुसङ्घारे ओस्सज्जित्वा तादिसस्स कम्मस्स ओकासं अदासि, तस्मा एतमत्थं दस्सेन्तो “विया” तिपि वत्तुं युज्जतियेव । कुसलं कातब्बं मञ्ञिस्सन्ति “ एवं महप्फलं, एवं महानिसंसं, कुसल "न्ति । (३.१९८ - १९८ ) एकस्साप सत्तस्स दुखवू बुद्धानं गरुतरो हुत्वा उपट्टाति अतिदुल्लभभावतो, तस्मा " अपरम्पि पस्सती ' "तिआदि वृत्तं, स्वायमत्थो मागण्डियसुत्तेन ( सु० नि० ८४१) दीपेतब्बो | ततियं पन कारणं सत्तानं उप्पज्जनकअनत्थपरिहरणन्ति तं दस्सेन्तो पुन "अपरम्प परसती 'ति आदिमाह । महानुभावञ्च तं सीहसेय्यन्ति । एत्थ सयनं सेय्या, सीहस्स विय सेय्या सीहसेय्या, तं सीहसेय्यं । अथ वा सीहसेय्यन्ति सेट्ठसेय्यं यदिदं अत्थद्वयं परतो आगमिस्सति । "वामेन परसेन सेन्तीति एवं वुत्ता कामभोगिसेय्या, दक्खिणपस्सेन सयानो नाम नत्थ दक्खिणहत्थस्स सरीरग्गहणादियोगक्खमतो, पुरिसवसेन चेतं वृत्तं । 156 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.१९८-१९८) यमकसालवण्णना १५७ एकेन पस्सेन सयितुं न सक्कोन्ति दुक्खुप्पत्तितो । अयं सीहसेय्याति अयं एवं वुत्ता सीहसेय्या । "तेजुस्सदत्ता"ति इमिना सीहस्स अभीरुभावं दस्सेति । भीरुका हि सेसमिगा अत्तनो आसयं पविसित्वा सन्तासपुब्बकं यथा तथा सयन्ति, सीहो पन अभीरुभावतो सतोकारी भिक्खु विय सतिं उपट्ठापेत्वाव सयति । तेनाह "पुरिमपादे"तिआदि । दक्खिणे पुरिमपादे वामस्स पुरिमपादस्स ठपनवसेन द्वे पुरिमपादे एकस्मिं ठाने ठपेत्वा । पच्छिमपादेति द्वे पच्छिमपादे । वुत्तनयेनेव इधापि एकस्मिं ठाने पादट्ठपनं वेदितब्, ठितोकाससल्लक्खणं अभीरुभावेनेव। "सीसं पन उक्खिपित्वा'तिआदिना वुत्ता सीहकिरिया अनुत्रासपबुज्झनं विय अभीरुभावसिद्धा धम्मतावसेनेवाति वेदितब्बा। सीहविजम्भितविजम्भनं अतिवेलं एकाकारेन ठपितानं सरीरावयवानं गमनादिकिरियासु योग्यभावापादनत्थं । तिक्खत्तुं सीहनादनदनं अप्पेसक्खमिगजातपरिहरणत्थं ।। सेति अब्यावटभावेन पवत्तति एत्थाति सेय्या, चतुत्थज्झानमेव सेय्या चतुत्थज्झानसेय्या। किं पन तं चतुत्थज्झानन्ति ? आनापानचतुत्थज्झानं, ततो हि वुट्ठहित्वा विपस्सनं वड्वेत्वा भगवा अनुक्कमेन अग्गमग्गं अधिगन्त्वा तथागतो जातोति । "तयिदं पदट्टानं नाम, न सेय्या, तथापि यस्मा 'चतुत्थज्झाना वुट्ठहित्वा समनन्तरा भगवा परिनिब्बायी'ति (दी० नि० २.२१९) वक्खति, तस्मा लोकियचतुत्थज्झानसमापत्ति एव तथागतसेय्या''ति केचि, एवं सति परिनिब्बानकालिकाव तथागतसेय्याति आपज्जति, न च भगवा लोकियचतुत्थज्झानसमापज्जनबहुलो विहासि । अग्गफलवसेन पवत्तं पनेत्थ चतुत्थज्झानं वेदितब्बं । तत्थ यथा सत्तानं निडुपगमनलक्खणा सेय्या भवङ्गचित्तवसेन होति, सा च नेसं पठमजातिसमन्वया येभुय्यवुत्तिका, एवं भगवतो अरियजातिसमन्वयं येभुय्यवुत्तिकं अग्गफलभूतं चतुत्थज्झानं “तथागतसेय्या''ति वेदितब्बं । सीहसेय्या नाम सेट्ठसेय्याति आह "उत्तमसेय्या"ति । नस्थि एतिस्सा उठानन्ति अनुट्ठाना, सेय्या, तं अनुट्ठानसेय्यं । "इतो उट्ठहिस्सामी"ति मनसिकारस्स अभावतो “उट्ठानसझं मनसि करित्वा"ति न वुत्तं। एत्थाति एतस्मिं अनुढानसेय्युपगमने | कायवसेन अनुट्ठानं, न चित्तवसेन, चित्तवसेन च अनुढानं नाम निडुपगमनन्ति तदभावं दस्सेतुं “निद्दावसेना''तिआदि वृत्तं । भवङ्गस्साति निडुपगमनलक्खणस्स भवङ्गस्स । 157 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.१९९-१९९) ___ सब्बपालिफुल्लाति सब्बत्थकमेव विकसनवसेन फुल्ला, न एकदेसविकसनवसेन । तेनाह "सब्बे समन्ततो पुष्फिता"ति । एकच्छन्नाति सम्फुल्लपुप्फेहि एकाकारेन सब्बत्थेव छादिता | उल्लोकपदुमानीति हेट्ठा ओलोकेन्तानि विय तिठ्ठनपदुमानि | मोरपिञ्छकलापो विय पञ्चवण्णपुप्फसञ्छादितत्ता । नन्दपोक्खरणीसम्भवानीति नन्दपोक्खरणीतीरसम्भवानि । महातुम्बमत्तन्ति आळहकमत्तं । पविद्वानीति खित्तानि । सरीरमेव ओकिरन्तीति सरीरमेव अज्झोकिरन्ति । देवतानं उपकप्पनचन्दनचुण्णानीति सट्ठिपि पञ्जासम्पि योजनानि वायनकसेतवण्णचन्दनचुण्णानि। दिब्बगन्धजालचुण्णानीति दिब्बगन्धदिब्बचुण्णानि । हरितालअञ्जनचुण्णादीनिपि दिब्बानि परमसुगन्धानि एवाति वेदितब्बानि । तेनेवाह "सब्बदिब्बगन्धवासविकतियो'ति । एकचक्कवाळे सनिपतित्वा अन्तलिक्खे वज्जन्ति महाभिनिक्खमनकाले विय । ताति देवता । गन्थमाना वाति मालं रचन्तियो एव । अपरिनिविता वाति यथाधिप्पायं परियोसिता एव । हत्थेन हत्थन्ति अत्तनो हत्थेन परस्स हत्थं । गीवाय गीवन्ति कण्ठगाहवसेन अत्तनो गीवाय परस्स गीवं । गहेत्वाति आमसित्वा । महायसो महायसोति आमेडितवसेन अञमनं आलापवचनं । १९९. महन्तं उस्साहन्ति तथागतस्स पूजासक्कारवसेन पवत्तियमानं महन्तं उस्साहं दिस्वा। सायेव पन पटिपदाति पुब्बभागपटिपदा एव । अनुच्छविकत्ताति अधिगन्तब्बस्स नवविधलोकुत्तरधम्मस्स अनुरूपत्ता । सीलन्ति चारित्तसीलमाह। आचारपञत्तीति चारित्तसीलं। याव गोत्रभुतोति याव गोत्रभुजाणं, ताव पवत्तेतब्बा समथविपस्सना सम्मापटिपदा। इदानि तं सम्मापटिपदं ब्यतिरेकतो, अन्वयतो च विभावेतुं "तस्मा''तिआदि वुत्तं । जिनकाळसुत्तन्ति जिनमहावड्डकिना ठपितं वज्जेतब्बगहेतब्बधम्मसन्दस्सनकाळसुत्तं सिक्खापदमरियादं, 158 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२००-२०१) उपवाणत्थेरवण्णना १५९ उपासकोपासिकावारेसु “गन्धपूजं मालापूजं करोती"ति वचनं चारित्तसीलपक्खे ठपेत्वा करणं सन्धाय वुत्तं, तेन भिक्खुभिक्खुनीनम्पि तथाकरणं अनुज्ञातमेवाति दट्ठब्बं । अयज्हीति धम्मानुधम्मपटिपदं सन्धाय वदति । उपवाणत्थेरवण्णना २००. अपनेसीति ठितप्पदेसतो यथा अपगच्छति, एवमकासि, न पन निब्मच्छि । तेनाह "आनन्दो"तिआदि । वुत्तसदिसा वाति समचित्तपरियायदेसनायं (अ० नि० १.२.३७) वुत्तसदिसा एव । आवारेन्तोति छादेन्तो । यस्मा कस्सपस्सबुद्धस्स चेतिये आरक्खदेवता अहोसि, तस्मा थेरोव तेजुस्सदो, न अञ्चे अरहन्तोति आनेत्वा योजना । इदानि आगमनतो पट्ठाय तमत्थं वित्थारतो दस्सेतुं "विपस्सिम्हि किर सम्मासम्बुद्धे"तिआदि आरद्धं । “चातुमहाराजिका देवता'"ति इदं गोबलीबद्दञायेन गहेतब्बं भुम्मदेवतादीनम्पि तप्परियापन्नत्ता । तेसं मनुस्सानं । तत्थाति कस्सपस्स भगवतो चेतिये । २०१. अधिवासेन्तीति रोचेन्ति । छिन्नपातो विय छिन्नपातो, तं छिन्नपातं, भावनपुंसकनिद्देसो यं । आवट्टन्तीति अभिमुखभावेन वट्टन्ति । यत्थ पतिता, ततो कतिपयरतनट्ठानं वट्टनवसेनेव गन्त्वा पुन यथापतितमेव ठानं वट्टनवसेन आगच्छन्ति । तेनाह “आवदृन्तियो पतितद्वानमेव आगच्छन्ती"ति । विवदृन्तीति यत्थ पतिता, ततो विनिवट्टन्ति । तेनाह "पतितहानतो परभागं वट्टमाना गच्छन्ती"ति । पुरतो वट्टनं आवट्टनं, इतरं तिविधम्पि विवट्टनन्ति दस्सेतुं "अपिचा"तिआदि वुत्तं । देवता धारेतुं न सक्कोति उदकं विय ओसीदनतो। तेनाह "तत्था"तिआदि । तत्थाति पकतिपथवियं । देवता ओसीदन्ति धातूनं सहसुखुमालभावतो । 159 Jain Education Interational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२०२-२०३) १६० पथवियं पथविं मापेसुन्ति पकतिपथवियं अत्तनो सरीरं धारेतुं समत्थं इद्धानुभावेन पथविं मापेसुं। कामं दोमनस्से असतिपि एकच्चो रागो होतियेव, रागे पन असति दोमनस्सस्स असम्भवो एवाति तदेकट्ठभावतोति आह “वीतरागाति पहीनदोमनस्सा"ति । सिलाथम्भसदिसा इट्ठानिट्टेसु निब्बिकारताय । चतुसंवेजनीयवानवण्णना २०२. अपारगङ्गायाति गङ्गाय ओरम्भागे । “सङ्कारछडकसम्मज्जनियो गहेत्वा"तिआदि अत्तनो अत्तनो वसनट्ठाने वत्तकरणाकारदस्सनं । “एवं द्वीसु कालेसू"तिआदि निदस्सनत्थं पच्चामसनं, तं हेट्ठा अधिगतं । कम्मसाधनो सम्भावनत्थो भावनीय-सद्दोति आह "मनसा भाविते सम्भाविते"ति । दुतियविकप्पे पन भावनं, वड्डनञ्च पटिपक्खपहानतोति आह “ये वा"तिआदि । बुद्धादीसु तीसु वत्थूसु पसन्नचित्तस्स, न कम्मफलसद्धामत्तेन । सा चस्स सद्धासम्पदा एवं वेदितब्बाति फलेन हेतुं दस्सेन्तो "वत्तसम्पन्नस्सा"ति आह । संवेगो नाम सहोत्तप्पञाणं, अभिजातिट्टानादीनिपि तस्स उप्पत्तिहेतूनि भवन्तीति आह "संवेगजनकानी'ति । चेतियपूजनत्थं चारिका चेतियचारिका। सग्गे पतिद्वहिस्सन्तियेव बुद्धगुणारम्मणाय कुसलचेतनाय सग्गसंवत्तनियभावतो । आनन्दपुच्छाकथावण्णना २०३. एत्थाति मातुगामे । अयं उत्तमा पटिपत्ति, यदिदं अदस्सनं, दस्सनमूलकत्ता तप्पच्चयानं सब्बानत्थानं । लोभोति कामरागो। चित्तचलना पटिपत्तिअन्तरायकरो चित्तक्खोभो। मुरुमुरापेत्वाति सअट्ठिकं कत्वा खादने अनुरवदस्सनं । अपरिमितं कालं दुक्खानुभवनं अपरिच्छिन्नदुक्खानुभवनं। विस्सासोति विसङ्गो घटनाभावो । ओतारोति तत्थ 160 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२०४-२०८) आनन्दअच्छरियधम्मवण्णना १६१ चित्तस्स अनुप्पवेसो। असिहत्थेन वेरीपुरिसेन, पिसाचेनापि खादितुकामेन । आसीदेति अक्कमनादिवसेन बाधेय्य । अस्साति मातुगामस्स। पब्बजितेहि कत्तब्बकम्मन्ति आमिसपटिग्गहणादि पब्बजितेहि कातब्बं कम्मं । सतीति वा कायगतासति उपट्ठापेतब्बा। २०४. अतन्तिबद्धाति अभारवहा । पेसितचित्ताति निब्बानं पति पेसितचित्ता । २०५. विहतेनाति कप्पासविहननधनुना पब्बजटानं विजटनवसेन हतेन । तेनाह "सुपोथितेना"ति, असङ्करणवसेन सुटु पोथितेनाति अत्थो, दस्सनीयसंवेजनीयट्ठानकित्तनेन च वसनट्ठानं कथितं । आनन्दअच्छरियधम्मवण्णना २०७. थेरं अदिस्वा आमन्तेसीति तत्थ अदिस्वा आवज्जन्तो थेरस्स ठितट्ठानं, पवत्तिञ्च ञत्वा आमन्तेसि । कायकम्मस्स हितभावो हितज्झासयेन पवत्तितत्ताति आह “हितबुद्धिया कतेना"ति । सुखभावो कायिकदुक्खाभावो, चेतसिकसुखभावो चेतसिकसुखसमुद्वितत्ता चाति वुत्तं "सुखसोमनस्सेनेव कतेना"ति । आविरहोविभागतो अद्वयभावतो अद्वयेनाति इममत्थं दस्सेतुं "यथा"तिआदि वुत्तं । सत्थु खेत्तभावसम्पत्तिया, थेरस्स अज्झासयसम्पत्तिया च "एत्तकमिदन्ति पमाणं गहेतुं असक्कुणेय्यताय पमाणविरहितत्ता तस्स कम्मस्साति आह "चक्कवाळम्पी"तिआदि । एवं पवत्तितेनाति एवं ओदिस्सकमेत्ताभावनाय वसेन पवत्तितेन । विवढूपनिस्सयभूतं कतं उपचितं पुजं एतेनाति कतपुञ्जो, अरहत्ताधिगमाय कताधिकारोति अत्थो । तेनाह "अभिनीहारसम्पत्रोसीति दस्सेती"ति । २०८. कत्थचि सङ्कुचितं हुत्वा ठितं महापथविं पत्थरन्तो विय, पटिसंहट हुत्वा ठितं आकासं वित्थारेन्तो विय, चतुसाधिकयोजनसतसहस्सुब्बेधं चक्कवाळगिरिं अधो ओसारेन्तो विय, अट्ठसठ्ठाधिकसहस्सयोजनसतसहस्सुब्बेधं सिनेरुं उक्खिपेन्तो विय, सतयोजनायामवित्थारं महाजम्बु खन्धे गहेत्वा चालेन्तो वियाति पञ्च हि उपमा हि थेरस्स 161 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२०९-२१०) गुणकथा महन्तभावदस्सनत्थञ्चेव अजेसं दुक्कटभावदस्सनत्थञ्च आगताव । एतेनेव चाति च-सद्देन “अहं एतरहि अरहं सम्मासम्बुद्धो" (दी० नि० २.४), "सदेवकस्मिं लोकस्मिं नत्थि मे पटिपुग्गलो"ति (म० नि० १.२८५; २.३४१; महाव० ११; कथाव० ४०५; मि० प० ५.११) च एवं आदीनं सङ्गहो दट्ठब्बो। ब्यत्तोति खन्धकोसल्लादिसङ्घातेन वेय्यत्तियेन समन्नागतो । मेधावीति मेधासङ्घाताय सम्माभाविताय पाय समन्नागतो । २०९. पटिसन्थारधम्मन्ति पकतिचारित्तवसेन वुत्तं, उपगतानं पन भिक्खूनं भिक्खुनीनञ्च पुच्छाविस्सज्जनवसेन चेव चित्तरुचिवसेन च यथाकालं धम्म देसेतियेव, उपासकोपासिकानं पन उपनिसिन्नकथावसेन । महासुदस्सनसुत्तदेसनावण्णना २१०. खुद्दक-सद्दो पतिरूपवाची, क-सदो अप्पत्थोति आह "खुद्दकनगरकेति नगरपतिरूपके सम्बाधे खुद्दकनगरके"ति । धुपरविसालसण्ठानताय तं "उज्जङ्गलनगरक"न्ति वुत्तन्ति आह "विसमनगरके"ति । अओसं महानगरानं एकदेसप्पमाणताय साखासदिसे। एत्थ च "खुद्दकनगरके"ति इमिना तस्स नगरस्स अप्पकभावो वुत्तो, “उज्जङ्गलनगरके"ति इमिना भूमिविपत्तिया निहीनभावो, “साखानगरके''ति इमिना अप्पधानभावो । सारप्पत्ताति विभवसारादिना सारमहत्तं पत्ता । कहापणसकटन्ति एत्थ “द्विकुम्भं सकटं। कुम्भो पन दसम्बणो"ति वदन्ति । द्वे पविसन्तीति द्वे कहापणसकटानि द्वे आयवसेन पविसन्ति ।। सुभिक्खाति सुलभाहारा, सुन्दराहारा च। तेनाह "खज्जभोज्जसम्पन्ना"ति । सदं करोन्तेति रवसारिना तुट्ठभावेन कोञ्चनादं करोन्ते । अविवित्ताति असुञा, कदाचि रथो पठमं गच्छति, तं अञो अनुबन्धन्तो गच्छति, कदाचि दुतियं वुत्तरथो पठमं गच्छति, इतरो तं अनुबन्धति एवं अञमङ्गं अनुबन्धमाना। एत्थाति कुसावतीनगरे । तस्स महन्तभावतो चेव इद्धादिभावतो च निच्चं पयोजितानेव भेरिआदीनि तूरियानि, सम्म सम्माति वा अञ्जमजं पियालापसद्दो सम्म-सद्दो। कंसताळादिसब्बताळावचरसद्दो ताळ-सद्दो, कूटभेरि-सद्दो कुम्भथूणसद्दो । 162 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२११-२१२) मल्लानं वन्दनावण्णना १६३ एवरूपा सद्दा होन्ति कचवराकिण्णवीथिताय, अरञ्जे कन्दमूलपण्णादिग्गहणाय, तत्थ दुक्खजीविकताय चाति यथाक्कम योजेतब्बं । इध न एवं अहोसि देवलोके विय सब्बसो परिपुण्णसम्पत्तिकताय । महन्तं कोलाहलन्ति सद्धासम्पन्नानं देवतानं, उपासकानञ्च वसेन पुरतो पुरतो महती उग्घोसना होति । तत्थ भगवन्तं उद्दिस्स कतस्स विहारस्स अभावतो, भिक्खुसङ्घस्स च महन्तभावतो ते आगन्त्वा...पे०... पेसेसि । पेसेन्तो च “कथहि नाम भगवा पच्छिमे काले अत्तनो पवत्तिं अम्हाकं नारोचेसि, नेसं दोमनस्सं मा अहोसी''ति “अज्ज खो वासेट्ठा'तिआदिना सासनं पेसेसि ।। मल्लानं वन्दनावण्णना २११. अघं दुक्खं आवेन्ति पकासेन्तीति अघाविनो, पाकटीभूतदुक्खाति आह "उप्पन्नदुक्खा"ति। आतिसालोहितभावेन कुलं परिवत्तति एत्थाति कुलपरिवत्तं। तं तंकुलीनभागेन ठितो सत्तनिकायो “कुलपरिवत्तसो''ति वुत्तन्ति आह "कुलपरिवत्त'"न्ति । ते पन तंतंकुलपरिवत्तपरिच्छिन्ना मल्लराजानो तस्मिं नगरे वीथिआदिसभागेन वसन्तीति वुत्तं “वीथिसभागेन चेव रच्छासभागेन चा"ति । सुभद्दपरिब्बाजकवत्थुवण्णना २१२. कङ्खा एव कङ्खाधम्मो। एकतो वाति भूमि अविभजित्वा साधारणतोव । बीजतो च अग्गं गहेत्वा आहारं सम्पादेत्वा दानं बीजग्गं। गन्भकालेति गब्भधारणतो परं खीरग्गहणकाले । तेनाह "गभं फालेत्वा खीरं निहरित्वा"तिआदि । पुथुककालेति सस्सानं नातिपक्के पुथुकयोग्यफलकाले । लायनग्गन्ति पक्कस्स सस्सस्स लवने लवनारम्भे दानं अदासि । लुनस्स सस्सस्स वेणिवसेन बन्धित्वा ठपनं वेणिकरणं। तस्स आरम्भे दानं वेणग्गं। वेणियो पन एकतो कत्वा रासिकरणं कलापो। तत्थ अग्गदानं कलापग्गं । कलापतो नीहरित्वा मद्दने अग्गदानं खलग्गं। मद्दितं ओफुणित्वा धास्स रासिकरणे अग्गदानं खलभण्डग्गं। धचस्स खलतो कोढे पक्खिपने अग्गदानं कोढग्गं। उद्धरित्वाति कोट्ठतो उद्धरित्वा । 163 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२१३-२१४) __ "नव अग्गदानानि अदासी"ति इमिना "कथं नु खो अहं सत्थु सन्तिके अग्गतोव मुच्चेय्य"न्ति अग्गग्गदानवसेन विवट्टपनिस्सयस्स कुसलस्स कतूपचितत्ता, आणस्स च तथा परिपाकं गतत्ता अग्गधम्मदेसनाय तस्स भाजनभावं दस्सेति । तेनाह "इमं अग्गधम्मं तस्स देसेस्सामी"तिआदि । ओहीयित्वा सङ्कोचं आपज्जित्वा । २१३. अज्ञातुकामोव न सन्दिहिँ परामासी। अब्भधिसूति सन्देहजातस्स पुच्छावचनन्ति कत्वा जानिसूति अत्थमाह । तेनाह पाळियं “सब्बेव न अब्भजिंसू"ति । नेसन्ति पूरणादीनं । सा पटिञाति "करोतो खो महाराज कारयतो"तिआदिना (दी० नि० १.१६६) पटिञाता, सब्ब पटिञा एव वा । निय्यानिकाति सप्पाटिहारिया, तेसं वा सिद्धन्तसङ्खाता पटिञा वट्टतो निस्सरणढेन निय्यानिकाति । सासनस्स सम्पत्तिया तेसं सब्ब तं, तब्बिपरियायतो च असब्बञ्जतं गच्छतीति दट्ठब्बं । तेनाह "तस्मा"तिआदि । अत्थाभावतोति सुभद्दस्स साधेतब्बअत्थाभावतो । ओकासाभावतोति तथा वित्थारितं कत्वा धम्म देसेतुं अवसराभावतो । इदानि तमेव ओकासाभावं दस्सेतुं “पठमयामस्मि"न्तिआदि वुत्तं । २१४. येसं समणभावकरानं धम्मानं सम्पादनेन समणो, ते पन उक्कट्ठनिद्देसेन अरियमग्गधम्माति चतुमग्गसंसिद्धिया पाळियं चत्तारो समणा वुत्ताति ते बाहिरसमये सब्बेन सब्बं नत्थीति दस्सेन्तो "पठमो सोतापत्रसमणो"तिआदिमाह । पुरिमदेसनायाति “यस्मिञ्च खो, सुभद्द, धम्मविनये"तिआदिना वुत्ताय देसनाय । व्यतिरेकतो, अन्वयतो च अधिप्पेतो अत्थो विभावीयतीति पठमनयोपेत्थ "पुरिमदेसनाया"ति पदेन सङ्गहितो वाति दट्टब्बो । अत्तनो सासनं नियमेन्तो आह "इमस्मिं खो"ति योजना। आरद्धविपस्सकेहीति समाधिकम्मिकविपस्सकेहि, सिखाप्पत्तविपस्सके सन्धाय वुत्तं, न पट्ठपितविपस्सने । अपरे पन “बाहिरकसमये विपस्सनारम्भस्स गन्थोपि नत्थेवाति अविसेसवचनमेत"न्ति वदन्ति । अधिगतहानन्ति अधिगतस्स कारणं, तदत्थं पुब्बभागपटिपदन्ति अत्थो, येन सोतापत्तिमग्गो अधिगतो, न उपरिमग्गो, सो सोतापत्तिमग्गे ठितो अकुप्पधम्मताय तस्स, तत्थ वा सिद्धितो ठितपुब्बो भूतपुब्बगतियाति सोतापत्तिमग्गट्ठो सोतापन्नो, न सेसअरिया भूमन्तरुप्पत्तितो। सोतापन्नो हि अत्तना अधिगतट्टानं सोतापत्तिमग्गं अञस्स कथेत्वा सोतापत्तिमग्गळं करेय्य, न अट्ठमको असम्भवतो। एस नयो सेसमग्गटेसूति एत्थापि इमिनाव नयेन अत्थो वेदितब्बो | पगुणं कम्मट्ठानन्ति अत्तनो पगुणं विपस्सनाकम्मट्ठानं, एतेनेव “अविसेसवचन"न्ति वादो पटिक्खित्तोति दट्ठब्बो । 164 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१५-२१६) तथागतपच्छिमवाचावण्णना आह सब्बञ्ञतञणं अधिप्पेतं । तहि सब्बञेय्यधम्मावबोधने “कुसलं छेकं निपुण "न्ति वुच्चति तत्थ असङ्गअप्पटिहतं पवत्ततीति कत्वा । समधिकानि एकेन वस्सेन । जयन्ति एतेन चतुसच्चधम्मं याथावतो पटिविज्झन्तीति आयो, लोकुत्तरमग्गो “ अरियमग्गधम्मस्सा "ति । पदिस्सति एतेन अरियमग्गो पच्चक्खतो दिस्सतीति पदेसो, विपस्सनाति वृत्तं "पदेसे विपस्सनामग्गे "ति । समणोपीति एत्थ पि सद्दो "पदेसवत्ती 'ति एथापि आनेत्वा सम्बन्धितब्बोति आह " पदेसवत्ति... पे०. नत्थीति वुत्तं होती "ति । २१५. सोति तथावुत्तो अन्तेवासी । तेनाति आचरियेन । अत्तनो ठाने ठपितो होति परपब्बाजनादीसु नियुत्तत्ता । सक्खिसावकोति पच्चक्खसावको सम्मुखसावकोति अत्थो । भगवति धरमानेति धरमानस्स भगवतो सन्तिके । सेसद्वयेपि एसेव नयो । सब्बोपि सोति सब्बो सो तिविधोपि । अयं पन अरहत्तं पत्तो, तस्मा परिपुण्णगताय मत्थकप्पत्तो पच्छिमो सक्खिसावकोति । १६५ पञ्चमभाणवारवण्णना निट्ठिता । तथागतपच्छिमवाचावण्णना २१६. तन्ति भिक्खुसङ्घस्स ओवादक दस्सेतुं... पे०... वुत्तं धम्मसङ्गाहकेहीति अधिप्पायो । सुत्ताभिधम्मसङ्गहितस्स धम्मस्स अतिसज्जनं सम्बोधनं देसना, तस्सेव पकारतो आपनं वेनेय्यसन्ताने ठपनं पञ्ञापनन्ति “धम्मोपि देसितो चेव पञ्ञत्तो चाति वृत्तं । तथा विनयतन्तिसङ्गहितस्स कायवाचानं विनयनतो “विनयो "ति लद्धाधिवचनस्स अत्थस्स अतिसज्जनं सम्बोधनं देसना, तस्सेव पकारतो आपनं असङ्करतो ठपनं पञ्ञापनन्ति “विनयोपि देसितो चेव पञ्ञत्तो चा "ति वृत्तं । अधिसीलसिक्खानिद्देसभावेन सासन मूलभूतत्ता विनयो पठमं सिक्खितब्बोति तं ताव अयमुद्देसं सरूपतो दस्सेन्तो “मया हि वो "तिआदिमाह । सत्तापत्तिक्खन्धवसेनाति सत्तन्नं आपत्तिक्खन्धानं तत्थ 165 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२१६-२१६) अवीतिक्कमनीयतावसेन । सत्थुकिच्चं साधेस्सति “इदं वो कत्तब्ध, इदं वो न कत्तब्बन्ति कत्तब्बाकत्तब्बस्स विभागेन अनुसासनतो । तेन तेनाकारेनाति तेन तेन वेनेय्यानं अज्झासयानुरूपेन पकारेन । इमे धम्मेति इमे सत्ततिंसबोधिपक्खियधम्मे । तप्पधानत्ता सुत्तन्तदेसनाय "सुत्तन्तपिटकं देसित"न्ति वुत्तं । सत्थुकिच्चं साधेस्सति तंतंचरियानुरूपं सम्मापटिपत्तिया अनुसासनतो । कुसलाकुसलाब्याकतवसेन नव हेतू। “सत्त फस्सा"तिआदि सत्तविाणधातुसम्पयोगवसेन वुत्तं । धम्मानुलोमे तिकपट्टानादयो छ, तथा धम्मपच्चनीये, धम्मानुलोमपच्चनीये, धम्मपच्चनीयानुलोमेति चतुवीसति समन्तपट्टानानि एतस्साति चतुवीसतिसमन्तपट्ठान, तं पन पच्चयानुलोमादिवसेन विभजियमानं अपरिमाणनयं एवाति आह "अनन्तनयमहापट्टानपटिमण्डित"न्ति । सत्थुकिच्चं साधेस्सतीति खन्धादिविभागेन आयमानं चतुसच्चसम्बोधावहत्ता सत्थारा सम्मासम्बुद्धेन कातब्बकिच्चं निप्फादेस्सति । ओवदिस्सन्ति अनुसासिस्सन्ति ओवादानुसासनीकिच्चनिप्फादनतो । चारित्तन्ति समुदाचारा, नवेसु पियालापं वुड्डेसु गारवालापन्ति अत्थो। तेनाह "भन्तेति वा आयस्माति वा"ति । गारववचनं हेतं यदिदं भन्तेति वा आयस्माति वा, लोके पन “तत्र भव"न्ति, “देवानं पिया"ति च गारववचनमेव । "आकङ्खमानो समूहनतू''ति वुत्ते "न आकङ्खमानो न समूहनतू"तिपि वुत्तमेव होतीति आह "विकप्पवचनेनेव ठपेसी"ति । बलन्ति जाणबलं । यदि असमूहननं दिटुं, तदेव च इच्छितं, अथ, कस्मा भगवा “आकङ्खमानो समूहनतू"ति अवोचाति ? तथारूपपुग्गलज्झासयवसेन । सन्ति हि केचि खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि समादाय संवत्तितुं अनिच्छन्ता, तेसं तथा अवुच्चमाने भगवति विघातो उप्पज्जेय्य, तं तेसं भविस्सति दीघरत्तं अहिताय दुक्खाय, तथा पन वुत्ते तेसं विघातो न उप्पज्जेय्य "अम्हाकं एवायं दोसो, यतो अम्हेसु एव केचि समूहननं न इच्छन्तीति । केचि "सकलस्स पन सासनस्स सङ्घायत्तभावकरणत्थं तथा वुत्त''न्ति वदन्ति । यञ्च किञ्चि सत्थारा सिक्खापदं पञत्तं, तं समणा सक्यपुत्तिया सिरसा सम्पटिच्छित्वा जीवितं विय रक्खन्ति । तथा हि ते “खुद्दानुखुद्दकानि सिक्खापदानि आकङ्घमानो सङ्घो समूहनतू''ति वुत्तेपि न समूहनिंसु, अञदत्थु “पुरतो विय तस्स अच्चयेपि रखिंसु एवा"ति 166 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२१७-२१९) परिनिब्बुतकथावण्णना १६७ सत्थुसासनस्स, सङ्घस्स च महन्तभावदस्सनत्थम्पि तथा वुत्तन्ति दट्टब्बं । तथा हि आयस्मा आनन्दो, अञपि वा भिक्खू “कतमं पन भन्ते खुद्दकं, कतमं अनुखुद्दक"न्ति न पुच्छिंसु समूहनज्झासयस्सेव अभावतो । न तं एवं गहेतब्बन्ति “नागसेनत्थेरो खुद्दानुखुद्दकं जानाती''तिआदिना वुत्तं तं नेसं वचनं इमिना वुत्ताकारेन न गहेतब्बं अधिप्पायस्स अविदितत्ता। इदानि तं अधिप्पायं विभावेतुं “नागसेनत्थेरो ही"तिआदि वुत्तं । यस्मा नागसेनत्थेरो (मिलिन्दपज्हे अभेज्जवग्गे वित्थारो) परेसं वादपथोपच्छेदनत्थं सङ्गीतिकाले धम्मसङ्गाहकमहाथेरेहि गहितकोट्ठासेसु च अन्तिमकोट्टासमेव गहेत्वा मिलिन्दराजानं पञआपेसि । महाकस्सपत्थेरो पन एकसिक्खापदम्पि असमूहनितुकामताय तथा कम्मवाचं सावेति, तस्मा तं तेसं वचनं तथा न गहेतब् । २१७. ढेव्हकन्ति द्विधागाहो, अनेकंसग्गाहोति अत्थो । विमतीति संसयापत्ति । तेनाह "विनिच्छितुं असमत्थता"ति । तं वो वदामीति तं संसयवन्तं भिक्खु सन्धाय वो तुम्हे वदामि । निक्कलभावपच्चक्खकरणञाणं येवाति बुद्धादीसु तेसं भिक्खून निक्कङ्खभावस्स पच्चक्खकारियाभावतो तमत्थं पटिविज्झित्वा ठितं सब्ब तञाणमेव । एत्थ एतस्मिं अत्थे । २१८. अप्पमज्जनं अप्पमादो, सो पन अत्थतो जाणूपसम्हिता सति । यस्मा तत्थ सतिया ब्यापारो सातिसयो, तस्मा “सतिअविप्पवासेना"ति वुत्तं । अप्पमादपदेयेव पक्खिपित्वा अदासि तं अत्थतो, तस्स सकलस्स बुद्धवचनस्स सङ्गण्हनतो च । परिनिब्बुतकथावण्णना २१९. झानादीसु, चित्ते च परमुक्कंसगतवसीभावताय "एत्तके काले एत्तका समापत्तियो समापज्जित्वा परिनिब्बायिस्सामी"ति कालपरिच्छेदं कत्वा समापत्ति समापज्जनं "परिनिब्बानपरिकम्म"न्ति अधिप्पेतं । थेरोति अनुरुद्धत्थेरो। अयम्पि चाति यथावुत्तपञ्चसट्ठिया झानानं समापन्नभावकथापि सङ्केपकथा एव, 167 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२२०-२२७) १६८ कस्मा ? यस्मा भगवा तदापि देवसिकं वळञ्जनसमापत्तियो सब्बापि अपरिहापेत्वा समापज्जि एवाति दस्सेन्तो “निब्बानपुरं पविसन्तो"तिआदिमाह ।। इमानि वेपि समनन्तरानेव पच्चवेक्खणायपि येभुय्येनानन्तरियकताय झानपक्खिकभावतो, यस्मा भवङ्गचित्तं सब्बपच्छिम, ततो भवतो चवनतो “चुती"ति वुच्चति, तस्मा न केवलं अयमेव भगवा, अथ खो सब्बेपि सत्ता भवङ्गचित्तेनेव चवन्तीति दस्सेतुं “ये हि केची"तिआदि वुत्तं । २२०. पटिभागपुग्गलविरहितोति सीलादिगुणेहि असदिसताय सदिसपुग्गलरहितो । २२१. सङ्खारा वूपसमन्ति एत्थाति वूपसमोति एवंसङ्खातं ज्ञातं कथितं निब्बानं । २२२. यन्ति पच्चत्ते उपयोगवचनन्ति आह “यो कालं अकरी"ति । सुविकसितेनेवाति पीतिसोमनस्सयोगतो सुट्ठ विकसितेन मुदितेन । वेदनं अधिवासेसि अभावसमुदयो कतो सुट्ठ परिञातत्ता । अनावरणविमोक्खो सब्बसो निब्बुतभावतो । २२३. आकरोन्ति अत्तनो फलानि समानाकारे करोन्तीति आकारा, कारणानि | सब्बाकारवरूपेतेति सब्बेहि आकारवरेहि उत्तमकारणेहि सीलादिगुणेहि समन्नागतेति अत्थो । २२५. कथंभूताति कीदिसाभूता । चुल्लकद्धानन्ति परित्तं कालं द्वत्तिनाडिकामत्तं वेलं । बुद्धसरीरपूजावण्णना २२७. कंसताळादि ताळं अवचरति एत्थाति "ताळावचरन्ति वुच्चति आततादितूरियभण्डं । तेनाह "सब्बं तूरियभण्ड"न्ति । 168 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२२८-२३२) महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना १६९ दक्खिणदिसाभागेनेवाति अञ्जन दिसाभागेन अनाहरित्वा यमकसालानं ठानतो दक्खिणदिसाभागेनेव, ततोपि दक्खिणदिसाभागं हरित्वा नेत्वा । जेतवनसदिसेति सावत्थिया जेतवनसदिसे ठाने, “जेतवनसदिसे ठाने''तिपि पाठो । २२८. पसाधनमङ्गलसालायाति अभिसेककाले अलङ्करणमङ्गलसालाय । २२९. देवदानियोति तस्स चोरस्स नामं । महाकस्सपत्थेरवत्थुवण्णना २३१. पावायाति पावा नगरतो। आवज्जनपटिबद्धत्ता जाननस्स अनावज्जितत्ता सत्थु परिनिब्बानं अजानन्तो “दसबलं पस्सिस्सामी"ति थेरो चिन्तेसि, सत्थु सरीरे वा सत्थुसनं उप्पादेन्तो तथा चिन्तेसि । तेनेवाह “अथ भगवन्तं उक्खिपित्वा''ति । "धुवं परिनिब्बुतो भविस्सती"ति चिन्तेसि पारिसेसजायेन । जानन्तोपि थेरो आजीवकं पुच्छियेव, पुच्छने पन कारणं सयमेव पकासेतुं “किं पना"तिआदि आरद्धं । अज्ज सत्ताहपरिनिब्बुतोति अज्ज दिवसतो पटिलोमतो सत्तमे अहनि परिनिब्बुतो । २३२. नाळिया वापकेनाति नाळिया चेव थविकाय च । मञ्जुकेति मञ्जुभाणिने मधुरस्सरे । पटिभानेय्यकेति पटिभानवन्ते। भुजित्वा पातब्बयागूति पठमं भुजित्वा पिवितब्बयागु । तस्साति सुभद्दस्स वुड्डपब्बजितस्स । आराधितसासनेति समाहितसासने। अलन्ति समत्थो। पापोति पापपुग्गलो । ओसक्कापेतुन्ति हापेतुं अन्तरधापेतुं । पहवाराति पञ्हा विय विस्सज्जनानि “यस्मिं समये कामावचरं कुसलं चित्तं 169 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२३३-२३५) उप्पन्नं होती"तिआदिना, (ध० स० १.१) “यस्मिं समये रूपूपपत्तिया मग्गं भावेती''तिआदिना (ध० स० १.२५१) च पवत्तानि एकं द्वे भूमन्तरानि। मूले नटे पिसाचसदिसा भविस्सामाति यथा रुक्खे अधिवत्थो पिसाचो तस्स साखापरिवारे नढे खन्धं निस्साय वसति, खन्धे नढे मूलं निस्साय वसति, मूले पन नढे अनिस्सयोव होति, तथा भविस्सामाति अत्थो । अथ वा मूले नटेति पिसाचेन किर रुक्खगच्छादीनं कञ्चिदेव मूलं छिन्दित्वा अत्तनो पुत्तस्स दिन्नं, याव तं तस्स हत्थतो न विगच्छति, ताव सो तं पदेसं अदिस्समानरूपो विचरति । यदा पन तस्मिं केनचि अच्छिन्नभावेन वा सतिविप्पवासवसेन वा नढे मनुस्सानम्पि दिस्समानरूपो विचरति, तं सन्धायाह "मूले नटे पिसाचसदिसा भविस्सामा"ति। मं कायसक्खिं कत्वाति तं पटिपदं कायेन सच्छिकतवन्तं तस्मा तस्सा देसनाय सक्खिभूतं मं कत्वा | पटिच्छापेसि तं पटिच्छापनं कस्सपसुत्तेन दीपेतब्बं । २३३. चन्दनघटिकाबाहुल्लतो चन्दनचितका। तं सुत्वाति तं आयस्मता अनुरुद्धत्थेरेन वुत्तं देवतानं अधिप्पायं सुत्वा । २३४. दसिकतन्तं वाति पलिवेठितअहतकासिकवत्थानं दसठानेन तन्तुमत्तम्पि वा । दारुक्खन्धं वाति चन्दनादिचितकदारुक्खन्धं वा । २३५. समुदायेसु पवत्तवोहारानं अवयवेसु दिस्सनतो सरीरस्स अवयवभूतानि अट्ठीनि “सरीरानी"ति वुत्तानि । न विपकिरिसूति सरूपेनेव ठिताति अत्थो । “सेसा विप्पकिरिसूति वत्वा यथा पन ता विप्पकिण्णा अहेसुं, तं दस्सेतुं "तत्था"तिआदि वुत्तं । उदकधारा निक्खमित्वा निब्बापेसुन्ति देवतानुभावेन । एवं महतियो बहू उदकधारा किमत्थायाति आह "भगवतो चितको महन्तो"ति । महा हि सो वीसरतनसतिको । अट्ठदन्तकेहीति नङ्गलेहि अटेव हि नेसं दन्तसदिसानि पोत्थानि होन्ति, तस्मा “अट्ठदन्तकानी''ति वुच्चति । 170 Jain Education Interational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३६-२३६) सरीरधातुविभजनवण्णना १७१ धम्मकथाव पमाणन्ति अतिविय अच्छरियब्भुतभावतो पस्सन्तानं, सुणन्तानञ्च सातिसयं पसादावहभावतो, सविसेसं बुद्धानुभावदीपनतो। परिनिब्बुतस्स हि बुद्धस्स भगवतो एवरूपो आनुभावोति तं पवत्तिं कथेन्तानं धम्मकथिकानं अत्तनो आणबलानुरूपं पवत्तियमाना धम्मकथा एवेत्थ पमाणं वण्णेतब्बस्स अत्थस्स महाविसयत्ता, तस्मा वण्णनाभूमि नामेसाति अधिप्पायो। चतुज्जातियगन्धपरिभण्डं कारेत्वाति तगरकुङ्कुमयवनपुष्फतमालपत्तानि पिसित्वा कतगन्धेन परिभण्डं कारेत्वा । खचित्वाति तत्थ तत्थ ओलम्बनवसेन रचेत्वा, गन्धवत्थूनि गहेत्वा गन्थितमाला गन्धदामानि रतनावळियो रतनदामानि। बहिकिलञ्जपरिक्खेपस्स, अन्तोसाणिपरिक्खेपस्स करणेन साणिकिलञ्जपरिक्खेपं कारेत्वा। वातग्गाहिनियो पटाका वातपटाका। सरभरूपपादको पल्लङ्को सरभमयपल्लङ्को, तस्मिं सरभमयपल्लङ्के। सत्तिहत्था पुरिसा सत्तियो तंसहचरणतो यथा “कुन्ता पचरन्ती''ति, तेहि समन्ततो रक्खापनं पञ्चकरणन्ति आह “सत्तिहत्थेहि पुरिसेहि परिक्खिपापेत्वा"ति । धनूहीति एत्थापि एसेव नयो। सत्राहगवच्छिकं विय कत्वा निरन्तरावट्टितआरक्खसन्नाहेन गवच्छिजालं विय कत्वा । ____ साधुकीळितन्ति सपरहितं साधनद्वेन साधू, तेसं कीळितं उळारपुअपसवनतो, सम्परायिकत्थाविरोधिकं कीळाविहारन्ति अत्थो । सरीरधातुविभजनवण्णना २३६. इमिनाव नियामेनाति येन नीहारेन महातले निसिन्नो कञ्चि परिहारं अकत्वा केवलं इमिना नियामेनेव । सुपिनकोति दुस्सुपिनको। दुकूलदुपट्ट निवासेत्वाति द्वे दुकूलवत्थानि एकज्झं कत्वा निवासेत्वा । एवहि तानि सोकसमप्पितस्सापि अभस्सित्वा तिद्वन्ति । अभिसेकसिञ्चकोति रज्जाभिसेके अभिसेकमङ्गलसिञ्चको उत्तममङ्गलभावतो। विसञ्जी जातो यथा तं भगवतो गुणविसेसामतरसञ्जताय अवट्ठितपेमो पोथुज्जनिकसद्धाय पतिट्टितपसादो कतूपकारताय सञ्जनितचित्तमद्दवो । 171 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२३७-२३९) सुवण्णबिम्बिसकवण्णन्ति सुविरचित अपस्सेनसदिसं । कस्मा पनेत्थ पावेय्यका पाळियं सब्बपच्छतो गहिता, किं ते कुसिनाराय आसन्नतरापि सब्बपच्छतो उद्विता? आम, सब्बपच्छतो उहिताति दस्सेतुं "तत्थ पावेय्यका"तिआदि वुत्तं । धातुपासनत्थन्ति सत्थु धातूनं पयिरुपासनाय । नेसं पक्खा अहेसुं "आयेन तेसं सन्तका धातयो"ति | २३७. दोणगज्जितं नाम अवोच सत्थ अवत्थत्तयपसंहितं । एतदत्थमेव हि भगवा मग्गं गच्छन्तो “पच्छतो आगच्छन्तो दोणो ब्राह्मणो याव मे पदवळजं पस्सति, ताव मा विगच्छत"ति अधिट्राय अञतरस्मिं रुक्खमले निसीदि । दोणोपि खो ब्राह्मणो "इमानि सदेवके लोके अग्गपुग्गलस्स पदानी''ति सल्लक्खेन्तो पदानुसारेन सत्थु सन्तिकं उपगच्छि, सत्थापिस्स धम्मं देसेसि, तेनपि सो भगवति निविट्ठसद्धो अहोसि । एतदवोच, किं अवोचाति आह "सुणन्तु...पे०... अवोचा'ति । कायेन एकसन्निपाता वाचाय एकवचना अभिन्नवचना एवं समग्गा होथ | तस्स पनिदं कारणन्ति आह "सम्मोदमाना"ति। तेनाह "चित्तेनापि अञमङ्गं सम्मोदमाना होथा"ति । २३८. ततो ततो समागतसङ्गानन्ति ततो ततो अत्तनो वसनट्ठानतो समागन्त्वा सन्निपतितभावेन समागतसङ्घानं। तथा समापतितसमूहभावेन समागतगणानं । वचनसम्पटिच्छनेन पटिस्सुणित्वा। धातुथूपपूजावण्णना २३९. यक्खग्गाहो देवतावेसो। खिपितकं धातुक्खोभं उप्पादेत्वा खिपितकरोगो । अरोचको आहारस्स अरुच्चनरोगो । 172 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३.२३९-२३९) धातुथूपपूजावण्णना सत्तमदिवसेति सत्तवस्ससत्तमासतो परतो सत्तमे विभवबलानुरूपेन । दिवसे । पच्छा सङ्गीतिकारकाति दुतियं ततियं सङ्गीतिकारका । धातूनं अन्तरायं दिस्वाति तत्थ तत्थ चेति यथापतिट्ठापितभावेनेव ठितानं धातूनं मिच्छादिट्टिकानं वसेन अन्तरायं दिस्वा, महाधातुनिधानेन सम्मदेव रक्खितानं अनागते असोकेन धम्मरञ्ञा ततो उद्धरित्वा वित्थारितभावे कते सदेवकस्स लोकस्स हितसुखावहभावञ्च दिस्वाति अधिप्पायो । परिचरणमत्तमेवाति गहेत्वा परिचरितब्बधातुमत्तमेव । राजूनं हत्थे ठपेत्वा, न चेति । तथा हि पच्छा असोकमहाराजा चेतियेसु धातूनं न लभति । १७३ पुरिमं पुरिमं कतस्स गण्हनयोग्यं पच्छिमं पच्छिमं कारेन्तो अट्ठ अट्ठ हरिचन्दनादिमये करण्डे च थूपे च कारेसि। लोहितचन्दनमयादीसुपि एसेव नयो । मणिकरण्डेसूति लोहितङ्कमसारगल्लफलिकमये ठपेत्वा अवसेसमणिविचित्तकेसु करण्डेसु । थूपारामचेतियप्पमाणन्ति देवानंपियतिस्समहाराजेन कारितचेतियप्पमाणं । बलानुरूपेनाति माला मा मिलायन्तूति " याव असोको धम्मराजा बहि चेतियानि कारेतुं इतो धातुयो उद्धरिस्सति, ताव माला मा मिलायन्तू'' ति अधिट्ठहित्वा । आविञ्छनरज्जुयन्ति अग्गळाविञ्छनरज्जुयं । कुञ्चिकमुद्दिकन्ति द्वारविवरणत्थं कुञ्चिकञ्चेव मुद्दिकञ्च । अञ्ञमञ्ञपटिबद्धगमनादिताय वाळसङ्घातयन्तन्ति कुक्कुलं पटिभयदस्सनं सङ्घाटितरूपकयन्तं योजेसि । तेनाह “कट्ठरूपकानी" तिआदि । आणिया बन्धित्वाति अनेककट्टरूपविचित्तयन्तं अत्तनो देवानुभावेन एकाय एव आणिया बन्धित्वा विस्सकम्मो देवलोकमेव गतो । "समन्ततो "तिआदि पन तस्मिं धातुनिदाने अजातसत्तुनो किच्चविसेसानुट्ठानदस्सनं । 173 " असुकट्ठाने नाम धातुनिधान "न्ति रञ्ञा पुच्छिते " तस्मिं सन्निपाते विसेसलाभिनो नासु "न्ति केचि । " अत्तानं निगूहित्वा तस्स वुड्ढतरस्स वचनं निस्साय वीमंसन्तो जानिरसतीति न कथेसु "न्ति अपरे । यक्खदासकेति उपहारादिविधिना देवतावेसनके भूताविग्गाहके । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ दीघनिकाये महावग्गटीका (३.२३९-२३९) इमं पदन्ति “एवमेतं भूतपुब्ब"न्ति दुतियसङ्गीतिकारेहि ठपितं इमं पदं । महाधातुनिधानम्पि तस्स अत्थं कत्वा ततियसङ्गीतिकारापि ठपयिंसु। महापरिनिब्बानसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 174 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. महासुदस्सनसुत्तवण्णना कुसावतीराजधानीवण्णना २४२. सोवण्णमयाति सुवण्णमया । अयं पाकारोति सब्बरतनमयो पाकारो। तयो तयोति अन्तो च तयो, बहि च तयोति तयो तयो । एसिकत्थम्भो इन्दखीलो नगरसोभनो अलङ्कारत्थम्भो। अङ्गीयति आयति पुथुलभावो एतेनाति अङ्गं, परिक्खेपो। तिपोरिसं अङ्गं एतिस्साति तिपोरिसङ्गा। तेनाह "तेना"तिआदि । तेन पञ्चहत्थप्पमाणेन तिपोरिसेन । पण्णफलेसुपीति सब्बरतनमयानं तालानं पण्णफलेसुपि । एसेव नयोति “पण्णेसु एकं पत्तकं सोवण्णमयं, एकं रूपियमयं । फलेसुपि एको लेखाभावो सोवण्णमयो, एको रूपियमयो''तिआदिको अयमत्थो अतिदिह्रो । पाकारन्तरेति द्विन्नं द्विन्नं पाकारानं अन्तरे । एकेका हुत्वा ठिता तालपन्ति । छेकोति पटु सुविसदो, सो चस्स पटुभावो मनोसारोति आह "सुन्दरो"ति । रज्जेतुन्ति रागं उप्पादेतुं । खमतेवाति रोचतेव। न बीभच्छेतीति न तज्जेति, सोतसुखभावतो पियायितब्बो च होति । कुम्भथुणदद्दरिकादि एकतलं तूरियं। उभयतलं पाकटमेव । सब्बतो परियोनद्धं चतुरस्सअम्बणकं, पणवादि च । वंसादीति आदि-सद्देन सङ्खादिकं सगण्हाति । सुमुच्छितस्साति सुटु परियत्तस्स। पमाणेति नातिदळहनातिसिथिलतासङ्खाते मज्झिमे मुच्छनप्पमाणे । हत्थं वा पादं वा चालेत्वाति हत्थलयपादलये सज्जेत्वा । नच्चन्ताति साखानच्चं नच्चन्ता ।। 175 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ दीघनिकाये महावग्गटीका चक्करतनवण्णना गहट्ठेहि रक्खितब्बसीलं, उपोसथकस्स । तेनाह २४३. उपोसथं वुच्चति अट्ठङ्गसमन्नागतं सब्बदिवसेसु समादानवसेन तं तस्स अत्थीति उपोसथिको, तस्स " समादिन्नउपोसथङ्गस्सा "ति । तदाति तस्मिं काले । कस्मिं पन कालेति ? यस्मिं काले चक्कवत्तिभावसंवत्तनियदानसीलादिपुञ्ञसम्भारसमुदागमसम्पन्नो पूरितचक्कवत्तिवत्तो कालदीपदेसविसेसपच्चाजातिया चेव कुलरूपभोगाधिपतेय्यादिगुणविसेससम्पत्ति तदनुरूपे अत्तभावे ठितो होति, तस्मिं काले । तादिसे हि काले चक्कवत्तिभावी पुरिसविसेसो यथावुत्तगुणसमन्नागतो राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो विसुद्धसीलो अनुपोसथं सतसहस्सविस्सज्जनादिना सम्मापटिपत्तिं पटिपज्जति, न यदा चक्करतनं उप्पज्जति, तदा एव । इमे च विसेसा सब्बचक्कवत्तीनं साधारणवसेन वृत्ता । तेनाह " पातोव ... पे०... धम्मता'ति । बोधिसत्तानं पन चक्कवत्तिभावावहगुणापि चक्कवत्तिगुणापि सातिसयाव होन्ति । (४.२४३-२४३) वुत्तप्पकारपुञ्ञकम्मपच्चयन्ति चक्कवत्तिभावावहदानदमसंयमादिपुञ्ञकम्महेतुकं । नीलमणिसङ्घातसदिसन्ति इन्दनीलमणिसञ्चयसमानं । दिब्बानुभावयुत्तत्ताति दस्सनेय्यता, मनुञ्ञघोसता, आकासगामिता, ओभासविस्सज्जना, अप्पटिघातता, रञो इच्छितत्थनिष्फत्तिकारणताति एवमादीहि दिब्बसदिसेहि आनुभावेहि समन्नागतत्ता, एतेन दिब्बं वियाति दिब्बन्ति दस्सेति । न हि तं देवलोकपरियापन्नं । सहस्सं अरा एतस्साति वा सहस्सारं । सब्बेहि आकारेहीति सब्बेहि सुन्दरेहि परिपुण्णावयवे लक्खणसम्पन्ने चक्के इच्छितब्बेहि आकारेहि । परिपूरन्ति परिपुण्णं, सा चस्सा पारिपूरिं इदानेव वित्थारेस्सति । पनाळीति छिदं । सुद्धसिनिद्धदन्तपन्तिया निब्बिवरायाति अधिप्पायो । तस्सा पन पनाकिया समन्ततो पस्सस्स रजतमयत्ता साररजतमया वृत्ता । यस्मा चस्स चक्कस्स रथचक्कस्स विय अन्तोभावो नाम नत्थि, तस्मा वुत्तं " उभोसुपि बाहिरन्तेसू " ति । कतपरिक्खेपा होति पनाळीति योजना । नाभिपनाळिपरिक्खेपपट्टेसूति नाभिपरिक्खेपपट्टे चेव नाभिया पनाळिपरिक्खेपपट्टे च । च तेसन्ति अरानं । घटका नाम अलङ्कारभूता खुद्दकपुण्णघटा । तथा मणिका नाम मुत्तावळिका । परिच्छेदलेखा तस्स तस्स परिच्छेददस्सनवसेन ठिता परिच्छिन्नलेखा । 176 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२४३-२४३) चक्करतनवण्णना १७७ आदि-सद्देन मालाकम्मादि सङ्गण्हाति । सुविभत्तानेवाति अञ्जमधे असंकिण्णत्ता सुटु विभत्तानि । "सुरत्ता"तिआदीसु सुरत्तग्गहणेन महानामवण्णतं . पटिक्खिपति, सुद्धग्गहणेन संङ्किलिट्ठतं, सिनिद्धग्गहणेन लूखतं । कामं तस्स चक्करतनस्स नेमिमण्डलं असन्धिकमेव निब्बत्तं, सब्बत्थकमेव पन केवलं पवाळवण्णेन च सोभतीति पकतिचक्कस्स सन्धियुत्तट्टाने सुरत्तसुवण्णपट्टादिमयाहि वट्टपरिच्छेदलेखाहि पञ्जायमानाहि ससन्धिका विय दिस्सन्तीति आह "सन्धीसु पनस्सा"तिआदि । नेमिमण्डलपिट्ठियन्ति नेमिमण्डलस्स पिट्ठिपदेसे । आकासचारिभावतो हिस्स तत्थ वातग्गाही पवाळदण्डो होति । दसनं दसनं अरानं अन्तरेति दसन्नं दसन्नं अरानं अन्तरे समीपे पदेसे । छिद्दमण्डलखचितोति मण्डलसण्ठानछिद्दविचित्तो । सुकुसलसमन्नाहतस्साति सुटु कुसलेन सिप्पिना पहतस्स, वादितस्साति अत्थो । वग्गूति मनोरमो । रजनीयोति सुणन्तानं रागुप्पादको। कमनीयोति कन्तो। समोसरितकुसुमदामाति ओलम्बितसुगन्धकुसुमदामा । नेमिपरिक्खेपस्साति नेमिपरियन्तपरिक्खेपस्स । नाभिपनाळिया द्विन्नं पस्सानं वसेन "द्विनम्पि नाभिपनाळीनन्ति वुत्तं । एका एव हि सा पनाळि । येहीति येहि द्वीहि मुखेहि । पुन येहीति येहि मुत्तकलापेहि । ओधापयमानन्ति सोतुं अवहितानि कुरुमानं । चन्दो पुरतो चक्करतनं पच्छाति एवं पुब्बापरियेन पुब्बापरभावेन । अन्तेपुरस्साति अनुराधपुरे रञो अन्तेपुरस्स । उत्तरसीहपञ्जरसदिसेति तदा रञो पासादे तादिसस्स उत्तरदिसाय सीहपञ्जरस्स लब्भमानत्ता वुत्तं । सुखेन सक्काति किञ्चि अनारुहित्वा, सरीरञ्च अनुल्लङ्घित्वा यथाठितेनेव हत्थेन पुप्फमुट्ठियो खिपित्वा सुखेन सक्का होति पूजेतुं। नानाविरागरतनप्पभासमुज्जलन्ति नानाविधविचित्तवण्णरतनोभासपभस्सरं। अन्भुग्गन्त्वा पवत्तेति आगन्त्वा ठितट्ठानतो उपरि आकासं अब्भुग्गन्त्वा पवत्ते । आकासं 177 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ दीघनिकाये महावग्गटीका (४.२४४-२४६) २४४. राजायुत्ताति रो किच्चे आयुत्तकपुरिसा । सिनेरुं वामपस्सेन कत्वा तस्स धुरतरं गच्छन्तो “वामपस्सेन सिनेसं पहाया"ति वुत्तं । विनिब्बेधेनाति तिरियं विनिविज्झनवसेन | सनिवेसक्खमोति खन्धावारसन्निवेसयोग्यो। सुलभाहारुपकरणोति सुखेनेव लद्धब्बध गोरसदारुतिणादिभोजनसाधनो । परचक्कन्ति परस्स रञो सेना, आणा वा। आगमननन्दनोति आगमनेन नन्दिजननो। गमनेन सोचेतीति गमनसोचनो। उपकप्पेथाति उपरूपरि कप्पेथ, संविदहथ उपनेथाति अत्थो। उपपरिखित्वाति हेतुतोपि सभावतोपि फलतोपि ट्ठिधम्मिकसम्परायिकादिआदीनवतोपि वीमंसित्वा। विभावन्ति पाय अत्थं विभूतं करोन्तीति विभाविनो, पञ्जवन्तो। अनुयन्ताति अनुवत्तका, अनुवत्तकभावेनेव, पन रञो च महानुभावेन ते जिगुच्छनवसेन पापतो अनोरमन्तापि एकच्चे ओत्तप्पवसेन ओरमन्तीति वेदितब्बं । ओगच्छमानन्ति ओसीदन्तं । योजनमत्तन्ति वित्थारतो योजनमत्तं पदेसं । गम्भीरभावेन पन यथा भूमि दिस्सति, एवं ओगच्छति। तेनाह “महासमुद्दतल"न्तिआदि । अन्ते चक्करतनं उदकेन सेनाय अनज्झोत्थरणत्थं । पुरथिमो महासमुद्दो परियन्तो एतस्साति पुरथिममहासमुद्दपरियन्तो, तं पुरथिममहासमुद्दपरियन्तं, पुरथिममहासमुदं परियन्तं कत्वाति अत्थो । चातुरन्तायाति चतुसमुद्दन्ताय, पुरथिमदिसादिचतुकोट्ठासन्ताय वा। सोभयमानं वियाति विय-सद्दो निपातमत्तं । अत्तनो अच्छरियगुणेहि सोभन्तमेव हि तं तिट्ठति | पाळियम्पि हि "उपसोभयान" त्वेव वुत्तं । हत्थिरतनवण्णना २४६. हरिचन्दनादीहीति आदि-सद्देन चतुज्जातियगन्धादिं सङ्गण्हाति । आगमनं 178 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२४७-२४९) अस्सरतनवण्णना १७९ चिन्तथाति वदन्ति चक्कवत्तिवत्तस्स परितताय परिचितत्ता। काळतिलकादीनं अभावेन विसुद्धसेतसरीरो। सत्तपतिद्वोति भूमिफुसनकेहि वालधि, वरङ्गं, हत्थोति इमेहि च तीहि, चतूहि पादेहि चाति सत्तहि अवयवेहि पतिट्टितत्ता सत्तपतिट्ठो। सब्बकनिट्ठोति सब्बेहि छद्दन्तकुलहत्थीहि हीनो। उपोसथकुला सब्बजेट्ठोति उपोसथकुलतो आगच्छन्तो तत्थ सब्बप्पधानो आगच्छतीति योजना | वत्तनयेनाति "महादानं दत्वा"तिआदिना वत्तेन नयेन । चक्कवत्तीनं. चक्कवत्तिपत्तानञ्च चक्कवत्तिं उद्दिस्स चिन्तयन्तानं आगच्छति। अपनेत्वाति अत्तनो आनुभावेन अपनेत्वा । गन्धमेव हि तस्स इतरे हत्थी न सहन्ति । घरधेनुवच्छको वियाति घरे परिचितधेनुया तत्थेव जातसंवद्धवच्छको विय । सकलपथविन्ति सकलं जम्बुदीपसञितं पथवि । अस्सरतनवण्णना २४७. सिन्धवकुलतोति सिन्धवस्साजानीयकुलतो । मणिरतनवण्णना ___२४८. सकटनाभिसमपरिणाहन्ति परिणाहतो महासकटस्स नाभिया समप्पमाणं । उभोसु अन्तेसूति हेट्ठा, उपरि चाति द्वीसु अन्तेसु। कण्णिकपरियन्ततोति द्विन्नं कञ्चनपदुमानं कण्णिकाय परियन्ततो । मुत्ताजालके ठपेत्वाति सुविसुद्धे मुत्तमये जालके पतिद्वापेत्वा । अरुणुग्गमनवेला वियाति अरुणुग्गमनसीसेन सूरियउदयक्खणं उपलक्खेति । इत्थिरतनवण्णना २४९. “इस्थिरतनं पातुभवती''ति वत्वा कुतस्सा पातुभावोति दस्सेतुं "मद्दराजकुलतो"तिआदि वुत्तं । मद्दरटुं किर जम्बुदीपे अभिरूपानं इत्थीनं उप्पत्तिट्टानं । तथा हि “सिञ्चयमहाराजस्स देवी, वेस्सन्तरमहाराजस्स देवी, भद्दकापिलानी''ति एवमादि इत्थिरतनं मद्दढे एव उप्पन्नं । पुञानुभावेनाति चक्कवत्तिरो पुञतेजेन । सण्ठानपारिपूरियाति हत्थपादादिसरीरावयवानं सुसण्ठिताय। अवयवपारिपूरिया हि 179 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० दीघनिकाये महावग्गटीका (४.२४९-२४९) समुदायपारिपूरिसिद्धि । रूपन्ति सरीरं "रूपं त्वेव सङ्कं गच्छती"तिआदीसु (म० नि० १.३०६) विय । दस्सनीयाति सुरूपभावेन पस्सितब्बयुत्ता । तेनाह "दिस्समानावा"तिआदि । सोमनस्सवसेन चित्तं पसादेति योनिसो चिन्तेन्तानं कम्मफलसद्धाय वसेन । पसादावहत्ताति कारणवचनेन यथा पासादिकताय वण्णपोक्खरतासिद्धि वुत्ता, एवं दस्सनीयताय पासादिकतासिद्धि, अभिरूपताय च दस्सनीयतासिद्धि वत्तब्बाति नयं दस्सेति । पटिलोमतो वा वण्णपोक्खरताय पासादिकतासिद्धि, पासादिकताय दस्सनीयतासिद्धि, दस्सनीयताय अभिरूपतासिद्धि योजेतब्बा। एवं सरीरसम्पत्तिवसेन अभिरूपतादिके दस्सेत्वा इदानि सरीरे दोसाभाववसेनपि ते दस्सेतुं “अभिरूपा वा"तिआदि वुत्तं । तत्थ यथा पमाणयुत्ता, एवं आरोहपरिणाहयोगतो च पासादिका नातिदीघतादयो, एवं मनुस्सानं दिब्बरूपतासम्पत्तिपीति “अप्पत्ता दिब्बवण्ण"न्ति वुत्तं । आरोहसम्पत्ति वुत्ता उब्बेधेन पासादिकभावतो। परिणाहसम्पत्ति वुत्ता किसथूलदोसाभावतो | वण्णसम्पत्ति वुत्ता विवण्णताभावतो । कायविपत्तियाति सरीरदोसस्स । सतवारविहतस्साति सत्तक्खत्तुं विहतस्स, “सतवारविहतस्सा''ति च इदं कप्पासपिचुवसेन वुत्तं, तूलपिचुनो पन विहननमेव नत्थि। कुङ्कुमतगरतुरुक्खयवनपुष्पानि चतुज्जाति। "तमालतगरतुरुक्खयवनपुप्फानी"ति अपरे ।। अग्गिदड्डा वियाति आसनगतेन अग्गिना दड्डा विय । पठममेवाति राजानं दिस्वापि किच्चन्तरप्पसुता अहुत्वा किच्चन्तरतो पठममेव, दस्सनसमकालं एवाति अत्थो । रो निसज्जाय पच्छा निपातनं निसीदनं सीलं एतिस्साति पच्छानिपातिनी। तं तं अत्तना रञो कातब्बकिच्चं “किं करोमी''ति पुच्छितब्बताय किं करणं पटिसावेतीति किंकारपटिस्साविनी। मातुगामो नाम येभुय्येन सठजातिको, इत्थिरतनस्स पन तं नत्थीति दस्सेतुं "स्वास्सा"तिआदि वुत्तं । गुणाति रूपगुणा चेव आचारगुणा च। पुरिमकम्मानुभावेनाति कतस्स पुरिमकम्मस्सानुभावेन इत्थिरतनस्स तब्भावसंवत्तनियस्स पुरिमकम्मस्स आनुभावेन । चक्कवत्तिनोपि परिवारसम्पत्तिसंवत्तनियं पुञकम्मं तादिसस्स फलविसेसस्स उपनिस्सयो होतियेव । तेनाह "चक्कवत्तिनो पुञ्ज उपनिस्साया"ति, एतेन सेसेसुपि सविाणकरतनेसु 180 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२५०-२५३) गहपतिरतनवण्णना १८१ अत्तनो कम्मवसेन निब्बत्तेसुपि तेसं तेसं विसेसानं तदुपनिस्सयता विभाविता एवाति दट्टब्बा । पुब्बे एकदेसवसेन लब्भमाना पारिपूरी रञ्जो चक्कवत्तिभावूपगमनतो पट्ठाय सब्बाकारपरिपूरा जाता। गहपतिरतनवण्णना २५०. पकतिया वाति सभावेनेव चक्करतनपातुभावतो पुब्बेपि । यादिसं रो चक्कवत्तिस्स पुञ्जबलं निस्साय यथावुत्ता चक्करतनानुभावनिब्बत्ति, तादिसं एतस्स पुञबलं निस्साय गहपतिरतनस्स कम्मविपाकजं दिब्बचक्टुं निब्बत्तेतीति आह "चक्करतनानुभावसहित"न्ति । कारणस्स हि एकसन्ततिपतितताय, फलस्स च समानकालिकताय तथावचनं । परिणायकरतनवण्णना २५१. “अयं धम्मो, अयं अधम्मो''तिआदिना कम्मस्सकतावबोधनसङ्घातस्स पण्डितभावस्स अत्थिताय पण्डितो। बाहुसच्चब्यत्तिया ब्यत्तो। सभावसिद्धाय मेधासङ्घाताय पकतिपञाय अत्थिताय मेधावी। अत्तनो याथावबुद्धमत्थं परेसं विभावेतुं पकासेतुं समत्थताय विभावी। ववत्थपेतुन्ति निच्छितुं । चतुइद्धिसमन्नागतवण्णना २५२. विपच्चनं विपाको, विपाको एव वेपाको यथा “विकतमेव वेकत"न्ति । समं नातिसीतनाच्चुण्हताय अविसमं भुत्तस्स वेपाको एतिस्सा अत्थीति समवेपाकिनी, ताय समवेपाकिनिया। धम्मपासादपोक्खरणिवण्णना __२५३. जनरासिं कारेत्वा तेन जनरासिना खणित्वा न मापेसि। किञ्चरहीति आह "रो पना"तिआदि । तत्थ कारणं परतो आगमिस्सति । एकाय वेदिकाय परिक्खित्ता पोक्खरणियो। परिवेणपरिच्छेदपरियन्तेति एत्थ परिवेणं नाम समन्ततो विवटङ्गणभूतं 181 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ दीघनिकाये महावग्गटीका (४.२५४-२६०) पोक्खरणिया तीरं, तस्स परिच्छेदभूते परियन्ते एकाय वेदिकाय परिक्खित्ता पोखरणियो। एतदहोसीति एतं "यंनूनाहं इमासु पोक्खरणीसू"तिआदिकं अहोसीति । सब्बोतुकन्ति सब्बेसु उतूसु पुप्फनकं । नानावण्णउप्पलबीजादीनीति रत्तनीलादिनानावण्णपुप्फेन पुप्फनकउप्पलबीजादीनि । जलजथलजमालन्ति जलजथलजपुप्फमालं । २५४. परिचारवसेनाति तङ्क्षणिकपरिचारवसेन, इदञ्च पठमं पट्ठपितनियामेनेव वुत्तं, पच्छा पन यानसयनादीनि विय इथियोपि अत्थिकानं परिच्चत्ता एव । तेनाह "इत्थीहिपी''तिआदि । परिच्चागवसेनाति निरपेक्खपरिच्चागवसेन । दीयतीति दानं, देय्यवत्थु । तं अग्गीयति निस्सज्जीयति एत्थाति दानग्गं, परिवेसनट्ठानं । तादिसानि अत्थीति यादिसानि रो दानग्गे खोमसुखुमादीनि वत्थानि, तादिसानि येसं अत्तनो सन्तकानि सन्ति । ओहायाति पहाय तत्थेव ठपेत्वा । अत्थो अस्थि येसं तेति अत्थिका। एवं अनत्थिकापि दट्ठब्बा। २५५. कलहसद्दोपीति पि-सद्देन दानाधिप्पायेन गेहतो नीहतं पुन गेहं पवेसेतुं न युत्तन्ति इममत्थं समुच्चेति । तेनाह "न खो एतं अम्हाकं पतिरूप"न्तिआदि (दी० नि० २.२५५)। २५७. उण्हीसमत्थकेति सिखापरियन्तमत्थके । परिच्छेदमत्थकेति पासादङ्गणपरिच्छेदस्स मत्थके। २५८. हरतीति अतिविय पभस्सरभावेन चक्खूनि पटिहरन्तं दुद्दिक्खताय दिट्ठियो हरति अपनेन्तं विय होति । तं पन हरणं नेसं परिप्फन्दनेनाति आह "फन्दापेती"ति । पठमभाणवारवण्णना निहिता। झानसम्पत्तिवण्णना २६०. महतिया इद्धियाति महन्तेन इच्छितत्थसमिज्झनेन । तेसंयेव इच्छितिच्छितत्थानं । 182 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२६१-२६४) बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना १८३ "अनुभवितब्बान"न्ति इमिना आनुभाव-सद्दस्स कम्मसाधनतं दस्सेति । पुब्बे सम्पन्नं कत्वा देय्यधम्मपरिच्चागस्स कतभावं दस्सेन्तो “सम्पत्तिपरिच्चागस्सा"ति आह । अत्तानं दमेति एतेनाति दमो। बोधिसत्तपुब्बयोगवण्णना अस्साति महासुदस्सनरञो। एको थेरोति अप्पञातो नामगोत्ततो अञतरो पुथुज्जनो थेरो । थेरं दिस्वाति अञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्नं दिस्वा । कद्वत्थरणन्ति कट्ठमयं अत्थरणं, दारुफलकन्ति अत्थो । परिभोगभाजनन्ति पानीयपरिभोजनीयादिपरिभोगयोग्यं भाजनं। आरकण्टकन्ति सूचिविज्झनककण्टकं । पिप्फलिकन्ति खुद्दकसत्थकं । उदकतुम्बकन्ति कुण्डिकं । कूटागारद्वारेयेव निवत्तेसीति कूटागारं पविट्ठकालतो पट्ठाय तेसं मिच्छावितक्कानं पवत्तिया ओकासं नादासि । २६१. कसिणमेव पायति महापुरिसस्स तत्थ तत्थ कताधिकारत्ता, तेसञ्च पदेसानं सुपरिकम्मकतकसिणसदिसत्ता । २६२. चत्तारि झानानीति चत्तारि कसिणज्झानानि | कसिणज्झानप्पमञानंयेव वचनं तासं तदा आदरगारववसेन निब्बत्तितत्ता । महाबोधिसत्तानहि अरूपज्झानेसु आदरो नत्थि, अभिञापदट्ठानतं पन सन्धाय तानिपि निब्बत्तेन्ति, तस्मा महासत्तो तापसपरिब्बाजककाले यत्तके लोकियगुणे निब्बत्तेति, ते सब्बेपि तदा निब्बत्तेसियेव । तेनाह "महापुरिसो पना"तिआदि । चतुरासीतिनगरसहस्सादिवण्णना २६३. अभिहरितब्बभत्तन्ति उपनेतब्बभत्तं । २६४. निबद्धवत्तन्ति पुब्बे उपनिबद्धं पाकवत्तं । 183 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ दीघनिकाये महावग्गटीका (४.२६५-२७२) सुभद्दादेविउपसङ्कमनवण्णना २६५. आवदे॒त्वाति अतिविसित्वा । यं यं रो इच्छितं दानूपकरणञ्चेव भोगूपकरणञ्च, तस्स तस्स तथैव समिद्धभावं वित्थवति । २६६. सचे पन राजा जीविते छन्दं जनेय्य, इतो परम्पि चिरं कालं तिद्वेय्य महिद्धिको महानुभावोति एवं महज्झासया देवी भोगेसु, जीविते च राजानं सापेक्खं कातुं वायमि । तेन वुत्तं "मा हेव खो राजा''तिआदि | तेनेवाह "तस्स कालङ्किरियं अनिच्छमाना"तिआदि । छन्दं जनेहीति एत्थ छन्द-सद्दो तण्हापरियायोति आह "पेमं उप्पादेही"ति । अपेक्खति आरम्मणं एताय न विस्सज्जेतीति अपेक्खा, तण्हा।। २६७. गरहिताति एत्थ केहि गरहिता, कस्मा च गरहिताति अन्तोलीनं चोदनं विस्सज्जेन्तो "बुद्धेही"तिआदिमाह, तेन वि गरहितत्ता, दुग्गतिसंवत्तनियतो च सापेक्खकालकिरिया परिवज्जेतब्बाति दस्सेति । २६८. एकमन्तं गन्त्वाति रो चक्खुपथं विजहित्वा । ब्रह्मलोकूपगमनवण्णना २६९. सोणस्साति कोळिवीसस्स सोणस्स । एका भत्तपातीति एकं भत्तवड्डितकं । तादिसं भत्तन्ति तथारूपं गरुं मधुरं सिनिद्धं भत्तं । भुत्तानन्ति भुत्तवन्तानं । २७१. दासमनुस्साति दासा चेव आयुत्तकमनुस्सा च । इदानि यथावुत्ताय रञो महासुदस्सनस्स भोगसम्पत्तिया कम्मसरिक्खतं उद्धरन्तो "एतानि पना"तिआदिमाह, तं सुविज्ञेय्यमेव । २७२. आदितो पट्ठायाति समुदागमनतो पट्टाय । यत्थ तं पुझं आयूहितं, यतो सा सम्पत्ति निब्बत्ता, ततो ततियत्तभावतो पभुति । महासुदस्सनस्स जातकदेसना हि तदा समुदागमनतो पट्ठाय भगवता देसिताति । पंस्वागारकीळं वियाति यथा नाम दारका पंसूहि 184 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.२७२-२७२) ब्रह्मलोकूपगमनवण्णना १८५ वापिगेहभोजनादीनि दस्सेन्ता यथारुचि कीळित्वा गमनकाले सब्बं तं विधंसेन्ता गच्छन्ति, एवमेव भगवा महासुदस्सनकाले अत्तना अनुभूतं दिब्बसम्पत्तिसदिसं अचिन्तेय्यानुभावसम्पत्तिं वित्थारतो दस्सेत्वा पुन अत्तनो देसनं आदीनवनिस्सरणदस्सनवसेन विवट्टाभिमुखं विपरिवत्तेन्तो “सब्बा सा सम्पत्ति अनिच्चताय विपरिणता विधंसिता''ति दस्सेन्तो "पस्सानन्दा"तिआदिमाह। विपरिणताति विपरिणाम सभावविगमं गता। तेनाह "पकतिविजहनेना"तिआदि। पकतीति सभावधम्मानं उदयवयपरिच्छिन्नो कक्खळफुसनादिसभावो, सो भङ्गक्खणतो पट्ठाय जहितो, परिच्चजन्तो सब्बसो नत्थेव । तेनाह "निब्बुतपदीपो विय अपञ्जत्तिकभावं गता"ति । एत्तावताति आदितो पट्ठाय पवत्तेन एत्तकेन देसनामग्गेन । अनेकानि वस्सकोटिसतसहस्सानियेव उब्बेधो एतिस्साति अनेकवस्सकोटिसतसहस्सुब्बेधा। अनिच्चलक्खणं आदायाति तं सम्पत्तिगतं अनिच्चलक्खणं देसनाय गहेत्वा विभावेत्वा। यथा निस्सेणिमुच्चने तादिसं सतहत्थुब्बेधं रुक्खं पकतिपुरिसेन आरोहितुं न सक्का, एवं अनिच्चताविभावनेन तस्सा, सम्पत्तिया अपेक्खानिस्सेणिमुच्चने केनचि आरोहितुं न सक्काति आह “अनिच्चलक्खणं आदाय निस्सेणिं मुञ्चन्तो विया"ति । तेनेवाति यथावुत्तकारणेनेव, आदितो सातिसयं कामेसु अस्सादं दस्सेत्वापि उपरि नेसं "पस्सानन्दा"तिआदिना आदीनवं, ओकारं, संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसञ्च विभावेत्वा देसनाय निट्ठापितत्ता। पुब्बेति अतीतकाले । वसभराजाति वसभनामको सीहळमहाराजा । उदकपुप्फुळादयोति आदि-सद्देन तिणग्गे उस्सावबिन्दुआदिके सङ्गण्हाति । महासुदस्सनस्स पनाति पन-सद्दो विसेसत्थजोतनो, तेन महासुदस्सनमहाराजा झानाभिञासमापत्तियो निब्बत्तेसि, तदग्गेन परिसुद्धे च समणभावे पतिद्वितो, यतो विधुय एव कामवितक्कादिसमणभावसंकिलेसं सुझागारं पाविसि, एवंभूतस्सापि तस्स कालं किरियतो सत्तमे दिवसे सब्बा चक्कवत्तिसम्पत्ति अन्तरहिता, न ततो परं, अहो अच्छरियमनुस्सो अनञसाधारणगुणविसेसोति इमं विसेसं दस्सेति । अनारुल्हन्ति “राजा किर पुब्बे गहपतिकुले निब्बत्ती''तिआदिना, (दी० नि० अट्ठ० २.२६०) “पुन थेरं आमन्तेसी''तिआदिना (दी० नि० अट्ठ० २.२७२) च 185 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ दीघनिकाये महावग्गटीका (४.२७२-२७२) वुत्तमत्थं सन्धायाह । सो हि इमस्मिं सुत्ते सङ्गीति अनारुळहो, अञ्जत्थ पन आगतो इमिस्सा देसनाय पिट्ठिवत्तकभावेन । