Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मो अधम्नो आगासं कालो पुग्गल-जंतवो। एस लोठोति पठायो जिणेहिं वरदंसिहि। 059 जीवाऽजीवायबन्धोय पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो सढते र तहिया नव॥ -जैनदर्शन मूलतत्व विजय मुनि शस्त्री For Private & Rersonal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल - जंतवो। एस लोगोति पन्नतो जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ जीवा । जीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो सन्ते र तहिया नव ॥ जैन दर्शन के मूल तत्व विजय मुनि शास्त्री Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (तपस्विनी सौ० विमलादेवी सुराना के वर्षीतप समापन के उपलक्ष्य में) 卐 अर्थ सौजन्य : ओसवाल इम्पोरियम ३०, मुनरो रोड, आगरा कैंट म प्रकाशक : दिवाकर-प्रकाशन ए-७, अवागढ़ हाउस, एम० जी० रोड, आगरा-२८२००२, फोन : ६८३२८ 卐 मुद्रण : दिवाकर-प्रकाशन के लिए कामधेनु प्रिण्टर्स एण्ड पब्लिशर्स, एम० जी० रोड, आगरा 卐 प्रथमावृत्ति : वि० सं० २०४६ आश्विन ई० सन् १९८६, अक्टूबर मूल्य : लागत मात्र १५ रुपया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय एक प्राचीनतम आर्ष वचन है- "सच्चं खु भयवं" सत्य, स्वयं भगवान् है । संसार में जो कुछ भी सार है, सत्य है । पृथ्वी और आकाश के बीच संतुलन रखने वाली शक्ति, सत्य है । सत्य ही सृष्टि का आधारभूत तत्त्व है । सत्य ही जीवन का परम रहस्य है, परम साध्य है, और यही परम पन्थ है । सत्य को जीवन का लक्ष्य मानकर चलने वाले सत्पुरुष ही संत और महात्मा कहलाते हैं । सत्य के लिए सर्वस्व समर्पित कर देने वाले ही इस संसार में पूज्य, उपास्य और श्रद्ध ेय बनते हैं । सत्य के दो अंग हैं - एक तत्त्वदर्शन और दूसरा आचारधर्म । जैनदर्शन ने इसे ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र कहा है । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र का आधार है, अतः "पढमं नाणं" का उद्घोष कर यह स्पष्ट किया गया है कि सत्य का आचरण भी तभी किया जा सकता है, जब "सत्य" का सम्यग्परिज्ञान हो । सत्य को जीवन धर्म मानकर निरपेक्ष भाव से सत्य की साधना में जीवन समर्पित करने वाले सत्पुरुषों में आज राष्ट्रसंत उपाध्याय श्री अमर मुनि का नाम श्रद्धापूर्वक लिया जाता है । आपकी सत्योन्मुखी जीवन दृष्टि ने धर्म, आचार और तत्वज्ञान को मानव-सत्ता के साथ जोड़ दिया है । उपाध्याय श्री अमरमुनि जी के विद्वान शिष्यरत्न श्री विजयमुनि जी शास्त्री सत्य की साधना में समर्पित ऐसे साधक हैं, जिनका जीवन कमल-सा निर्लेप, और नन्दादीपसा ज्योतिर्मय है । वे सम्यक्ज्ञान और ( ३ ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) सम्यक् आचार की साधना के लिए समर्पित है । उनका जीवन जितना ज्ञानदीप्त है, उतना ही निर्मल चारित्रसम्पन्न है । आगरा के जैन समाज का यह सौभाग्य है कि श्रद्धेय पूज्य पृथ्वीचन्द जी महाराज, तथा राष्ट्रसंत श्री अमरमुनि जी महाराज का कृपा प्रसाद आगरा निवासियों को प्राप्त हुआ है, और उसी परम्परा में आज श्री विजयमुनि जी का ज्योतिर्मय सान्निध्य भी आगरा निवासियों को प्राप्त है। श्रद्धय श्री विजयमुनि जी गम्भीर अध्येता और उत्कृष्ट वक्ता होने के साथ ही सिद्धहस्त लेखक भी हैं । आपकी वाणी व लेखनी में ज्ञान का अजस्र प्रवाह निस्यन्दित होता रहता है । आपश्री ने कवि श्री अमरमुनि जी म० के विशाल प्रवचन साहित्य को पुस्तकाकार रूप प्रदान करने में अद्वितीय योगदान किया है, जो एक व्युत्पन्न प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु के प्रति अनन्य समर्पण