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविओय्यं एवाति । महासुदस्सनसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 186 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. जनवसभसुत्तवण्णना नातिकियादिव्याकरणवण्णना २७३-२७५. "परितो"ति पदं यथा समन्तत्थवाचको, एवं समीपत्थवाचकोपि होतीति समन्ता सामन्ताति अत्थो वुत्तो। आमेडितेन पन समन्तत्थो जोतितो । यस्स पन सामन्ता जनपदेसु “नातिके विहरती"ति वुत्तत्ता नातिकस्साति विज्ञातो यमत्थो । यस्स परितो जनपदेसु ब्याकरोति, तत्थ परिचारकारकानं ब्याकरणं अवुत्तसिद्धं, निदस्सनवसेन वा तस्स वखमानत्ता “परितो परितो जनपदेसु" इच्चेव वुत्तं । परिचारकेति उपासके । तेनाह "बुद्धधम्मसवानं परिचारके"ति । उपपत्तीसूति निब्बत्तीसु । जाणगतिपुञानं उपपत्तीसूति एत्थ आणगतूपपत्ति नाम तस्स तस्स मग्गजाणगमनस्स निब्बत्ति । यं सन्धाय वुत्तं “पञ्चन्नं ओरम्भागियानं परिक्खया'"तिआदि । पुञ्जूपपत्ति नाम तंतंदेवनिकायूपपत्ति। सब्बत्थाति "वज्जिमल्लेसू"तिआदिके सब्बत्थ चतूसुपि पदेसु । पुरिमेसूति पाळियं वुत्ते सन्धायाह । दससुयेवाति तेसु एव दससु जनपदेसु । परिचारके व्याकरोति ब्यकातब्बानं बहूनं तत्थ लब्भनतो। नातिके भवा नातिकिया। निढङ्गताति निटुं निच्छयं उपगता । आनन्दपरिकथावण्णना २७६. यस्मा सङ्घसुप्पटिपत्ति नाम धम्मसुधम्मताय, धम्मसुधम्मता च दुद्धसुबुद्धताय, तस्मा “अहो धम्मो, अहो सङ्घो"ति धम्मसङ्घगुणकित्तनापि अत्थतो बुद्धगुणकित्तना एव होतीति “भगवन्तं कित्तयमानरूपा''ति पदस्स "अहो धम्मो"तिआदिनापि अत्थो वुत्तो। 187 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ दीघनिकाये महावग्गटीका २७८. आणगतीति “पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया 'तिआदिना आगतं पहातब्बपहानवसेन पवत्तं मग्गञाणगमनं । यस्मा तस्सा एव ञाणगतिया वसेन तस्स तस्स अरियपुग्गलस्स ओपपातिकतादिविसेसो, तस्मा तं तादिसं तस्स अभिसम्परायं सन्धायाह " ञाणाभिसम्परायमेवा "ति । २७९. उपसन्तं पति सम्मति आलोकीयतीति उपसन्तपतिसो। उपसन्तदस्सनो उपसन्तउस्सन्नो । भातिरिवाति एत्थ स्-कारो पदसन्धिकरो, इव- सद्दो भुसत्थोति आह " अतिविय भाती 'ति । जनवस भयक्खवण्णना (५.२७८-२८१) २८०. जेट्टकभावेन जने वसभसदिसोति जनवसभोति अस्स देवपुत्तस्स नामं अहोस । इतो देवलोका चवित्वा सत्तक्खत्तुं मनुस्सलोके राजभूतस्स । मनुस्सलोका चवित्वा सत्तक्खत्तुं देवभूतस्स । एत्थेवाति एतस्मिंयेव चातुमहाराजिकभवे, एत्थापि वेस्वणस्स सहब्यतावसेन । २८१. आसिसनं आसा, पत्थना । आसासीसेन चेत्थ कत्तुकम्यताकुसलच्छन्दं वदति । तेनेवाह “सकदागामिमग्गत्थाया ''तिआदि । यदग्गेति एत्थ अग्ग-सद्दो आदिपरियायोति आह "तं दिवसं आदि कत्वा" ति । " पुरिमं... पे०... अविनिपातो "ति इदं यथा तत्तकं कालं सुगतितो सुगतूपपत्तियेव अहोसि, तथा कतूपचितकुसलकम्मत्ता । फुस्सस्स सम्मासम्बुद्धस्स कालतो भुति हि सम्भतविवट्टूपनिस्सयकुसलसम्भारो एस देवपुत्तो । अनच्छरियन्ति अनु अनु अच्छरियं । तेनाह “पुनपुनं अच्छरियमेवा" ति । सयंपरिसायाति सकाय परिसाय । भगवतो दिट्ठसदिसमेवाति आवज्जनसमनन्तरं यथा ते भगवतो चतुवीसतिसतसहस्समत्ता सत्ता आणगतितो दिट्ठा, एवं तुम्हेहि दिट्ठसदिसमेव । वेस्सवणस्स सम्मुखा सुतं मयाति वदति । 188 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८२-२८४) देवसभावण्णना १८९ देवसभावण्णना २८२. वस्सूपनायिकसङ्गहत्थन्ति वस्सूपनायिकाय आरक्खासंविधानवसेन भिक्खून सङ्गहणत्थं “वस्सूपगता भिक्खू एवं सुखेन समणधम्मं करोन्ती"ति, पवारणसङ्गहो पनस्स पवारेत्वा सत्थु सन्तिकं गच्छन्तानं भिक्खूनं अन्तरामग्गे परिस्सयपरिहरणत्थं । धम्मस्सवनत्थं दूरट्ठानं गच्छन्तेसुपि एसेव नयो । अत्तनापि आगन्त्वा धम्मस्सवनत्थं सन्निपतियेव । एत्थेत्थाति एत्थ एत्थ अय्यानं वसनट्ठाने । तदापीति “पुरिमानि भन्ते दिवसानी''ति वुत्तकालेपि । एतेनेव कारणेनाति वस्सूपनायिकनिमित्तमेव । तेनाह पाळियं “तदहुपोसथे पन्नरसे वस्सूपनायिकाया"तिआदि । आसनेपि निसज्जाय सुधम्माय देवसभाय पठमं देवेसु तावतिंसेसु निसिन्नेसु तस्सा चतूसु द्वारेसु चत्तारो महाराजानो निसीदन्ति, इदं नेसं आसने निसज्जाय चारित्तं होति । येनत्थेनाति येन किच्चेन येन पयोजनेन । आरक्खत्थन्ति आरक्खभूतमत्थं । वुत्तं वचनं एतेसन्ति वृत्तवचना, महाराजानो । २८३. अतिक्कमित्वाति अभिभवित्वा । सनकुमारकथावण्णना २८४. अभिसम्भवितुं अधिगन्तुं असक्कुणेय्यो अनभिसम्भवनीयो। तेनाह “अप्पत्तब्बो"तिआदि । चक्खुयेव पथो रूपदस्सनस्स मग्गो उपायोति चक्खुपथो, तस्मिं चक्खुपथस्मिन्ति आह "चक्खुपसादे"ति, चक्खुस्स गोचरयोग्गो वा चक्खुपथोति आह "आपाथे वा"ति । नाभिभवतीति न अभिभवति, गोचरभावं न गच्छतीति अत्थो । हेट्ठा हेट्ठाति तावतिसतो पट्ठाय हेट्ठा हेट्ठा, न चातुमहाराजिकतो पट्ठाय, नापि ब्रह्मपारिसज्जतो पट्ठाय । “चातुमहाराजिका हि तावतिंसानं यथा जातिरूपानि पस्सितुं सक्कोन्ति, तथा ब्रह्मानो हेट्ठिमा उपरिमान"न्ति केचि, तं न युत्तं । न हि हेट्ठिमा ब्रह्मानो उपरिमानं मूलपटिसन्धिरूपं पस्सितुं सक्कोन्ति, मापितमेव पस्सितुं सक्कोन्तीति दट्ठब्बं । 189 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० दीघनिकाये महावग्गटीका (५.२८५-२८५) सुणन्तोव निदं ओक्कमीति गतियो उपधारेन्तो बहि विसटवितक्कविच्छेदेन सङ्कोचं आपन्नचित्तताय । मय्हं अय्यकस्साति भगवन्तं सन्धाय वदति । पञ्च सिखा एतस्साति पञ्चसिखो, पञ्चसिखो विय पञ्चसिखोति आह "पञ्चसिखगन्धब्बसदिसो"ति | ममायन्तीति पियायन्ति। २८५. सुमुत्तोति सरदोसेहि सुट्टु मुत्तो। येहि पित्तसेम्हादीहि पलिबुद्धत्ता सरो अविस्सट्ठो सिया, तदभावतो विस्सट्ठोति दस्सेन्तो आह “अपलिबुद्धो"ति । विज्ञापेतीति विज्ञेय्यो, अन्तोगधहेतुअत्थो कत्तुसाधनो एस विज्ञेय्यसद्दोति आह “अत्थविज्ञापनो"ति | सरस्स मधुरता नाम मद्दवन्ति आह "मधुरो मुदू"ति । सवनं अरहतीति सवनीयो। सवनारहताय च आपाथसुखतायाति आह "कण्णसुखो"ति । बिन्दूति पिण्डितो। आकोटितभिन्नकंससद्दो विय अनेकावयवो अहुत्वा निरवयवो, एकभावोति अत्थो । तेनाह "एकग्घनो"ति, एतेनेवस्स अविसारिता संवण्णिता दट्टब्बा । गम्भीरुप्पत्तिहानताय चस्स गम्भीरताति आह “नाभिमूलतो"तिआदि । एवं समुद्वितोति जीव्हादिप्पहारमत्तसमुट्ठितो। अमधुरो च होति उप्पत्तिट्ठानानं परिलहुभावतो । न च दूरं सावेति वीरभावाभावतो । निनादी सुविपुलभावतो सविसेसं निन्नादो, पासंसनिन्नादो वा । तेनाह "महामेघ...पे०... युत्तो"ति । पच्छिमं पच्छिमन्ति दुतियं, चतुत्थं, छटुं, अट्ठमञ्च पदं । पुरिमस्स पुरिमस्साति यथाक्कम पठमस्स, ततियस्स, पञ्चमस्स, सत्तमस्स च । अत्थोयेवाति अत्थनिद्देसो एव । विस्सठ्ठता हिस्स विद्येय्यताय वेदितब्बा, मञ्जुभावो सवनीयताय, बिन्दुभावो अविसारिताय, गम्भीरभावो निन्नादितायाति । यथापरिसन्ति एत्थ यथा-सद्दो परिमाणवाची, न पकारादिवाचीति आह "यत्तका परिसा"ति, तेन परिसप्पमाणं एवस्स सरो निच्छरति, अयमस्स धम्मताति दस्सेति । तेनाह "तत्तकमेवा"तिआदि । “ये हि केची''तिआदि “यावञ्च सो भगवा''तिआदिना वुत्तस्स अत्थस्स हेतुकित्तनवसेन समत्थनं सरणेसु नेसं निच्चसेवनेन, सीलेसु च पतिठ्ठापनेन छकामसग्गसम्पत्तिअनुप्पादनतो। तेनाह "ये हि केचि...पे०... बदतीति । निब्बेमतिकगहितसरणेति मग्गेनागतसरणगमने । ते हि सब्बसो समुग्घातितविचिकिच्छताय रतनत्तये अवेच्चप्पसादेन समन्नागतायेव, पोथुज्जनिकसद्धाय वसेनबुद्धादीनं गुणे 190 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८७-२८७) भावितइद्धिपादवण्णना ओगाहेत्वा जानन्ति, अपरनेय्यबुद्धिनो ते परियायतो निब्बेमतिकगहितसरणा वेदितब्बा । गन्धब्बदेवगणन्ति गन्धब्बदेवसमूहं । तुका वुच्चति खीरिणी या तुकातिपि वुच्चति । तसा चुणं कापि । तं कोट्टेत्वा पक्खित्तं घनं निरन्तरचितं हुत्वा तिट्ठति । भावितइद्धिपादवण्णना २८७. सुपञ्ञत्ताति सुट्टु पकारेहि जपिता बोधिता, असङ्करतो वा ठपिता, तं पन बोधनं, असङ्करतो ठपनञ्च अत्थतो देसना एवाति आह " सुकथिता "ति । इज्झनट्ठेनाति समिज्झनट्टेन, निप्पज्जनस्स कारणभावेनाति अत्थो । पतिट्ठानद्वेनाति अधिट्ठानट्ठेन । इद्धिया पादोति इद्धिपादो, इद्धिया अधिगमुपायोति अत्थो । तेन हि यस्मा उपरूपरि विसेससङ्घातं इद्धिं पज्जन्ति पापुणन्ति, तस्मा " पादो" ति वुच्चति । इज्झतीति इद्धि, समिज्झति निप्पज्जतीति अत्थो । इद्धि एव पादो इद्धिपादो, इद्धिकोट्ठासोति अत्थो । एवं ताव " चत्तारो इद्धिपादा" ति एत्थ अत्थो वेदितब्बो । इद्धिपहोनकतायाति इद्धिया निप्फादने समत्थभावाय । इद्धिविसवितायाति इद्धिया निप्फादने योग्यभावाय । अनेकत्थत्ता हि धातून योग्यत्थो वि-पुब्बो सु-सद्दो, विसवनं वा पज्जनं विसविता, तत्थ कामकारिता विसविता । तेनाह “ पुनपुन "न्तिआदि । इद्धिविकुब्बनतायाति विकुब्बनिद्धिया विविधरूपकरणाय । तेनाह "नानप्पकारतो कत्वा दस्सनत्थाया" ति । १९१ "छन्दञ्च भिक्खु अधिपतिं करित्वा लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकग्गतं, अयं वुच्चति छन्दसमाधी "ति (विभं० ४३२) इमाय पाळिया छन्दाधिपति समाधि छन्दसमाधीति अधिपतिसद्दलोपं कत्वा समासो वृत्तोति विञ्ञायति, अधिपतिसद्दत्थदस्सनवसेन पन “ छन्दहेतुको, छन्दाधिको वा समाधि छन्दससमाधी" ति अट्ठकथायं वुत्तन्ति वेदितब्बं । "पधानभूताति वीरियभूता " ति केचि वदन्ति । सङ्घतसङ्घारादिनिवत्तनत्थहि पधानग्गहणन्ति । अथ वा तं तं विसेसं सङ्घरोतीति सङ्घारो, सब्बम्पि वीरियं । तत्थ चतुकिच्चसाधको अञ्ञस्स निवत्तनत्थं पधानग्गहणन्ति पधानभूता सेट्ठभूताति अत्थो । चतुब्बिधस्स पन वीरियस्स अधिप्पेतत्ता बहुवचननिद्देसो कतो । विसुं समासयोजनवसेन यो पुब्बे इद्धिपादत्थो पादस्स उपायत्थतं, कोट्ठासत्थतञ्च गहेत्वा यथायोगवसेन इध वृत्तो, सो वक्खमानानं पटिलाभपुब्बभागानं कत्तुकरणिद्धिभावं, उत्तरचूळभाजनीये वा त् छन्दादीहि इद्धिपादेहि साधेतब्बाय इद्धिया कत्तिद्धिभावं, छन्दादीनञ्च करणिद्धिभावं सन्धाय वुत्तोति वेदितब्बो, तस्मा " इज्झनट्ठेन इद्धी 'ति एत्थ कत्तुअत्थो, करणत्थो च एक 191 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ दीघनिकाये महावग्गटीका गत्वा वृत्तोति कत्तु अत्थं ताव दस्सेतुं " निप्पत्तिपरियायेन इज्झनट्ठेन वा "ति वत्वा इतरं दस्सेन्तो “ इज्झन्ति एताया " तिआदिमाह । वृत्तन्ति कत्थ वृत्तं ? इद्धिपादविभङ्गपाठे । (विभं० ४३४) तथाभूतस्साति तेनाकारेन भूतस्स ते छन्दादिधम्मे पटिलभित्वा ठितस्साति अत्थो । “वेदनाक्खन्धो”तिआदीहि छन्दादयो अन्तोकत्वा चत्तारोपि खन्धा कथिता । सेसेसूति सेसिद्धिपादेसु । वीरियिद्धिपादनिद्देसे ‘“वीरियसमाधिपधानसङ्घारसमन्नागत "न्ति द्विक्खत्तुं वीरियं आगतं । तत्थ पुरिमं समाधिविसेसनं “ वीरियाधिपति समाधि वीरियसमाधी 'ति, दुतियं समन्नागमङ्गदस्सनं । द्वेयेव हि सब्बत्थ समन्नागमङ्गानि, समाधि, पधानसङ्घारो च । छन्दादयो हि समाधिविसेसनानि, पधानसङ्घारो पन पधानवचनेनेव विसेसितो, न छन्दादीहीति न इध वीरियाधिपतिता पधानसङ्घारस्स वुत्ता होति । वीरियञ्च समाधिं विसेसेत्वा ठितमेव, समन्नागमङ्गवसेन पन पधानसङ्घारवचनेन वुत्तन्ति नापि द्वीहि वीरियेहि समन्नागमो वृत्तो होति । यस्मा पन छन्दादीहि विसिट्ठो समाधि, तथाविसिट्ठेनेव च तेन सम्पयुत्तो पधानसङ्घारो, सेसधम्मा च तस्मा समाधिविसेसनानं वसेन चत्तारो इद्धिपादा वुत्ता, विसेसनभावो च छन्दादीनं तंतंअवस्सयदस्सनवसेन होतीति "छन्दसमाधि... पे०... इद्धिपाद"न्ति एत्थ निस्सयत्थेपि पाद - सद्दे उपायत्थेन छन्दादीनं इद्धिपादता वृत्ता होति । तेनेव हि अभिधम्मे उत्तरचूळभाजनीये (विभं० ४५६) “ चत्तारो इद्धिपादा छन्दिद्धिपादो’'तिआदिना छन्दादीनमेव इद्धिपादता वृत्ता । पञ्हपुच्छके (विभं० ४५७ आदयो) “ चत्तारो इद्धिपादा इध भिक्खु छन्दसमाधी 'तिआदिना च उद्देसं कत्वापि पुन छन्दादीनंयेव कुसलादिभावो विभत्तो । उपायिद्धिपाददस्सनत्थमेव हि निस्सयिद्धिपाददस्सनं कतं, अञ्ञथा चतुब्बिधता न सियाति । अयमेत्थ पाळिवसेन अत्थविनिच्छयो वेदितब्बो । इदानि पटिलाभपुब्बभागानं वसेन इद्धिपादे विभजित्वा दस्सेतुं “ अपिचा "तिआदि वृत्तं तं सुविज्ञेय्यमेव । इध इद्धिपादकथा सङ्क्षेपेनेव वुत्ताति आह " वित्थारेन पन...पे०... ताति । (५.२८७-२८७) केचीति अभयगिरिवासिनो । तेसु हि एकच्चे "इद्धि नाम अनिप्फन्ना ' ' ति वदन्ति, एकच्चे "इद्धिपादो पन अनिप्फन्नी'ति वदन्ति, अनिष्पन्नोति च परमत्थतो असिद्धो, नत्थीति अत्थो | आभतोति अभिधम्मपाठतो ( विभं० ४५८) दीघनिकायट्ठकथायं (दी० नि० अट्ठ० २.२८७) आनीतो पुरिमनयतो अञ्ञेनाकारेन देसनाय पवत्तत्ता । छन्दो एव इद्धिपादो छन्दिद्धिपादो। एसेव नयो सेसेसुपि । इमे पनाति इमस्मिं सुत्ते आगता 192 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८७ - २८७) इद्धिपादा | रट्ठपालत्थेरो (म० नि० २.२९३; अ० नि० अट्ठ० १.१.२१०; अप० अट्ठ० २.रट्ठपालत्थेरअपदानवण्णनाय वित्थारो ) “छन्दे सति कथं नानुजानिस्सन्ती "ति सत्ताहं भत्तानि अभुञ्जित्वा मातापितरो अनुजानापेत्वा पब्बजित्वा छन्दमेव अवस्साय लोकुत्तरं धम्मं निब्बत्तेसीति आह " रट्ठपालत्थेरो... पे०... निब्बत्तेसी 'ति । सोणत्थेरो (महाव० २४३; अ० नि० २.६.५५; थेरगा० अट्ठ० तेरसनिपात; अप० अट्ठ० २.सोणकोटिवीसत्थेरअपदानवण्णनाय वित्थारो ) भावनमनुयुत्तो आरद्ववीरियो परमसुखुमालो पादेसु फोटेसु जातेसुपि वीरियं नप्पटिपस्सम्भेसीति आह “सोणत्थेरो वीरियं धुरं कत्वा'ति । सम्भूतत्थेरो (थेरगा० अट्ठ० २. सम्मूतत्थेरगाथावण्णनाय वित्थारो ) " चित्तवतो किं नाम न सिज्झती”ति चित्तं पुब्बङ्गमं कत्वा भावनं आराधेसीति आह “सम्भूतत्थेरो चित्तं धुरं कत्वा"ति । मोघत्थेरो वीमंसं अवस्सयि, तस्मा तस्स भगवा "सुञ्ञतो लोकं अवेक्खस्सू 'ति (सु० नि० ११२५; बु० वं० ५४.३५३; महा० नि० १८६; चूळनि० मोघराजमाणवपुच्छा १४४; मोघराजमाणवपुच्छानिछेसे ८८; नेत्ति० ५; पेटको० २२, ३१) सुञ्ञताकथं कथेसि, पञ्ञानिस्सितमाननिग्गहत्थं, पञ्ञाय परिग्गहत्थञ्च द्विक्खत्तुं पुच्छितो समानो पञ्हं कथेसि । तेनाह “ आयस्मा मोघराजा वीमंसं धुरं कत्वा'ति । पुनप्पुनं छन्दुप्पादनं पेसनं विय होतीति छन्दस्स उपट्ठानसदिसता वृत्ता । परक्कमेनाति परक्कमसीसेन सूरभावं वदति। सूरभावसदिसता दट्ठब्बा । चिन्तनप्पधानत्ता चित्तस्स मन्तसंविधानसदिसता वृत्ता । जातिसम्पत्ति नाम विसिट्ठजातिता । " सब्बधम्मेसु च पञ्ञ सेट्ठा "ति वीमंसाय जातिसम्पत्तिसदिसता वुत्ता। सम्मोहविनोदनियं (विभं० अट्ठ० ४३३) पन चित्तिद्धिपादस्स जातिसम्पत्तिसदिसता, वीमंसिद्धिपादस्स मन्तबलसदिसता च योजिता । भावितइद्धिपादवण्णना अनेकं विहितं विधं एतस्साति अनेकविहितन्ति आह “ अनेकविध "न्ति । विध- सद्दो कोट्ठासपरियायो “एकविधेन ञाणवत्थू''तिआदीसु (विभं० ७५१) वियाति आह " इद्धिविधन्ति इद्धिकोट्ठास "न्ति । 193 १९३ थामभावतो च वीरियस Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका (५.२८८-२८८) तिविधओकासाधिगमवण्णना २८८. "सुखस्सा"ति इदं तिण्णम्पि सुखानं साधारणवचनन्ति आह “झानसुखस्स मग्गसुखस्स फलसुखस्सा"ति । नानप्पनापत्तताय पन अप्पधानत्ता उपचारज्झानसुखस्स, विपस्सनासुखस्स चेत्थ अग्गहणं । पुरिमेसु ताव द्वीसु ओकासाधिगमेसु तीणिपि सुखानि लब्भन्ति, ततिये पन कथन्ति ? तत्थ कामं तीणि न लब्भन्ति, द्वे पन लब्भन्तियेव । यथालाभवसेन हेतं वुत्तं । “सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि चरन्तम्पि तिद्वन्तम्पी"तिआदीसु (दी० नि० १.२४९; म० नि० १.४३३, २.२५९; अ० नि० १.१.४५, ४६) विय । संसट्ठोति संसग्गं उपगतो समङ्गीभूतो, सो पन तेहि समन्नागतचित्तोपि होतीति वुत्तं "सम्पयुत्तचित्तो"ति। अरियधम्मन्ति अरियभावकरं धम्मं । उपायतोति विधितो। पथतोति मग्गतो। कारणतोति हेतुतो । येन हि विधिना धम्मानुधम्मपटिपत्ति होति, सो उपेति एतेनाति उपायो, सो तदधिगमस्स मग्गभावतो पथो, तस्स करणतो कारणन्ति च वुच्चति । “अनिच्चन्तिआदिवसेन मनसि करोती'ति सङ्केपतो वुत्तमत्थं विवरितुं “योनिसो मनसिकारो नामा"तिआदि वुत्तं । तत्थ उपायमनसिकारोति कुसलधम्मप्पवत्तिया कारणभूतो मनसिकारो। पथमनसिकारोति तस्स एव मग्गभूतो मनसिकारो। अनिच्चेति आदिअन्तवन्तताय, अनच्चन्तिकताय च अनिच्चे तेभूमके सङ्खारे “अनिच्च"न्ति मनसिकारोति योजना। एसेव नयो सेसेसुपि । अयं पन विसेसो तस्मिंयेव उदयब्बयपटिपीळनताय दुक्खनतो, दुक्खमतो च दुक्खे, अवसवत्तनत्थेन, अनत्तसभावताय च अनत्तनि, असुचिसभावताय असुभे। सब्बम्पि हि तेभूमकं सङ्खतं किलेसासुचिपग्घरणतो "असुभ"न्त्वेव वत्तुं अरहति । सच्चानुलोमिकेन वाति सच्चाभिसमयस्स अनुलोमनवसेन । "चित्तस्स आवट्टना"तिआदिना आवज्जनाय पच्चयभूता ततो पुरिमुप्पन्ना मनोद्वारिका कुसलजवनप्पवत्ति फलवोहारेनेव तथा वुत्ता। तस्सा हि वसेन सा कुसलुप्पत्तिया उपनिस्सयो होतीति । आवज्जना हि भवङ्गचित्तं आवट्टेतीति चित्तस्स आवट्टना, अनु अनु आवट्टेतीति अन्वावट्टना। भवङ्गारम्मणतो अझं आभुजतीति आभोगो। समन्नाहरतीति समन्नाहारो। तदेवारम्मणं अत्तानं अनुबन्धित्वा अनुबन्धित्वा उप्पज्जमाने मनसि करोति ठपेतीति मनसिकारो। अयं वुच्चतीति अयं उपायमनसिकारलक्खणो योनिसोमनसिकारो नाम वुच्चति, यस्स वसेन पुग्गलो दुक्खादीनि सच्चानि आवज्जितुं सक्कोति । 194 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८८-२८८) तिविधओकासाधिगमवण्णना १९५ असंसट्ठोति न संसठ्ठो कामादीहि विवित्तो विनाभूतो। कामादिविसंसग्गहेतु उप्पज्जनकसुखं नाम विवेकजं पीतिसुखन्ति आह “पठमज्झानसुख"न्ति । कामं पठमज्झानसुखम्पि सोमनस्समेव, सुत्तेसु पन तं कायिकसुखस्सापि पच्चयभावतो विसेसतो "सुख'न्त्वेव वुच्चतीति इधापि झानभूतं सोमनस्सं सुखन्ति, इतरं सोमनस्सं । तेन वुत्तं "सुखा"ति | हेतुम्हि निस्सक्कवचनन्ति आह “झानसुखपच्चया'ति । अपरापरं सोमनस्सन्ति झानाधिगमहेतु पच्चवेक्खणादिवसेन पुनप्पुनं उप्पज्जनकसोमनस्सं । __पमोदनं पमुदो, तरुणपीति, ततो पमुदा। “पामोज्जं पीतत्थाया'तिआदीसु तरुणपीति “पामोज्ज"न्ति वुच्चति, इध पन पकट्ठो मुदो पमुदो पामोज्जन्ति अधिप्पेतं, तञ्च सोमनस्सरहितं नत्थीति अविनाभाविताय "बलवतरं पीतिसोमनस्स"न्ति वुत्तं । झानस्स उजुविपच्चनीकतं सन्धाय “पञ्च नीवरणानि विक्खम्भेत्वा"ति वुत्तं । झानं पन तदेकडे सब्बेपि किलेसे, सब्बेपि अकुसले धम्मे विक्खम्भेतियेव, अत्तनो ओकासं गहेत्वा तिट्ठति पटिपक्खधम्मेहि अनभिभवनीयतो। तस्माति ओकासग्गहणतो, लद्धोकासतायाति अत्थो । मग्गफलसुखाधिगमाय ओकासभावतो वा ओकासो, अस्स अधिगमो ओकासाधिगमो। पुरिमपक्खे पन ओकासं अवसरं अधिगच्छति एतेनाति ओकासाधिगमो। रूपसभावताय, एकन्तरूपाधीनवुत्तिताय, सविप्फारिकताय च आनापानवितक्कविचारानं थूलभावं अनुजानन्तो “कायवचीसङ्घारा ताव ओळारिका होन्तू"ति आह । तब्बिधुरताय पन एकच्चानं वेदनासानं थूलतं अननुजानन्तो "चित्तसङ्घारा कथं ओळारिका"ति आह । इतरो “अप्पहीनत्ता"ति कारणं वत्वा "कायसङ्घारा ही"तिआदिना तमत्थं विवरति । तेति चित्तसङ्खारा । अप्पहीना सङ्खारा लब्भमानसङ्खारनिमित्तताय "ओळारिका''ति वत्तुं अरहन्ति, पहीना पन तदभावतो "सुखुमा"ति आह "पहीने उपादाय अप्पहीनत्ता ओळारिका नाम जाता"ति | पाळियं “कायसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया''ति वुत्तत्ता "सुखन्ति चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तिसुख"न्ति वुत्तं । “चित्तसङ्खारानं पटिप्पस्सद्धिया"ति पन वुत्तत्ता "निरोधा बुट्ठहन्तस्सा"ति वुत्तं । वचीसङ्खारपटिप्पस्सद्धि कायसङ्खारपटिप्पस्सद्धियाव सिद्धाति वेदितब्बा। तेनेवाह "दुतिय...पे०... विसुं न वुत्तानी"ति । पाळियं पन अत्थतो सिद्धापि सुपाकटभावेन विभावेतुं सरूपतो गण्हाति । न हि अरियविनये अत्थापत्तिविभावना अभिधम्मदेसनाय पकतीति। यथा नीवरणविक्खम्भनञ्च पठमस्स झानस्स अधिगमाय उपायो, एवं सुखदुक्खविक्खम्भनं 195 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ दीघनिकाये महावग्गटीका (५.२८८-२८८) चतुत्थस्स झानस्स अधिगमाय उपायोति "चतुत्थज्झानं सुखं दुक्खं विक्खम्भेत्वा"ति वुत्तं । सेसं हेट्ठा वुत्तनयमेव । अविज्जारागादीहि सह वज्जेहीति सावज्जं, अकुसलं, तदभावतो अनवज्जं कुसलं । अत्तनो हितसुखं आकङ्घन्तेन सेवनीयतो सेवितबं, कुसलं, तब्बिपरियायतो न सेवितबं, अकुसलं । लामकभावेन हीनं, अकुसलं, सेट्ठभावेन पणीतं, कुसलन्ति सावज्जदुकादयो तयोपि दुका यथारहं एतेसं कुसलाकुसलकम्मपथानं वसेनेव वेदितब्बा। सब्बन्ति यथावुत्तं सबं चतूहि दुकेहि सङ्गहितं धम्मजातं । यथारहं कण्हञ्च सुक्कञ्च पटिद्वन्दिभावतो, सप्पटिभागञ्च अप्पटिभागञ्च अद्वयभावतो । वट्टपटिच्छादिका अविज्जा पहीयति चतुन्नं अरियसच्चानं सम्मदेव पटिविज्झनतो। ततो एव अरहत्तमग्गविज्जा उप्पज्जति। सुखन्ति एवं कम्मपथमुखेन तेभूमकधम्मे सम्मसित्वा विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा मग्गपटिपाटिया अरहत्ते पतिद्वहन्तस्स यं अरहत्तमग्गसुखञ्चेव अरहत्तफलसुखञ्च, तं इध “सुख''न्ति अधिप्पेतं । अन्तोगधा एव नानन्तरियभावतो । अट्ठतिंसारम्मणवसेनाति पाळियं आगतानं अट्ठतिसाय कम्मट्ठानानं वसेन । वित्थारेत्वा कथेतब्बा पठमज्झानादिवसेन आगतत्ताति अधिप्पायो । "कथ"न्तिआदिना तमेव वित्थारेत्वा कथनं नयतो दस्सेति। "चतुवीसतिया ठानेसू"तिआदीसु यं वत्तब्द, तं महापरिनिब्बानवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.२१९) वुत्तमेव । “निरोधसमापत्तिं पापेत्वा"ति इमिना अरूपज्झानानिपि गहितानि होन्ति तेहि विना निरोधसमापत्तिसमापज्जनस्स असम्भवतो, चतुत्थज्झानसभावत्ता च तेसं | दस उपचारज्झानानीति ठपेत्वा कायगतासतिं आनापानञ्च अट्ठ अनुस्सतियो, सञ्जाववत्थानञ्चाति दस उपचारज्झानानि । अधिसीलं नाम समाधिसंवत्तनियन्ति तस्स हेट्ठिमन्तेन पठमज्झानं परियोसानन्ति वुत्तं "अधिसीलसिक्खा पठमं ओकासाधिगमं भजती"ति । अधिचित्तं नाम चतुत्थज्झाननिटुं तदन्तोगधत्ता अरूपज्झानानं, तप्परियोसानत्ता फलज्झानानन्ति वुत्तं "अधिचित्तसिक्खा दुतिय"न्ति । मत्थकप्पत्ता अधिपञ्जासिक्खा नाम अग्गमग्गविज्जाति आह “अधिपञ्जासिक्खा ततिय"न्ति । सिक्खत्तयवसेन तयो ओकासाधिगमे नीहरन्तेन यथारहं तंतंसुत्तवसेनपि नीहरितब्बन्ति दस्सेन्तो “सामञफलेपी"तिआदिमाह । यदग्गेन च तिस्सो सिक्खा यथाक्कम तयो ओकासाधिगमे भजन्ति, तदग्गेन तप्पधानत्ता यथाक्कम तीणि पिटकानि ते भजन्तीति दस्सेतुं "तीसु पना"तिआदि वुत्तं । 196 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२८९-२९०) चतुसतिपट्ठानवण्णना १९७ तीणि पिटकानि विभजित्वाति तिण्णं ओकासाधिगमानं वसेन यथानुपुबं तीणि पिटकानि वित्थारेत्वा कथेतुं लभिस्सामाति । समोधानेत्वाति समायोजेत्वा तत्थ वुत्तमत्थं इमस्स सुत्तस्स अत्थभावेन समानेत्वा । दुक्कथितन्ति असम्बन्धकथनेन, अतिपपञ्चकथनेन वा दुटु कथितन्ति न सक्का वत्तुं तथाकथनस्सेव सुकथनभावतोति आह "तेपिटकं...पे०... सुकथितं होती"ति । चतुसतिपट्ठानवण्णना २८९. न केवलं अभिधम्मपरियायेनेव कुसलट्ठो गहेतब्बो, अथ खो बाहितिकपरियायेन पीति आह "फलकुसलस्स चा"ति | खेमटेनाति चतूहिपि योगेहि अनुपद्दवभावेन । सम्मा समाहितोति समथवसेन चेव विपस्सनावसेन च सुटु समाहितो । एकग्गचित्तोति विक्खेपस्स दूरसमुस्सारितत्ता एकग्गतं अविखेपं पत्तचित्तो। अत्तनो कायतोति अज्झत्तं काये कायानुपस्सनावसेन सम्मा समाहितचित्तो समानो “समाहितो यथाभूतं पजानाति पस्सती''ति (सं० नि० २.३.५; ३.५.१०७१, १०७२; नेत्ति० ४०; मि० प० १.१४) वचनतो। तत्थ जाणदस्सनं निब्बत्तेन्तो ततो बहिद्धा परस्स कायेपि आणदस्सनं निब्बत्तेति । तेनाह "परस्स कायाभिमुखं जाणं पेसेती"ति । सम्मा विप्पसीदतीति सम्मा समाधानपच्चयेन अभिप्पसादेन आणूपसहितेन अज्झत्तं कायं ओकप्पेति । सब्बत्थाति सब्बट्ठानेसु। सति कथिताति योजना। लोकियलोकुत्तरमिस्सका कथिता अनुपस्सनाआणदस्सनानं तदुभयसाधारणभावतो । सत्तसमाधिपरिक्खारवण्णना २९०. एत्थाति इमिस्सा कथाय । झानक्खस्स वीरियचक्कस्स अरियमग्गरथस्स सीलं विभूसनभावेन वुत्तन्ति आह “अलङ्कारो परिक्खारो नामा"ति । सत्तहि नगरपरिक्खारेहीति नगरं परिवारेत्वा रक्खणकेहि कतपरिक्खेपो, परिखा, उद्दापो, पाकारो, एसिका, पलिघा, पाकारपक्खण्डिलन्ति इमेहि सत्तहि नगरपरिक्खारेहि । सम्भरीयति फलं एतेनाति सम्भारो, कारणं। भेसज्जहि ब्याधिवूपसमनेन जीवितस्स कारणं । परिवारपरिक्खारवसेनाति परिवारसङ्घातपरिक्खारवसेन । परिक्खारो हि सम्मादिट्ठियादयो मग्गधम्मा सम्मासमाधिस्स सहजातादिपच्चयभावेन परिकरणतो अभिसङ्घरणतो। उपेच्च निस्सीयतीति उपनिसा, सह उपनिसायाति सउपनिसोति आह “सउपनिस्सयो"ति, सहकारीकारणभूतो धम्मसमूहो इध 197 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ दीघनिकाये महावग्गटीका (५.२९०-२९०) "उपनिस्सयो"ति अधिप्पेतो। सम्मा पसत्था सुन्दरा दिट्ठि एतस्साति सम्मादिट्ठि, पुग्गलो, तस्स सम्मादिहिस्स। सो पन यस्मा पतिद्वितसम्मादिछिको, तस्मा वुत्तं "सम्मादिद्वियं ठितस्सा"ति। सम्मासङ्कप्पो पहोतीति मग्गसम्मादिट्ठिया दुक्खादीसु परिजाननादिकिच्चं साधेन्तिया कामवितक्कादिके समुग्घाटेन्तो सम्मासङ्कप्पो यथा अत्तनो किच्चसाधने पहोति, तथा पवत्तिं पनस्स दस्सेन्तो आह "सम्मासङ्कप्पो पवत्तती"ति । एस नयो सब्बपदेसूति "सम्मासङ्कप्पस्स सम्मावाचा पहोती"तिआदीसु सेसपदेसु यथावुत्तमत्थं अतिदिसति । एत्थ च यस्मा निब्बानाधिगमाय पटिपन्नस्स योगिनो बहूपकारा सम्मादिट्ठि | तथा हि सा “पञापज्जोतो, पञ्जासत्थ"न्ति च वुत्ता। ताय हि सो अविज्जन्धकारं विधमित्वा किलेसचोरे घातेन्तो खेमेन निब्बानं पापुणाति, तस्मा अरियमग्गकथायं सम्मादिट्ठि आदितो गय्हति, इध पन पुग्गलाधिट्ठानदेसनाय “सम्मादिट्ठिस्सा''ति वुत्तं । यस्मा पन सम्मादिट्ठिपुग्गलो नेक्खम्मसङ्कप्पादिवसेन सम्मदेव सङ्कप्पेति, न मिच्छाकामसङ्कप्पादिवसेन, तस्मा सम्मादिहिस्स सम्मासङ्कप्पो पहोति । यस्मा च सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचाय उपकारको । यथाह “पुब्बे खो गहपति वितक्केत्वा विचारेत्वा पच्छा वाचं भिन्दती"ति, (सं० नि० २.३४८) तस्मा सम्मासङ्कप्पस्स सम्मावाचा पहोति । यस्मा पन “इदञ्चिदञ्च करिस्सामा''ति हि पठमं वाचाय संविदहित्वा येभुय्येन ते ते कम्मन्ता सम्मा पयोजीयन्ति, तस्मा वाचा कायकम्मस्स उपकारिकाति सम्मावाचस्स सम्माकम्मन्तो पहोति । यस्मा पन चतुब्बिधं वचीदुच्चरितं, तिविधञ्च कायदुच्चरितं पहाय उभयं सुचरितं पूरेन्तस्सेव आजीवट्ठमकसीलं पूरति, न इतरस्स, तस्मा सम्मावाचस्स सम्माकम्मन्तस्स च सम्माआजीवो पहोति । विसुद्धिदिट्ठिसमुदागतसम्माआजीवस्स योनिसो पधानस्स सम्भवतो सम्माआजीवस्स सम्मावायामो पहोति । योनिसो पदहन्तस्स कायादीसु चतूसु वत्थूसु सति सूपट्ठिता होतीति सम्मावायामस्स सम्मासति पहोति । यस्मा एवं सूपट्टिता सति समाधिस्स उपकारानुपकारानं धम्मानं गतियो समन्नेसित्वा पहोति एकत्तारम्मणे चित्तं समाधातुं, तस्मा सम्मासतिस्स सम्मासमाधि पहोतीति । अयञ्च नयो पुब्बभागे नानाक्खणिकानं सम्मादिट्ठिआदीनं वसेन वुत्तो, मग्गक्खणे पन सम्मादिट्ठिआदीनं तस्स तस्स सहजातादिवसेन वुत्तो “सम्मादिट्ठिस्स सम्मासङ्कप्पो पहोती"तिआदीनं पदानमत्थो युत्तो, अयमेव च इधाधिप्पेतो । तेनाह "अयं पनत्थो"तिआदि । मग्गजाणेति मग्गपरियापन्नत्राणे ठितस्स तंसमङ्गिनो। मग्गपञ्जा हि चतुन्नं सच्चानं सम्मादस्सनटेन “मग्गसम्मादिट्ठी''ति वुत्ता, सा एव नेसं याथावतो जाननतो पटिविज्झनतो 198 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५.२९१ - २९२) इध सत्तसमाधिपरिक्खारवण्णना वृत्ता । "मग्गञाण "न्तिपि वित्त मग्गेन किलेसानं विमुच्चनं समुच्छेदप्पहानमेव । फलसम्मादिट्टि एव 'फलसम्माञाण' "न्ति परियायेन वुत्तं, परियायवचनञ्च वृत्तनयानुसारेन वेदितब्बं । फलविमुत्ति पन पटिप्परसद्धिप्पहानं दट्ठब्बं । " अमतस्स द्वाराति अरियमग्गमाह । सो पन विना च आचरियमुट्ठिना अनन्तरं अबाहिरं करित्वा यावदेव मनुस्सेहि सुप्पकासितत्ता विवटो । धम्मविनीताति अरिधम्मे विनीता । सो पनेत्थ किलेसानं समुच्छेदविनयवसेन वेदितब्बोति आह “ सम्मानिय्यानेन निय्याता" ति । अत्थीति पुथुत्थविसयं निपातपदं “ अत्थि इमस्मिं काये केसा 'तिआदीसु (दी० नि० २.३७७; म० नि० १.११० ३.१५४; सं० नि० २.४.१२७; अ० नि० २.६.२९; ३.१०.६०; विभं० ३५६; खु० पा० २.१. द्वत्तिंसआकार; नेत्ति० ४७) वियाति आह " अनागामिनो च अत्थी 'ति । तेनेवाह “ अस्थि चेवेत्थ सकदागामिनो 'ति । बहिद्धा संयोजनपच्चयो निब्बत्तिहेतुभूतो पुञ्ञभागो एतिस्सा अत्थीति पुञ्ञभागा, अतिसयविसिट्ठो चेत्थ अत्थिअत्थो वेदितब्बो । ओत्तप्पमानोति उत्तसन्तो भायन्तो । न पन नत्थि, अत्थि एवाति दीपेति । १९९ २९१. अस्साति वेस्सवणस्स । लद्धि पन न अस्थि पटिविद्धसच्चत्ता । " अभिसमये विसेसो नत्थीति एतेन सब्बेपि सब्बञ्जुगुणा सब्बबुद्धानं सदिसा एवाति दस्सेति । २९२. कारणस्स एकरूपत्ता इमानि पन पदानीति न केवलं "तयिदं ब्रह्मचरिय ''न्तिआदीनि पदानि, अथ खो “इममत्थं जनवसभो यक्खो 'तिआदीनि पदानि पीति । जनवसभसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना । 199 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महागोविन्दसुत्तवण्णना २९३. पञ्चकुण्डलिकोति विस्सट्ठपञ्चवेणिको। चतुमग्गट्ठानेसूति चतुन्नं मग्गानं विनिविज्झित्वा गतहानेसु। तत्थ हि कता सालादयो चतूहि दिसाहि आगतमनुस्सानं उपभोगक्खमा होन्ति । "एवरूपानी"ति इमिना रुक्खमूलसोधनादीनि चेव यथासत्ति अन्नदानादीनि च पुञानि सङ्गण्हाति । "सुवण्णक्खन्धसदिसो अत्तभावो इट्ठो कन्तो मनापो अहोसी"ति पाठो। सकटसहस्समत्तन्ति वाहसहस्समत्तं, वाहो पन वीसति खारी, खारी सोळसदोणमत्ता, दोणं सोळस नाळियो वेदितब्बा । कुम्भं दसम्बणानि | "सहस्सनाळियोति केचि । रत्तसुवण्णकण्णिकन्ति रत्तसुवण्णमयं वटंसकं । यस्मा मज्झिमयामे एव देवता सत्थारं उपसङ्कमितुं अवसरं लभन्ति, तस्मा "एककोट्ठासं अतीताया"ति वुत्तं । अतिक्कन्तवण्णोति अतिविय कमनीयरूपो, केवलकप्पन्ति वा मनं ऊनं अवसेसं, ईसकं असमत्तन्ति अत्थो भगवतो हि समीपट्ठानं मुञ्चित्वा सब्बो गिज्झकूटविहारो तेन ओभासितो। तेनाह "चन्दिमा विया"तिआदि । देवसभावण्णना २९४. रतनमत्तकण्णिकरुक्खनिस्सन्देनाति रतनप्पमाणरुक्खमयकूटदानपुञ्जनिस्सन्देन, तस्स वा पुञस्स निस्सन्दफलभावेन । निब्बत्तसभायन्ति समुट्ठितउपट्ठानसालायं । मणिमयाति पदुमरागादिमणिमया। आणियोति थम्भतुलासङ्घाटकादीसु वाळरूपादिसङ्घाटनकआणियो । गन्धब्बराजाति गन्धब्बकायिकानं देवतानं राजा। ये तावतिंसानं आसन्नवासिनो चातुमहाराजिका देवा, ते पुरतो करोन्तो "दीसु देवलोकेसु देवता पुरतो कत्वा निसिनो"ति वुत्तो। सेसेसुपि तीसु ठानेसु एसेव नयो । 200 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९४-२९४) देवसभावण्णना २०१ नागराजाति नागानं अधिपति, न पन सयं नागजातिको । आसति निसीदति एत्थाति आसनं, निसज्जट्ठानन्ति आह "निसीदितुं ओकासो"ति । "एत्था"ति पदं निपातमत्तं, एत्थाति वा एतस्मिं पाठे । अत्थुद्धारनयेन वत्तब्बं पुब्बे वुत्तं चतुब्बिधमेव । तावतिसा, एकच्चे च चातुमहाराजिका यथालद्धाय सम्पत्तिया थावरभावाय, आयतिं सोधनाय च पञ्च सीलानि रक्खन्ति, ते तस्स विसोधनत्थं पवारणासङ्गहं करोन्ति । तेन वुत्तं “महापवारणाया"तिआदि । वस्ससहस्सन्ति मनुस्सगणनाय वस्ससहस्सं | पन्नपलासोति पतितपत्तो। खारकजातोति जातखुद्दकमकुळो । ये हि नीलपत्तका अतिविय खुद्दका मकुळा, ते “खारका''ति वुच्चन्ति। जालकजातोति तेहियेव खुद्दकमकुळेहि जातजालको सब्बसो जालो विय जातो। केचि पन "जालकजातोति एकजालो विय जातो"ति अत्थं वदन्ति । पारिछत्तको किर खारकग्गहणकाले सब्बत्थकमेव पल्लविको होति, ते चस्स पल्लवा पभस्सरपवाळवण्णसमुज्जला होन्ति, तेन सो सब्बसो समुज्जलन्तो तिट्ठति । कुटुमलकजातोति सञ्जातमहामकुळो । कोरकजातोति सञ्जातसूचिभेदो सम्पति विकसमानावत्थो | सब्बपालिफुल्लोति सब्बसो फुल्लितविकसितो। कन्तनकवातोति देवानं पुञकम्मपच्चया पुप्फानं छिन्दनकवातो । कन्ततीति छिन्दति । सम्पटिच्छनकवातोति छिन्नानं छिन्नानं पुप्फानं सम्पटिग्गण्हनकवातो। नच्चन्तोति नानाविधभत्तिं सन्निवेसवसेन नच्चनं करोन्तो। अञतरदेवतानन्ति नामगोत्तवसेन अप्पञातदेवतानं । रेणुवट्टीति रेणुसङ्घातो । कण्णिकं आहच्चाति सुधम्माय कूटं आहन्त्वा । अट्ठ दिवसेति पञ्चमिया सद्धिं पक्खे चत्तारो दिवसे सन्धाय वुत्तं । यथावुत्तेसु अट्ठसु दिवसेसु धम्मस्सवनं निबद्धं तदा पवत्ततीति ततो अझदा कारितं सन्धायाह "अकालधम्मस्सवनं कारित"न्ति । चेतिये छत्तस्स हेट्ठा कातब्बवेदिका छत्तवेदिका। चेतियं परिक्खिपित्वा पदक्खिणकरणट्टानं अन्तोकत्वा कातब्बवेदिका पुटवेदिका। चेतियस्स कुच्छिं 201 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ दीघनिकाये महावग्गटीका (६.२९५-२९६) परिक्खिपित्वा तं सम्बन्धमेव कत्वा कातब्बवेदिका कुच्छिवेदिका। सीहरूपपादकं आसनं सीहासनं। उभोसु पस्सेसु सीहरूपयुत्तं सोपानं सीहसोपानं । अत्तमना होन्ति अनियामनकभावतो। तेनेवाह "महापुञ पुरक्खत्वा"तिआदि । पवारणासङ्गहत्थाय सन्निपतिताति वेदितब्बा "तदहुपोसथे पन्नरसे पवारणाय पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया"ति (दी० नि० २.२९४) वचनतो । २९५. नवहि कारणेहीति “इतिपि सो भगवा अरह"न्तिआदिना (दी० नि० १.१५७, २५५) वुत्तेहि अरहत्तादीहि नवहि बुद्धानुभावदीपनेहि कारणेहि । धम्मस्स चाति एत्थ च-सद्दो अवुत्तसमुच्चयत्थोति तेन सम्पिण्डितमत्थं दस्सेन्तो “उजुप्पटिपन्नतादिभेदं सङ्घस्स च सुप्पटिपत्ति"न्ति आह । अट्ठयथाभुच्चवण्णना २९६. यथा अनन्तमेव आनञ्चं, भिसक्कमेव भेसज्जं, एवं यथाभूता एव यथाभुच्चाति पाळियं वुत्तन्ति आह “यथाभुच्चेति यथाभूते"ति । वण्णेतब्बतो कित्तेतब्बतो वण्णा, गुणा। कथं पटिपन्नोति हेतुअवत्थायं, फलअवत्थायं, सत्तानं उपकारा वत्थायन्ति तीसुपि अवत्थासु लोकनाथस्स बहुजनहिताय पटिपत्तिया कथेतुकम्यतापुच्छा । तथा हि नं आदितो पट्ठाय याव परियोसाना सङ्केपेनेव दस्सेन्तो "दीपङ्करपादमूले"तिआदिमाह । तत्थ अभिनीहरमानोति अभिनीहारं करोन्तो । यं पनेत्थ महाभिनीहारे, पारमीसु च वत्तब्ध, तं ब्रह्मजालटीकायं (दी० नि० टी० १.७) वुत्तं एवाति तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । "खन्तिवादितापसकाले"तिआदि (जा० १.खन्तीवादीजातक) हेतुअवत्थायमेव अनञसाधारणाय सुदुक्कराय बहुजनहिताय पटिपत्तिया विभावनं । यथाधिप्पेतं हितसुखं याय किरियाय विना न इज्झति, सापि तदत्था एवाति दस्सेतुं "तुसितपुरे यावतायुकं तिद्वन्तोपी"तिआदि वुत्तं । धम्मचक्कप्पवत्तनादि (सं० नि० ३.५.१०८१; महाव० १३; पटि० म० ३.३०) पन निब्बत्तिता बहुजनहिताय पटिपत्ति । आयुसङ्घारोस्सज्जनम्पि "एत्तकं कालं तिट्ठामी"ति पवत्तिया बहुजनहिताय पटिपत्ति । अनुपादिसेसाय निब्बानधातुया परिनिब्बानवसेन 202 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९६-२९६) अट्ठयथाभुच्चवण्णना बहुजनहित पटिपत्ति । तेनाह "यावस्सा "तिआदि । सेपदानीति “बहुजनसुखाया ”तिआदीनि पदानि । पच्छिमन्ति “ अत्थाय हिताय सुखाया " ति पदत्तयं । पुरिमस्साति ततो पुरिमस्स पदत्तयस्स । अत्थोति अत्थनिद्देसो । यदिपि अतीतेनङ्गेन समन्नागता सत्थारो अहेसुं, तेपि पन बुद्धा एवाति अथ अम्हाकं सत्था अनञ्ञति आह “अतीतेपि बुद्धतो अञ्यं न समनुपस्सामा ''ति । यथा च अतीते, एवं अनागते चाति अयमत्थो नयतो लब्भतीति कत्वा वुत्तं "अनागतेपि न समनुपस्सामा "ति । सक्को पन देवराजा तमत्थं अत्थापन्नमेव कत्वा "न पनेतरहि " इच्चेवाह । किं सक्को कथेतीति विचारेत्वाति “नेव अतीतंसे समनुपस्समा 'ति वदन्तो सक्को किं कथेती”ति विचारणं समुट्टपेत्वा । यस्मा अतीते बुद्धा अहेसुं, अनागते भविस्सन्तीति नायमत्थो सक्केन देवराजेन परिञातो, ते पन बुद्धसामञ्ञेन अम्हाकं भगवता सद्धिं गहेत्वा एतरहि अञ्ञस्स सब्बेन सब्बं अभावतो तथा वृत्तन्ति दस्सेतुं “ एतरही "तिआदि वृत्तं । स्वाक्खातादीनीति स्वाक्खातपदादीनि । कुसलादीनीति “इदं कुसल "न्तिआदीनि पदानि । २०३ गङ्गायमुनानं असमागमट्ठाने उदकं भिन्नवण्णं होन्तम्पि समागमट्ठाने अभिन्नवणं एवाति आह "वण्णेनपि संसन्दति समेतीति । तत्थ किर गङ्गोदकसदिसमेव यमुनोदकं । यथा निब्बानं केनचि किलेसेन अनुपक्किलिट्ठताय परिसुद्धं एवं निब्बानगामिनिपटिपदापि केनचि किलेसेन अनुपक्किलिट्ठताय परिसुद्धाव इच्छितब्बा । तेनाह " न ही "तिआदि । येन परिसुद्धत्थेन निब्बानस्स, निब्बानगामिनिया पटिपदाय च आकासूपमता, सो केनचि अनुपलेपो, अनुपक्किलेसो चाति आह “ आकासम्पि अलग्गं परिसुद्ध "न्ति । इदानि मत्थं निदस्सनेन विभूतं कत्वा दस्सेतुं “चन्दिमसूरियान "न्तिआदि वृत्तं । संसन्दति युज्जति पटिपज्जितब्बतापटिपज्जनेहि अञ्ञमञ्ञानुच्छविकताय । पटिपदाय ठितानन्ति पटिपदं मग्गपटिपत्तिं पटिपज्जमानानं । वुसितवतन्ति ब्रह्मचरियवासं वुसितवन्तानं एतेसं । लद्धसहायोति एतासं पटिपदानं वसेन लद्धसहायो । तत्थ तत्थ सावकेहि सत्थु कातब्बकिच्चे । इदं पन " अदुतियो 'तिआदि सुत्तन्तरे आगतवचनं अञ्जेहि असदिसट्टेन वुत्तं न यथावुत्तसहायाभावतो । अपनुज्जाति अपनीय विवज्जेत्वा । " अपनुज्जा" ति च अन्तोगधावधारणं इदं वचनं एकन्तिकत्ता तस्स अपनोदस्साति वृत्तं “अपनुज्जेवा "ति । 203 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दीघनिकाये महावग्गटीका (६.२९६-२९६) लब्भतीति लाभो, सो पन उक्कंसगतिविजाननेन सातिसयो, विपुलो एव च इधाधिप्पेतोति आह "महालाभो उप्पत्रो"ति । उस्सनपुज्ञनिस्सन्दसमुप्पन्नोति यथावुत्तकालं सम्भतसुविपुलउळारतरपुञाभिसन्दतो निब्बत्तो । 'इमे निब्बत्ता, इतो परं मय्हं ओकासो नत्थी''ति उस्साहजातो विय उपरूपरि वड्डमानो उदपादि । सब्बदिसासु हि यमकमहामेघो उट्ठहित्वा महामेघं विय सब्बपारमियो “एकस्मिं अत्तभावे विपाकं दस्सामा''ति सम्पिण्डिता विय भगवतो इदं लाभसक्कारसिलोकं निब्बत्तयिंसु, ततो अन्नपानवत्थयानमालागन्धविलेपनादिहत्था खत्तियब्राह्मणादयो उपगन्त्वा “कहं बुद्धो, कहं भगवा, कहं देवदेवो, कहं नरासभो, कहं पुरिससीहो''ति भगवन्तं परियेसन्ति, सकटसतेहिपि पच्चये आहरित्वा ओकासं अलभमाना समन्ता गावुतप्पमाणम्पि सकटधुरेन सकटधुरं आहच्च तिठ्ठन्ति चेव अनुबन्धन्ति च अन्धकविन्दब्राह्मणादयो विय। सब्बं खन्धके, तेसु तेसु च सुत्तेसु आगतनयेन वेदितब्बं । तेनाह "लाभसक्कारो महोघो विया"तिआदि । पटिपाटिभत्तन्ति बहूसु अनुपटिपाटिया दातब्ब भत्तं । “दानं दस्सामा''ति आहटपटिपाटिकाय उद्वितेसु मत्थकं पत्तो अनञसाधारणत्ता तस्स दानस्स । उपायं आचिक्खि नागरानं असक्कुणेय्यरूपेन दानं दापेतुं । सालकल्याणिरुक्खा राजपरिग्गहा अजेहि असाधारणा, तस्मा तेसं पदरेहि मण्डपो कारितो, हत्थिनो च राजभण्डभूता नागरेहि न सक्का लद्धन्ति तेहि छत्तं धारापितं, तथा खत्तियधीताहि वेय्यावच्चं कारितं । “पञ्च आसनसतानी"ति इदं सालकल्याणिमण्डपे पञत्ते सन्धाय वुत्तं, ततो बहि पन बहूनि पञत्तानि अहेसुं । चतुज्जातियगन्धं पिसति बुद्धप्पमुखस्स सङ्घस्स पूजनत्थञ्चेव पत्तस्स उब्बटनत्थञ्च । उदकन्ति पत्तधोवनउदकं । अनग्धानि अहेसुं अनग्घरतनाभिसङ्कतत्ता । सत्तधा मुद्धा फलिस्सति अनादरकारणादिना। काळं ओलोकेस्सामीति काळं एवं अनुपेक्खिस्सामि, तस्स उप्पज्जनकं अनत्थं परिहरिस्सामीति अत्थो । कदरियाति थद्धमच्छरिनो पुचकम्मविमुखा । देवलोकं न वजन्ति पुचस्स अकतत्ता, मच्छरिभावेन च पापस्स पसुतत्ता। बालाति दुच्चिन्तितचिन्तनादिना बाललक्षणयुत्ता । नप्पसंसन्ति दानं पसंसितुम्पि न विसहन्ति । धीरोति धीतिसम्पन्नो उळारपझो परेहि कतं 204 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.२९६-२९६) अट्ठयथाभुच्चवण्णना २०५ दानं अनुमोदमानोपि, तेनेव कायिकचेतसिकसुखसमझी होति । दानानुमोदनेनेव। सुखी परत्थाति परलोके वररोजो नाम तस्मिं काले एको खत्तियो, तस्स वररोजस्स। अनवज्ज...पे०... फलेय्य अभूतवादिभावतोति अधिप्पायो । अतिरेकपदसहस्सेन तिंसाधिकेन अड्डतेय्यगाथासतेन वण्णमेव कथेसि रूपप्पसन्नताय च । याव मञ्ने खत्तियाति एत्थ यावाति अवधिपरिच्छेदवचनं, अब्रेति निपातमत्तं, याव खत्तिया खत्तिये अवधिं कत्वा सब्बे देवमनुस्साति अधिप्पायो । तेनाह "खत्तिया ब्राह्मणा"तिआदि । मदपमत्तोति लाभसक्कारसिलोकमदेन पमत्तो चेव तदन्वयेन पमादेन पमत्तो च हुत्वा । तदन्वयमेवाति तदनुगतमेव । वाचा...पे०... समेतीति वचीकम्मकायकम्मानि अञ्जमजं अविरुद्धानि, अञदत्थु संसन्दन्ति । अजा एव मिगाति अजामिगा, ते अजामिगे। तिण्णविचिकिच्छो सब्बसो अतिक्कन्तविचिकिच्छाकन्तारो । ननु च सब्बेपि सोतापन्ना तिण्णविचिकिच्छा, विगतकथंकथा च? सच्चमेतं, इदं पन न तादिसं तिण्णविचिकिच्छतं सन्धाय वुत्तं, अथ खो सब्बस्मिं ज्ञेय्यधम्मे सब्बाकारावबोधसङ्घातसन्निट्ठानवसेन सब्बसो निराकतं सन्धायाति दस्सेन्तो "यथा ही"ति आदिमाह । उस्सन्नुस्सन्नत्ताति परोपरभावतो, अयञ्च अत्थो भगवतो अनेकधातुनानाधातुजाणबलेनपि इज्झति। सब्बत्थ विगतकथंकथो सब्बदस्साविभावतो। सब्बेसं परमत्थधम्मानं सच्चाभिसमयवसेन पटिविद्धत्ता वुत्तं "वोहारवसेना"ति वा नामगोत्तादिवसेनाति अत्थो । परियोसितसङ्कप्योति सब्बसो निट्टितमनोरथो । ननु च अरियमग्गेन परियोसितसङ्कप्पता नाम सोळसकिच्चसिद्धिया कतकरणीयभावेन, न सब्बजेय्यधम्मावबोधेनाति चोदनं सन्धायाह "पुब्बे अननुस्सुतेसू"तिआदि। सावकानं सावकपारमिञाणं विय, हि पच्चेकबुद्धानं पच्चेकबोधिजाणं विय च सम्मासम्बुद्धानं सब्बञ्जतञाणं चतुसच्चाभिसम्बोधपुब्बकमेवाति । अननुस्सुतेसूति न अनुस्सुतेसु । सामन्ति सयमेव । पदद्वयेनापि परतो घोसेन विनाति दस्सेति । तत्थाति निमित्तत्थे भुम्मं, सच्चाभिसम्बोधनिमित्तन्ति अत्थो । सच्चाभिसम्बोधो च 205 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ दीघनिकाये महावग्गटीका (६.२९७-३०४) अग्गमग्गवसेनाति दट्ठब्बं । बलेसु च वसीभावन्ति दसन्नं बलञाणानं यथारुचि पवत्ति । जातत्ता जाताति सम्मासम्बुद्धे वदति । २९७. तत्थ तत्थ राजधानिआदिके निबद्धवासं वसन्तो। तीसु मण्डलेसु यथाकालं चारिकं चरन्तो। २९८. अस्साति फलस्स । तन्ति कारणं । द्विन्नम्पि एकतो उप्पत्तिया कारणं नत्थि, पगेव तिण्णं, चतुन्नं वाति। "एत्थ चा"तिआदि “एकिस्सा लोकधातुया''ति वुत्तलोकधातुया पमाणपरिच्छेददस्सनत्थं आरद्धं । यावताति यत्तकेन ठानेन । परिहरन्तीति सिनेरुं परिक्खिपन्ता परिवत्तन्ति । दिसाति दिसासु, भुम्मत्थे एतं पच्चत्तवचनं । भन्ति दिब्बन्ति । विरोचनाति ओभासन्ता, विरोचना वा सोभमाना चन्दिमसूरिया भन्ति, ततो एव दिसा च भन्ति। ताव सहस्सधाति तत्तको सहस्सलोको। एत्तकन्ति इमं चक्कवाळं मज्झे कत्वा इमिनाव सद्धिं चक्कवाळं दससहस्सं । यं पनेत्थ वत्तब्बं, तं महापदानवण्णनायं वुत्तमेव । न पचायतीति तीसु पिटकेसु अनागतत्ता । सनकुमारकथावण्णना ३००. वण्णेनाति रूपसम्पत्तिया । सुविधेय्यत्ता तं अनामसित्वा यससदस्सेव अत्थमाह । अलङ्कारपरिवारेनाति अलङ्कारेन च परिवारेन च । पुञ्जसिरियाति पुञ्जिद्धिया। ३०१. सम्पसादनेति सम्पसादजनने। संपुब्बो खा-सद्दो जाननत्थो “सङ्खायेतं पटिसेवती"तिआदीसु (म० नि० २.१६८) वियाति आह "जानित्वा मोदामा"ति | गोविन्दब्राह्मणवत्थुवण्णना ३०४. याव दीघरत्तन्ति याव परिमाणतो, अपरिमितकालपरिदीपनमेतन्ति आह "एत्तकन्ति...पे०... अतिचिररत्त"न्ति। महापञ्जोव सो भगवाति तेन ब्रह्मना 206 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३०५-३०७) रज्जसंविभजनवण्णना २०७ अनुमतिपुच्छावसेन देवानं वुत्तन्ति दस्सेन्तो “महापोव सो भगवा। नोति कथं तुम्हे मञथा"ति आह । सयमेवेतं पऽहं ब्याकातुकामो “भूतपुब्बं भो''ति आदिं आहाति सम्बन्धो। एवं पन ब्याकरोन्तेन अत्थतो अयम्पि अत्थो वुत्तो नाम होतीति दस्सेन्तो "अनच्छरियमेत"न्ति आदिमाह। तिण्णं मारानन्ति किलेसाभिसङ्घारदेवपुत्तमारानं । "अनच्छरियमेतन्ति वुत्तमेवत्थं निगमनवसेन "किमेत्थ अच्छरिय"न्ति पुनपि वुत्तं । रो दिट्ठधम्मिकसम्परायिकअत्थानं पुरो धानतो पुरे पुरे संविधानतो पुरोहितोति आह "सब्बकिच्चानि अनुसासनपुरोहितो"ति। गोविन्दियाभिसेकेनाति गोविन्दस्स ठाने ठपनाभिसेकेन । तं किर तस्स ब्राह्मणस्स कुलपरम्परागतं ठानन्तरं । जोतितत्ताति आवुधानं जोतितत्ता। पालनसमत्थतायाति रञो, अपरिमितस्स च सत्तकायस्स अनत्थतो परिपालनसमत्थताय । सम्मा वोस्सज्जित्वाति सुटु तस्सेवागारवभावेन विस्सज्जित्वा निय्यातेत्वा । तं तमत्थं किच्चं पस्सतीति अत्थदसो। ३०५. भवनं वड्डनं भवो, भवति एतेनाति वा भवो, वड्डिकारणं सन्धिवसेन म-कारागमो, ओ-कारस्स च अ-कारादेसं कत्वा "भवमत्थू"ति वुत्तं । भवन्तं जोतिपालन्ति पन सामिअत्थे उपयोगवचनन्ति आह "भोतो"ति । मा पच्चब्याहासीति मा पटिक्खिपीति अत्थो। सो पन पटिक्खेपो पटिवचनं होतीति आह "मा पटिब्याहासी"ति | अभिसम्भोसीति कम्मन्तानं संविधाने समत्थो होतीति आह "संविदहित्वा"ति । भवाभवं, पञञ्च विन्दि पटिलभीति गोविन्दो, महन्तो गोविन्दो महागोविन्दो। “गो"ति हि पञ्जायेतं अधिवचनं गच्छति अत्थे बुज्झतीति । रज्जसंविभजनवण्णना ३०६. एकपितिका वेमातुका कनिट्ठभातरो। अयं अभिसित्तोति अयं रेणु राजकुमारो पितु अच्चयेन रज्जे अभिसित्तो। राजकारकाति राजपुत्तं रज्जे पतिट्ठापेतारो। ३०७. मदेन्तीति मदनीयाति कत्तुसाधनतं दस्सेन्तो “मदकरा"ति आह । मदकरणं पन पमादस्स विसेसकारणन्ति वुत्तं “पमादकरा"ति । 207 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दीघनिकाये महावग्गटीका (६.३०८-३१७) ३०८. रेणुस्स रज्जसमीपे दसगावुतमत्तवित्थतानि हुत्वा अपरभागे तियोजनसतं वित्थतत्ता सब्बानि छ रज्जानि सकटमुखानि पट्ठपेसि। वितानसदिसं चतुरस्सभावतो । ३१०. सहाति गाथाय पदपरिपूरणत्थं वुत्तं । तस्स अत्थं दस्सेन्तो "तेनेव सहा"ति आह । सहाति वा अविनाभावत्थे निपातो, सो सह आसुं सत्त भारधाति योजेतब्बो, तेन ते देसन्तरे वसन्ता विचित्तेन सहभाविनो अविनाभाविनोति दीपेति । रज्जभारं धारेन्ति अत्तनि आरोपेन्ति वहन्तीति भारधा। पठमभाणवारवण्णना निहिता | कित्तिसद्दअन्भुग्गमनवण्णना ३११. अनुपुरोहिते ठपेसीति अनुपुरोहिते कत्वा ठपेसि, अनुपुरोहिते वा ठाने ठपेसि । तिसवनं करोन्ते सन्धाय "दिवसस्स तिक्खत्तु"न्ति वुत्तं । द्वीसु सन्धीसु सवनं करोन्ते सन्धाय "सायं, पातो वा"ति वुत्तं । ततो पट्ठायाति वतचरियं मत्थकं पापेत्वा न्हातकालतो पभुति। ___ ३१२. अभिउग्गच्छीति उद्यहि उदपादि । अचिन्तेत्वाति "कथं खो अहं ब्रह्मना सद्धिं मन्तेय्य"न्ति अचिन्तेत्वा एवं चित्तम्पि अनुप्पादेत्वा। तेन समागमनस्सेव अभावतो अमन्तेत्वा। तं दिस्वाति तं करुणाब्रह्मविहारभावनं ब्रह्मदस्सनूपायं दिस्वा आणचक्खुना । ३१३. एवन्ति एवं रञो आरोचेत्वा पटिसल्लानं उपगते । सब्बत्थाति सब्बेसु छन्नं खत्तियानं, सत्तन्नं ब्राह्मणमहासालानं, सत्तन्नं नाटकसतानं, चत्तारीसाय च भरियानं आपुच्छनवारेसु। ३१६. सादिसियोति जातिया सादिसियोति आह “समवण्णा समजातिका'ति । ३१७. सन्थागारन्ति झानमनसिकारेन बहि विसटवितक्कवूपसमनेन चित्तस्स 208 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३१८-३१९) ब्रह्मनासाकच्छावण्णना २०९ सन्थम्भनं अगारं, झानसालन्ति अत्थो। गहितावाति भावनानुयोगेन महासत्तेन अत्तनो चित्तसन्ताने उप्पादनवसेन गहिता एव । नत्थि झानेनेव विक्खम्भितत्ता। विसेसतो हिस्स करुणाय भावितत्ता अनभिरति उक्कण्ठना नत्थि, मेत्ताय भावितत्ता भयपरितस्सना नथि। उक्कण्ठनाति पन ब्रह्मदस्सने उस्सुक्कं, परितस्सनाति तदभिपत्थनाति आह "ब्रह्मनो पना"तिआदि। ब्रह्मनासाकच्छावण्णना ३१८. चित्तुत्रासोति चित्तस्स उत्रासनमत्तं । कथन्ति सत्तनिकायनिवासट्ठाननामगोत्तादीनं वसेन केन पकारेन । तेनाह "कि"न्तिआदि । सोति ये ते पनकनसनन्तबन्धसतनसनकुमारकालनामका लोके पाकटा पञाता ब्रह्मानो, तेसु सनड्डुमारो नामाहन्ति दस्सेति । अग्यन्ति गरुडानियानं दातब्बंआहारं । मधुसाकन्ति मधुराहारं, यं किञ्चि अतिथिनो दातब्बं आहारं उपचारवसेन एवं वदति । तेनाह "मधुसाकं पना"तिआदि । पुच्छामाति निमन्तनवसेन पुच्छाम । ___३१९. महासत्तो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा ठितोपि तेसु “ब्रह्मसहब्यताय मग्गो'"ति अनिब्बेमतिकताय "कवी"ति अवोच। केचि पन “तपोकम्मेन परिक्खीणसरीरताय, ब्रह्मसमागमेन भयादिसमुप्पत्तिया च पटिलद्धमत्तेहि ब्रह्मविहारेहि परिहीनो अहोसि, तस्मा अविक्खम्भितविचिकिच्छताय ‘कङ्घी'ति अवोचा''ति वदन्ति । परस्स वेदिया विदिता परवेदिया, ते पन तस्स पाकटा विभूताति आह "परस्स पाकटेसु परवेदियेसू"ति । तत्थ कारणमाह “परेन सयं अभिसङ्घतत्ता'ति । ममाति कम्मं ममंकारो, ममत्तन्ति आह "इदं मम...पे०... तह"न्ति । “मम''न्ति करोति एतेनाति हि ममंकारो, तथापवत्ता तण्हा । मनुजेसूति निद्धारणे भुम्मं, न विसयेति आह "मनुजेसु यो कोची"ति | "एकोदिभूतो"ति पदस्स भावत्थं ताव दस्सेन्तो “एकीभूतो''ति वत्वा पुन तं विवरन्तो "एको तिद्वन्तो एको निसीदन्तो"ति आह । तादिसोति एको हुत्वा पवत्तनको । भूतोति जातो। झाने अधिमुत्ति नाम तस्मिं निब्बत्तिते, अनिब्बत्तिते कुतो अधिमुत्तीति आह "झानं निब्बत्तेत्वाति अत्थो"ति। विस्सगन्धो नाम कोधादिकिलेसपरिभावनाति तेसं 209 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० दीघनिकाये महावग्गटीका (६.३२०-३२०) विक्खम्भनेन विस्सगन्धविरहितो। विवेकवासकरुणाब्रह्मविहारादिधम्मेसु । एतेसु धम्मसूति पब्बज्जानं ३२०. अविद्वाति न विदितवा। आवरिताति कुसलानं उत्तरिमनुस्सधम्मानं उप्पत्तिनिवारणेन आवरिता। पूतिकाति ब्यापन्नचित्ततादिना पूतिभूता। किलेसवसेन दुग्गन्धं विस्सगन्धं वायति। निरयादिअपायेसु निब्बत्तनसीलताय आपायिकाति आह “अपायूपगा"ति। चोरादीहि उपद्दुतस्स पविसितुकामस्स पाकारकवाटपरिखादीहि विय नगरं कोधादीहि निवुतो पिहितो ब्रह्मलोको अस्साति निवुतब्रह्मलोको। पुच्छति “केनावटा''ति वदन्तो । ___ मुसावादोव मोसवज्जं यथा भिसक्कमेव भेसज्जं । कुज्झनं दुस्सनं । दिट्ठादीसु अदिट्ठादिवादितावसेन परेसं विसंवादनं परविसंवादनं। सदिसं पतिरूपं दस्सेत्वा पलोभनं सदिसं दस्सेत्वा वञ्चनं। मित्तानं विहिंसनं मेत्तिभेदो मित्तदुब्भनं। दळहमच्छरिता थद्धमच्छरियं। अत्तनि विज्जमानं निहीनतं, सदिसतं वा अतिक्कमित्वा मञनं। परेसं सम्पत्तिया असहनं खीयनं । अत्तसम्पत्तिया निगूहनवसेन, परेहि साधारणभावासहनवसेन च विविधा इच्छा रुचि एतस्साति विविच्छा। कदरियताय मुदुकं मच्छरियं । यत्थ कत्थचीति सकसन्तके, परसन्तके, हीनातिके चाति यत्थ कत्थचि आरम्मणे | लुब्भनं आरम्मणस्स गहणं अभिगिज्झनं । मज्जनं सेय्यादिवसेन मदनं सम्पग्गहो। मुम्हनं आरम्मणस्स अनवबोधो । एतेसूति एतेसु यथावुत्तेसु कोधादीसु सत्तसन्तानस्स किलिस्सनतो विबाधनतो, उपतापनतो च किलेससञ्जितेसु पापधम्मसु । युत्ता पयुत्ता सम्पयुत्ता अविरहिता। एत्थ चायं ब्रह्मा महासत्तेन आमगन्धे सुपुट्ठो अत्तनो यथाउपडिते पापधम्मे चुद्दसहि पदेहि विभजित्वा कथेसि, ते पन तादिसं पवत्तिविसेसं उपादाय वुत्तापि केचि पुन वुत्ता, आमगन्धसुत्ते (सु० नि० २४२) पन वुत्तापि केचि इध सब्बसो न वुत्ता, एवं सन्तेपि लक्खणहारनयेन, तदेकट्ठताय वा तेसं पेत्थ साहो दट्ठब्बो। तेनाह "इदं पन सुत्त"न्तिआदि । तत्थ आमगन्धसुत्तेन दीपेत्वाति इध सरूपतो अवुत्ते आमगन्धेपि वुत्तेहि एकलक्खणतादिना आमगन्धसुत्तेन पकासेत्वा कथेतब्बं तत्थ नेसं सरूपतो कथितत्ता । आमगन्धसुत्तम्पि इमिना दीपेतब्बं इध वुत्तानम्पि केसञ्चि आमगन्धानं तत्थ अवुत्तभावतो । यस्मा आमगन्धसुत्ते वुत्तापि आमगन्धा अत्थतो इध सङ्गहं समोसरणं गच्छन्ति, तस्मा इध वुत्ते परिहरणवसेन दस्सेन्तेन यस्मा चेत्थ केचि अभिधम्मनयेन अकिलेससभावापि 210 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३२१-३२३) रेणुराजआमन्तनावण्णना २११ सत्तसन्तानस्स विबाधनठून “किलेसा''ति वत्तब्बतं अरहन्ति, तस्मा “चुद्दससु किलेसेसू"ति वुत्तं । निम्मादं मिलापनं खेपनन्ति आह "निम्मादेतब्बा पहातब्बा"ति । बुद्धतन्तीति बुद्धभावीनं पवेणी, बुद्धभाविनोपि “बुद्धा"ति वुच्चन्ति यथा “अगमा राजगहं बुद्धो''ति । महापुरिसस्स दळ्हीकम्मं कत्वाति महापुरिसस्स "पब्बजिस्सामह''न्ति पवत्तचित्तुप्पादस्स दळ्हीकम्मं कत्वा। रेणुराजआमन्तनावण्णना ३२१. मम मनं हरित्वाति मम चित्तं अपनेत्वा तस्स वसेन अवत्तित्वा । एकीभावं उपगन्त्वा वुत्थस्साति कायविवेकपरिब्रूहनेन एकीभावं उपगन्त्वा तपोकम्मवसेन वुत्थस्स | कुसपत्तेहि परित्थतोति बरिहिसेहि वेदिया समन्ततो सन्थरितो । अकाचोति वणो वणसदिसखण्डिच्चविरहितो । तेनाह “अकक्कसो"ति । छखत्तियआमन्तनावण्णना ३२२. सिक्खेय्यामाति सिक्खापेय्याम, सिक्खापनञ्चेत्थ अस्थिभावापादनन्ति आह "उपलापेय्यामा"ति । ३२३. यस्स वीरियारम्भस्स, खन्तिबलस्स च अभावेन पब्बजितानं समणधम्मो परिपुण्णो, परिसुद्धो च न होति, तेसु वीरियारम्भखन्तिबलेसु ते ते नियोजेतुं "आरम्भव्हो"तिआदि वुत्तं । करुणाझानमग्गोति करुणाझानसङ्खातो मग्गो । उजुमग्गोति ब्रह्मलोकगमने उजुभूतो मग्गो। अनुत्तरोति सेट्ठो ब्रह्मविहारसभावतो। तेनाह "उत्तममग्गो नामा"ति । सन्भि रक्खितो साधूहि यथा परिहानि न होति, एवं पटिपक्खदूरीकरणेन रक्खितो गोपितो । "सद्धम्मो सब्भि वक्खितो"ति केचि पठन्ति, तेसं सपरहितसाधनेन साधूहि बुद्धादीहि कथितो पवेदितोति अत्थो । 211 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दीघनिकाये महावग्गटीका (६.३२४-३३०) तङ्खणविद्धंसनधम्मन्ति यस्मिं खणे विरोधिधम्मसमायोगो, तस्मिंयेव खणे विनस्सनसभावं, यो वा सो गमनस्सादानं देवपुत्तानं हेलृपरियेन पटिमुखं धावन्तानं सिरसि, पादे च बद्धखुरधारासमागमनतोपि सीघतरताय अतिइत्तरो पवत्तिक्खणो, तेनेव विनस्सनसभावं । तस्स जीवितस्स । गतिन्ति निहूँ । मन्तायन्ति मन्तेय्यन्ति वुत्तं होतीति आह "मन्तेतब्ब"न्ति । करणत्थे वा भुम्मन्ति “मन्ताय"न्ति इदं भुम्मं करणत्थे दट्ठब्बं यथा "ञाताय''न्ति । सब्बपलिबोधेति सब्बेपि कुसलकिरियाय विबन्धे उपरोधे । ब्राह्मणमहासालादीनं आमन्तनावण्णना ३२४. अप्पेसक्खाति अप्पानुभावाति आह “पब्बजितकालतो पट्ठाया"तिआदि | चक्कवत्ति राजा विय सम्भावितो । महागोविन्दपब्बज्जावण्णना ३२८. समापत्तीनं आजाननं नाम अत्तपच्चक्खता, सच्छिकिरियाति आह "न सक्खिंसु निब्बत्तेतु"न्ति । ३२९. इमिनाति “सरामह''न्ति इमिना पदेन । “सरामह''न्ति हि वदन्तेन भगवतो महाब्रह्मना कथितं “तथेव त''न्ति भगवता पटिञातमेव जातन्ति । न वट्टे निबिन्दनत्थाय चतुसच्चकम्मट्ठानकथाय अभावतो। असति पन वट्टे निब्बिदाय विरागानं असम्भवो एवाति आह "न विरागाया"तिआदि । एकन्तमेव वट्टे निबिन्दनत्थाय अनेकाकारवोकारवट्टे आदीनवविभावनतो। __ "निब्बिदाया"ति इमिना पदेन विपस्सना वुत्ता। एस नयो सेसेसुपि । ववत्थानकथाति विपस्सनामग्गनिब्बानानं तंतंपदेहि ववत्थपेत्वा कथा । अयमेत्थ निप्परियायकथाति आह "परियायेन पना"तिआदि । ३३०. परिपूरेतुन्ति भावनापारिपूरिवसेन परिपुण्णे कातुं, निब्बत्तेतुन्ति अत्थो । 212 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६.३३०-३३०) महागोविन्दपब्बज्जावण्णना २१३ ब्रह्मचरियचिण्णकुलपुत्तानन्ति चिण्णमग्गब्रह्मचरियानं अरहत्तनिकूटेन देसनं निट्ठपेसि। कुलपुत्तानन्ति उक्कट्ठनिद्देसेन अभिनन्दनं नाम सम्पटिच्छनं “अभिनन्दन्ति आगत"न्तिआदीसु विय, तञ्चेत्थ अत्थतो चित्तस्स अत्तमनताति आह "चित्तेन सम्पटिच्छन्तो अभिनन्दित्वा"ति । “साधु साधू''ति वाचाय सम्पहंसना अनुमोदनाति आह "वाचाय सम्पहंसमानो अनुमोदित्वा"ति । महागोविन्दसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 213 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महासमयसुत्तवण्णना निदानवण्णना ३३१. उदानन्ति रञा ओक्काकेन जातिसम्भेदपरिहारनिमित्तं पवत्तितं उदानं पटिच्च। एकोपि जनपदो रुळ्हिसदेन "सक्का"ति बुच्चतीति एत्थ यं वत्तब्बं, तं महानिदानवण्णनायं वुत्तनयेन वेदितब्बं । अरोपितेति केनचि अरोपिते । ___ आवरणेनाति सेतुना । बन्धापेत्वाति पंसुपलासपासाणमत्तिकाखण्डादीहि आळिं थिरं कारापेत्वा । "जाति घट्टेत्वा कलहं वड्डयिंसूति सङ्केपेन "कोलियकम्मकरा वदन्ती"तिआदि वुत्तं । वुत्तमत्थं पाकटतरं कातुं तीणि जातकानीति फन्दनजातकपथवीउन्द्रियजातकलटुकिकजातकानि द्वे जातकानीति रुक्खधम्म वट्टकजातकानि । तेनाति भगवता | कलहकारणभावोति कलहकारणस्स अस्थिभावो | अट्ठानेति अकारणे | वे कत्वाति विरोधं उप्पादेत्वा । “कुठारिहत्थो पुरिसो''तिआदिना फन्दनजातकं कथेसि। “दुद्दुभायति भद्दन्ते"तिआदिना पथवीउन्द्रियजातकं कथेसि। “वन्दामि तं कुञ्जरा'"तिआदिना लटुकिकजातकं कथेसि। 214 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३१-३३१) निदानवण्णना २१५ "साधू सम्बहुला आती; अपि रुक्खा अरञजा । वातो वहति एकट्टे, ब्रहन्तम्पि वनप्पति"न्ति ।। - आदिना रुक्खधम्मजातकं कथेसि। “सम्मोदमाना गच्छन्ति, जालं आदाय पक्खिनो । यदा ते विवदिस्सन्ति, तदा एहिन्ति मे वस"न्ति ।। आदिना वट्टकजातकं कथेसि। “अत्तदण्डा भयं जातं, जनं पस्सथ मेधगं । संवेगं कित्तयिस्सामि, यथा संविजितं मया'ति ।। (सु० नि० १.९४१) आदिना अत्तदण्डसुत्तं कथेसि। तंतंपलोभनकिरिया कायवाचाहि परक्कमन्तियो "उक्कण्ठन्तू"ति सासनं पेसेन्ति। कुणालदहेति कुणालदहतीरे पतिद्वाय। पुच्छितपुच्छितं कथेसि (जा० २.कुणालजातक) “अनुक्कमेन कुणालसकुणराजस्स पुच्छनप्पसङ्गेन कुणालजातकं कथेस्सामी''ति । अनभिरतिं विनोदेसि इत्थीनं दोसदस्सनमुखेन कामानं आदीनवोकारसंकिलेसविभावनेन । कोसज्जं विधमित्वा पुरिसथामपरिब्रूहनेन "उत्तमपुरिससदिसेहि नो भवितुं वदृती"ति उप्पन्नचित्ता। अविस्सट्ठकम्मन्ताति अरतिविनोदनतो पट्ठाय अविस्सट्ठसमणकम्मन्ता, अपरिचत्तकम्मट्ठानाति अत्थो । निसीदितुं वट्टतीति भगवा चिन्तेसीति योजना । पदुमिनियन्ति पदुमस्सरे । विकसिंसु गुणगणविबोधेन । “अयं इमस्स...पे०... न कथेसी"ति इमिना सब्बेपि ते भिक्खू तावदेव पटिपाटिया आगतत्ता अञमञस्स 215 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ दीघनिकाये महावग्गटीका (७.३३१-३३१) लज्जमाना अत्तना पटिविद्धविसेसं "खीणासवान"न्तिआदिना तत्थ कारणमाह । भगवतो नारोचेसुन्ति दस्सेति । ओसीदमत्तेति भगवतो सन्तिकं उपगतमत्ते। अरियमण्डलेति अरियसमूहे । पाचीनयुगन्धरपरिक्खेपतोति युगन्धरपब्बतस्स पाचीनपरिक्खेपतो, न बाहिरकेहि उच्चमानउदयपब्बततो। रामणेय्यकदस्सनत्यन्ति बुद्धप्पादपटिमण्डितत्ता विसेसतो रमणीयस्स लोकस्स रमणीयभावदस्सनत्थं । उल्लचित्वाति उट्ठहित्वा । एवरूपे खणे लये मुहुत्तेति यथावुत्ते चन्दमण्डलस्स उहितक्खणे उद्वितवेलायं उठ्ठितमुहुत्तेति उपरूपरि कालस्स वड्डितभावदस्सनत्थं वुत्तं । तथा तेसं भिक्खूनं जातिआदिवसेन भगवतो अनुरूपपरिवारितं दस्सेन्तो "तत्था"ति आदिमाह। समापनदेवताति आसन्नट्ठाने झानसमापत्ति समापन्नदेवता। चलिंसूति उट्टहिंसु । कोसमत्तं ठानं सद्दन्तरं। जम्बुदीपे किर आदितो तेसट्ठिमत्तानि नगरसहस्सानि उप्पन्नानि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तं सन्धायाह "तिक्खत्तुं तेसट्ठिया नगरसहस्सेसू"ति । ते पन सम्पिण्डेत्वा सतसहस्सतो परं असीतिसहस्सानि, नवसहस्सानि च होन्ति । नवनवुतिया दोणमुखसतसहस्सेसूति नवसतसहस्साधिकेसु नवुतिसतसहस्सेसु दोणमुखेसु । दोणमुखन्ति च महानगरस्स आयुप्पत्तिहानभूतं पादनगरं वुच्चति । छनवुतिया पट्टनकोटिसतसहस्सेसूति छकोटिअधिकनवुतिकोटिसतसहस्सपट्टनेसु | तम्बपण्णिदीपादीसु छपण्णासाय रतनाकरेसु। एवं पन नगरदोणिमुखपट्टनरतनाकरादिविभागेन कथनं तंतंअधिवत्थाय वसन्तीनं देवतानं बहुभावदस्सनत्थं । यदि दससहस्सचक्कवाळेसु देवता सन्निपतिता, अथ कस्मा पाळियं “दसहि च लोकधातूही"ति वुत्तन्ति आह “दससहस्स...पे०... अधिप्पेता"ति, तेन सहस्सिलोकधातु इध “एका लोकधातू''ति वुत्ताति वेदितब्बं । लोहपासादेति आदितो कते लोहपासादे । ब्रह्मलोकेति हेट्ठिमे ब्रह्मलोके । यदि ता देवता एवं निरन्तरा, पच्छा आगतानं ओकासो एव न भवेय्याति चोदनं सन्धायाह “यथा खो पना"तिआदि । सुद्धावासकायं उपपन्ना सुद्धावासकायिका, तासं पन यस्मा सुद्धावासभूमि निवासट्टानं, तस्मा वुत्तं "सुद्धावासवासीन"न्ति । आवासाति 216 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३२-३३२) निदानवण्णना २१७ आवासनट्ठानभूता, देवता पन ओरम्भागियानं, इतरेसञ्च संयोजनानं समुच्छिन्दनेन सुद्धो आवासो एतेसन्ति सुद्धावासा । ३३२. पुरथिमचक्कवाळमुखवट्टियं ओतरि अञत्थ ओकासं अलभमानो। एवं सेसापि। बुद्धानं अभिमुखमग्गो बुद्धवीथि। याव चक्कवाळा ओत्थरितुं ओवरितुं न सक्का। पहटबुद्धवीथियावाति बुद्धानं सन्तिकं उपसङ्कमन्तेहि तेहि देवब्रह्मेहि वळजितवीथियाव | समिति सङ्गति सन्निपातो समयो, महन्तो समयो महासमयोति आह "महासमूहो"ति । पवद्धं वनं पवनन्ति आह "वनसण्डो"ति । देवघटाति देवसमूहा । समादहंसूति समादहितं लोकुत्तरसमाधिना सुट्ठ अप्पितं अकंसु, यथासमाहितं पन समाधिना योजितं नाम होतीति वुत्तं “समाधिना योजेसु"न्ति । सब्बेसं गोमुत्तववादीनं दूरसमूहनितत्ता सब्बे...पे०... अकरिसु। नयति अस्से एतेहीति नेत्तानि, योत्तानि । अवीथिपटिपन्नानं अस्सानं वीथिपटिपादनं रस्मिग्गहणेन पहोतीति “सब्बयोत्तानि गहेत्वा अचोदेन्तो''ति वत्वा तं पन अचोदनं अवारणं एवाति आह “अचोदेन्तो अवारेन्तो"ति । यथा खीलं भित्तियं वा भूमियं वा आकोटितं दुन्नीहरणं, यथा च पलिघं नगरप्पवेसनिवारणं, यथा च इन्दखीलं गम्भीरनेमि सुनिखातं दुन्नीहरणं, एवं रागादयो सत्तसन्तानतो दुन्नीहरणा, निब्बाननगरप्पवेसनिवारणा चाति ते “खीलं, पलिघं, इन्दखील"न्ति च वुत्ता। तण्हाएजाय अभावेन अनेजा परमसन्तुट्ठभावेन चातुद्दिसत्ता अप्पटिहतचारिकं चरन्ति। गतासेति गता एव, न पन गमिस्सन्ति परिनिद्वितसरणगमनत्ताति । लोकुत्तरसरणगमनं अधिप्पेतन्ति आह "निब्बेमतिकसरणगमनेन गता"ति । ते हि नियमेन अपायभूमिं न गमिस्सन्ति, देवकायञ्च परिपूरेस्सन्ति। ये पन लोकियेन सरणगमनेन बुद्धं सरणं गतासे, न ते गमिस्सन्ति अपायभूमि, सति च पच्चयन्तरसमवाये पहाय मानुसं देहं, देवकार्य परिपूरेस्सन्तीति अयमेत्थ अत्थो । 217 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ दीघनिकाये महावग्गटीका देवतासन्निपातवण्णना ३३३. एतेसन्ति देवतासन्निपातानं । इदानीति इमस्मिं काले । बुद्धानन्ति असं बुद्धानं अभावा । चित्तकल्लता चित्तमद्दवं । किं पन भगवताव महन्ते देवतासमागमे तेसं नामगोत्तं कथेतुं सक्काति ? आम सक्काति दस्सेतुं “बुद्धा नाम महन्ता" तिआदि वृत्तं । तत्थ दिट्ठन्ति रूपायतनमाह, सुतन्ति सद्दायतनं, मुतन्ति सम्पत्तग्गाहिइन्द्रियविसयं गन्धरसफोट्टब्बायतनं, विज्ञातन्ति वृत्तावसेसं सब्बं जेय्यं, पत्तन्ति परियेसित्वा, अपरियेसित्वा वा सम्पत्तं परियेसितन्ति पत्तं, अप्पत्तं वा परियिट्टं । अनुविचरितं मनसाति केवलं मनसा आलोचितं । कत्थचि नीलादिवसेन विभत्तरूपारम्मणेति अभिधम्मे (ध० स० ६१५ ) " नीलं पीतक "न्तिआदिना विभत्ते यत्थ कत्थचि रूपारम्मणे किञ्चि रूपारम्मणं वा न अत्थीति योजना । भेरिसद्दादिवसेनाति एत्थापि एसेव नयो । यन्ति यं आरम्मणं । एतेसन्ति बुद्धानं । इदानि यथावुत्तमत्थं पाळिया समत्थेतुं " यथाहा' "तिआदि वृत्तं । तदा जाननकिरियाय अपरियोसितभावदस्सनत्थं " जानामी "ति वत्वा यस्मा यं किञ्चि नेय्यं नाम, सब्बं तं भगवता अञ्ञातं नाम नत्थि, तस्मा वुत्तं " तमहं अब्भञ्ञासि "न्ति । न ओलोकेन्ति पयोजनाभावतो । विपरीता "न कम्मावरणेन समन्नागता "तिआदिना नयेन वृत्ता । " यस्स मङ्गला समूहता " ति ( सु० नि० ३६२) आरभित्वा "रागं विनयेथ मानुसेसु दिब्बेसु कामेसु चा 'तिआदिना (सु० नि० ३६३) च रागनिग्गहकथाबाहुल्लतो सम्मापरिब्बाजनीयसुत्तं रागचरितानं सप्पायं, “पियमप्पियभूता कलह विवादा परिदेवसोका सहमच्छरा चा" तिआदिना (सु० नि० ८६९; महानि० ९८) कलहादयो यतो दोसतो समुहन्ति, सो च दोसो यतो पियभावतो, सो च पियभावो यतो छन्दतो समुट्ठहन्ति, इति फलतो, कारणपरम्परतो च दोसे आदीनवविभावनबाहुल्लतो कलहविवादसुत्तं (सु० नि० ८६९; महानि० ९८) दोसचरितानं सप्पायं - 44 'अप्पञ्हि एतं न अलं समाय, दुवे विवादस्स फलानि ब्रूमि | ( ७.३३३-३३३) 218 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३३-३३३) देवतासन्निपातवण्णना २१९ एतम्पि दिस्वा न विवादयेथ, खेमाभिपस्सं अविवादभूमि"न्ति ।। (सु० नि० ९०२; महानि० १३१) आदिना नयेन सम्मोहविधमनतो, पापरिब्रूहनतो च महाव्यूहसुत्तं मोहचरितानं सप्पायं - "परस्स चे धम्मं अनानुजानं, बालो, मगो होति निहीनपञो। सब्बेव बाला सुनिहीनपञ्जा, सब्बेविमे दिट्ठिपरिब्बसानाति ।। (सु० नि० ८८६; महानि० ११५) आदिना नयेन सन्दिविपरामासितापनयनमुखेन सविसयेसु दिद्विग्गहणेसु विसटवितक्कविच्छिन्दनवसेन पवत्तत्ता चूळव्यूहसुत्तं वितक्कचरितानं सप्पायं - "मूलं पपञ्चसङ्खाय (इति भगवा), ___मन्ता अस्मीति सब्बं उपरुन्धे । या काचि तण्हा अज्झत्तं, ___ तासं विनया सदा सतो सिक्खे'ति ।। (सु० नि० ९२२; महानि० १५१) पपञ्चसङ्काय मूलं अविज्जादिकिलेसजातं अस्मीति पवत्तमानञ्चाति सब्बं मन्ता पञ्जाय उपरुन्धेय्य | या काचि अज्झत्तं रूपतण्हादिभेदा तण्हा उप्पज्जेय्य, तासं विनया वूपसमाय सदा सतो उपट्ठितस्सति हुत्वा सिक्खेय्याति एवमादि उपदेसस्स सद्धोव भाजनं । तस्स हि सो अत्थावहोति तुवट्टकसुत्तं सद्धाचरितानं सप्पायं "वीततण्हो पुरा भेदा (इति भगवा), पुब्बमन्तमनिस्सितो। 219 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० दीघनिकाये महावग्गटीका (७.३३३-३३३) वेमज्झे नुपसङ्ख्य्यो , तस्स नत्थि पुरक्खत''न्ति ।। (सु० नि० ८५५; महानि० यो सरीरभेदतो पुब्बेव पहीनतण्हो, ततो एव अतीतद्धसञ्जितं पुरिमकोट्ठासं तण्हानिस्सयेन अनिस्सितो, वेमज्झे पच्चुप्पन्नेपि अद्धनि “रत्तो''तिआदिना उपसङ्घातब्बो, तस्स अरहतो तण्हादिट्ठिपुरक्खारानं अभावा अनागते अद्धनि किञ्चि पुरक्खतं नत्थीति आदिना एवं गम्भीरकथाबाहुल्लतो पूराभेदसुत्तं (सु० नि० ८५५; महानि० ८४) बुद्धिचरितानं सप्पायन्ति कत्वा वुत्तं “अथ नेसं सप्पायं ...पे०... ववत्थपेत्वा"ति । मनसाकासीति एवं चरियाय वसेन मनसि कत्वा पुन तं सदिसं अत्तनो देसनानिक्खेपयोग्यतावसेन मनसि अकासि । अत्तज्झासयेन नु खो जानेय्याति परज्झासयादि अनपेक्खित्वा मय्हयेव अज्झासयेन आरद्ध देसनं जानेय्य नु खो। परज्झासयेनाति सन्निपतिताय परिसाय कस्सचि अज्झासयेन | अदुप्पत्तिकेनाति इध समुट्ठितअटुप्पत्तिया । पुच्छावसेनाति कस्सचि पुच्छन्तस्स पुच्छावसेन । आरद्धदेसनं जानेय्याति। "सचे पच्चेकबुद्धो भवेय्या"ति इदं इमेसं सुत्तानं देसनाय पुच्छा पच्चेकबुद्धानं भारिया, अविसया चाति दस्सनत्थं वुत्तं । तेनाह "सोपि न सक्कुणेय्या"ति । एत्थ च यस्मा न अनुमतिपुच्छा, कथेतुकम्यतापुच्छा वा युत्ता, अथ खो दिट्ठसंसन्दनपुच्छासदिसी वा विमतिच्छेदनपुच्छासदिसी वा पुच्छा युत्ता, ताव पुग्गलज्झासयवसेन पवत्तिता नाम होन्ति, न यथाधम्मवसेन, तत्थ यदि भगवा तथा सयमेव पुच्छित्वा सयमेव विस्सज्जेय्य, सुणन्तीनं देवतानं सम्मोहो भवेय्य "किं नामेतं भगवा पठमं एवमाह, पुनपि एवमाहा"ति, अन्धकारं पविठ्ठा विय होन्ति, तस्मा वुत्तं "एवं पेता देवता न सक्खिस्सन्ति पटिविज्झितु"न्ति । यथाधम्मदेसनायं पन कथेतुकम्यतावसेन पुच्छनेन सम्मोहो होतीति । सूरियो उग्गतोति आह देवसङ्घो आसन्नतरभावेन ओभासस्स विपुलउळारभावतो। एकिस्सा लोकधातुयाति सुत्ते (दी० नि० ३.१६१; म० नि० ३.१२९; अ० नि० १.१.२७७; विभं० ८०९; नेत्ति० ५७; मि० प० ५.१.१) आगतनयेन सब्बत्थेव पन अपुब्बं अचरिमं द्वे बुद्धा न होन्तेव। तेनेवाह - "अनन्तासु...पे०... अद्दसा'ति । गाथायं पुछामीति निम्मितबुद्धो भगवन्तं पुच्छितुं ओकासं कारापेसि। मुनिन्ति 220 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७.३३४-३३४) देवतासन्निपातवण्णना बुद्धमुनिं । पहूतपञ्ञन्ति महापञ्ञ । तिण्णन्ति चतुरोघतिण्णं । पारङ्गतन्ति निब्बानप्पत्तं, सब्बस्स वा भेय्यस्स पारं परियन्तं गतं । परिनिब्बुतं सउपादिसेसनिब्बानवसेन । ठितत्तन्ति अवट्ठितचित्तं लोकधम्मेहि अकम्पनेय्यताय । निक्खम्म घरा पनुज्ज कामेति वत्थुकामे पनूदित्वा घरावासा निक्खम्म । कथं भिक्खु सम्मा सो लोके परिब्बजेय्याति सो भिक्खु कथं सम्मा परिब्बजेय्य गच्छेय्य विहरेय्य, अनुपलित्तो हुत्वा लोकं अतिक्कमेय्यति अत्थो । ३३४. सिलोकं अनुकस्सामीति एत्थ सिलोको नाम पादसमुदयो, इसीहि वुच्चमाना गाथातिपि वुच्चति । पादोव नियतवण्णानुपुब्बिकानं पदानं समूहो, तं सिलोकं अनुकस्सामि पवत्तयिस्सामीति अत्थोति आह " अक्खर... पे०... पवत्तयिस्सामी 'ति । यत्थाति अधिकरणे भुम्मं । आमेडितलोपेनायं निद्देसोति आह "येसु येसु ठानेसू 'ति । भुम्माति भूमिपटिबद्धनिवासा । तं तं निस्सिता तं तं ठानं निस्सितवन्तो निस्साय वसमाना, तेहि सद्धिं सिलोकं अनुकस्सामीति अधिप्पायो । “ये सिता गिरिगब्भर "न्ति इमिना तेसं विवेकवासं दस्सेति, “पहितत्ता समाहिता" ति इमिना भावनाभियोगं । २२१ बहुजना पञ्चसतसङ्ख्यत्ता । पटिपक्खाभिभवनतो, तेजुस्सदताय च सीहा विय पविवित्तताय निलीना । एकत्तन्ति एकीभावं । ओदातचित्ता हुत्वा सुद्धाति अरहत्तमग्गाधिगमेन परियोदातचित्ता हुत्वा सुद्धा, न केवलं सरीरसुद्धियाव । विष्पसन्नाति अरियमग्गप्पसादेन विसेसतो पसन्ना । चित्तस्स आविलभावकरानं किलेसानं अभावेन अनाविला । भिक्खू जानित्वति भिन्नकिलेसे भिक्खू “इमे दिब्बचक्खुना एते देवकाये पसन्तीति जानित्वा । सवनन्ते जातत्ताति धम्मस्सवनपरियोसाने अरियजातिया जातत्ता । इदं सब्बन्ति इदं "भिय्यो पञ्चसते "ति आदिकं सब्बं । तदत्थाय वीरियं करिंसूति दिब्बचक्खुआणाभिनीहारवसेन वीरियं उस्साहं अकंसु । तेनाह " न तं तेही 'तिआदि । सत्तरिन्ति त-कारस्स रकारादेसं कत्वा वुत्तं, सत्ततिन्ति अत्थो । “सहस्स'"न्ति पन अनुवत्तति, सत्ततियोगेन बहुवचनं । तेनाह “ एके सहस्सं । एके सत्ततिसहस्सानी 'ति । अनन्तन्ति अन्तरहितं, तं पन अतिविय महन्तं नाम होतीति आह " विपुल "न्ति । 221 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ दीघनिकाये महावग्गटीका अवेक्खित्वाति ञणचक्खुना विसुं विसुं अवेक्खित्वा "ववत्थित्वाना 'तिपि पठन्ति, सो वत्थो । तं अवेक्खनं निच्छयकरणं होतीति आह "ववत्थपेत्वा "ति । पुब्बे वुत्तगाथासु ततियगाथाय पच्छिमद्धं, चतुत्थगाथाय पुरिमद्धञ्च सन्धायाह “ पुब्बे वुत्तगाथमेवाति । विजाननम्पि दस्सनं एवाति आह “पस्सथ ओलोकेथा "ति । वाचायतपवत्तितभावतो "अनुपटिपाटियाव कित्तयिस्सामी 'ति वदति । ( ७.३३५-३३६) ३३५. सत्त सहस्सानि सङ्घायाति सत्त सहस्सा । यक्खायेवाति यक्खजातिका एव । आनुभावसम्पन्नाति महेसक्खा । इद्धिमन्तोति वा महानुभावा । जुतिमन्तोति महप्पभा । वण्णवन्तोति अतिक्कन्तवण्णा । यसस्सिनोति महापरिवारा चेव पत्थटकित्तिसद्दा च । समिति-सद्दो समीपत्थोति अधिप्पायेनाह “ भिक्खूनं सन्तिक "न्ति । हेमवतपब्बतेति हिमवतो समीपे ठितपब्बते । एते सब्बेपीति एते सत्तसहस्सा कापिलवत्थवा, छसहस्सा हेमवता, तिसहस्सा सातागिति यथावुत्ता सब्बेपि सोळससहस्सा । राजगहनगरेति राजगहनगरस्स समीपे । तन्ति कुम्भीरं । ३३६. कामं पाचीनदिसं पसासति, तथापि चतूसुपि दिसासु सपरिवारदीपेसु चतूसुपि महादीपेसु गन्धब्बानं जेट्ठको, कथं ? सब्बे ते तस्स वसे वत्तन्ति । कुम्भण्डानं अधिपतीति आदीसुपि एसेव नयो । तस्सापि विरुळहस्स । तादिसायेवाति धतरट्ठस्स पुत्तसदिसा एव पुथुत्थतो, नामतो, बलतो, इद्धिआदिविसेसतो च । सब्बसङ्गाहिकवसेनाति दससहस्सिलोकधातुया पच्चेकं चत्तारो चत्तारो महाराजानोति तेसं सब्बेसं सङ्गण्हनवसेन । तेनाह " अयञ्चेत्था "तिआदि । चतुरो दिसाति चतूसु दिसासु । चतुरो दिसा जलमाना समुज्जलन्ता ओभासेन्ता । 222 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.३३७-३३९) देवतासन्निपातवण्णना २२३ यदि एवं महतिया परिसाय आगतानं कथं कापिलवत्थवे वने ठिताति आह "ते पना"तिआदि । ३३७. तेसं महाराजानं दासाति योजना । मायाय युत्ता, तस्मा मायाविनो। वञ्चनं एतेसु अत्थि, वञ्चने वा नियुत्ताति वञ्चनिका। केराटियसाठेय्येनाति निहीनसठेन कम्मेन । माया एतेसं अत्थीति माया, ते च परेसं वञ्चनत्थं येन मायाकरणेन "माया"ति वुत्ता, तं दस्सेन्तो "मायाकारका"ति आह।। एत्तका दासाति एत्तका कुटेण्डुआदिका निघण्डुपरियोसाना अट्ठमहाराजानं दासा । देवराजानोति देवा हुत्वा तंतंदेवकायस्स राजानो। चित्तो च सेनो च चित्तसेनो चाति तयो एते देवपुत्ता पाळियं एकसेसनयेन वुत्ताति आह "चित्तो चा"तिआदि । भिक्खुसङ्घो समितो सन्निपतितो एत्थाति भिक्खुससमिति, इमं वनं । ३३८. नागसदहवासिकाति नागसदहनिवासिनो | तत्थेको किर नागराजा, चिरकालं वसतो तस्स परिसा महती परम्परागता अस्थि, तं सन्धायाह "तच्छकनागपरिसाया"ति । यमुनवासिनोति यमुनायं वसनकनागा । नागवोहारेनाति हत्थिनागवोहारेन । वुत्तप्पकारेति कम्बलस्सतरे ठपेत्वा इतरे वुत्तप्पकारनागा। लोभाभिभूताति आहारलोभेन अभिभूता। दिब्बानुभावताति दिब्बानुभावतो, दिब्बानुभावहेतु वा दिब्बा। "चित्रसुपण्णा"ति नामं विचित्रसुन्दरपत्तवन्तताय | उपव्हयन्ताति उपेच्च कथेन्ता। काकोलूकअहिनकुलादयो विय अञमचं जातिसमुदागतवेरापि समाना मित्ता विय...पे०... हद्वतुद्दचित्ता अञमञस्मिन्ति अधिप्पायो। बुद्धयेव ते सरणं गता “बुद्धानुभावेनेव मयं अञमञस्मिं मेत्तिं पटिलभिम्हा"ति। ३३९. भातरोति मेथुनभातरो। तेनाह "सुजाय असुरकज्ञाय कारणा"ति । 223 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ दीघनिकाये महावग्गटीका तेसूति असुरेसु । कालकञ्चाति एवं नामा | महाभिस्माति भिसनकमहासरीरा । अभब्बाति सम्मत्तनियामं ओक्कमितुं न भब्बा अच्छन्दिकत्ता तादिसस्स छन्दस्सेव अभावतो । बलिनो महाअसुरस्स अब्भतीतत्ता तस्स पुत्ते एव कित्तेन्तो भगवा बलिपुत्तान "न्ति आदिमाह । सो किर सुखमं अत्तभावं मापेत्वा उपगच्छि । ( ७.३४०-३४०) ३४० कम्मं कत्वाति परिकम्मं कत्वा । निब्बत्ताति उपचारज्झानेन निब्बत्ता । अप्पनाझानेन पन निब्बत्ता ब्रह्मानो होन्ति, ते परतो वक्खति "सुब्रह्मा' 'तिआदिना (दी० नि० २.३४१), अयञ्च कामावचरदेवता वुच्चति । तेनेवाह - "मेत्ताकरुणाकायिकाति मेत्ताझाने च करुणाझाने च परिकम्मं कत्वा निब्बत्तदेवा" ति । मेत्ताझाने करुणाझानेति मेत्ताज्ञाननिमित्तं करुणाझाननिमित्तं, तदत्थन्ति अत्थो । ते आपोदेवादयो यथासकं वग्गवसेन ठितत्ता दसधा ठिता । याव करुणाकायिका दस देवकाया । नानत्तवण्णाति नानासभाववण्णवन्तो । " सतञ्च वेण्डुदेवताति वेण्डु नाम देवता, एवं सहलि देवता । असमदेवता, यमकदेवताति “द्वे अयनियो"ति वदन्ति तप्पमुखा द्वे देवनिकायाति । चन्दस्सूपनिसा देवा चन्दस उपनिस्सयतो वत्तमाना तस्स पुरतो च पच्छतो च पस्सतो च धावनकदेवा । तेनाह “चन्दनिस्सितका देवा”ति । सूरियस्सूपनिसा, नक्खत्तनिस्सिताति एत्थापि एसेव नयो । केवलं वातवायनहेतवो देवता वातवलाहका । तथा केवलं अब्भपटलसञ्चरणहेतवो अब्भवलाहका । उण्हप्पवत्तिहेतवो उण्हवलाहका । वस्सवलाहका पन पज्जुन्नसदिसाति । ते इध न वुत्ता । वसुदेवता नाम एको देवनिकायो, तेसं पुब्बङ्गमत्ता वासवो, सक्को । दसेति एते वेण्डुदेवतादयो वासवपरियोसाना दस देवकाया । इमानीति “जलमग्गी " ति च " सिखारिवा' 'ति च इमानि तेसं नामानि । केचि पन म-कारो पदसन्धिकरो " जला" ति च "अग्गी "ति च " सिखारिवा" ति च इमानि तेसं नामानीति वदन्ति। एतेति तेसु एव " अरिट्टका, रोजा "ति च वुत्तदेवेसु एकच्चे, 224 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७.३४१ - ३४१ ) देवतासन्निपातवण्णना उमापुप्फनिभासिनो वण्णतो उमापुप्फसदिसाति एवमत्थो गहेतब्बो, अञ्ञथा एकादस देवकाया सियुं । दसेतेति एते दस सहभूदेवादयो वासवनेसिपरियोसाना दस देवकाया । तेनेव निकायभेदवसेन दसधाव आगता । “समाना" तिआदि तेसं देवानं निकायसमुदायगतं नामं । एवं सेसानम्पि । दसेतेति एते समानादिका महापारगपरियोसाना दस देवकाया । तेनेव निकायभेदेन दसधा आगता । २२५ सुक्कादयो तयो देवकाया । पामोक्खदेवाति पमुखा पधानभूता देवा । दिसाति दिसासु । देवोति मेघो । दसेतेति एते सुक्कादयो पज्जुन्नपरियोसाना दस देवकाया, ते देवनिकायभेदेन दसधा आगता । दसेतेति एते खेमियादयो परनिम्मितपरियोसाना दस देवकाया, ते देवनिकायभेदेन दधाव आगता । तत्थ " खेमिया, कट्टकादयो च पञ्चापि सदेवकाया तावतिंसकायिका "ति वदन्ति । नामन्वयेनाति नामानुगमेन “आपोदेवता'' तिआदिनामसभागेन । तेनेवाह "नामभागेन नामकोट्ठासेना "ति । सब्बा देवताति दससहस्सिलोकधातूसु सब्बापि देवता । निद्दिसति तंतंनामसभागेन एकज्झं कत्वा । पवुत्थाति पवासं गता विय अपेताति आह “विगता "ति । पवुत्था वा पकारतो वुत्था वुसिता, तेन जाति वुसितब्बा अस्साति पवुट्टजाति । काळकभावा संकिलेसधम्मा, सब्बसो तदभावतो काळकभावातीतं दसबलं । लञ्चनाभावेन वा असितातिगो काळकभावातीताय सिरिया चन्दो, तादिसं चन्दं विय सिरिया विरोचमानं । ३४१. एको ब्रह्माति सगाथकवग्गे (सं० नि० १.१.९८) आगतो सुब्रह्मदेवपुत्तो । ब्रह्मलोके निब्बत्तित्वा हेट्टिमेसु पतिट्ठिता अरियब्रह्मानो, न सुद्धावासब्रह्मानो । तिस्समहाब्रह्मा पुथुज्जनो, यो अपरभागे मनुस्सेसु निब्बत्तित्वा मोग्गलिपुत्ततिस्सत्थेरो जातो । 225 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ दीघनिकाये महावग्गटीका (७.३४२-३४३) सहस्सं ब्रह्मलोकानन्ति ब्रह्मलोको एतेसन्ति ब्रह्मलोका, ब्रह्मानो, तेसं ब्रह्मलोकानं सहस्सं सत्तलोकपरियायो चायं लोकसहोति आह "महाब्रह्मानं सहस्सं आगत"न्ति | अनन्तरगाथायं “आगता'ति वुत्तपदमेव अथवसेन वदति । यथाति यस्मिं ब्रह्मसहस्से । अजे ब्रह्मेति तदने ब्रह्मानो । अभिभवित्वा तिट्ठति वण्णेन, यससा आयुना च । इस्सराति तेनेव वसपवत्तनेन सेसब्रह्मानं अधिपतिनो । ३४२. काळकधम्मसमन्नागतो काळकस्स पापिमस्स मारस्स बालभावं पस्सथ, यो अत्तनो अविसये निरत्थकं परक्कमितुं वायमति । वीतरागभावावहस्स धम्मस्सवनस्स अन्तरायकरणेन अवीतरागा रागेन बद्धा एव नाम होन्तीति वुत्तं "रागेन बद्धं होतू"ति | भयानकं सरञ्च कत्वाति भेरवं महन्तं सदं समुट्ठपेत्वा । इदानि तं सदं उपमाय दस्सेन्तो “यथा"ति आदिमाह । कञ्चीति तस्मिं समागमे कञ्चि देवतं, मानुसकं वा अत्तनो वसे वत्तेतुं असक्कोन्तो असयंवसे सयञ्च न अत्तनो वसे ठितो । तेनाह “असयंवसी"तिआदि । ३४३. "वीतरागेही"ति देसनासीसमेतं । सब्बायपि हि तत्थ समागतपरिसाय मारसेना अपक्कन्ताव । नेसं लोमम्पि इञ्जयुं तेसं लोममत्तम्पि न चालेसुं, कुतो अन्तरायकरणं । इति यत्तका तत्थ विसेसं अधिगच्छिंसु, तेसं सब्बेसम्पि अन्तरायाकरणवसेन अत्थो विभावेतब्बो, वीतरागग्गहणेन वा सरागवीतरागविभाविनो च तत्थ सङ्गहिताति वेदितब्बं । मारो इमं गार्थ अभासि अच्छरियब्भुतचित्तजातो । कथहि नाम ताव घोरतरं महति विभिंसकं मयि करोन्तेपि सब्बे पिमे निब्बिकारा समाहिता एव | कस्मा ? विजिताविनो इमे उत्तमपुरिसाति । तेनाह "सब्बे"तिआदि । यादिसो अरियानं धम्मनिस्सितो पमोदो, न कदाचि तादिसो अनरियानं होतीति “सासने भूतेहि अरियेहि" इच्चेतं वुत्तं । वि-सद्देन विना केवलोपि सुत-सद्दो विख्यातत्थवचनो होति "सुतधम्मस्सा"तिआदीसु (महाव० ५; उदा० ११) वियाति आह “जने विस्सुता"ति । 226 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७.३४३ - ३४३) देवतासन्निपातवण्णना दूरेति दूरे पदेसे । दहरस्स अन्तरायं परिहरन्ती “न सक्का भन्ते सकलं कार्य दस्सेतु "न्ति अवोचाति । महासमयसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना । 227 २२७ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. सक्कपञ्हसुत्तवण्णना निदानवण्णना ३४४. अम्बसण्डानं अदूरभवत्ता एकोपि सो ब्राह्मणगामो "अम्बसण्डा" त्वेव बहुवचनवसेन वुच्चति, यथा “ वरणा नगर "न्ति । वेदि एव वेदिको, वेदिको एव वेदियो क- कारस्स य-कारं कत्वा, तस्मिं वेदियके । तेनाह “मणिवेदिकासदिसेना "तिआदि, इन्दनीलादिमणिमयवेदिकासदिसेनाति अत्थो । पुब्बेपीति लेणकरणतो पुब्बे, गुहारूपेन ठिता, द्वारे इन्दसालरुक्खवती च तस्मा “इन्दसालगुहा ' ति वुत्ता पुरिमवोहारेन । उस्सुक्कं वुच्चति अभिरुचि, तं पन बुद्धदस्सनकामतावसेन, तथा उस्साहनवसेन च पवत्तिया “धम्मिको उस्साहो "ति वृत्तं । सक्केन सदिसो... पे० नत्थीति । यथाह “अप्पमादेन मघवा, देवानं सेट्ठतं गतो 'ति (ध० प० ३० ) । परित्तकेनाति अपरापरं बहु पुञ्ञकम्मं अकत्वा अप्पमत्तकेनेव पुञ्ञकम्मेन । सक्कोपि कामं महापुञ्ञकतभीरुत्तानो होति, सातिसयाय पन दिब्बसम्पत्तिया वियोगहेतुकेन सोकेन दिगुणितेन मरणभयेन संतज्जितो जातो । तेनाह “सक्को पन मरणभयाभिभूतो अहोसी 'ति । दिब्बचक्खुना देवतानं दस्सनं नाम पटिविज्झनसदिसन्ति आह " पटिविज्झी " ति । पाटियेक्को वोहारोति आवेणिको पियसमुदाहारो । मरिसनियसम्पत्तिकाति मारिसा । तेसहि सम्पत्तियो महानुभावताय सहन्ति उपट्टहन्ति, अञ्ञ अयोनिसोमनसिकारताय चेव अप्पहुकाय च न सहन्तियेव सा पन नेसं मरिसनियसम्पत्तिकता दुक्खविरहितायति तं " निद्दुक्खातिपि वृत्तं होती 'ति । एकको वाति देवपरिसाय विना आगतत्ता वुत्तं, 228 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८. ३४५ - ३४५) निदानवण्णना मातलिआदयो पन तादिसा सहाया तदापि अहेसुंयेव । तथा हि वक्खति “अपि चायं आयस्मतो चक्कनेमिसद्देन तम्हा समाधिम्हा वुट्ठितो" ति ( दी० नि० अट्ठ० २.३५२) । ओकासं नाकासि सक्कस्स आणपरिपाकं आगमेन्तो, अञ्ञसञ्च बहूनं देवानं धम्माभिसमयं उपपरिक्खमानो । सोति सक्को । एवन्ति वचनसम्पटिच्छने निपातोति आह “ एवं होतू "तिआदि । भद्दतवाति पन सक्कं उद्दिस्स नेसं आसि वादो । २२९ ३४५. वल्लभो...पे०... धम्मं सुणातीति अयमत्थो गोविन्दसुत्तादीहि ( दी० नि० २.२९४) दीपेतब्बो । इमिना कतोकासेति इमिना पञ्चसिखेन कतोकासे भगवति । अनुचरियन्ति अनुचरणभावं, तं पनस्स अनुचरणं नाम सद्धिं गमनमेवाति आह " सहचरणं एकतो गमन" न्ति । सोवण्णमयन्ति सुवण्णमयं । पोक्खरन्ति वीणाय दोणिमाह । दण्डोति वीणदण्डो । वेठकाति तन्तीनं बन्धनाय चेव उप्पीळनाय च धमेतब्बा वेठका । पत्तकन्ति पोक्खरं । समपञासमुच्छना मुच्छेत्वाति यथा समपञ्ञसमुच्छना कमतो तत्थ संमुच्छनं कातुं सक्का, एवं तं सज्जेत्वाति अत्थो । “समपञ्ञसमुच्छना संमुच्छेत्वा" ति च इदं देवलोके नियतं वीणावादनविधिं सन्धाय वुत्तं । मनुस्सलोके पन एकवीसति मुच्छना । तेनेवाह वीणोपमसुत्तवण्णनायं - " सत्त सरा तयो गामा, मुच्छना एकवीसति । ताना चेकूनपञ्ञस, इच्चेते सरमण्डला "ति । । (अ० नि० अट्ठ० ३.५५; सारत्थ० टी० ३.२४३) तत्थ छज्जो, उसभो, गन्धारो, मज्झिमो, पञ्चमो, धेवतो, निसादोति एते सत्त सरा । छज्जगामो, मज्झिमगामो, साधारणगामोति तयो गामा, सरसमूहाति अत्थो । मनुस्सलोके वादनविधिना एकेकस्सेव च सरस्स वसेन तयो तयो मुच्छना कत्वा एकवीसति मुच्छना । एकेकस्सेव च सरस्स सत्त सत्त तानभेदा, यतो सरस्स मन्दतरववत्थानं होति, ते एकूनपञस तानविसेसाति, तिस्सो दुवे चतस्सो, चतस्सो तिस्सो दुवे चतस्सोति द्वावीसति 229 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३४६-३४८) सुतिभेदा इच्छिता, अयं पन एकेकस्स सरस्स वसेन सत्त सत्त मुच्छना, अन्तरसरस्स च एकाति समपआसाय मुच्छनानं योग्यभावेन वीणं वज्जेसि। तेन वुत्तं “समपञास मुच्छना संमुच्छेत्वा"ति | सेसदेवे जानापेन्तो सक्कस्स गमनकालन्ति योजना।। ३४६. अतिरिवाति र कारो पदसन्धिकरो, अतीव अतिवियाति वुत्तं होति । पकति...पे०... अगमासि मरणभयसंतज्जितत्ता तरमानरूपो । तेनेवाह "ननु चा"तिआदि । ३४७. बुद्धा नाम महाकारुणिका, सदेवकस्स लोकस्स हितसुखत्थाय एव उप्पन्ना, ते कथं अत्थिकेहि दुरुपसङ्कमाति आह “अहं सरागो"तिआदि | तदन्तरं पटिसल्लीनाति येन अन्तरेन येन खणेन उपसङ्कमेय्य, तदन्तरं पटिसल्लीना झानं समापन्ना। तदन्तर-सद्दो वा "एतरही"ति इमिना समानत्थोति आह "सम्पति पटिसल्लीना वा"ति | पञ्चसिखगीतगाथावण्णना ३४८. सावेसीति यथाधिप्पेतमुच्छनं पट्टपेत्वा वीणं वादेन्तो तंतंठानुप्पत्तिया पाकटीभूतमन्दताववत्थं दस्सेन्तो सुमधुरकोमलमधुपानमत्तमधुकारविरुतापहासिनिलक्खणो पसन्नभानी समरवं तन्तिस्सरं सावेसि । "सक्यपुत्तोव झानेन, एकोदि निपको सतो। अमतं मुनि जिगीसानो... ।। यथापि मुनि नन्देय्य, पत्वा सम्बोधिं उत्तम"न्ति ।। (दी० नि० २.३४८) च एवं बुद्धूपसज्हिता। बुद्धपसहिता पन बुद्धानं धम्मसरीरं आरब्भ निस्सयं कत्वा पवत्तिताति आह “धम्मो अरहतां इवा'"ति | धम्मूपसञ्हिता, अरहत्तूपसहिता च वेदितब्बा। सूरियसमानसरीराति सूरियसमानप्पभासरीरा । तेनाह "तस्सा किरा"तिआदि । यस्मा तिम्बरुनो गन्धब्बदेवराजस्स सूरियवच्छ सा अङ्के जाता, तस्मा आह "यं तिम्बरं 230 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३४८-३४८) पञ्चसिखगीतगाथावण्णना २३१ आह देवराजानं निस्साय त्वं जाता"ति। कल्याणङ्गताय "कल्याणी"ति वुत्ताति "सब्बङ्गसोभना"ति। रागावेसवसेन पुब्बे वुत्ता गाथा इदानिपि तमेव आरब्भ पुरतो ठितं विय आलपन्तो वदति। थनुदरन्ति पयोधरञ्च उदरञ्च अधिप्पेतन्ति आह "थनवेमज्झं उदरञ्चा"ति । किञ्चि कारणन्ति किञ्चि पीळं । पकति जहित्वा ठितं अभिरत्तभावेन । वामूरूति रुचिरऊरू। तेनाह "वामाकारेना"तिआदि । वामविकसितरुचिरसुन्दराभिरूपचारुसद्दा हि एकत्था दट्ठब्बा । न तिखिणन्ति न तिक्खं न लूखं न कक्खळं । मन्दन्ति मुदु सिनिद्धं । अनेकभावोति अनेकसभावो, सो पन बहुविधो नाम होतीति आह "अनेकविधो जातो"ति । अनेकभागोति अनेककोट्ठासो। तया सद्धिं विपच्चतन्ति तया सहितंयेव मे तं कम्मं विपच्चतु, तया सहेव तस्स कम्मस्स फलं अनुभवेय्यन्ति अधिप्पायो । तया सद्धिमेवाति यथा चक्कवत्तिसंवत्तनियकम्म तस्स निस्सन्दफलभूतेन इत्थिरतनेन सद्धिंयेव विपाकं देति, एवं तं मे कम्मं तया सद्धिंयेव मय्हं विपाकं देतु । ___एकोदीति एकोदिभावं गतो, समाहितोति अत्थो । जिगीसानोति जिगीसमानो होति । तथाभूतोव जिगीसति नामाति तथा पठमविकप्पो वुत्तो । दुतियविकप्पे पन “विचरती"ति किरियापदं आहरित्वा अत्थो वुत्तो । नन्देय्यन्ति समागमं पत्थेन्तो वदति अतिसस्सिरिकरूपसोभाय । 231 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३४९-३५१) ३४९. संसन्दतीति समेति, याय मुच्छनाय, येन च आकारेन तन्तिस्सरो पवत्तो, तं मुच्छनं अनतिवत्तेन्तो, तेनेव च आकारेन गीतस्सरोपि पवत्तोति अत्थो । येन अज्झासयेन भगवा पञ्चसिखस्स गन्धब्बे वण्णं कथेसि, यदत्थञ्च कथेसि, तं सब्बं विभावेतुं “कस्मा"तिआदिमाह । नत्थि बोधिमूले एव समुच्छिन्नत्ता । उपेक्खको भगवा अनुपलित्तभावतो। सुविमुत्तचित्तो भगवा छन्दरागतो, सब्बस्मा च किलेसा। यदि एवं कस्मा पञ्चसिखस्स गन्धब्बे वण्णं कथेसीति आह "सचे पना"तिआदि । गन्थिताति सन्दहिता, ता पन निरन्तरं कथियमाना रासिकता विय होन्तीति आह "पिण्डिता"ति । वोहारवचनन्ति भगवतो, भिक्खूनञ्च पुरतो वत्तळ उपचारवचनं । उपनच्चन्तियाति उपगन्त्वा नच्चन्तिया । सक्कूपसङ्कमनवण्णना ३५०. “कदा संयूळहा''तिआदीनि वदन्तो पटिसम्मोदति। विष्पकारम्पि दस्सेय्याति अड्डकताभिनयवसेन नच्चम्पि दस्सेय्य । ३५१. "अभिवदितो सक्को देवानमिन्दो''तिआदीनं "तेन खो पन समयेना"तिआदीनं (पारा० १६, २४) विय सङ्गीतिकारवचनभावे संसयो नत्थि, “एवञ्च पन तथागता"ति इध पन सिया संसयोति “धम्मसङ्गाहकत्थेरेहि ठपितवचन'न्ति वत्वा इतरस्सापि तथाभावं दस्सेतुं "सब्बमेत"न्तिआदि वुत्तं । वुडिवचनेन वुत्तोति “सुखी होतु पञ्चसिख सक्को देवानं इन्दो"ति आसीसवादं वुत्तो । “भगवतो पादे सिरसा वन्दती"ति वदन्तो अभिवादेति नाम "सुखी होतूति आसीसवादस्स वदापनतो। तथा पन आसीसवादं वदन्तो अभिवदति नाम सब्बकालं तथैव तिट्ठनतो । उरुं वेपुल्लं दस्सति दक्खतीति उरुन्दा विभत्तिअलोपेन | विवटा अङ्गणट्ठानं । यो पकतिया गुहायं अन्धकारो, सो अन्तरहितोति यो तस्सं गुहायं सत्थु समन्ततो असीतिहत्थतो अयं पाकतिको अन्धकारो, सो देवानं वत्थाभरणसरीरोभासेहि अन्तरहितो, आलोको सम्पज्जि । असीतिहत्थे पन बुद्धालोकेनेव अन्धकारो अन्तरहितो, न च समत्थो देवानं ओभासो बुद्धानं अभिभवितुं । 232 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५२-३५३) गोपकवत्थुवण्णना २३३ ३५२. चिरप्पटिकाहन्ति चिरप्पभुतिको अहं । अहुकरणं नाम नत्थि अविवादाधिकरणट्ठाने निब्बत्तत्ता । कीलादीनिपीति आदि-सद्देन धम्मस्सवनादिं सङ्गण्हाति । सलळमयगन्धकुटियन्ति सलळरुक्खेहि रञा पसेनदिना कारितगन्धकुटियं । तेनस्साति तेन फलद्वयाधिगमेन पहीनओळारिककामरागताय अस्सा भूजतिया देवलोके अभिरतियेव नत्थि। चक्कनेमिसदेन तम्हा समाधिम्हा बुट्टितोति एत्थ अधिप्पायं अजानन्ता “आरम्मणस्स अधिमत्तताय समापत्तितो वुट्ठानं जात"न्ति म य्युन्ति तं पटिक्खिपन्तो "समापनो सदं सुणातीति नो वत रे वत्तब्बे"ति आह । सति च आरम्मणसङ्घट्टनायं गहणेनपि भवितब्बन्ति अधिप्पायेन “सुणाती"ति वुत्तं, इतरो “पठमं झानं समापन्नस्स सद्दो कण्टको'ति वचनमत्तं निस्साय सब्बस्सापि झानस्स सद्दो कण्टकोति अधिप्पायेन पटिक्खेपं असहन्तो "ननु भगवा ...पे०... भणती"ति इममेव सुत्तपदं उद्धरि । तत्थ यथा दोसदस्सनपटिपक्खभावनावसेन पटिघसञानं सुप्पहीनत्ता महतापि सद्देन अरूपसमापत्तितो न वुट्टानं, एवं “उप्पादो भयं, अनुप्पादो खेम"न्तिआदिना सम्मदेव दोसदस्सनपटिपक्खभावनावसेन सब्बासम्पि लोकियसञानं अग्गमग्गेन समतिक्कन्तत्ता आरम्मणाधिगमताय न कदाचि फलसमापत्तितो वुट्ठानं होतीति । तथा पन न सुप्पहीनत्ता पटिघसञ्जानं सब्बरूपसमापत्तितो वुट्ठानं होति, पठमज्झानं पन अप्पकम्पि सदं न सहतीति तंसमापन्नस्स “सद्दो कण्टको''ति वुत्तं । यदि पन पटिघसञ्जानं विक्खम्भितत्ता महतापि सद्देन अरूपसमापत्तितो न वुट्टानं होति, पगेव मग्गफलसमापत्तितो। तेनाह "चक्कनेमिसदेना"तिआदि । चक्कनेमिस(नाति च नयिदं करणवचनं हेतुम्हि, करणे वा अथ खो सहयोगे । इममेव हि अत्थं दस्सेतुं "भगवा पना"तिआदि वुत्तं । गोपकवत्थुवण्णना ३५३. परिपूरकारिनीति परिपुण्णानि, परिसुद्धानि च कत्वा रक्खितवती । "इत्थित्त"न्तिआदि तत्थ विरज्जनाकारदस्सनं । धित्थिभावं इत्थिभावस्स धिक्कारो हेतूति अत्थो । अलन्ति पटिक्खेपवचनं, पयोजनं नत्थीति अत्थो । विराजेतीति जिगुच्छति । एता सम्पत्तियोति चक्कवत्तिसिरिआदिका एता यथावुत्तसम्पत्तियो। तस्मा पुब्बपरिचयेन उपद्वितनिकन्तिवसेन। उपट्ठानसालन्ति सुधम्मदेवसभं । 233 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३५४-३५४) सोति गोपकदेवपुत्तो। वदे॒त्वा वर्दृत्वाति तोमरादिं वत्तेन्तेन विय चोदनवचनं परिवठूत्वा परिवठूत्वा | गाळ्हं विज्झितब्बाति गाळ्हतरं घट्टेतब्बा । ___कुतो मुखाति कुतो पवत्तत्राणमुखा । तेनाह “अञविहितका"ति । कतपुछेति सम्मा कतपुझे धम्मे। दायोति लाभो । सो हि दीयति तेहि दातब्बत्ता दायो, येसं दीयति, तेहि लद्धत्ता लाभोति च वुच्चति । सङ्घारे...पे०... पतिट्ठहिंसु कताधिकारत्ता। तत्थ तावतिंसभवने ठितानंयेव निब्बत्तो यथा सक्कस्स इन्दसालगुहायं ठितस्सेव सक्कत्तभावो । निकन्तिं तस्मिं गन्धब्बकाये आलयं समुच्छिन्दितुं न सक्कोन्तो | ३५४. अत्तनाव वेदितब्बोति अत्तनाव अधिगन्त्वा वेदितब्बो, न परप्पच्चयिकेन । तुम्हेहि बुच्चमानानीति केवलं तुम्हेहि वुच्चमानानि । वियायामाति विस्सटुं वीरियं सन्ताने पवत्तेम । पकतियाति रूपावचरभावेन, "अनुस्सर''न्ति वा पाठो। कामरागो एव “छन्दो रागो छन्दरागो"तिआदि पवत्तिभेदेन संयोजनढेन "कामरागसंयोजनानी"ति, योगगन्थादिपवत्तिआकारभेदेन "कामबन्धनानी"ति च वुत्तो । पापिमयोगानीति एत्थ पन सेसयोगगन्थानम्पि वसेन अत्थो वेदितब्बो । दुविधानन्ति वत्थुकामकिलेसकामवसेन दुविधानं । “एत्थ किं, तत्थ कि"न्ति च पदद्वये किन्ति निपातमत्तं । चातुहिसभावेति तेसं बुद्धादीनं तिण्णं रतनानं चतुद्दिसयोग्यभावे अप्पटिहटभावे । बुद्धरतनहि महाकारुणिकताय, अनावरणाणताय, परमसन्तुकृताय च चातुद्दिसं, धम्मरतनं स्वाक्खातताय, सङ्घरतनं सुप्पटिपन्नताय । तेनाह "सब्बदिसासु असज्जमानो'ति । मज्झिमस्स पठमज्झानस्स अधिगतत्ता तावदेव कायं ब्रह्मपुरोहितं अधिगन्त्वा तावदेव 234 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८.३५५ - ३५५) मघमाणववत्थुवण्णना पुरिमं ज्ञानसतिं पटिलभित्वा तं झानं पादकं कत्वा विपस्सनं वड्ढेत्वा ओरम्भागियसंयोजन समुच्छिन्दनेन मग्गफलविसेसं अनागामिफलसङ्घातं विसेसं अज्झागंसु अधिगच्छिंसु । केचि पन " कामावचरत्तभावेन मग्गफलानि अधिगच्छिंसूति अधिप्पायेन पञ्चमस्स झानस्स अनधिगतत्ता सुद्धावासेसु न उप्पज्जिंसु, पठमज्झानलाभिताय पन ब्रह्मपुरोहितेसु निब्बत्तिंसू " ति वदन्ति । मघमाणववत्थुवण्णना उपनिस्सयसम्पन्नोति ३५५. विसुद्धोति विसुद्ध अज्झासयो, अधिप्पायो । गामकम्मकरणट्ठानन्ति गामिकानं उपट्ठानट्ठानं वदति । तावतकेनेवाति अत्तना सोधितट्ठानेव अञ्ञस्स आगन्त्वा अवट्ठानेनेव । सतिं पटिलभित्वाति “अहो मया कतकम्मं सफलं जात "न्ति योनिसो चित्तं उप्पादेत्वा । २३५ पासाणेति मग्गमज्झे उच्चतरभावेन ठितपासाणे । उच्चालेत्वाति उद्धरित्वा । एतस्स सग्गस्स गमनमग्गन्ति एतस्स चन्दादीनं उप्पत्तिट्ठानभूतस्स सग्गस्स गमनमग्गं पुञ्ञकम्मं । सुगतिवसेन लद्धब्बं, कहापणञ्चाति कहापणं, दण्डवसेन लद्धब्बं बलि दण्डबलि । गहपतिका किं करिस्सन्तीति गहपतिका नाम अटविका विय विसमनिस्सिता, ते न कञ्चि अनत्थं करिस्सन्ति, एवं तया जानमानेन कस्मा मव्हं न कथितन्ति यदिपि पुब्बे न कथितं, एतरहि पन भयेन कथितं मा मव्हं दोसं करेय्याथ, आरोचितकालतो पट्ठाय न मय्हं दोसोति वदति । 1 निबद्धन्ति एकन्तिकं । पिसुणेसीति पिसुणकम्ममकासि, तुम्हाकं अन्तरे मय्हं पेसुञ उपसंहरतीति अत्थो । पुन अहरणीयं ब्रह्मदेय्यं कत्वा । मय्हम्पीति मय्हम्पि अत्थाय मं उद्दिस्स पुञ्ञकम्मं करोथ । नीलुप्पलं नाम विकसमानं उदकतो उग्गन्त्वाव विकसति, एवं अहुत्वा अन्तोउदके पुम्फितं नीलुप्पलं विय। अम्हाकं पनिदं पुञ्ञकम्मं भवन्तरूपपत्तिया विना इमस्मिंयेव अत्तभावे विपाकं देतीति योजना । चिन्तामत्तकम्पीति दोमनस्सवसेन चिन्तामत्तकम्पि | 235 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८.३५५-३५५) पगेवाति कालस्सेव, अतिविय पातोति अत्थो । कण्णिकूपगन्ति कण्णिकयोग्यं । तच्छेत्वा मठ्ठे कत्वा कण्णिकाय कत्तब्बं सब्बं निट्टपेत्वा । तथा हि सा वत्थेन वेठेत्वा ठपिता । २३६ चयबन्धनं सालाय अधिट्ठानसज्जनं । कण्णिकमञ्चबन्धनं आरुहित्वा अवट्ठान अट्टकरणं । यस्स अत्थते फलके यस्स फलके अत्थतेति योजना । दीघनिकाये महावग्गटीका अविदूरेति सालाय, कोविकाररुक्खस्स च अविदूरे । सब्बजेट्टिकाति सब्बासं तस्स भरियानं जेट्ठिका सुजाता । तस्सेवाति सक्कस्सेव । सन्तिकेति समीपे सन्तिकावचरा हुत्वा निब्बत्ता । धजेन सद्धिं सहस्सयोजनिको पासादो । कक्कटकविज्झनसूलसदिसन्ति कक्कटके गण्हितुं तस्स विज्झनसूचिसदिसं । कण्णकारोहनकाले ओसरतीति पिलवन्तो गच्छति तसापि मच्छरूपेनाति मतमच्छरूपेन । बकसकुणिकाय पञ्च वस्ससतानि आयु अहोसि देवनेरयिकानं विय मनुस्सपेततिरच्छानानं आयुनो अपरिच्छिन्नत्ता । उक्कुट्टिमकासीति उच्चासद्दमकासि । पुब्बसन्निवासेनाति पुरिमजातीसु चिरसन्निवासेन । एवहि एकच्चानं दिट्ठमत्तेनपि सिनेहो उप्पज्जति । तेनाह भगवा - बिलपरियन्तस्स "पुब्बेव सन्निवासेन पच्चुप्पन्नहितेन वा । एवं तं जायते पेमं, उप्पलंव यथोदके 'ति । । ( जा० १.२.१७४) 236 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५७-३५७) पञ्हवेय्याकरणवण्णना २३७ अवसेसेसूति असुरे, सक्कं ठपेत्वा द्वीसु देवलोकेसु देवेव सन्धाय वदति । अत्थनिस्सितन्ति अत्तनो, परेसञ्च अत्थमेव हितमेव निस्सितं, तं पन हितं सुखस्स निदानन्ति आह "कारणनिस्सित"न्ति ।। पञ्हवेय्याकरणवण्णना ३५७. किंसंयोजनाति कीदिससंयोजना। सत्ते अनत्थे संयोजेन्ति बन्धन्तीति संयोजनानीति आह “किंबन्धना, केन बन्धनेन बद्धा"ति | पुथुकायाति बहू सत्तकायाति आह "बहू जना"ति । वेरं वुच्चति दोसोति आह “अवेराति अप्पटिया"ति । आवुधेन सरीरे दण्डो आवुधदण्डो, धनस्स दापनत्थेन दण्डो धनदण्डो, तदुभयाकरणेन ततो विनिमुत्तो अदण्डो, सम्पत्तिहरणतो, सह अनत्थुप्पत्तितो च सपत्तो, पटिसत्तूति आह "असपत्ताति अपच्चत्थिका"ति । ब्यापमं वुच्चति चित्तदुक्खं, तब्बिरहिता अब्यापज्झाति आह “विगतदोमनस्सा"ति । पुब्बे “अवेरा'"ति पदेन सम्बद्धाघातकाभावो वुत्तो। तेनाह "अप्पटिघा''ति । “अवेरिनो"ति पन इमिनापि कोपमत्तस्सपि अनुप्पादनं । तेनाह "कत्थचि कोपं न उप्पादेत्वा"ति। “विहरेमू'ति च पदं पुरिमपदेहिपि योजेतब्बं “अवेरा विहरेमू'तिआदिना। अयञ्च अवेरादिभावो संविभागेन पाकटो होतीति दस्सेतुं "अच्छराया"ति आदिं वत्वा "इति चे नेसं होती"ति वुत्तं । चित्तुप्पत्ति दळहतरापि हुत्वा पवत्ततीति दस्सेतुं “दानं दत्वा, पूजं कत्वा च पत्थयन्ती"ति वुत्तं । इति चेति चे-सद्दो अन्वयसंसग्गेन परिकप्पेतीति आह “एवञ्च नेस"न्ति । ___ याय कायचि परेसं सम्पत्तिया खीयनं उसूयनं असहनं लक्खणं एतिस्साति परसम्पत्तिखीयनलक्खणा, यदग्गेन अत्तसम्पत्तिया परेहि साधारणभावं असहनलक्खणं, तदग्गेनस्स “निगृहनलक्खण''न्तिपि वत्तब्बं । तथा हिस्स पोराणा “मा इदं अच्छरियं अञसं होतु, मय्हमेव होतूति मच्छरिय"न्ति निब्बचनं वदन्ति । अभिधम्मे “या परलाभसक्कारगरुकारमाननवन्दनपूजनासु इस्सा इस्सायना"तिआदिना (ध० स० ११२६) निक्खेपकण्डे, “या एतेसु परेसं लाभादीसु किं इमिना इमेस"न्तिआदिना तंसंवण्णनायञ्च वुत्तानेव, तस्मा तत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बानीति अधिप्पायो । यस्मा पन इस्सामच्छरियानि बह्वादीनवानि, तेसं विभावना लोकस्स बहुकारा, तस्मा 237 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३५८-३५८) अभिधम्मट्ठकथायं (ध० स० अट्ठ० ११२५) विभावितानम्पि तेसं दिठ्ठधम्मिकेपि सम्परायिके पिआदीनवे दस्सेन्तो “आवासमच्छरियेन पना"तिआदिमाह। एत्थाति एतेसु इस्सामच्छरियेसु, एतेसु वा आवासमच्छरियादीसु पञ्चसु मच्छरियेसु । सारं सीसेन उक्खिपित्वाव विचरति तत्थ लग्गचित्तताय, निहीनज्झासयताय च । ममाति मया, अयमेव वा पाठो। लोहितम्पि मुखतो उग्गच्छति चित्तविघातेन संतत्तहदयताय । कुच्छिविरेचनम्पि होति अतिजलग्गिनो। अञो विभवपटिवेधधम्मो अरियानंयेव होति, ते च तं न मच्छरायन्ति मच्छरियस्स सब्बसो पहीनत्ता। पटिवेधधम्मे मच्छरियस्स असम्भवो एवाति आह "परियत्तिधम्ममच्छरियेन चा"ति । वण्णमच्छरियेन दुब्बण्णो, धम्ममच्छरियेन एळमूगो दुप्पो होति । "अपिचा"तिआदि पञ्चन्नं मच्छरियानं वसेन कम्मसरिक्खकविपाकदस्सनं । आवासमच्छरियेन लोहगेहे पच्चति परेसं आवासपच्चयहितसुखनिसेधनतो। कुलमच्छरियेन अप्पलाभो होति परेहि कुलेसु लद्धब्बलाभनिसेधनतो, अप्पलाभोति च अलाभोति अत्थो । लाभमच्छरियेन गूथनिरये निब्बत्तति लाभहेतु परेहि लद्धब्बस्स अस्सादनिसेधनतो। सब्बथापि निरस्सादो हि गृथनिरयो। वण्णो नाम न होतीति सरीरवण्णो, गुणवण्णोति दुविधोपि वण्णो नाममत्तेनपि न होति, तत्थ तत्थ निब्बत्तमानो विरूपो एव होति । सम्पत्तिनिगूहनसभावेन मच्छरियेन विरूपिते सन्ताने येभुय्येन गुणा पतिठ्ठमेव न लभन्ति, ये च पतिगृहेय्यु, तेसम्पि वसेनस्स वण्णो न भवेय्य । ते हि तस्स लोके रत्तिं खित्ता सरा विय न पञ्जायन्ति । धम्ममच्छरियेन कुक्कुळनिरये। सोतापत्तिमग्गेन पहीयति अपायगमनीयभावतो। वेरादीहि न परिमुच्चन्तियेव तप्परिमुच्चनाय इच्छाय अप्पत्तब्बत्ता जातिआदिधम्मानं सत्तानं जातिआदीहि विय । तिण्णा मेत्थ कङ्घाति म-कारो पदसन्धिकरो । एतस्मिं पव्हेति एतस्मिं “किंसंयोजना नु खो''ति एवं ज्ञातुं इच्छिते अत्थे | तुम्हाकं वचनं सुत्वाति “इस्सामच्छरियसंयोजना"ति एवं पवत्तं तुम्हाकं विस्सज्जनवचनं सुत्वा । कडा तिण्णाति यथापुच्छिते अत्थे संसयो तरितो विगतो देसनानुस्सरणमत्तेन, न समुच्छेदवसेनाति आह "न मग्गवसेना"तिआदि । अयम्पि कथंकथा विगताति कवाय विगतत्ता एव तस्सा पवत्तिआकारविसेसभूता "इदं कथ इदं कथ"न्ति अयम्पि कथंकथा विगता अपगता। ३५८. निदानादीनि महानिदानसुत्तवण्णनायं (दी० नि० अट्ठ० २.९५) वुत्तत्थानेव । 238 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५८-३५८) पञ्हवेय्याकरणवण्णना २३९ पियानं अत्तनो परिग्गहभूतानं सत्तसङ्खारानं परेहि साधारणभावासहनवसेन, निगृहनवसेन च पवत्तनतो पियसत्तसङ्खारनिदानं मछरियं, अप्पियानं परिग्गहभूतानं सत्तानं, सङ्घारानञ्च असहनवसेन पवत्तिया अप्पियसत्तसङ्कारनिदाना इस्सा। यहि किञ्चि अप्पियसम्बन्धं भद्दकम्पि तं कोधनस्स अप्पियमेवाति । उभयन्ति मच्छरियं, इस्सा चाति उभयं । उभयनिदानन्ति पियनिदानञ्चेव अप्पियनिदानञ्च । पियाति इट्ठा । केळायिताति धनायिता । ममायिताति ममत्तं कत्वा परिग्गहिता । इस्सं करोतीति “किं इमस्स इमिना"ति तस्स पियसत्तलाभासहनवसेन उस्सूयति, तमेव पियसत्तं याचितो। अहो वतस्साति साधु वत अस्स | "इमस्स पुग्गलस्स एवरूपं पियवत्थु न भवेय्या"ति इस्सं करोति उसूयं उप्पादेति । ममायन्ताति केळायन्ता । अप्पियेति अप्पिये सत्ते तेसं सतापतो। अस्साति पुग्गलस्स, येन ते लद्धा। तेति सत्तसङ्घारा, सचेपि अमनापा होन्ति अप्पियेहि समुदागतत्ता । विपरीतवृत्तितायाति अयाथावगाहिताय । को अञ्जो एवरूपस्स लाभीति तेन अत्तानं सम्भावेन्तो इस्सं वा करोति । अञस्स तादिसं उप्पज्जमानम्पि “अहो वतस्स एवरूपं न भवेय्या"ति इस्सं वा करोति, अयञ्च नयो हेट्ठा वुत्तनयत्ता न गहितो। वत्थुकामानं परियेसनवसेन पवत्तो छन्दो परियेसनछन्दो। पटिलाभपच्चयो छन्दो पटिलाभछन्दो। परिभुञ्जनवसेन पवत्तो छन्दो परिभोगछन्दो। पटिलद्धानं सन्निधापनवसेन, सङ्गोपनवसेन च पवत्तो छन्दो सन्निधिछन्दो। दिट्ठधम्मिकमेव पयोजनं चिन्तेत्वा विस्सज्जनवसेन पवत्तो छन्दो विस्सज्जनछन्दो। तेनाह “कतमो''तिआदि । अयं पञ्चविधोपि अत्थतो तण्हायनमेवाति आह "तण्हामत्तमेवाति | एवं वुत्तो “लाभं पटिच्च विनिच्छयो"ति एवं महानिदानसुत्ते (दी० नि० २.१०३) वुत्तो विनिच्छयवितक्को वितक्को नाम, न यो कोचि वितक्को । इदानि यथावुत्तं विनिच्छयवितक्कं अत्थुद्धारनयेन नीहरित्वा दस्सेतुं "विनिच्छयो"तिआदि वुत्तं । अट्ठसतन्ति अट्ठाधिकं सतं, तञ्च खो तण्हाविचरितानं सतं, न यस्स कस्सचीति दस्सेतुं "तहाविचरित"न्ति वृत्तं । तण्हाविनिच्छयो नाम तण्हाय वसेन वक्खमाननयेन आरम्मणस्स विनिच्छिननतो। दिट्ठिदस्सनवसेन “इदमेव सच्चं, मोघं अञ"न्ति विनिच्छिननतो दिट्ठिविनिच्छयो नाम। इटुं पणीतं, अनिट्ठे अप्पणीतं, पियायितब्बं पियं, अप्पियायितब्बं अप्पियं, तेसं ववत्थानं तण्हावसेन न होति। तण्हावसेन हि एकच्चो किञ्चि वत्थु पणीतं मञति, एकच्चो हीनं, एकच्चो पियायति, एकच्चो नप्पियायति । तेनाह "तदेव 239 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३५९-३५९) ही"तिआदि | "दस्सामी"ति इदं विस्सज्जनछन्दे वुत्तनयेन चेव वद्दूपनिस्सयदानवसेन च वेदितब्बं । तम्पि हि तण्हाछन्दहेतुकन्ति । यत्थ सयं उप्पज्जन्ति, तं सन्तानं संसारे पपञ्चेन्ति वित्थारयन्तीति पपञ्चा। यस्स च उप्पन्ना, तं “रत्तो"ति वा “सत्तो"ति वा “मिच्छाभिनिविट्ठो"ति वा पपञ्चेन्ति ब्यञ्जन्तीति पपञ्चा। यस्मा तण्हादिट्ठियो अधिमत्ता हुत्वा पवत्तमाना तंसमङ्गीपुग्गलं पमत्ताकारं पापेन्ति, मानो पन जातिमदादि वसेन मत्ताकारम्पि, तस्मा "मत्तपमत्ताकारपापनटेना'"ति वुत्तं । सङ्घा वुच्चति कोट्ठासो भागसो सङ्घायति उपट्ठातीति । यस्मा पपञ्चसझा तंतंद्वारवसेन, आरम्मणवसेन च भागसो वितक्कस्स पच्चया होन्ति, न केवला, तस्मा पपञ्चसञ्जासङ्घानिदानो वितक्को वुत्तो, पपञ्चसञानं वा अनेकभेदभिन्नत्ता तंसमुदायो “पपञ्चसञ्जासङ्घाति वुत्तो। पपञ्चसञ्जासङ्खाग्गहणेन च अनवसेसो दुक्खसमुदयो वुत्तो तंतं निमित्तत्ता वट्टदुक्खस्साति।। यो निरोधो वूपसमोति निरोधसच्चमाह । तस्स सारुप्पन्ति तस्स पपञ्चसञ्जासङ्घाय निरोधस्स वूपसमस्स अधिगमुपायताय सारुप्पं अनुच्छविकं, एतेन विपस्सनं वदति । तत्थ यथावुत्तनिरोधे आरम्मणकरणवसेन गच्छति पवत्ततीति तत्थगामिनी, एतेन मग्गं । तेनाह "सह विपस्सनाय मग्गं पुच्छती"ति । वेदनाकम्मट्ठानवण्णना __ ३५९. पुच्छितमेव कथितं। यस्मा सक्केन देवानं इन्देन पपञ्चसञासङ्घानिरोधगामिनिपटिपदा पुच्छिताव, भगवा च तदधिगमुपायं अरूपकम्मट्ठानं तस्स अज्झासयवसेन वेदनामुखेन कथेन्तो तिस्सो वेदना आरभि, इति पुच्छितमेव कथेन्तेन पुच्छानुसन्धिवसेन सानुसन्धिमेव च कथितं । न हि बुद्धानं अननुसन्धिका कथा नाम अत्थि। इदानिस्स वेदनामुखेन अरूपकम्मट्ठानस्सेव कथने कारणं दस्सेतुं "देवतानही"तिआदि वुत्तं । करजकायस्स सुखुमतावचनेनेव अच्चन्तमुदुसुखुमालभावापि वुत्ता एवाति दट्टब्बं । कम्मजन्ति कम्मजते । तस्स बलवभावो उळारपुञकम्मनिब्बत्तत्ता, अतिविय गरुमधुरसिनिद्धसुद्धाहारजीरणतो च। एकाहारम्पीति एकाहारवारम्पि । "विलीयन्ती"ति एतेन करजकायस्स मन्दताय कम्मजतेजस्स बलवभावेन आहारवेलातिक्कमेन नेसं बलवती दुक्खवेदना उप्पज्जमाना सुपाकटा होतीति दस्सेति । 240 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३५९-३५९) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २४१ निदस्सनमत्तञ्चेतं, सुखवेदनापि पन नेसं उळारपणीतेसु आरम्मणेसु उपरूपरि अनिग्गहणवसेन पवत्तमाना सुपाकटा हुत्वा उपट्ठातियेव । उपेक्खापि तेसं कदाचि उप्पज्जमाना सन्तपणीतरूपा एव इट्ठमज्झत्ते एव आरम्मणे पवत्तनतो। तेनेवाह "तस्मा"तिआदि । रूपकम्मट्ठानन्ति रूपपरिग्गहं, रूपमुखेन विपस्सनाभिनिवेसन्ति अत्थो । अरूपकम्मट्ठानन्ति एत्थापि एसेव नयो । तत्थ रूपकम्मट्ठानेन समथाभिनिवेसोपि सङ्गय्हति, विपस्सनाभिनिवेसो पन इधाधिप्पेतोति दस्सेन्तो "रूपपरिग्गहो अरूपपरिग्गहोतिपि एतदेव वुच्चती"ति आह । चतुधातुववत्थानन्ति एत्थ येभुय्येन चतुधातुववत्थानं वित्थारेन्तो रूपकम्मट्ठानं कथेतीति अधिप्पायो। रूपकम्मट्टानं दस्सेत्वाव कथेति “एवं रूपकम्मट्ठानं वुच्चमानं सुटु विभूतं पाकटं हुत्वा उपट्ठाती''ति । “एतेन इधापि रूपकम्मट्ठानं एकदेसेन विभावितमेवा'ति वदन्ति । कामञ्चेत्थ वेदनावसेन अरूपकम्मट्ठानं आगतं, तदअधम्मवसेनपि अरूपकम्मट्ठानं लब्भतीति तं विभागेन दस्सेतुं "तिविधो ही"तिआदि वुत्तं । तत्थ अभिनिवेसोति अनुप्पवेसो, आरम्भोति अत्थो। आरम्भे एव हि अयं विभागो, सम्मसनं पन अनवसेसतोव धम्मे परिग्गहेत्वा पवत्ततीति | "परिग्गहिते रूपकम्मट्ठाने"ति इदं रूपमुखेन विपस्सनाभिनिवेसं सन्धाय वुत्तं, अरूपमुखेन पन विपस्सनाभिनिवेसो येभुय्येन समथयानिकस्स इच्छितब्बो, सो च पठमं झानङ्गानि परिग्गहेत्वा ततो परं सेसधम्मे परिग्गण्हाति । पठमाभिनिपातोति सब्बे चेतसिका चित्तायत्ता चित्तकिरियाभावेन वुच्चन्तीति फस्सो चित्तस्स पठमाभिनिपातो वुत्तो । तं आरम्मणन्ति यथापरिग्गहितं रूपकम्मट्ठानसञ्जितं आरम्मणं । उप्पन्नफस्सो पुग्गलो, चित्तचेतसिकरासि वा आरम्मणेन फुट्ठो फस्ससहजाताय वेदनाय तंसमकालमेव वेदेति, फस्सो पन ओभासस्स विय पदीपो वेदनादीनं पच्चयविसेसो होतीति पुरिमकालो विय वुच्चति, या तस्स आरम्मणाभिनिरोपनलक्खणता वुच्चति । फुसन्तोति आरम्मणस्स फुसनाकारेन । अयहि अरूपधम्मत्ता एकदेसेन अनल्लीयमानोपि रूपं विय चक्खु, सद्दो विय च सोतं, चित्तं, आरम्मणञ्च फुसन्तो विय, सङ्घद्देन्तो विय च पवत्ततीति । तथा हेस “सङ्घट्टनरसो''ति वुच्चति । आरम्मणं अनुभवन्तीति इस्सरवताय विसविताय सामिभावेन आरम्मणरसं संवेदेन्ती । फस्सादीनहि सम्पयुत्तधम्मानं आरम्मणे एकदेसेनेव पवत्ति फुसनादिमत्तभावतो, वेदनाय 241 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३५९-३५९) पन इट्ठाकारसम्भोगादिवसेन पवत्तनतो आरम्मणे निप्पदेसतो पवत्ति । फुसनादिभावेन हि आरम्मणग्गहणं एकदेसानुभवनं, वेदयितभावेन गहणं यथाकामं सब्बानुभवनं, एवंसभावानेव तानि गहणानीति न वेदनाय विय फस्सादीनम्पि यथा सककिच्चकरणेन सामिभावानुभवनं चोदेतब्बं । विजानन्तन्ति परिच्छिन्दनवसेन विसेसतो जानन्तं । विज्ञाणहि मिनितब्बवत्थु नाळिया मिनन्तो पुरिसो विय आरम्मणं परिच्छिज्ज विभावेन्तं पवत्तति, न सञा विय सञ्जाननमत्तं हुत्वा । तथा हि अनेन कदाचि लक्खणत्तयविभावनापि होति, इमेसं पन फस्सादीनं तस्स तस्स पाकटभावो पच्चयविसेससिद्धस्स पुब्बभागस्स वसेन वेदितब्बो । एवं तस्स तस्सेव पाकटभावेपि “सब्, भिक्खवे, अभिनेय्य"न्ति (सं० नि० २.४.४६; पटि० म० १.३), "सब्बञ्च खो, भिक्खवे, अभिजानन्ति (सं० नि० २.४.२७) च एवमादि वचनतो सब्बे सम्मसनुपगा धम्मा परिग्गहेतब्बाति दस्सेन्तो "तत्थ यस्सा"तिआदिमाह । तत्थ फस्सपञ्चमकेयेवाति अवधारणं तदन्तोगधत्ता तग्गहणेनेव गहितत्ता चतुन्नं अरूपक्खन्धानं । फस्सपञ्चमकग्गहणहि तस्स सब्बस्स सब्बचित्तुप्पादसाधारणभावतो । तत्थ च फस्सचेतनाग्गहणेन सब्बसङ्खारक्खन्धधम्मसङ्गहो चेतनप्पधानत्ता तेसं। तथा हि सुत्तन्तभाजनीये सङ्घारक्खन्धविभङ्गे “चक्खुसम्फस्सजा चेतना''तिआदिना (विभं० २१) चेतनाव विभत्ता, इतरे पन खन्धा सरूपेनेव गहिता । वत्थुनिस्सिताति एत्थ वत्थु-सद्दो करजकायविसयो, न छब्बत्थुविसयोति । कथमिदं विज्ञायतीति आह "यं सन्धाय वुत्त"न्ति । कत्थ पन वुत्तं ? सामञफलसुत्ते। सोति करजकायो । “पञ्चक्खन्धविनिमुत्तं नामरूपं नत्थी"ति इदं अधिकारवसेन वुत्तं | अञथा हि खन्धविनिमुत्तम्पि नामं अत्थेवाति । अविज्जादिहेतुकाति अविज्जातण्हुपादानादिहेतुका । “विपस्सनापटिपाटिया अनिच्चं दुक्खं अनत्ताति सम्मसन्तो विचरती"ति इमिना बलवविपस्सनं वत्वा पुन तस्स उस्सुक्कापनं, विसेसाधिगमञ्च दस्सेन्तो "सो"तिआदिमाह। इधाति इमस्मिं सक्कपहसुत्ते। वेदनावसेन चेत्थ अरूपकम्मट्ठानकथने कारणं हेट्ठा वुत्तनयमेव । यथावुत्तेसु च तीसु कम्मट्ठानाभिनिवेसेसु वेदनावसेन कम्मट्ठानाभिनिवेसो सुकरो वेदनानं विभूतभावतोति दस्सेतुं “फस्सवसेन ही"तिआदि वुत्तं । “न पाकटं होती"ति इदं सक्कपमुखानं तेसं देवानं यथा वेदना विभूता हुत्वा उपट्ठाति, न एवं 242 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८.३५९-३५९) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना इतरद्वयन्ति कत्वा वृत्तं । वेदनाय एव च नेसं विभूतभावो वेदनामुखेनेवेत्थ भगवता देसनाय आरद्धत्ता । “वेदनानं उप्पत्तिया पाकटताया "ति इदं सुखदुक्खवेदनानं वसेन वृत्तं । तासञ्हि पवत्ति ओळारिका, न इतराय । तदुभयग्गहणमुखेन वा गहेतब्बत्ता इतरायपि पवत्ति विञ्जूनं पाकटा एवाति सुखदुक्खवेदनानही "ति विसेसग्गहणं दट्ठब्बं । “यदा सुखं उप्पज्जती”तिआदि सुखवेदनाय पाकटभावविभावनं, तयिदं असमाहितभूमिवसेन वेदितब्बं । तत्थ " सकलं सरीरं खो भन्ते "न्तिआदिना कामं पवत्तिओळारिकताय अवूपसन्तसभावमेतं सुखं, सातलक्खणताय पन सम्पयुत्तधम्मे, निस्सयञ्च अनुग्गण्हन्तमेव पवत्ततीति दस्सेति । " यदा दुक्खं उप्पज्जती' तिआदीसु वृत्तविपरियायेन अत्थो वेदितब्बो । दुद्दीपनाति आणेन दीपेतुं असक्कुणेय्या, दुब्बिय्याति अत्थो । तेनाह " अन्धकारा अभिभूताति । अन्धकाराति अन्धकारगतसदिसी, जानितुकामे च अन्धकारिनी । पुब्बापरं समं सुकरे सुपलक्खितमग्गवसेन पासाणतले मिगगतमग्गो विय इट्ठानिट्ठारम्मणेसु सुखदुक्खानुभवनेहि मज्झत्तारम्मणेसु अनुमिनितब्बताय वुत्तं " सा सुखदुक्खानं...पे.... पाकटा होती "ति । तेनाह " यथा "तिआदि । नयतो गण्हन्तस्साति एत्थायं नयो - यस्मा इट्ठानिट्ठविसयाय आरम्णूपलद्धिया अनुभवनतो निट्ठामज्झत्तविसया च उपलद्धि, तस्मा न ताय निरनुभवनाय भवितब्बं, यं तत्थानुभवनं, सा अदुक्खमसुखा । तथा अनुपलब्भमानं रूपादिअनुभुय्यमानं दिट्टं उपलब्भति, यो पन मज्झत्तारम्मणं तब्बिसयस विञ्ञाणप्पवत्तियं, तस्मा अननुभुय्यमानेन तेन न भवितब्बं । सक्का हि वत्तुं अनुभवमाना मज्झत्तविसयुपलद्धि उपलद्धिभावतो । इट्ठानिट्ठविसयुपलद्धिविसयं पन निरनुभवनं तं अनुपलद्धिसभावमेव दिट्ठ, तं यथारूपन्ति । निवत्तेत्वाति नीहरित्वा, "सोमनस्संपाह"न्तिआदिना समानजातियम्पि भिन्दन्तो अञ्ञेहि अरूपधम्मेहि विवेचेत्वा असंस कत्वाति अत्थो । २४३ अयञ्च रूपकम्मट्ठानं कथेत्वा अरूपकम्मट्ठानं वेदनावसेन निवत्तेत्वा देसना तथाविनेतब्बपुग्गलापेक्खाय सुत्तन्तरेसुपि ( दी० नि० २.३७३; म० नि० १.१०६, ३९०, ४१३, ४५०, ४६५, ४६७; म० नि० २.३०६, २०९, ३.६७, ३४२; सं० नि० २.४.२४८) आगता एवाति दस्सेन्तो " न केवल "न्तिआदिमाह । तत्थ महासतिपट्ठाने (दी० नि० २.२७३) तथा देसनाय आगतभावो अनन्तरमेव आवि भविस्सति, मज्झिमनिकाये सतिपट्टानदेसनापि (म० नि० १.१०६) तादिसी एव । चूळतण्हासङ्घये “ एवं चेतं, देवानं इन्द, भिक्खुनो सुतं होति 'सब्बे धम्मा नालं अभिनिवेसाया'ति, सो सब्बं धम्मं 243 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६०-३६०) अभिजानाति, सब्बं धम्मं अभिञाय सब् धम्मं परिजानाति, सब्बं धम्मं परिञाय यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तासु वेदनासु अनिच्चानुपस्सी विहरति, विरागानुपस्सी"तिआदिना (म० नि० १.३९०) आगतं । तेन वुत्तं "अरूपकम्मट्ठानं वेदनावसेन निवत्तेत्वा दस्सेसी"ति । महातण्हासङ्घये पन “सो एवं अनुरोधविरोधविप्पहीनो यं किञ्चि वेदनं वेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा, सो तं वेदनं नाभिनन्दति नाभिवदति नाज्झोसाय तिठ्ठति । तस्स तं वेदनं अनभिनन्दतो अनभिवदतो अनज्झोसाय तिठ्ठतो या वेदनासु नन्दी सा निरुज्झती"तिआदिना (म० नि० १.४१४) आगतं । चूळवेदल्ले “कति पनाय्येवेदना''तिआदिना (म० नि० १.४६५) आगतं । महावेदल्ले “वेदनाति, आवुसो, वुच्चति, कित्तावता नु खो, आवुसो, 'वेदना'ति वुच्चती"तिआदिना (म० नि० १.४५०) आगतं । एवं रट्टपालसुत्तादीसुपि (म० नि० २.३०५) वेदनाकम्मट्ठानस्स आगतट्ठानं उद्धरित्वा वत्तब्ध । “पठमं रूपकम्मट्ठानं कथेत्वाति वुत्तं, कथं तमेत्थ कथितन्ति आह "रूपकम्मट्ठान"न्तिआदि । सवित्तं, कथं सचित्तं ? वेदनाय आरम्मणमत्तकंयेव, येभुय्येन वेदना रूपधम्मारम्मणा पञ्चद्वारवसेन पवत्तनतो । तेन चस्सा पुरिमसिद्धा एव आरम्मणन्ति वेदनं वदन्तेन तस्सारम्मणधम्मा अत्थतो पठमतरं गहिता एव नाम होन्तीति इमाय अत्थापत्तिया रूपकम्मट्ठानस्सेवेत्थ पठमं गहितता जोतिता, न सरूपेनेव गहितत्ता । तेनाह "तस्मा पाळियं नारुळ्हं भविस्सती"ति । ३६०. द्वीहि कोट्ठासेहीति सेवितब्बासेवितब्बभागेहि। एवरूपन्ति यं अकुसलानं अभिबुद्धिया, कुसलानञ्च परिहानाय संवत्तंति, एवरूपं, तं पन कामूपसहितताय "गेहनिस्सित"न्ति वुच्चतीति आह “गेहसितसोमनस्स"न्ति । इट्ठानन्ति पियानं । कन्तानन्ति कमनीयानं । मनापानन्ति मनवड्डनकानं । ततो एव मनो रमेन्तीति मनोरमानं। लोकामिसपटिसंयुत्तानन्ति तण्हासन्निस्सितानं कामूपसहितानं । पटिलाभतो समनुपस्सतोति "अहो मया इमानि लद्धानी''ति यथालद्धानि रूपारम्मणादीनि अस्सादयतो । अतीतन्ति अतिक्कन्तं । निरुद्धन्ति निरोधप्पत्तं । विपरिणतन्ति सभावविगमेन विगतं । समनुस्सरतोति अस्सादनवसेन अनुचिन्तयतो। गेहसितन्ति कामगुणनिस्सितं । कामगुणा हि कामरागस्स गेहसदिसत्ता इध "गेह"न्ति अधिप्पेता। एवरूपन्ति यं अकुसलानं परिहानाय, कुसलानञ्च अभिबुद्धिया संवत्तति, एवरूपं, 244 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६०-३६०) वेदनाकम्मट्ठानवण्णना २४५ तं पन पब्बज्जादिवसेन पवत्तिया नेक्खम्मूपसहितन्ति आह "नेक्खम्मसितं सोमनस्स"न्ति । इदानि तं पाळिवसेनेव दस्सेतुं "तत्थ कतमानी"तिआदि वुत्तं । तत्थ विपस्सनालक्खणे नेक्खम्मे दस्सिते इतरानि तस्स कारणतो, फलतो, अत्थतो च दस्सितानेव होन्तीति विपस्सनालक्खणमेव तं दस्सेन्तो "रूपानन्त्वेवा"तिआदिमाह । विपरिणामविरागनिरोधन्ति जराय विपरिणामेतब्बतञ्चेव जरामरणेहि पलुज्जनं निरुज्झनञ्च विदित्वाति योजना । उप्पज्जति सोमनस्सन्ति विपस्सनाय वीथिपटिपत्तिया कमेन उप्पन्नानं पामोज्जपीतिपस्सद्धीनं उपरि अनप्पकं सोमनस्सं उप्पज्जति । यं सन्धाय वुत्तं - "सुझागारं पविट्ठस्स, सन्तचित्तस्स भिक्खुनो । अमानुसी रति होति, सम्मा धम्मं विपस्सतो ।। यतो यतो सम्मसति, खन्धानं उदयब्बयं । लभती पीतिपामोज्जं, अमतं तं विजानत"न्ति || (ध० प० ३७४) च - नेक्खम्मवसेनाति पब्बज्जादिवसेन | “वट्टदुक्खतो नित्थरिस्सामी''ति पब्बजितुं भिक्खून सन्तिकं गच्छन्तस्स, पब्बजन्तस्स, चतुपारिसुद्धिसीलं अनुतिद्वन्तस्स, तं सोधेन्तस्स, धुतगुणे समादाय वत्तन्तस्स, कसिणपरिकम्मादीनि करोन्तस्स च या पटिपत्ति, सब्बा सा इध “नेखम्म''न्ति अधिप्पेता। येभुय्येन अनुस्सतिया उपचारज्झानं निट्ठातीति कत्वा "अनुस्सतिवसेना'"ति वत्वा “पठमज्झानादिवसेना"ति वुत्तं । एत्थ च यथा पब्बज्जा घरबन्धनतो निक्खमनटेन नेक्खम्म, एवं विपस्सनादयोपि तंपटिपक्खतो । तेनाह - “पब्बज्जा पठमं झानं, निब्बानञ्च विपस्सना । सब्बेपि कुसला धम्मा, नेक्खम्मन्ति पवुच्चरे''ति ।। (इतिवु० अट्ठ० १०९) यं चेति एत्थ चे-ति निपातमत्तं सोमनस्सस्स अधिप्पेतत्ता। चतुक्कनयवसेनेव च सुत्तन्तेसु झानकथाति वुत्तं "दुतियततियज्झानवसेना"ति । द्वीसूति “सवितक्कं सविचारं अवितक्कं अविचार''न्ति वुत्तेसु द्वीसु सोमनस्सेसु । सवितक्कसविचारे सोमनस्सेति परित्तभूमिके, पठमज्झाने वा सोमनस्से । अभिनिविट्ठसोमनस्सेसूति विपस्सनं पट्टपितसोमनस्सेसु । पि-सद्देन सम्मट्ठसोमनस्सेसु पीति 245 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६१-३६१) इममत्थं दस्सेति । सोमनस्सविपस्सनातोपीति सवितक्कसविचारसोमनस्सपवत्तिविपस्सनातोपि । अवितक्कअविचार विपस्सना पणीततरा सम्मसितधम्मवसेनपि विपस्सनाय विसेससिद्धितो, यतो मग्गेपि तथारूपा विसेसा इज्झन्ति । अयं पनत्थो “अरियमग्ग बोज्झङ्गादिविसेसं विपस्सनाय आरम्मणभूता खन्धा नियमेन्ती"ति एवं पवत्तेन मोरवापीवासिमहादत्तत्थेरवादेन दीपेतब्बो। ३६१. गेहसितदोमनस्सं नाम कामगुणानं अप्पटिलाभनिमित्तं, विगतनिमित्तञ्च उप्पज्जनकदोमनस्सं । अप्पटिलाभतो समनुपस्सतोति अप्पटिलाभेन “अहमेव न लभामी"ति परितस्सनतो। समनुस्सरतोति “अहु वत मे तं वत नत्थी'तिआदिना अनुस्सरणवसेन चिन्तयतो। तेनाह "एवं छसु द्वारेसू"तिआदि । __अनुत्तरेसु विमोक्खेसूति सुञतफलादिअरियफलविमोक्खेसु । पिहन्ति अपेक्खं, आसन्ति अत्थो । कथं पन लोकुत्तरधम्मे आरब्भ आसा उप्पज्जतीति ? न खो पनेतं एवं दट्ठब्बं “यं आरम्मणकरणवसेन तत्थ पिहा पवत्तती"ति अविसयत्ता, पुग्गलस्स च अनधिगतभावतो । अनुस्सवूपलद्धे पन अनुत्तरविमोक्खे उद्दिस्स पिहं उपट्टपेन्तो “तत्थ पिहं उपट्टपेती"ति वुत्तो । तेनाह "कुदास्सु नामाह"न्तिआदि । छसु द्वारेसु इट्ठारम्मणे आपाथगते अनिच्चादिवसेन विपस्सनं पट्टपेत्वाति योजना। "इटारम्मणे"ति च इमिना नयिदं दोमनस्सं सभावतो अनिट्ठधम्मेयेव आरब्भ उप्पज्जनकं, अथ खो इच्छितालाभहेतुकं इच्छाभिघातवसेन यत्थ कत्थचि आरम्मणे उप्पज्जनकन्ति दस्सेति । एवं “कुदास्सु नामाह"न्ति वुत्ताकारेन पिहं उपट्ठपेत्वा एवं इमम्पि पक्खं...पे०... नासक्खिन्ति अनुसोचतोति योजना। "इमस्मिं पक्खे, इमस्मिं मासे, इमस्मिं संवच्छरे पब्बजितुं नालद्धं, कसिणपरिकम्मं कातुं नालद्ध"न्तिआदिवसेन पवत्तिं सन्धाय "नेक्खम्मवसेना"ति वुत्तं । “विपस्सनावसेना"तिआदीसुपि इमिना नयेन योजना वेदितब्बा।। यतो एव-कारो, ततो अञत्थ नियमोति कत्वा "तस्मिम्पि...पे०... गेहसितदोमनस्समेवा"ति वुत्तं । न हेत्थ गेहसितदोमनस्सता सवितक्कसविचारे नियता, अथ खो गेहसितदोमनस्से सवितक्कसविचारता नियता पटियोगिनिवत्तनत्थत्ता एव-कारस्स । "गेहसितदोमनस्सं सवितक्कसविचारमेव, न अवितक्कअविचार''न्ति । नेक्खम्मसितदोमनस्सं पन सिया सवितक्कसविचारं, सिया अवितक्कअविचारं । सवितक्कसविचारस्सेव कारणभूतं दोमनस्सं सवितक्कसविचारदोमनस्सं। किं तं? 246 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६१-३६१) महासिवत्थेरवत्थुवण्णना २४७ गेहसितदोमनस्सं, यं पन नेक्खम्मादिवसेन उप्पन्नं, तं अवितक्कअविचारस्स कारणभूतं अवितक्कअविचारदोमनस्सन्ति । अयञ्च नयो परियायवसेन वुत्तोति आह "निप्परियायेन पना"तिआदि । यदि एवं कस्मा “यं चे अवितक्कं अविचार''न्ति पाळियं वुत्तन्ति आह "एतस्स पना"तिआदि । मञनवसेनाति परिकप्पनवसेन । वुत्तं पाळियं । तत्राति तस्मिं मञ्जने । अयं इदानि वुच्चमानो नयो। दोमनस्सपच्चयभूतेति दोमनस्सस्स पच्चयभूते। उपचारज्झानहि पठमज्झानादीनि वा पादकानि कत्वा मग्गफलानि निब्बत्तेतुकामस्स तेसं अलाभे दोमनस्सस्स उप्पज्जने तानि तस्स पच्चया नाम होन्ति इति ते धम्मा फलूपचारेन “दोमनस्स"न्ति वुत्ता। यो पन तथा उप्पन्नदोमनस्सो धुरनिक्खेपं अकत्वा अनुक्कमेन विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा मग्गफलधम्मे निब्बत्तेति, ते कारणूपचारेन "दोमनस्स"न्ति वुत्ताति इममत्थं दस्सेन्तो "इध भिक्खू"तिआदिमाह। ननु एतस्स तदा दोमनस्समेव उप्पन्नं, न दोमनस्सहेतुका विपस्सनामग्गफलधम्मा उप्पन्ना, तत्थ कथं दोमनस्ससमचं आरोपेत्वा वोहरतीति आह "अञ्जसं पटिपत्तिदस्सनवसेन दोमनस्सन्ति गहेत्वा"तिआदि | सवितक्कसविचारदोमनस्सेति सवितक्कसविचारनिमित्ते दोमनस्से । तीहि मासेहि निब्बत्तेतब्बा तेमासिका, तं तेमासिकं । इमा च तेमासिकादयो पटिपदा तथापवत्तउक्कट्ठमज्झिममुदिन्द्रियवसेन वेदितब्बा, अधिकमज्झिममुदुस्साहवसेन वा । जग्गतीति जागरिकं अनुयुञ्जति । महासिवत्थेरवत्थुवण्णना सहस्सद्विसहस्ससङ्ख्यत्ता महागणे। अट्ठकथाथेराति अट्ठकथाय अत्थपटिपुच्छनकथेरा । अन्तरामग्गेति भिक्खं गहेत्वा गामतो विहारं पटिगमनमग्गे । तयो...पे०... गाहापेत्वाति तीणि चत्तारि उण्हापनानि । केनचि पपञ्चेनाति केनचि सरीरकिच्चभूतेन पपञ्चेन। सनं अकासि रत्तियं पच्छतो गच्छन्तं असल्लक्खेन्तो । कस्मा पन थेरो अन्तेवासिकानं अनारोचेत्वाव गतोति आह "थेरो किरा"तिआदि । अरहत्तं नाम किन्ति तदधिगमस्स अदुक्करभावं सन्धाय वदति । चतूहि इरियापहीति 247 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६२-३६२) चतूहिपि इरियापथेहि पवत्तमानस्स, तस्मा याव अरहत्ताधिगमा सयनं पटिक्खिपामीति अधिप्पायो । "अनुच्छविकं नु खो ते एत"न्ति संवेगजातो वीरियं समुत्तेजेन्तो अरहत्तं अग्गहेसि एत्तकं कालं विपस्सनाय सुचिण्णभावतो आणस्स परिपाकं गतत्ता। परिमज्जीति परिमसि । केचि पन “परिमज्जीति परिवत्तेत्वा थेरेन धोवियमानं परिग्गहेत्वा धोवी"ति अत्थं वदन्ति | विपस्सनाय आरम्मणं नाम उपचारज्झानपठमज्झानादि । "सवितक्कसविचारदोमनस्से''तिआदीसु वत्तब्बं सोमनस्सेसु वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बं । ३६२. एवरूपाति या अकुसलानं अभिबुद्धिया, कुसलानं परिहानाय च संवत्तति, एवरूपा, सा पन कामूपसहितताय "गेहसिता"ति.. वुच्चतीति आह "गेहसितउपेक्खा'ति । “बालस्सा"तिआदीसु बालकरधम्मयोगतो बालस्स अत्तहितपरहितब्यामूळहताय मूळ्हस्स पुथूनं किलेसादीनं जननादीहि कारणेहि पुथुज्जनस्स किलेसोधीनं मग्गोधीहि अजितत्ता अनोधिजिनस्स, ओधिजिनो वायपेक्खा, ओधिसो च किलेसानं जितत्ता, तेनस्स सेक्खभावं पटिक्खिपति । सत्तमभवादितो उद्धं पवत्तनविपाकस्स अजितत्ता अविपाकजिनस्स, विपाकजिना वा अरहन्तो अप्पटिसन्धिकत्ता, तेनस्स असेक्खत्तं पटिक्खिपति । अनेकादीनवे सब्बेसम्पि पापधम्मानं मूलभूते सम्मोहे आदीनवानं अदस्सनसीलताय अनादीनवदस्ताविनो। आगमाधिगमाभावा अस्सुतवतो। एदिसो एकंसेन अन्धपुथुज्जनो नाम होतीति तस्स अन्धपुथुज्जनभावं दस्सेतुं पुनपि "पुथुज्जनस्सा"ति वुत्तं । एवरूपाति वुत्तप्पकारा सम्मोहपुब्बिका । रूपं सा नातिवत्ततीति रूपानं समतिक्कमनाय कारणं न होति, रूपारम्मणे किलेसे नातिक्कमतीति अधिप्पायो । अजाणाविभूतताय आरम्मणे अज्झुपेक्खनवसेन पवत्तमाना लोभसम्पयुत्तउपेक्खा इधाधिप्पेताति तस्स लोभस्स अनुच्छविकमेव आरम्मणं दस्सेन्तो "इट्ठारम्मणे"ति आह । अनतिवत्तमाना अनादीनवदस्सिताय । ततो एव अस्सादानुपस्सनतो तत्थेव लग्गा। अभिसङ्गस्स लोभस्स वसेन, दुम्मोचनीयताय च तेन लग्गिता विय हुत्वा उप्पन्ना। 248 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६३-३६३) महासिवत्थेरवत्थुवण्णना २४९ एवरूपाति या अकुसलानं पहानाय, कुसलानञ्च अभिबुद्धिया संवत्तति, एवरूपा, सा पन पब्बज्जादिवसेन पवत्तिया नेक्खम्मूपसहिताति आह “नेक्खम्मसिता"ति । इदानि तं पाळिवसेन दस्सेतुं "तत्थ कतमा"तिआदि वुत्तं, तस्सत्थो हेट्ठा वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बो । रूपं सा अतिवत्ततीति रूपस्मिं सम्मदेव आदीनवदस्सनतो। रूपनियाताति किलेसेहि अनभिभवनीयतो। इटेति सभावतो, सङ्कप्पतो च इट्टे आरम्मणे । अरज्जन्तस्साति न रज्जन्तस्स रागं अनुप्पादेन्तस्स । अनिटे अदुस्सन्तस्साति एत्थ वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो। समं सम्मा योनिसो न पेक्खनं असमपेक्खनं, तं पन इट्ठानिट्ठमज्झत्ते विय इहानिद्वेसुपि बालस्स होतीति "इट्ठानिट्ठमज्झत्ते"ति अवत्वा "असमपेक्खनेन असम्मुव्हन्तस्सा"ति वुत्तं, तिविधेपि आरम्मणे असमपेक्खनवसेन मुव्हन्तस्साति अत्थो । विपस्सनाञाणसम्पयुत्ता उपेक्खा। नेक्खम्मसिता उपेक्खा वेदनासभागाति उदासिनाकारेन पवत्तिया, उपेक्खा वेदनाय च सभागा | एत्थ उपेक्खा वाति एत्थ एतस्मिं उपेक्खानिद्देसे “उपेक्खा''ति गहिता एव । तस्माति तत्रमज्झत्तुपेक्खायपि इध उपेक्खाग्गहणेन गहितत्ता। तहि सन्धाय “पठमदुतियततियचतुत्थज्झानवसेन उप्पज्जनकउपेक्खा"ति वुत्तं । तायपि नेक्खम्मसितउपेक्खायाति निद्धारणे भुम्मं । “यं नेक्खम्मवसेना"तिआदि हेट्ठा वुत्तनयत्ता उत्ता नत्थमेव । ३६३. यदि सक्कस्स तदा सोतापत्तिफलपत्तियाव उपनिस्सयो, अथ कस्मा भगवा याव अरहत्तं देसनं वड्डेसीति आह "बुद्धानही"तिआदि । तरुणसक्कोति अभिनवो अधुना पातुभूतो सक्को। सम्पति पातुभावहि सन्धाय "तरुणसक्को"ति वुत्तं, न तस्स कुमारता, वुद्धता वा अत्थि । गतागतवानन्ति गमनागमनकारणं । न पायति न उपलब्भति। गब्भसेय्यकानहि चवन्तानं कम्मजरूपं विगच्छति अनुदेव चित्तजं, आहारजञ्च पच्चयाभावतो, उतुजं पन सुचिरम्पि कालं पवेणिं घट्टेन्तं भस्सन्तं वा सोसन्तं वा किलेसन्तं वा विठ्ठतं वा होति, न एवं देवानं । तेसहि ओपपातिकत्ता कम्मजरूपे अन्तरधायन्ते सेसतिसन्ततिरूपम्पि तेन सद्धिं अन्तरधायति । तेनाह "दीपसिखागमनं विय होती"ति । सेसदेवता न जानिंसु पुनपि सक्कत्तभावेन तस्मिंयेव ठाने निब्बत्तत्ता। तीसु ठानेसूति सोमनस्सदोमनस्सउपेक्खाविस्सज्जनावसानट्ठानेसु । निब्बत्तितफलमेवाति सप्पिम्हा सप्पिमण्डो विय आगमनीयपटिपदाय निब्बत्तितफलभूतं लोकुत्तरमग्गफलमेव कथितं। सकुणिकाय विय किञ्चि गहूपगं उप्पतित्वा उड्डत्वा उल्लङ्घित्वा। अस्साति मग्गफलसञितस्स अरियस्स धम्मस्स । 249 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६४-३६४) पातिमोक्खसंवरवण्णना ३६४. पातिमोक्खसंवरायाति पातिमोक्खभूतसीलसंवरायाति अयमेत्थ अत्थोति आह "उत्तमजे?कसीलसंवराया"ति। “पातिमोक्खसीलन्हि सब्बसीलतो जेट्ठकसील''न्ति दीघवापीविहारवासि सुमत्थेरो वदति, अन्तेवासिको पनस्स तेपिटकचूळनागत्थेरो “पातिमोक्खसंवरो एव सीलं, इतरानि पन ‘सीलन्ति वुत्तट्ठानं नाम अत्थी'ति अननुजानन्तो इन्द्रियसंवरो नाम छद्वाररक्खामत्तकं, आजीवपारिसुद्धि धम्मेन समेन पच्चयुप्पादनमत्तकं, पच्चयसन्निस्सितं पटिलद्धपच्चये 'इद मत्थ'न्ति पच्चवेक्खित्वा परिभुञ्जनमत्तकं, निप्परियायेन पातिमोक्खसंवरोव सीलं । तथा हि यस्स सो भिन्नो, सो इतरानि रक्खितुं अभब्बत्ता असीलो होति । यस्स पन सब्बसो अरोगो सेसानं रक्खितुं भब्बत्ता सम्पन्नसीलो"ति वदति, तस्मा इतरेसं तस्स परिवारभावतो, सब्बसो एकदेसेन च तदन्तोगधभावतो तदेव पधानसीलं नामाति आह "उत्तमजेट्ठकसीलसंवराया"ति । तत्थ यथा हेट्ठा पपञ्चसञ्जासङ्घानिरोधसारुप्पगामिनिं पटिपदं पुच्छितेन भगवता पपञ्चसञानं, पटिपदाय च मूलभूतं वेदनं विभजित्वा पटिपदा देसिता सक्कस्स अज्झासयवसेन संकिलेसधम्मप्पहानमुखेन वोदानधम्मपारिपूरीति, एवं तस्सा एव पटिपदाय मूलभूतम्पि सीलसंवरं पुच्छितेन भगवता यतो सो विसुज्झति, यथा च विसुज्झति, तदुभयं सक्कस्स अज्झासयवसेन विभजित्वा दस्सेतुं "कायसमाचारम्पी"तिआदि वुत्तं संकिलेसधम्मप्पहानमुखेन वोदानधम्मपारिपूरीति कत्वा । सीलकथायं असेवितब्बकायसमाचारादिकथने कारणं वुत्तमेव, तस्मा कम्मपथवसेनाति कुसलाकुसलकम्मपथवसेन । कम्मपथवसेनाति च कम्मपथविचारवसेन। कम्मपथभावं अपत्तानम्पि हि कायदुच्चरितादीनं असेवितब्बकादीनं असेवितब्बकायसमाचारादिभावो इध वुच्चतीति । पण्णत्तिवसेनाति सिक्खापदपण्णत्तिवसेन । यतो यतो हि या या वेरमणी, तदुभयेपि विभावेन्तो पण्णत्तिवसेन कथेति नाम। तेनाह "कायद्वारे"तिआदि। सिक्खापदं वीतिक्कमति एतेनाति सिक्खापदवीतिक्कमो, सिक्खापदस्स वीतिक्कमनाकारेन पवत्तो अकुसलधम्मो यं, तस्स असेवितब्बकायसमाचारादिता | वीतिक्कमपटिपक्खो अवीतिक्कमो, न वीतिक्कमति एतेनाति अवीतिक्कमो, सीलं । मिच्छा सम्मा च परियेसति एतायाति परियेसना, आजीवो, अत्थतो पच्चयगवेसनब्यापारो कायवचीद्वारिको। यदि एवं कस्मा विसुं गहणन्ति आह 250 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६४-३६४) पातिमोक्खसंवरवण्णना २५१ “यस्मा"तिआदि । अरिया निदोसा परियेसना गवेसनाति अरियपरियेसना, अरियेहि साधूहि परियेसितब्बातिपि अरियपरियेसनाति । वुत्तविपरियायतो अनरियपरियेसना वेदितब्बा । जातिधम्मोति जायनसभावो जायनपकतिको। जराधम्मोति जीरणसभावो । व्याधिधम्मोति ब्याधिसभावो । मरणधम्मोति मीयनसभावो। सोकधम्मोति सोचनकसभावो । संकिलेसधम्मोति संकिलिस्सनसभावो । पुत्तभरियन्ति पुत्ता च भरिया च । एस नयो सब्बत्थ । द्वन्देकत्तवसेन तेसं निद्देसो । जातरूपरजतन्ति एत्थ पन यतो विकारं अनापज्जित्वा सब्बं जातरूपमेव होतीति जातरूपं नाम सुवण्णं । धवलसभावताय रजतीति रजतं, रूपियं । इध पन सुवण्णं ठपेत्वा यं किञ्चि उपभोगपरिभोगारहं "रजतन्त्वेव गहितं वोहारूपगमासकादि । जातिधम्मा हेते, भिक्खवे, उपधयोति एते कामगुणूपधयो नाम होन्ति, ते सब्बेपि जातिधम्माति दस्सेति । ब्याधिधम्मवारादीसु जातरूपरजतं न गहितं । न हेतस्स सीसरोगादयो ब्याधयो नाम सन्ति, न सत्तानं विय चुतिसङ्खातं मरणं, न सोके उप्पज्जति, चुतिसङ्घातं मरणन्ति च एकभवपरियापन्नखन्धनिरोधो, सो तस्स नत्थि, खणिकनिरोधो पन खणे खणे लब्भतेव । रागादीहि पन संकिलेसेहि संकिलिस्सतीति संकिलेसधम्मवारे गहितं जातरूपं, तथा उतुसमुट्ठानत्ता जातिधम्मवारे, मलं गहेत्वा जीरणतो जराधम्मवारे च। अरियेहि न अरणीया, परियेसनातिपि अनरियपरियेसना। इदानि अनेसनावसेनापि तं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि वुत्तं । इमिना नयेन सुक्कपक्खेपि अत्थो वेदितब्बो।। सम्भारपरियेसनं पहरणविसादिगवेसनं, पयोगवसेन पयोगकरणं तज्जावायामजननं तादिसं उपक्कमनिब्बत्तनं, पाणातिपातादिअत्थं गमनं, पच्चेकं काल-सद्दो योजेतब्बो “सम्भारपरियेसनकालतो पट्ठाय, पयोगकरणकालतो पट्ठाय, गमनकालतो पट्ठाया"ति । इतरोति "सेवितब्बो''ति वुत्तकायसमाचारादिको। चित्तम्पि उप्पादेतब्बं । तथा उप्पादितचित्तो हि सति पच्चयसमवाये तादिसं पयोगं परक्कमं करोन्तो पटिपत्तिया मत्थकं गण्हाति । तेनाह “चित्तुप्पादम्पि खो अहं, भिक्खवे, कुसलेसु धम्मेसु बहुपकारं वदामी''ति (म० नि० १.८४)। 251 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ दीघनिकाये महावग्गटीका इदानि तं मत्थकप्पत्तं असेवितब्बं, सेवितब्बञ्च दस्सेतुं “ अपिचा "तिआदि वृत्तं । सङ्घभेदादीनन्ति आदि - सद्देन लोहितुप्पादनादिं सङ्गण्हाति । बुद्धरतनसङ्घरतनुपट्ठानेहेव धम्मरतनुपट्ठानसिद्धीति आह " दिवसस्स द्वत्तिक्खत्तुं तिष्णं रतनानं उपट्ठानगमनादिवसेना धनुग्गहपेसनं धनुग्गहपुरिसानं उय्योजनं । आदि - सद्देन पञ्चवरयाचनादिं सङ्गण्हाति । “अजातसत्तुं पसादेत्वा लाभुप्पादवसेन परिहीनलाभसक्कारस्स कुलेसु विज्ञापन "न्ति एवमादिं अनरियपरियेसनं परियेसन्तानं । पारिपूरियाति पारिपूरिअत्थं । अग्गमग्गफलवसेनेव हि सेवितब्बानं पारिपूरीति तदत्थं सब्बा पुब्बभागपटिपदा, पातिमोक्खसंवरोपि अग्गमग्गेनेव परिपुण्णो होतीति तदत्थं पुब्बभागपटिपदं वत्वा निगमेन्तो " पातिमोक्खो... पे०... होती "ति आह । ( ८.३६५-३६५) इन्द्रियसंवरवण्णना ३६५. इन्द्रियानं पिधानायाति इन्द्रियानं पिदहनत्थाय । इन्द्रियानि च चक्खादीनि द्वारानि, तेसं पिधानं संवरणं अकुसलुप्पत्तितो गोपनाति आह “गुत्तद्वारताया "ति । असेवितब्बरूपादिवसेन इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारता असंवरो, संकिलेसधम्मविप्पहानवसेन वोदानधम्मपारिसुद्धीति । कामं पाळियं असेवितब्बम्पि रूपादि दस्सितं, सक्केन पन इन्द्रियसंवराय पटिपत्ति पुच्छिताति तमेव निवत्तेत्वा दस्सेतुं अट्ठकथायं वृत्तं “चक्खुविज्ञेय्यं रूपम्पीतिआदि सेवितब्बरूपादिवसेन इन्द्रियसंवरदस्सनत्थं वुत्त "न्ति । " तुम्ही अहोसी'ति वत्वा तुम्हीभावस्स कारणं ब्यतिरेकमुखेन विभावेतुं " कथेतुकामोपी "तिआदि वृत्तं । अयन्ति सक्को देवानं इन्दो | रूपन्ति रूपायतनं, तस्स असेवनं नाम अदस्सनं एवाति आह " न सेवितब्बं न दट्ठब्ब”न्ति। यं पन सत्तसन्तानगतं रूपं परसतो पटिकूलमनसिकारवसेन, असुभसञ्जा वा सण्ठाति दस्सनानुत्तरियवसेन । अथ वा कम्मफलसद्दहनवसेन पसादो वा उप्पज्जति । हुत्वा अभावाकारसल्लक्खणेन अनिच्चसञ्ञापटिलाभो वा होति । परियायक्खरणतो अक्खरं, वण्णो, सो एव निरन्तरुप्पत्तिया समुद्दितो पदवाक्यसञ्ञितो, अधिप्पेतमत्थं ब्यञ्जेतीति ब्यञ्जनं, तयिदं काव्यनाटकादिगतवेवचनवसेन, उच्चारणवसेन च विचित्तसन्निवेसताय तथापवत्तविकप्पनवसेन चित्तविचित्तभावेन 252 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६६-३६६) इन्द्रियसंवरवण्णना २५३ उपतिट्ठनकं सन्धायाह "यं चित्तक्खरं चित्तब्यञ्जनम्पि सदं सुणतो रागादयो उप्पज्जन्ती"ति | अत्थनिस्सितन्ति सम्परायिकत्थनिस्सितं । धम्मनिस्सितन्ति विवट्टधम्मनिस्सितं, लोकुत्तररतनत्तयधम्मनिस्सितं वा । पसादोति रतनत्तयसद्धा, कम्मफलसद्धापि.। निबिदा वाति अनिच्चसादिवसेन वट्टतो उक्कण्ठा वा । गन्धरसाविपरोधादिवसेन सेवियमानं अयोनिसो पटिपन्नत्ता असेवितब्बं नाम । योनिसो पच्चवेक्खित्वा सेवियमानं सम्पजञवसेन गहणतो सेवितब्बं नाम । तेन वुत्तं "यं गन्धं घायतो"तिआदि। यं पन फुसतोति यं पन सेवितब्बं फोट्ठब्बं अनिष्फन्नस्सेव फुसतो। आसवक्खयो चेव होति जागरियानुयोगस्स मत्थकप्पत्तितो। वीरियञ्च सुपग्गहितं होति चतुत्थस्स अरियवंसस्स उक्कंसनतो। पच्छिमा च...पे०... अनुग्गहिता होति सम्मापटिपत्तियं नियोजनतो। ये मनोविज्ञेय्ये धम्मे इट्ठादिभेदे समन्नाहरन्तस्स आवज्जन्तस्स आपाथं आगच्छन्ति। "मनोविजेय्या धम्मा"ति विभत्ति विपरिणामेतब्बा, मेत्तादिवसेन समन्नाहरन्तस्स ये मनोविज्ञेय्या धम्मा आपाथं आगच्छन्ति, एवरूपा सेवितब्बाति योजना। आदि-सद्देन करुणादीनञ्चेव अनिच्चादीनञ्च सङ्गहो दट्ठब्बो। तिण्णं थेरानं धम्माति इदानि वुच्चमानपटिपत्तीनं तिण्णं थेरानं मनोविनेय्या धम्मा। बहि धावितुं न अदासिन्ति अन्तोपरिवेणं आगतमेव रूपादिं आरब्भ इमस्मिं तेमासे कम्मट्ठानविनिमुत्तं चित्तं कदाचि उप्पन्नपुब्बं, अन्तोपरिवेणे च विसभागरूपादीनं असम्भवो एव, तस्मा विसटवितक्कवसेन चित्तं बहि धावितुं न अदासिन्ति दस्सेति । निवासगेहतो निवासनगब्भतो । नियकज्झत्तखन्धपञ्चकतो विपस्सनागोचरतो। थेरो किर सब्बम्पि अत्तना कातब्बकिरियं कम्मट्ठानसीसेनेव पटिपज्जति । ३६६. असम्मोहसम्पजञवसेन अद्वेज्झाभावतो एको अन्तो एतस्साति एकन्तो, एकन्तो वादो एतेसन्ति एकन्तवादा। तेनाह "एकंयेव वदन्ती"ति, अभिन्नवादाति अत्थो । एकाचाराति समानाचारा। एकलद्धिकाति समानलद्धिका । एकपरियोसानाति समाननिट्ठाना । इति सक्को पुब्बे अत्तना सुतं पुथुसमणब्राह्मणानं नानावादा चारलद्धिनिट्ठानं इदानि 253 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६६-३६६) सच्चपटिवेधेन असारतो अत्वा ठितो, तस्स कारणं ज्ञातुकामो तमेव ताव ब्यतिरेकमुखेन पुच्छति “सब्बेव धम्मा नु खो"तिआदिना । धातूति अज्झासयधातु उत्तरपदलोपेन वुत्ता, अज्झासयधातूति च अत्थतो अज्झासयो एवाति आह “अनेकज्झासयो नानज्झासयो"ति । “एकस्मिं गन्तुकामे एको ठातुकामो होती"ति इदं निदस्सनवसेन वुत्तं इरियापथेपि नाम सत्ता एकज्झासया दुल्लभा, पगेव लद्धीसूति दस्सनत्थं । यं यदेव अज्झासयन्ति यं यमेव सस्सतादिअज्झासयं । अभिनिविसन्तीति तं तं लद्धिं दिट्ठाभिनिवेसवसेन अभिमुखा हुत्वा दुष्पटिनिस्सग्गिभावेन निविसन्ति, आदानग्गाहं गण्हन्ति। थामेन च परामासेन चाति दिट्ठिथामेन च दिट्ठिपरामासेन च । सुटु गण्हित्वाति अतिविय दळ्हग्गाहं गण्हित्वा । वोहरन्तीति यथाभिनिविलृ दिद्विवादं पञापेन्ति परे हि गाहेन्ति पतिठ्ठपेन्ति । तेनाह "कथेन्ति दीपेन्ति कित्तेन्ती"ति, उग्घोसेन्तीति अत्थो । अन्तं अतीता अच्चन्ता, अच्चन्ता निट्ठा एतेसन्ति अच्चन्तनिट्ठा। सब्बेसन्ति सब्बेसं समणब्राह्मणानं । योगक्खेमोतिपि निब्बानं चतूहिपि . योगेहि अनुप्पदुठ्ठत्ता । "अच्चन्तयोगक्खेमा'ति वत्तब्बे इ-कारेन निद्देसेन “अच्चन्तयोगक्खेमी"ति वुत्तं, अच्चन्तयोगक्खेमो वा एतेसं अत्थीति अच्चन्तयोगक्खेमीति। चरन्ति उपगच्छन्ति, अधिगच्छन्तीति अत्थो । परियस्सति परिक्खिस्सति वट्टदुक्खन्तं आगम्माति परियोसानन्तिपि निब्बानस्स नाम। सङ्क्षिणातीति समुच्छिन्दनेन खेपेति ! विनासेतीति ततो एव सब्बसो अदस्सनं पापेति । विमुत्ताति वट्टदुक्खतो अच्चन्तनिग्गमेन विसेसेन मुत्ता। "इस्सामच्छरियं एको पञ्हो"ति कस्मा वुत्तं, ननु इस्सामच्छरियं विस्सज्जनन्ति ? सच्चमेतं, यो पन आतुं इच्छितो अत्थो, सो पञ्हो । सो एव च विस्सज्जीयतीति नायं दोसो, अञथा अम्बं पुट्ठस्स लबुजं ब्याकरणं विय सिया, एवं पञ्हसीसेन पञ्चब्याकरणं वदति । तथा हि “पियाप्पियन्तिआदिना विस्सज्जनपदानेव गहितानि, "पियाप्पियं एको"तिआदीसुपि एसेव नयो । पपञ्चसञ्जाति सञासीसेन पपञ्चा एवं वुत्ताति आह "पपञ्चो एको"ति । एत्थ च यथा पातिमोक्खसंवरपुच्छा कायसमाचारादिविभागेन विस्सज्जितत्ता तयो पञ्हा जाता, एवं इन्द्रियसंवरपुच्छा रूपादिविभागेन विस्सज्जितत्ता छ 254 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३६७-३६८) सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना २५५ पञ्हा सियुं । तथा सति एकूनवीसति पुच्छा सियुं, अथ इन्द्रियसंवरतासामञ्जेन एकोव पञ्हो कतो, एवं सति पातिमोक्खसंवरपुच्छाभावसामओन तेपि तयो एकोव पज्होति सब्बेव द्वादसेव पञ्हा भवेय्युन्ति ? नयिदमेवं । यस्मा कायसमाचारादीसु विभज्ज वुच्चमानेसु महाविसयताय अपरिमाणो विभागो सम्भवति विस्सज्जेतुं । सकलम्पि विनयपिटकं तस्स निद्देसो। रूपादीसु पन विभज्ज वुच्चमानेसु अप्पविसयताय न तादिसो विभागो सम्भवति विस्सज्जेतुं। इति महाविसयताय पातिमोक्खसंवरपुच्छा तयो पहा कता, इन्द्रियसंवरपुच्छा पन अप्पविसयताय एकोव पञ्हो कतो । तेन वुत्तं “चुद्दस महापञ्हा''ति । ३६७. चलनद्वेनाति कम्पनटेन। तण्हा हि कामरागरूपरागअरूपरागादिवसेन पवत्तिया अनवद्वितताय सयम्पि चलति, यत्थ उप्पन्ना, तम्पि सन्तानं भवादीसु परिकड्डनेन चालेति, तस्मा चलनटेन तण्हा एजा नाम । पीळनटेनाति विबाधनतुन तस्स तस्स दुक्खस्स हेतुभावेन । पदुस्सनद्वेनाति अधम्मरागादिभावेन, सम्मुखपरंमुखेन, किलेसासुचिपग्घरणेन च पकारतो दुस्सनटेन गण्डो। अनुप्पविठ्ठद्वेनाति आसयस्स दुन्नीहरणीयभावेन अनुप्पविसनटेन । कडति अत्तनो च रुचिया उपनेति । उच्चावचन्ति पणीतभावं, निहीनभावञ्च । येसु समणब्राह्मणेसु । “येसाह"न्तिपि पाळि, तस्सा केचि “येसं अह"न्ति अत्थं वदन्ति । एवन्ति सुतानुरूपं, उग्गहानुरूपञ्च । “अहं खो पन भन्ते अञ्जेसं समणब्राह्मणानं धम्माचरियो होन्तोपि भगवतो सावको...पे०... सम्बोधिपरायणो''ति एवं अत्तनो सोतापनभावं जानापेति। सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना ३६८. समापनोति समोगाळ्हो पवत्तसम्पहारो वियातिब्यूळहो। जिनिंसूति यथा असुरा पुन सीसं उक्खिपितुं नासक्खिंसु, एवं देवा विजिनिंसुयेवाति दस्सेन्तो आह "देवा पुन अपच्चागमनाय असुरे जिनिसू"ति। तादिसो हिस्स जयो सातिसयं वेदपटिलाभाय अहोसि । दुविधम्पि ओजन्ति दिब्बं, असुरं चाति द्विप्पकारम्पि ओजं । देवायेव परिभुज्जिस्सन्ति असुरानं पवेसाभावतो । दण्डस्स अवचरणं आवरणं दण्डावचरो, सह दण्डावचरेनाति सदण्डावचरो, दण्डेन पहरित्वा वा आवरित्वा वा साधेतब्बन्ति अत्थो । 255 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ दीघनिकाये महावग्गटीका (८.३६९-३७०) ३६९. इमस्मियेव ओकासेति इमिस्समेव इन्दसालगुहायं । देवभूतस्स मेति पुब्बेपि देवभूतस्स सक्कस्सेव मे भूतस्स । सतोति इदानिपि सक्कस्सेव सतो पुनरायु च मे लड़ो। दिविया कायाति दिब्बा, खन्धपञ्चकसङ्घाता कायाति आह "दिब्बा अत्तभावा"ति | "अमूळहो गब्भं एस्सामी"ति इमिना अरियसावकानं अन्धपुथुज्जनानं विय सम्मोहमरणं, असम्पजानगब्भोक्कमनञ्च नत्थि, अथ खो असम्मोहमरणञ्चेव सम्पजानगब्भोक्कमनञ्च होतीति दस्सेति । अरियसावका नियतगतिकत्ता सुगतीसु एव उप्पज्जन्ति, तत्थापि मनुस्सेसु उप्पज्जन्ता उळारेसु एव कुलेसु पटिसन्धिं गहिस्सन्ति, सक्कस्सापि तादिसो अज्झासयो। तेन वुत्तं पाळियं “यत्थ मे रमती मनो"ति, तं सन्धायाह "यत्थ मे"तिआदि । सक्को पन अत्तनो दिब्बानुभावेनापि तादिसं जानितुं सक्कोतियेव । कारणेनाति युत्तेन अरियसावकभावस्स अनुच्छविकेन । तेनाह "समेना"ति । सकदागामिमग्गं सन्धाय वदति छठे अत्थवसे अनागामिमग्गस्स वक्खमानत्ता। आजानितुकामोति अप्पत्तं विसेसं पटिविज्झितुकामो। मनुस्सलोके अन्तो भविस्सति पुन मानुस्सूपपत्तिया अभावतो। पुनदेवाति मनुस्सेसु उप्पन्नो ततो चवित्वा पुनदेव । इमस्मिं तावतिंसदेवलोकस्मि । उत्तमो, कीदिसोति आह "सक्को"तिआदि । अन्तिमे भवेति मम सब्बभवेसु अन्तिमे सब्बपरियोसाने भवे । “आयुना"ति इमिना च तंसहभाविनो सब्बेपि वण्णादिके सङ्गण्हाति । “पञ्जाया"ति च इमिना सब्बेपि सद्धासतिवीरियादिके। तस्मिं अत्तभावेति तस्मिं सब्बन्तिमे सक्कत्तभावे । अकनिट्ठगामी हुत्वाति अन्तरायपरिनिब्बायिआदिभावं अनुपगन्त्वा एकंसतो उद्धंसोतो अकनिढगामी एव हुत्वा। ततो एव अनुक्कमेन अविहादीसु निब्बत्तन्तो। एवमाहाति “सो निवासो भविस्सती''ति एवमाह । “अविहादीसु...पे०... निब्बत्तिस्सती''ति सङ्खपतो वुत्तमत्थं विवरितुं "एस किरा"तिआदि वुत्तं । अयञ्च नयो न केवलं सक्कस्सेव, अथ खो महासेट्ठिमहाउपासिकानम्पि होतियेवाति दस्सेन्तो “सक्को देवराजा"तिआदिमाह।। ३७०. भवसम्पत्तिनिब्बानसम्पत्तीनं वसेन अपरिपुण्णज्झासयताय अनिट्ठितमनोरथो तं 256 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८.३७१-३७१) सोमनस्सपटिलाभकथावण्णना २५७ तं पत्तुकामोयेव हुत्वा ठितो। ये च समणेति ये च पब्बजिते । पविवित्तविहारिनोति “अनेकविवेकत्तयं परिब्रूहेत्वा विहरन्ती"ति मञामि । सम्पादनाति मग्गस्स उपसम्पादनं तस्स सम्पापनं सम्मदेव पापनं । विराधनाति अनाराधना अनुपायपटिपत्ति । न सम्भोन्तीति अनभिसम्भुणन्ति । यथापुच्छिते अत्थे अनभिसम्भुणनं नाम सम्मा कथेतुं असमत्थता एवाति आह "सम्पादेत्वा कथेतुं न सक्कोन्ती"ति। तस्माति यस्मा आदिच्चन समानगोत्तताय । तेनेवाह "आदिच्च नाम गोत्तेनाति, तस्मा । आदिच्चो बन्धु एतस्साति आदिच्चबन्धु, अथ वा आदिच्चस्स बन्धूति आदिच्चबन्धु, भगवा, तं आदिच्चबन्धुनं। आदिच्चो हि सोतापन्नताय भगवतो ओरसपुत्तो । तेनेवाह - “यो अन्धकारे तमसि पभङ्करो, वेरोचनो मण्डली उग्गतेजो। मा राहु गिली चरं अन्तलिक्खे, पजं ममं राहु पमुञ्च सूरिय''न्ति ।। (सं० नि० १.१.९१) सामन्ति सामंपयोगं, सत्थु पन सावकस्स सामंपयोगो नाम सनिपातो एवाति आह "नमक्कारं करोमा"ति। ३७१. परामसित्वाति “इमाय नाम पथवियं निसिन्नेन मया अयं अच्छरियधम्मो अधिगतो''ति सोमनस्सजातो, “इमाय नाम पथवियं एवं अच्छरियड्भुतं बुद्धरतनं उप्पन्न''न्ति अच्छरियब्भुतचित्तजातो च पथविं परामसित्वा । पत्थितपञ्हाति दीघरत्तानुसयितसंसयसमुग्घातत्थं “कदा नु खो भगवन्तं पुच्छितुं लभामी"ति एवं अभिपत्थितपञ्हा । यं पनेत्थ अत्थतो न विभत्तं, तं सुविज्ञेय्यमेवाति । सक्कपञ्हसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 257 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. महासतिपट्ठानसुत्तवण्णना उद्देसवारकथावण्णना पन ३७३. “कस्मा भगवा इदं सुत्तमभासी 'ति असाधारणं समुट्ठानं पुच्छति, साधारणं “पाकट"न्ति अनामसित्वा “कुरुरट्ठवासीन "न्तिआदि वृत्तं । समुट्ठानन्ति हि देसनानिदानं, तं साधारणासाधारणभेदतो दुविधं, साधारणम्पि अज्झत्तिकबाहिर भेदतो दुविधं । तत्थ साधारणं अज्झत्तिकं समुट्ठानं नाम भगवतो महाकरुणा ताय हि समुस्साहितस्स भगवतो वेनेय्यानं धम्मदेसनाय चित्तं उदपादि । यथाह " सत्तेसु च कारुञ्चतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसी 'तिआदि । ( दी० नि० २.६९; म० नि० १.२८३; २.३३९; सं० नि० १.१.१७२; महाव० ९) बाहिरं पन साधारणं समुट्ठानं नाम दससहस्समहाब्रह्मपरिवारस्स सहम्पतिमहाब्रह्मनो अज्झेसनं । तथा चाह "ब्रह्मनो अज्झेसनं विदित्वा ''ति । ( दी० नि० २.६९; म० नि० १.२८३; २.३३९; सं० नि० १.१.१७९; महाव० ९) तदज्झेसनुत्तरकालञ्हि धम्मपच्चवेक्खणाजनितं अप्पोस्सुक्कतं पटिपस्सम्भेत्वा भगवा धम्मं देसेतुं उस्साहजातो अहोसि । यथा च महाकरुणा, एवं दसबलत्राणादयो च देसनाय अज्झत्तसमुट्ठानभावे वत्तब्बा । सब्बहि जेय्यधम्मं, तेसं देसेतब्बप्पकारं, सत्तानञ्च आसयानुसयादिं याथावतो जानित्वा भगवा ठानाट्ठानादीसु कोसल्ले वेनेय्यज्झासयानुरूपं विचित्तनयदेसनं पवत्तेसीति । असाधारणम्पि अज्झत्तिकबाहिरभेदतो दुविधमेव । तत्थ अज्झत्तिकं याय महाकरुणाय, येन च देसनाञाणेन इदं सुत्तं पवत्तितं, तदुभयं वेदितब्बं, बाहिरं पन दस्सेतुं "कुरुरट्ठवासीन "न्तिआदिमाह । तेन वुत्तं “असाधारणं समुट्ठानं पुच्छतीति, तेन " अत्तज्झासयादीसु चतूसु सुत्तनिक्खेपेसु कतरोय "न्ति सुत्तनिक्खेपो पुच्छितो होतीति इतरो " कुरुरट्ठवासीन' "न्तिआदिना ‘“परज्झासयोयं सुत्तनिक्खेपो 'ति दस्सेति । 258 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २५९ कुरुरटुं किर तदा तंनिवासिसत्तानं योनिसोमनसिकारवन्ततादिना येभुय्येन सुप्पटिपन्नताय, पुब्बे च कतपुञताबलेन तदा उतुआदिसम्पत्तियुत्तमेव अहोसि । तेन वुत्तं "उतुपच्चयादिसम्पन्नत्ता"ति । आदि-सद्देन भोजनादिसम्पत्तिं सङ्गण्हाति । केचि पन “पुब्बे पवत्तकुरुवत्तधम्मानुट्ठानवासनाय उत्तरकुरु विय येभुय्येन उतुआदिसम्पन्नमेव होन्तं भगवतो काले सातिसयं उतुसप्पायादियुत्तं तं रटुं अहोसी''ति वदन्ति । चित्तसरीरकल्लतायाति चित्तस्स, सरीरस्स च अरोगताय । अनुग्गहितपञ्जाबलाति लद्रूपकाराणानुभावा, अनु अनु वा आचिण्णपञातेजा। एकवीसतिया ठानेसूति कायानुपस्सनावसेन चुद्दससु ठानेसु, वेदनानुपस्सनावसेन एकस्मिं ठाने, तथा चित्तानुपस्सनावसेन, धम्मानुपस्सनावसेन पञ्चसु ठानेसूति एवं एकवीसतिया ठानेसु । कम्मट्ठानं अरहत्ते पक्खिपित्वाति चतुसच्चकम्मट्ठानं यथा अरहत्तं पापेति, एवंदेसनावसेन अरहत्ते पक्खिपित्वा । सुवण्णचकोटकसुवण्णमञ्जूसासु पक्खित्तानि सुमनचम्पकादिनानापुप्फानि, मणिमुत्तादिसत्तरतनानि च यथा भाजनसम्पत्तिया सविसेसं सोभन्ति, किच्चकरानि च होन्ति मनुञभावतो, एवं सीलदस्सनादिसम्पत्तिया भाजनविसेसभूताय कुरुरवासिपरिसाय देसिता भगवतो अयं देसना भिय्योसो मत्ताय सोभति, किच्चकारी च होतीति इममत्थं दस्सेति “यथा हि पुरिसो"तिआदिना । एत्थाति कुरुरटे । पकतियाति सरसतोपि, इमिस्सा सतिपट्टानसुत्तदेसनाय पुब्बेपीति अधिप्पायो । अनुयुत्ता विहरन्ति सत्थु देसनानुसारतो भावनानुयोगं । विस्सट्टअत्तभावेनाति अनिच्चादिवसेन किस्मिञ्चि योनिसोमनसिकारे चित्तं अनियोजत्वा रूपादिआरम्मणे अभिरतिवसेन विस्सट्ठचित्तेन भवितुं न वट्टति, पमादविहारं पहाय अप्पमत्तेन भवितब्बन्ति अधिप्पायो । एकायनोति एत्थ अयन-सद्दो मग्गपरियायो। न केवलं अयनमेव, अथ खो अञपि बहू मग्गपरियायाति पदुद्धारं करोन्तो “मग्गस्स ही''ति आदिं वत्वा यदि मग्गपरियायो अयन-सद्दो, कस्मा पुन “मग्गो''ति वुत्तन्ति चोदनं सन्धायाह "तस्मा"तिआदि । तत्थ एकमग्गोति एको एव मग्गो। न हि निब्बानगामिमग्गो अझो अत्थीति । ननु सतिपट्टानं इध मग्गोति अधिप्पेतं, तदने च बहू मग्गधम्मा अत्थीति ? सच्चं अत्थि, ते पन सतिपट्टानग्गहणेनेव गहिता तदविनाभावतो। तथा हि जाणवीरियादयो निद्देसे गहिता, उद्देसे पन सतिया एव गहणं वेनेय्यज्झासयवसेनाति दट्ठब्बं । “न द्विधापथभूतो"ति 259 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० दीघनिकाये महावग्गटीका इमिना इमस्स मग्गस्स अनेकमग्गभावाभावं विय अनिब्बानगामिभावाभावञ्च दस्सेति । केन असहायेन । असहायता च दुविधा अत्तदुतियताभावेन वा, या “वूपकट्टकायता”ति वुच्चति, तण्हादुतियताभावेन वा, या "पविवित्तचित्तता" ति वुच्चति । तेनाह “वूपकट्ठेन पविवित्तचित्तेना "ति । सेट्टोपि लोके “एको "ति वुच्चति " याव परे एकाहं वो करोमी "तिआदीसूति आह “ एकस्साति सेट्ठस्सा " ति । यदि संसारतो निस्सरणट्ठो अयनट्ठो, अञ्ञेसम्पि उपनिस्सयसम्पन्नानं साधारणतो, कथं भगवतोति आह " किञ्चापी 'तिआदि । इमस्मिं खोति एत्थ खो- सद्दो अवधारणे तस्मा इमस्मिं येवाति अत्थो। देसनाभेदोयेव हेसो, यदिदं " मग्गो" ति वा " अयनोति वा । अयन - सद्दो वा कम्मकरणादिविभागो । तेनाह " अत्थतो पन एको वा "ति । नानामुखभावनानयप्पवत्तोति कायानुपस्सनादिमुखेन तत्थापि आनापानादिमुखेन भावनानयेन पवत्तो । एकायनन्ति एकगामिनं, निब्बानगामिनन्ति अत्थो । निब्बानञ्हि अदुतियभावतो, सेट्ठभावतो च " एक "न्ति वुच्चति । यथाह “एकहि सच्चं न दुतीयमत्थी 'ति । (सु० नि० ८९० ) " यावता भिक्खवे धम्मा सङ्खता वा असङ्खता वा विरागो तेसं अग्गं अक्खायती 'ति । (अ० नि० १.४.३४; इतिवु० ९० ) खयो एव अन्तोति खयन्तो, जातिया खयन्तं दिट्ठवाति जातिखयन्तदस्सी । अविभागेन सब्बेपि सत्ते हितेन अनुकम्पतीति हितानुकम्पी । अतरिंसूति तरिंसु । पुब्बेति पुरिमका बुद्धा, पुब्बे वा अतीतकाले । (९.३७३-३७३) तन्ति ते वचनं तं वा किरियावुत्तिवाचकत्तं न युज्जति । न हि सङ्खेय्यप्पधानताय सत्तवाचिनो एकसद्दस्स किरियावृत्तिवाचकता अस्थि । “सकिम्पि उद्धं गच्छेय्या' "तिआदीसु (अ० नि० २.७.७२) विय सकिं अयनोति इमिना व्यञ्जनेन भवितब्बं । एवमत्थं योजेत्वाति “एकं अयनं अस्सा "ति एवं समासपदत्थं योजेत्वा । उभयथापीति पुरिमनयेन, पच्छिमनयेन च । न युज्जति इधाधिप्पेतमग्गस्स अनेकवारं पवत्तिसब्भावतो । तेनाह “कस्मा" तिआदि । "अनेकवारम्पि अयती 'ति पुरिमनयस्स अयुत्ततादस्सनं, "अनेकञ्चस्स अयनं होती 'ति पच्छिमनयस्स । इमस्मिं पदेति “एकायनो अयं भिक्खवे मग्गो" ति इमस्मिं वाक्ये, इमस्मिं वा “पुब्बभागमग्गो, लोकुत्तरमग्गो "ति विधानपदे । मिस्सकमग्गोति लोकियेन मिस्सको 260 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २६१ लोकुत्तरमग्गो । विसुद्धिआदीनं निप्परियायहेतुकं सङ्गण्हन्तो आचरियत्थेरो “मिस्सकमग्गो'ति आह । इतरो परियायहेतु इधाधिप्पेतोति "पुब्बभागमग्गो"ति अवोच । सदं सुत्वाति “कालो भन्ते धम्मसवनाया"ति कालारोचनसदं पच्चक्खतो, परम्पराय च सुत्वा। एवं उक्खिपित्वाति एवं “सुन्दरं मनोहरं इमं कथं छड्डेमाति अछड्डेन्ता उच्छुभारं विय पग्गहेत्वा न विचरन्ति। आलुळेतीति विलुळितो आकुलो होतीति अत्थो । एकायनमग्गो वुच्चति पुब्बभागसतिपट्ठानमग्गोति एत्तावता इधाधिप्पेतत्थे सिद्धे तस्सेव अलङ्कारत्थं सो पन यस्स पुब्बभागमग्गो, तं दस्सेतुं “मग्गानट्ठङ्गिको"तिआदिका गाथापि पटिसम्भिदामग्गतोव आनेत्वा ठपिता । निब्बानगमनद्वेनाति निब्बानं गच्छति अधिगच्छति एतेनाति निब्बानगमनं, सोयेव अविपरीतसभावताय अत्थो, तेन निब्बानगमनटेन, निब्बानाधिगमूपायतायाति अत्थो । मग्गनीयद्वेनाति गवेसितब्बताय । “गमनीयढेना''ति वा पाठो, उपगन्तब्बतायाति अत्थो । "रागादीही"ति इमिना रागदोसमोहानंयेव गहणं "रागो मलं, दोसो मलं, मोहो मल"न्ति (विभं० ९२४) वचनतो। “अभिज्झाविसमलोभादीही"ति पन इमिना सब्बेसम्पि उपक्किलेसानं सङ्गण्हनत्थं ते विसुं उद्घटा । “सत्तानं विसुद्धिया''ति वुत्तस्स अत्थस्स एकन्तिकतं दस्सेन्तो "तथा ही"तिआदिमाह । कामं “विसुद्धिया''ति सामञजोतना, चित्तस्सेव पन विसुद्धि इधाधिप्पेताति दस्सेतुं "रूपमलवसेन पना"तिआदि वुत्तं । न केवलं अट्ठकथावचनमेव, अथ खो इदं एत्थ आहच्च भासितन्ति दस्सेन्तो "तथा ही"तिआदिमाह। सा पनायं चित्तविसुद्धि सिज्झमाना यस्मा सोकादीनं अनुप्पादाय संवत्तति, तस्मा वुत्तं "सोकपरिदेवानं समतिक्कमाया"तिआदि । तत्थ सोचनं आतिब्यसनादिनिमित्तं चेतसो सन्तापो अन्तोनिज्झानं सोको। ज्ञातिब्यसनादिनिमित्तमेव सोकावतिण्णतो “कहं एकपुत्तक कहं एकपुत्तका'तिआदिना (म० नि० २.३५३, ३५४; सं० नि० १.२.६३) परिदेवनवसेन वाचाविप्पलापो परिदवनं परिदेवो। आयतिं अनुप्पज्जनं इध समतिक्कमोति आह “पहानाया"ति। तं पनस्स समतिक्कमावहतं निदस्सनवसेन दस्सेन्तो "अयज्ही"तिआदिमाह । तत्थ यं पुब्बे, तं विसोधेहीति अतीतेसु खन्धेसु तण्हासंकिलेसविसोधनं वुत्तं । पच्छाति 261 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७३-३७३) परतो। तेति तुम्हं । माहूति मा अहु । किञ्चनन्ति रागादिकिञ्चनं, एतेन अनागतेसु खन्धेसु संकिलेसविसोधनं वुत्तं । मझेति तदुभयवेमज्झे। नो चे गहेस्ससीति न उपादियिस्ससि चे, एतेन पच्चुप्पन्ने खन्धप्पबन्धे उपादानप्पवत्ति वुत्ता । उपसन्तो चरिस्ससीति एवं अद्धत्तयगतसंकिलेसविसोधने सति निब्बुतसब्बपरिळाहताय उपसन्तो हुत्वा विहरिस्ससीति अरहत्तनिकूटेन गाथं निट्ठपेसि । तेनाह “इमं गाथ"न्तिआदि । पुत्ताति ओरसा, अञपि वा दिन्नककित्तिमादयो ये केचि । पिताति जनको, अञ्जेपि वा पितुट्ठानिया । बन्धवाति जातका । अयञ्हेत्थ अत्थो - पुत्ता वा पिता वा बन्धवा वा अन्तकेन मच्चुना अधिपन्नस्स अभिभूतस्स मरणतो ताणाय न होन्ति । कस्मा ? नत्थि आतीसु ताणताति । न हि आतीनं वसेन मरणतो आरक्खा अस्थि, तस्मा पटाचारे “उभो पुत्ता कालङ्कता''तिआदिना (अप० थेरीअपदान १.४९८) मा निरत्थकं परिदेवि, धम्मंयेव पन याथावतो पस्साति अधिप्पायो। सोतापत्तिफले पतिद्विताति यथानुलोमं पवत्तिताय सामुक्कंसिकाय धम्मदेसनाय परियोसाने सहस्सनयपटिमण्डिते सोतापत्तिफले पतिद्वहि । कथं पनायं सतिपट्ठानमग्गवसेन सोतापत्तिफले पतिहासीति आह “यस्मा पना"तिआदि । न हि चतुसच्चकम्मट्ठानकथाय विना सावकानं अरियमग्गाधिगमो अस्थि । "इमं गाथं सुत्वा"ति पनिदं सोकविनोदनवसेन पवत्तिताय गाथाय पठमं सुतत्ता वुत्तं, सापि हि सच्चदेसनाय परिवारबन्धा एव अनिच्चताकथाति कत्वा । इतरगाथायं पन वत्तब्बमेव नत्थि । भावनाति पञआभावना | सा हि इध अधिप्पेता । तस्माति यस्मा रूपादीनं अनिच्चादितो अनुपस्सनापि सतिपट्ठानभावनाव, तस्मा । तेपीति सन्ततिमहामत्तपटाचारापि । पञ्चसते चोरेति सतसतचोरपरिवारे पञ्चचोरे पटिपाटिया पेसेसि, ते अरञ्ज पविसित्वा थेरं परियेसन्ता अनुक्कमेन थेरस्स समीपे समागच्छिंसु । तेनाह "ते गन्त्वा थेरं परिवारेत्वा निसीदिसू"ति । वेदनं विक्खम्भेत्वाति ऊरुट्ठिभेदपच्चयं दुक्खवेदनं अमनसिकारेन विनोदेत्वा । पीतिपामोजं उप्पज्जि विप्पटिसारलेसस्सपि असम्भवतो। तेनाह “परिसुद्धं सीलं निस्साया"ति । थेरस्स हि सीलं पच्चवेक्खतो परिसुद्धं सीलं निस्साय उळारं पीतिपामोज्जं उप्पज्जमानं ऊरुट्ठिभेदजनितं दुक्खवेदनं विक्खम्भेसि । तियामरत्तिन्ति अच्चन्तसंयोगे उपयोगवचनं, तेनस्स विपस्सनायं अप्पमादं, पटिपत्तिउस्सुक्कापनञ्च दस्सेति । पादानीति पादे । संयमेस्सामीति सञपेस्सामि, सञत्तिं करिस्सामीति अत्थो। अट्टियामीति जिगुच्छामि । हरायामीति लज्जामि । विपस्सिसन्ति सम्पस्सिं । 262 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २६३ पचलायन्तानन्ति पचलायिकानं निदं उपगतानं । अगतिन्ति अगोचरं । वतसम्पन्नोति धुतगुणसम्पन्नो। पमादन्ति पचलायनं सन्धायाह । ओरुद्धमानसोति उपरुद्धअधिचित्तो । पञ्जरस्मिन्ति सरीरे । सरीरहि न्हारुसम्बन्धअट्ठिसङ्घाटताय इध “पञ्जर"न्ति वुत्तं । पीतवण्णाय पन पटाकाय कायं परिहरणतो, मल्लयुद्धचित्तकताय च "पीतमल्लो"ति पातो पब्बजित्वा पीतमल्लत्थेरो नाम जातो। तीसु रज्जेसूति पण्डुचोळगोळरज्जेसु । “सब्बमल्ला सीहळदीपे सक्कारसम्मानं लभन्ती"ति तम्बपण्णिदीपं आगम्म। तंयेव अडसं कत्वाति “रूपादयो 'ममाति न गहेतब्बा"ति नतुम्हाकवग्गेन पकासितमत्थं अत्तनो चित्तमत्तहत्थिनो अङ्कसं कत्वा | पादेसु अवहन्तेसूति अतिवेलं चकमनेन अक्कमितुं असमत्थेसु । जण्णुकेहि चङ्कमति “निसिन्ने निद्दाय अवसरो होती"ति । ब्याकरित्वाति अत्तनो वीरियारम्भस्स सफलतापवेदनमुखेन सब्रह्मचारीनं तत्थ उस्साहं जनेन्तो अनं ब्याकरित्वा । भासितन्ति वचनं, कस्स पन तन्ति आह "बुद्धसेट्ठस्स सब्बलोकग्गवादिनो"ति । “न तुम्हाक"न्तिआदि तस्स पवत्तिआकारदस्सनं । तयिदं मे सङ्खारानं अच्चन्तवूपसमकारणन्ति दस्सेन्तो “अनिच्चा वता"ति गाथमाहरि, तेन इदानाहं सङ्घारानं खणे खणे भङ्गसङ्घातस्स रोगस्स अभावेन अरोगो परिनिब्बुतोति दस्सेति । अस्साति सक्कस्स । उपपत्तीति देवूपपत्ति । पुन पाकतिकाव अहोसि सक्कभावेनेव उपपन्नत्ता। सुब्रह्माति एवंनामो। अच्छरानं निरयूपपत्तिं दिस्वा ततो पभुति सततं पवत्तमानं अत्तनो चित्तुत्रासं सन्धायाह "निच्चं उत्रस्तमिदं चित्त"न्तिआदि । तत्थ उत्रस्तन्ति सन्तस्तं भीतं । उब्बिग्गन्ति संविग्गं । उत्रस्तन्ति वा संविग्गं । उब्बिग्गन्ति भयवसेन सह निस्सयेन सञ्चलितं । अनुष्पन्नेसूति अनागतेसु । किच्चेसूति तेसु तेसु इतिकत्तब्बेसु । "किच्छेसू"ति वा पाठो, दुक्खेसूति अत्थो, निमित्तत्थे चेतं भुम्मं, भाविदुक्खनिमित्तन्ति अत्थो । उप्पतितेसूति उप्पन्नेसु किच्चेसूति योजना । तदा अत्तनो परिवारस्स उप्पन्नं दुक्खं सन्धाय वदति । बोज्झाति बोधितो, अरियमग्गतोति अत्थो । “अञत्रा"ति च पदं अपेक्खित्वा निस्सक्कवचनं, बोधिं ठपेत्वाति अत्थो । सेसेसुपि एसेव नयो । तपसाति तपोकम्मतो, तेन मग्गाधिगमस्स उपायभूतं सल्लेखपटिपदं दस्सेति । इन्द्रियसंवराति मनच्छट्ठानं इन्द्रियानं 263 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७३-३७३) संवरणतो, एतेन सतिसंवरसीसेन सबम्पि संवरसीलं, लक्खणहारनयेन वा सब्बम्पि चतुपारिसुद्धिसीलं दस्सेति । सब्बनिस्सग्गाति सब्बस्सपि निस्सज्जनतो सब्बकिलेसप्पहानतो। किलेसेसु हि निस्सट्टेसु कम्मवढें, विपाकवट्टञ्च निस्सट्टमेव होतीति । सोथिन्ति खेमं अनुपद्दवतं । आयति निच्छयेन कमति निब्बानं, तं वा आयति पटिविज्झीयति एतेनाति आयो, अरियमग्गोति आह "आयो बुच्चति अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो"ति । तण्हावानविरहितत्ताति तण्हासङ्घातवानविवित्तत्ता। तण्हा हि खन्धेहि खन्धं, कम्मुना फलं, सत्तेहि च दुक्खं विनति संसिब्बतीति “वान''न्ति वुच्चति, तयिदं नत्थि एत्थ वानं, न वा एतस्मिं अधिगते पुग्गलस्स वानन्ति निब्बानं, असङ्घता धातु । परप्पच्चयेन विना पच्चक्खकरणं सच्छिकिरियाति आह "अत्तपच्चक्खताया''ति । ननु “विसुद्धिया"ति चित्तविसुद्धिया अधिप्पेतत्ता विसुद्धिग्गहणेनेवेत्थ सोकसमतिक्कमादयोपि गहिता एव होन्ति, ते पुन कस्मा गहिताति अनुयोगं सन्धाय "तत्थ किञ्चापी"तिआदि वुत्तं । सासनयुत्तिकोविदेति सच्चपटिच्चसमुप्पादादिलक्खणायं धम्मनीतियं छेके । तं तमत्थं आपेतीति ये ये बोधनेय्यपुग्गला सङ्घपवित्थारादिवसेन यथा यथा बोधेतब्बा, अत्तनो देसनाविलासेन भगवा ते ते तथा तथा बोधेन्तो तं तमत्थं आपेति । तं तं पाकटं कत्वा दस्सेन्तोति अत्थापत्तिं अगणेन्तो तं तमत्थं पाकटं कत्वा दस्सेन्तो । न हि सम्मासम्बुद्धो अत्थापत्तिञापकादिसाधनीयवचनाति । संवत्ततीति जायति, होतीति अत्थो । यस्मा अनतिक्कन्तसोकपरिदेवस्स न कदाचि चित्तविसुद्धि अस्थि सोकपरिदेवसमतिक्कमनमुखेनेव चित्तविसुद्धिया इज्झनतो, तस्मा आह "सोकपरिदेवानं समतिक्कमेन होती"ति । यस्मा पन दोमनस्सपच्चयेहि दुक्खधम्मेहि फुटुं पुथुज्जनं सोकादयो अभिभवन्ति, परिझातेसु च तेसु ते न होन्ति, तस्मा वुत्तं "सोकपरिदेवानं समतिक्कमो दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमेना"ति । आयस्साति अग्गमग्गस्स, ततियमग्गस्स च । तदधिगमेन हि यथाक्कम दुक्खदोमनस्सानं अत्थङ्गमो। सच्छिकिरियाभिसमयसहभावीपि इतराभिसमयो तदविनाभावतो सच्छिकिरियाभिसमयहेतुको विय वुत्तो। आयस्साधिगमो निब्बानस्स सच्छिकिरियायाति फलञाणेन वा पच्चक्खकरणं सन्धाय वुत्तं, “निब्बानस्स सच्छिकिरियाया"ति सम्पदानवचनञ्चेतं दट्ठब्बं | वण्णभणनन्ति पसंसावचनं । तयिदं न इधेव, अथ खो अञ्जत्थापि सत्थु आचिण्णं 264 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २६५ एवाति दस्सेन्तो “यथेव ही"तिआदिमाह। तत्थ आदिम्हि कल्याणमादि वा कल्याणं एतस्साति आदिकल्याणं। सेसपदद्वयेपि एसेव नयो। अत्थसम्पत्तिया सात्थं । ब्यञ्जनसम्पत्तिया सब्यञ्जनं। सीलादिपञ्चधम्मक्खन्धपारिपूरितो, उपनेतब्बस्स अभावतो च केवलपरिपुण्णं। निरुपक्किलेसतो अपनेतब्बस्स च अभावतो परिसुद्धं। सेट्ठचरियभावतो सासनब्रह्मचरियं, मग्गब्रह्मचरियञ्च वो पकासेस्सामीति । अयमेत्य सङ्ग्रेपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.१४७) वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । अरियवंसाति अरियानं बुद्धादीनं वंसा पवेणियो। अग्गजाति अग्गाति जानितब्बा सब्बवंसेहि सेट्ठभावतो। रत्ताति चिररत्ताति जानितब्बा। वंसज्ञाति बुद्धादीनं वंसाति जानितब्बा । पोराणाति पुरातना अनधुनातनत्ता । असङ्किण्णाति अविकिण्णा अनपनीता। असङ्किण्णपुब्बाति "किं इमेही''ति अरियेहि न अपनीतपुब्बा । न सङ्घीयन्तीति इदानिपि तेहि न अपनीयन्ति । न सङ्कीयिस्सन्तीति अनागतेपि तेहि न अपनीयिस्सन्ति । अप्पटिकुट्टा...पे०... विजूहीति ये लोके विजू समणब्राह्मणा, तेहि अप्पच्चक्खता अनिन्दिता, अगरहिताति अत्थो । "विसद्धिया"तिआदीहीति विसूद्धिआदिदीपनेहि। पदेहीति वाक्येहि, विसुद्धिअत्थतादिभेदभिन्नेहि वा धम्मकोट्ठासेहि । उपद्दति अनत्थे । विसुद्धिन्ति विसुज्झनं संकिलेसप्पहानं । वाचुग्गतकरणं उग्गहो। परियापुणनं परिचयो । अत्थस्स हदये ठपनं धारणं। परिवत्तनं वाचनं। गन्धारकोति गन्धारदेसे उप्पन्नो। पहोन्तीति सक्कोन्ति । अनिय्यानिकमग्गाति मिच्छामग्गा, मिच्छत्तनियतानियतमग्गापि वा। सुवण्णन्ति कूटसुवण्णम्पि वुच्चति । मणीति काचमणिपि, मुत्ताति वेळुजापि, पवाळन्ति पल्लवोपि वुच्चतीति रत्तजम्बुनदादिपदेहि ते विसेसिता। न ततो हेट्टाति इधाधिप्पेतकायादीनं वेदनादिसभावत्ताभावा, कायवेदनाचित्तविमुत्तस्स तेभूमकधम्मस्स विसुं विपल्लासवत्थन्तरभावेन गहितत्ता च हेट्ठा गहणेसु विपल्लासवत्थूनं अनिट्ठानं सन्धाय वुत्तं, पञ्चमस्स पन विपल्लासवत्थुनो अभावा "न उद्ध"न्ति आह । आरम्मणविभागेन हेत्थ सतिपट्टानविभागोति । तयो सतिपट्ठानाति सतिपट्ठान-सद्दस्स अत्थुद्धारदस्सनं, न इध पाळियं वुत्तस्स सतिपट्ठान-सद्दस्स अत्थदस्सनन्ति । आदीसु हि सतिगोचरोति एत्थ आदि-सद्देन “फस्ससमुदया वेदनानं समुदयो, नामरूपसमुदया चित्तस्स समुदयो, मनसिकारसमुदया धम्मानं समुदयो"ति (सं० नि० ३.५.४०८) "सतिपट्ठाना''ति वुत्तानं सभिगोचरानं पकासके सुत्तप्पदेसे सङ्गण्हाति । एवं “पटिसम्भिदापाळिय''म्पि (पटि० 265 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७३-३७३) म० २.३४) अवसेसपाळिप्पदेसदस्सनत्थो आदि-सद्दो दट्ठब्बो। सतिया पट्टानन्ति सतिया पतिट्ठातब्बट्ठानं । दानादीनि करोन्तस्स रूपादीनि सतिया ठानं होन्तीति तंनिवारणत्थमाह "पधानं ठान"न्ति । प-सद्दो हि इध “पणीता धम्मा'"तिआदीसु (ध० सं० मातिका १४) विय पधानत्थदीपकोति अधिप्पायो। अरियोति अरियं सब्बसत्तसेटुं सम्मासम्बुद्धमाह । एत्थाति एतस्मिं सळायतनविभङ्गसुत्ते। (म० नि० ३.३१०) सुत्तेकदेसेन हि सुत्तं दस्सेति । तत्थ हि "तयो सतिपट्ठाना यदरियो...पे०... अरहतीति इति खो पनेतं वुत्तं, किञ्चेतं पटिच्च वुत्तं । इध, भिक्खवे, सत्था सावकानं धम्मं देसेति अनुकम्पको हितेसी अनुकम्पं उपादाय 'इदं वो हिताय इदं वो सुखाया'ति । तस्स सावका न सुस्सूसन्ति । न सोतं ओदहन्ति, न अञा चित्तं उपट्ठपेन्ति, वोक्कम्म च सत्थु सासना वत्तन्ति । तत्र, भिक्खवे, तथागतो न चेव अनत्तमनो होति, न च अनत्तमनतं पटिसंवेदेति, अनवस्सुतो च विहरति सतो सम्पजानो । इदं, भिक्खवे, पठमं सतिपट्टानं । यदरियो सेवति...पे०... अरहति । ... पुन चपरं, भिक्खवे, सत्था...पे०..इदं वो सुखायाति । तस्स एकच्चे सावका न सुस्सूसन्ति...पे०... न च वोक्कम्म सत्थु सासना वत्तन्ति । तत्र, भिक्खवे, तथागतो न चेव अनत्तमनो होति, न च अनत्तमनतं पटिसंवेदेति, न च अत्तमनो होति, न च अत्तमनतं पटिसंवेदेति, अनत्तमनता च अत्तमनता च तदुभयं अभिनिवज्जेत्वा उपेक्खको विहरति सतो सम्पजानो। इदं वुच्चति, भिक्खवे, दुतियं । __ पुन चपरं, भिक्खवे...पे०... सुखायाति, तस्स सावका सुस्सूसन्ति...पे०... वत्तन्ति । तत्र, भिक्खवे, तथागतो अत्तमनो चेव होति, अत्तमनतञ्च पटिसंवेदेति, अनवस्सुतो च विहरति सतो सम्पजानो। इदं वुच्चति, भिक्खवे, ततिय"न्ति । (म० नि० ३.३११) एवं पटिघानुनयेहि अनवस्सुतता, निच्चं उपट्ठितस्सतिताय तदुभयवीतिवत्तता “सतिपट्ठान"न्ति वुत्ता । बुद्धानंयेव हि निच्चं उपद्वितस्सतिता होति आवेणिकधम्मभावतो, 266 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्देसवारकथावण्णना न पच्चेकबुद्धादीनं । प- सद्दो आरम्भं जोतेति, आरम्भो च पवत्तीति कत्वा आह “पवत्तयितब्बतोति अत्थो "ति । सतिया करणभूताय पट्ठानं पट्ठपेतब्बं सतिपट्ठानं । अन-सहो हि बहुलवचनेन कम्मत्थोपि होतीति । तथास्स कत्तुअत्थोपि लब्भतीति " पट्ठातीति पट्ठान "न्ति वृत्तं । पातीति एत्थ प- सद्दो भुसत्थविसिद्धं पक्खन्दनं दीपेतीति " ओक्कन्दित्वा पक्खन्दित्वा पत्थरित्वा पवत्ततीति अत्थो "ति आह । पुन भावत्थं सति, सद्दं, पट्ठानसञ्च वन्तो “अथ वा "तिआदिमाह, तेन पुरिमविकप्पे सति, सद्दो, पट्ठान - सद्दो च कत्तु अथ विञ्ञयति । सरणट्टेनाति चिरकतस्स, चिरभासितस्स च अनुस्सरणट्टेन । इदन्ति यं “सतियेव सतिपट्ठान”न्ति वुत्तं इदं । इध इमस्मिं सुत्तपदेसे अधिप्पेतं । ( ९.३७३-३७३) यदि एवन्ति । यदि सति एव सतिपट्ठानं, सति नाम एको धम्मो, एवं सन्ते कस्मा ‘“सतिपट्ठाना’ति बहुवचनन्ति आह “ सतिबहुत्ता "ति आदि । यदि बहुका ता सतियो, अथ कस्मा " मग्गो "ति एकवचनन्ति योजना । मग्गट्ठेनाति निय्यानट्टेन । निय्यानिको हि मग्गधम्मो, तेनेव निय्यानिकभावेन एकत्तूपगतो एकन्ततो निब्बानं गच्छति, अत्थिकेहि च तदत्थं मग्गीयतीति आह " वुत्तहेत"न्ति, अत्तनाव पुब्बे वृत्तं पच्चाहरति । तत्थ चतस्सोपि चेताति कायानुपस्सनादिवसेन चतुब्बिधापि च एता सतियो । अपरभागेत अरियमग्गक्खणे । किच्चं साधयमानाति पुब्बभागे कायादीसु सुभसञ्ञादिविधमनवसेन विसुं विसुं पवत्तित्वा मग्गक्खणे सतियेव तत्थ चतुब्बिधस्सपि विपल्लासस्स समुच्छेदवसेन पहानकिच्चं साधयमाना आरम्मणकरणवसेन निब्बानं गच्छति । चतुकिच्चसाधनेनेव हेत्थ बहुवचननिद्देसो । एवञ्च सतीति एवं मग्गट्ठेन एकत्तं उपादाय " मग्गो "ति एकवचनेन, आरम्मणभेदेन चतुब्बिधतं उपादाय " चत्तारो "ति च वत्तब्बताय सति विज्जमानत्ता । वचनानुसन्धिना " एकायनो अयन्तिआदिका देसना सानुसन्धिकाव, न अननुसन्धिकाति अधिप्पायो । वुत्तमेवत्थं निदस्सनेन पटिपादेतुं “मारसेनप्पमद्दन "न्ति (सं० नि० ३.५.२२४) सुत्तपदं आनेत्वा " यथा " ति आदिना निदस्सनं संसन्दति । " तस्मा "तिआदि निगमनं । विसेसतो कायो, वेदना च अस्सादस्स कारणन्ति तप्पहानत्थं तेसु तण्हावत्थूसु ओळारिकसुखुसु असुभदुक्खभावदस्सनानि मन्दतिक्खपञ्ञेहि तण्हाचरितेहि सुकरानीति तानि तेसं “विसुद्धिमग्गो" ति वृत्तानि । तथा " निच्चं अत्ता" ति अभिनिवेसवत्थुताय दिट्टिया विसेसकारणेसु चित्तधम्मे अनिच्चानत्ततादस्सनानि सरागादिवसेन, सञ्ज्ञफस्सादिवसेन, नीवरणादिवसेन च नातिप्पभेदातिप्पभेदगतेसु तेसु तप्पहानत्थं मन्दतिक्खपञ्जनं दिट्ठिचरितानं सुकरानीति तेसं तानि “विसुद्धिमग्गो" ति वृत्तानि । एत्थ २६७ 267 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ दीघनिकाये महावग्गटीका च यथा चित्तधम्मानम्पि तण्हाय वत्थुभावो सम्भवति, तथा कायवेदनानम्पि दिट्टियाति सतिपि नेसं चतुन्नम्पि तण्हादिट्टिवत्थुभावे यो यस्सा सांतिसयपच्चयो, तं दस्सनत्थं विसेसग्गहणं कतन्ति दट्ठब्बं । तिक्खपञ्ञसमथयानिको ओळारिकारम्मणं परिग्गण्हन्तो तत्थ अट्ठत्वा झानं समापज्जित्वा उट्ठाय वेदनं परिग्गण्हातीति वुत्तं “ओळारिकारम्मणे असण्ठहनतो 'ति । विपस्सनायानिकस्स पन सुखुमे चित्ते, धम्मेसु च चित्तं पक्खन्दतीति चित्तधम्मानुपस्सनानं मन्दतिक्खपञ्ञविपस्सनायानिकानं विसुद्धिमग्गता वृत्ता । तेसं तत्थाति एत्थ तत्थ - सद्दस्स " पहानत्थ "न्ति एतेन योजना । परतो तेसं तत्थाति एत्थापि एसेव नयो । पञ्च कामगुणा सविसेसा काये लब्भन्तीति विसेसेन कायो कामोघस्स वत्थु, भवेसु सुखग्गहणवसेन भवस्सादो होतीति भवोघस्स वेदना वत्थु, सन्ततिघनग्गहणवसेन विसेसतो चित्ते अत्ताभिनिवेसो होतीति दिट्ठोघस्स चित्तं वत्थु, धम्मेसु विनिब्भोगस्स दुक्करत्ता, धम्मानं धम्ममत्तताय दुप्पटिविज्झत्ता च सम्मोही होतीति अविज्जोघस्स धम्मा वत्थु तस्मा तेसु तेसं पहानत्थं चत्तारोव वृत्ता । ( ९.३७३ - ३७३) एवं कायादीनं कामोघादिवत्थुभावकथनेनेव कामयोगकामासवादीनम्पि वत्थुभावो दीपितो होति ओघेहि तेसं अत्थतो अनञ्ञत्ता । यदग्गेन च कायो कामोघादीनं वत्थु, तदग्गेन अभिज्झाकायगन्थस्स वत्थु । “दुक्खाय वेदनाय पटिघानुसयो अनुसेती”ति दुक्खदुक्खविपरिणामदुक्खसारदुक्खभूता वेदना विसेसेन ब्यापादकायगन्थस्स वत्थु | चित्ते निच्चग्गहणवसेन सस्सतस्स अत्तनो सीलेन सुद्धीति आदि परामसनं होतीति सीलब्बतपरामासस्स चित्तं वत्थु । नामरूपपरिच्छेदेन भूतं भूततो अपस्सन्तस्स भवविभवदिट्ठिसङ्घातो इदंसच्चाभिनिवेसो होतीति तस्स धम्मा वत्थु । कायस्स कामुपादानवत्थुता वुत्तनयाव । यदग्गेन हि कायो कामोघस्स वत्थु तदग्गेन कामुपादानस्सपि वत्थु अत्थतो अभिन्नत्ता | सुखवेदनस्सादवसेन परलोकनिरपेक्खो “नत्थि दिन्न "न्तिआदिकं ( दी० नि० १.१७१; म० नि० १.४४५; २.९५, २२५; ३.९१, ११६; सं० नि० २.३.२१०; ध० स० १२२१; विभं० ९३८) परामासं उप्पादेतीति दिट्टुपादानस्स वेदना वत्थु | चित्तधम्मानं इतरुपादानवत्थुता ततियचतुत्थगन्थयोजनायं वृत्तनया एव । कायवेदनानं छन्ददोसागतिवत्थुता कामोघब्यापादकायगन्थयोजनायं वृत्तनया एव । सन्ततिघनग्गहणवसेन सरागादिचित्ते सम्मोहो होतीति मोहागतिया चित्तं वत्थु | धम्मसभावानवबोधे भयं होतीति भयागतिया धम्मा वत्थु । 268 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २६९ आहारसमुदया कायस्स समुदया, फस्ससमुदया वेदनानं समुदयो, (सं० नि० ३.५.४०८) सङ्खारपच्चया विआणं, विज्ञाणपच्चया नामरूपन्ति (म० नि० ३.१२६; उदा० १; विभं० २२५) वचनतो कायादीनं समुदयभूता कबळीकारफस्समनोसञ्चेतनाविज्ञाणाहारा कायादिपरिजाननेन परिञाता होन्तीति आह "चतुब्बिधाहारपरिञत्थ"न्ति । पकरणनयोति नेत्तिपकरणवसेन सुत्तन्तसंवण्णनानयो । सरणवसेनाति कायादीनं, कुसलादिधम्मानञ्च उपधारणवसेन । सरन्ति गच्छन्ति निब्बानं एतायाति सतीति इमस्मिं अत्थे एकत्ते एकसभावे निब्बाने समोसरणं समागमो एकत्तसमोसरणं। एतदेव हि दस्सेतुं “यथा ही"तिआदि वुत्तं । एकनिब्बानपवेसहेतुभूतो वा समानताय एको सतिपट्टानसभावो एकत्तं, तत्थ समोसरणं एकत्तसमोसरणं, तंसभागताव, एकनिब्बानपवेसहेतुभावं पन दस्सेतुं "यथा"तिआदिमाह । एतस्मिं अत्थे सरणेकत्तसमोसरणानि सहेव सतिपट्ठानेकभावस्स कारणत्तेन वुत्तानीति दट्टब्बानि, पुरिमस्मिं विसुं। सरणवसेनाति वा गमनवसेनाति अत्थे सति तदेव गमनं समोसरणन्ति, समोसरणे वा सति-सद्दत्थवसेन अवुच्चमाने धारणताव सतीति सति-सद्दत्थन्तराभावा पुरिमं सतिभावस्स कारणं, पच्छिमं एकभावस्साति निब्बानसमोसरणेपि सहितानेव तानि सतिपट्ठानेकभावस्स कारणानि वुत्तानि होन्ति । __ "चुद्दसविधेन, नवविधेन, सोळसविधेन, पञ्चविधेना''ति इदं उपरि पाळियं (दी० नि० २.३७४) आगतानं आनापानपब्बादीनं वसेन वुत्तं, तेसं पन अनन्तरभेदवसेन, तदनुगतभेदवसेन च भावनाय अनेकविधता लब्भतियेव, चतूसु दिसासु उट्ठानकभण्डसदिसता कायानुपस्सनादितंतंसतिपट्ठानभावनानुभावस्स दट्टब्बा। कथेतुकम्यतापुच्छा इतरासं पुच्छानं इध असम्भवतो, निद्देसादिवसेन देसेतुकम्यताय च तथा वुत्तत्ता । "इधा"ति वुच्चमानपटिपत्तिसम्पादकस्स भिक्खुनो सन्निस्सयदस्सनं, सो चस्स सन्निस्सयो सासनतो अञो नत्थीति वुत्तं "इधाति इमस्मिं सासने"ति । धम्म...पे०... लपनमेतं तेसं अत्तनो सम्मुखाभिमुखभावकरणत्थं, तञ्च धम्मस्स सक्कच्चसवनत्थं । “गोचरे भिक्खवे चरथ सके पेत्तिके विसये''तिआदि (दी० नि० ३.८०; सं० नि० ३.५.३७२) वचनतो भिक्खुगोचरा एते धम्मा, यदिदं कायानुपस्सनादयो। तत्थ यस्मा कायानुपस्सनादिपटिपत्तिया भिक्खु होति, तस्मा 269 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका “कायानुपस्सी विहरती 'तिआदिना भिक्खुं दस्सेति भिक्खुम्हि तंनियमतो आह “पटिपत्तिया भिक्खुभावदस्सनतो 'ति । सत्थुचरियानुविधायकत्ता सकलसासनसम्पटिग्गाहकत्ता च सब्बप्पकाराय अनुसासनिया भाजनभावो । तस्मिं गहितेति भिक्खुम्हि गहिते । भिक्खुपरिसाय जेट्टभावतो राजगमनञायेन इतरा परिसापि अत्थतो गहिताव होत आह " सेसा " तिआदि एवं पठमं कारणं विभजित्वा इतरम्पि विभजितुं “यो च इमन्तिआदि वृत्तं । २७० समं चरेय्याति कायादि विसमचरियं पहाय कायादीहि समं चरेय्य । रागादिवूपसमेन सन्तो, इन्द्रियदमेन दन्तो, चतुमग्गनियामेन नियतो, सेट्ठचरिताय ब्रह्मचारी, सब्बत्थ कायदण्डादिओरोपनेन निधाय दण्डं । अरियभावे ठितो सो एवरूपो बाहितपापसमितपापभिन्नकिलेसताहि "ब्राह्मणो, समणो, भिक्खू'" ति च वेदितब्बो । " अयञ्चैव कायो, बहिद्धा च नामरूप ' ' न्तिआदीसु खन्धपञ्चकं, तथा “सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेती "तिआदीसु (म० नि० १.२७१, २८७ पारा० ११), "या तस्मिं समये कायस्स पस्सद्धि पटिप्परसद्धी 'तिआदीसु च वेदनादयो चेतसिका खन्धा काय वुच्चन्तीति ततो विसेसनत्थं “कायेति रूपकाये" ति आह । केसादीनञ्च धम्मानन्ति केसादिसञ्ञितानं भूतुपादाधम्मानं । एवं “चट्ठो सरीरट्ठो कायट्ठोति सद्दनयेन काय - सद्द दस्सेत्वा इदानि निरुत्तिनयेनपि तं दस्सेतुं " यथा चा "तिआदि वृत्तं । आयन्तीति उप्पज्जन्ति । (९.३७३-३७३) सिता, एत्थ टिबद्धा काये असम्मिस्सतोति वेदनादयोपि एत्थ वेदनादिअनुपस्सनापसङ्गेपि आपन्ने ततो असम्मिस्सतोति अत्थो । समूहविसयताय च काय - सद्दस्स, समुदायुपादानताय च असुभाकारस्स “काये "ति एकवचनं, तथा आरम्मणादिविभागेन अनेकभेदभिन्नम्पि चित्तं चित्तभावसामञ्जेन एकज्झं गहेत्वा “चित्ते”ति एकवचनं, वेदना पन सुखादिभेदभिन्ना विसुं विसुं अनुपस्सितब्बाति दस्सेन्तेन " वेदनासू "ति बहुवचनेन वुत्ता, तथेव च निद्देसो पवत्तितो, धम्मा च परोपण्णासभेदा, अनुपस्सितब्बाकारेन च अनेकभेदा एवाति तेपि बहुवचनवसेनेव वुत्ता। अवयवीगाहसमञ्ञतिधावनसारादानाभिनिवेसनिसेधनत्थं कार्य अङ्गपच्चङ्गेहि, तानि च केसादीहि, केसादिके च भूतुपादायरूपेहि विनिब्भुञ्जन्तो “ तथा न काये 'तिआदिमाह । 270 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २७१ पासादादिनगरावयवसमूहे अवयवीवादिनोपि अवयवीगाहं न करोन्ति, “नगरं नाम कोचि अत्थो अत्थी'"ति पन केसञ्चि समझातिधावनं सियाति इत्थिपुरिसादिसमझातिधावने नगरनिदस्सनं वुत्तं । अङ्गपच्चङ्गसमूहो, केसलोमादिसमूहो, भूतुपादायसमूहो च यथावुत्तसमूहो, तब्बिनिमुत्तो कायोपि नाम कोचि नत्थि, पगेव इत्थिआदयोति आह "कायो वा इत्थी वा पुरिसो वा अञो वा कोचि धम्मो दिस्सती"ति । “कोचि धम्मो"ति इमिना सत्तजीवादिं पटिक्खिपति, अवयवी पन कायपटिक्खेपेनेव पटिक्खित्तोति । यदि एवं कथं कायादिसमजातिधावनानीति आह “यथावुत्तधम्म...पे०... करोन्ती"ति । तथा तथाति कायादिआकारेन । यं पस्सतीति यं इत्थिं, पुरिसं वा पस्सति । ननु चक्खुना इत्थिपुरिसदस्सनं नत्थीति ? सच्चमेतं, “इत्थिं पस्सामि, पुरिसं पस्सामी''ति पन पवत्तसाय वसेन “यं पस्सती''ति वुत्तं मिच्छादस्सनेन वा दिट्ठिया यं पस्सति, न तं दिटुं तं रूपायतनं न होतीति अत्थो विपरीतग्गाहवसेन मिच्छापरिकप्पितरूपत्ता । अथ वा तं केसादिभूतुपादायसमूहसङ्खातं दिद्वं न होति, अचक्खुविञाणविजेय्यत्ता दिटुं वा तं न होति । यं दिटुं, तं न पस्सतीति यं रूपायतनं केसादिभूतुपादायसमूहसङ्घातं दिटुं, तं पञाचक्खुना भूततो न पस्सतीति अत्थो । अपस्सं बज्झतेति इमं अत्तभावं यथाभूतं पञाचक्खुना अपस्सन्तो “एतं मम, एसो हमस्मि, एसो मे अत्ता"ति किलेसबन्धनेन बज्झति । न अञधम्मानुपस्सीति न अञसभावानुपस्सी, असुभादितो अज्ञाकारानुपस्सी न होतीति अत्थो। "किं वुत्तं होती"तिआदिना तं एवत्थं पाकटं करोति । पथवीकायन्ति केसादिकोट्ठासं पथविं धम्मसमूहत्ता “कायो"ति वदति, लक्खणपथविमेव वा अनेकप्पभेदं सकलसरीरगतं, पुब्बापरियभावेन च पवत्तमानं समूहवसेन गहेत्वा “कायो''ति वदति । “आपोकाय"न्तिआदीसुपि एसेव नयो । एवं गहेतब्बस्साति “अहं मम"न्ति एवं अत्तत्तनियभावेन अन्धबालेहि गहेतब्बस्स | इदानि सत्तन्नं अनुपस्सनाकारानम्पि वसेन कायानुपस्सनं दस्सेतुं “अपिचा"तिआदि आरद्धं । तत्थ अनिच्चतो अनुपस्सतीति चतुसमुट्ठानिकं कायं “अनिच्च"न्ति अनुपस्सति, एवं पस्सन्तो एवञ्चस्स अनिच्चाकारम्पि “अनुपस्सती"ति वुच्चति । तथाभूतस्स चस्स निच्चग्गाहस्स लेसोपि न होतीति वुत्तं "नो निच्चतो"ति । तथा हेस “निच्चसझं 271 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७३-३७३) पजहती"ति (पटि० म० ३.३५) वुत्तो। एत्थ च “अनिच्चतो एव अनुपस्सती''ति एव-कारो लुत्तनिद्दिट्ठोति तेन निवत्तितमत्थं दस्सेतुं “नो निच्चतो"ति वुत्तं । न चेत्थ दुक्खतो अनुपस्सनादिनिवत्तनं आसङ्कितब्बं पटियोगीनिवत्तनपरत्ता एव-कारस्स, उपरि देसनारुळहत्ता च तासं । “दुक्खतो अनुपस्सती"तिआदीसुपि एसेव नयो। अयं पन विसेसो - अनिच्चस्स दुक्खत्ता तमेव च कायं दुक्खतो अनुपस्सति, दुक्खस्स अनत्तत्ता अनत्ततो अनुपस्सति । यस्मा पन यं अनिच्चं दुक्खं अनत्ता, न तं अभिनन्दितब्बं, यञ्च न अभिनन्दितब्बं, न तत्थ रजितब्बं, तस्मा वुत्तं "निबिन्दति, नो नन्दति। विरज्जति, नो रज्जती"ति | सो एवं अरज्जन्तो रागं निरोधेति, नो समुदेति समुदयं न करोतीति अत्थो । एवं पटिपन्नो च पटिनिस्सज्जति, नो आदियति। अयहि अनिच्चादिअनुपस्सना तदङ्गवसेन सद्धिं कायं तन्निस्सयखन्धाभिसङ्घारेहि किलेसानं परिच्चजनतो, सङ्घतदोसदस्सनेन तब्बिपरीते निब्बाने तन्निन्नताय पक्खन्दनतो “परिच्चागपटिनिस्सग्गो चेव पक्खन्दनपटिनिस्सग्गो चा''ति वुच्चति, तस्मा ताय समन्नागतो भिक्खु वुत्तनयेन किलेसे परिच्चजति, निब्बाने च पक्खन्दति, तथाभूतो च निब्बत्तनवसेन किलेसे न आदियति, नापि अदोसदस्सितावसेन सङ्घतारम्मणं, तेन वुत्तं “पटिनिस्सज्जति, नो आदिंयतीति | इदानिस्स ताहि अनुपस्सनाहि येसं धम्मानं पहानं होति, तं दस्सेतुं “अनिच्चतो अनुपस्सन्तो निच्चसञ्ज पजहती"तिआदि वुत्तं । तत्थ निच्चसञ्जन्ति “सङ्खारा निच्चा"ति एवं पवत्तं विपरीतसझं। दिट्ठिचित्तविपल्लासप्पहानमुखेनेव सभाविपल्लासप्पहानन्ति साग्गहणं, सासीसेन वा तेसम्पि गहणं दट्ठब्बं । नन्दिन्ति सप्पीतिकतण्हं। सेसं वुत्तनयमेव । "विहरती"ति इमिना कायानुपस्सनासमङ्गिनो इरियापथविहारो वुत्तोति आह "इरियती"ति, इरियापथं पवत्तेतीति अत्थो। आरम्मणकरणवसेन अभिब्यापनतो "तीसु भवेसू"ति वुत्तं, उप्पज्जनवसेन पन किलेसा परित्तभूमका एवाति । यदिपि किलेसानं पहानं आतापनन्ति तं सम्मादिट्ठिआदीनम्पि अत्थेव, आतप्प-सद्दो विय पन आतापसद्दो वीरियेयेव निरुळ्होति वुत्तं “वीरियस्सेतं नाम"न्ति । अथ वा पटिपक्खप्पहाने सम्पयुत्तधम्मानं अब्भुस्सहनवसेन पवत्तमानस्स वीरियस्स सातिसयं तदातापनन्ति वीरियमेव तथा वुच्चति, न अञ्चे धम्मा। आतापीति चायमीकारो पसंसाय, अतिसयस्स वा दीपकोति आतापीगहणेन सम्मप्पधानसमङ्गितं दस्सेति । सम्मा, समन्ततो, सामञ्च पजानन्तो सम्पजानो, असम्मिस्सतो ववत्थाने अञधम्मानुपस्सिताभावेन सम्मा अविपरीतं, सब्बाकारपजाननेन समन्ततो, उपरूपरि विसेसावहभावेन पवत्तिया सामं पजानन्तोति 272 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २७३ अत्थो। यदि पञ्जाय अनुपस्सति, कथं सतिपट्ठानताति आह "न ही"तिआदि । सब्बत्थिकन्ति सब्बत्थ भवं सब्बत्थ लीने, उद्धते च चित्ते इच्छितब्बत्ता । सब्बे वा लीने, उद्धते च भावेतब्बा बोज्झङ्गा अत्थिका एतायाति सब्बत्थिका। सतिया लद्धपकाराय एव पञाय एत्थ यथावुत्ते काये कम्मट्ठानिको भिक्खु कायानुपस्सी विहरति। अन्तो सोपो अन्तोओलीयनो, कोसज्जन्ति अत्थो । उपायपरिग्गहेति एत्थ सीलविसोधनादि, गणनादि, उग्गहकोसल्लादि च उपायो, तब्बिपरियायतो अनुपायो वेदितब्बो। यस्मा च उपट्ठितस्सति यथावुत्तं उपायं न परिच्चजति, अनुपायञ्च न उपादियति, तस्मा वुत्तं "मुट्ठस्सती...पे०... असमत्थो होती"ति । तेनाति उपायानुपायानं परिग्गहपरिवज्जनेसु, परिच्चागापरिग्गहेसु च असमत्थभावेन । अस्स योगिनो । यस्मा सतियेवेत्थ सतिपट्टानं वुत्तं, तस्मास्स सम्पयुत्तधम्मा वीरियादयो अङ्गन्ति आह "सम्पयोगङ्गञ्चस्स दस्सेत्वा"ति । अङ्ग-सद्दो चेत्थ कारणपरियायो दट्ठब्बो। सतिग्गहणेनेव चेत्थ समाधिस्सापि गहणं दट्ठब्बं तस्सा समाधिखन्धे सङ्गहितत्ता । यस्मा वा सतिसीसेनायं देसना। न हि केवलाय सतिया किलेसप्पहानं सम्भवति, निब्बानाधिगमो वा, नापि केवला सति पवत्तति, तस्मास्स झानदेसनायं सवितक्कादिवचनस्स विय सम्पयोगङ्गदस्सनताति अङ्ग-सद्दस्स अवयवपरियायता दट्ठब्बा। पहानङ्गन्ति “विविच्चेव कामेही"तिआदीसु (दी० नि० १.२२६; म० नि० १.२७१, २८७, २९७; सं० नि० १.२.१५२; अ० नि० १.४.१२३; पारा० ११) विय पहातब्बङ्गं दस्सेतुं। यस्मा एत्थ लोकियमग्गो अधिप्पेतो, न लोकुत्तरमग्गो, तस्मा पुब्बभागियमेव विनयं दस्सेन्तो "तदङ्गविनयेन वा विक्खम्भनविनयेन वा"ति आह । तेसं धम्मानन्ति वेदनादिधम्मानं । तेसहि तत्थ अनधिप्पेतत्ता “अत्थुद्धारनयेनेतं वुत्त"न्ति वुत्तं । तत्थाति विभङ्गे। एत्थाति "लोके"ति एतस्मिं पदे । __ अविसेसेन द्वीहिपि नीवरणप्पहानं वुत्तन्ति कत्वा पुन एकेकेन वुत्तं पहानविसेसं दस्सेतुं "विसेसेना"ति आह। अथ वा “विनेय्य नीवरणानीति अवत्वा अभिज्झादोमनस्सविनयवचनस्स पयोजनं दस्सेन्तो "विसेसेना"तिआदिमाह | कायानुपस्सनाभावनाय हि उजुविपच्चनीकानं अनुरोधविरोधादीनं पहानदस्सनं एतस्स पयोजनन्ति । कायसम्पत्तिमूलकस्साति रूपबलयोब्बनारोग्यादिसरीरसम्पदानिमित्तस्स । वुत्तविपरियायतो कायविपत्तिमूलको विरोधो वेदितब्बो। कायभावनायाति कायानुपस्सनाभावनाय । सा हि इध कायभावनाति अधिप्पेता। सुभसुखभावादीनन्ति 273 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ दीघनिकाये महावग्गटीका आदि-सद्देन मनुञ्ञनिच्चतादिसङ्गहो दट्ठब्बो । असुभासुखभावादीनन्ति एत्थ पन आदि - सद्देन अमनुञ्ञअनिच्चतादीनं । तेनाति अनुरोधादिप्पहानवचनेन । “योगानुभावो ही "तिआदि वुत्तस्सेवत्थस्स पाकटकरणं । योगानुभावो हि भावनानुभावो । योगसमत्थोति योगमनुयुञ्जतुं समत्थो । पुरिमेन हि “अनुरोधविरोधविप्पमुत्तो’तिआदिवचनेन भावनं अनुयुत्तस्स आनिसंसो वुत्तो, दुतियेन भावनं अनुयुञ्जन्तस्स पटिपत्ति । न हि अनुरोधविरोधादीहि उपहुतस्स भावना इज्झति । अनुपस्सीति एत्थाति “अनुपस्सी" ति एतस्मिं पदे लब्भमानाय अनुपस्सनाय अनुपस्सनाजोतनाय कम्मट्ठानं वुत्तन्ति एवमत्थो दट्ठब्बो, अञ्ञथा “अनुपस्सनाया 'ति करणवचनं न युज्जेय्य | अनुपस्सना एव हि कम्मट्ठानं, न एत्थ आरम्मणं अधिप्पेतं, युज्जति वा । कायपरिहरणं वुत्तन्ति सम्बन्धो । कम्मट्ठानपरिहरणस्स चेत्थ अत्थसिद्धत्ता " कायपरिहरण " त्वेव वृत्तं । कम्मट्ठानिकस्स हि कायपरिहरणं यावदेव कम्मट्ठानं परिहरणत्थन्ति । कम्मट्ठानपरिहरणस्स वा 'आतापी' तिआदिना (दी० नि० २.३७३) वुच्चमानत्ता " कायपरिहरण " त्वेव वृत्तं । कायग्गहणेन वा नामकायस्सापि गहणं, न रूपकायस्सेव, तेनेव कम्मट्ठानपरिहरणम्पि सङ्ग्रहितं होति एवञ्च कत्वा "विहरतीति एत्थ वृत्तविहारेना "ति एत्थग्गहणञ्च समत्थितं होति “कायानुपस्सी विहरती 'ति विहारस्स विसेसेत्वा वृत्तत्ता । “आतापी' 'तिआदि पन सङ्क्षेपतो वुत्तस्स कम्मट्ठानपरिहरणस्स सह साधनेन वित्थारेत्वा दस्सनं । आतापेनाति आतापग्गहणेन । “सतिसम्पजञेना 'तिआदी सुपि एसेव नयो । सब्बत्थककम्मट्ठानन्ति बुद्धानुस्सति, मेत्ता, मरणस्सति, असुभभावना च । इदहि चतुक्कं योगिना परिहरियमानं “ सब्बत्थककम्मट्ठान "न्ति वुच्चति, सब्बत्थ कम्मट्ठानानुयोगस्सारक्खभूतत्ता सतिसम्पजञ्ञबलेन अविच्छिन्नस्स परिहरितब्बत्ता सतिसम्पञ्जञग्गहणेन तस्स वृत्तता वृत्ता । सतिया वा समथो वुत्तो तस्सा समाधिक्खन्धेन सङ्ग्रहितत्ता । 66 (९.३७३-३७३) विभङ्गे (विभं० कायानुपस्सनानिद्देसे) पन अत्थो वृत्तोति योजना । तेनाति सद्दत्थं अनादियित्वा भावत्थस्सेव विभजनवसेन पवत्तेन विभङ्गपाठेन सह । अट्ठकथानयोति सद्दत्थस्सापि विवरणवसेन यथारहं वुत्तो अत्थसंवण्णनानयो । यथा संसन्दतीति यथा अत्थतो, अधिप्पायतो च अविलोमेन्तो अञ्ञदत्थु संसन्दति समेति, एवं वेदितब्बो । वेदनादीनं पुन वचनेति एत्थ निस्सयपच्चयभाववसेन चित्तधम्मानं वेदनासन्निस्सितत्ता, 274 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७३-३७३) उद्देसवारकथावण्णना २७५ पञ्चवोकारभवे अरूपधम्मानं रूपपटिबद्धवुत्तितो च वेदनाय कायादिअनुपस्सनाप्पसङ्गेपि आपन्ने ततो असम्मिस्सतो ववत्थानं दस्सनत्थं, घनविनिब्भोगादिदस्सनत्थञ्च दुतियं वेदनाग्गहणं, तेन न वेदनायं कायानुपस्सी, चित्तधम्मानुपस्सी वा, अथ खो वेदनानुपस्सी एवाति वेदनासङ्खाते वत्थुस्मिं वेदनानुपस्सनाकारस्सेव दस्सनेन असम्मिस्सतो ववत्थानं दस्सितं होति । तथा “यस्मिं समये सुखा वेदना, न तस्मिं समये दुक्खा, अदुक्खमसुखा वा वेदना, यस्मिं वा पन समये दुक्खा, अदुक्खमसुखा वा वेदना, न तस्मिं समये इतरा वेदना"ति वेदनाभावसामओ अवत्वा तं तं वेदनं विनिब्भुज्जित्वा दस्सनेन घनविनिब्भोगो धुवभावविवेको दस्सितो होति, तेन तासं खणमत्तावट्ठानदस्सनेन अनिच्चताय, ततो एव दुक्खताय, अनत्तताय च दस्सनं विभावितं होति । घनविनिब्भोगादीति आदि-सद्देन अयम्पि अत्थो वेदितब्बो । अयहि वेदनायं वेदनानुपस्सी एव, न अञधम्मानुपस्सी । किं वुत्तं होति- यथा नाम बालो अमणिसभावेपि उदकपुब्बुळके मणिआकारानुपस्सी होति, न एवं अयं ठितिरमणीयेपि वेदयिते, पगेव इतरस्मिं मनुञाकारानुपस्सी, अथ खो खणपभङ्गुरताय, अवसवत्तिताय किलेसासुचिपग्घरणताय च अनिच्चअनत्तअसुभाकारानुपस्सी, विपरिणामदुक्खताय, सङ्खारदुक्खताय च विसेसतो दुक्खानुपस्सी येवाति । एवं चित्त धम्मेसुपि यथारहं पुनवचने पयोजनं वत्तब्बं । लोकिया एव सम्मसनचारस्स अधिप्पेतत्ता । "केवलं पनिधा"तिआदिना "इध एत्तकं वेदितब्बन्ति वेदितब्बपरिच्छेदं दस्सेति । “एस नयो"ति इमिना यथा चित्तं, धम्मा च अनुपस्सितब्बा, तथा तानि अनुपस्सन्तो चित्ते चित्तानुपस्सी, धम्मेसु धम्मानुपस्सीति वेदितब्बोति इममत्थं अतिदिसति । दुक्खतोति दुक्खसभावतो, दुक्खन्ति अनुपस्सितब्बाति अत्थो । सेसपदद्वयेपि एसेव नयो । यो सुखं दुक्खतो अद्दाति यो भिक्खु सुखं वेदनं विपरिणामदुक्खताय “दुक्खा'ति पञाचक्खुना अद्दक्खि । दुक्खं अद्दक्खि सल्लतोति दुक्खं वेदनं पीळाजननतो, अन्तोतुदनतो, दुन्नीहरणतो च सल्लतो अद्दक्खि पस्सि । अदुक्खमसुखन्ति उपेक्खावेदनं । सन्तन्ति सुखदुक्खानि विय अनोळारिकताय, पच्चयवसेन वूपसन्तसभावताय च सन्तं । अनिच्चतोति हुत्वाअभावतो, उदयवयवन्ततो, तावकालिकतो, निच्चपटिपक्खतो च “अनिच्च"न्ति यो अद्दक्खि । स वे सम्म।सो भिक्खु एकंसेन, परिब्यत्तं वा वेदनाय सम्मापस्सनकोति अत्थो । दुक्खातिपीति सङ्खारदुक्खताय दुक्खा इतिपि । तं दुक्खस्मिन्ति सब्बं तं वेदयितं 275 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७३-३७३) दुक्खस्मिं अन्तोगधं परियापन्नं वदामि सङ्खारदुक्खतानतिवत्तनतो। सुखदुक्खतोपि चाति सुखादीनं ठितिविपरिणामञाणसुखताय, विपरिणामठितिअजाणदुक्खताय च वुत्तत्ता तिस्सोपि च सुखतो, तिस्सोपि च दुक्खतो अनुपस्सितब्बाति अत्थो । सत्त अनुपस्सना हेट्ठा पकासिता एव। सेसन्ति यथावुत्तं सुखादिविभागतो सेसं सामिसनिरामिसादिभेदं वेदनानुपस्सनायं वत्तब्बं । आरम्मण...पे०... भेदानन्ति रूपादिआरम्मणनानत्तस्स नीलादितब्भेदस्स, छन्दादिअधिपतिनानत्तस्स हीनादितब्भेदस्स, आणझानादिसहजातनानत्तस्स ससङ्खारिकासङ्घारिकसवितक्कादितब्भेदस्स, कामावचरादिभूमिनानत्तस्स उक्कट्ठमज्झिमादितब्भेदस्स, कुसलादिकम्मनानत्तस्स देवगतिसंवत्तनियतादितब्भेदस्स, कण्हसुक्कविपाकनानत्तस्स दिट्ठधम्मवेदनीयतादितब्भेदस्स, परित्तभूमकादिकिरियानानत्तस्स तिहेतुकादितब्भेदस्स वसेन अनुपस्सितब्बन्ति योजना। आदि-सद्देन सवत्थुकावत्थुकादिनानत्तस्स पुग्गलत्तयसाधारणादितब्भेदस्स च सङ्गहो दट्टब्बो। सलक्खणसामञलक्खणानन्ति फुसनादितंतंलक्खणानञ्चेव अनिच्चतादिसामञलक्खणानञ्च वसेनाति योजना। सुञतधम्मस्साति अनत्ततासङ्घातसुञतासभावस्स | यं विभावेतुं अभिधम्मे "तस्मिं खो पन समये धम्मा होन्ति, खन्धा होन्ती"तिआदिना (ध० स० १२१) सुञतावारदेसना पवत्ता, तं पहीनमेव पुब्बे पहीनत्ता, तस्मा तस्स तस्स पुन पहानं न वत्तब्बं । न हि किलेसा पहीयमाना आरम्मणविभागेन पहीयन्ति अनागतानंयेव उप्पज्जनारहानं पहातब्बत्ता, तस्मा अभिज्झादीनं एकत्थ पहानं वत्वा इतरत्थ न वत्तब्बं एवाति इममत्थं दस्सेति "कामञ्चेत्था"तिआदिना । अथ वा मग्गचित्तक्खणे एकत्थ पहीनं सब्बत्थ पहीनमेव होतीति विसुं विसुं पहानं न वत्तब्बं । मग्गेन हि पहीनाति वत्तब्बतं अरहन्ति । तत्थ पुरिमाय चोदनाय नानापुग्गलपरिहारो, न हि एकस्स पहीनं ततो अञस्स पहीनं नाम होति । पच्छिमाय नानाचित्तक्खणिकपरिहारो। नानाचित्तक्खणेति हि लोकियमग्गचित्तक्खणेति अधिप्पायो । पुब्बभागमग्गो हि इधाधिप्पेतो । लोकियभावनाय च काये पहीनं न वेदनादीसु विक्खम्भितं होति । यदिपि नप्पवत्तेय्य, पटिपक्खभावनाय सुप्पहीनत्ता तत्थ सा “अभिज्झादोमनस्सस्स अप्पवत्ती"ति न वत्तब्बा, तस्मा पुनपि तप्पहानं वत्तब्बमेव । एकत्थ पहीनं सेसेसुपि पहीनं होतीति लोकुत्तरसतिपट्ठानभावनं, लोकियभावनाय वा सब्बत्थ अप्पवत्तिमत्तं सन्धाय वुत्तं । “पञ्चपि खन्धा उपादानक्खन्धा लोको"ति (विभं० ३६२, ३६४, ३६६) हि विभङ्गे चतूसुपि ठानेसु वुत्तन्ति । उद्देसवारवण्णनाय लीनत्थप्पकासना । 276 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७४-३७४) कायानुपस्सना २७७ कायानुपस्सना आनापानपब्बवण्णना ३७४. आरम्मणवसेनाति अनुपस्सितब्बकायादिआरम्मणवसेन । चतुधा भिन्दित्वाति उद्देसवसेन चतुधा भिन्दित्वा । ततो चतुब्बिधसतिपट्ठानतो एकेकं सतिपट्टानं गहेत्वा कायं विभजन्तोति पाठसेसो। कथञ्चाति एथ कथन्ति पकारपुच्छा, तेन निद्दिसियमाने कायानुपस्सनापकारे पुच्छति । च-सद्दो ब्यतिरेको, तेन उद्देसवारेन अपाकटं निद्देसवारेन विभावियमानं विसेसं जोतेति। बाहिरकेसुपि इतो एकदेसस्स सम्भवतो सब्बप्पकारग्गहणं कतं "सब्बप्पकारकायानुपस्सनानिब्बत्तकस्सा'ति, तेन ये इमे आनापानपब्बादिवसेन आगता चुद्दसप्पकारा, तदन्तोगधा च अज्झत्तादिअनुपस्सनाप्पकारा, तथा कायगतासतिसुत्ते (म० नि० ३.१५३) वुत्ता केसादिवण्णसण्ठानकसिणारम्मणचतुक्कज्झानप्पकारा, लोकियादिप्पकारा च, ते सब्बेपि अनवसेसतो सङ्गण्हाति । इमे च पकारा इमस्मिंयेव सासने, न इतो बहिद्धाति वुत्तं "सब्बप्पकार...पे०... पटिसेधनो चा"ति । तत्थ तथाभावपटिसेधनोति सब्बप्पकारकायानुपस्सनानिब्बत्तकस्स पुग्गलस्स अञसासनस्स निस्सयभावपटिसेधनो, एतेन इध भिक्खवेति एत्थ इध-सद्दी अन्तोगधएवसदत्योति दस्सेति । सन्ति हि एकपदानिपि अवधारणानि यथा “वायुभक्खो''ति । तेनाह "इधेव भिक्खवे समणो"तिआदि। परिपुण्णसमणप्पकरणधम्मो हि सो पुग्गलो, यो सब्बप्पकारकायानुपस्सनानिब्बत्तको । परप्पवादाति परेसं अञतित्थियानं नानप्पकारा वादा तित्थायतनानि । अरञादिकस्सेव भावनानुरूपसेनासनतं दस्सेतुं "इमस्सही"तिआदि वुत्तं । दुद्दमो दमथं अनुपगतो गोणो कूटगोणो। दोहनकाले यथा थनेहि अनवसेसतो खीरं न पग्घरति, एवं दोहपटिबन्धिनी कूटधेनु। रूप-सद्दादिके पटिच्च उप्पज्जनकअस्सादो रूपारम्मणादिरसो। पुब्बे आचिण्णारम्मणन्ति पब्बज्जतो पुब्बे, अनादिमति वा संसारे परिचितारम्मणं । निबन्धेय्याति बन्धेय्य । सतियाति सम्मदेव कम्मट्ठानस्स सल्लंक्खणवसेन पवत्ताय सतिया । आरम्मणेति कम्मट्ठानारम्मणे । दल्हन्ति थिरं, यथा सतोकारिस्स उपचारप्पनाभेदो समाधि इज्झति, तथा थामगतं कत्वाति अत्थो । 277 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७४-३७४) विसेसाधिगमदिट्ठधम्मसुखविहारपट्ठानन्ति सब्बेसं बुद्धानं, एकच्चानं पच्चेकबुद्धानं, बुद्धसावकानञ्च विसेसाधिगमस्स अगेन कम्मट्ठानेन अधिगतविसेसानं दिठ्ठधम्मसुखविहारस्स पदट्ठानभूतं । वत्थुविज्जाचरियो विय भगवा योगीनं अनुरूपनिवासट्ठानुपदिसनतो। भिक्खु दीपिसदिसो अरछे एकको विहरित्वा पटिपक्खनिम्मथनवसेन इच्छितत्थसाधनतो फलमुत्तमन्ति सामञफलं सन्धाय वदति । परक्कमजवयोग्गभूमिन्ति भावनुस्साहजवस्स योग्गकरणभूमिभूतं । अद्धानवसेन पवत्तानं अस्सासपस्सासानं वसेन दीर्घ वा अस्ससन्तो, इत्तरवसेन पवत्तानं अस्सासपस्सासानं वसेन रस्सं वा अस्ससन्तोति योजना । एवं सिक्खतोति अस्सासपस्सासानं दीघरस्सतापजाननसब्बकायप्पटिसंवेदनओळारिकोळारिकपटिप्पस्सम्भनवसेन भावनं सिक्खतो, तथाभूतो वा हुत्वा तिस्सो सिक्खा पवत्तयतो। अस्सासपस्सासनिमित्तेति अस्सासपस्साससन्निस्सयेन उपट्टितपटिभागनिमित्ते । अस्सासपस्सासे परिग्गण्हाति रूपमुखेन विपस्सनं अभिनिविसन्ती, यो “अस्सासपस्सासकम्मिको'"ति वुत्तो । झानङ्गानि परिग्गण्हाति अरूपमुखेन विपस्सनं अभिनिविसन्तो। वत्थु नाम करजकायो चित्तचेतसिकानं पवत्तिहानभावतो । अञ्जो सत्तो वा पुग्गलो वा नत्थीति विसुद्धिदिट्ठि “तयिदं धम्ममत्तं, न अहेतुकं, नापि इस्सरादिविसमहेतुकं, अथ खो अविज्जादिहेतुक"न्ति अद्धात्तयेपि कङ्घावितरणेन वितिण्णकङ्घो। “यं किञ्चि भिक्खु रूप''न्तिआदिना (म० नि० १.३६१; २.११३; ३.८६, ८९; पटि० म० १.५४) नयेन कलापसम्मसनवसेन तिलक्खणं आरोपेत्वा। उदयवयानुपस्सनादिवसेन विपस्सनं वड्डेन्तो। अनुक्कमेन मग्गपटिपाटिया | "परस्स वा अस्सासपस्सासकाये"ति इदं सम्मसनवारवसेनायं पाळि पवत्ताति कत्वा वुत्तं, समथवसेन पन परस्स अस्सासपस्सासकाये अप्पनानिमित्तुप्पत्ति एव नस्थि । अट्ठपेत्वाति अन्तरन्तरा न ठपेत्वा । अपरापरं सञ्चरणकालोति अज्झत्तबहिद्धाधम्मेसुपि निरन्तरं वा भावनाय पवत्तनकालो कथितो। एकस्मिं काले पनिदं उभयं न लब्भतीति "अज्झत्तं, बहिद्धा'ति च वुत्तं इदं धम्मद्वयं घटितं एकस्मिं काले एकतो आरम्मणभावेन न लब्भति, एकज्झं आलम्बितुं न सक्काति अत्थो । समुदेति एतस्माति समुदयो, सो एव कारणद्वेन धम्मोति समुदयधम्मो। अस्सासपस्सासानं उप्पत्तिहेतु करजकायादि, तस्स अनुपस्सनसीलो समुदयधम्मानुपस्सी, तं 278 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७४-३७४) आनापानपब्बवण्णना २७९ पन समुदयधम्मं उपमाय दस्सेन्तो “यथा नामा"तिआदिमाह । तत्थ भस्तन्ति रुत्तिं । गग्गरनादिन्ति उक्कापनाळिं। तेति करजकायादिके। यथा अस्सासपस्सासकायो करजकायादिसम्बन्धी तंनिमित्तताय, एवं करजकायादयोपि अस्सासपस्सासकायसम्बन्धिनो तंनिमित्तभावेनाति “समुदयधम्मा कायस्मि"न्ति वत्तब्बतं लभन्तीति वुत्तं "समुदय...पे०... वुच्चती"ति । पकतिवाची वा धम्म-सद्दो “जातिधम्मानन्तिआदीसु (म० नि० १.१३१; ३.३१०, पटि० म० १.३३) वियाति कायस्स पच्चयसमवाये उप्पज्जनकपकति कायानुपस्सी वा “समुदयधम्मानुपस्सी"ति वुत्तो । तेनाह "करजकायञ्चा''तिआदि । एवञ्च कत्वा कायस्मिन्ति भुम्मवचनं सुटुतरं युज्जति । वयधम्मानुपस्सीति एत्थ अहेतुकत्तेपि विनासस्स येसं हेतुधम्मानं अभावे यं न होति, तदभावो तस्स अभावस्स हेतु विय वोहरीयतीति उपचारतो करजकायादिअभावो अस्सासपस्सासकायस्स वयकारणं वुत्तो। तेनाह “यथा भस्ताया"तिआदि । अयं तावेत्थ पठमविकप्पवसेन अत्थविभावना । दुतियविकप्पवसेन उपचारेन विनायेव अत्थो वेदितब्बो । ___ अज्झत्तबहिद्धानुपस्सना विय भिन्नवत्थुविसयताय समुदयवयधम्मानुपस्सनापि एककाले न लब्भतीति आह "कालेन समुदयं कालेन वयं अनुपस्सन्तो"ति । “अस्थि कायो''ति एव-सद्दो लुत्तनिद्दिट्ठोति "कायोव अत्थी"ति वत्वा अवधारणेन निवत्तितं दस्सेन्तो "न सत्तो"तिआदिमाह । तस्सत्थो - यो रूपादीसु सत्तविसत्तताय, परेसञ्च सज्जापनटेन, सत्वगुणयोगतो वा “सत्तो"ति परेहि परिकप्पितो, तस्स सत्तनिकायस्स पूरणतो च चवनुपपज्जनधम्मताय गलनतो च "पुग्गलो"ति, थीयति संहाति एत्थ गब्भोति "इत्थी"ति, पुरि पुरे भागे सेति पवत्ततीति "पुरिसो"ति, आहितो अहं मानो एत्थाति "अत्ता"ति, अत्तनो सन्तकभावेन “अत्तनियन्ति , परो न होतीति कत्वा "अह"न्ति, मम सन्तकन्ति कत्वा "ममा"ति, वुत्तप्पकारविनिमुत्तो अझोति कत्वा "कोची"ति, तस्स सन्तकभावेन “कस्सची"ति, विकप्पेतब्बो कोचि नत्थि, केवलं "कायो एव अत्थी"ति । दसहिपि पदेहि अत्तत्तनियसुञतमेव कायस्स विभावेति । एवन्ति “कायोव अत्थी''तिआदिना वुत्तप्पकारेन । आणपमाणत्थायाति कायानुपस्सनाञआणं परं पमाणं पापनत्थाय । सतिपमाणत्थायाति कायपरिग्गाहिकं सतिं पवत्तनसतिं परं पमाणं पापनत्थाय । इमस्स हि वुत्तनयेन “अस्थि कायो''ति अपरापरुप्पत्तिवसेन पच्चुपट्ठिता सति भिय्योसो मत्ताय तत्थ आणस्स, सतिया 279 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७५-३७५) च परिब्रूहनाय होति । तेनाह “सतिसम्पजञानं वुडत्थाया"ति । इमिस्सा भावनाय तण्हादिट्ठिग्गाहानं उजुपटिपक्खत्ता वुत्तं "तण्हा...पे०... विहरती"ति । तथाभूतो च लोके किञ्चिपि “अहन्ति वा “मम''न्ति वा गहेतब्बं न पस्सति, कुतो गण्हेय्याति आह "न च किञ्ची"तिआदि । एवम्पीति एत्थ पि-सद्दो हेट्ठा निद्दिवस्स तादिसस्स अत्थस्स अभावतो अवुत्तसमुच्चयत्योति दस्सेन्तो "उपरि अत्थं उपादाया"ति आह यथा “अन्तमसो तिरच्छानगतायपि, अयम्पि पाराजिको होती''ति । (पारा० ४२) एवन्ति पन निद्दिट्ठाकारस्स पच्चामसनं निगमनवसेन कतन्ति आह "इमिना पन...पे०... दस्सेती"ति | पुब्बभागसतिपट्ठानस्स इध अधिप्पेतत्ता वुत्तं “सति दुक्खसच्च"न्ति | सा पन सति यस्मिं अत्तभावे, तस्स समुट्ठापिका तण्हा, तस्सापि समुट्ठापिका एव नाम होति तदभावे अभावतोति आह "तस्सा समुट्ठापिका पुरिमतण्हा"ति, यथा “सङ्खारपच्चया''ति (म० नि० ३.१२६; उदा० १; विभं० ४८४)। तंविज्ञाणबीजतंसन्ततिसम्भूतो सब्बोपि लोकियो विज्ञाणप्पबन्धो “सङ्खारपच्चया विज्ञाणं" त्वेव वुच्चति सुत्तन्तनयेन । अप्पवत्तीति अप्पवत्तिनिमित्तं, उभिन्नं अप्पवत्तिया निमित्तभूतोति अत्थो । न पवत्तति एत्थाति वा अप्पवत्ति। "दुक्खपरिजाननो"तिआदि एकन्ततो चतुकिच्चसाधनवसेनेव अरियमग्गस्स पवत्तीति दस्सेतुं वुत्तं । अवुत्तसिद्धो हि तस्स भावनापटिवेधो। चतुसच्चवसेनाति चतुसच्चकम्मट्ठानवसेन । उस्सक्कित्वाति विसुद्धिपरम्पराय आरुहित्वा, भावनं उपरि नेत्वाति अत्थो । निय्यानमुखन्ति वट्टदुक्खतो निस्सरणूपायो । आनापानपब्बवण्णना निहिता। इरियापथपब्बवण्णना ३७५. इरियापथवसेनाति इरियनं इरिया, किरिया, इध पन कायिकपयोगो वेदितब्बो। इरियानं पथो पवत्तिमग्गोति इरियापथो, गमनादिवसेन पवत्ता सरीरावत्था । गच्छन्तो वा हि सत्तो कायेन कातब्बकिरियं करोति ठितो वा निसिन्नो वा निपन्नो वाति, तेसं इरियापथानं वसेन, इरियापथविभागेनाति अत्थो । पुन चपरन्ति पुन च अपरं, यथावुत्तआनापानकम्मट्ठानतो भिय्योपि अझं कायानुपस्सनाकम्मट्टानं कथेमि, सुणाथाति वा 280 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७५-३७५) इरियापथपब्बवण्णना २८१ अधिप्पायो । “गच्छन्तो वा"तिआदि गमनादिमत्तजाननस्स, गमनादिगतविसेसजाननस्स च साधारणवचनं, तत्थ गमनादिमत्तजाननं न इध नाधिप्पेतं, गमनादिगतविसेसजाननं पन अधिप्पेतन्ति तं विभजित्वा दस्सेतुं "तत्थ काम"न्तिआदि वुत्तं । सत्तूपलद्धिन्ति “सत्तो अत्थी'ति उपलद्धिं सत्तग्गाहं । न पजहति न परिच्चजति “अहं गच्छामि, मम गमनन्ति गाहसब्भावतो । ततो एव अत्तसझं “अस्थि अत्ता कारको वेदको"ति एवं पवत्तं विपरीतसचं न उग्घाटेति नापनेति अप्पटिपक्खभावतो, अननुब्रूहनतो वा । एवं भूतस्स चस्स कुतो कम्मट्ठानादिभावोति आह "कम्मट्ठानं वा सतिपट्ठानभावना वा न होती"ति । "इमस्स पना"तिआदि सुक्कपक्खो, तस्स वुत्तविपरियायेन अत्थो वेदितब्बो। तमेव हि अत्थं विवरितुं "इदही"तिआदि वुत्तं । तत्थ को गच्छतीति साधनं, किरियञ्च अविनिब्भुत्तं कत्वा गमनकिरियाय कत्तुपुच्छा, सा कत्तुभावविसिट्ठअत्तपटिक्खेपत्था धम्ममत्तस्सेव गमनसिद्धिदस्सनतो। कस्स गमनन्ति तमेवत्थं परियायन्तरेन वदति साधनं, किरियञ्च विनिब्भुत्तं कत्वा गमनकिरियाय अकत्तुसम्बन्धीभावविभावनतो । पटिक्खेपत्थहि अन्तोनीतं कत्वा उभयत्थं किं-सद्दो पवत्तो । किं कारणाति पन पटिक्खित्तकत्तुकाय गमनकिरियाय अविपरीतकारणपुच्छा। इदहि गमनं नाम अत्ता मनसा संयुज्जति, मनो इन्द्रियेहि, इन्द्रियानि अत्तेहीति एवमादि मिच्छाकारणविनिमुत्तअनुरूपपच्चयहेतुको धम्मानं पवत्तिआकारविसेसो। तेनाह "तत्था"तिआदि । न कोचि सत्तो वा पुग्गलो वा गच्छति धम्ममत्तस्सेव गमनसिद्धितो, तब्बिनिमुत्तस्स च कस्सचि अभावतो। इदानि धम्ममत्तस्सेव गमनसिद्धिं दस्सेतुं "चित्तकिरियावायोधातुविष्फारेना''तिआदि वुत्तं । तत्थ चित्तकिरिया च सा, वायोधातुया विप्फारो विष्फन्दनञ्चाति चित्तकिरियावायोधातुविष्फारो, तेन | एत्थ च चित्तकिरियग्गहणेन अनिन्द्रियबद्धवायोधातुविष्फारं निवत्तेति, वायोधातुविष्फारग्गहणेन चेतनावचीवित्तिभेदं चित्तकिरियं निवत्तेति, उभयेन पन कायविञत्तिं विभावेति | "गच्छती"ति वत्वा यथा पवत्तमाने काये “गच्छती"ति वोहारो होति, तं दस्सेतुं "तस्मा"तिआदि वुत्तं । तन्ति गन्तुकामतावसेन पवत्तचित्तं । वायं जनेतीति वायोधातुअधिकं रूपकलापं उप्पादेति, अधिकता चेत्थ सामत्थियतो, न पमाणतो। गमनचित्तसमुट्ठितं सहजातरूपकायस्स थम्भनसन्धारणचलनानं पच्चयभूतेन आकारविसेसेन पवत्तमानं वायोधातुं सन्धायाह "वायो विज्ञत्तिं जनेती"ति । अधिप्पायसहभावी हि विकारो विज्ञत्ति । यथावुत्तअधिकभावेनेव च 281 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७५-३७५) वायोगहणं, न वायोधातुया एव जनकभावतो, अञथा वित्तिया उपादायरूपभावो दुरुपपादो सिया । पुरतो अभिनीहारो पुरतोभागेन कायस्स पवत्तनं, यो “अभिक्कमोति वुच्चति । "एसेव नयो"ति अतिदेसेन सोपतो वत्वा तमत्थं विवरितुं "तत्रापि ही"तिआदि वुत्तं । कोटितो पट्ठायाति हेट्ठिमकोटितो पट्ठाय पादतलतो पट्ठाय । उस्सितभावोति उब्बिद्धभावो। एवं पजानतोति एवं चित्तकिरियवायोधातुविष्फारेनेव गमनादि होतीति पजानतो । तस्स एवं पजाननाय निच्छयगमनत्थं "एवं होती"ति विचारणा वुच्चति लोके यथाभूतं अजानन्तेहि मिच्छाभिनिवेसवसेन, लोकवोहारवसेन वा। अत्थि. पनाति अत्तनो एवं वीमंसनवसेन पुच्छावचनं । नत्थीति निच्छयवसेन सत्तस्स पटिक्खेपवचनं । “यथा पना"तिआदि तस्सेव अत्थस्स उपमाय विभावनं, तं सुविनेय्यमेव । नावा मालुतवेगेनाति यथा अचेतना नावा वातवेगेन देसन्तरं याति, यथा च अचेतनो तेजनं कण्डो जियावेगेन देसन्तरं याति, तथा अचेतनो कायो वाताहतो यथावुत्तवायुना नीतो देसन्तरं यातीति एवं उपमासंसन्दनं वेदितब्बं । सचे पन कोचि वदेय्य "यथा नावातेजनानं पेल्लकस्स पुरिसस्स बसेन देसन्तरगमनं, एवं कायस्सापी"ति, होतु, एवं इच्छितो वायमत्थो यथा हि नावातेजनानं संहतलक्खणस्सेव पुरिसस्स वसेन गमनं, न असंहतलक्खणस्स, एवं कायस्सापीति । का नो हानि, भिय्योपि धम्ममत्तताव पतिटुं लभति, न पुरिसवादो। तेनाह "यन्तसुत्तवसेना"तिआदि | तत्थ पयुत्तन्ति हेट्ठा वुत्तनयेन गमनादिकिरियावसेन पच्चयेहि पयोजितं । ठातीति तिट्ठति। एत्थाति इमस्मिं लोके । विना हेतुपच्चयेति गन्तुकामताचित्ततंसमुट्ठानवायोधातुआदिहेतुपच्चयेहि विना । तिटेति तिट्टेय्य । वजेति वजेय्य गच्छेय्य को नामाति सम्बन्धो। पटिक्खेपत्थो चेत्थ किं-सद्दोति हेतुपच्चयविरहेन ठानगमनपटिक्खेपमुखेन सब्बायपि धम्मप्पवत्तिया पच्चयाधीनवुत्तिताविभावनेन अत्तसुञता विय अनिच्चदुक्खतापि विभाविताति दट्टब्बा । पणिहितोति यथा यथा पच्चयेहि पकारेहि निहितो ठपितो। सब्बसङ्गाहिकवचनन्ति 282 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७६-३७६) चतुसम्पजञपब्बवण्णना २८३ सब्बेसम्पि चतुन्नं इरियापथानं एकज्झं सङ्गण्हनवचनं, पुब्बे विसुं विसुं इरियापथानं वुत्तत्ता इदं नेसं एकझं गहेत्वा वचनन्ति अत्थो । पुरिमनयो वा इरियापथप्पधानो वुत्तोति तत्थ कायो अप्पधानो अनुनिष्फादीति इध कायं पधानं, अपधानञ्च इरियापथं अनुनिप्फादिं कत्वा दस्सेतुं दुतियनयो वुत्तोति एवम्पेत्थ द्विन्नं नयानं विसेसो वेदितब्बो। ठितोति पवत्तो ।। इरियापथपरिग्गण्हनम्पि इरियापथवतो कायस्सेव परिग्गण्हनं तस्स अवत्थाविसेसभावतोति वुत्तं "इरियापथपरिग्गण्हनेन काये कायानुपस्सी विहरती"ति । तेनेवेत्थ रूपक्खन्धवसेनेव समुदयादयो उद्घटा। एस नयो सेसवारेसुपि। आदिनाति एत्थ आदि-सद्देन यथा “तण्हासमुदया कम्मसमुदया आहारसमुदया"ति निब्बत्तिलक्खणं पस्सन्तोपि रूपक्खन्धस्स उदयं पस्सतीति इमे चत्तारो आकारा सङ्गय्हन्ति, एवं "अविज्जानिरोधा"ति आदयोपि पञ्च आकारा सङ्गहिताति दट्ठब्बा । सेसं वुत्तनयमेव । इरियापथपब्बवण्णना निद्विता । चतुसम्पजपब्बवण्णना ३७६. चतुसम्पजञवसेनाति समन्ततो पकारेहि, पकटुं वा सविसेसं जानातीति सम्पजानो, सम्पजानस्स भावो सम्पजञ्जे, तथापवत्तं जाणं, हत्थविकारादिभेदभिन्नत्ता चत्तारि सम्पजानि समाहटानि चतुसम्पजचं, तस्स वसेन । “अभिक्कन्ते"तिआदीनि सामञफले (दी० नि० अट्ठ० १.२१४; दी० नि० टी० १.२१४ वाक्यखन्धेपि) वण्णितानि, न पुन वण्णेतब्बानि, तस्मा तंतंसंवण्णनाय लीनत्थप्पकासनापि तत्थ विहितनयेनेव गहेतब्बा । "अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होती''तिआदि वचनतो अभिक्कमादिगतचतुसम्पजअपरिग्गण्हनेन रूपकायस्सेवेत्थ समुदयधम्मानुपस्सितादि अधिप्पेतोति आह "रूपक्खन्धस्सेव समुदयो च वयो च नीहरितब्बो"ति। रूपधम्मानंयेव हि पवत्तिआकारविसेसा अभिक्कमादयोति । सेसं वुत्तनयमेव । चतुसम्पजअपब्बवण्णना निट्ठिता । 283 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३७७-३७८) पटिक्कूलमनसिकारपब्बवण्णना ३७७. पटिक्कूलमनसिकारवसेनाति जिगुच्छनीयताय पटिकूलमेव पटिक्कूलं, यो पटिक्कूलसभावो पटिक्कूलाकारो, तस्स मनसि करणवसेन । अन्तरेनापि हि भाववाचिनं सदं भावत्थो विज्ञायति यथा “पटस्स सुक्क"न्ति । यस्मा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.१८२) वुत्तं, तस्मा तत्थ, तंसंवण्णनायञ्च (विसुद्धि० टी० १.१८२ आदयो) वुत्तनयेन “इममेव काय"न्ति आदीनमत्थो वेदितब्बो । वत्थादीहि पसिब्बकाकारेन बन्धित्वा कतं आवाटनं पुतोळि। नानाकारा एकस्मिं ठाने सम्मिस्साति एत्तावता नानावण्णानं केसादीनञ्च उपमेय्यता । विभूतकालोति पण्णत्तिं समतिक्कमित्वा केसादीनं असुभाकारस्स उपट्टितकालो। इति-सद्दस्स आकारत्थतं दस्सेन्तो “एव'"न्ति वत्वा तं आकारं सरूपतो दस्सेन्तो "केसादिपरिग्गण्हनेना"तिआदिमाह । केसादिसञितानहि असुचिभावानं परमदुग्गन्धजेगुच्छपटिक्कूलाकारस्स समुदयतो अनुपस्सना इध कायानुपस्सनाति । सेसं वुत्तनयमेव । पटिक्कूलमनसिकारपब्बवण्णना निहिता। धातुमनसिकारपब्बवण्णना ३७८. धातुमनसिकारवसेनाति पथवीधातुआदिका चतस्सो धातुयो आरब्भ पवत्तभावनामनसिकारवसेन, चतुधातुववत्थानवसेनाति अत्थो । धातुमनसिकारो, धातुकम्मट्ठानं, चतुधातुववत्थानन्ति हि अत्थतो एकं । गोघातकोति जीविकत्थाय गुन्नं घातको । अन्तेवासिकोति कम्मकरणवसेन तस्स समीपवासी तं निस्साय जीवनको । विनिविज्झित्वाति एकस्मिं ठाने अञमधे विनिविज्झित्वा । महापथानं वेमज्झद्वानसङ्खातेति चतुन्नं महापथानं ताय एव विनिविज्झनट्ठानताय वेमज्झसङ्खाते | यस्मा ते चत्तारो महापथा चतूहि दिसाहि आगन्त्वा तत्थ समोहिता विय होन्ति, तस्मा तं ठानं चतुमहापथं, तस्मिं चतुमहापथे। ठित-सद्दो “ठितो वा''तिआदीसु (दी० नि० १.२६३; अ० नि० २.५.२८) ठानसङ्घातइरियापथसमङ्गिताय, ठा-सद्दस्स वा गतिनिवत्तिअत्थताय अञ्जत्थ ठपेत्वा गमनं 284 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३७८-३७८) धातुमनसिकारपब्बवण्णना २८५ सेसइरियापथसमङ्गिताय बोधको, इध पन यथा तथा रूपकायस्स पवत्तिआकारबोधको अधिप्पेतोति आह "चतुत्रं इरियापथानं येन केनचि आकारेन ठितत्ता यथा ठित"न्ति । तत्थ आकारेनाति ठानादिना रूपकायस्स पवत्तिआकारेन । ठानादयो हि इरियापथसङ्घाताय किरियाय पथो पवत्तिमग्गोति “इरियापथो''ति वुच्चन्तीति वुत्तो वायमत्थो । यथाठितन्ति यथापवत्तं, यथावुत्तं ठानमेवेत्थ पणिधानन्ति अधिप्पेतन्ति आह "यथा ठितत्ता च यथापणिहित"न्ति । “ठित"न्ति वा कायस्स ठानसङ्घातइरियापथसमायोगपरिदीपनं, "पणिहित"न्ति तदइरियापथसमायोगपरिदीपनं । “ठित"न्ति वा कायसङ्घातानं रूपधम्मानं तस्मिं तस्मिं खणे सकिच्चवसेन अवट्ठानपरिदीपनं, पणिहितन्ति पच्चयवसेन तेहि तेहि पच्चयेहि पकारतो निहितं पणिहितन्ति एवम्पेत्थ अत्थो वेदितब्बो। पच्चवेक्खतीति पति पति अवेक्खति, आणचक्खुना विनिब्भुज्जित्वा विसुं विसु पस्सति । इदानि वुत्तमेवत्थं भावत्थविभावनवसेन दस्सेतुं “यथा गोघातकस्सा"तिआदि वुत्तं । तत्थ पोसेन्तस्साति मंसूपचयपरिब्रूहनाय कुण्डकभत्तकप्पासट्ठिआदीहि संवड्वेन्तस्स । वधितं मतन्ति हिंसितं हुत्वा मतं । मतन्ति च मतमत्तं । तेनेवाह "तावदेवा"ति । गावीति सञ्जा न अन्तरधायतीति यानि अङ्गपच्चङ्गानि यथासन्निविट्ठानि उपादाय गावीसमञा मतमत्तायपि गाविया तेसं तंसन्निवेसस्स अविनठुत्ता। विलीयन्ति भिज्जन्ति विभुज्जन्तीति बीला, भागा व-कारस्स ब-कारं, इकारस्स च ईकारं कत्वा । बीलसोति बीलं बीलं कत्वा । विभजित्वाति अट्ठिसङ्घाततो मंसं विवेचेत्वा, ततो वा विवेचितं मंसं भागसो कत्वा। तेनेवाह "मंससञा पवत्तती"ति। पब्बजितस्सापि अपरिग्गहितकम्मट्ठानस्स। घनविनिब्भोगन्ति सन्ततिसमूहकिच्चघनानं विनिब्भुज्जनं विवेचनं । धातुसो पच्चवेक्खतोति घनविनिब्भोगकरणेन धातुं धातुं पथवीआदिधातुं विसुं विसुं कत्वा पच्चवेक्खन्तस्स । सत्तसज्ञाति अत्तानुदिट्ठिवसेन पवत्ता सत्तसञाति वदन्ति, वोहारवसेन पवत्तसत्तसञ्जायपि तदा अन्तरधानं युत्तमेव याथावतो घनविनिब्भोगस्स सम्पादनतो। एवन्हि सति यथावुत्तओपम्मत्थेन उपमेय्यत्थो अञदत्थु संसन्दति समेति । तेनेवाह "धातुवसेनेव चित्तं सन्तिद्वती"ति। दक्खोति छेको तंतंसमझाय कुसलो “यथाजाते सूनस्मिं नमुट्ठखुरविसाणादिवन्ते अट्टिमंसादिअवयवसमुदाये अविभत्ते गावीसमञा, न विभत्ते । विभत्ते पन अट्ठिमंसादिअवयवसमञा"ति जाननतो। चतुमहापथो विय चतुइरियापथोति गाविया ठितचतुमहापथो विय कायस्स पवत्तिमग्गभूतो चतुब्बिधो इरियापथो यस्मा विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.३०५) वित्थारिता, तस्मा तत्थ, तंसंवण्णनायञ्च (विसुद्धि० टी० १.३०६) वुत्तनयेन वेदितब्बो। सेसं वुत्तनयमेव । धातुमनसिकारपब्बवण्णना निहिता । 285 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ नवसिवधिकपब्बवण्णना _३७९. सिवथिकाय अपविद्धउद्धुमातकादिपटिसंयुत्तानं ओधिसो पवत्तानं कथानं, तदभिधेय्यानञ्च उद्धुमातकादिअसुभभागानं सिवथिकपब्बानीति सङ्गीतिकारेहि गहितसमञ्ज । तेनाह “सिवधिकपब्बेहि विभजितु "न्ति । मरित्वा एकाहातिक्कन्तं एकाहमतं । उद्धं जीवितपरियादानाति जीवितक्खयतो उपरि मरणतो परं । समुग्गतेनाति समुट्ठितेन । उद्धुमातत्ताति उद्धं उद्धं धुमातत्ता सूनत्ता । सेतरत्तेहि विपरिभिन्नं विमिस्सितं नीलं विनीलं, पुरिमवण्णविपरिणामभूतं वा नीलं विनीलं । विनीलमेव विनीलकन्ति क-कारेन पदवडुनं अनत्थन्तरतो यथा “ पीतकं लोहितक "न्ति । ( ध० स० ६१६) पटिक्कूलत्ताति जिगुच्छनीयत्ता । कुच्छितं विनीलन्ति विनीलकन्ति कुच्छनत्थो वा अयं क -कारोति दस्सेतुं वुत्तं यथा “पापको कित्तिसद्दो अब्भुग्गच्छती 'ति । ( दी० नि० ३.३१६; अ० नि० २.५.२१३; महाव० २८५) परिभिन्नानेहि काककङ्कादीहि । विस्सन्दमानपुब्बन्ति विस्सवन्तपुब्बं, तहं तहं पग्घरन्तपुब्बन्ति अत्थो । तथाभावन्ति विस्सन्दमानपुब्बभावं । दीघनिकाये महावग्गटीका सो भिक्खुति यो “पस्सेय्य सरीरं सिवथिकाय छड्डित' 'न्ति वुत्तो, सो भिक्खु । उपसंहरति सदिसतं । " अयम्पि खोति आदि उपसंहरणाकारदस्सनं । रूपजीवितिन्द्रियं, अरूपजीवितिन्द्रियं पनेत्थ विञ्ञणगतिकमेव । उस्माति कम्मजतेजो । एवं पृतिकसभावोयेवाति एवं अतिविय दुग्गन्धजेगुच्छपटिक्कूलपूभिकसभावो एव न आयुआदीनं अविगमे विय मत्तसोति अधिप्पायो । एदिसो भविस्सतीति एवंभावीति आह " एवं उद्धुमातादिभेदो भविस्सती 'ति । लुञ्चित्वा लुञ्चित्वाति उप्पाटेत्वा उप्पाटेत्वा । सावसेसमंसलोहितयुत्तन्ति सब्बसो अखादितत्ता तहं तहं सेसेन अप्पावसेसेन मंसलोहितेन युत्तं । “ अञ्ञेन हत्थट्ठिक "न्ति अविसेसेन हत्थट्टिकानं विप्पकिण्णता जोतिताति अनवसेसतो तेसं विप्पकिण्णतं दस्सेन्तो “चतुसट्टिभेदम्पी" तिआदिमाह । 66 तेरोवस्सिकानेवाति तेरोवस्सिकानीति तिरोवस्सं गतानि तानि पन संवच्छरं वीतिवत्तानि होन्तीति आह 'अतिक्कन्तसंवच्छरानी 'ति । पुराणताय घनभावविगमेन विचुण्णता इध पूतिभावोति सो " अब्भोकासे "तिआदिमाह । होति, तं दस्सेन्तो यथा ( ९.३७९ - ३७९) 2 286 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८०-३८०) वेदनानुपस्सनावण्णना २८७ संवच्छरमत्तातिक्कन्तानि एव । खज्जमानतादिवसेन दुतियसिवथिकपब्बादीनं ववत्थापितत्ता वुत्तं "खज्जमानतादीनं वसेन योजना कातब्बा"ति । नवसिवथिकपब्बवण्णना निहिता । इमानेव वेति अवधारणेन अप्पनाकम्मट्ठानं तत्थ नियमेति अञपब्बेसु तदभावतो । यतो हि एव-कारो, ततो अञ्जत्थ नियमेति, तेन पब्बद्वयस्स विपस्सनाकम्मट्ठानतापि अप्पटिसिद्धा दट्ठब्बा अनिच्चतादिदस्सनतो। सङ्खारेसु आदीनवविभावनानि सिवथिकपब्बानीति आह "सिवथिकानं आदीनवानुपस्सनावसेन वुत्तत्ता"ति | इरियापथपब्बादीनं अप्पनावहता पाकटा एवाति "सेसानि द्वादसपी"ति वुत्तं । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं । तं सुविनेय्यमेव । कायानुपस्सनावण्णना निट्ठिता । वेदनानुपस्सनावण्णना ३८०. सुखं वेदनन्ति एत्थ सुखयतीति सुखा। सम्पयुत्तधम्मे, कायञ्च लद्धस्सादे करोतीति अत्थो । सुट्ट वा खादति, खनति वा कायिकं, चेतसिकञ्चाबाधन्ति सुखा। “सुकरं ओकासदानं एतिस्साति सुखा"ति अपरे । वेदयति आरम्मणरसं अनुभवतीति वेदना। वेदयमानोति अनुभवमानो। “काम"न्तिआदीसु यं वत्तब्द, तं इरियापथपब्बे वुत्तनयमेव । सम्पजानस्स वेदियनं सम्पजानवेदियनं । वत्थुआरम्मणाति रूपादिआरम्मणा। रूपादिआरम्मणज्हेत्थ वेदनाय पवत्तिहानताय "वत्थू''ति अधिप्पेतं । अस्साति भवेय्य । धम्मविनिमुत्तस्स कत्तु अभावतो धम्मस्सेव कत्तुभावं दस्सेन्तो “वेदनाव वेदयती"ति आह । “वोहारमत्तं होती"ति एतेन “सुखं वेदनं वेदयमानो सुखं वेदनं वेदयामी"ति इदं वोहारमत्तन्ति दस्सेति ।। नित्थुनन्तोति बलवतो वेदनावेगस्स निरोधने आदीनवं दिस्वा तस्स अवसरदानवसेन 287 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८०-३८०) नित्थुनन्तो । वेगसन्धारणे हि अतिमहन्तं दुक्खं उप्पज्जतीति अझम्पि विकारं उप्पादेय्य, तेन थेरो अपरापरं परिवत्तति। वीरियसमथं योजत्वाति अधिवासनवीरियस्स अधिमत्तत्ता तस्स हापनवसेन समाधिना समरसतापादनेन वीरियसमथं योजेत्वा । सह पटिसम्भिदाहीति लोकुत्तरपटिसम्भिदाहि सह । अरियमग्गक्खणे हि पटिसम्भिदानं असम्मोहवसेन अधिगमो, अत्थपटिसम्भिदाय पन आरम्मणकरणवसेनपि । लोकियानम्पि वा सति उप्पत्तिकाले तत्थ समत्थतं सन्धायाह "सह पटिसम्भिदाही"ति। समसीसीति वारसमसीसी हुत्वा, पच्चवेक्खणवारस्स अनन्तरवारे परिनिब्बायीति अत्थो । यथा च सुखं, एवं दुक्खन्ति यथा “सुखं को वेदयती''तिआदिना सम्पजानवेदियनं सन्धाय वुत्तं, एवं दुक्खम्पि । तत्थ दुक्खयतीति दुक्खा, सम्पयुत्तधम्मे, कायञ्च पीळेति विबाधतीति अत्थो । दु वा खादति, खनति कायिकं, चेतसिकञ्च सातन्ति दुक्खा। "दुक्करं ओकासदानं एतिस्साति दुक्खा"ति अपरे । अरूपकम्मट्ठानन्ति अरूपपरिग्गहं, अरूपधम्ममुखेन विपस्सनाभिनिवेसनन्ति अत्थो । न पाकटं होति फस्सस्स, चित्तस्स च अविभूताकारत्ता। तेनाह “अन्धकारं विय खायती"ति । “न पाकटं होती"ति च इदं तादिसे पुग्गले सन्धाय वुत्तं, तेसं आदितो वेदनाव विभूततरा हुत्वा उपट्टाति । एवज्हि यं वुत्तं सक्कपञ्हवण्णना दीसु “फस्सो पाकटो होति, विज्ञाणं पाकटं होती"ति, (दी० नि० अट्ठ० २.३५९) तं अविरोधितं होति । वेदनावसेन कथियमानं कम्मट्ठानं पाकटं होतीति योजना । "वेदनानं उप्पत्तिपाकटताया"ति च इदं सुखदुक्खवेदनानं वसेन वुत्तं । तासहि पवत्ति ओळारिका, न इतराय । तदुभयग्गहणमुखेन वा गहेतब्बत्ता इतरायपि पवत्ति विज्ञेनं पाकटा एवाति "वेदनान"न्ति अविसेसग्गहणं दट्ठब्बं । सक्कपहे वुत्तनयेनेव वेदितब्बो, तस्मा तत्थ वत्तब्बो अत्थविसेसो तत्थ लीनत्थप्पकासनियं वुत्तनयेनेव गहेतब्बो । पुब्बे “वत्थु आरम्मणं कत्वा वेदनाव वेदयती"ति वेदनाय आरम्मणाधीनवुत्तिताय च अनत्तताय च पजाननं वुत्तं, इदानि तस्सा अनिच्चतादिपजाननं दस्सेन्तो “अयं अपरोपि पजाननपरियायो"ति आह | यथा एकस्मिं खणे चित्तद्वयस्स असम्भवो एकज्झं अनेकन्तपच्चयाभावतो, एवं वेदनाद्वयस्स विसिट्ठारम्मणवुत्तितो चाति आह "सुखवेदनाक्खणे दुक्खाय वेदनाय अभावतो"ति । निदस्सनमत्तञ्चेतं तदा उपेक्खावेदनायपि अभावतो, तेन सुखवेदनाक्खणे भूतपुब्बानं इतरवेदनानं हुत्वाअभावपजाननेन सुखवेदनायपि हुत्वा अभावो आतो एव होतीति तस्सा पाकटभावमेव दस्सेन्तो "इमिस्सा 288 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८१ - ३८१) चित्तानुपस्सनावण्णना च सुखाय वेदनाय इतो पठमं अभावतो " ति आह, एतेनेव च तासम्पि वेदनानं पाकटभावो दस्सितोति दट्ठब्बं । तेनाह " वेदना नाम अनिच्चा अधुवा विपरिणामधम्मा "ति । अनिच्चग्गहणेन हि वेदनानं विद्धंसनभावो दस्सितो विद्धस्ते अनिच्चताय सुविज्ञेय्यत्ता । अधुवग्गहणेन पाकटभावो तस्स असदाभावितादिभावनतो । विपरिणामग्गहणेन दुक्खभावो तस्स अञ्ञथत्तदीपनतो, तेन सुखापि वेदना दुक्खा, पगेव इतराति तिस्सन्नम्पि वेदनानं दुक्खता दस्सिता होति । इति " यदनिच्चं दुक्खं तं एकन्ततो अनत्ता'ति तीसुपि वेदनासु लक्खणत्तयपजानना जोतिताति दट्ठब्बं । तेनाह “ इतिह तत्थ सम्पजानो होती 'ति । इदानितमत्थं सुत्तेन (म० नि० २.२०५) साधेतुं “वुत्तम्पि चेत" न्तिआदिमाह । तत्थ नेव तस्मिं समये दुक्खं वेदनं वेदेतीति तस्मिं सुखवेदनासमङ्गिसमये नेव दुक्खं वेदनं वेदेति निरुद्धत्ता, अनुप्पन्नत्ता च यथाक्कमं अतीतानागतानं । पच्चुप्पन्नाय पन असम्भवो वुत्त एव । सकिच्चक्खणमत्तावट्टानतो अनिच्चा । समेच्च सम्भुय्य पच्चयेहि कतत्ता वत्थारम्मणादिपच्चयं पटिच्च उप्पन्नत्ता पटिच्चसमुप्पन्ना । खयवयपलुज्जननिरुज्झनपकतिताय खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्माति दट्ठब्बा | सङ्घता । किलेसेहि आमसितब्बतो आमिसं नाम, पञ्च कामगुणा, आरम्मणकरणवसेन सह आमिसेहीति सामिसं । तेनाह “पञ्चकामगुणामिसनिस्सिता "ति । इतो परन्ति “अत्थि वेदना "ति एवमादि पाळिं सन्धायाह “कायानुपस्सनायं वुत्तनयमेवा'ति । २८९ वेदनानुपस्सनावण्णना निट्ठिता । चित्तानुपस्सनावण्णना ३८१. सम्पयोगवसेन पवत्तमानेन सह रागेनाति सरागं । तेनाह " लोभसहगत "न्ति । वीतरागन्ति एत्थ कामं सरागपदपटियोगिना वीतरागपदेन भवितब्बं सम्मसनचारस्स पन अधिप्पेतत्ता तेभूमकस्सेव गहणन्ति “लोकियकुसलाब्याकत "न्ति वत्वा “ इदं पना" तिआदिना 289 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८१-३८१) तमेव अधिप्पायं विवरति । सेसानि द्वे दोसमूलानि, द्वे मोहमूलानीति चत्तारि अकुसलचित्तानि। तेसहि रागेन सम्पयोगाभावतो नत्थेव सरागता, तंनिमित्तकताय पन सिया तंसहितकाले सोति नत्थेव वीतरागतापीति दुक्खविनिमुत्तता एवेत्थ लब्भतीति आह "नेव पुरिमपदं न पच्छिमपदं भजन्ती"ति । यदि एवं पदेसिकं पजाननं आपज्जतीति ? नापज्जति, दुकन्तरपरियापन्नत्ता तेसं। ये पन “पटिपक्खभावे अगव्हमाने सम्पयोगाभावो एवेत्थ पमाणं एकच्चअब्याकतानं विया"ति इच्छन्ति, तेसं मतेन सेसाकुसलचित्तानम्पि दुतियपदसङ्गहो वेदितब्बो । दुतियदुकेपि वुत्तनयेन अत्थो वेदितब्बो । अकुसलमूलेसु सह मोहेनेव वत्ततीति समोहन्ति आह "विचिकिच्छासहगतञ्चेव उद्धच्चसहगतञ्चा''ति । यस्मा चेत्थ “सहेव मोहेनाति समोह"न्ति पुरिमपदावधारणम्पि लब्भतियेव, तस्मा वुत्तं “यस्मा पना"तिआदि। यथा पन अतिमूळहताय पाटिपुग्गलिकनयेन सविसेसमोहवन्तताय "मोमूहचित्त''न्ति वत्तब्बतो विचिकिच्छाउद्धच्चसहगतद्वयं विसेसतो. “समोह"न्ति वुच्चति, न तथा सेसाकुसलचित्तानीति “वट्टन्तियेवा"ति सासङ्घ वदति । सम्पयोगवसेन थिनमिद्धेन अनुपतितं अनुगतन्ति थिनमिद्धानुपतितं, पञ्चविधंससङ्घारिकाकुसलचित्तं सङ्कुचितचित्तं, सङ्कुचितचित्तं नाम आरम्मणे सङ्कोचनवसेन पवत्तनतो । पच्चयविसेसवसेन थामजातेन उद्धच्चेन सहगतं संसट्ठन्ति उच्चसहगतं, अञथा सब्बम्पि अकुसलचित्तं उद्धच्चसहगतमेवाति । पसटचित्तं नाम आरम्मणे सविसेसं विक्खेपवसेन विसटभावेन पवत्तनतो। किलेसविक्खम्भनसमत्थताय विपुलफलताय च दीघसन्तानताय च महन्तभावं गतं, महन्तेहि वा उळारच्छन्दादीहि गतं पटिपन्नन्ति महग्गतं, तं पन रूपारूपभूमिगतं ततो महन्तस्स लोके अभावतो । तेनाह "रूपारूपावचर"न्ति । तस्स चेत्थ पटियोगी परित्तं एवाति आह “अमहग्गतन्ति कामावचर"न्ति । अत्तानं उत्तरितं समत्थेहि सह उत्तरेहीति सउत्तरं। तप्पटिपक्खेन अनुत्तरं। तदुभयं उपादायुपादाय वेदितब्बन्ति आह "सउत्तरन्ति कामावचरन्तिआदि । पटिपक्खविक्खम्भनसमत्थेन समाधिना सम्मदेव आहितं समाहितं । तेनाह “यस्सा"तिआदि । यस्साति यस्स चित्तस्स । यथावुत्तेन समाधिना न समाहितन्ति असमाहितं। तेनाह "उभयसमाधिरहित"न्ति । तदङ्गविमुत्तिया विमुत्तं, कामावचरकुसलचित्तं, विक्खम्भनविमुत्तिया विमुत्तं, महग्गतचित्तन्ति तदुभयं सन्धायाह "तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तीहि विमुत्त"न्ति । यत्थ तदुभयविमुत्ति नत्थि, तं उभयविमुत्तिरहितन्ति गव्हमाने लोकुत्तरचित्तेपि सियासक्राति तं निवत्तनत्थं "समुच्छेद...पे०... ओकासोव नत्थी"ति आह । ओकासभावो 290 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८२-३८२) धम्मानुपस्सना च सम्मसनचारस्स अधिप्पेतत्ता वेदितब्बो । यं पनेत्थ अत्थतो अविभत्तं, तं हेट्ठा वुत्तनयत्ता उत्तानमेव । चित्तानुपस्सनावण्णना निहिता । धम्मानुपस्सना नीवरणपब्बवण्णना ३८२. पहातब्बादिधम्मविभागदस्सनवसेन पञ्चधा धम्मानुपस्सना निद्दिवाति अयमत्थो पाळितो एव वियतीति तमत्थं उल्लिङ्गेन्तो "पञ्चविधेन धम्मानुपस्सनं कथेतु"न्ति आह । यदि एवं कस्मा नीवरणादिवसेनेव निद्दिट्ठन्ति ? विनेय्यज्झासयतो। येसहि वेनेय्यानं पहातब्बधम्मेसु पठमं नीवरणानि विभागेन वत्तब्बानि, तेसं वसेनेत्थ भगवता पठमं नीवरणेसु धम्मानुपस्सना कथिता । तथा हि कायानुपस्सनापि समथपुब्बङ्गमा देसिता, ततो परि य्येसु खन्धेसु, आयतनेसु च भावेतब्बेसु बोज्झङ्गेसु, परिजेय्यादिविभागेसु सच्चेसु च उत्तरा देसना, तस्मा चेत्थ समथभावनापि यावदेव विपस्सनत्था इच्छिता । विपस्सनापधाना, विपस्सनाबहुला च सतिपट्ठानदेसनाति तस्सा विपस्सनाभिनिवेसविभागेन देसितभावं विभावेन्तो "अपिचा"तिआदिमाह। तत्थ खन्धायतनदुक्खसच्चवसेन मिस्सकपरिग्गहकथनं दट्टब्बं । सञ्जासङ्घारक्खन्धपरिग्गहम्पीति पि-सद्देन सकलपञ्चुपादानक्खन्धपरिग्गहं सम्पिण्डेति इतरेसं तदन्तोगधत्ता । "कण्हसुक्कधम्मानं युगनन्धता नत्थी"ति पजाननकाले अभावा "अभिण्हसमुदाचारवसेना"ति वुत्तं । संविज्जमानन्ति अत्तनो सन्ताने उपलब्भमानं । यथाति येनाकारेन, सो पन “कामच्छन्दस्स उप्पादो होती"ति वुत्तत्ता कामच्छन्दस्स कारणाकारोव, अत्थतो कारणमेवाति आह "येन कारणेना"ति । च-सद्दो वक्खमानत्थसमुच्चयत्थो । तत्थाति “यथा चा"तिआदिना वुत्तपदे । सुभम्पीति कामच्छन्दोपि । सो हि अत्तनो गहणाकारेन "सुभ"न्ति वुत्तो, तेनाकारेन पवत्तनकस्स अञस्स कामच्छन्दस्स निमित्तत्ता 291 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८२-३८२) "निमित्त"न्ति च। इ8, इट्ठाकारेन वा गव्हमानं रूपादि सुभारम्मणं। आकङ्कितस्स हितसुखस्स पत्तिया अनुपायभूतो मनसिकारो अनुपायमनसिकारो। तन्ति अयोनिसोमनसिकारं । तत्थाति तस्मिं सभागहेतुभूते, आरम्मणभूते च दुविधे सुभनिमित्ते । आहारोति पच्चयो अत्तनो फलं आहरतीति कत्वा । असुभन्ति असुभज्झानं उत्तरपदलोपेन, तं पन दससु अविचाणकअसुभेसु च केसादीसु सविणकअसुभेसु च पवत्तं दट्ठब्बं । केसादीसु हि सझा "असुभसञ्जा''ति गिरिमानन्दसुत्ते (अ० नि० ३.१०.६०) वुत्ता। एत्थ च चतुब्बिधस्स अयोनिसोमनसिकारस्स, योनिसोमनसिकारस्स च गहणं निरवसेसदस्सनत्थं कतन्ति दट्ठबं, तेसु पन असुभेसु “सुभ"न्ति, “असुभ''न्ति च मनसिकारो इधाधिप्पेतो, तदनुकूलत्ता पन इतरे पीति । एकादससु असुभेसु पटिक्कूलाकारस्स उग्गण्हनं, यथा वा तत्थ उग्गहनिमित्तं उप्पज्जति, तथा पटिपत्ति असुभनिमित्तस्स उग्गहो। उपचारप्पनावहाय असुभभावनाय अनुयुञ्जना असुभभावनानुयोगो। “भोजने मत्त नो मिताहारस्स थिनमिद्धाभिभवाभावा ओतारं अलभमानो कामच्छन्दो पहीयती"ति वदन्ति, अयमेव च अत्थो निद्देसेपि वुच्चति । यो पन भोजनस्स पटिक्कूलतं, तब्बिपरिणामस्स तदाधारस्स तस्स च उपनिस्सयभूतस्स अतिविय जेगुच्छतं, कायस्स च आहारट्ठितिकत्तं सम्मदेव जानाति, सो सब्बसो भोजने पमाणस्स जाननेन भोजनेमत्तञ्जू नाम | तादिसस्स हि कामच्छन्दो पहीयतेव। असुभकम्मिकतिस्सत्थेरो दन्तट्ठिदस्सावी । पहीनस्साति विक्खम्भनवसेन पहीनस्स | इतो परेसुपि एवरूपेसु ठानेसु एसेव नयो । अभिधम्मपरियायेन (ध० स० ११५९, १५०३) सब्बोपि लोभो कामच्छन्दनीवरणन्ति आह “अरहत्तमग्गेना"ति । पटिघम्पि पुरिमुष्पन्नं पटिघनिमित्तं परतो उप्पज्जनकस्स पटिघस्स कारणन्ति कत्वा । मेज्जति सिनिव्हतीति मित्तो, हितेसी पुग्गलो, तस्मिं मित्ते भवा, मित्तस्स वा एसाति मेत्ता, हितेसिता, तस्सा मेत्ताय। अप्पनापि उपचारोपि वट्टति साधारणवचनभावतो । 292 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८२-३८२) नीवरणपब्बवण्णना २९३ "चेतोविमुत्ती"ति वुत्ते अप्पनाव वट्टति अप्पनं अप्पत्ताय पटिपक्खतो सुट्ठ मुच्चनस्स अभावतो । तन्ति योनिसोमनसिकारं । तत्थाति मेत्ताय । बहुलं पवत्तयतोति बहुलीकारवतो । सत्तेसु मेत्तायनस्स हितूपसंहारस्स उप्पादनं पवत्तनं मेत्तानिमित्तस्स उग्गहो, पठमुप्पन्नो मेत्तामनसिकारो परतो उप्पज्जनकस्स कारणभावतो मेत्तामनसिकारोव मेत्तानिमित्तं । कम्ममेव सकं एतेसन्ति कम्मस्सका, सत्ता, तब्भावो कम्मस्सकता, कम्मदायादता । दोसमेत्तासु याथावतो आदीनवानिसंसानं पटिसङ्खानं वीमंसा इध पटिसङ्खानं । मेत्ताविहारिकल्याणमित्तवन्तता इध कल्याणमित्तता। ओदिस्सकअनोदिस्सकदिसाफरणानन्ति (ओधिसकअनोधिसकदिसाफरणानं म० नि० अट्ठ० १.११५) अत्तअतिपियसहायमज्झत्तवेरिवसेन ओदिस्सकता, सीमासम्भेदे कते अनोदिस्सकता। एकादिदिसाफरणवसेन दिसाफरणता मेत्ताय उग्गहणे वेदितब्बा। विहाररच्छागामादिवसेन वा ओदिस्सकदिसाफरणं। विहारादिउद्देसरहितं पुरथिमादिदिसावसेन अनोदिस्सकदिसाफरणन्ति एवं द्विधा उग्गहणं सन्धाय "ओदिस्सकअनोदिस्सकदिसाफरणान"न्ति वुत्तं । उग्गहोति च याव उपचारा दट्टब्बो । उग्गहिताय आसेवना भावना। तत्थ सब्बे सत्ता, पाणा, भूता, पुग्गला, अत्तभावपरियापन्नाति एतेसं वसेन पञ्चविधा, एकेकस्मिं अवेरा होन्तु, अब्यापज्झा, अनीघा, सुखी अत्तानं परिहरन्तूति चतुधा पवत्तितो वीसतिविधा अनोदिस्सकफरणा मेत्ता । सब्बा इथियो, पुरिसा, अरिया, अनरिया, देवा, मनुस्सा, विनिपातिकाति सत्तोधिकरणवसेन पवत्ता सत्तविधा, अट्ठवीसति विधा वा, दसहि दिसाहि दिसोधिकरणवसेन पवत्ता दसविधा, एकेकाय वा दिसाय सत्तादिइत्यादिअवेरादिभेदेन असीताधिकचतुसतप्पभेदा च ओधिसो फरणा वेदितब्बा । येन अयोनिसोमनसिकारेन अरतिआदिकानि उप्पज्जन्ति, सो अरतिआदीसु अयोनिसोमनसिकारो। तेन निप्फादेतब्बे हि इदं भुम्मं । एस नयो इतो परेसुपि । उक्कण्ठिता पन्तसेनासनेसु, अधिकुसलधम्मेसु च उप्पज्जनभावरिञ्चना । कायविनमनाति करजकायस्स विरूपेनाकारेन नमना। लीनाकारोति सङ्कोचापत्ति । कुसलधम्मपटिपत्तिया पट्ठपनसभावताय, तप्पटिपक्खानं विसोसनसभावताय च आरम्भधातुआदितो पवत्तवीरियन्ति आह “पठमारम्भवीरिय"न्ति । यस्मा पठमारम्भमत्तस्स कोसज्जविधमनं, थामगमनञ्च नत्थि, तस्मा वुत्तं "कोसज्जतो निक्खन्तताय ततो 293 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८२-३८२) बलवतर"न्ति । यस्मा पन अपरापरुप्पत्तिया लद्धासेवनं उपरूपरि विसेसं आवहन्तं अतिविय थामगतमेव होति, तस्मा वुत्तं "परं परं ठानं अक्कमनतो ततोपि बलवतर"न्ति । अतिभोजने निमित्तग्गाहोति अतिभोजने थिनमिद्धस्स निमित्तग्गाहो, एत्तके भुत्ते तं भोजनं थिनमिद्धस्स कारणं होति, एत्तके न होतीति थिनमिद्धस्स कारणाकारणगाहो होतीति अत्थो । ब्यतिरेकवसेन चेतं वुत्तं, तस्मा "एत्तके भुत्ते तं भोजनं थिनमिद्धस्स कारणं न होती"ति भोजने मत्तञ्जता च अत्थतो दस्सिताति दट्टब्बं । तेनाह "चतुपञ्च...पे०... न होती"ति । दिवा सूरियालोकन्ति दिवा गहितनिमित्तं सूरियालोकं रत्तियं मनसि करोन्तस्सापीति एवमेत्थ अत्थो वेदितब्बो। धुतङ्गानं वीरियनिस्सितत्ता वुत्तं "धुतङ्गनिस्सितसप्पायकथायपी"ति । कुक्कुच्चम्पि कताकतानुसोचनवसेन पवत्तमानं चेतसो अवूपसमावहताय उद्धच्चेन समानलक्खणमेवाति “अवूपसमो नाम अवूपसन्ताकारो, उद्धच्चकुक्कुच्चमेवेतं अत्थतो"ति वुत्तं । बहुस्सुतस्स गन्थतो, अत्थतो च सुत्तादीनि विचारेन्तस्स तब्बहुलविहारिनो अत्थवेदादिपटिलाभसब्भावतो विक्खेपो न होतीति, यथाविधिपटिपत्तिया, यथानुरूपपतिकारप्पवत्तिया च कताकतानुसोचनञ्च न होतीति "बाहुसच्चेनपि...पे०... उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीयती"ति आह । यदग्गेन बाहुसच्चेन उद्धच्चकुक्कुच्चं पहीयति, तदग्गेन परिपुच्छकताविनयपकत ताहिपि तं पहीयतीति दट्ठब्बं । वुद्धसेविता च वुद्धसीलितं आवहतीति चेतोवूपसमकरत्ता उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानकारी वुत्ता । वुद्धत्तं पन अनपेक्खित्वा कुक्कुच्चविनोदका विनयधरा कल्याणमित्ता वुत्ताति दट्टब्बा । विक्खेपो च पब्बजितानं येभुय्येन कुक्कुच्चहेतुको होतीति “कप्पियाकप्पियपरिपुच्छाबहुलस्सा"तिआदिना विनयनयेनेव परिपुच्छकतादयो निद्दिट्ठा। पहीने उच्चकुक्कुच्चेति निद्धारणे भुम्मं । कुक्कुच्चस्स दोमनस्ससहगतत्ता अनागामिमग्गेन आयति अनुप्पादो वुत्तो । तिट्ठति पवत्तति एत्थाति ठानीया विचिकिच्छाय ठानीया विचिकिच्छाठानीया, विचिकिच्छाय कारणभूता धम्मा, तिद्वतीति वा ठानीया, विचिकिच्छा ठानीया एतिस्साति विचिकिच्छाठानीया, अत्थतो विचिकिच्छा एव। सा हि पुरिमुप्पन्ना परतो उप्पज्जनकविचिकिच्छाय सभागहेतुताय असाधारणं कारणं। 294 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८३-३८३) खन्धपब्बवण्णना २९५ ____ कुसलाकुसलाति कोसल्लसम्भूतठून कुसला, तप्पटिपक्खतो अकुसला । ये अकुसला, ते सावज्जा, असेवितब्बा, हीना च। ये कुसला, ते अनवज्जा, सेवितब्बा, पणीता च । कुसला वा हीनेहि छन्दादीहि आरद्धा हीना, पणीतेहि पणीता। कण्हाति काळका चित्तस्स अपभस्सरभावकरणा। सुक्काति ओदाता चित्तस्स पभस्सरभावकरणा। कण्हाभिजातिहेतुतो वा कण्हा। सुक्काभिजातिहेतुतो सुक्का। ते एव सप्पटिभागा। कण्हा हि उजुविपच्चनीकताय सुक्कसप्पटिभागा, तथा सुक्कापि इतरेहि । अथ वा कण्हसुक्का च सप्पटिभागा च कण्हसुक्कसप्पटिभागा। सुखा हि वेदना दुक्खाय वेदनाय सप्पटिभागा, दुक्खा च वेदना सुखाय वेदनाय सप्पटिभागाति ।। कामं बाहुसच्चपरिपुच्छकताहि सब्बापि अट्ठवत्थुका विचिकिच्छा पहीयति, तथापि रतनत्तयविचिकिच्छामूलिका सेसविचिकिच्छाति कत्वा आह "तीणि रतनानि आरब्भा"ति । रतनत्तयगुणावबोधे “सत्थरि कङ्घती''तिआदि (ध० स० १००८, ११२३, ११६७, १२४१, १२६३, १२७०; विभं० ९१५) विचिकिच्छाय असम्भवोति । विनये पकतञ्जता “सिक्खाय कङ्खती''ति वुत्ताय विचिकिच्छाय पहानं करोतीति आह "विनये चिण्णवसीभावस्सापी"ति। ओकप्पनियसद्धासङ्घातअधिमोक्खबहुलस्साति सद्धेय्यवत्थुनो अनुपविसनसद्धासङ्घातअधिमोक्खेन अधिमुच्चनबहुलस्स, अधिमुच्चनञ्च अधिमोक्खुप्पादनमेवाति दट्ठब्द, सद्धाय वा निन्नपोणताअधिमुत्ति अधिमोक्खो। समुदयवयाति समुदयवयधम्मा । सुभनिमित्तअसुभनिमित्तादीसूति “सुभनिमित्तादीसु असुभनिमित्तादीसू"ति आदि-सद्दो पच्चेकं योजेतब्बो। तत्थ पठमेन आदि-सद्देन पटिघनिमित्तादीनं सङ्गहो, दुतियेनमेत्ताचेतोविमुत्तिआदीनं । सेसमेत्थ यं वत्तब्बं, तं वुत्तनयमेव । नीवरणपब्बवण्णना निट्ठिता। खन्धपब्बवण्णना ३८३. उपादानेहि आरम्मणकरणादिवसेन उपादातब्बा वा खन्धा उपादानक्खन्धा। 295 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८४-३८४) इति रूपन्ति एत्थ इति-सद्दो इदं-सद्देन समानत्थोति अधिप्पायेनाह "इदं रूप"न्ति । तयिदं सरूपग्गहणभावतो अनवसेसपरियादानं होतीति आह "एत्तकं रूपं, न इतो परं रूपं अत्थी"ति । इतीति वा पकारत्थे निपातो, तस्मा "इति रूप"न्ति इमिना भूतुपादादिवसेन यत्तको रूपस्स पभेदो, तेन सद्धिं रूपं अनवसेसतो परियादियित्वा दस्सेति । सभावतोति रुप्पनसभावतो, चक्खादिवण्णादिसभावतो च । वेदनादीसुपीति एत्थ "अयं वेदना, एत्तका वेदना, न इतो परं वेदना अत्थीति सभावतो वेदनं पजानाती''तिआदिना, सभावतोति च "अनुभवनसभावतो, सातादिसभावतो चा"ति एवमादिना योजेतब्बं । सेसं वुत्तनयत्ता सुविनेय्यमेव । खन्धपब्बवण्णना निहिता। आयतनपब्बवण्णना ३८४. छसु अज्झत्तिकबाहिरसूति “छसु अज्झत्तिकेसु छसु बाहिरेसूति "छसूति पदं पच्चेकं योजेतब्। कस्मा पनेतानि उभयानि छळेव वुत्तानि ? छविञाणकायुप्पत्तिद्वारारम्मणववत्थानतो। चक्खुविज्ञाणवीथिया परियापन्नस्स हि विचाणकायस्स चक्खायतनमेव उप्पत्तिद्वारं, रूपायतनमेव च आरम्मणं, तथा इतरानि इतरेसं, छट्ठस्स पन भवङ्गमनसङ्खातो मनायतनेकदेसो उप्पत्तिद्वारं, असाधारणञ्च धम्मायतनं आरम्मणं । चक्खतीति चक्खु, रूपं अस्सादेति, विभावेति चाति अत्थो । सुणातीति सोतं । घायतीति घानं। जीवितनिमित्तताय रसो जीवितं, तं जीवितं अव्हायतीति जिव्हा। कुच्छितानं सासवधम्मानं आयो उप्पत्तिदेसोति कायो। मुनाति आरम्मणं विजानातीति मनो। रूपयति वण्णविकारं आपज्जमानं हदयङ्गतभावं पकासेतीति रूपं। सप्पति अत्तनो पच्चयेहि हरीयति सोतविद्येय्यभावं गमीयतीति सदो। गन्धयति अत्तनो वत्थु सूचेतीति गन्धो। रसन्ति तं सत्ता अस्सादेन्तीति रसो। फुसीयतीति फोटुब्बं । अत्तनो सभावं धारेन्तीति धम्मा। सब्बानि पन आयानं तननादिअत्थेन आयतनानि। अयमेत्थ सङ्केपो, वित्थारो पन विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं (विसुद्धि० २.५१०, ५११, ५१२; विसुद्धि० टी० २.५१०) वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । 296 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८४-३८४) आयतनपब्बवण्णना चक्खुञ्च पजानातीति (दी० नि० २.३८४ म० नि० १.११७) एत्थ चक्खु नाम पसादचक्खु, न ससम्भारचक्खु, नापि दिब्बचक्खु आदिकन्ति आह चक्खुपसादन्ति । यं सन्धाय वुत्तं "यं चक्खु चतुन्नं महाभूतानं उपादाय पसादो 'ति । (ध० स० ५९६ ) च - सद्दो वक्खमानत्थसमुच्चयत्थो । याथावसरसलक्खणवसेनाति अविपरीतस्स अत्तनो रसस्स चेव लक्खणस्स च वसेन, रूपेसु आविञ्छनकिच्चस्स चेव रूपाभिघातारहभूतपसादलक्खणस्स च दट्टुकामतानिदानकम्मसमुट्ठानभूतपसादलक्खणस्स च वसेनाति अत्थो । अथ वा याथावसरसलक्खणवसेनाति याथावसरसवसेन चेव लक्खणवसेन च, याथावसरसोति च अविपरीतसभावो वेदितब्बो । सो हि रसीयति अविरद्धपटिवेधवसेन अस्सादीयति रमीयतीति "रसो "ति वुच्चति, तस्मा सलक्खणवसेनाति वुत्तं होति । लक्खणवसेनाति अनिच्चादिसामञ्ञलक्खणवसेन । " चक्खुञ्च पटिच्च रूपे च उप्पज्जति चक्खुविञ्ञाण"न्तिआदीसु (म० नि० १.२०४, ४००; म० नि० ३.४२१, ४२५, ४२६, सं० नि० १.२.४३, ४५; २.४.६०) समुदितानियेव रूपायतनानि चक्खुविञ्ञाणुप्पत्तिहेतु, न विसुं विन्ति इमस्स अत्थस्स जोतनत्थं "रूपे चा "ति पुथुवचनग्गहणं, ताय एव च देसनागतिया कामं धापि " रूपे च पजानातीति वुत्तं रूपभावसामञ्ञेन पन सब्बं एकज्झं गहेत्वा बहिद्धा चतुसमुट्ठानिकरूपञ्चाति एकवचनवसेन अत्थो । सरसलक्खण वसेनाति चक्खुविञणस् विसयभावकिच्चस्स वसेन चेव चक्खुपटिहननलक्खणस्स वसेन चाति योजेतब्बं । २९७ उभयं पटिच्चाति चक्खुं उपनिस्सयपच्चयवसेन पच्चयभूतं, रूपे आरम्मणाधिपतिआरम्मणूपनिस्सयवसेन पच्चयभूते च पटिच्च । कामं अयं सुत्तन्तसंवण्णना, निप्परियायकथा नाम अभिधम्मसन्निस्सिता एवाति अभिधम्मनयेनेव संयोजनानि दस्सेन्तो “कामराग... पे०... अविज्जासंयोजन "न्ति आह । तत्थ कामेसु रागो, कामो च सो रागो चाति वा कामरागो । सो एव बन्धनट्टेन संयोजनं । अयहि यस्स संविज्जति, तं पुग्गलं वट्टस्मिं संयोजेति बन्धति इति दुक्खेन सत्तं भवादिके वा भवन्तरादीहि, कम्मुना वा विपाकं संयोजेति बन्धतीति संयोजनं । एवं पटिघसंयोजंआदीनम्पि यथारहमत्थो वत्तब्बो । सरसलक्खणवसेनाति एत्थ पन सत्तस्स वट्टतो अनिस्सज्जनसङ्घातस्स अत्तनो किच्चस्स चेव यथावुत्तबन्धनसङ्घातस्स लक्खणस्स च वसेनाति योजेतब्बं । भवस्साददिट्ठिस्सादनिवत्तनत्थं कामस्सादग्गहणं । अस्सादयतोति 297 अभिरमन्तस्स । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८४-३८४) अभिनन्दतोति सप्पीतिकतण्हावसेन नन्दन्तस्स। पदद्वयेनापि बलवतो कामरागस्स पच्चयभूता कामरागुप्पत्ति वुत्ता। एस नयो सेसेसुपि। अनिद्वारम्मणेति एत्थ "आपाथगते''ति विभत्तिविपरिणामनवसेन “आपाथगत''न्ति पदं आनेत्वा सम्बन्धितब् । एतं आरम्मणन्ति एतं एवंसुखुमं एवंदुब्बिभागं आरम्मणं । "निच्चं धुव"न्ति इदं निदस्सनमत्तं । "उच्छिज्जिस्सति विनस्सिस्सतीति गण्हतो''ति एवमादीनम्पि सङ्गहो इच्छितब्बो। पठमाय सक्कायदिट्ठिया अनुरोधवसेन "सत्तो नु खो"ति, इतराय अनुरोधवसेन "सत्तस्स नु खो"ति विचिकिच्छतो। अत्तत्तनियादिगाहानुगता हि विचिकिच्छा दिट्ठिया असति अभावतो। भवं पत्थेन्तस्साति "ईदिसे सम्पत्तिभवे यस्मा अम्हाकं इदं इटुं रूपारम्मणं सुलभं जातं, तस्मा आयतिम्पि एदिसो, इतो वा उत्तरितरो सम्पत्तिभवो भवेय्या'ति भवं निकामेन्तस्स । एवरूपन्ति एवरूपं रूपं । तंसदिसे हि तब्बोहारवसेनेवं वुत्तं । भवति हि तंसदिसेसु तब्बोहारो यथा “सा एव तित्तिरी, तानि एव ओसधानी''ति । उसूयतोति उसूर्य इस्सं उप्पादयतो । अञस्स मच्छरायतोति अझेन असाधारणभावकरणेन मच्छरियं करोतो । सब्बेहेव यथावुत्तेहि नवहि संयोजनेहि । तञ्च कारणन्ति सुभनिमित्तपटिघनिमित्तादिविभागं इट्ठानिट्ठादिरूपारम्मणञ्चेव तज्जायोनिसोमनसिकारञ्चाति तस्स तस्स संयोजनस्स कारणं। अविक्खम्भितासमूहतभूमिलद्धप्पन्नं तं सन्धाय "अप्पहीनटेन उप्पन्नस्सा"ति वुत्तं । वत्तमानुप्पन्नता समुदाचारग्गहणेनेव गहिता । येन कारणेनाति येन विपस्सनासमथभावनासङ्घातेन कारणेन । तहि तस्स तदङ्गवसेन चेव विक्खम्भनवसेन च पहानकारणं । इस्सामच्छरियानं अपायगमनीयताय पठममग्गवज्झता वुत्ता । यदि एवं “तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होती"ति (अ० नि० १.४.२४१) सुत्तपदं कथन्ति ? तं सुत्तन्तपरियायेन वुत्तं । यथानुलोमसासना हि सुत्तन्तदेसना, अयं पन अभिधम्मनयेन संवण्णनाति नायं दोसोति ओळारिकस्साति थूलस्स, यतो अभिण्हसमुप्पत्तिपरियुट्ठानतिब्बताव होति । अणुसहगतस्साति वुत्तप्पकाराभावेन अणुभावं सुखुमभावं गतस्स । उद्धच्चसंयोजनस्सपेत्थ अनुप्पादो वुत्तोयेवाति दट्ठब्बो यथावुत्तसंयोजनेहि अविनाभावतो। एकत्थताय सोतादीनं सभावसरसलक्खणवसेन पजानना, तप्पच्चयानं संयोजनानं उप्पादादिपजानना च वुत्तनयेनेव वेदितब्बाति दस्सेन्तो "एसेव नयो"ति अतिदिसति । __ अत्तनो वा धम्मेसूति अत्तनो अज्झत्तिकायतनधम्मेसु, अत्तनो उभयधम्मेसु वा । इमस्मिं पक्खे अज्झत्तिकायतनपरिग्गण्हनेनाति अज्झत्तिकायतनपरिग्गण्हनमुखेनाति अत्थो । 298 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना २९९ एवञ्च अनवसेसतो सपरसन्तानेसु आयतनानं परिग्गहो सिद्धो होति । परस्स वा धम्मेसूति एत्थापि एसेव नयो। रूपायतनस्साति अड्डेकादसप्पभेदस्स रूपसभावस्स आयतनस्स रूपक्खन्धे “वुत्तनयेन नीहरितब्बो'"ति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । सेसक्खन्धेसूति वेदनासासङ्घारक्खन्धेसु । वुत्तनयेनाति इमिना अतिदेसेन रूपक्खन्धे “आहारसमुदया"ति विणक्खन्धे “नामरूपसमुदया"ति सेसखन्धेसु “फस्ससमुदया''ति इमं विसेसं विभावेति, इतरं पन सब्बत्थ समानन्ति खन्धपब्बे विय आयतनपब्बेपि लोकुत्तरनिवत्तनं पाळियं गहितं नत्थीति वुत्तं "लोकुत्तरधम्मा न गहेतब्बा"ति | सेसं वुत्तनयमेव | आयतनपब्बवण्णना निहिता। बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३८५. बुज्झनकसत्तस्साति किलेसनिद्दाय पटिबुज्झनकसत्तस्स, अरियसच्चानं वा पटिविज्झनकसत्तस्स । अङ्गेसूति कारणेसु, अवयवेसु वा । उदयवयआणुप्पत्तितो पट्ठाय सम्बोधिपटिपदायं ठितो नाम होतीति आह “आरद्धविपस्सकतो पट्ठाय योगावचरोति सम्बोधी"ति । सुत्तन्तदेसना नाम परियायकथा, अयञ्च सतिपट्ठानदेसना लोकियमग्गवसेन पवत्ताति वुत्तं "योगावचरोति सम्बोधी"ति, अञथा “अरियसावको''ति वदेय्य । "सतिसम्बोझङ्गहानीया"ति पदस्स अत्थो “विचिकिच्छाह्रानीया"ति एत्थ वुत्तनयेन वेदितब्बो । तन्ति योनिसोमनसिकारं । तत्थाति सतियं, निप्फादेतब्बे चेतं भुम्मं । सति च सम्पजञञ्च सतिसम्पजझं। अथ वा सतिप्पधानं अभिक्कन्तादिसात्थकभावपरिग्गण्हनत्राणं सतिसम्पजख्। तं सब्बत्थ सतोकारीभावावहत्ता सतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय होति । यथा पच्चनीकधम्मप्पहानं, अनुरूपधम्मसेवना च अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय होति, एवं सतिरहितपुग्गलविवज्जना, सतोकारीपुग्गलसेवना, तत्थ च युत्तप्पयुत्तता सतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय होतीति इममत्थं दस्सेति “सतिसम्पजञ"न्तिआदिना । तिस्सदत्तत्थेरो नाम, यो बोधिमण्डे सुवण्णसलाकं 299 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ( ९.३८५-३८५) गहेत्वा “अट्ठारससु भासासु कतरभासाय धम्मं कथेमी" ति परिसं पवारेसि । अभयत्थेरोति दत्ताभयत्थेरमाह । दीघनिकाये महावग्गटीका धम्मानं, धम्मेसु वा विचयो धम्मविचयो, सो एव सम्बोज्झङ्गी, तस्स धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स । “कुसलाकुसला धम्मा" तिआदीसु यं वत्तब्बं तं हेट्ठा वुत्तनयमेव । तत्थ योनिसोमनसिकारबहुलीकारोति कुसलादीनं तंतंसभावसरसलक्खणआदिकस्स याथावतो अवबुज्झनवसेन उप्पन्नो आणसम्पयुत्तचित्तुप्पादो । सो हि अविपरीतमनसिकारताय “योनिसोमनसिकारो "ति वुत्तो, तदाभोगताय आवज्जनापि तग्गतिका एव, तस्स अभिहं पवत्तनं बहुलीकारो। भिय्योभावायाति पुनप्पुनं भावाय । वेपुल्लायाति विपुलभावाय । पारिपूरियाति परिब्रूहनाय । 66 परिपुच्छकतात परियोगाहेत्वा पुच्छकभावो । आचरिये पयिरुपासित्वा पञ्चपि निकाये सह अट्ठकथाय परियोगाहेत्वा यं यं तत्थ गण्ठिट्ठानभूतं तं तं “इदं भन्ते कथं, इमस्स को अत्थो "ति खन्धायतनादिअत्थं पुच्छन्तस्स धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जति । तेनाह “ खन्धधातु... पे०... बहुलता "ति । वत्थूनं विसदभावकरणन्ति एत्थ चित्तचेतसिकानं पवत्तिट्ठानभावतो सरीरं, तप्पटिबद्धानि चीवरानि च "वत्थूनी" ति अधिप्पेतानि तानि यथा चित्तस्स सुखावहानि होन्ति, तथा करणं ते विसदभावकरणं । तेन वुत्तं 'अज्झत्तिकबाहिरान "न्तिआदि । उस्सन्नदोसन्ति वातादिउस्सन्नदोसं । सेदमलमक्खितन्ति सेदेन चेव जल्लिकासङ्घातेन सरीरमलेन च मक्खितं । च सद्देन अञ्ञम्पि सरीरस्स, चित्तस्स च पीळावहं सङ्गण्हाति । सेनासनं वाति वा - सद्देन पत्तादीनं सङ्ग्रहो दट्ठब्बो । अविसदे सति, विसयभूते वा । कथं भावनमनुयुत्तस्स तानि विसयो ? अन्तरन्तरा पवत्तनकचित्तुप्पादवसेनेवं वृत्तं । ते हि चित्तुप्पादा चित्तेकग्गताय अपरिसुद्धभावाय संवत्तन्ति । चित्तचेतसिकेसु निस्सयादिपच्चयभूतेसु । ञाणम्पीति पि- सद्दो सम्पिण्डनत्थो, तेन न केवलं तं वत्थुयेव, अथ खो तस्मिं अपरिसुद्धे आणम्पि अपरिसुद्धं होतीति निस्सयापरिसुद्धिया तंनिस्सितापरिसुद्धि विय विसयस्स अपरिसुद्धताय विसयिनो अपरिसुद्धिं दस्सेति । समभावकरणन्ति किच्चतो अनूनाधिकभावकरणं । सद्धेय्यवत्थुस्मिं पच्चयवसेन अधिमोक्खकिच्चस्स पटुतरभावेन, पञ्ञाय अविसदताय वीरियादीनञ्च सिथिलतादिना सद्धिन्द्रियं बलवं होति । तेनाह " इतरानि मन्दानी "ति । ततोति तस्मा सद्धिन्द्रियस्स , 300 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८५ - ३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना बलवभावतो, इतरेसञ्च मन्दत्ता । कोसज्जपक्खे पतितुं अदत्वा सम्पयुत्तधम्मानं पग्गहनं अनुबलप्पदानं पग्गहो, पग्गहोव किच्चं पग्गहकिच्चं, “कातुं न सक्कोती 'ति आनेत्वा सम्बन्धितब्बं । आरम्मणं उपगन्त्वा ठानं, अनिस्सज्जनं वा उपट्ठानं । विक्खेपपटिक्खेपो, येन वा सम्पयुत्ता अविक्खित्ता होन्ति, सो अविक्खेपो । रूपगतं विय चक्खुना येन याथावतो विसयसभावं पस्सति, तं दस्सनकिच्चं । कातुं न सक्कोति बलवता सद्धिन्द्रियेन अभिभूतत्ता । सहजातधम्मेसु हि इन्दट्ठे कारेन्तानं सहपवत्तमानानं धम्मानं एकरसतावसेनेव अत्थसिद्धि, न अञ्ञथा । तस्माति वृत्तमेवत्थं कारणभावेन पच्चामसति । तन्ति सद्धिन्द्रियं । धम्मसभावपच्चवेक्खणेनाति यस्स सद्धेय्यस्स वत्थुनो उळारतादिगुणे अधिमुच्चनस्स सातिसयप्पवत्तिया सद्धिन्द्रियं बलवं जातं, तस्स पच्चयपच्चयुप्पन्नतादिविभागतो याथावत वीमंसनेन । एवहि एवंधम्मतानयेन सभावसरसतो परिग्गरहमाने सविप्फारो अधिमोक्खो न होति “अयं इमेसं धम्मानं सभावोति परिजाननवसेन पञ्ञाब्यापारस्स सातिसयत्ता । धुरियधम्मेसु हि यथा सद्धाय बलवभावे पञ्ञाय मन्दभावो होति, एवं पञ्ञाय बलवभावे सद्धाय मन्दभावो होतीति । तेन वुत्तं “तं धम्मसभावपच्चवेक्खणेन वा, यथा वा मनसिकरोतो बलवं जातं, तथा अमनसिकारेन हापेतब्ब"न्ति । तथा अमनसिकारेनाति येनाकारेन भावनं अनुयुञ्जन्तस्स सद्धिन्द्रियं बलवं जातं, तेनाकारेन भावनाय अननुयुञ्जनतोति वुत्तं होति । इध दुविधेन सद्धिन्द्रियस्स बलवभावो अत्तनो वा पच्चयविसेसेन किच्चुत्तरियतो, वीरियादीनं वा मन्दकिच्चताय । तत्थ पठमविकप्पे हापनविधि दस्सितो । दुतियकप्पे पन यथा मनसि करोतो वीरियादीनं मन्दकिच्चताय सद्धिन्द्रियं बलवं जातं, तथा अमनसिकारेन, वीरियादीनं पटुकिच्चभावावहेन मनसिकारेन सद्धिन्द्रियं तेहि समरसं करोन्तेन हापेतब्बं । इमिना नयेन सेसिन्द्रियेसुपि हापनविधि वेब्ब । वक्कलित्थेरवत्थूति । सो हि आयस्मा सद्धाधिमुत्तताय कताधिकारो सत्थु रूपकायदस्सनप्पसुतो एव हुत्वा विहरन्ती सत्थारा " किं ते वक्कलि इमिना पूतिकायेन दिट्ठेन, यो खो वक्कलि धम्मं पस्सति, सो मं पस्सती तिआदिना (सं० नि० २.३.८७; दी० नि० अट्ट० १. पठममहासङ्गीतिकथा; अ० नि० अट्ट० १.१.२०८; ध० प० अट्ठ० २.३८० ; पटि० म० अट्ठ० २.२.१३०; ६० स० अट्ठ० १००७, थेरगा० अट्ठ० २.वक्कलित्थेरगाथावण्णना) ओवदित्वा कम्मट्ठाने नियोजितोपि तं अननुयुञ्जन्तो पणामितो अत्तानं विनिपातेतुं पपातट्ठानं अभिरुहि, अथ नं सत्था यथानिसिन्नोव ओभासं विस्सज्जनेन अत्तानं दस्सेत्वा - ३०१ 301 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८५-३८५) “पामोज्जबहुलो भिक्खु, पसन्नो बुद्धसासने । अधिगच्छे पदं सन्तं, सङ्घारूपसमं सुख"न्ति ।। (ध० प० ३८१) गाथं वत्वा “एहि वक्कली"ति आह । सो तेन अमतेनेव अभिसित्तो हट्टतुट्ठो हुत्वा विपस्सनं पट्ठपेसि। सद्धाय बलवभावतो विपस्सनावीथिं न ओतरति, तं ञत्वा भगवा तस्स इन्द्रियसमत्तपटिपादनाय कम्मट्ठानं सोधेत्वा अदासि । सो सत्थारा दिन्ननये ठत्वा विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा मग्गप्पटिपाटिया अरहत्तं पापुणि । तेनेतं वुत्तं “वक्कलित्थेरवत्थु चेत्थ निदस्सन"न्ति । एत्थाति सद्धिन्द्रियस्स अधिमत्तभावे सेसिन्द्रियानं सकिच्चाकरणे । इतरकिच्चभेदन्ति उपट्ठानादिकिच्चविसेसं। पस्सद्धादीति आदि-सद्देन समाधिउपेक्खासम्बोज्झङ्गानं सङ्गहो दट्ठब्बो। हापेतब्बन्ति यथा सद्धिन्द्रियस्स बलवभावो धम्मसभावपच्चवेक्खणेन हायति, एवं वीरियिन्द्रियस्स अधिमत्तता पस्सद्धिआदिभावनाय हायति समाधिपक्खियत्ता तस्सा । तथा हि समाधिन्द्रियस्स अधिमत्ततं कोसज्जपाततो रक्खन्ती वीरियादिभावना विय वीरियिन्द्रियस्स अधिमत्ततं उद्धच्चपाततो रक्खन्ती एकंसतो हापेति। तेन वुत्तं "पस्सद्धआदिभावनाय हापेतब्ब"न्ति। सोणत्थेरस्स वत्थूति सुकुमारसोणत्थेरस्स वत्थु । (महाव० २४२; अ० नि० अट्ठ० १.१.२०५) सो हि आयस्मा सत्थु सन्तिके कम्मट्टानं गहेत्वा सीतवने विहरन्तो "मम सरीरं सुखुमालं, न च सक्का सुखेनेव सुखं अधिगन्तुं, किलमेत्वापि समणधम्मो कातब्बो''ति तं ठानचङ्कममेव अधिट्ठाय पधानं अनुयुञ्जन्तो पादतलेसु फोटेसु उद्वितेसुपि वेदनं अज्झुपेक्खित्वा दळ्हं वीरियं करोन्तो अच्चारद्धवीरियताय विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि । सत्था तत्थ गन्त्वा वीणूपमोवादेन ओवदित्वा वीरियसमतायोजनवीथिं दस्सेन्तो कम्मट्ठानं सोधेत्वा गिज्झकूटं गतो। थेरोपि सत्थारा दिन्ननयेन वीरियसमतं योजत्वा भावेन्तो विपस्सनं उस्सुक्कापेत्वा अरहत्ते पतिट्ठासि । तेन वुत्तं "सोणत्थेरस्स वत्थु दस्सेतब्ब"न्ति । सेसेसुपीति सतिसमाधिपञ्जिन्द्रियेसुपि । समतन्ति सद्धापञानं अञ्जमलं अनूनानधिकभावं, तथा समाधिवीरियानं । यथा हि सद्धापञानं विसुं विसुं धुरियधम्मभूतानं किच्चतो अञमनं नातिवत्तनं विसेसतो इच्छितब्द, यतो नेसं समधुरताय अप्पना सम्पज्जति, एवं समाधिवीरियानं कोसज्जुद्धच्चपक्खिकानं समरसताय सति अञमञ्जूपत्थम्भनतो सम्पयुत्तधम्मानं अन्तद्वयपाताभावेन सम्मदेव अप्पना इज्झति । "बलवसद्धो"तिआदि ब्यतिरेकमुखेन 302 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५ - ३८५) वुत्तस्सेव अत्थस्स समत्थनं । तस्सत्थो यो बलवतिया सद्धाय समन्नागतो अविसदत्राणो, सो मुधप्पसन्नो होति, न अवेच्चप्पसन्नो। तथा हि अवत्थुस्मिं पसीदति सेय्यथापि तित्थियसावका | केराटिकपक्खन्ति साठेय्यपक्खं भजति । सद्धाहीनाय पञ्ञाय अतिधावन्तो " देय्यवत्थुपरिच्चागेन विना चित्तुप्पादमत्तेनपि दानमयं पुञ्ञ होती "तिआदीनि परिकप्पेति हेतुपतिरूपकेहि वञ्चितो, एवंभूतो च सुक्खतक्कविलुत्तचित्तो पण्डितानं वचनं नाि सञ्ञत्तिं न गच्छति । तेनाह " भेसज्जसमुट्ठितो विय रोगो अतेकिच्छो होती 'ति । यथा सद्धापञ्ञनं अञ्ञमञ्ञं विसमभावो न अत्थावहो, अनत्थावहोव, एवं समाधिवीरियानं अञ्ञमञ्ञ विसमभावो न अत्थावहो, अनत्थावहोव, तथा न अविक्खेपावहो, विक्खेपावहोवाति । कोसज्जं अभिभवति, तेन अप्पनं न पापुणातीति अधिप्पायो । उद्धच्चं अभिभवतीति एत्थापि एसेव नयो । तदुभयन्ति सद्वापञ्ञद्वयं समाधिवीरियद्वयञ्च । समं कातब्बन्ति समरसं कातब्बं । बोज्झङ्गपब्बवण्णना समाधिकम्मिकस्साति समथकम्मट्ठानिकस्स । एवन्ति एवं सन्ते, सद्धाय थोकं बलवभावे सतीति अत्थो । सद्दहन्तोति “पथवी पथवीति मनसिकरणमत्तेन कथं झानुप्पत्ती' 'ति अचिन्तेत्वा “अद्धा सम्मासम्बुद्धेन वुत्तविधि इज्झिरसती 'ति सद्दहन्तो सद्धं जनेन्तो । ओकप्पेन्तोति आरम्मणं अनुपविसित्वा विय अधिमुच्चनवसेन अवकप्पेन्तो पक्खन्दन्तो एकग्गता बलवती वट्टति समाधिप्पधानत्ता झानस्स । उभिन्नन्ति समाधिपञ्जनं । समाधिकम्मिकस्स समाधिनो अधिमत्तताय पञ्ञाय अधिमत्ततापि इच्छितब्बाति आह " समतायपी" ति, समभावेनापीति अत्थो । अप्पनाति लोकियप्पना । तथा हि " होतियेवा" ति सासङ्कं वदति । लोकुत्तरप्पना पन तेसं समभावेनेव इच्छिता । यथाह " समथविपस्सनं युगनन्धं भावेतीति (अ० नि० १.४.१७०; पटि० म० २.५) । यदि विसेसतो सद्धापञ्ञानं, समाधिवीरियानञ्च समताव इच्छिता, कथं सतीति आह “ सति पन सब्बत्थ बलवती वट्टती "ति । सब्बत्थाति लीनुद्धच्चपक्खिकेसु पञ्चसु इन्द्रियेसु । उद्धच्चपक्खिकेकदेसे गण्हन्तो “सद्धावीरियपञ्ञानन्ति आह । अञ्ञथा पीति च गहेतब्बा सिया । तथा हि “कोसज्जपक्खिकेन समाधिना" इच्चेव वुत्तं, न ‘“पस्सद्धिसमाधिउपेक्खाही "ति । साति सति । सब्बेसु राजकम्मेसु नियुत्तो सब्बकम्मिको । तेनाति तेन सब्बत्थ इच्छितब्बट्ठेन कारणेन । आह अट्ठकथायं । सब्बत्थ नियुत्ता सब्बत्थिका सब्बत्थ लीने, उद्धते च चित्ते इच्छितब्बत्ता, सब्बे वा लीने, उद्धते च चित्ते भावेतब्बा ३०३ 303 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गा अस्थिका एतायाति सब्बत्थिका। चित्तन्ति कुसलं चित्तं । तस्स हि सति पटिसरणं परायणं अप्पत्तस्स पत्तिया अनधिगतस्स अधिगमाय । तेनाह "आरक्खपच्चुपट्टाना"तिआदि । खन्धादिभेदे अनोगाळ्हपञानन्ति परियत्तिबाहुसच्चवसेनपि खन्धायतनादीसु अप्पतिहितबुद्धीनं । बहुस्सुतसेवना हि सुतमयआणावहा। तरुणविपस्सनासमङ्गीपि भावनामयजाणे ठितत्ता एकंसतो पञवा एव नाम होतीति आह "समपञास लक्खणपरिग्गाहिकाय उदयब्बयपाय समन्नागतपुग्गलसेवना"ति। जेय्यधम्मस्स गम्भीरभाववसेन तप्परिच्छेदकजाणस्स गम्भीरभावग्गहणन्ति आह “गम्भीरेसु खन्धादीसु पवत्ताय गम्भीरपाया"ति । तहि जेय्यं तादिसाय पाय चरितब्बतो गम्भीरञाणचरियं, तस्सा वा पञ्जाय तत्थ पभेदतो पवत्ति गम्भीरञाणचरिया, तस्सा पच्चवेक्षणाति आह "गम्भीरपाय पभेदपच्चवेक्षणा"ति । यथा सतिवेपुल्लप्पत्तो नाम अरहा एव, एवं पञ्जावेपुल्लप्पत्तोतिपि सो एवाति आह "अरहत्तमग्गेन भावनापारिपूरी होती"ति । वीरियादीसुपि एसेव नयो । "तत्तं अयोखिलं हत्थे गमेन्ती"तिआदिना (म० नि० ३.२५०, २६७; अ० नि० १.३.३६) वृत्तपञ्चविधबन्धनकम्मकारणा निरये निब्बत्तसत्तस्स येभुय्येन सब्बपठमं करोन्तीति, देवदूतसुत्तादीसु तस्स आदितो वुत्तत्ता च आह “पञ्चविधबन्धनकम्मकारणतो पवाया"ति। सकटवहनादिकालेति आदि-सद्देन तदअमनुस्सेहि, तिरच्छानेहि च विबाधियमानकालं सङ्गण्हाति । “एकं बुद्धन्तरन्ति इदं अपरापरं पेतेसु एव उप्पज्जनकसत्तवसेन वुत्तं, एकच्चानं वा पेतानं एकच्चतिरच्छानानं विय तथा दीघायकतापि सियाति तथा वृत्तं । तथा हि "कालो नागराजा चतन्नं बद्धानं सम्मखीभावं लभित्वा ठितो मेत्तेय्यस्सपि भगवतो सम्मुखीभावं लभिस्सती"ति वदन्ति, यं तस्स कप्पायुकता वुत्ता। आनिसंसदस्साविनोति “वीरियायत्तो एव सब्बो लोकुत्तरो, लोकियो च विसेसाधिगमो''ति एवं वीरिये आनिसंसदस्सनसीलस्स। गमनवीथिन्ति सपुब्बभागं निब्बानगामिनि पटिपदं, सह विपस्सनाय अरियमग्गपटिपाटि, सत्तविसुद्धिपरम्परा वा । सा हि भिक्खुनो वट्टनिय्यानाय गन्तब्बा पटिपदाति कत्वा गमनवीथि नाम । कायदळहीबहुलोति यथा तथा कायस्स दळहीकम्मप्पसुतो । पिण्डन्ति रट्ठपिण्डं । पच्चयदायकानं अत्तनि कारस्स 304 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८५ - ३८५) अत्तनो सम्मापटिपत्तिया महफ्फलभावस्स करणेन पिण्डस्स भिक्खाय पटिपूजना पिण्डापचायनं । बोज्झङ्गपब्बवण्णना नीहरन्तोति पत्तथविकतो नीहरन्तो । तं सद्दं सुत्वाति तं उपासिकाय वचनं अत्तनो वसनपण्णसालद्वारे ठितोव पञ्चाभिञ्ञताय दिब्बसोतेन सुत्वा । मनुस्ससम्पत्ति, दिब्बसम्पत्ति, निब्बानसम्पत्तीति इमा तिस्सो सम्पत्तियो । दातुं सक्खिस्ससीति “तयि कतेन दानमयेन, वेय्यावच्चमयेन च पुञ्ञकम्मेन खेत्तविसेसभावूपगमनेन अपरापरं देवमनुस्ससम्पत्तियो, अन्ते निब्बानसम्पत्तिञ्च दातुं सक्खिस्ससी "ति थेरो अत्तानं पुच्छति । सितं करोन्तो वाति “अकिच्छेनेव मया वट्टदुक्खं समतिक्कन्त "न्ति पच्चवेक्खणावसाने सञ्जातपामोज्जवसेन सितं करोन्तो एव । विष्पटिपन्नन्ति जातिधम्मकुलधम्मादिलङ्घनेन असम्मापटिपन्नं । एवं यथा असम्मापटिपन्नो पुत्तो ताय एव असम्मापटिपत्तिया कुलसन्तानतो बाहिरो हुत्वा पितु सन्तिका दायज्जस्स न भागी, एवं कुसीतोपि तेन कुसीतभावेन असम्मापटिपन्नो सत्थु सन्तिका लद्धब्बअरियधनदायज्जस्स न भागी । आरद्धवीरियोव लभति सम्मापटिपज्जनतो । उप्पज्जति वीरियसम्बोज्झङ्गोति योजना, एवं सब्बत्थ | ३०५ महाति सीलादीहि गुणेहि महन्तो विपुलो अनञ्ञसाधारणो । तं पनस्स गुणमहत्तं दससहस्सिलोकधातुकम्पनेन लोके पाकटन्ति दस्सेन्तो " सत्थुनो ही " तिआदिमाह । यस्मा सत्थुसासने पब्बजितस्स पब्बज्जूपगमेन सक्यपुत्तस्सभावो सम्पजायति, तस्मा बुद्धपुत्तभावं दस्सेन्तो "असम्भिन्नाया "ति आदिमाह । अलसानं भावनाय नाममत्तम्पि अजानन्तानं कायदळहीबहुलानं यावदत्थं भुञ्जत्वा सेय्यसुखादि अनुयुञ्जनकानं तिरच्छानकथिकानं पुग्गलानं दूरतो वज्जना कुसीतपुग्गलपरिवज्जना । " दिवसं चङ्कमेन निसज्जाया "तिआदिना (म० नि० १.४२३; ३.६५, सं० नि० २.४.१२०; महानि० १६१) भावनारद्धवसेन आरद्धवीरियानं दळ्हपरक्कमानं कालेन कालं उपसङ्कमना आरद्धवीरियपुग्गलसेवना । तेनाह “कुच्छिं पूरेत्वा "तिआदि । विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.६४) पन जातिमहत्तपच्चवेक्खणा, सब्रह्मचारीमहत्तपच्चवेक्खणाति इदं द्वयं न गहितं, थिनमिद्धविनोदनता, 305 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ दीघनिकाये महावग्गटीका सम्मप्पधानपच्चवेक्खणताति इदं द्वयं गहितं । तत्थ आनिसंसदस्साविताय एव सम्मप्पधानपच्चवेक्खणा गहिता होति लोकियलोकुत्तरविसेसाधिगमस्स वीरियायत्तता - दस्सनभावतो । थिनमिद्धविनोदनं तदधिमुत्तताय एव गहितं होति, वीरियुप्पादने युत्तप्पयुत्तस्स थिनमिद्धविनोदनं अत्थसिद्धमेव । तत्थ थिनमिद्धविनोदनकुसीतपुग्गलपरिवज्जनआरद्धवीरियपुग्गलसेवनतदधिमुत्ततापटिपक्खविधमनपच्चयूपसंहारवसेन, वेक्खणादयो समुत्तेजनवसेन वीरियसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादका दट्ठब्बा | ( ९.३८५-३८५) पुरिमुप्पन्ना पीति परतो उप्पज्जनकपीतिया विसेसकारणसभागहेतुभावतो “पीतियेव पीतिसम्बोज्झङ्गट्टानीया धम्मा" ति वुत्ता, तस्सा पन बहुसो पवत्तिया पुथुत्तं उपादाय बहुवचननिद्देसो । यथा सा उप्पज्जति, एवं पटिपत्ति तस्सा उप्पादकमनसिकारो । "बुद्धानुस्सती "तिआदीसु वत्तब्बं विसुद्धिमग्गे (विसुद्धि० १.१२३) वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । अपायभयपच्च बुद्धानुस्सतिया उपचारसमाधिनिट्टत्ता वुत्तं " याव उपचारा "ति । सकलसरीरं फरमानोति पीतिसमुट्ठानेहि पणीतरूपेहि सकलसरीरं फरमानो । धम्मगुणे अनुस्सरन्तस्सापि याव उपचारा सकलसरीरं फरमानो पीतिसम्बोज्झङ्गो उप्पज्जतीति योजना, एवं सेसअनुस्सतीसु । पसादनीयसुत्तन्तपच्चवेक्खणायञ्च योजेतब्बं तस्सापि विमुत्तायतनभावेन तग्गतिकत्ता । सङ्घारानं सप्पदेसवूपसमेपि निप्पदेसवूपसमे विय तथा पञ्ञाय पवत्तितो भावनामनसिकारो किलेसविक्खम्भनसमत्थो हुवा उपचारसमाधिं आवहन्तो तथारूपपीतिसोमनस्ससमन्नागतो पीतिसम्बोज्झङ्गस्स उप्पादाय होतीति आह " समापत्तिया...पे०... पच्चवेक्खन्तस्सापी 'ति । तत्थ “विक्खम्भिता किलेसा "ति पाठो । ते हि न समुदाचरन्तीति । इति सद्दो कारणत्थो, यस्मा न समुदाचरन्ति तस्मा तं नेसं असमुदाचारं पच्चवेक्खन्तस्साति योजना । न हि किलेसे पच्चवेक्खन्तस्स बोज्झङ्गुप्पत्ति युत्ता । पसादनीयेसु ठानेसु पसादसिनेहाभावेन थूससमहदयता लूखता सा तत्थ आदरगारवाकरणेन विञ्ञायतीति आह “असक्कच्चकिरियाय संसूचितलूख भावे 'ति । कायचित्तदरथवूपसमलक्खणा पस्सद्धि एव यथावुत्तबोधिअङ्गभूतो पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो, तस्स पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स एवं उप्पादो होतीति योजना । 306 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.३८५ - ३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना पणीतसप्पायभोजनसेव नता । पणीत भोजनसेवनताति तुरियापथसुखग्गहणेन सप्पायउतुइरियापथग्गहणं दट्ठब्बं । तञ्हि तिविधम्पि सप्पायं सेवियमानं कायस्स कल्लतापादनवसेन चित्तस्स कल्लतं आवहन्तं दुविधायपि पस्सद्धिया कारणं होति । अहेतुकं सत्तेसु लब्भमानं सुखदुक्खन्ति अयमेको अन्तो, इस्सरादिविसमहेतुकन्ति पन अयं दुतियो | एते उभो अन्ते अनुपगम्म यथासकं कम्मुना होतीति अयं मज्झिमा पटिपत्ति । मज्झत्तो पयोगो यस्स सो मज्झत्तपयोगो, तस्स भावो मज्झत्तपयोगता । अयहि पहाय सारद्धकायतं पस्सद्धकायताय कारणं होन्ती पस्सद्धिद्वयं आवहति, एतेनेव सारद्धकायपुग्गलपरिवज्जनपस्सद्धकायपुग्गलसेवनानं तदावहनता संवण्णिताति दट्ठब्बं । यथासमाहिताकारसल्लक्खणवसेन गय्हमानो पुरिमुप्पन्नो समथो एव समथनिमित्तं । नानारम्मणे परिब्भमनेन विविधं अग्गं एतस्साति ब्यग्गो, विक्खेपो । तथा हि सो अनवट्ठानरसो, भन्ततापच्चुपट्ठानो च वुत्तो, एकग्गताभावतो ब्यग्गपटिपक्खोति अब्यग्गो, समाधि । सो एव निमित्तन्ति पुब्बे विय वत्तब्बं । तेनाह " अविक्खेपट्टेन च अब्यग्गनिमित्त "न्ति । ३०७ वत्थुविसदकिरिया, इन्द्रियसमत्तपटिपादना च पञ्ञावहा वुत्ता, समाधानावहापि ता होन्ति समाधानावहभावेनेव पञ्ञावहभावतोति वुत्तं " वत्थुविसद... पे०... वेदितब्बा "ति । करणभावनाकोसल्लानं अविनाभावतो, रक्खनको सल्लस्स च तंमूलकत्ता " निमित्तकुसलता नाम कसिणनिमित्तस्स उग्गहणकुसलता" इच्चेव वृत्तं । कसिणनिमित्तस्साति च निदस्सनमत्तं दट्ठब्बं। असुभनिमित्तस्सापि हि यस्स कस्सचि झानुप्पत्तिनिमित्तस्स उग्गहणकोसल्लं निमित्तकुसलता एवाति । अतिसिथिलवीरियतादीहीति आदि-सन पञ्ञापयोगमन्दतं, पमोदवेकल्लञ्च सङ्गण्हाति । तस्स पग्गण्हनन्ति तस्स लीनस्स चित्तस्स धम्मविचयसम्बोज्झङ्गादिसमुट्ठापनेन लयापत्तितो समुद्धरणं । वृत्तहेतं भगवता - - " यस्मिञ्च खो, भिक्खवे, समये लीनं चित्तं होति, कालो तस्मिं समये धम्मविचयसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय कालो वीरियसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, कालो पीतिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय । तं किस्स हेतु ? लीनं, भिक्खवे, चित्तं तं एते हि धम्मेहि सुसमुट्ठापयं होति । सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो परित्तं अग्गिं उज्जालितुकामो अस्स, सो तत्थ सुक्खानि चेव तिणानि पक्खिपेय्य, सुक्ख 307 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८५-३८५) गोमयानि पक्खिपेय्य, सुक्खानि कट्ठानि पक्खिपेय्य, मुखवातञ्च ददेय्य, न च पंसुकेन ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो पुरिसो परित्तं अग्गिं उज्जालितुन्ति । एवं भन्ते"ति (सं० नि० ३.५.२३४)। एत्थ च यथासकं आहारवसेन धम्मविचयसम्बोज्झङ्गादीनं भावनासमुट्ठापनाति वेदितब्बा, सा अनन्तरं विभाविता एव। आरद्धवीरियतादीहीति आदि-सद्देन पञापयोगबलवतं, पमोदुब्बिलावनञ्च सङ्गण्हाति । तस्स निग्गण्हनन्ति तस्स उद्धतस्स चित्तस्स समाधिसम्बोज्झङ्गादिसमुट्ठापनेन उद्धतापत्तितो निसेधनं । वुत्तम्पि चेतं भगवता “यस्मिञ्च खो, भिक्खवे, समये उद्धतं चित्तं होति, कालो तस्मिं समये पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, कालो समाधिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाय, कालो उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स भावनाय । तं किस्स हेतु ? उद्धतं, भिक्खवे, चित्तं तं एतेहि धम्मेहि सुवूपसमयं होति। सेय्यथापि, भिक्खवे, पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुकामो अस्स, सो तत्थ अल्लानि चेव तिणानि...पे०... पंसुकेन च ओकिरेय्य, भब्बो नु खो सो पुरिसो महन्तं अग्गिक्खन्धं निब्बापेतुन्ति । एवं भन्ते''ति (सं० नि० ३.५.२३४)। एत्थापि यथासकं आहारवसेन पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गादीनं भावनासमुट्ठापनाति वेदितब्बा, तत्थ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भावना वुत्ता एव । समाधिसम्बोज्झङ्गस्स अनन्तरं वक्खति । पापयोगमन्दतायाति पाब्यापारस्स अप्पभावेन । यथा हि दानं अलोभपधानं, सीलं अदोसपधानं, एवं भावना अमोहपधाना । तत्थ यदा पञ्जा न बलवती होति, तदा भावना पुब्बेनापरं विसेसावहा न होति, अनभिसङ्घतो विय आहारो पुरिसस्स योगिनो चित्तस्स अभिरुचिं न जनेति, तेन तं निरस्सादं होति, तथा भावनाय सम्मदेव अवीथिपटिपत्तिया उपसमसुखं न विन्दति, तेनापि चित्तं निरस्सादं होति। तेन वुत्तं "पञापयोग...पे०... निरस्सादं होती"ति। तस्स संवेगुप्पादनं, पसादुप्पादनञ्च तिकिच्छनन्ति तं दस्सेन्तो "अट्ठ संवेगवत्थूनी"तिआदिमाह | तत्थ जातिजराब्याधिमरणानि यथारहं सुगतियं, दुग्गतियञ्च होन्तीति तदञ्जमेव पञ्चविधबन्धनादिखुप्पिपासादि अञमनं विबाधनादिहेतुकं अपायदुक्खं दट्ठबं, तयिदं सब्बं तेसं तेसं सत्तानं पच्चुप्पन्नभवनिस्सितं गहितन्ति अतीते अनागते च काले वट्टमूलकदुक्खानि विसुं गहितानि । ये पन सत्ता आहारूपजीविनो, तत्थ च उट्टानफलूपजीविनो, तेसं अओहि 308 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८५-३८५) बोज्झङ्गपब्बवण्णना ३०९ असाधारणं जीविकादुक्खं अट्ठमं संवेगवत्थु गहितन्ति दट्टब्बं । अयं वुच्चति समये सम्पहंसनाति अयं भावनाचित्तस्स सम्पहंसितब्बसमये वुत्तनयेन संवेगजननवसेन चेव पसादुप्पादनवसेन च सम्मदेव पहंसना, संवेगजननपुब्बकपसादुप्पादनेन तोसनाति अत्थो । सम्मापटिपत्तिं आगम्माति लीनुद्धच्चविरहेन, समथवीथिपटिपत्तिया च सम्मा अविसमं सम्मदेव भावनापटिपत्तिं आगम्म । “अलीन"न्तिआदीसु कोसज्जपक्खिकानं धम्मानं अनधिमत्तताय अलीनं, उद्धच्चपक्खिकानं अनधिमत्तताय अनुद्धतं, पञापयोगसम्पत्तिया, उपसमसुखाधिगमेन च अनिरस्सादं, ततो एव आरम्मणे समप्पवत्तं समथवीथिपटिपत्रं । तत्थ अलीनताय पग्गहे, अनुद्धतताय निग्गहे, अनिरस्सादताय सम्पहंसने न ब्यापारं आपज्जति । अलीनानुद्धतता हि आरम्मणे समप्पवत्तं, अनिरस्सादताय समथवीथिपटिपन्नं, समप्पवत्तिया वा अलीनं अनुद्धतं । समथवीथिपटिपत्तिया अनिरस्सादन्ति दट्ठब्बं । अयं वुच्चति समये अज्झुपेक्खनताति अयं अज्झुपेक्खितब्बसमये भावनाचित्तस्स पग्गहनिग्गहसम्पहंसनेसु अब्यावटतासङ्घातं पटिपक्खं अभिभुय्य पेक्खना वुच्चति । पटिपक्खविक्खम्भनतो, विपस्सनाय अधिट्ठानभावूपगमनतो च उपचारज्झानम्पि समाधान किच्चनिप्फत्तिया पुग्गलस्स समाहितभावसाधनं एवाति तत्थ समधुरभावेनाह "उपचारं वा अप्पनं वा"ति । उपेक्खासम्बोज्झङ्गहानीया धम्माति एत्थ यं वत्तबं, तं हेट्ठा वुत्तनयानुसारेन वेदितब्बं । अनुरोधविरोधविप्पहानवसेन मज्झत्तभावो उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स कारणं तस्मिं सति सिज्झनतो, असति च असिज्झनतो । सो च मज्झत्तभावो विसयवसेन दुविधोति आह "सत्तमज्झत्तता सङ्घारमज्झत्तता"ति । तदुभये च विरुज्झनं पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गभावनाय एव दूरीकतन्ति अनुरुज्झनस्सेव पहानविधिं दस्सेतुं “सत्तमज्झत्तता''तिआदि वुत्तं । तेनाह "सत्तसङ्घारकेलायनपुग्गलपरिवज्जनता"ति । उपेक्खाय हि विसेसतो रागो पटिपक्खो। तथा चाह “उपेक्खा रागबहुलस्स विसुद्धिमग्गो''ति (विसुद्धि० १.२६७)। बीहाकारेहीति कम्मस्सकतापच्चवेक्खणं, अत्तसुञतापच्चवेक्खणन्ति इमेहि द्वीहि कारणेहि । द्वीहेवाति अवधारणं सङ्ख्यासमानतादस्सनत्थं । सङ्ख्या एवेत्थ समाना, न सङ्ख्येय्यं सब्बथा समानन्ति । अस्सामिकभावो अनत्तनियता। सति हि अत्तनि तस्स किञ्चनभावेन चीवरं, अजं वा किञ्चि अत्तनियं नाम सिया, सो पन कोचि नत्थेवाति अधिप्पायो। अनद्धनियन्ति न अद्धानक्खमं न चिरट्ठायि, इत्तरं अनिच्चन्ति अत्थो । तावकालिकन्ति तस्सेव वेवचनं । ममायतीति ममत्तं करोति “ममा"ति तण्हाय परिग्गय्ह तिट्ठति | 309 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३८६-३८८) ममायन्ताति मानं दब्बं करोन्ता । अयं सतिपट्ठानदेसना पुब्बभागमग्गवसेन देसिताति पुब्बभागियबोज्झङ्गे सन्धायाह "बोज्झङ्गपरिग्गाहिका सति दुक्खसच्च"न्ति । सेसं वुत्तनयत्ता सुविधेय्यमेव । बोज्झङ्गपब्बवण्णना निहिता। पठमभाणवारवण्णना निट्ठिता । चतुसच्चपब्बवण्णना __ ३८६. यथासभावतोति अविपरीतसभावतो। बाधनक्खणतो यो यो वा सभावो यथासभावो, ततो, रुप्पनादि कक्खळादिसभावतोति अत्थो । जनिकं समुट्ठापिकन्ति पवत्तलक्खणस्स दुक्खस्स जनिकं निमित्तलक्खणस्स समुट्ठापिकं । पुरिमतण्हन्ति यथापरिग्गहितस्स दुक्खस्स निब्बत्तितो पुरेतरं सिद्धं तण्हं । सिद्धे हि कारणे तस्स फलुप्पत्ति । अयं दुक्खसमुदयोति पजानातीति योजना । अयं दुक्खनिरोधोति एत्थापि एसेव नयो। उभिन्न अप्पवत्तिन्ति दुक्खं, समुदयो चाति द्विन्नं अप्पवत्तिनिमित्तं, तदुभयं न पवत्ति एतायाति अप्पवत्ति, असङ्घता धातु। दुक्खं दुक्खसच्चं परिजानाति परिञाभिसमयवसेन परिच्छिन्दतीति दुक्खपरिजाननो, अरियमग्गो, तं दुक्खपरिजाननं । सेसपदद्वयेपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो। दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३८८. एवं वुत्ताति एवं उद्देसवसेन वुत्ता। सब्बसत्तानं परियादानवचनं ब्यापनिच्छावसेन आमेडितनिद्देसभावतो। सत्तनिकायेति सत्तानं निकाये, सत्तघटे सत्तसमूहेति अत्थो । देवमनुस्सादिभेदासु हि गतीसु भुम्मदेवादिखत्तियादिहत्थिआदिखुप्पिपासिकादितंतंजातिविसिट्टो सत्तसमूहो सत्तनिकायो। निप्परियायतो खन्धानं पठमाभिनिब्बत्ति जातीति कत्वा "जननं जाती"ति वत्वा स्वायं उप्पादविकारो 310 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३८९-३८९) दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३११ अपरिनिप्फन्नो येसु खन्धेसु इच्छितब्बो, ते तेनेव सद्धिं दस्सेतुं “सविकारान"न्तिआदि वुत्तं । सविकारानन्ति उप्पादसङ्खातेन विकारेन सविकारानं । जातिआदीनि हि तीणि लक्खणानि धम्मानं विकारविसेसाति । "उपसग्गमण्डितवेवचन"न्ति इमिना केवलं उपसग्गेन पदवड्डनं कतन्ति दस्सेति । अनुपविट्ठाकारेनाति अण्डकोसं, वत्थिकोसञ्च ओगाहनाकारेन । निब्बत्तिसङ्घातेनाति आयतनानं पारिपूरिसंसिद्धिसङ्खातेन । अथ वा जननं जातीति अपरिपुण्णायतनं जातिमाह । सञ्जातीति सम्पुण्णायतनं । सम्पुण्णा हि जाति सञ्जाति । ओक्कमनटेन ओक्कन्तीति अण्डजजलाबुजवसेन जाति । ते हि अण्डकोसं, वत्थिकोसञ्च ओक्कमन्ता पविसन्ता विय पटिसन्धिं गण्हन्ति । अभिनिब्बत्तनटेन अभिनिब्बत्तीति संसेदजओपपातिकवसेन । ते हि पाकटा एव हुत्वा निब्बत्तन्ति । अभिब्यत्ता निब्बत्ति अभिनिब्बत्ति। “जननं जाती''तिआदि आयतनवसेन, योनिवसेन च द्वीहि द्वीहि पदेहि सब्बसत्ते परियादियित्वा जातिं दस्सेतुं वुत्तं । “तेसं तेसं सत्तानं...पे०... अभिनिब्बत्ती''ति सत्तवसेन वुत्तत्ता सम्मुतिकथा। पातुभावोति एत्थ इति-सद्दो आदिअत्थो, पकारत्थो वा, तेन “आयतनानं पटिलाभो''ति इमस्स पदस्स सङ्गहो दट्ठब्बो । अयम्पि हि परमत्थकथाति । एकवोकारभवादीसूति एकचतुपञ्चवोकारभवेसु । तस्मिं खन्धानं पातुभावे सति । आयतनानं पटिलाभोति एकचतुवोकारभवेसु द्विन्नं द्विन्नं आयतनानं वसेन, सेसेसु रूपधातुयं पटिसन्धिक्खणे उप्पज्जमानानं पञ्चन्नं, कामधातुयं विकलाविकलिन्द्रियानं वसेन सत्तन्नं, नवन्नं, दसन्नं, पुनदसन्नं, एकादसन्नञ्च आयतनानं वसेन सङ्गहो दट्टब्बो। पातुभवन्तानेव, न कुतोचि आगतानि । पटिलद्धानि नाम होन्ति सत्तसन्तानस्स तस्स संविज्जमानत्ता । आयतनानं पटिलाभोति वा आयतनानं अत्तलाभो वेदितब्बो। ___३८९. सभावनिद्देसोति सरूपनिद्देसो। सरूपग्हेतं जिण्णताय, यदिदं “जरा"ति, “वयोहानीति वा । जीरणमेव जीरणता, जीरन्तस्स वा आकारो ता-सद्देन वुत्तोति आह “आकारभावनिद्देसो"ति | खण्डितदन्ता खण्डिता नाम उत्तरपदलोपेन । यस्स विकारस्स वसेन सत्तो “खण्डितो"ति वुच्चति, तं खण्डिच्चं। तथा पलितानि अस्स सन्तीति “पलितो"ति वुच्चति, तं पालिच्चं। वलित्तचताय वा वलि तचो अस्साति वलित्तचो। फलूपचारेनाति फलवोहारेन । 311 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.३९०-३९२) ३९०. चवनमेव चवनता, चवन्तस्स वा आकारो ता-सद्देन वुत्तो। खन्धा भिज्जन्तीति एकभवपरियापन्नस्स खन्धसन्तानस्स परियोसानभूता खन्धा भिज्जन्ति, तेनेव भेदेन निरोधनं अदस्सनं गच्छन्ति, तस्मा भेदो अन्तरधानं मरणं । मच्चुमरणन्ति मच्चुसवातं एकभवपरियापन्नजीवितिन्द्रियुपच्छेदभूतं मरणं। तेनाह "न खणिकमरण"न्ति । “मच्चू मरण"न्ति समासं अकत्वा यो “मच्चू"ति वुच्चति भेदो, यञ्च मरणं पाणचागो, इदं वुच्चति मरणन्ति विसु सम्बन्धो न न युज्जति । कालकिरियाति मरणकालो, अनतिक्कमनीयत्ता विसेसेन “कालो"ति वुत्तोति तस्स किरिया, अत्थतो चुतिखन्धानं भेदप्पत्तियेव, कालस्स वा अन्तकस्स किरियाति या लोके वुच्चति, सा चुति, मरणन्ति अत्थो । अयं सब्बापि सम्मुतिकथाव “यं तेसं तेसं सत्तान''न्तिआदिना सत्तवसेन वुत्तत्ता । अयं परमत्थकथा परमत्थतो लब्भमानानं रुप्पनादिसभावानं धम्मानं विनस्सनजोतनाभावतो । अत्ताति भवति एत्थ चित्तन्ति अत्तभावो, खन्धसमूहो, तस्स निक्खेपो निक्खिपनं, पातनं विनासोति अत्थो । अट्ठकथायं पन "मरणं पत्तस्सा"तिआदिना निक्खेपहेतुताय पतनं “निखेपो"ति फलूपचारेन वुत्तन्ति दस्सेति । “खन्धानं भेदो"ति पबन्धवसेन पवत्तमानस्स धम्मसमूहस्स विनासजोतनाति एकदेसतो परमत्थकथा, "जीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदो"ति पनेत्थ न कोचि वोहारलेसो पीति आह “जीवितिन्द्रियस्स उपच्छेदो पन सब्बाकारतो परमत्थतो मरण"न्ति । एवं सन्तेपि यस्स खन्धभेदस्स पवत्तत्ता “तिस्सो मतो, फुस्सो मतो"ति वोहारो होति, सो भेदो खन्धप्पबन्धस्स अनुपच्छिन्नताय “सम्मुतिमरण"न्ति वत्तब्बतं अरहतीति आह "एतदेव सम्मुतिमरणन्तिपि बुच्चती"ति । तेनाह "जीवितिन्द्रियुपच्छेदमेव ही"तिआदि | सब्बसो पबन्धसमुच्छेदो हि समुच्छेदमरणन्ति । ___३९१. व्यसनेनाति अनत्थेन । “धम्मपटिसम्भिदा'"तिआदीसु (विभं० ७२१) विय धम्म-सद्दो हेतुपरियायोति आह “दुक्खकारणेना"ति । सोचनन्ति लक्खितब्बताय सोचनलक्खणो। सोचितस्स सोचनकस्स पुग्गलस्स, चित्तस्स वा भावो सोचितभावो। अन्भन्तरेति अत्तभावस्स अन्तो। अत्तनो लूखसभावताय सोसेन्तो । थामगमनेन समन्ततो सोसनवसेन परिसोसेन्तो। ३९२. “आदिस्स आदिस्स देवन्ति परिदेवन्ति एतेनाति आदेवो"ति आदेवन-सदं कत्वा अस्सुमोचनादिविकारं आपज्जन्तानं तब्बिकारापत्तिया सो सद्दो कारणभावेन वुत्तो । 312 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.३९३-३९८) दुक्खसच्चनिद्देसवण्णना ३१३ तं तं वण्णन्ति तं तं गुणं । तस्सेवाति आदेवपरिदेवस्सेव । भावनिदेसाति "आदेवितत्तं परिदेवितत्त"न्ति भावनिद्देसा । ३९३. निस्सयभूतो कायो एतस्स अत्थीति कायिकं । तेनाह "कायपसादवत्थुक"न्ति । दुक्करं खमनं एतस्साति दुक्खमनं, सो एव अत्थो सभावोति दुक्खमनट्ठो, तेन । सातविधुरताय असातं। ३९४. चेतसि भवन्ति चेतसिकं, तं पन यस्मा चित्तेन समं पकारेहि युत्तं, तस्मा आह "चित्तसम्पयुत्त"न्ति । ३९५. सब्बविसयपटिपत्तिनिवारणवसेन समन्ततो सीदनं संसीदनं। उट्ठातुम्पि असक्कुणेय्यताकरणवसेन अतिबलवं, विरूपं वा सीदनं विसीदनं। चित्तकिलमथोति विसीदनाकारेन चित्तस्स परिखेदो। उपायासो, सयं न दुक्खो दोसत्ता, सङ्खारक्खन्धपरियापन्नधम्मन्तरत्ता वा । ये पन दोमनस्समेव "उपायासो"ति वदेय्यु, ते “उपायासो तीहि खन्धेहि एकेनायतनेन एकाय धातुया सम्पयुत्तो, एकेन खन्धेन एकेनायतनेन एकाय धातुया केहिचि सम्पयुत्तो"ति (धातु० २४९)। इमाय पाळिया पटिक्खिपितब्बा। उप-सद्दो भुसत्थोति आह "बलवतरं आयासो उपायासो"ति । धम्ममत्ततादीपनो भावनिदेसो धम्मतो अचस्स कत्तुअभावजोतनो, असति च कत्तरि तेन कत्तब्बस्स, परिग्गहेतब्बस्स च अभावो एवाति आह "अत्तत्तनियाभावदीपकाभावनिद्देसा"ति। ३९८. जातिधम्मानन्ति एत्थ धम्म-सद्दो पकतिपरियायोति आह "जातिसभावानन्ति, जायनपकतिकानन्ति वुत्तं होति । मग्गभावनाय मग्गभावनिच्छाहेतुकता इच्छितब्बाति तादिसं इच्छं निवत्तेन्तो “विना मग्गभावन"न्ति आह । अपरो नयो न खो पनेतन्ति यमेतं “अहो वत मयं न जातिधम्मा अस्साम, न च वत नो जाति आगच्छेय्या''ति एवं पहीनसमुदयेसु अरियेसु विज्जमानं अजातिधम्मत्तं, परिनिब्बुतेसु च विज्जमानं जातिया अनागमनं इच्छितं, तं इच्छन्तस्सापि मग्गभावनाय विना अप्पत्तब्बतो, अनिच्छन्तस्सापि भावनाय पत्तब्बतो न इच्छाय पत्तब् नाम होतीति एवमेत्थ अत्थो दट्टब्बो | वक्खमानत्थसम्पिण्डनत्थो पि-सद्दोति आह "उपरि सेसानि उपादाय पि-कारो"ति । यन्ति हेतुअत्थे करणे पच्चत्तवचनन्ति आह "येनपि धम्मेना"ति । हेतुअत्थो हि अयं 313 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.४००-४००) धम्म-सद्दो, अलब्भनेय्यभावो एत्थ हेतु वेदितब्बो । तन्ति वा इच्छितस्स वत्थुनो अलब्भनं, एवमेत्थ “यम्पीति येनपीति विभत्तिविपल्लासेन अत्थो वुत्तो। यदा पन यं-सद्दो "इच्छ"न्ति एतं अपेक्खति, तदा अलाभविसिट्ठा इच्छा वुत्ता होति । यदा पन “न लभती"ति एतं अपेक्खति, तदा इच्छाविसिट्ठो अलाभो वुत्तो होति, सो पन अत्थतो अञो धम्मो नत्थि, तथापि अलब्भनेय्यवत्थुगता इच्छाव वुत्ता होति । सब्बत्थाति "जराधम्मान''न्तिआदिना आगतेसु सब्बवारेसु । समुदयसच्चनिद्देसवण्णना __ ४००. पुनभवकरणं पुनोन्भवो उत्तरपदलोपं कत्वा मनो-सद्दस्स विय पुरिमपदस्स ओ-कारन्तता दट्टब्बा । अथ वा सीलनटेन इक-सद्देन गमितत्थत्ता किरियावाचकस्स सदस्स अदस्सनं दट्ठब्बं यथा “असूपभक्खनसीलो असूपिको"ति । सम्मोहविनोदनियं पन “पुनब्भवं देति, पुनब्भवाय संवत्तति, पुनप्पुनं भवे निब्बत्तेतीति पोनोब्भविका"ति (विभं० अट्ठ० २०३) अत्थो वुत्तो सो "तद्धिता" इति बहुवचननिद्देसतो, विचित्तत्ता वा तद्धितवुत्तिया, अभिधानलक्खणत्ता वा तद्धितानं तेसुपि अत्थेसु पोनोब्भविकसदसिद्धि सम्भवेय्याति कत्वा वुत्तो। तत्थ कम्मुना सहजाता पुनब्भवं देति, असहजाता कम्मसहायभूता पुनब्भवाय संवत्तति, दुविधापि पुनप्पुनं भवे निब्बत्तेतीति दट्टब्बा । नन्दनढेन, रजनद्वेन च नन्दीरागो, यो च नन्दीरागो, या च तण्हायनद्वेन तण्हा, उभयमेतं एकत्थं, ब्यञ्जनमेव नानन्ति तण्हा "नन्दीरागेन सद्धिं अत्थतो एकत्तमेव गता"ति वुत्ता। तब्भावत्थो हेत्थ सह-सद्दो "सनिदस्सना धम्मा"तिआदीसु (ध० स० दुकमातिका ९) विय । तस्मा नन्दीरागसहगताति नन्दीरागभावं गता सब्बासुपि अवत्थासु नन्दीरागभावस्स अपच्चक्खाय वत्तनतोति अत्थो । रागसम्बन्धेन उप्पन्नस्साति वुत्तं । रूपारूपभवरागस्स विसुं वुच्चमानत्ता कामभवे एव भवपत्थनुप्पत्ति वुत्ताति वेदितब्बा । तस्मिं तस्मिं पियरूपे पठमुप्पत्तिवसेन "उप्पज्जती"ति वुत्तं, पुनप्पुनं पवत्तिवसेन "निविसती"ति । परियुट्ठानानुसयवसेन वा उप्पत्तिनिवेसा योजेतब्बा। सम्पत्तियन्ति मनुस्ससोभग्गे, देवत्ते च। अत्तनो चक्खुन्ति सवत्थुकं चक्टुं वदति, सपसादं वा मंसपिण्डं। विप्पसनं पञ्चपसादन्ति परिसुद्धसुप्पसन्ननीलपीतलोहितकण्हओदातवण्णवन्तं । रजतपनाळिकं विय छिदं अब्भन्तरे ओदातत्ता। पामङ्गसुत्तं विय आलम्बकण्णबद्धं । तुङ्गा उच्चा दीघा नासिका तुङ्गनासा, एवं लद्धवोहारं अत्तनो घानं । “लद्धवोहारा''ति वा पाठो, 314 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९.४०१ - ४०१ ) निरोधसच्चनिद्देसवण्णना तस्मिं सति तुङ्गा नासा येसं ते तुङ्गनासा, एवं लद्धवोहारा सत्ता अत्तनो घानन्ति योजना कातब्बा । जिव्हं... पे०... मञ्ञन्ति वण्णसण्ठानतो, किच्चतो च । कायं... पे०... मञ्ञन्ति आरोहपरिणाहसम्पत्तिया । मनं... पे०... मञ्ञन्ति अतीतादिअत्थचिन्तनसमत्थं । अत्तना पटिलद्धानि अज्झत्तञ्च सरीरगन्धादीनि बहिद्धा च विलेपनगन्धादीनि । उप्पज्जमाना उप्पज्जतीति यदा उप्पज्जमाना होति, तदा एत्थ उप्पज्जतीति सामञ्ञेन गहिता उप्पादकिरिया लक्खणभावेन वुत्ता, विसयविसिट्ठा च लक्खितब्बभावेन । न हि सामञ्ञविसेसेहि नानत्तवोहारो न होतीति । उप्पज्जमानाति वा अनिच्छितो उप्पादो हेतुभावेन वुत्तो, उप्पज्जतीति निच्छितो फलभावेन यदि उप्पज्जमाना होति, एत्थ उप्पज्जतीति । 7 निरोधसच्चनिद्देसवण्णना ४०१. “ सब्बानि निब्बानवेवचनानेवा" ति वत्वा तमत्थं पाकटतरं कातुं “निब्बानञ्ही”तिआदि आरद्धं । तत्थ आगम्माति निमित्तं कत्वा । निब्बानहेतुको हि तण्हाय असेसविरागनिरोधो । खयगमनवसेन विरज्जति । अप्पवत्तिगमनवसेन निरुज्झति । अनपेक्खताय चजनवसेन, हानिवसेन वा चजीयति । पुन यथा नप्पवत्तति, तथा दूर खिपनवसेन पटिनिस्सज्जीयति । बन्धनभूताय मोचनवसेन मुच्चति । असंकिलेसवसेन न अल्लीयति । कस्मा पनेतं निब्बानं एकमेव समानं नानानामेहि वुच्चतीति ? पटिपक्खनानतायाति दस्सेन्तो “एकमेव ही "तिआदिमाह । सङ्घतधम्मविधुरसभावत्ता निब्बानस्स नामानिपि गुणनेमित्तिकत्ता सङ्घतधम्मविधुरानेव होन्तीति वुत्तं "सब्बसङ्गतानं नामपटिपक्खवसेना "ति । असेसं विरज्जति तन्हा एत्थाति असेसविरागोति ! एस नयो सेसेसुपि । अयं पन विसेसो - नत्थि एतस्स उप्पादो, न वा एतस्मिं अधिगते पुग्गलस्स उप्पादोति अनुप्पादो, असङ्खतधम्मो । " अप्पवत्त "न्तिआदीसुपि इमिना नयेन अत्थो वेदितब्बो | आयूहनं समुदयो, तप्पटिपक्खवसेन अनायूहनं । तण्हा अप्पहीने सति यत्थ उप्पज्जति, पहाने पन सति तत्थ तत्थेवस्सा अभावो सुदस्सितोति आह " तत्थेव अभावं दस्सेतु" न्ति । अपञ्ञत्तिन्ति अपञ्ञापनं, “तित्त अलाबु अत्थी'ति वोहाराभावं वा । तित्तअलाबुवल्लिया अप्पवत्तिं इच्छन्तो पुरिसो विय अरियमग्गो, तस्स तस्सा अप्पवत्तिनिन्नचित्तस्स मूलच्छेदनं विय मग्गस्स निब्बानारम्भणस्स तण्हाय पहानं, तदप्पवत्ति विय तण्हाय अप्पवत्तिभूतं निब्बानं दट्ठब्बं । ३१५ 315 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ दीघनिकाये महावग्गटीका दुतियउपमायं दक्खिणद्वारं विय निब्बानं, चोरघातका विय मग्गो । दक्खिणद्वारे घातितापि चोरा पच्छा " अटवियं चोरा घातिता" ति वुच्चन्ति एवं निब्बानं आगम्म निरुद्धापि तहा “चक्खादीसु निरुद्धा "ति वुच्चति तत्थ किच्चकरणाभावतोति दट्ठब्बं पुरिमा वा उपमा मग्गेन निरुद्धाय “पियरूपसातरूपेसु निरुद्धा" ति वत्तब्बतादस्सनत्थं वुत्ता, पच्छिमा निब्बानं आगम्म निरुद्धाय “पियरूपसातरूपेसु निरुद्धा "ति वत्तब्बतादस्सनत्थं वृत्ताति अयं एतासं विसेसो । मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ४०२. अञ्ञमग्गपटिक्खेपनत्थन्ति तित्थियेहि परिकप्पितस्स मग्गस्स दुक्खनिरोधगामिनिपटिपदाभावपटिक्खेपनत्थं, अञ्ञस्स वा. मग्गभावपटिक्खेपो अञ्ञमग्गपटिक्खेपो, तदत्थं । 'अयन्ति पन अत्तनो तेसु च भिक्खूसु एकच्चानं पच्चक्खभावतो आसन्नपच्चक्खवचनं । आरकत्ताति निरुत्तिनयेन अरियसद्दसिद्धिमाह । अरियभावकरत्ताति अरियकरणो अरियोति उत्तरपदलोपेन, पुग्गलस्स अरियभावकत्ता अरियं करोतीति वा अरियो, अरियफलपटिलाभकरत्ता वा अरियं फलं लभापेति जनेतीति अरियो । पुरिमेन चेत्थ अत्तनो किच्चवसेन, पच्छिमेन फलवसेन अरियनामलाभो वृत्ति दट्ठब्बो । चतुसच्चपटिवेधावहं कम्मट्ठानं चतुसच्चकम्मट्ठानं चतुसच्चं वा उद्दिस्स पवत्तं भावनाकम्मं योगिनो सुखविसेसानं ठानभूतन्ति चतुसच्चकम्मट्ठानं । पुरिमानि द्वे सच्चानि वट्ट पवत्तिहेतुभावतो । पच्छिमानि विवट्टं निवत्तितदधिगमुपायभावतो । वट्टे कम्मट्ठानाभिनिवेसो सरूपतो परिग्गहसब्भावतो । विवट्टे नत्थि अविसयत्ता, विसयत्ते च पयोजनाभावतो । पुरिमानि द्वे सच्चानि उग्गहित्वाति सम्बन्धो । कम्मट्ठानपाळिया हि तदत्थसल्लक्खन वाचुग्गतकरणं उग्गहो। तेनाह " वाचाय पुनष्पुनं परिवत्तेन्तो 'ति । इटुं कन्तन्ति निरोधमग्गेसु निन्नभावं दस्सेति, न अभिनन्दनं, तन्निन्नभावोयेव च तत्थ कम्मकरणं दट्ठब्बं । ( ९.४०२ - ४०२ ) एकपटिवेधेनेवाति एकञाणेनेव पटिविज्झनेन । पटिवेधो पटिघाताभावेन विसये निस्सङ्गचारसङ्घातं निब्बिज्झनं । अभिसमयो अविरज्झित्वा विसयस्स अधिगमसङ्घातो अवबोधो । “इदं दुक्खं, एत्तकं दुक्खं न इतो भिय्योति परिच्छिन्दित्वा जाननमेव वुत्तनयेन पटिवेधोति परिञपटिवेधो, तेन । इदञ्च यथा तस्मिं आणे पवत्ते पच्छा दुक्खस्स सरूपादिपरिच्छेदे सम्मोहो न होति, तथा पवत्तिं गत्वा वुत्तं, न पन मग्गञाणस्स " इदं दुक्ख "न्तिआदिना (म० नि० २.४८४ ३.१०४) पवत्तनतो । 316 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०२-४०२) मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३१७ पहीनस्स पुन अप्पहातब्बताय पकट्ट हानं चजनं समुच्छिन्दनं, पहानमेव वुत्तनयेन पटिवेधोति पहानपटिवेधो, तेन । अयम्पि यस्मिं किलेसे अप्पहीयमाने मग्गभावनाय न भवितब्बं, असति च मग्गभावनाय यो उप्पज्जेय्य, तस्स किलेसस्स पटिघातं करोन्तस्स अनुप्पत्तिधम्मतं आपादेन्तस्स आणस्स तथापवत्तियं पटिघाताभावेन निस्सङ्गचारं उपादाय एवं वुत्तो । सच्छिकिरिया पच्चक्खकरणं अनुस्सवाकारपरिवितक्कादिके मुञ्चित्वा सरूपतो आरम्मणकरणं "इदं त"न्ति यथासभावतो गहणं, सा एव वुत्तनयेन पटिवेधोति सच्छिकिरियापटिवेधो, तेन । अयं पनस्स आवरणस्स असमुच्छिन्दनतो आणं निरोधं आलम्बितुं न सक्कोति, तस्स समुच्छिन्दनतो तं सरूपतो विभावेन्तमेव पवत्ततीति एवं वुत्तो । भावना उप्पादना, वड्डना च। तत्थ पठममग्गे उप्पादनटेन, दुतियादीसु वड्डनटेन, उभयत्थापि वा उभयथापि वेदितब्बं । पठममग्गेपि हि यथारहं वुढानगामिनियं पवत्तं परिजाननादिं वड्डेन्तो पवत्तोति वड्डनटेन भावना सक्का विज्ञातुं। दुतियादीसुपि अप्पहीनकिलेसप्पहानतो, पूग्गलन्तरभावसाधनतो च उप्पादनटेन भावना सक्का विज्ञातं, सा एव वुत्तनयेन पटिवेधोति भावनापटिवेधो, तेन । अयम्पि हि यथा जाणे पवत्ते पच्छा मग्गधम्मानं सरूपपरिच्छेदे सम्मोहो न होति, तथा पवत्तिमेव गहेत्वा वुत्तो । तिद्वन्तु ताव यथाधिगता मग्गधम्मा, यथापवत्तेसु फलधम्मेसुपि अयं यथाधिगतसच्चधम्मेसु विय विगतसम्मोहोव होति । तेनेवाह “दिठ्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळहधम्मो"ति (महाव० १८; दी० नि० १.२९९; म० नि० २.६९) यतो सचस्स धम्मतासञ्चोदिता यथाधिगतसच्चधम्मालम्बनियो मग्गवीथितो परतो मग्गफलपहीनावसिट्ठकिलेसनिब्बानानं पच्चवेक्खणा पवत्तन्ति, दुक्खसच्चम्मोपि सक्कायदिट्ठिआदयो । अयञ्च अथवण्णना "परिञाभिसमयेना"तिआदीसुपि विभावेतब्बा । एकाभिसमयेन अभिसमेतीति एत्थाह वितण्डवादी “अरियमग्गजाणं चतूसु सच्चेसु नानाभिसमयवसेन किच्चकर'"न्ति, सो अभिधम्मे (कथाव० २७४) ओधिसोकथाय सञापेतब्बो। इदानि. तमेव एकाभिसमयं वित्थारवसेन विभावेतुं "एवमस्सा"तिआदि वुत्तं । “पुब्बभागे...पे०... पटिवेधो होती"ति कस्मा वुत्तं, ननु पटिवेधो पुब्बभागियो न होतीति ? सच्चमेतं निप्परियायतो, इध पन उग्गहादिवसेन पवत्तो अवबोधो परियायतो तथा वुत्तो। पटिवेधनिमित्तत्ता वा उग्गहादिवसेन पवत्तं दुक्खादीसु पुब्बभागे आणं “पटिवेधो''ति वुत्तं, न पटिविज्झनसभावं। किच्चतोति पुब्बभागेहि दुक्खादित्राणेहि कातब्बकिच्चस्स इध निप्फत्तितो, इमस्सेव वा जाणस्स दुक्खादिप्पकासनकिच्चतो, परिञादितोति अत्थो । आरम्मणपटिवेधोति सच्छिकिरियापटिवेधमाह । साति पच्चवेक्खणा । 317 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ दीघनिकाये महावग्गटीका इधाति इमस्मिं ठाने । उग्गहादीसु वुच्चमानेसु न बुत्ता अनवसरत्ता । अधिगमे हि तस्सा सिया अवसरो । तंयेव हि अनवसरं दस्सेतुं “ इमस्स चा तिआदि वृत्तं । पुब्बे परिग्गहतोति कम्मट्ठानपरिग्गहतो पुब्बे । उग्गहादिवसेन सच्चानं परिग्गण्हनञ्हि परिग्गहो । तथा तानि परिग्गण्हनतो मनसिकारदळ्हताय पुब्बभागिया दुक्खपरिज्ञादयो होन्ति येवाति आह " परिग्गहतो पट्ठाय होती 'ति । अपरभागेति मग्गक्खणे । दुद्दसत्ताति अत्तनो पवत्तिक्खणवसेन पाकटानिपि पकतित्राणेन सभावरसतो दहुं असक्कुणेय्यत्ता । गम्भीरेनेव च भावनाञाणेन, तथापि मत्थकप्पत्तेन अरियमग्गत्राणेनेव याथावतो पस्सितब्बत्ता गम्भीरानि । तेनाह " लक्खणपटिवेधतो पन उभयम्पि गम्भीर "न्ति । इतन असंकिलिट्ठअसंकिलेसिकताय अच्चन्तसुखप्पत्ताय अनुप्पत्तिभवताय, अनुप्पन्नपुब्बता च पवत्तिवसेन अपाकटत्ता च परमगम्भीरत्ता, तथा परमगम्भीरञाणेनेव पस्सितब्बताय पकतिञाणेन दद्धुं न सक्कुणेय्यानीति दुद्दसानि । तेनाह " इतरेसं पना "तिआदि । किरिया, वायामो वा । तस्स महन्ततरस्स इच्छितब्बतं, दुक्करतरतञ्च उपमाहि दस्सेति “भवग्गग्गहणत्थ’”न्तिआदिना । पटिवेधक्खणेति अरियस्स मग्गस्स चतुसच्चसम्पटिवेधक्खणे । एकमेव तं त्राणन्ति दुक्खादीसु परिञ्ञादिकिच्चसाधनवसेन एकमेव तं मग्गजाणं होति । ( ९.४०२-४०२ ) इमे तीसु ठानेसूति इमे विरमितब्बतावसेन जोति कामब्यापादविहिंसावितक्कवत्थूसु । विसुं विसुं उप्पन्नस्स तिविधअकुसलसङ्कप्पस्स। पदपच्छेदतोति एत्थ गतमग्गो " पद "न्ति वुच्चति, येन च उपायेन कारणेन कामवितक्को उप्पज्जति, सो तस्स गतमग्गोति तस्स पच्छेदो घातो पदपच्छेदो, ततो पदपच्छेदतो । अनुप्पत्तिधम्मतापादनं अनुष्पत्तिसाधनं, तस्स वसेन । मग्गकिच्चसाधनेन मग्गङ्गं पूरयमानो एकोव तिविधकिच्चसाधनो कुसलसङ्कथ्पो उप्पज्जति । तिविधाकुसलसङ्कप्पसमुच्छेदनमेव हेत्थ तिविधकिच्चसाधनं दट्ठब्बं । इमिना नयेन “ इमेसु चतूसु ठानेसू "तिआदीसुपि अथ वेदितब्बो | मुसावादावेरमणिआदयोति एत्थ यस्मा सिक्खापदविभङ्गे (विभं० ७०३) विरतिचेतना, सब्बे सम्पयुत्तधम्मा च सिक्खापदानीति आगतानीति तत्थ पधानानं विरतिचेतनानं वसेन " विरतियोपि होन्ति चेतनायोपी 'ति (विभं० अट्ठ० ७०३) सम्मोहविनोदनियं वृत्तं तस्मा केचि " आदि - सद्देन न केवलं पिसुणवाचा वेरमणि आदीनंयेव सङ्गहो, अथ खो तादिसानं 318 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०२-४०२) मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३१९ चेतनानम्पि सङ्गहो''ति वदन्ति, तं पुब्बभागवसेन वुच्चमानत्ता युज्जेय्य, मुसावादादीहि विरमणकाले वा विरतियो, सुभासितादिवाचाभासनादिकाले च चेतनायो योजेतब्बा, मग्गक्खणे पन विरतियोव इच्छितब्बा चेतनानं अमग्गङ्गत्ता। एकस्स जाणस्स दुक्खादिाणता विय, एकाय विरतिया मुसावादादिविरतिभावो विय च एकाय चेतनाय सम्मावाचादिकिच्चत्तयसाधनसभावाभावा सम्मावाचादिभावासिद्धितो, तंसिद्धियं अङ्गत्तयतासिद्धितो च। भिक्खुस्स आजीवहेतुकं कायवचीदुच्चरितं नाम अयोनिसो आहारपरियेसनहेतुकमेव सियाति आह "खादनीय...पे०... दुच्चरित"न्ति । कायवचीदुच्चरितग्गहणञ्च कायवचीद्वारेयेव आजीवपकोपो, न मनोद्वारेति दस्सनत्थं । तेनाह "इमेसुयेव सत्तसु ठानेसू"ति। अनुष्पन्नानन्ति असमुदाचारवसेन वा अननुभूतारम्मणवसेन वा अनुप्पन्नानं । अञथा हि अनमतग्गे संसारे अनुप्पन्ना पापका अकुसला धम्मा नाम न सन्ति । तेनाह "एकस्मिं भवे"तिआदि । यस्मिं भवे अयं इमं वीरियं आरभति, तस्मिं एकस्मिं भवे। जनेतीति उप्पादेति । तादिसं छन्दं कुरुमानो एवं छन्दं जनेति नाम । वायामं करोतीति पयोगं परक्कमं करोति । वीरियं पवत्तेतीति कायिकचेतसिकपीरियं पकारतो वत्तेति । वीरियेन चित्तं पग्गहितं करोतीति तेनेव सहजातवीरियेन चित्तं उक्खिपेन्तो कोसज्जपाततो निसेधनेन पग्गहितं करोति । पदहनं पवत्तेतीति पधानं वीरियं करोति | पटिपाटिया पनेतानि चत्तारि पदानि आसेवनाभावनाबहुलीकम्मसातच्चकिरियाहि योजेतब्बानि । __उप्पन्नपुब्बानन्ति सदिसवोहारेन वुत्तं । भवति हि तंसदिसेसु तब्बोहारो यथा “सा एव तित्तिरि, तानि एव ओसधानी"ति । तेनाह "इदानि तादिसे"ति । उप्पन्नानन्ति "अनुप्पन्ना"ति अवत्तब्बतं आपन्नानं । पहानायाति पजहनत्थाय । अनुप्पन्नानं कुसलानन्ति एत्थ कुसलाति उत्तरिमनुस्सधम्मा अधिप्पेता, तेसञ्च उप्पादो नाम अधिगमो पटिलाभो, तप्पटिक्खेपेन अनुप्पादो अप्पटिलाभोति आह "अप्पटिलद्धानं पठमज्झानादीन"न्ति । "ठितिया वीरियं आरभती"ति वुत्ते न खणठिति अधिप्पेता तदत्थं वीरियारब्भेन पयोजनाभावतो, अथ खो पबन्धठिति अधिप्पेताति आह "पुनप्पुनं उप्पत्तिपबन्धवसेन ठितत्थ"न्ति । सम्मुस्सनं पटिपक्खधम्मवसेन अदस्सनमुपगमनन्ति तप्पटिक्खेपेन असम्मुस्सनं असम्मोसोति आह “असम्मोसायाति अविनासनत्थ"न्ति । भिय्योभावो पुनप्पुनं भवनं, सो 319 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० दीघनिकाये महावग्गटीका वेपुल्लं अभिण्हप्पवत्तिया पन उपरूपरि उप्पत्तीति आह “ उपरिभावाया "ति । पगुणबलवभावापत्तीति वुत्तं "वेपुल्लायाति विपुल भावाया "ति, महन्तभावायाति अत्थो । भावनाय परिपूरणत्थन्ति झानादिभावनापरिब्रूहनत्थं । चतूसु ठानेसूति अनुप्पन्नाकुसलानुप्पादनादीसु चतूसु ठानेसु । किच्चसाधनवसेनाति चतुब्बिधस्सपि किच्चस्स एकज्झं निप्फादनवसेन । ( ९.४०२ - ४०२ ) झानानि पुब्बभागेपि मग्गक्खणेपि नानाति यदिपि समाधिउपकारकेहि अभिनिरोपनानुमज्जनसम्पियायनब्रूहनसन्तसुखसभावेहि वितक्कादीहि सम्पयोगभेदतो भावनातिसयप्पवत्तानं चतुन्नं झानानं वसेन सम्मासमाधि विभत्तो, तथापि वायामो विय अनुप्पन्नाकुसलानुप्पादनादिचतुवायामकिच्चं सत विय च असुभासुखानिच्चानत्तेसु कायादीसु सुभादिसञ्ञप्पहानचतुसतिकिच्चं एको समाधि चतुझानसमाधिकिच्चं न साधेतीति पुब्बभागेपि पठमज्झानसमाधि एव मग्गक्खणेपि, तथा पुब्बभागेपि चतुत्थज्झानसमाधि एव मक्ख पीति अत्थो । नानामग्गवसेनाति पठममग्गादिनानामग्गवसेन झानानि नाना । दुतियादयोपि मग्गा दुतियादीनं झानानं । अयं पनस्साति एत्थ मग्गभावेन चतुब्बिधम्पि एकत्तेन गहेत्वा " अस्सा "ति वुत्तं, अस्स मग्गस्साति अत्थो । अयन्ति पन अयं झानवसेन सब्बसदिससब्बासदिसेकच्चसदिसता विसेसो | पादकज्झाननियमेन होतीति इध पादकज्झाननियमं धुरं कत्वा वृत्तं यथा चेत्थ, एवं सम्मोहविनोदनियम्पि (विभं० अट्ठ० २०५) । अट्ठसालिनियं ( ध० स० अट्ठ० ३५०) पन विपस्सनानियमो वुत्तो सब्बवादाविरोधतो, इध पन सम्मसितज्झानपुग्गलज्झासयवादनिवत्तनतो पादकज्झाननियमो वुत्तो । विपस्सनानियमो पन साधारणत्ता इधापि न पटिक्खित्तोति दट्टब्बो । अञ्ञे च आचरियवादा परतो वक्खमाना विभजितब्बाति यथावुत्तमेव ताव पादकज्झाननियमं विभजन्तो आह “पादकज्झाननियमेन तावा "ति । पठमज्झानिको होति, यस्मा आसन्नपदेसे वुट्ठितसमापत्ति मग्गस्स अत्तनो सदिभावं क भूमिवो विय गोधावण्णस्स । परिपुण्णानेव होन्तीति अट्ठ सत्त च होन्तीति अत्थो । सत्त होन्ति सम्मासङ्कप्पस्स अभावतो । छ होन्ति पीतिसम्बोज्झङ्गस्स अभावतो । मग्गङ्गबोज्झङ्गानं सत्तछभावं अतिदिसति “एस नयो" ति । अरूपे चतुक्कपञ्चकज्झानं...पे०... वुत्तं अट्ठसालिनियन्ति अधिप्पायो । ननु तत्थ “ अरूपे तिकचतुक्कज्झानं उप्पज्जती 'ति (ध० 320 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९.४०३-४०४) मग्गसच्चनिद्देसवण्णना ३२१ स० अट्ठ० ३५०) वुत्तं, न “चतुक्कपञ्चकज्झान''न्ति ? सच्चमेतं, येसु पन संसयो अत्थि, तेसं उप्पत्तिदस्सनेन, तेन अत्थतो “चतुक्कपञ्चकज्झानं उप्पज्जती"ति वुत्तमेव होतीति एवमाहाति वेदितब्बं । समुदायञ्च अपेक्खित्वा "तञ्च लोकुत्तरं, न लोकिय"न्ति आह "अवयवेकत्तं लिङ्गसमुदायस्स विसेसकं होती'ति । चतुत्थज्झानमेव हि तत्थ लोकियं उप्पज्जति, न चतुक्कं, पञ्चकं वाति । एत्थ कथन्ति पादकज्झानस्स अभावा कथं दट्ठब्बन्ति अत्थो । तंझानिकावस्स तत्थ तयो मग्गा उप्पज्जन्ति, तज्झानिकंपठमफलादिं पादकं कत्वा उपरिमग्गभावनायाति अधिप्पायो। तिकचतुक्कज्झानिकं पन मग्गं भावेत्वा तत्थ उप्पन्नस्स अरूपचतुत्थज्झानं, तज्झानिकं फलञ्च पादकं कत्वा उपरिमग्गभावनाय अञझानिकापि उप्पज्जन्तीति, झानङ्गादिनियामिका पुब्बाभिसङ्घारसमापत्तिपादकं, न सम्मसितब्बाति फलस्सापि पादकता दट्ठब्बा । केचि पनाति मोरवापीमहादत्तत्थेरं सन्धायाह । पुन केचीति तिपिटकचूळाभयत्थेरं । ततियवारे केचीति “पादकज्झानमेव नियमेती"ति एवं वादिनं तिपिटकचूळनागत्थेरञ्चेव अनन्तरं वुत्ते द्वे च थेरे ठपेत्वा इतरे थेरे सन्धाय वदति । ४०३. ससन्ततिपरियापन्नानं दुक्खसमुदयानं अप्पवत्तिभावेन परिग्गय्हमानो निरोधोपि ससन्ततिपरियापन्नो विय होतीति कत्वा वुत्तं “अत्तनो वा चत्तारि सच्चानी"ति । परस्स वाति एत्थापि एसेव नयो । तेनाह भगवा "इमस्मिंयेव ब्याममत्ते कळेवरे ससझिम्हि समनके लोकञ्च पापेमि, लोकसमुदयञ्च पापेमि, लोकनिरोधञ्च पञापेमि, लोकनिरोधगामिनिपटिपदञ्च पञापेमी''ति (सं० नि० १.१०७; अ० नि० १.४.४५) कथं पन आदिकम्मिको निरोधमग्गसच्चानि परिग्गण्हातीति ? अनुस्सवादिसिद्धमाकारं परिग्गण्हाति । एवञ्च कत्वा लोकुत्तरबोज्झङ्गे उद्दिस्सापि परिग्गहो न विरुज्झति । यथासम्भवतोति सम्भवानुरूपं, ठपेत्वा निरोधसच्चं सेससच्चवसेन समुदयवयाति वेदितब्बाति अत्थो। चतुसच्चपब्बवण्णना निट्टिता । धम्मानुपस्सनावण्णना निहिता । ४०४. "अट्ठिकसङ्घलिकं समंस''न्तिआदिका सत्त सिवथिका अठ्ठिककम्मट्ठानताय 321 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ दीघनिकाये महावग्गटीका (९.४०४-४०४) इतरासं उद्धमातकादीनं सभावेनेवाति नवन्नं सिवथिकानं अप्पनाकम्मट्ठानता वुत्ता । द्वैयेवाति आनापानं, द्वत्तिंसाकारोति इमानि द्वेयेव । अभिनिवेसोति विपस्सनाभिनिवेसो, सो पन सम्मसनियधम्मपरिग्गहो । इरियापथा, आलोकितादयो च रूपधम्मानं अवत्थाविसेसमत्तताय न सम्मसनुपगा विज्ञत्तिआदयो विय । नीवरणबोज्झङ्गा आदितो न परिग्गहेतब्बाति वुत्तं "इरियापथ...पे०... न जायती"ति। केसादिअपदेसेन तदुपादानधम्मा विय इरियापथादिअपदेसेन तदवत्था रूपधम्मा परिग्गय्हन्ति, नीवरणादिमुखेन च तंसम्पयुत्ता, तंनिस्सयधम्माति अधिप्पायेन महासिवत्थेरो च इरियापथादीसुपि "अभिनिवेसो जायती"ति अवोच । “अत्थि नु खो मे"तिआदि पन सभावतो इरियापथादीनं आदिकम्मिकस्स अनिच्छितभावदस्सनं । अपरिञापुब्बिका हि परिञाति । कामं “इध भिक्खवे भिक्खू"तिआदिना उद्देसनिद्देसेसु तत्थ तत्थ भिक्खुग्गहणं कतं तंपटिपत्तिया भिक्खुभावदस्सनत्थं, देसना पन सब्बसाधारणाति दस्सेतुं “यो हि कोचि भिक्खवे" इच्चेव वुत्तं, न भिक्खु येवाति दस्सेन्तो “यो हि कोचि भिक्खु वा"तिआदिमाह। दस्सनमग्गेन आतमरियादं अनतिक्कमित्वा. जानन्ती सिखाप्पत्ता अग्गमग्गपञा अञा नाम, तस्स फलभावतो अग्गफलं पीति आह “अज्ञाति अरहत्त"न्ति । अप्पतरेपि काले सासनस्स निय्यानिकभावं दस्सेन्तोति योजना । निय्यातेन्तोति निगमेन्तो। महासतिपट्टानसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना। 322 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. पायासिराज सुत्तवण्णना ४०६. भगवता एवं गहितनामत्ताति योजना । यस्मा राजपुत्ता लोके "कुमारो"ति वोहरीयन्ति । अयञ्च रञो कित्तिमपुत्तो, तस्मा आह "रो...पे०... सञ्जानिसू"ति । अस्साति थेरस्स । पुञानि करोन्तो कप्पसतसहस्सं देवेसु चेव मनुस्सेसु च उप्पज्जित्वा विसेसं निब्बत्तेतुं नासक्खि इन्द्रियानं अपरिपक्कत्ता । ततियदिवसेति पब्बतं आरुळहदिवसतो ततिये दिवसे । तेसं सावकबोधिया नियतताय, पुञ्जसम्भारस्स च सातिसयत्ता विनिपातं अगन्त्वा एकं बुद्धन्तरं...पे०... अनुभवन्तानं। देवतायाति पुब्बे सहधम्मचारिनिया सुद्धावासदेवताय | "कुलदारिकाय कुच्छिम्हि उप्पन्नो"ति वत्वा तं एवस्स उप्पन्नभावं मूलतो पट्ठाय दस्सेतुं “सा चा"तिआदि वुत्तं । तत्थ साति कुलदारिका । च-सद्दो ब्यतिरेकत्थो, तेन वुच्चमानं विसेसं जोतेति । कुलघरन्ति पतिकुलगेहं । गभनिमित्तन्ति गब्भस्स सण्ठितभावनिमित्तं । सतिपि विसाखाय च सावत्थिवासिकुलपरियापन्नत्ते तस्सा तत्थ पधानभावदस्सनत्थं "विसाखञ्चा"ति वुत्तं यथा “ब्राह्मणा आगता वासिट्ठोपि आगतो''ति । देवताति इधपि सा एव सुद्धावासदेवता। पहेति "भिक्खु भिक्खु अयं वम्मिको''तिआदिना (म० नि० १.२४९) आगते पन्नरसपञ्हे । __ सेतव्याति इथिलिङ्गवसेन तस्स नगरस्स नामं। उत्तरेनाति एन-सहयोगेन “सेतब्य"न्ति उपयोगवचनं पाळियं वुत्तं । अत्थवचनेन पन उत्तरसदं अपेक्खित्वा सेतब्यतोति निस्सक्कप्पयोगो कतो | अनभिसित्तकराजाति खत्तियजातिको अभिसेकं अप्पत्तो । 323 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ दीघनिकाये महावग्गटीका (१०.४०७-४१२) पायासिराजञवत्थुवण्णना ४०७. दिट्ठियेव दिट्ठिगतन्ति गत-सद्देन पदवड्डनमाह, दिट्ठिया वा गतमत्तं दिद्विगतं, अयाथावग्गाहिताय गन्तब्बाभावतो दिट्ठिया गहणमत्तं, केवलो मिच्छाभिनिवेसोति अत्थो, तं पन दिट्ठिगतं तस्स अयोनिसोमनसिकारादिवसेन उप्पज्जित्वा पटिपक्खसम्मुखीभावाभावतो, अनुरूपाहारलाभतो च समुदाचारप्पत्तं जातन्ति पाळियं “उप्पन्नं होती"ति वुत्तं । तं तं कारणं अपदिसित्वाति ततो इधागच्छनकस्स, इतो तत्थ गच्छनकस्स च अपदिसनतो "तत्थ तत्थेव सत्तानं उच्छिज्जनतो'"ति एवमादि तं तं कारणं पटिरूपकं अपदिसित्वा । ४०८. आपन्नानधिप्पेतत्थविसये अयं पुरा-सद्दपयोगोति आह "पुरा...पे०... सापेतीति याव न सापेती"ति । चन्दिमसूरियउपमावण्णना ४११. यथा चन्दिमसूरिया उळारविपुलोभासताय अञ्जेन ओभासेन अनभिभवनीया, एवमयम्पि पञआओभासेनाति दस्सेन्तो "चन्दिम...पे०... अञ्जना"तिआदिमाह । आदीहीति आदि-सद्देन “कित्तके ठाने एते पवत्तेन्ति, कित्तकञ्च ठानं नेसं आभा फरती"ति एवमादिम्पि चोदनं सङ्गण्हाति । पलिवेठेस्सतीति आबन्धिस्सति, अनुयुजिस्सतीति अत्थो । निब्बेठेतुं तं विस्सज्जेतुं । तस्माति यस्मा यथावुत्तं चोदनं निब्बेठेतुं न सक्कोति, तस्मा । अत्तनो अनिच्छितं सङ्घातनं पक्खं पटिजानन्तो “परस्मिं लोके, न इमस्मिन्तिआदिमाह । कथं पनायं नत्थिकदिट्ठि “देवो"ति पटिजानातीति तत्थ कारणं दस्सेतुं "भगवा पना"तिआदि वुत्तं । “देवापि देवत्तभावेनेव उच्छिज्जन्ति, मनुस्सापि मनुस्सत्तभावेनेव उच्छिज्जन्ती''ति एवं वा अस्स दिट्ठि, एवञ्च कत्वा “देवा ते, न मनुस्सा''ति वचनञ्च न विरुज्झति । एवं चन्देति चन्दविमाने, न च चन्दे वा कथियन्ते।। ४१२. आबाधो एतेसं अत्थीति आबाधिका। दुक्खं सञ्जातं एतेसन्ति दुखिता। सद्धाय अयितब्बा सद्धायिका, सद्धाय पवत्तिहानभूता। तेनाह “अहं तुम्हे"तिआदि । पच्चयो पत्तियायनं एतेसु अत्थीति पच्चयिका । 324 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४१३-४२०) चोरउपमावण्णना ३२५ चोरउपमावण्णना ४१३. उद्दिसित्वाति उपेच्च दस्सेत्वा । कम्मकारणिकसत्तेसूति नेरयिकानं सङ्घातनकसत्तेसु । कम्ममेवाति तेहि तेहि नेरयिकेहि कतकम्ममेव । कम्मकारणं करोतीति आयूहनानुरूपं तं तं कारणं करोति, तथा दुक्खं उप्पादेतीति अत्थो । निरयपालाति एत्थ इति-सदो आदिअत्थो, तेन तत्थ सब्बं निरयकण्डपाळिं (म० नि० ३.२५९) सङ्गण्हाति । एवं सुत्ततो (म० नि० ३.२५९) निरयपालानं अस्थिभावं दस्सेत्वा इदानि युत्तितोपि दस्सेतुं "मनुस्सलोके"तिआदि वुत्तं । तत्थ नेरयिके निरये पालेन्ति ततो निग्गन्तुं अप्पदानवसेन रक्खन्तीति निरयपाला। यं पनेत्थ वत्तबं, तं पपञ्चसूदनीटीकायं गहेतब्बं । गूथकूपपुरिसउपमावण्णना ४१५. निम्मज्जथाति निरवसेसतो मज्जथ सोधेथ । तं पन तस्स तस्स गूथस्स तथा सोधनं अपनयनं होतीति आह “अपनेथा'ति । असुचीति असुद्धो, सो पन यस्मा मनवड्डनको मनोहरो न होति, तस्मा आह "अमनापो"ति। असुचिसङ्खातं असुचिभागतं अत्तनो सभावतं गतो पत्तोति असुचिसङ्घातोति आह "असुचिकोट्ठासभूतो"ति । दुग्गन्धोति दुट्ठगन्धो अनिट्ठगन्धो, सो पन न यो कोचि, अथ खो पूतिगन्धोति आह "कुणपगन्धो"ति । जिगुच्छितब्बयुत्तोति हीळितब्बयुत्तो। पटिकूलो घानिन्द्रियस्स पटिकूलरूपो। उब्बाधतीति उपरूपरि बाधति । मनुस्सानं गन्धो...पे०... बाधति अतिविय असुचिसभावत्ता, असुचिम्हियेव जातसंवद्धनभावतो, देवानञ्च घानपसादस्स तिक्खविसदभावतो। ४१६. दूरे निब्बत्ता परनिम्मितवसवत्तिआदयो । ४१९. सुन्दरधम्मेति सोभनगुणे । सुगतिसुखन्ति सुगति चेव तप्परियापन्नं सुखञ्च । गन्भिनीउपमावण्णना ४२०. पुञकम्मतो एति उप्पज्जतीति अयो, सुखं । तप्पटिपक्खतो अनयो, 325 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ दीघनिकाये महावग्गटीका (१०.४२१-४२५) दुक्खं । अपक्कन्ति न सिद्धं न निट्ठानप्पत्तं । न परिपाचेन्ति न निट्ठानं पापेन्ति । न उपच्छिन्दन्ति अत्तविनिपातस्स सावज्जभावतो। आगमेन्तीति उदिक्खन्ति । निब्बिसन्ति यस्स पन तं कम्मफलं निब्बिसन्तो नियुञ्जन्तो, निब्बिसन्ति वा निब्बेसं वेतनं पटिकङ्घन्तो भतपुरिसो यथा । ४२१. उभिन्दित्वाति उपसग्गेन पदवड्डनमत्तन्ति आह “भिन्दित्वाति । सुपिनकउपमावण्णना ४२२. "निक्खमन्तं वा पविसन्तं वा जीव"न्ति इदं तस्स अज्झासयवसेन वुत्तं । सो हि “सत्तानं सुपिनदस्सनकाले अत्तभावतो जीवो बहि निक्खमित्वा तंतंआरामरामणेय्यकदस्सनादिवसेन इतो चितो च परिब्भमित्वा पुनदेव अत्तभावं अनुपविसती"ति एवं पवत्तमिच्छागाहविपल्लत्तचित्तो। अथस्स थेरो खुद्दकाय आणिया विपुलं आणिं नीहरन्तो विय जीवसमञामुखेन उच्छेददिठिं नीहरितुकामो “अपि नु ता तुम्हं जीवं पस्सन्ति पविसन्तं वा निक्खमन्तं वा''ति आह । यत्थ पन तथारूपा जीवसमञा, तं दस्सेन्तो "चित्ताचारं जीवन्ति गहेत्वा आहा"ति वुत्तं । ४२३. वेठेत्वाति वेखदानसोपेन वेठेत्वा । चवनकालेति चवनस्स चुतिया पत्तकाले, न चवमानकाले । रूपक्खन्धमत्तमेवाति कतिपयरूपधम्मसङ्घातमत्तमेव । उतुसमुट्ठानरूपधम्मसमूहमत्तमेव हि तदा लब्भति, मत्त-सद्दो वा विसेसनिवत्तिअत्थो, तेन कम्मजादितिसन्ततिरूपविसेसं निवत्तेति । अप्पवत्ता होन्तीति अप्पवत्तिका होन्ति, न उपलब्भतीति अत्थो । विज्ञाणे पन जीवसञी, तस्मा "विज्ञाणक्खन्धो गच्छती"ति आह, तत्थ अनुपलब्भनतोति अधिप्पायो । सन्तत्तअयोगुळउपमावण्णना ४२४. वूपसन्ततेजन्ति विगतुस्मं । ४२५. आमतोति एत्थ आ-सद्दो आमिस-सद्दो विय उपड्डपरियायोति आह "अद्धमतो"ति, आमतोति वा ईसं दरथेन उस्मना युत्तमरणो मरन्तोति अत्थो । मीयमानो 326 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४२६-४३०) सङ्खधमउपमावण्णना ३२७ हि अविगतुस्मो होति, न मतो विय विगतुस्मो। तेनाह “मरितुं आरद्धो होती"ति । तथा रूपस्स ओधुननं नामस्स ओरतो परिवत्तनमेवाति आह “ओरतो करोथा'ति । ओरतो कातुकामस्स पन संपरिवत्तनं सन्धुननं, तं पन परतो करणन्ति आह "परतो करोथा"ति । परमुखं कतस्स इतो चितो परिवत्तनं निद्भुननन्ति आह "अपरापरं करोथा"ति । इन्द्रियानि अपरिभिन्नानीति अधिप्पायेन "तञ्चायतनं न पटिसंवेदेती"ति वुत्तं । सङ्खधमउपमावण्णना ४२६. सद्धं धमति, धमापेतीति वा सङ्घधमो। उपलापेत्वाति उपरूपरि सद्दयोगवसेन सल्लापेत्वा, सद्दयुत्तं कत्वाति अत्थो । तं पन अत्थतो धमनमेवाति आह "धमित्वाति | अग्गिकजटिलउपमावण्णना ४२८. आहितो. अग्गि एतस्स अस्थीति अग्गिको, स्वास्स अग्गिकभावो यस्मा अग्गिहुतमालावेदिसम्पादनेहि चेव इन्धनधूमबरिहिससप्पितेलूपहरणेहि बलिपुप्फधूमगन्धादिउपहारेहि च तस्स पयिरुपासनाय इच्छितो, तस्मा वुत्तं “अग्गिपरिचारको"ति। आयु पापुणापेय्यन्ति यथा चिरजीवी होति, एवं आयुं पच्छिमवयं पापेय्यं । वर्हि गमेय्यन्ति सरीरावयवे, गुणावयवे च फातिं पापेय्यं । अरणी युगळन्ति उत्तरारणी, अधरारणीति अरणीद्वयं । ४२९. एवन्ति “बालो पायासिराजञो'"तिआदिप्पकारेन । तयाति थेरं सन्धाय वदति। वुत्तयुत्तकारणमक्खलक्खणेनाति वुत्तयुत्तकारणस्स मक्खनसभावेन | युगग्गाहलक्खणेनाति समधुरग्गहणलक्खणेन । पलासेनाति पलासेतीति पलासो, परस्स गुणे उत्तरितरे डंसित्वा विय छड्डेन्तो अत्तनो गुणेहि समे करोतीति अत्थो। समकरणरसो हि पलासो, तेन पलासेन । देसत्थवाहउपमावण्णना ४३०. हरितकपत्तन्ति हरितब्बपत्तं, अप्पपत्तन्ति अत्थो । तेनाह "अन्तमसो"तिआदि । सनद्रधनुकलापन्ति एत्थ कलापन्ति तूणीरमाह, तञ्च सन्नव्हतो धनुना विना न सन्नव्हतीति 327 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ दीघनिकाये महावग्गटीका (१०.४३४-४३७) आह "सन्नद्धधनुकलाप"न्ति । आसित्तोदकानि वुटुमानीति गमनमग्गा चेव तंतंउदकमग्गा च सम्मदेव देवेन फुठ्ठत्ता तहं तहं पग्घरितउदक सन्दमानउदका । तेनाह "परिपुण्णसलिला मग्गा च कन्दरा चा"ति । यथाभतेनाति सकटेसु यथाठपितेन, यथा “अम्म इतो करोही''ति वुत्ते ठपेसीति अत्थो करणकिरियाय किरियासामञवाचीभावतो । तस्मा यथारोपितेन, यथागहितेनाति अत्थो वुत्तो। अक्खधुत्तकउपमावण्णना ४३४. पराजयगुळन्ति येन गुळेन, याय सलाकाय ठिताय च पराजयो होति, तं अदस्सनं गमेन्तो गिलति। पज्जोहनन्ति पकारेहि जुहनकम्मं । तं पन बलिदानवसेन करीयतीति आह "बलिकम्म"न्ति । साणभारिकउपमावण्णना ४३६. गामपत्तन्ति गामो एव हुत्वा आपज्जितब्बं, सुञभावेन अनावसितब्बं । तेनाह "वुट्टितगामपदेसो"ति । गामपदन्ति यथा पुरिसस्स पादनिक्खित्तट्टानं अधिगतपरिच्छेदं “पदन्ति वुच्चति, एवं गामवासीहि आवसितट्ठानं अधिगतनिवुत्थागारं “गामपदन्ति वुत्तं । तेनाह “अयमेवत्थो"ति । सुसन्नद्धोति सुखेन गहेत्वा गमनयोग्यतावसेन सुटु सज्जितो । तं पन सुसज्जनं सुट्ठ बन्धनवसेनेवाति आह "सुबद्धो"ति । अयादीनम्पि लोहभावे सतिपि लोह -सद्दो सासने तम्बलोहे निरुळहोति आह "लोहन्ति तम्बलोह"न्ति । सरणगमनवण्णना ४३७. अभिरद्धोति आराधितचित्तो, सासनस्स आराधितचित्तता पसीदनवसेनाति आह "अभिप्पसनो"ति । पज्हुपट्टानानीति पञ्हेसु उपट्टानानि मया पुच्छितत्थेसु तुम्हाकं विस्सज्जनवसेन जाणुपट्टानानि ।। 328 Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०.४३८-४३९) यञकथावण्णना ३२९ यज्ञकथावण्णना ४३८. सङ्घातन्ति सं-सद्दो पदवड्डनमत्तन्ति आह “घात"न्ति । विपाकफलेनाति सदिसफलेन । महप्फलो न होति गवादिपाणघातेन उपक्किलिट्ठभावतो । गुणानिसंसेनाति उद्दयफलेन । आनुभावजुतियाति पटिपक्खविगमनजनितेन सभावसङ्घातेन तेजेन । न महाजुतिको होति अपरिसुद्धभावतो । विपाकविप्फारतायाति विपाकफलस्स विपुलताय, पारिपूरियाति अत्थो । दुहुखेत्तेति उसभादिदोसेहि दूसितखेते, तं पन वप्पाभावतो असारं होतीति आह "निस्सारखेत्ते''ति । दुब्भूमेति कुच्छितभूमिभागे, स्वास्स कुच्छितभावो असारताय वा सिया निन्नतादिदोसवसेन वा। तत्थ पठमो पक्खो पठमपदेन दस्सितोति इतरं दस्सेन्तो “विसमभूमिभागे"ति आह । दण्डाभिघातादिना छिन्नभिन्नानि। पूतीनीति गोमयलेपदानादिसुखेन असुक्खापितत्ता पूतिभावं गतानि । तानि पन यस्मा सारवन्तानि न होन्ति, तस्मा वुत्तं "निस्सारानी"ति । वातातपहतानीति वातेन च आतपेन च विनट्ठबीजसामत्थियानि । तेनाह "परियादिन्नतेजानी"ति । यं यथाजातवीहिआदिगतेन तण्डुलेन अङ्कुरुप्पादनयोग्यबीजसामत्थियं, तं तण्डुलसारो, तस्स आदानं गहणं तथाउप्पज्जनमेव । एतानि पन बीजानि न तादिसानि खण्डादिदोसवन्तताय । धाराय खेत्ते अनुप्पवेसनं नाम वस्सनमेव, तं पटिक्खेपवसेन दस्सेन्तो आह "न सम्मा वस्सेय्या"ति । अङ्कुरमूलपत्तादीहीति चेत्थ अङ्कुरकन्दादीहि उद्धं बुद्धि, मूलजटादीहि हेट्ठा विरुव्हिं, पत्तपुप्फादीहि समन्ततो च वेपुल्लन्ति योजना। ___ अपरूपघातेनाति परेसं विबाधनेन । उप्पन्नपच्चयतोति निब्बत्तितघासच्छादनादिदेय्यधम्मतो। गवादिघातेनपि हि तत्थ पटिग्गाहकानं घासो सङ्घीयति । "अपरूपघातिताया"ति इदं सीलवन्तताय कारणवचनं । गुणातिरेकन्ति गुणातिरित्तं, सीलादिलोकुत्तरगुणेहि विसिट्ठन्ति अत्थो। विपुलाति सद्धासम्पदादिवसेन उळारा । उत्तरमाणववत्थुवण्णना ४३९. अथ खो तेहि सकुण्डकेहि तण्डुलेहि सिद्धभत्तं उत्तण्डुलमेव होतीति आह "उत्तण्डुलभत्त"न्ति । बिलङ्गं वुच्चति आरनालं बिलङ्गतो निब्बत्तनतो, तदेव कञ्जियतो जातन्ति कञ्जियं, तं दुतियं एतस्साति बिलङ्गदुतियं, तं “कञ्जिकदुतिय"न्ति च वुत्तं । धोरकानीति धोवियानि । यस्मा थूलतरानिपि “थूलानी"ति वत्तब्बतं अरहन्ति, तस्मा 329 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० दीघनिकाये महावग्गटीका “थूलानि चा "ति वृत्तं । गुळदसानीति सुत्तानं थूलताय, कञ्जिकस्स बहलताय च पिण्डितदसानि। तेनाह “पुञ्जपुञ्ज... पे०... दसानी" ति । अनुद्दिसतीति अनु अनु कथेति । ४४०. असक्कच्चन्ति न सक्कच्चं अनादरकारं तं पन कम्मफलसद्धाय अभावेन होतीति आह "सद्धाविरहित "न्ति । अचित्तीकतन्ति चित्तीकारपच्चुपट्ठापनवसेन न चित्तीकतं । तेनाह "चित्तीकारविरहित "न्तिआदि । चित्तीकाररहितं वा अचित्तीकतं, यथा कतं परेसं विम्हयावहं होति, तथा अकतं । चित्तस्स उळारपणीतभावो पन असक्कच्चदानेनेव बाधितो । अपविद्धन्ति छड्डनीयधम्मं विय अपविद्धं कत्वा, एतेन तस्मिं दाने गारवाकरणं वदति । सेरीसकं नामाति " सेरीसक "न्ति एवं नामकं । तुच्छन्ति परिजनपरिच्छेदविरहतो रित्तं । ( १०.४४० - ४४१ ) पायासिदेवपुत्तवण्णना ४४१. सानुभावेनाति तस्स दानस्स आनुभावेन । सिरीसरुखोति पभस्सरखन्धविटपसाखापलाससम्पन्नो मनुञ्ञदस्सनो दिब्बो सिरीसरुक्खो । अट्ठासीति फलस् कम्मसरिक्खतं दस्सेन्तो विमानद्वारे निब्बत्तित्वा अट्टासि । पुब्बाचिण्णवसेनाति पुरिमजातियं तत्थ निवासपरिचयनवसेन । न केवलं पुब्बाचिण्णवसेनेव, अथ खो उतुसुखुवसेन पीति दस्सेन्तो " तत्थ किरस्स उतुसुखं होती "ति आह । सोति उत्तरो माणवो । यदि असक्कच्चं दानं दत्वा पायासि तत्थ निब्बत्तो, पायासिस्स परिचारिका सक्कच्चं दानं दत्वा कथं तत्थ निब्बत्ताति आह " पायासिस्स पना'ति । निकन्तिवसेनाति पायासिम्हि सापेक्खावसेन, पुब्बेपि वा तत्थ निवुत्थपुब्बताय । दिसाचारिक विमानन्ति आकास हुत्वा दिसासु विचरणकविमानं, रुक्खपब्बतसिखरादिसम्बन्धं । वट्टनिअटवियन्ति विमानवीथियन्ति । न पायासिराजञ्ञसुत्तवण्णनाय लीनत्थप्पकासना । निट्ठिता च महावग्गट्ठकथाय लीनत्थप्पकासना । महावग्गटीका निट्ठिता । 330 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दानुक्कमणिका अकतकल्याणा-५८ अकथिनचित्ते-६२ अकनिट्ठगामी-२५६ अकरणीया-११० अकाचोति -२११ अ-कारो - १२१ अकालधम्मस्सवनं-२०१ अकिरियधम्मवचनतो-५९ अकिलेससभावापि-२१० अकुप्पधम्मताय-६९,१६४ अकुसलचित्तानि-२९० अकुसलचित्तं-२९० अकुसलमूलेसु-२९० अक्खरचिन्तका-६६,७० अक्खरुप्पत्तिट्ठानं-३६ अक्खातारो-१३१ अक्खिबिम्बन्ति -३७ अखण्डानीति-११९ अगतिगमनविरता-११० अगतिन्ति - २६३ अगम्भीरो-७३ अग्गज्ञाति-२६५ अग्गतलन्ति-३२ अग्गदानं-१६३ अग्गधम्मदेसनाय-१६४ अग्गधर्म-१६४ . अग्गपुग्गलस्स-१७२ अग्गप्पत्तकम्मवादिनोति-२ अग्गफलक्खणे-६७ अग्गमग्गजाणं-५५ अग्गमग्गविज्जाति-१९६ अग्ग-सद्दो-१८८ अग्गसावकपच्चेकबुद्धानं-२ अग्गसावका-६५ अग्गिखन्धं-३०८ अग्गिजाला-५८ अग्गुपट्ठाकोति-११, १२ अग्गोति - २६ अग्यन्ति-२०९ अग्घो-३१ अघाविनो-१६३ अङ्गुसकलग्गानि-१४६ अङ्गन्ति-३१,२७३ अङ्गपच्चङ्गछेदनेन-२३ अङ्गपरिच्चागो-१७ अङ्ग-सद्दो-२७३ अङ्गुत्तरट्ठकथायं-१० अङ्गुलिसन्धियो-१४६ अङ्गेसूति - २९९ अचक्खुविज्ञाणविनेय्यत्ता-२७१ अचित्तकपटिसन्धि-३ अचिन्तेय्यानुभावसम्पत्तिं - १८५ अचेतनायं-१४० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२] दीघनिकाये महावग्गटीका [अ-अ] अचेलकभावो- २९ अञ्जा-२५,१३१,२६६,३२२ अच्चन्तखारता-२३ अज्ञाकारानुपस्सी-२७१ अच्चन्तखारेति-२३ अज्ञाणट्ठो-७६ अच्चन्तनिट्ठा-१४०,२५४ अञाति-८६, ३२२ अच्चन्तनिरोधो-४९ अट्टियामीति-२६२ अच्चन्तयोगक्खेमीति-२५४ अट्ठकुलिका - ११० अच्चन्तवूपसमकारणन्ति-२६३ अट्ठङ्गलुब्बेधाति-१४ अच्चारद्धवीरियताय-३०२ अट्ठचत्तालीसकम्मजस्सरूपपवेणी- ९२ अच्छन्दिकाति-५७ अट्ठदन्तकेहीति-१७० अच्छरियगुणेहि - १७८ अट्ठलोकधम्मा-५६ अच्छरियधम्मो-२५७ अट्ठसालिनियं-९८, ३२० अच्छरियन्ति-२०७ अट्ठानेति-२१४ अच्छरियब्भुतधम्मसमन्नागतो-११८ अट्ठिपक्खा - ८५ अच्छरियब्भुतधम्म-१४६ अट्ठिसीसाति-३७ अच्छरियमनुस्सो-१८५ अड्डयोजनन्ति-१०९ अजपालनिग्रोधमूले - १३४ अणुसहगतेति-७८ अजातन्ति-४१ अतन्तिबद्धाति-१६१ अजातसत्तुनो-१७३ अतप्पको-५१ अजामिगे-२०५ अतसिपुष्फं-१४५ अज्झत्तबहिद्धाधम्मेसुपि-२७८ अतिगम्भीरो-७३ अज्झत्तबहिद्धानुपस्सना - २७९ अतिपातयिस्सन्तीति-१०८ अज्झत्तविसया-१४२ अतिसंकिलिट्ठाति-५४ अज्झत्तिकायतनधम्मसु-२९८ अतीतंसे-५०, २०३ अज्झासयपटिबद्धन्ति-१५ अतुलन्ति- १३७ अज्झासयानुरूपं-७२ अत्थचरिया-१८ अज्झासयोति - १५४ अत्थपटिसम्भिदाय - २८८ अज्झासयं-१८ अत्थविनिच्छयो-१९२ अज्झेसना-५५ अत्यसिद्धीति-१२७ अज्झोत्थटचित्तोति- १३३ अत्थुद्धारदस्सनं-२६५ अज्झोत्थरणं-१३३ अत्तगतिका-१३१ अज्झोसानन्ति-८७ अत्तनोमति-१५० अज्ञधम्मानुपस्सिताभावेन -२७२ अत्तपरिच्चागो-१७ अबधम्मानुपस्सीति-२७१ अत्तभावपरियापन्नाति - २९३ अञमनिस्सयसम्पयुत्तअस्थिअविगतादिपच्चयानं -८६ | अत्तभावो-१९, ९२, २००, ३१२ अञमञ्जपच्चयं-९३ अत्तलाभो-३११ अञसभावानुपस्सी-२७१ अत्तस्सरणाति-१३१ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अ-अ] सद्दानुक्कमणिका [३] अत्तहिताय-६० अदण्डो-२३७ अधिगतट्ठानन्ति-१६४ अधिगमसद्धा-११४ अधिचित्तसिक्खा-१९६ अधिचित्तं-१९६ अधिद्विताति-१३३ अधिपञासिक्खा-१९६ अधिपन्नस्स-२६२ अधिमुत्तीति-२०९ अधिवचनन्ति-५२,१२४ अधिवासनवीरियस्स-२८८ अधिवासेन्तीति-१५९ अधिवासेसि-१६८ अनच्छरियन्ति-१८८ अनत्तनि-१९४ अनद्धनियन्ति-३०९ अननुस्सुतेसूति- २०५ अननुस्सुतेसूतिआदि-२०५ अनन्तन्ति- ९६,२२१ अनभिसम्भवनीयो-१८९ अनरिया - ५९, २९३ अनवसेसपरियादानं-२९६ अनाकुलं-८४ अनागामिमग्गेन-२९४ अनामन्तेत्वा-४२ अनारुळ्हन्ति-१८५ अनावटजाणताय-२७ अनावरणविमोक्खो-१६८ अनाविला-२२१ अनिच्चअनत्तअसुभाकारानुपस्सी-२७५ अनिच्चदुक्खानत्तादिसभावेसु-८० अनिच्चन्ति-६३, ८३, १५०, १९४, २७१, २७५, ३०९ अनिच्चलक्खणं-१८५ अनिच्चाति-९८,११६ अनिच्चानुपस्सना-११६ अनिच्छितन्ति-११० अनिट्ठ-११०, २३९ अनिष्फन्नोति-१९२ अनिब्बत्तिनिरोधन्ति-४६ अनियमेनाति-१३३ अनिय्यानिकन्ति-१९ अनिरस्सादं-३०९ अनुकम्पायाति - १११ अनुक्कमन्ति-४७ अनुचरियन्ति-२२९ अनुच्छविकत्ताति-१५८ अनुट्ठानसेय्यं-१५७ अनुत्तरोति-२११ अनुद्धतं-३०९ अनुधम्मन्ति-१३५ अनुधम्मा-१३५ अनुधारियमानेति-२६ अनुपविसतीति-७२, ३२६ अनुपस्सतीति-२७१,२७२ अनुपस्सनसीलो-२७८ अनुपस्सना-२७४, २७६,२८४ अनुपस्सनाधम्मा-१३० अनुपस्सनायाति-२७४ अनुपस्सीति-२७४ अनुपादिसेसनिब्बानधातु-१४० अनुपुब्बदीपनी-१३३ अनुपुब्बीकथाति-१३३ अनुप्पादो-१३८,२३३,२९४, २९८,३१५, ३१९ अनुबुद्धियाति-१५१ अनुब्रूहनं-५३ अनुभवतीति-२८७ अनुयन्ताति-१७८ अनुराधपुरे - १७७ अनुरुद्धत्थेरो-१६७ अनुरूपधम्मभूतं - १३५ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] दीघनिकाये महावग्गटीका [अ-अ] अनुलोमतो-७६ अनुसासनपुरोहितोति - २०७ अनेकजातिसंसारन्तिआदि - ५० अनेकन्तपच्चयाभावतो-२८८ अनेकविधन्ति-१९३ अनेकसाखन्ति-२६ अनोगाळ्हपञानन्ति-३०४ अन्तकरोति-१४७ अन्तन्तेनेवाति-१५३ अन्तरधानं-२८५,३१२ अन्तरामग्गे-१८९ अन्तेपुरस्स-१७७ अन्तेवासिकोति-२८४ अन्तोति-२६० अन्तोनिमुग्गपोसीनी-५६ अन्तोसमापत्तियं-१४३ अन्धकारा- २३,२४३ अन्वावट्टना-१९४ अन्वासत्तोति-११ अपगतकाळकन्ति-६२ अपचयायाति-१४९ अपदेसा-१४७ अपनुज्जाति-२०३ अपनेत्वाति-२५,१७९ अपनेसीति-१५९ अपब्बाजितत्ताति-६६ अपब्यूळ्होति-१३० अपरनेय्यबुद्धिनो-१९१ अपराधानुरूपं -१०९ अपरिच्छिन्नदुक्खानुभवनं-१६० अपरिनिहिता-१५८ अपरिहानिया-१११ अपलिबुद्धत्ताति-३६ अपायदुक्खं-३०८ अपायभयपच्चवेखणा-११५ अपायभूमि-२१७ अपायाति-८१ अपारगङ्गायाति-१६० अपिहितचित्ते-६२ अप्पटिपुग्गलो-१४० अप्पटिसंवेदनोति-९७ अप्पनाकम्मट्ठानं-२८७ अप्पनाझानुप्पादनन्ति-१४३ अप्पनाति-३०३ अप्पमाणाति-१३८ अप्परजक्खजातिकाति--५४,५५ अप्पवत्तीति-२७६,२८० अप्पस्सादाति-६१ अप्पहीनद्वेनाति -९६ अप्पिच्छतायाति-१४९ अप्पेति-८५ अप्पेसक्खाति-२१२ अप्फोटनं-२७ अब्भन्तरेति-३१२ . अब्यग्गो - ३०७ अव्यभिचारीति-२७, ८४ अब्रह्मचरियवत्थुपटिसेधो-२४ अभब्बाति-२२४ अभयत्थेरोति-३०० अभिज्झादोमनस्सस्स-२७६ अभिजात्राणविभवो-२ अभिज्ञासमापत्तिनिप्फादनं-१८ अभिण्हन्ति-१२६ अभिधम्मदेसना-११ अभिधम्मनयेन-२१०,२९८ अभिधम्मपाठतो-१९२ अभिनन्दन्ति-५२,२१३ अभिनवविपस्सनं-१५४ अभिनिब्बत्तीति-३११ अभिनिविट्ठस्स-८७ अभिनिवेसो-४३, ३२२ अभिनीलनेत्तोति-३६ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अ-अ ] अभिनीहरमानोति - २०२ अभिभायतनं - १४२, १४३ अभिभु - १४२ अभिभूतचित्तो - १३३ अभिसरणसभावन्ति - - ४८ अभिसङ्घारकं - १३६ अभिसङ्कारविञ्ञाणं- ९३ अभि- सद्दो- १०८ अभिसम्बुद्धो - ५१ अभिसम्भोसीति - २०७ अभिसित्तो - २०७, ३०२ अभीरुकाति - ३१. अम्बकायाति - १२९ अयन - सद्दो- २५९, २६० अयनोति - २६० अयपट्टकन्ति - ३६ अयोघनं - ५० अयोनिसोमनसिकारो - २९३ अरहतीति - ३९, १३०, १९०, २६६, ३१२ अरहत्तफलसुखञ्च - १९६ अरहत्तमग्गविज्जा - १९६ अरहत्तसम्पत्तिया - १५ अरियकमनुस्सानन्ति - १२३ अरियधम्मन्ति - १९४ अरियपुग्गलो- ११८ अरियमग्गधम्माति - १६४ अरियमग्गपटिवेधो - ५७ अरियमग्गोति- ५९, २६४ अरियवंसाति - २६५ अरियसच्चानि - १६, ४६ अरियसावकोति - २९९ अरियोति - २६६,३१६ अरूपकम्मट्ठानन्ति - २४१,२८८ अरूपकलापो - ८९ अरूपजीवितिन्द्रियं - २८६ अरूपावचरज्झानं - १०६ सद्दानुक्कमणिका 5 अरोगचित्तेति १- ६२ अलग्गो - २६ अलीनचित्ते - ६२ अवट्ठितचित्तं - २२१ अवधिपरिच्छेदवचनं - २०५ अवबुद्धोति - ५१ अवभासतीति - ७३ अवलोकेथाति - १२९ अवस्सयोति - ६० अविक्खेपलक्खणो- ११५ अविक्खेपो - ११५, ३०१ अविजहितोति - १४ - अविज्जादिसमुदयोति – ४९ अविपाकजिनस्स - २४८ अवतिक्कमो - २५० अवेक्खित्वाति- २२२ असङ्किणाति - २६५ असनन्ति - १०८ असन्तुट्ठियाति - १४९ असबलानि - ११९ असमादिन्नसीलो - १२२ असमाहितं - २९० असम्पजानो - १७ असम्पज्जन्तेति - ८ असम्मापटिपत्तिया - ३०५ असम्मापटिपन्नो - ३०५ असीलो - १२२, २५० असुभे- १३४, १९४ असुरकायन्ति - ६४ असेक्खधम्मेहि- ११२ असंकिलिट्ठ – ६१ असंवुताति- २३ असंसट्ठोति - १९५ अस्सद्धाति - ५७ अस्सादानुपस्सनतण्हादिट्ठियापि - ८७ अस्सासपस्सासकम्मिकोति - २७८ E [4] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका [आ-आ] अस्सासपस्सासकायसम्बन्धिनो-२७९ अस्सासपस्सासकायेति-२७८ अस्सासपस्सासनिमित्तेति - २७८ आ। आकिञ्चायतनलाभिनो-१०६ आकिरियन्ति-८९ आकुलाति-१०९ आगमनीयसद्धा-११४ आचयायाति-१४९ आचरियन्ति-१३९ आचरियमुट्ठिना-१९९ आचरियवादोति -१५० आचारपञत्तीति-१५८ आचिक्खिस्सन्तीति-१३५ आजानितुकामोति-२५६ आजीवट्टमकसीलं-१९८ आटानाटियपरित्त-१२ आणियोति-२०० आतापीति-२७२ आदानं -८८, ३२९ आदासं-१२७ आदिकल्याणं-२६५ आदिचित्तमलेहि-६० आदिच्चबन्धुनं-२५७ आदीनवानुपस्सनावसेन-२८७ आदीनवो-५९, ६१,१०३ आधिपतेय्यन्ति-१५५ आनन्तरियकम्मेन-५७ आनापानचतुत्थज्झानं-१५७ आनुभावदस्सनत्थं-१३४ आनुभावोति-१७१ आपज्जाति-७२ आमतोति-३२६ आमिसचक्खुका-११२ आमिसं-२८९ आयतनसद्दो-१०१ आयतनानीति-६३,१०१ आयतपण्हीति-३३ आयन्तीति-२७० आयुप्पमाणन्ति - १३३ आयुसङ्घारो-१३२, १४१ आयूति-८,२८६ आयूहन्ति-७९ आरकण्टकन्ति-१८३ आरक्खदेवता-१५९ आरग्गेनाति-३३ आरद्धन्ति-११४ आरद्धविपस्सकतो-२९९ आरद्धवीरियो-१९३ आरम्मणन्ति-५१, ६०, २४१, २४४, २९८ आरम्मणपटिलाभोति-२४ आरम्मणभेदेन-२६७ आराधितसासनेति-१६९ आलयन्ति-५२ आलयरताति-५२ आलापो-१४१ आलुळेतीति-२६१ आलोकदस्सनभावतो-२८ आवज्जनक्कमो-२१ आवज्जनपटिबद्धत्ता-१६९ आवट्टनं-१५९ आवट्टन्तीति-१५९ आवरणतोति-११० आवरणेनाति–२१४ आवरिताति-२१० आवारेन्तोति-१५९ आविञ्छनरज्जुयन्ति - १७३ आवेणिकधम्मभावतो - २६६ आसनेति - ६२ आसनं --- २०१, २०२ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [इ-उ] सद्दानुक्कमणिका आसवक्खयो-६२, २५३ आसळ्हिपुण्णमायं-२२ आहच्चाति-१४६, २०१ आहारकिच्चं-९१ आहारहितिकाति-५६ आहारनिरोधाति-४८ आहारसमुदयाति-४८,२८३,२९९ आहारोति-१५१, २९२ आळारोति-१५२ अंसकूटखन्धकूटानं-३५ इधलोकत्थन्ति -६३ इधाधिप्पेततण्हा-८७ इन्दखीलन्ति-२१७ इन्दसालगुहाति-२२८ इन्दसालरुक्खवती-२२८ इन्द्रियकिच्चं-९१ इन्द्रियसंवरपुच्छा-२५४,२५५ इरिया- २८० इरियापथोति-२८५ इस्सराति-२२६ इस्सरियमत्तायाति-१२३ इस्सामच्छरियं-२५४ इज्झनटेनाति-१९१ इज्झनस्साति-१३८ इट्ठोति-६१ इटुं-२३९, २९२, २९८,३१६ इतरवेदनानं-२८८ इत्थिगब्भो-२२ इस्थिरतनं-१७९ इत्यिसभावेन-२५ इत्थीति-२७९ इदप्पच्चयोति-८२ इदंसच्चाभिनिवेसकायगन्थवसेन-८० इद्धानुभावेनाति-१३९ इद्धाभिसङ्खारो-१३९ इद्धिपहोनकतायाति-१९१ इद्धिपादविभङ्गपाठे-१९२ इद्धिपादाति-१९१ इद्धिपादो-१९१, १९२ इद्धिबलं-१३८ इद्धिमन्तोति-२२२ इद्धिविकुब्बनतायाति-१९१ इद्धिविधन्ति-१९३ इद्धिविसवितायाति-१९१ इद्धीति-१९१ उक्कण्ठिताति-१९ उक्खिपापेन्ताति-११२ उग्गण्हनं-७५,२९२ उग्गहनिमित्तं-२९२ उग्गहोति-२९३ उग्घटितञ्जूति-५६, ५७ उग्घाटेति-२८१ उच्चावचन्ति-२५५ उच्छिन्दिस्सामीति-१०८ उच्छेदवादी - ९६ उजुभावं-१११ उजुमग्गोति-२११ उट्ठपेत्वाति-१४९ उठेहीति-५८ उण्हवलाहका-८,२२४ उण्हीसमत्थकेति-१८२ उतुचित्तानि - ४८ उतुसमुट्ठानानि - ९२ उतुसम्पन्नोति-२७ उत्तण्डुलन्ति-९ उत्तमपुरिसाति-२२६ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीघनिकाये महावग्गटीका [उ-उ] उत्तममग्गो-२११ उत्तममङ्गलानि-१२३ उत्तमसीलन्ति-६७ उत्तरकुरु-२५९ उत्तरसीहपञ्जरसदिसेति-१७७ उत्तरिमनुस्सधम्मानं-- २१० उत्तरिसाटकन्ति-७४ उत्तरोति-१० उत्तानिं-१३५ उत्रस्तन्ति-२६३ उदकक्खन्धा-२६ उदकतुम्बकन्ति-१८३ उदकयन्तानीति-३९ उदकवट्टियोति-२६ उदकेनाति-२६ उदग्गचित्तेति-६२ उदेनचेतियन्ति-१३३ उदेनयक्खस्स-१३३ उद्धच्चकुक्कुच्चप्पहानकारी- २९४ उद्धच्चकुक्कुच्च-२९४ उद्धच्चसहगतञ्चाति-२९० उद्धमातत्ताति - २८६ उद्धंसोतो-२५६ उपक्किलिट्ठो-५९ उपगतसीला-१२० उपचारज्झानपक्खिका-१४३ उपचारज्झानसुखस्स-१९४ उपचारज्झानानीति-१९६ उपट्ठानलक्खणोति-११५ उपड्डकप्पोति-१०२ उपत्थम्भनन्ति-११३ उपद्दवेति-२६५ उपधि-५२ उपनिसा-१९७ उपनिस्सयकोटियाति-८६ उपनिस्सयोति-१९८ उपपत्तीति-२६३ उपपत्तीसूति-१८७ उपयोगवचनन्ति-५३,१६८, २०७ उपरुद्धअधिचित्तो-२६३ उपव्हयन्ताति-२२३ उपसन्तपतिसो-१८८ उपसन्तोति-७४ उपसमलक्खणो-११५ उपादानक्खन्धा-५६,२७६,२९५ उपायतोति-१९४ उपायमनसिकारलक्खणो-१९४ उपायमनसिकारोति-१९४ उपायोति - १८९, १९६ उपेक्खावेदनायपि-२८८ उपेक्खावेदनं-२७५ उपेक्खासम्बोज्झङ्गस्स-३०८,३०९ उपोसथिकस्स-१७६ उप्पज्जनकपकतिकायानुपस्सी - २७९ उप्पज्जनकसुखं-१९५ उप्पज्जनकसोमनस्सं-१९५ उप्पज्जमानतण्हा-८७ उप्पन्नचित्ता-२१५ उप्पलानि-५६ उप्पादट्ठिति-७९,८० उप्पादोति-८४, ३१५ उप्पीळनाय-२२९ उभतोभागविमुच्चनतो- १०७ उभतोभागविमुत्तोति-१०६ उभयभागविमुत्तो-१०६ उभयविमुत्तिरहितन्ति-२९० उमापुप्फन्ति-१४५ उय्यानं -- ४०,१५५ उल्लञ्चित्वाति-२१६ उल्लोकपदुमानीति-१५८ उसूयतोति -२९८ उस्माति - २८६ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ए-क] सद्दानुक्कमणिका उस्सक्कित्वाति - २८० उस्सङ्खा-३३ उस्सन्नदोसन्ति-३०० उस्सन्नुस्सन्नत्ताति-२०५ उस्सादेन्तोति-७३ उस्साहन्ति- १५८ उस्सितभावोति-२८२ उस्सुक्कं-८३, ११९, १२४, २०९, २२८ उलुम्पं-१२४ ओगच्छमानन्ति-१७८ ओघेन-१३१ ओजन्ति--२५५ ओत्थरितुं-२१७ ओत्तप्पमानोति-१९९ ओत्तप्पी-११४ ओदातचित्ता-२२१ ओधापयमानन्ति– १७७ ओपपातिका-२० ओभासटेनाति-४६ ओरन्ति-११८ ओरम्भागियानि-१२६ ओरुद्धमानसोति-२६३ ओलीयमानकोति-११२ ओसक्कापेतुन्ति-१६९ ओसधानीति- २९८,३१९ ओसन्नवीरियाति-१२९ ओसानलक्खणं-११७ ओसीदमत्तेति -२१६ ओसीदमानेति-१०९ ओस्सज्जि - १४० ओळारिकनिमित्तं-१४५ ओळारिकन्ति-७८ ओळारिकाति-१९५ एकन्तवादा-२५३ एकभावोति-१९० एकमग्गोति-२५९ एकयागुपानमत्तम्पीति-२३ एकसञ्छन्नाति-९ एकसमोसरणाति-८८ एकाबद्धानीति-१४६ एकायनोति-२५९ एकाहमतं-२८६ एकीभूतोति-२०९ एकुप्पादो-७६ एकंसब्याकरणीयो-१५० एन्तीति-११३ एसनतण्हाति-८७ एसिकत्थम्भो-१७५ एसिततण्हाति-८७ ओकप्पनसद्धा-११४ ओकप्पनं-११४ ओकप्पेन्तोति-३०३ ओकासाधिगमो- १९५ ओकिरन्तीति- १५८ कञ्जियं-३२९ कण्हसुक्कधम्मानं-२९१ कण्हाति-२९५ कण्हो- १३४ कतकालन्ति-४१ कतपुओ-१६१ कतयोगस्साति-७४ कतविहारोति-१३३ कत्तब्बकम्मन्ति-१६१ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] कथेतुकम्यतापुच्छा - ८४, २०२, २२०, २६९ कदरियाति - २०४ कनिभाताति - १०, ७४ कन्ततीति - २०१ कम्मकारणिकसत्तेसूति - ३२५ कम्मक्खमचित्तेति - ६२ कम्मजतेजो - २८६ कम्मरूपं - ९२, २४९ कम्मजवाता १७ कम्मट्ठानन्ति - १६४ कम्मधारयसमासो - ८२ कम्मनियचित्ते - ६२ कम्पनियामो - २२ कम्मनिरोधोति - ४८ कम्मफलसद्धाय - १८०, ३३० कम्मभवो - ५६, ८६ कम्ममयन्ति - ३८ कम्मरता - ११३ कम्मविपाकजन्ति - ३८ कम्मविपाकजिद्धिया - १३९ कम्मसाधनोति - १३७ कम्मस्सकताञाणे- - २ कम्मस्सकतापच्चवेक्खणं - ३०९ कम्मस्सका - २९३ कम्मावरणेनाति - ५७ कम्मासपादोति - ७१ करणन्ति - ८८, ३२७ करणिद्धिभावं - १९१ करुणाझानमग्गोति- २११ करुणाझानसङ्घातो - २११ करुणाब्रह्मविहारभावनं - २०८ करुणूपायको सल्लपरिग्गहादिना - २ करेरिमण्डपोति - १ कलापो - १६३ कल्याणमित्तता - २९३ कल्याणीति - २३१ दीघनिकाये महावग्गटीका कल्लचितेति - ६२ कसिणज्झानानि - १८३ कसिणनिमित्तं - १४२, १४५ कस्सपसुत्तेन - १७० काकस्सरापि - ३६ कातब्बकम्पन्ति - ११३ कातब्बयुद्धकथं - १११ कामगुणूपसंहितं - २४ कामच्छन्दनीवरणन्ति - २९२ कामतण्हा - ८८ कामदेवलोके - ५४ कामधातु - १२६ कामभवो - ८६, १२७ कामरागपटिघसंयोजनानि - ७८ कामरागपटिधानुसया - ७८ कामरागुप्पत्ति - २९८ कामरागो - १६०, २३४, २९७ कामावचरकुसल चित्तं - २९० कामावचरविपाकवेदनानं - ८९ कामावचरवेदना - ८९ कामूपसंहिता – ६१ कामोघब्यापादकायगन्धयोजनायं - २६८ कामोघभवोघादिभेदं - ५० कायकम्मं - ११६, ११७, १२० कायकलहो - ८८ कायकिलमथो - ५२ - १६१ कायगतासति - कायगतासतिअमतपटिलाभो - २९ कायचित्तपरिळाहानं - ११५ कायदुक्ख - १२९ कायन्ति - २८४ 10 कायबलं - १४६ काय भावनाति - २७३ कायविञ्ञत्तिं - २८१ कायविनमनाति - २९३ कायविपत्तियाति - १८० [ क क] Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख-ख] सद्दानुक्कमणिका [११] कायवेदनाचित्तविमुत्तस्स-२६५ कायवेदनानं-२६८ कायसक्खिं-१७० कायसम्पत्तिमूलकस्साति-२७३ कायाति-२५६ कायानुपस्सनाकम्मट्ठानं-२८० कायानुपस्सनाजाणं-२७९ कायानुपस्सनाति-२८४ कायानुपस्सनादिपटिपत्तिया-२६९ कायानुपस्सी-२७०, २७३, २७४, २७५, २८३ कायिकचेतसिकसुखसमङ्गी - २०५ कायिकपयोगो-२८० कायिकं-६१, २८७, २८८, ३१३ कायूपपन्नस्साति-७४ कायोति-२७०,२७१, २७९ कारुञसभावसण्ठिता-१४० कालकञ्चिकासुरनिकायं-६४ कालदेविलस्साति-२४ कालन्ति - १०९ कालारोचनसई -२६१ काळकधम्मसमन्नागतो-२२६ काळकस्स - २२६ किच्चतो-३००, ३०२, ३१५ किञ्चनन्ति-२६२ कित्तिसद्दो-१२२,२८६ किरियधम्म-५९ किरियाति-३१२ किलमथोति-२४ किलिट्ठभावो-६२ किलेसक्खयं-१०८ किलेसन्धकारस्स-४६ किलेसपरिनिब्बानेन-१४७ किलेसरागाति-५२ किलेसविक्खम्भनं-६३ किलेसविप्पमुत्तं-५९ कीळाति-६१ कुच्छिवेदिका-२०२ कुज्झनं-२१० कुञ्चिकमुद्दिकन्ति-१७३ कुणालसकुणराजस्स-२१५ कुण्ठा -३ कुम्भ-२०० कुरुधम्मजातकेन-७१ कुरुरट्ठन्ति-७१ कुरुरढे-२५९ कुरुवत्तधम्मोति -७१ कुलपरम्परागतं-२०७ कुलपरिवत्तन्ति-१६३ कुलवंसो-१३ कुलसङ्गहत्थायाति-७२ कुलागण्ठिकन्ति-८१ कुलानीति-१२२ कुल्लं - १२४ कुसलकिरियाय-२१२ कुसलचेतनाय-१६० कुसलधम्मपटिपत्तिया-२९३ कुसलधम्मे-३० कुसलन्ति-१५६,१९६ कुसलाकुसलकिरियवेदना-८६ कुसिनारायं-१५५ कुसीतपुग्गलपरिवज्जना-११५, ३०५ कुसीतोपि-३०५ केवलकप्पन्ति-२०० केवलपरिपुण्णं-२६५ कोट्ठग्गं-१६३ कोट्ठासेहीति-८८,२४४ कोण्डओ-३० कोसज्जायाति -१४९ खचित्वाति-१७१ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] दीघनिकाये महावग्गटीका [ग - ग] खणिकमरणन्ति-३१२ खणिकसमापत्तीति-१३० खण्डन्ति-११९ खण्डिच्वं-१९, ३११ खन्ति-२०,६६ खन्धजातीति-८४ खन्धपञ्चकन्ति-१०० खन्धपटिपाटियाति-३ खन्धपरिच्चागस्स - १५४ खन्धविनिमुत्तो-२ खन्धाति-९१ खमतेवाति-१७५ खयधम्मा-९८,२८९ खयधम्मातिआदि-९८ खयन्तो-२६० खयसभावाति-९८ खयोति-७८ खलग्गं-१६३ खलभण्डग्गं-१६३ खाणुकोति-१२३ खारकजातोति-२०१ खारी-२०० खिपितकरोगो-१७२ खिपितकं-१७२ खीणासवो-१०६ खीयनं-२१०, २३७ खेत्तभावसम्पत्तिया- १६१ गण्ठिबद्धं-८० गण्ठीति-८० गण्डो-२५५ गण्हन्ति-३,११७, २५४,३११ गतासेति-२१७ गतिन्ति-२१२ गतियो-३०,१९०, १९८ गतीति-१५,५०, ६० गन्धकुटिं-१२ गन्धदामानि- १७१ गन्धन्तरेति-६५ गन्धपूजं-१५९ गन्धब्बकायिकानं --२०० गन्धब्बराजाति-२०० गन्धब्बाति-८५ गन्धारकोति-२६५ गन्धो-६१,१३९,२९६ गब्भकालेति-१६३ . गब्भसेय्यकपटिसन्धि-९१ गमनचित्तसमुट्ठितं-२८१ गमनवीथिन्ति-३०४ गमनसिद्धिदस्सनतो-२८१ गम्भीरञाणचरिया-३०४ गम्भीरञाणचरियं-३०४ गम्भीरपञआयाति-३०४ गरुभावपुब्बकन्ति-१३० गरुभावं- ११० गवच्छिजालं-१७१ गहितधम्मक्खन्धपक्खियो-११ गाळहं-२३४ गिझं-१०८ गुणातिरेकन्ति-३२९ गुहारूपेन- २२८ गुळकजातन्ति-८० गोघातकोति-२८४ गोचरभावो-४७ M गग्गरनालिन्ति-२७९ गग्गरस्सराति-१४२ गग्गरायमानाति-१५२ गङ्गायन्ति-१०९ गण्ठिट्ठानभूतं-३०० गण्ठिबद्धाति-८० 12 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [घ-च] सद्दानुक्कमणिका [१३] गोतमकचेतियन्ति-१३३ गोतमोति-३० गोति-२०७ गोत्रभुजाणं-१५८ गोत्रभुतोति-१५८ गोपानसिवङ्कन्ति-४० गोविन्दियाभिसेकेनाति-२०७ गोविन्दो-२०७ घटका-१७६ घनविनिब्भोगन्ति -२८५ घरवत्थूनीति- १२३ घानं-२९६,३१४ चतुक्खन्धनिरोधेन - ९९ चतुत्थज्झानन्ति-१५७ चतुत्थज्झानिकफलसमापत्तिसुखन्ति-१९५ चतुत्थमग्गं-१०६ चतुत्थविज्ञाणट्ठितिं-१०३ चतुत्थसत्तावासंयेव- १०३ चतुधातुववत्थानन्ति -२४१२८४ चतुपटिसम्भिदाधिगमस्स - २८ चतुपारिसुद्धिसीलन्ति-१२० चतुब्बिधसतिपट्ठानतो- २७७ चतुब्रह्मविहारपटिलाभस्स-२८ चतुभूमककुसलस्साति-६७ चतुमग्गसंसिद्धिया-१६४ चतुमहापथे-२८४ चतुरङ्गवीरियं-४२ चतुरन्ता-३० चतुरिद्धिपादपटिलाभस्स-२६, २८ चतुसच्चकम्मट्ठानं-२५९, ३१६ चतुसम्पजञपब्बवण्णना- २८३ चतुसम्पजज्ञवसेनाति-२८३ चतुसम्पजनं-२८३ चन्दनगन्धं-२६ चम्मपक्खा-८५ चम्मेनाति-३३ चरणसीलाति - १३५ चरन्ति-२१७,२५४ चलनटेनाति-२५५ चलिंसूति-२१६ चवनतो-१६८ चवनधम्माय-९२ चातुमहाराजिकाति-८ चातुरन्तायाति-१७८ चामरिवालं-३२ चारिकायं-१६ चारित्तन्ति-१६६ चालेत्वाति-१७५ चक्कन्ति- १५२ चक्कबन्धो-१३१ चक्करतनं-७०,१७६,१७७,१७८ चक्कवत्तिगुणापि-१७६ चक्कवत्तिसम्पत्ति-६०,१८५ चक्खु-४५,१५०,२९६,२९७ चक्खुधम्मोति-४६ चक्खुन्ति-३१४ चक्खुपथस्मिन्ति-१८९ चक्खुविआणवीथिया-२९६ चक्खुविआणुप्पत्तिहेतु-२९७ चक्खुविज्ञाणं-२३,२५,७६,८३ चक्खुसम्फस्सादिवसेन - ९१ चक्खूति-४५, ४६ चङ्गवारेति- १५६ चञ्चलभावो-४ चतुअपायविनिमुत्ताति-१०२ चतुइरियापथोति-२८५ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] दीघनिकाये महावग्गटीका [छ-ज] छन्दाधिपति-१९१ छन्दिद्धिपादो-१९२ छल्लिं-१४९ छिज्जित्वाति-२३ छिज्जिंसूति-२७ छिन्नपातं-१५९ छिन्नवटुमका-५ छिन्नसाटको-११९ छिन्नस्सराति - १४२ चिताति- १३३ चित्तकल्लता-२१८ चित्तकिरियं-२८१ चित्तकिलमथोति-३१३ चित्तचलना-१६० चित्तजरूपेन-९३ चित्तधम्मानुपस्सी-२७५ चित्तन्ति-३०४, ३१२ चित्तविपल्लासोति-१३४ चित्तविसुद्धि-२६१,२६४ चित्तसम्पयुत्तन्ति-३१३ चित्तानुपस्सी-२७५ चित्तीकतन्ति-३० चित्तुत्रासोति-२०९ चित्तुप्पादो-८७ चित्तेकग्गता- १२० चुतिगन्तब्बन्ति-१५ चुतिचित्तं-२१, ९२ चुतिपटिसन्धियो-३ चुतिपटिसन्धीहीति- ४५ चुतिपरिच्छिन्दनाणेन - १७ चुतीति - १६८ चुल्लकद्धानन्ति-१६८ चूळकम्मासदम्मं-७१ चूळराहुलोवादे - ६२ चेतनायोगतो- ९७ चेतसिकसुखभावो-१६१ चेतसिकं-३१३ चेतियचारिका –१६० चेतोविमुत्तीति-२९३ जाति-८७ जनकभावतोति-८६ जनपदत्थावरियप्पत्तो-३० जनपदिनोति-७० जनवसभोति-१८८ जनेतीति-२८१,३१६, ३१९ जम्बुदीपे-२०, २३, १७९, २१६ जरामरणकारणन्ति-४३ जलजपुष्फानि-६५ जल्लन्ति-३४ जातकदेसना-१८४ जातखुद्दकमकुळो-२०१ जातिक्खेत्तं-१३७ जातिधम्मानन्ति-३१३ जातिनिरोधाति-८५ जातियाति-१४६ जातिसम्पत्ति-१९३ जातिसम्भेदपरिहारनिमित्तं -२१४ जिगीसानो-२३० जिनकाळसुत्तन्ति-१५८ जिनिंसूति - २५५ जिव्हा-३६,२९६ जीरणता -३११ जीविकादुक्खं -३०९ छत्तवेदिका-२०१ छन्दरागप्पहानन्ति-१०३ छन्दसमाधीति- १९१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [झ-त ] जीवितपरियादानाति - २८६ जीवितिन्द्रियुपच्छेदमेव - ३१२ जीव्हादिप्पहारमत्तसमुट्ठितो - १९० जुतिमन्तोति - २२२ जेट्ठकमहाब्रह्माति - ५४ जे भावतो - २७० जेट्ठिकट्ठानेति - ६६ जेतवनमहाविहारो - १४ जेतवनसदिसेति - १६९ जोतिपालन्ति - २०७ झ झानक्खणे - १४३ झानङ्गानि - २४१, २७८ झानभूतं - १९५ झानविपस्सनामग्गफलनिब्बानपटिसंयुत्तं - ५९ झानविमोक्खपच्चवेक्खणाति - ११६ झानसमापत्ति - २१६ झानसालन्ति - २०९ झानसुखस्स - १९४ झानाभिञालाभी - ९७ झानाभिञ्ञासमापत्तियो - १८५ झानुप्पत्तीति - ३०३ ञ आणकिच्चस्स - ५५ ञाणगतिपुञ्ञानं - १८७ ञाणचक्खुना- १२७, २०८, २२२, २८५ जाणतेजेनाति - १३९ आणदस्सनतो - ६३ त्राणन्ति - २,३१८ ञाणपरिपूरी - १५५ ञणबलं – १६६ ञाणसम्पदा - १५५ सद्दानुक्कणिका ञाणसहितं - १२७ आणालोकं - १११ आणूपपत्तिं - १२७ ञातकरणट्टेनाति - ४५ आतत्थचरिया - १८ ञतायन्ति - २१२ ञातिमनुस्सा - १२४ ञायस्साति - २६४ आयो - १६५, २६४ य्यधम्मं - २५८ ञेय्यन्ति - ९५ ठ ठपनीयोति - १५० ठान - सद्दं - ५२ ठितत्तन्ति - २२१ ठितमणिकालेखा - ३२ ठितिभङ्गक्खणेसुपि - ९२ ठितिविपरिणामञाणसुखताय - २७६ 15 त तक्करो - १२० तण्हाएजाय - २१७ तण्हाति - ३१, ५२, ८७, ८८ तण्हानिरोधा - ४८ तण्हापच्चया - ७६ तण्हामूलकधम्मे- - ८७ तण्हावानस्स - ६६ तण्हासमुदया - २८३ तण्हासंकिलेसविसोधनं - २६१ ततियचतुत्थअभिभायतनेसु - १४४ ततियविमोक्खो - १४४ तथागतो - ७९, १००, १४५, १५७, २६६ तथागतोति - १६ [१५] Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६] तदङ्गविक्खम्भनविमुत्तीहि - २९० तदङ्गविमुत्तिया - २९० तदुभयन्ति - ३०३ तदुभयपटिवेधाभावं - ८० तदुभयविमुत्ति - २९० तद्धितवुत्तिया - ३१४ तनुकतनुका - १२६ तनुकानीति - ३९ तनुविपाकं - १३७ तन्तं - ८० तपसाति - २६३ तपो - ६६ तम्बपणिदीपं - १५१,२६३ तरुणविपस्सना - ४६ तरुणविपस्सनासमङ्गीपि - ३०४ तलुनाति - ३३ ताणन्ति - ५९ तापसपरिब्बाजका - २ तालवण्टे - ९९ तावतिंसकायिकाति - २२५ तावतिंसदेवलोकस्मिं - २५६ ताळच्छिग्गलेनाति - १०८ ताळावचरन्ति - १६८ तिक्खपञ्ञता - ६२ तिक्खपञ्ञसमथयानिको - २६८ तिक्खिन्द्रियमुदिन्द्रियादयोति - ५५ तिखिणं - २२ तिण्णन्ति - २२१ तिण्णविचिकिच्छो - २०५ तितिक्खा – ६६ तित्थियसावका - ३०३ तित्थियानं – ४ तिपिटकं - १३५ तिपोरिसङ्गा – १७५ तिमिरपिङ्गलेनेव - ७४ तिरच्छानकथिकानं - ३०५ दीघनिकाये महावग्गटीका तिरच्छानयानिन्ति - ६३ तिरच्छानलोकं - ६३ तिलक्खणं - २७८ तिविधओकासाधिगमवण्णना - १९४,१९५ तिस्सदत्तत्थेरो - २९९ तिस्समहाब्रह्मापुथुज्जनो - २२५ तीरणपरिञा - ८० तीरणपहानपरिञ्ञासङ्गहो - ८० तीरेन्तोति - १३८ तुम्बसीसाति- ३७ तुलन्ति - १३७ तुवट्टकसुतं - २१९ तेजेनाति - १३९ तेपिटक - १३५, १३६ तेभूमककम्मं - ५६ भूमककुसलधम्मे - ६७ तेभूमकविपाकवेदनानं - ८९ तेरोवस्सिकानेवाति - २८६ थ थद्धमच्छरियं - २१० धनुदरन्ति - २३१ थिनमिद्धविनोदनं - ३०६ थिनमिद्धानुपतितं - २९० थिनमिद्धं ६-१२ थिरभावप्पत्ताति - ११२ थूहीति - ३५ थेरभावसाधकेहि - ११२ 16 द दण्डउक्कायाति - १०२ दण्डगतिकं - ४० दण्डन्ति -- १०९ दण्डपटिसरणन्ति - ४० [थ-द] Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [द-द] दण्डपरायनं – ४० दण्डमणिकाति - १५३ दण्डादानं - ८८ दण्डावचरो - २५५ दण्डोति - २२९ दन्तो - २७० दमो - १८३ दसपुञ्जकिरियवत्युवसेनाति - ५५ दसबलं - १६९, २२५ दसिकतन्तं - १७० दस्सनकिच्चं - ३०१ दस्सनीयतासिद्धि - १८० दस्सनीयाति - ६९, १८० दहीकम्मं - २११ दळ्हं - १४, ३०, ३०२ दानग्गं - १८२ दानचित्तेन - ३५ दानपारमीयेव - १७ दानमुखन्ति - ६५ दानसीलं - ५९ दिट्ठधम्मिका - १५४ दिट्ठि – ४९, १९८, ३२४ दिट्टिगतिका - ९७ दिट्ठिगतिकेसूति - ९८ दिट्ठगतिको - ८२, ९६,९८, ९९ दिट्ठिमानादिकिलेसविगमनेन - ६२ दिट्टिवाद - ९६, २५४ दिट्ठिविचिकिच्छादिपापधम्मानं - १३५ दिब्बगन्धजालचुण्णानीति - १५८ दिब्बचक्खुत्राणाभिनीहारवसेन - २२१ दिब्बचक्खुना - २२१, २२८ दिब्बचक्युं - ३८, १८१ दिब्बन्ति - ६१, ८५, १७६, २०६ दिब्बभावो - ७० दिब्बरूपतासम्पत्तिपीति - १८० दिब्बसम्पत्ति अनुभवनं - १९ सद्दानुक्कमणिका दिब्बसम्पत्तिं - ६१ दिब्बानुभावताति - २२३ - २३ देवानुभावन्ति - देवोतिआदि - १३७ 17 दिब्बं - १७६, २५५ दीघपिङ्गलोति - १५२ दीघेहीति – ३५ दीपकोति - २७२ दीपङ्करबुद्धुप्पादे – ५ दीपङ्करं - १२ दीपोति - १३१ दुकूलचुम्बकेति - ३० दुकूलदुपट्टे - १७१ दुक्कथितन्ति - १९७ दुक्ख अदुक्खमसुखवेदनासभावो - ९८ दुक्खनिरोधोति - ३१० दुक्खिता - ३२४ दुग्गन्धोति - ३२५ दुतियततियचित्तवारे - २१ दुतियतियेसूति - १० दुतियविमोक्खो - १४४ पति- ५७ दुब्भरतायाति - १४९ दुल्लभदस्सनता - ३१ देन्तीति - ११० देवघटाति - २१७ देवचारिककोलाहलन्ति - १६ देवभावायाति - ८४ देवराजानोति - २२३ देवलोके - १६, १९, ७०, १२७, १६३, २२९, २३३ देसनाञाणानुभावेन - १३९ देसनात्राणं - ७२ देसेस्सन्तीति - - १३५, १३६ द्वत्तिंसकम्मकारणानि - ६४ द्वादसपुञ्ञकिरियवसेनाति - ५५ द्वादसाकुसलचित्तुप्पादसङ्गहितस्स - - ६७ [१७] Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८] दीघनिकाये महावग्गटीका [ध-न] द्वेळहकन्ति-१६७ धम्मकायो-१५४ धम्मक्खानं - १८ धम्मचरणभावोति-४१ धम्मट्ठितिजाणं-७९ धम्मताति-२२,२९,१७६,१९० धम्मधातूति -१६ धम्मनियामेनाति-१२७ धम्मनियामो-२२,२९ धम्मपदन्ति- १०२ धम्मराजाति-३० धम्मविचयसम्बोज्झङ्गो-३०० धम्मविचयो-३०० धम्मविनीताति-१९९ धम्मसभावो-१४१ धम्मसंयुत्ताति -२ धम्मी -२ धारणं-३७,७५,२६५ धीरोति-१५२,२०४ धुरपत्तानीति-७४ धुरवातेति-१५२ धुवन्ति-२९८ धूमकालिकं-११२ धोवनसिला-६२ नवविधलोकुत्तरधम्मस्स-१५८ नववेदनुप्पादनवसेन- १५२ नागग्गाहोति-१२३ नागराजाति-२०१ नागसदहवासिकाति-२२३ नागसेनत्थेरो-१६७ नागापलोकितन्ति-१४६ नातिकिया-१८७ नानत्तकायएकत्तसञिनोति-१०२ नानत्तकाया-१०२ नानत्तसञिनो-१०२ नानाकसिणलाभी-९६ नानाचित्तक्खणिकपरिहारो-२७६ नानाचित्तक्खणेति -२७६ नानाभावो-१४६ नाभिपरिच्छिन्नाति -३२ नाभिमुखपरिक्खेपपट्टोति-३२ नामन्वयेनाति-२२५ नामरूपन्ति- ४५,९१, ९५, २६९ नामरूपपरिच्छेदोति-७५ नामरूपसमुदयाति-४८, २९९ निक्कद्दमाति-१५२ निक्खमन्तेसूति-६ निक्खेपोति-३१२ निग्गुम्बेति-८४ निग्रोधपरिमण्डलोति -३५ निग्रोधो-३५ निच्चलोति-३३ निच्चसञ्जन्ति-२७२ निच्चाति-२७२ निज्जटेति-८४ निट्टङ्गताति-१८७ नित्थुनन्तोति-२८७ निद्दोसाति-१२० निधिकुम्भोति-१५ निप्फत्तिन्ति-४ नक्खत्तनिस्सिताति-२२४ नच्चन्ताति-१७५ नन्दत्थेरो-७४ नन्दीति-३२ नन्दीरागसहगताति-३१४ नमुचि-१३४ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका . निबद्धवत्तन्ति-१८३ निहीनपञो-२१९ निबद्धुपट्टाकभावन्ति-११ नीलमणि-१२८ निबद्धं - २०१ नीवरणप्पहानं - २७३ निब्बत्तिलक्खणन्ति - ४८ नीवरणानीति-२७३ निब्बानगमनटेनाति--२६१ नेक्खम्म-६१, २४५ निब्बानगामिनन्ति -२६० नेतानि-२१७ निब्बानं-४१, ४६, ५२, ६६, १००, १०३, ११६, । नेमिपरिक्खेपस्साति-१७७ १५५, १६१,१६८, १९८, २०३, २५४, २६१, नेमिमणिकाति-३२ २६४, २६७, २६९, ३१५, ३१६ निमित्तकुसलता-११६, ३०७ निमित्तन्ति-२९२,३०७ निमित्तभूतानीति-३२ पकतिचक्कस्स-३२, १७७ निमित्तानि-८९ पकतियाति-२४,२३४, २५९ निय्यातेन्तोति-६९,३२२ पकासनयोग्यतालक्खणं-७७ निय्यानमुखन्ति -२८० पकासितन्ति-१३६, १४९ निय्यानिकाति-१६४ पक्कुथतीति-७४ निरयन्ति -६३ पग्गयहाति - ११७ निरुत्तीति-९५ पग्गहकिच्चं-३०१ निरोधदस्सनं-४६ पग्गहलक्खणो-११५ निरोधधम्मन्ति-६२७५ पङ्गुळा-३ निरोधधम्मा-९८ पचलायन्तानन्ति-२६३ निरोधसच्चं-५१,३२१ पच्चक्खाभावतोति-११७ निरोधसञाति--११६ पच्चति-९, २३८ निरोधसमापत्तिं-१९६ पच्चनीकधम्मप्पहानं-२९९ निरोधोति-४६,११६ पच्चयतोति-४४ निरोधं-६२,३१७ पच्चयधम्मनिमित्तं - ८० निलीना-२२१ पच्चयभावोति-८६ निवुतब्रह्मलोको-२१० पच्चयसञ्जाननमत्तन्ति-४६ निसीदनसाला-२ पच्चयसन्निस्सितसीलवसेन-६८ निसेन्तो-२२ पच्चयाकारमूळ्हो- ९९ निस्सक्कवचनन्ति-४३,१९५ पच्चयुप्पनुप्पादसङ्खातो-७६ निस्सन्दफलं-३२ पच्चवेक्षणाति-३०४ निस्सयापरिसुद्धिया-३०० पच्चवेक्खतीति-२८५ निस्सयिद्धिपाददस्सनं-१९२ पच्चागमनचारिकन्ति-१३२ निस्ससन्तीति-१९ पच्चेकबुद्धो-२२० निस्सीलोति-१२२ पच्चेकबोधिजाणं-२०५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०] दीघनिकाये महावग्गटीका [प-प] पच्छानिपातिनी-१८० पजाननटेनाति-४५ पजानातीति-२९७,३१० पञ्चकामगुणिको-८८ पञ्चकुण्डलिकोति-२०० पञ्चक्खन्धाति-६३,१३८ पञ्चबुद्धप्पादपटिमण्डितत्ता-५ पञ्चममहाविपाकचित्तेन-२१ पञ्चमहाविलोकनाणेहि-१७ पञ्चराजककुधभण्डसमायोगो-२७ पञ्चवीसतिमहाभयानि-६४ पञ्चसिखोति - १९० पञ्चसीलानीति-१२८ पञ्जरस्मिन्ति-२६३ पञत्तीति-८९, ९५ पआचक्खु-५४ पञाति-१०० पआपयोगसम्पत्तिया-३०९ पआपेस्सन्तीति-१३५ पबलस्स-१०४ पञआभावना-२६२ पञ्जाविसयेति-१० पञ्होति-१५०,२५४,२५५ पटिक्कूलत्ताति- २८६ पटिगतन्ति-४१ पटिघनिमित्तं-२९२ पटिघसम्फस्सोति- ९० पटिघातोति-१३३ पटिघो-९० पटिच्चसमुप्पन्ना- २८९ पटिच्चसमुप्पाद-सद्दो-४५ पटिच्चसमुप्पादोति-६३, ८२ पटिजानाति- ९७ पटिनिस्सट्टाति-५२ पटिपक्खोति-६६ पटिपत्तिपटिवेधसद्धम्मानं-११४ पटिपदाविसुद्धिजाणं-४९ पटिबद्ध अङ्गुलन्तरोति-३३ पटिभानेय्यकेति-१६९ पटियोगी-२९० पटिलोमोति-७६ पटिविज्झमानोति-१० पटिविज्झित्वाति-३३ पटिविद्धोति-५१ पटिवेधञाणानुभावेन-१३९ पटिवेधसभावतो-७३ पटिवेधोति-७८,३१६,३१७ पटिसङ्खानलक्खणो-११५ पटिसङ्खानं -११५, २९३ पटिसन्थारधम्मन्ति-१६२ पटिसन्धिक्खणे-७६,३११ पटिसन्धिचित्तं-२१,२२,९२ पटिसन्धिनामरूपं-९३ पटिसन्धिविञआणं-७,९४ पटिसम्भिदामग्गे -७९, १०५ पटिसम्मज्जित्वाति-७२ पटिसरणेति-३० पटिसल्लीनस्साति-४३ पट्टनगामन्ति-१०९ पट्टपितविपस्सने -१६४ पट्ठानन्ति - २६६,२६७ पठमज्झानफस्सेन-१०४ पठमज्झानसुखन्ति-१९५ पठमज्झानं-१९६, २३३ पठमपदगण्ठिकाति-१४ पठमबोधियं-११ पठमभवङ्गतो-९३ पणिहितन्ति-२८५ पणिहितोति-२८२ पणीतन्ति-६६ पणीतो-५१ पण्डितवेदनीयो-५१ 20 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प-प] सद्दानुक्कमणिका [२१] पण्डितोति- ९५ पण्हीति-३२ पतिट्टा-५९ पतिद्वानद्वैनाति-१३३, १९१ पतिहितगुणोति-१११ पत्तकन्ति - २२९ पथतोति-१९४ पथमनसिकारोति-१९४ पथवीउन्द्रियजातकं-२१४ पथवीकम्पो-१३६,१३८,१३९ पथवीकायन्ति-२७१ पथवीति-३०३ पदुमरागादिमणिमया-२०० पदुमिनियन्ति-२१५ पदुस्सनटेनाति-२५५ पदेसविसयाणदस्सनं-५५ । पधानानुयोगो-४७ पधानं-१४, १५,२६६,२८३, ३०२,३१९ पनाळि-१७७ पनुज्ज-२२१ पन्नपलासोति-२०१ पपञ्चसञाति - २५४ पपञ्चा-२४०,२५४ पपञ्चं-१६ पब्भारसीसाति-३७ पभस्सरं-६२,१५३ पभेददस्सनं-१२८ पभेदपच्चवेक्खणाति-३०४ पमुञ्चन्तूति-५८ पमुदा - १९५ पयुत्तन्ति-२८२ परज्झासयेनाति-२२० परनिसेधनत्थन्ति-८८ परमत्थदीपनियं-५७ परमत्थधम्मानं-२०५ परमसुगन्धगन्धकुटि -२६ परमं-४६, ५७, ६६, १२० परलोकन्ति-५५,१२२ परवादी-९६ परविसंवादनं-२१० परवेदिया-२०९ परिक्खीणाति-१०४ परिचारकेति-१८७ परिच्चागसीलो-५९ परिच्छिन्दनं-७ परिच्छेदो-२,७ परिजानाति-२४४,३१० परिजेय्यन्ति-८३ परिणायकरतनं-७० परितस्सनजीवितन्ति-६५ परित्तभावं-९६ परित्तानीति-१४३ परित्तं-९६, १६८,२९०, ३०७, ३०८ परिदेवो-२६१ परिनिब्बुतोति - १५४, १५५, २६३ परिपुच्छकताति-३०० परिपुच्छनं-७५ परिपुण्णजङ्घोति-३४ परिपुण्णन्ति-३५ परिपुण्णसङ्कप्पोति-५० परिपूरन्ति-१७६ परिभोगभाजनन्ति-१८३ परिमण्डलनिग्रोधो-३५ परिमण्डलोति-३५ परियत्तिधम्म-१३५ परियत्तिसद्धम्मे-११४ परियन्तकारीति-११३ परियायो-८४,१४४ परियुट्टितचित्तोति-१३३ परियुट्टितचेतसो-१४५ परियेसना-८७, २५०, २५१ परियोगाळ्हधम्माति-६३ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२] परियोसितकम्मन्ति - १३१ पलासेनाति - ३२७ पलिबुन्धन्ति - ७९ पलिबोधो - ७९ पलुज्जतीति - पलेतीति - १०६ - ५६ पवत्ताति - १५४, २७८, २९९ पवत्तिताति- २,२३० पवत्तिमग्गोति- २८०, २८५ पवनन्ति - २१७ पवाळन्ति - २६५ पविचयलक्खणो- ११५ पविट्ठानीति - १५८ पविवेकायाति - १४९ पवुट्टजाति - २२५ पवेणीकथन्ति - ११२ पवेणीति - १३ पसन्नचित्ते - ६२ पसरहाकारस्साति - ११० पसादचक्खु - ३८, २९७ पसादसद्धा - ११४ पसादावहत्ताति - १८० पसादितचित्तत्ता - ११९ पसादोति - पस्सद्धिसमाधिउपेक्खाहीति - ३०३ - २५३, २९७ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गभावनाय - ३०९ पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गो - ३०६ पस्सं - ३२ पहातब्बधम्मेसु - २९१ पहातब्बाति - २११ पहानदस्सनं - २७३ पहीनतण्हो- - २२० पहूतजिव्ह - ३६ पहूतपञ्ञन्ति - २२१ पहोन्तीति - २६५ पाचित्तियं - ११२ दीघनिकाये महावग्गटीका 22 पातब्बयागूति - १६९ पातिमोक्खन्ति - ६७, ६८ पातिमोक्खसंवरसीलं - ६८ पापकम्मबलेन - २३ पापधम्मा - ३२ पापपुग्गलेहि - ११३ पापमित्ता - ११३ पापसम्पवडा ११३ पापमा - १३४ पापोति - १६९ पामोक्खदेवाति - २२५ पारङ्गतन्ति - २२१ पारमीपूरणकालेतिआदि - ५३ पाराजिको - २८० पावायाति - १६९ पासाणपब्बतो - १२८ पिङ्गलचक्खुको - १५२ पिञ्छवट्टीति – ७४ पिट्ठिपादेति – ३३ पिण्डापचायनं - ३०५ पिताति- २६२ पिप्फलिकन्ति - १८३ पियाति - ७१, १६६, २३९ पियेहि - १४५ पिसाचेनापि – १६१ पीतमल्लत्थेरो - २६३ पीतिसम्बोज्झङ्गो - ३०६ पीतिसुखन्ति - १९५ पीतिसोमनस्सन्ति - १९५० पीळनट्टेनाति - २५५ पुग्गलोति – १४३, २७९ पुञ्ञकम्मं - १९, १८०, २२८, २३५ पुञ्ञकिरियवत्थूहि - - ५९ पुञ्ञतेजेनाति -- १३९ पुञ्ञबलं - १८१ पुञ्ञभागो - १९९ [ प प ] Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [फ-ब] सद्दानुक्कमणिका [२३] फरणलक्खणो-११५ फरुसोति-१२९ फलविमुत्ति- १९९ फलसमापत्तिधम्म-१३६ फलसीसाति-३७ फस्ससमुदयाति-४८, २९९ फस्सोति-८३, ८४, ९१, ९८ पुअसिरियाति-२०६ पुञानुभावेनाति-१७९ पुटवेदिका - २०१ पुतोळि-२८४ पुत्तेन - २४ पुथुककालेति-१६३ पुथुज्जनअरहन्तभावसिद्धं-१५४ पुथुभूतं - १३६ पुथुलेहीति-३५ पुथुवचनन्ति-७० पुप्फानीति-६५ पुब्बचरियाति-१८ पुब्बनिमित्तानीति-१९ पुब्बभागविपस्सना-४६ पुब्बयोगो-१८ पुब्बेनिवासानुस्सरणं-४ पुरत्थाभिमुखोति-२४ पुरिमतण्हाति-२८० पुरोहितोति-२०७ पूजा-१२४ पूतिकाति-२१० पूतिगन्धो-१३९ पेत्तिविसयन्ति-६३ पेमनीयस्सरोति-३८ पेसकारकजियसुत्तन्ति-८१ पेसितचित्ताति-१६१ पोक्खरं -- २२९ पोङ्खानुपोङन्ति-१०८ पोथुज्जनिका-५९ पोनोब्मविकाति-३१४ पोराणाति-२६५ पोसेन्तस्साति-२८५ पंस्वागारकीळं-१८४ बलवाघातजातोति-१०९ बलानुरूपेनाति-१७३ बलिन्ति-१०९,१२८ बहलबहलाति-१२६ बहुजनकन्ततायाति-२८ बहुजनसुखाय-१४७ बहुजनहिताय-१४७, २०२, २०३ बहुदुक्खाति-६१ बहुपायासाति-६१ बहुस्सुतो-११४ बाराणसिसम्भवन्ति-१४५ बाहबन्धो-१३१ बाहुजञ्छ-१३६ बिन्दुबिन्दुवसेनाति-१९ बिन्दूति-१९० बिम्बिसारसमागमो - १४१ बीजग्गं-१६३ बीभच्छेतीति-१७५ बीलसोति-२८५ बुज्झतीति-१७,४६, २०७ बुज्झनकसत्तस्साति-२९९ बुद्धकिच्चस्स - १४६ बुद्धगुणविभवसिरिन्ति-१० Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४] दीघनिकाये महावग्गटीका बुद्धगुणा-१६ बुद्धचक्खूति-५५ बुद्धचरिया-१८ बुद्धभावं-२१ बुद्धमुनि - २२१ बुद्धरतनं-२५७ बुद्धसासने-३०२ बुद्धानुस्सति-११५, २७४ बुद्धापदेसो-१४७ बुद्धोति-२११ बुद्धं - २१७ बोज्झङ्गो-११५ बोज्झाति-२६३ बोधि-१७ बोधिपक्खियधम्मा-११६ बोधिपल्लङ्कोति-१४ ब्यग्गो-३०७ व्यञ्जनञ्च -१३६ ब्यत्तोति-९५, १६२ ब्यसनेनाति-३१२ ब्याकरित्वाति-२६३ ब्यामप्पभा-१४ ब्रह्मकायिकाति-१०२ ब्रह्मचारी-२७० ब्रह्मपारिसज्जा-१०२ ब्रह्मपुरोहिता- १०२ ब्रह्मलोकाति-६ ब्रह्मविहारभावना -१०५ ब्राह्मणोति-३०,१०६ भङ्गजाणादीनं-४९ भजित्वाति-६६ भत्तपातीति-१८४ भत्तवहितकन्ति-१४३ भन्तेति-१५३,१६६, ३०८ भयानकं-२२६ भरितभावस्साति--२९ भवङ्गचित्तं-९२,१६८, १९४ भवनस्साति-१५७ भवतण्हा-८८ भवनेत्ति-१२५ भवसङ्घारन्ति-१३७ भवसञोजना- ४९ भवो-८८,२०७ भवोति-४४ भस्तन्ति-२७९ भातरोति-२२३ भारधाति-२०८ भावनाति-२६२ भावनापटिपत्तिं-३०९ भावनापटिवेधो-२८०,३१७ भासन्तरन्ति-१४२ भिक्खुसङ्घसमिति-२२३ भिक्खूति-१३१, २७०, २८६ भिज्जित्वाति - १०९ भित्तिनियूहानीति-३९ भिन्नस्सरापि-३६ भुत्तानन्ति-१८४ भुम्मवचनन्ति-१५३ भुम्माति-२२१ भुसागारकेति-१५३ भूतुपादाधम्मानं-२७० भोजनेमत्तञ्जू-२९२ भगवतोति-२६० भगवाति-५, २०६ भग्गविभग्गाति-२६ भङ्गखणतो-१८५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [म-म] सद्दानुक्कमणिका मग्गचित्तक्खणे-२७६ मग्गजाणेति-१९८ मग्गटेनाति-२६७ मग्गधम्मो-२६७ मग्गनीयद्वेनाति-२६१ मग्गफलसमाधि-१२० मग्गविमुत्तीति - १९९ मग्गसमाधि-१२० मग्गसम्मादिट्ठीति-१९८ मग्गसीले - १२० मग्गोति-४६, २०९, २५९,२६०, २६४, २६७ मच्छरियं-८८,११८,२१०,२३९, २९८ मच्छविलोलिकाति-१५३ ।। मज्जनं-२१० मज्झत्तपयोगता-११५, ३०७ मज्झिमेन-६१, १०२ मञ्जुकेति-१६९ मञ्जुघोसोति-३६ मञ्जुस्सरोति-३८ मणि-१२८ मणिकरण्डेसूति- १७३ मणिका - १५३, १७६ मणिफलकेति-१३२ मणिमयाति-२०० मण्डलमाळन्ति-२ मत्त ताति-६८ मदपमत्तोति-२०५ मद्दतीति-१३४ मधुरस्सरोति-३८ मधुरोति-३८ मधुसाकन्ति-२०९ मनोरमानं-२४४ मनोसम्फस्सो-८९,९० मनं-२००,२११ मन्तायन्ति-२१२ ममायतीति-३०९ ममायन्ताति- २३९,३१० ममंकारो-२०९ मलस्साति-६६ मल्लपासाणन्ति-७४ महग्धं-३०,३१, ६० महप्फला-१२१ महाओकासेति-१४७ महाकम्मासदम-७१ महाकस्सपत्थेरो-१६७ महाकारुणिका-२१, २३० महागोविन्दो-२०७ महातेजोति-२६ महापथवीति-३० महापरिनिब्बानन्ति-१०८ महापुजाति-१९ महापुरिसो-४२,४४, १८३ महाबोधिपल्लङ्कोति-६ महाबोधिसत्ता-७,२०,४७ महाब्रह्मनो-१०२, १३४ महामत्ता -१०९,११० महायसोति-२६,१५८ महाविपस्सनामुखेन-१५४ महासमयोति-२१७ महासिवत्थेरो-२१,१३३,३२२ महिच्छतायाति - १४९ महिद्धिको-१८४ महिन्दत्थेरेन-१५१ मातिकं-५७,१५० माननं-१२४ मानेन्तीति-११० मापेन्तीति-१२३ मापेसुन्ति-१६० मायाति-२२३ 25 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] दीघनिकाये महावग्गटीका [य-र] यथासमाहितं-२१७ यमकसालानन्ति-१५३,१५५ यमुनवासिनोति-२२३ यमुनोदकं-२०३ यवलक्खणन्ति-३३ यसस्सिनोति-२२२ योगक्खेमोतिपि-२५४ योगसमत्थोति-२७४ योगावचरोति- २९९ योगिनो-१४२, १९८, २७३, ३०८, ३१६ योनिसोमनसिकारोति-३०० योनिसोमनसिकारं-४३, १०२, २९३,२९९ मारबलं-१४० मारोति-१३४ मालापूजं-१५९ मिच्छादस्सनेन-२७१ मिच्छादिट्ठिया - ९९ मित्तदुब्भनं-२१० मित्तो-२९२ मिलायन्तूति-१७३ मिलिन्दराजानं-१६७ मुत्ताति-२६५ मुदुचित्ते-६२ मुदुभावं-१५२ मुनिन्ति - २२० मुव्हनं-२१० मुरुमुरापेत्वाति-१६० मुहुत्तजातोति-२६ मेत्ताकरुणाकायिकाति-२२४ मेत्ताझाननिमित्तं- २२४ मेत्तानिमित्तं-२९३ मेत्तं-११६,११७ मेधावीति-९५,१६२ मोग्गलिपुत्ततिस्सत्थेरो-२२५ मोघत्थेरो-१९३ मोमूहचित्तन्ति-२९० मोरहत्थकोति-३२ मोसवज्ज-२१० मोहोति-४९ रजतपुब्बुळकन्ति-३७ रजनन्ति-६२ रजनीयोति- १७७ .. रजोति-३४ रञ्जतुन्ति-१७५ रट्ठपालत्थेरो-१९३ रतनत्तयविचिकिच्छामूलिका-२९५ रतनदामानि-१७१ रतनं-३० रतिजननटेनाति-३० रत्तकम्बलगेण्डुकसदिसाति-३३ रत्ताति- २६५ रमतीति-५२ रसग्गसग्गीति-३६ रसोति-२९७ रस्मीति -१४ रस्सेहीति-३५ रहोगतस्साति-४३ रागादिरजं-५४ रागादिवूपसमेन- २७० राजगह -- २११ यक्खग्गाहो-१७२ यक्खदासकेति-१७३ यक्खा -८५, २२२ यट्टिकोटिगमनं-३ यथानुलोमसासना-२९८ यथाविधिपटिपत्तिया - २९४ 26 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ल-व] सद्दानुक्कमणिका [२७] राजधम्मे-३० रूपकम्मट्ठानं-२४१, २४३,२४४ रूपकलापं-२८१ रूपकसिणज्झानं- ९६ रूपकायोति-९० रूपजीवितिन्द्रियं-२८६ रूपज्झानं-१०५ रूपधम्मानं-२८५,३२२ रूपनिरोधोति-४८ रूपसञ्जा-१०५,१४३ रूपसञीति-१४४ रूपसमुदयो-४८ रूपायतनं-२५२, २७१ रूपारूपावचरन्ति-२९० रूपावचरचतुत्थज्झानं-१०६ लोकनिरोधगामिनिञ्च -१०० लोकन्तरिकाति-२३ लोकन्ति - १२२, १२७ लोकानुकम्पाय -१४७ लोकियगुणे-१८३ लोकियचतुत्यज्झानसमापत्ति-१५७ लोकियचतुपारिसुद्धिसीलं- १२० लोकियपाय-१०० लोकियमग्गचित्तखणेति-२७६ लोकियविपस्सनापीति-११६ लोकुत्तरधम्मा - २९९ लोकुत्तरमग्गोति-१६५, २६० लोकुत्तरसतिपट्ठानभावनं-२७६ लोकुत्तरसमाधिना-२१७ रूपिं-९६ रेणुवट्टीति-२०१ रोगोति-१५३ रोचिनीति-१३ लक्खणानीति- ४९, ६३ लहुकन्ति -७ लळितन्ति-३८ लळिंसूति-३८ लाभो-११७, २०४, २३४ लामकभावोति-६१ लिङ्गानि-८९ लीनाकारोति-२९३ लुञ्चित्वा-२८६ लुञ्चित्वाति-२८६ लुब्भनं-२१० लेणन्ति-५९ लोकत्थचरिया-१८ लोकधातूति -२१६ वग्गूति-१७७ वजेति - २८२ वज्जिधम्मन्ति-१०९ वज्जिराजानोति-१०८ वञ्चनिका-२२३ वटंसकोति-३२ वट्टमूलतण्हा-८८ वट्टिस्सतीति-११९ वट्टेत्वाति-३३, २३४ वड्डितप्पमाणानीति-१४३ वड्डिताति-१३३ वणिप्पथोति-१२३ वण्णभणनन्ति-२६४ वण्णवन्तोति-२२२ वण्णवसेनाति-१४५ वण्णेनाति-२०६ वत्थुन्ति-२४,११९ वधितं-२८५ वयधम्मा- ९८,२८९ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] दीघनिकाये महावग्गटीका [व-व] वयधम्मानुपस्सीति-२७९ वलित्तचो -३११ वल्लि - ९६ वसभराजाति-१८५ वस्सिको-३९ वहन्तोति-४७ वाजिका-११० वातपटाका-१७१ वातवलाहका-२२४ वातवसेनाति-६ वामूरूति-२३१ वायन्ति-१४० वायीति-२७ वायोधातुअधिकं - २८१ वावटाति-२३ वासवो-२२४ वाहो-२०० वाळबीजनीति-३२ वाळसङ्घातयन्तन्ति-१७३ विक्खम्भेत्वाति-१३०, १९५, १९६, २६२ विक्खिपतीति-१०९ विगतोति-९८ विग्गहो-८८ विचिकिच्छाठानीया - २९४ विजानियाति - १०२ विजितावीति-३० विआणकायस्स - २९६ विज्ञाणट्ठिति - १०१ विज्ञाणट्ठितिन्ति-१०३ विज्ञआणन्ति-४८ वि पसत्यानि-१२० विद्येय्यो-१९० विदितधम्माति-६३ विदितभावं-६३ विद्धंसनभावो- २८९ विनयोति-१४८,१६५ विनासेतीति-२५४ विनिच्छयन्ति-१०७ विनिच्छयमहामत्ता-११० विनिच्छयोति-८७,२३९ विनिपतितत्ताति-८१ विनिपातिकाति-२९३ विनिब्बेधेनाति-१७८ विनिब्भोगो-७६,७७ विनीलं-२८६ विनीवरणचित्तेति-६२ विपञ्चितञ्जूति - ५७ विपरिणतन्ति-५२,२४४ विपरिणताति-१८५ विपरिणामधम्माति-५९,२८९ विपरिणामलक्खणन्ति-४८ विपरिवत्तित्वाति-२३ विपस्सना-८०,१०४, ११६, २१२, २४५, २४६ विपस्सनाकम्मट्ठानं-१६४ विपस्सनाचित्तं-१३० विपस्सनाञाणञ्च-१४० विपस्सनाति-१६५ विपस्सनापायं-१२१ विपस्सनापधाना-२९१ विपस्सनाभिनिवेसनन्ति-२८८ विपस्सनाभिनिवेसविभागेन-२९१ विपस्सनामग्गेति-१६५ विपस्सनायानिकोति-१०१ विपस्सनावीथिं-३०२ विपस्सनासमथभावनासङ्घातेन-२९८ विपस्सिन्ति-५३ विपस्सीति-१७ विपाकवेदनाति-८६ विप्पकिरिसूति-१७० विप्पमुत्तो-४९ विप्पसन्नाति-२२१ विष्फारिकतरोति-१०२ 28 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [व-व] सद्दानुक्कमणिका [२९] विभजिस्सन्तीति-१३५ विभवतण्हाति-८८ विभाविनो-१७८ विभूतकालोति-२८४ विमतीति-१६७ विमुत्तन्ति-२९० विमुत्तिपरिपाचकधम्मानं-५५ विमुत्ति सद्दस्स- १६ विमुत्तोति- १०४,१०६ विमुत्तं - ४९, २९० विमोक्खोति-१४५ वियत्तोति - ९५ विरजन्ति-६२ विरज्जति-२७२, ३१५ विरज्जन्तीति-५२ विवटो-१९९ विवरिस्सन्तीति-१३५ विवादो-८८ विविच्छा -२१० विसज्जाति-१२५ विसञ्जोगायाति-१४९ विसभागरोगोति- १२९ विसाखपुण्णमं-४३ विसारदाति- १३५ विसिट्टानं-६९ विसुद्धिदिट्ठि-२७८ विसुद्धिन्ति-२६५ विसुद्धिमग्गसंवण्णनायं-५७, ६८, २९६ विसुद्धिमग्गोति-२६७, ३०९ विसेसदस्सनत्थं-६३ विस्सकम्मो- १७३ विस्सज्जीति-१३६ विस्सट्टचित्तेन -२५९ विस्सन्दमानपुब्बन्ति-२८६ विस्सरतीति- १०२ विस्सासोति-१६० विहतेनाति-१६१ विहरतीति-६६, ७०, १०४, १८७, २७२, २७४, २८०,२८३ विहायन्तीति-६९ विहारङ्गणपरिवेणङ्गणानि-२६ वीणदण्डो-२२९ वीणावादनविधि --२२९ वीणूपमोवादेन -३०२ वीततण्हो-२१९ वीतमलं-६२ वीतरागन्ति-२८९ वीमंसाति-१४२ वीराति-३१ वीरियवन्ततायाति-५८ वीरियसमाधीति - १९२ वीरियसम्बोज्झङ्गोति-३०५ वीरियारम्भायाति-१४९ बुद्धिप्पत्तन्ति-१३६ वुद्धियेव - ११० दुसितवतन्ति-२०३ वूपसमोति - १६८, २४० वेठकाति-२२९ वेणग्गं-१६३ वेणिकरणं-१६३ वेण्डुदेवताति-२२४ वेदकोति-२८१ वेदनन्ति-२८७ वेदनाति-८६, २४४, २७५, २८९ वेदनादिअनुपस्सनापसङ्गेपि-२७० वेदनाद्वयस्स-२८८ वेदनाधम्मोति- ९७ वेदनानुपस्सनाय – १०० वेदनानुपस्सी-२७५ वेदनापच्चया-८७, ८८ वेदनासज्ञानं -१९५ वेदनासूति-२७० Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३०] वेदपटिलाभाय - २५५ वेदयतीति - ७७, २८७, २८८ वेदयितसभावन्ति - ४८ वेदेतीति - २८९ वेपाको - १८१ वेपुल्लं - ९२, २३२, ३२० मत्तं - १४, १५ वेरन्ति - १५५ वोक्कमिस्सथाति ९१ वोसानन्ति - १०९ स सउत्तरन्ति - २९० सउपनिसोति - १९७ सङ्कीयन्तीति – २६५ सङ्घतधम्मं - १४० सङ्घता - २६०, २८९ सङ्घाति - ९८ सङ्घरोतीति – १९१ सङ्घा - ३३, २४० सङ्क्षिणातीति – २५४ सङ्गणिकायाति - १४९ सङ्गम्माति - १२९ सङ्गीतिकारका सच्चप्पटिवेधो - ११४ - १७३ सच्छिकिरियाति - २१२, २६४ सजनपदन्ति - १२८ सज्जितो - ३५, ३२८ सञ्जातदुक्खं - ४१ सञ्जाति - ३११ सञ्ञादिधम्मं - १०० सञ्ञोगायाति - १४९ सणतेवाति - ४२ सण्ठन्तीति - ३५ सतवारविहतस्साति - १८० दीघनिकाये महावग्गटीका 30 सतिगोचरोति -२६५ सतिपट्ठानदेसनाति - २९१ सतिपट्ठानन्ति – २६६, २६७ सतिपट्ठानभावना - २८१ सतिपट्ठान - सद्दस्स - २६५ सतिसमाधिपञ्चाहि - ६३ सतिसम्पजञ्ञन्तिआदिना - २९९ सतिसम्पञ्ञबलेन - २७४ सतिसम्पजञानं - २८० सतिसम्पज - ११५, २९९ सतिसम्बोज्झङ्गद्वानीयाति - २९९ सतीति - १००, १६१, २६७, २६९, ३०३ सतोति - ९४, २५६ सत्थुसासनन्ति - १४९ सत्तनिकायेति - ३१० सत्तमदिवसेति - १७३ सत्तमासजातोति - २५ सत्तविसुद्धिपरम्परा - ३०४ सत्तियो - १७१ सत्तीति - ३२ सद्दन्तरं - २१६ सद्दहन्तोति - ३०३ सद्धम्मचक्कप्पवत्तनस्स - २७ सद्धाति - ११३ सद्धासम्पत्तिया - ६२ सद्धिन्द्रियं - ३००,३०१ सनङ्कुमारो - २०९ सन्धारेतुन्ति - ११० सन्धावनं – १२५ सन्नाहगवच्छिकं - १७१ सन्निपातबहुलाति - १०९ - १७८ सन्निपातभेरियाति - १०९ सन्निवेसक्खमोतिसन्निसीवेसूति – ४२ सप्पाटिहारियन्ति - १३५ सब्बकनिट्ठोति - १७९ - [ स स ] Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका [३१] सब्बकम्मिको-३०३ सब्बकिलेसप्पहानतो-२६४ सब्ब तञाणन्ति-१६ सब्ब ताणपटिलाभस्स-२८ सब्बत्थककम्मट्ठानन्ति-२७४ सब्बधम्मताति-३० सब्बपालिफुल्लाति-१५८ सब्बपालिफुल्लोति-२०१ सब्बवेदनापवत्तिप्पसङ्गतो-९९ सब्बसङ्खारसमथो-५२ सब्बोतुकन्ति-१८२ समग्गभावं-१०८ समङ्गीभूतो-१९४ समणधम्मो-२११,३०२ समणोति-६६ समथकम्मट्ठानिकस्स-३०३ समथपटिपत्तियं - १०१ समथपुब्बङ्गमा-२९१ समथयानिकस्स- १२१,२४१ समथविपस्सना-१५८ समथविपस्सनाधम्मेहि-१५५ समथविपस्सनाहीति-६७ समन्नाहारो-१९४ समभावकरणन्ति -३०० समयो-२१७ समवट्टितक्खन्धोति-३५ समवेपाकिनिया-१८१ समसमफला--१४०,१५४ समागमो-४३, १४१, २६९ समादहसूति-२१७ समाधिउपेक्खासम्बोज्झङ्गानं -३०२ समाधिकम्मिकविपस्सकेहि-१६४ समाधिक्खन्धेन - २७४ समाधिपक्खाति-१६ समाधिविपस्सनापायं-१२१ समाधीति-१२० समानेतुं-८१ समापन्नदेवता-२१६ समाहितचित्तो-१९७ समाहितन्ति-२९० समितत्ता-६६ समिद्धन्ति-१३६ समुग्गतेनाति-२८६ समुज्जलन्ति-१० समुदयधम्मा-२७९ समुदयधम्मानुपस्सीति-२७९ समुदयवयधम्मा-२९५ समुदयोति-४५, ४७,४८, २६५ समुदाचारतण्हा-८८ समोसरणन्ति-२६९ सम्पजानि-२८३ सम्पजवं-१७,२८३ सम्पजानकारी-२८३ सम्पजानगब्भोक्कमनञ्च -२५६ सम्पजानना -२२ सम्पजानवेदियनं-२८७,२८८ सम्पजानातीति-१२८ सम्पजानो-१७,२६६, २७२, २८३,२८९ सम्पजानोति-१७,९४ सम्पटिच्छनं-१४८,२१३ सम्पत्तिचक्कानं-२० सम्पत्तिभवलोको-५६ सम्पत्तियन्ति-३१४ सम्पन्नसीलोति - १२३, २५० सम्पयुत्तचित्तोति-१९४ सम्पयुत्तधम्मा-२७३,३१८ सम्परायिकविपस्सकोपि-९७ सम्परायिका-१५४ सम्पसादनीयसुत्ते-१२१ सम्पसादनेति-२०६ सम्पादनाति-२५७ सम्बहुलवारो-१३ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] दीघनिकाये महावग्गटीका [स-स] सम्बोज्झङ्गो-११५,३०० सम्बोधिपरायणोति-१२७,२५५ सम्बोधीति-२९९ सम्भारो-१९७ सम्मन्ति-५२ सम्मप्पधानपच्चवेक्खणा-३०६ सम्माआजीवो-१९८ सम्माकम्मन्तो-१९८ सम्मादिट्ठि-१९८ सम्मापटिपदा-१५८ सम्मावाचा -१९८ सम्मावायामो-१९८ सम्मासति-१९८ सम्मासमाधि-१९८,३२० सम्मासम्बुद्धोति - २० सम्मासम्बुद्धं -३४ सम्मुखीभावं-३०४ सम्मोहो- २२०, २६८,३१६, ३१७ सयंपरिसायाति-१८८ सरञ्च - २२६ सरणद्वेनाति-२६७ सरतीति-१०२,१२८ सरागायाति-१४९ सरागो-७६ सरागं - २८९ सरीसपा-८५ सलळागारन्ति-१ सल्लापो-१४१ सवनन्ति-१४८ सवनीयो-१९० सस्सतदिट्ठिया- ९९ सस्सतवादञ्च -९६ सहजातकोटिया-८६ सहोत्तप्पाणं-१६० सळायतनपच्चयाति-८३ सात्थं-२६५ साधुकीळितन्ति-१७१ साधेस्सति-१६६ साम–१११, २७२ सारणीयधम्मन्ति-११७ सारथि-४० सारप्पत्ताति-१६२ सालिन्दन्ति-७२ सावकपारमिञाणं-२०५ सावकाति-२ सावको-७८,७९ सावेसि-२३० सासनयुत्तिकोविदेति-२६४ साहसिका-३० सिक्खापदानि-१६६ सिक्खापदं-१६६,२५० सिक्खेय्याति-२१९ सिद्धाति - १९५ सिद्धियो-३० सिनिद्धं - १८४, २३१ सिन्धवकुलतोति - १७९ सिलाथम्भसदिसा-१६० सीलकथा-५९ सीलगन्धसदिसो-६१ सीलन्ति-१२०,१५८,२५० सीलपटिपत्तिं-१०२ सीलपुप्फसदिसं-६१ सीलब्बतपरामासस्स - २६८ सीलवा-१२३ सीलविसुद्धिआदिकं-१०२ सीलसमाधिपाहि-१४६ सीलसम्पत्तिया- १२० सीलसम्पन्नोति-१२३ सीलसंवरेनाति-६७ सीलालङ्कारेन-६१ सीहकिरिया-१५७ सीहनादो-७९,१५१ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [स-स] सद्दानुक्कमणिका सीहसेय्यं– १५६ सुप्पटिविद्धाति - १६ सीहसोपानं-२०२ सुप्पतिट्ठितन्ति-३७ सीहहनु-३६ सुप्पतिट्टितपादोति-३२ सीहळदीपे-२६३ सुप्पवत्तितं-५८ सीहासनं-२०२ सुभकिण्हाति-१०३ सुक्काति-२९५ सुभगवने-६८ सुक्खविपस्सको-१०४ सुभरतायाति-१४९ सुक्खविपस्सकोति-१०४ सुभारम्मणं-२९२ सुखदुक्खन्ति-३०७ सुभिक्खाति-१६२ सुखन्ति-४६,६१,११०, १३४, १९५, १९६, ३०२ सुभोजनरसपुट्ठस्साति-७४ सुखवासत्थं - २४ सुमुच्छितस्साति-१७५ सुखविनिच्छयं-८७ सुमुत्तोति - १९० सुखवेदनाति-७६ सुरसानीति-१० सुखाति-१९५, २८७ सुवण्णकट्टीहीति-१४ सुखी-२०५, २३२, २९३ सुवण्णन्ति-२६५ सुखुमत्ताति-१०३ सुवण्णयट्ठिफालेहीति-१४ सुखुमाति-१९५ सुवण्णहत्थिपादानीति-१४ सुखं-५०, ५९, ६१, ८७, ९८, १४०, १९६, २४३, | सुविभत्तानेवाति-- १७७ २४४,२७५, २८७,२८८, ३०२,३२५ सुविसुद्धसेतच्छत्तधारणं-२७ सुङ्कन्ति-१०९ सुसिक्खिताय-११८ सुचिन्ति-६६ सूकरमद्दवन्ति-१५१ सुआगारं-१८५, २४५ सूराति-३१ सुतं-११४, १८८, २४३, २५३ सूरियउदयखणं-१७९ सुत्तन्तदेसनाति-१४४ सूरियन्ति-२५७ सुत्तानुलोम-१५० सूरियालोकन्ति - २९४ सुत्ताभिधम्मसङ्गहितस्स-१६५ सूलसदिसाति-३४ सुद्धन्ति-९१ सेक्खमुनि-१०६ सुद्धावासकायिका -२१६ सेतम्बरुक्खोति - १० सुद्धावासब्रह्मानो-६, २५, २२५ सेदमलमक्खितन्ति-३०० सुद्धावासभूमि-२१६ सेदाति-१९ सुद्धावासाति-४० सेळनं-२७ सुन्दराति -५५ सोकपरिदेवसमतिक्कमनमुखेनेव - २६४ सुपञत्ताति-१९१ सोकबलेनाति-१३० सुपण्णवातन्ति-७४ सोको-१३४, २६१ सुपिनकोति-१७१ सोणत्थेरो-१९३ सुपोथितेनाति-१६१ सीतापत्तिफले-१३२, २६२ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४] दीघनिकाये महावग्गटीका सोतापत्तिमग्गं-१६४ सोतापन्नभावं-२५५ सोतापन्नो - १२७, १५१, १६४, २९८ सोस्थिन्ति-२६४ सोभितोति-३ सोवण्णमयन्ति-२२९ सोवण्णमयाति-१७५ सोवत्तिकोति-३२ सोसेन्तो-३१२ सोळसकिच्चसिद्धिया-२०५ सोळसचित्तक्खणे-९१ संकिलिट्ठभावो-६२ संकिलिस्सनन्ति-६१ संयोजनानि-१२६, २९७ संयोजेति-२९७ संवरसीलं-२६४ संवरेति-१५५ संवेगो-११,१६० संसट्ठोति-१९४ संसन्दतीति-२३२,२७४ संसरणन्ति-१२५ संसिब्बित्वाति-१५५ संसीदनं-३१३ he हठ्ठतुट्ठचित्ता-२२३ हदयन्धकारं-१११ हदयमंसादीनिपि-१८ हदयवत्थु - ९४ हदयवत्थुन्ति - ९४ हदयं-४० हरतीति-६०,१८२ हरायामीति-२६२ हंसावती-७४ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अचेतनायं पथवी - १४० अत्तदण्डा भयं जातं - २१५ अप्पञ्हि एतं न अलं समाय - २१८ आ आदित्तोपि अयं लोको - ६४ इ ए एस देवमनुस्सानं - ७९ क धम्म सम्मसतो - १४१ कीदिसो ते महावीर - १२ त तारागणा विरोचन्ति - १५ गाथानुक्कमणिका पञ्ञापासादमारुय्ह - ५८ पब्बज्जा पठमं झानं - २४५ परस्स चे धम्मं अनानुजानं - २१९ पामोज्जबहुलो भिक्खु - ३०२ पुब्बेव सन्निवासेन - २३६ म मूलं पपञ्चसङ्घाय - २१९ य यतो यतो सम्मसति - २४५ यो अन्धकारे तमसि पभङ्करो - २५७ व वीततही पुरा भेदा - २१९ 35 स सक्यपुत्तोव झानेन - २३० सत्त सरा तयो गामा- २२९ सम्मोदमाना गच्छन्ति - २१५ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३६] दीघनिकाये महावग्गटीका दीघनिकाये महाबरगटीका [-] सा एसा परमत्थानं-५७ साधू सम्बहुला ञाती अपि रुक्खा अरअजा-२१५ सुआगारं पविट्ठस्स - २४५ सुत्वादीनवस त्तं-६४ हीनेन ब्रह्मचरियेन-६१ 36 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची पालि टेक्स्ट सोसायटी (लंदन) - १९७० पालि टेक्स्ट सोसायटी पृष्ठ संख्या पालि टेक्स्ट सोसायटी प्रथम वाक्यांश वि. वि. वि. वि. वि. वि. पृष्ठ संख्या पंक्ति संख्या or rm x 06R32000 GMF Q and ad यथाजातानं उदपादीति पदुद्धारो यं यं आतुं निब्बत्तट्टानं अनुस्सरन्तो ओसधितारकोभाससदिसन्ति दस्सेन्तो अयमेव उप्पज्जि अनेकच्छरियपातुभावपटिमण्डितत्ता विवढूपनिस्सयानि ते चतुत्थिं येव यथालाभतोववत्थपेत्वा मनुस्सानं परमायुप्पमानानुरूपं परिहरन्तीति बव्हाबाधतादि वड्डित्वा वड्डित्वा तदेवाति पाटलिया चोदियमानो । अथ नं चिन्तेत्वा तं तं तादिसानञ्च देवब्रह्मानं आनेत्वा पन अविजहितो ति विपुलतरञ्च होतीति अयं गतीति विमुत्तत्ता विमुत्तीति याथावतो अय्यं पञ्चन्नं महापरिच्चागानं ur ur 9 vvv25AMD. 22 2 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३८] २५ २६ २७ २८ २९ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ 1066632066600 ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ ५९ ६० पतिट्ठापनपरिपाचनवसेन च अधिमुत्तिकालकिरिया नाम नत्थि उपरुपरि ठपनस्स विय अपरापरं पवत्ततीति आसन्नन्ति जाननतो एत्तकमेव ते दससहस्सचक्कवाळपत्थरणेन वावटा ति पुब्बे, कामगुणूपसंहितं दीघनिकाये महावग्गटीका यथा अञ्ञा देवा पठमं अनुहारमा ि उत्तराभिमुखभावो सकतेजोभासभासितानीति एकप्पहारे व अमधुरस्स लोकस्स तदा पठवियं धम्मता सब्बबोधिसत्तानं जनपदे वा दुल्लभुपादा येवाति पवत्तिआकारभेदेन अनुपुब्बनिन्नादि अच्छरियभुतं सन्धाय वृत्तं योजेतब्बं तेन सातिसया ति आह हत्थ पिट्ठादीही विय परिमण्डलो लक्खणसत्थानुसारेन नलाटमज्झे जाता उपसंहरति । ऐसा पीतिन्ति तं विदूहि य्यं सब्बट्ठानानि पीति किं पनेसो अपगतं । कतकालन्ति 38 १८ १९ १९ २० २० २१ २२ २२ २३ २४ २५ २५ २६ २६ २७ २८ २८ २९ ३० ३० ३१ ३१ ३२ ३३ ३३ ३४ ३५ ३५ ३६ ३७ ३७ ३८ ३९ ३९ ४० ४१ १३ २ १७ ८ २५ १५ ७ २४ १६ ११ ४ २१ ११ २६ १८ ६ २२ ११ १ १९ ११ २७ १५ १ १६ १९ १२ 2 w x z I a a w २२ १५ २१ १२ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [३९]] गमनं जानिस्सन्तीति पटिसल्लीनस्साति योनिसोमनसिकारो न सक्का विज्ञआणनामरूपानं सति इदं होतीति सम्मदेव अत्थो । वहन्तो नत्थीति आदिमाह अग्गमग्गेन अविज्जाय वचनतो फस्ससमुदया विमुच्चति यथा परतो पन यन्नूनाति सुत्तपदं वत्तब्बं देवता । इदप्पच्चयानं विरज्जन्तीति पारमियो पूरेत्वा धम्मं जानापेतुं हीनूपमा चेता द्वादसपुञ्जकिरियवसेना ति संसन्दति समेतीति इमिना नयेन विपञ्चितं वित्थारितं सम्मत्तन्ति कुसलेसु परिपक्काणग्गिताय परिग्गहवत्थूसु पनेतं असन्तासनद्वेनाति चन्दनं तगरं तथा च कामा थीनमिद्धविगमेन धोवनपयोगो चक्खादिसभावा पकासियमानो कदा उदपादीति 39 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०] दीघनिकाये महावग्गटीका ९८ * * * * १०१ १०२ १०३ * แs • t : १०४ ०० १०७ १०८ 8 * * * १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ मद्दित्वा पीळेत्वा पटिपक्खो ति तस्स यस्मा अग्गमग्गसमङ्गिनो पाति, समादियित्वा सुन्दरसिरिकत्ता सब्बं पच्छा जानपदिनो ति दिब्बरुक्खसहस्सपटिमण्डितन्ति पच्छिमजनता ति वियाति इमिना अनेकपरियायेन परिवत्तेत्वा कप्पतो विवरितं संयोजनियेसु अत्तपरामासस्स सुखदुक्खमज्झत्तभावा खयो ति वत्तुं सच्चसम्पटिवेधो कथं पच्चयपरिग्गहे पटिच्चसमुप्पासञ्जितस्स गण्ठीति सुत्तगण्ठि तथा दुब्बिवेचियानि जातिसद्दपच्चयसबसमानाधिकारणेन अपच्चये अवतिट्ठति अत्थितामत्तं चोदितन्ति अतिरित्तं आवज्जनादि परियायति धतरहस्स सन्धायाह पन उपनिस्सयकोटिया तण्हा नाम मव्ह इदन्ति पटिलोमनयेन विपाकवीथीति ति लद्धसमञ्जस्स * * * * * ง ศ 2 ๓ : : : * * * แw * * * * १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० १३१ १३२ 40 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [४१] १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२ १४३ १४५ १४६ १४७ १४८ १०० १०० १०१ १४९ १५० अत्थतो वेदितब्बा निस्सयपुरेजातइन्द्रियविप्पयुत्त तदन्तरे येव अठ्ठचत्तालीसकम्मजस्स विज्ञाणं हि एतं । कम्मसमुट्ठानस्सापि पटिसन्धिनामरुपस्स तंतंअत्थप्पकासने अत्तानं । अनन्तन्ति घनगहनजटाविताना एवं आगता एवंवादेसु एस दिह्रिगतिको भगवा हीति वदेय्य, तदकल्लं तन्ताकुलकपदस्सेव एतरहि पतिट्ठानकारणस्स ति ब्रह्मपुरोहिता परियायवचनन्ति पि वारेसु आदिवसप्पवत्तं तप्पटिक्खेपेन अरुपसमापत्तिया हि : उभतोभागविमुत्तो तत्थ वत्तब्ब पूजनीयभावतो नेसं गणराजूनं व्यतिरेकमुखेन पितामहा मातामहा अनुपायता आदि दिसासु अत्तना वाति निद्दायति येवाति धारणपरिचय चित्तस्स पग्गहो पणीतभोजनसवनता १०२ १०३ १५१ १५२ १५३ १५४ १०३ १०४ १०५ १५५ १०६ १५६ १५७ १५८ १०६ १०७ १०८ १०८ १५९ १६० १०९ १६१ १६२ ११० १११ १६३ ११२ १६४ १६५ ११३ ११४ ११५ १६७ १६८ ११५ 41 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४२] दीघनिकाये महावग्गटीका १६९ १७० १७१ १७२ १७३ १७४ १७५ ११६ ११७ ११८ ११८ ११९ १२० १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १७६ १७७ १७८ १७९ १२५ १८० १८१ १२६ १२६ १८२ १८३ १८४ १२७ १२८ १८५ १८६ इध विरागसञ्जा धम्मतो आगता ओदिस्सकं कत्वा आदि । सुलभपच्चयो नस्थि एतेसं पच्चक्खभूता समाधिम्हि ठत्वा भिक्खुसङ्घो तस्साति दुस्सीलस्स खाणुको एत्थयाति महापनादस्स आवसथो । सो आकारता चतुसु...पे०... सब्बेसन्ति पतिवट्टेसीति विसभागरोगो ति विसुद्धिमग्गसंवण्णनासु वा अहेसुं उपदेसमत्तमेव पठम दस्सनन्ति वड्डिता ति दट्ठबं अपराधहेतुको विसारदा, उत्तानिकरिस्सन्तीति पत्तन्ति पुथुभूतं कारणं? जातिक्खेत्तभावेन कारणानि उपक्खेपकवाता ति पूतिगन्धेनेवअधिगतच महाबोधिसत्तस्स समापत्तियो अचेतनायं पटिसाभिभायतनविमोक्खवसेन १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १२८ १२९ १३० १३१ १३१ १३२ १३३ १३३ १३४ १९२ १९३ १९४ १३५ १९५ १३५ १३६ १३७ १३७ १३८ १९६ १९७ १९८ १९९ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ १३९ १३९ १४० १४० १४१ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [४३] २०५ १४२ १४३ २०६ २०७ १४४ १४४ २०८ १४५ १४६ 330 v morn2 P १४७ १४७ १४८ १४९ १४९ १५० १५० २१५ २१६ २१७ १५२ M २१८ २१९ २२० २२१ १५२ २२२ अभिभवतीति एत्थ च केचि बहिद्धा व कथितानि, सब्बानि कसिणनिमित्तं ठानं विज्जति तथागतस्स वेसालिदस्सनन्ति तिविधा, एवं ओतारेतब्बानीति वुत्तं सुत्तन्ति सम्मदेव अपायादिसु आतुं इच्छितो परमत्थतो नूपलब्भतीति अअस्स सुत्तभावमेव उत्तरकालं उप्पन्नत्ता सद्देन तेजसा परेसं वचनोकासच्छेदनं दानानिसंससंखाता चुद्दसहाकारेहि एवं तं वुत्तनयेन कप्पं अनुत्रस्तपबुज्झनं विय निपगमनन्ति तदभावं सा येव पन छिन्नपपातं एवं वेदितब्बा कायकम्मस्स व्यत्तो ति सम्म सम्माति लूनस्स सस्सस्स येसं समणभावतत्थयथा चेव पञत्तो बुड्डेसु गारवालापन्ति नागसेनत्थेरो हीति यस्मा भवंगचित्तं १५३ १५४ १५४ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ १५५ १५६ १५७ १५७ २२८ १५८ २२९ २३० २३१ २३२ MAAVM-222422MM » १६० १६१ १६२ १६२ १६३ १६४ १६५ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८ २३९ २४० १६७ १६८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] दीघनिकाये महावग्गटीका २४१ १६९ १७० २४२ २४३ १७० २४४ १७१ » Mr on १७२ २४५ २४६ २४७ १७३ १७४ १७५ १७५ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ १७६ १७७ १७८ २५४ १७९ १८० १८० १८१ mov 2222Mr १८२ पसाधनमंगलसालायाति आदिना च आह भगवतो चितको साधुकीळिकन्ति खो ब्राह्मणो पुरिमं पुरिमं इमं पदन्ति सोवण्णमया ति मुच्छणप्पमाणे निब्बिवरायाति अधिप्पायो नेमिपरिक्खेपस्साति पि वीमंसित्वा तत्थेव विजात वण्णपोखरताय इत्थिरतनस्स पोक्खरणियो । परिवेणअपनेन्तं विय अरूपज्झानेसु आदरो आदितो पट्ठायाति अपेक्खानिस्सेनिमुञ्चनेन परितो ति पदं भगवन्तं येव अहोसि गोचरभावं न यत्तका परिसा ति विपुब्बो सु-सद्दो इज्झन्ति एतायाति आदिना व पहं कथेसि सो उपेति एतेनाति पीतिसुखन्ति आह उपादाय अप्पहीनत्ता अट्ठतिंसारम्मणवसेनाति अनुपद्दुतभावेन ति आह स-उपनिस्सयो इतरस्स, तस्मा १८३ १८४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ १८५ १८७ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९२ १९३ १९४ १९५ १९५ १९६ १९७ १९७ . MMMMMMA २७३ २७४ २७५ २७६ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची १९९ v २०० २०० २०१ २७७ २७८ २७९ २८० २८१ २८२ २८३ २८४ २८५ २८६ २०२ २०३ २०३ २०४ 2009 » २०५ ૨૮૮ २०६ २०७ २०७ २०८ २०९ २१० २११ २१२ २९२ २९४ २९५ अत्थि इमस्मिं पञ्चकुण्डलिको ये तावतिसानं सम्पटिगण्हनकवातो भेसज्जं, एवं समनुपस्सामाति वदन्तो अन्तोगधावधारणं इदं अहेसुं । चतुज्जातियगन्धं अतिक्कन्तविचिकिच्छाकन्तारो वुत्तलोकधातुया मारानन्ति मदेन्तीति ब्राह्मणमहासालानं ममाति कम्म कदरियताय पब्बजिस्सामहन्ति मन्तेय्यन्ति आदिसु विय उदानन्ति र सम्मोदमाना उल्लङ्घित्वा आवासहानभूता परिनिहितसरणागमनत्ता रागं विनयेथ मूलं पपञ्चसंखाया आरद्धदेसनं सिलोकमनुकस्सामीति ववक्खित्वानाति चत्तारो चत्तारो उपव्हयन्ता उण्हप्पवत्तिहेतवो नामन्वयेनाति अन्तरायकरणेन अम्बसण्डानं मरणभयेन सोवण्णमयन्ति २१४ २१५ २९६ २९७ २९८ २९९ २१७ २१७ २१८ २१९ २२० ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ » » » » » » AAAAw 42 mv XXX له به ३०५ २२२ ३०६ ३०७ ३०८ ३०९ २२३ २२४ २२५ २२६ २२८ २२८ २२९ ३१० ३११ ३१२ 45 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४६ ] ३१३ ३१४ ३१५ ३१६ ३१७ ३१८ ३१९ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२ ३४३ ३४४ ३४५ ३४६ ३४७ ३४८ पकति... पे०... सुरियवच्चसा अ संसन्दतीति समेति उरूं वेल्लं ... पे०... भणतीति सो ति गोपकदेवपुत्तो दुविधानन्ति गहपतिका किं कक्कटकविज्झनसूलसदिसन्ति व्यापज्झं वुच्चति बहुकारा, तस्मा सोतापत्तिमग्गेन पहीयति ते ति सत्तसंखारा एकच्चो हीनं पुच्छानुसन्धिवसेन रूपकम्मट्ठा सञ्जाननमत्तं वृत्तं एव निरनुभवनाय सो एवं अनुरोध लोकामिसपटिसंयुत्तानन्ति ति अनुरसतिया वत मे तं सवितक्कसविचारस्सेव पटिगमनमग्गे पापधम्मानं उपेक्खा वेदनाय गहूपगं उप्पतित्वा कम्मपथविचारवसेन दीघनिकाये महावग्गटीका ति एते कामगुणूपधयो उपट्ठानगमनादिवसेनाति परियायक्खरणतो कम्मट्ठानविनमुत्तं चित्तं पञ्ञान्ति परे विभज्ज वुच्चमानेसु दुविधम्पि 46 २३० २३० २३२ २३२ २३३ २३४ २३४ २३५ २३६ २३७ २३७ २३८ २३९ २३९ २४० २४१ २४२ २४२ २४३ २४४ २४४ २४५ २४६ २४६ २४७ २४८ २४९ २४९ २५० २५१ २५२ २५२ २५३ २५४ २५५ २५५ ५ २१ १ १९ १० १ १६ १३ ११ ९ २४ १८ १० २७ १९ १५ ६ २५ १५ ४ २२ १५ ८ २७ १९ १६ ११ २७ १८ १० ३ २२ १७ १० ३ २२ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-सूची [४७]] ३४९ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ २५६ २५७ २५८ २५८ २५९ ३५४ २६० २६१ २६१ २६२ २६३ ३५५ ३५६ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ ३६३ ३६४ २६३ २६४ २६५ २६५ २६६ २६७ ३६५ पुनरेव तस्मा । आदिच्चो कस्मा भगवा देसनााणेन इदं विसट्ठअत्तभावेनाति कायानुपस्सनादिमुखेन निप्परियायहेतुकं न केवलं पटाचारे उभो पचलायन्तानन्ति भीतं । उब्बिग्गन्ति तं अत्थं आपेतीति सेठ्ठचरियभावतो सतिपट्टानसद्दस्स सुखायाति । तस्स कत्तुअत्थो ति मन्दतिक्खपआनं वेदना विसेसेन एकनिब्बानप्पवेसहेतुभूता गोचरे भिक्खवे वुच्चन्तीति ततो यं पस्सतीति निच्चग्गाहस्स लेसो तेसम्पि गहणं मुट्ठस्सति...पे०.. सुभ-सुख-भावादीनन्ति मरणसति अनिच्चताय सम्मद्दसो भिक्खूति आदिना सुञतावारसतिपट्टानं निबन्धेय्याति यं किञ्चि हेतुधम्मानं इमिस्सा भावनाय कायिकपयोगो २६७ २६८ २६९ ३६६ ३६७ ३६८ ३६९ ३७० ३७१ ३७२ ३७३ २६९ २७० २७१ २७१ २७२ २७३ ३७४ २७३ २७४ २७५ २७५ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ २७६ २७७ २७७ २७८ २७९ २८० २८ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४८] दीघनिकाये महावग्गटीका २८१ ३८५ ३८६ ३८७ २८२ २८२ ३८८ २८४ २८४ ३८९ ३९० ३९१ २८५ २८६ ३९२ २८६ २८७ २८८ २८९ ३९३ ३९४ ३९५ ३९६ ३९७ ३९८ ३९९ ४०० २९१ २९२ २९२ २९३ ४०२ पटिक्खित्तकत्तुकाय हेट्ठिमकोटितो निहितो ठपितो पटिक्कूलमनसिकारवसेनाति ताय एव अङ्गपच्चङ्गानि ओधितसमझा चतुसट्टिभेदं पीति अधिप्पेतन्ति पाकटं होतीति अभावतो ति सम्पयोगवसेन अकुसलचित्तं येसं हि अयोनिसोमनसिकारो पटिघनिमित्तं होन्तु, अव्यापज्झा निमित्तग्गाहो उद्धच्चकुक्कुच्चे ति अधिमोक्खबहुलस्साति मनायतनेकदेसो यथाव-सरसो भवस्साद तज्जायोनिसोमनसिकारञ्चाति परस्स वा धम्मेसूति बोधिमण्डे पीळावहं सद्धिन्द्रिय अननुयुञ्जन्तो वीणूपमोवादेन कातब्बन्ति पटिसरणं परायणं एकच्चतिरच्छानानं असम्मापटिपन्नो स पुरिमुप्पन्ना भोजनसेवनता २९४ २९४ ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ २९५ २९६ २९७ २९७ २९८ २९९ २९९ ३०० ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४११ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ३०१ ३०१ ३०२ ३०३ ३०४ ३०४ ३०५ ४१७ ४१८ ४१९ ३०६ ४२० ३०७ 48 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ सूची ४२१ ४२२ ३०७ ३०८ ३०९ ४२३ ३०९ ४२५ ३१० ४२६ ३११ ३१२ ४२७ ४२८ ३१२ ४२९ ३१३ ३१४ ४३० ४३१ ४३२ ३१५ ३१५ ३१६ ३१७ ४३४ ४३५ ३१७ ४३६ ३१८ पञ्ञापयोगमन्दतं अल्लानिचेव तोसना ति रागबहुलस्स दुक्खसच्चं आयतनानं अस्थतो कारणभावेन पहीनसमुदयेसु अभिधानलक्खणत्ता योजना तत्थ तत्थेवस्सा चतुसच्चकम्मट्ठानं च मग्गभावनाय मग्गफलपहीनावसिट्टकिलेसनिब्बानानं पवत्तिक्खणवसेन सिक्खापदविभङ्गे विरियं पवत्तेतीति किच्चस्स एकज्झं वुट्ठितसमापत्तिमग्गस्स तिपिटकचूळभयत्रं परिग्गहेतब्बा ति भगवता उत्तरेनाति यस्मा यथावुत्तं निम्मज्जेथाति सुपिनदस्सनकाले तथा रूपस्स करोतीति अत्थो सुसन्नद्धो ति यं यथाजाते पन कम्मफलसद्धाय ३१८ ४३७ ४३८ ३१९ ९३९ ३२० ४४० ४४१ ४४२ ३२० ३२१ ३२२ ३२३ ४४३ ४४४ ३२३ ४४५ ४४६ ३२४ ३२५ ३२६ ४४७ ३२७ ४४८ ४४९ ४५० ४५१ ३२७ ३२८ ३२९ ४५२ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ May the merits and virtues earned by the donors and selfless workers of Vipassana Research Institute, Igatpuri be shared by all beings. May all those who come in contact with the Buddha Dhamma through this meritorious deed put the Dhamma into practice and attain the best fruits of the Dhamma. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEDICATION OF MERIT *****4* DBP*** KNO*Q***OM May the merit and virtue accrued from this work adorn the Buddha's Pure Land, repay the four great kindnesses above, and relieve the suffering of those on the three paths below. May those who see or hear of these efforts generate Bodhi-mind, spend their lives devoted to the Buddha Dharma, and finally be reborn together in the Land of Ultimate Bliss. Homage to Amita Buddha! NAMO AMITABHA Printed and Donated for free distribution by The Corporate Body of the Buddha Educational Foundation 11th Floor, 55 Hang Chow South Road Sec 1, Taipei, Taiwan R.O.C. Tel: 886-2-23951198 , Fax: 886-2-23913415 Email: overseas@budaedu.org.tw Printed in Taiwan 1998 , 1200 copies IN046-2008 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gk}+ - FAM Printed by a ©ಾಣಬಣಣts E G ಬಣ ಸಾಕು ಸಾಕಾರಗn 1 ECar, 5 Sang Co C Cer aipei, TaNG . ದ ದ at ITಡಿ ( ಕವಿ , ಇದರ ಣ ಣಃ BC 1998, 12 Oರ್ಲ TV5-2002 ISEN 81-74 4. !-3