कहा जा सकता है । श्री विजयमुनि जी द्वारा लिखित अनेक पुस्तकें अभी भी अप्रकाशित हैं, जिनमें दर्शन, मनोविज्ञान, ध्यान एवं योग विषयक, कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी हैं । हम चाहते हैं कि उस अमूल्य ज्ञान - निधि को प्रकाशित कर जन-जन के पास पहुँचावें । अभी कुछ दिन पूर्व ही आपकी एक उत्तम कृति “चिंतन के चार चरण" प्रकाशित हुई है, उसके बाद अब प्रस्तुत है, "जैनदर्शन के मूलभूत तत्व" । यह पुस्तक जैनदर्शन के मूलभूत तत्व षटद्रव्य एवं नवतत्व पर बहुत सारपूर्ण बोधगम्य शैली में प्रकाश डालती है जो प्रत्येक तत्वजिज्ञासु के लिए उपयोगी व संग्रहणीय होगी । आगरा निवासी श्रीमान् कुंवरलाल जी सुराना की बहुत समय से भावना थी कि श्री विजयमुनि जी शास्त्री का साहित्य प्रकाशित कर जनजन को सुलभ किया जावे। आपने इस प्रकाशन में अपने परिवार की तरफ से सम्पूर्ण अर्थ सहयोग प्रदान कर न केवल उदारता का परिचय दिया है, किन्तु अपनी परिष्कृत साहित्यिक रुचि को साकार किया है । आपकी जीवन सहचारिणी तपस्विनी सो० विमलादेवी सुराना के वर्षीतप उपलक्ष्य पर आपने यह ज्ञानदीप जलाकर उनका तो अभिनन्दन किया ही है, समस्त जगत के अभिनंदन के पात्र भी हुए हैं । हम आशा करते हैं, इसी श्रृंखला में हम श्री अन्य उत्तमोत्तम कृतियों को भी शीघ्र ही प्रकाश में सहयोग के बल पर ... ******** २ अक्टूबर विजयमुनि जी की लायेंगे, आप सबके विनीत श्रीचन्द सुराना "सरस" Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRC DOOO श्रीमान कंवरलाल जी सुराना अपने समस्त परिवार के साथ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन प्रत्येक कार्य के सम्पन्न होने का समय निश्चित होता है। कभी प्रयास करने पर भी कार्य सम्पन्न नहीं होता। कभी अल्प प्रयत्न से पूरा हो जाता है। कभी बाधा और विघ्न के उपस्थित हो जाने पर कार्य प्रारम्भ ही नहीं हो पाता। मनुष्य के जीवन में इस प्रकार के अनुभव घटित होते रहते हैं। मुझे भी इस प्रकार के प्रत्यक्ष अनुभव, अनेक बार हो चुके हैं। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध नगर पूना में, मेरा सन् १९७० में, वर्षावास था। वहाँ के लोगों में अपार उत्साह था। कार्यकर्ता बुद्धिमान एवं अनुकूल थे । पूना के प्रसिद्ध विद्वान तथा जैन समाज के नेता श्री कनकमलजी मुणोत की प्रेरणा से वहाँ पर तीन दिन का अध्यात्म शिविर लगा, जिसकी पूरी व्यवस्था एवं संचालन मुणोत जी के हाथ में था। तीन दिनों के कार्यक्रम में, उन्होंने मेरे छह प्रवचन कराये थे । प्रथम प्रवचन का विषय मुणोत जी ने अपनी पसन्द का रखा था-"जैन-दर्शन और आधुनिक विज्ञान ।" षड्द्रव्यों में से पाँच की तुलनात्मक व्याख्या मैंने की थी। पांच द्रव्य हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल । प्रवचनों का आधार था-तत्त्वार्थसूत्र का पञ्चम अध्याय और द्रव्य संग्रह का प्रथम अधिकार। मेरे स्नेही साथी मुनिप्रवर समदर्शी जी प्रभाकर ने प्रवचनों को लिपि-बद्ध किया था। उनका सम्पादन एवं पल्लवन भी उन्होंने किया था। लम्बे विहारों के कारण, और किसी एक स्थान पर स्थिर न रह सकने के कारण तथा कुछ मेरी स्वस्थता न होने से प्रकाशन नहीं हो सका। इधर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) सन् ७७ एवं ७८ में, समदर्शी जी ने क्रमशः इनका प्रकाशन अमर भारती में, किया था। तब से इन प्रवचनों के प्रकाशन की माँग निरन्तर होती रही । लेकिन 'कुछ कारणों से इनके प्रकाशन का कार्य फिर रुक गया । रुक जाने का मुख्य कारण यह था कि मुझे जीव द्रव्य पर एक नया ही लेख लिखना था । फिर साथ में नव तत्त्वों पर भी लिखना आवश्यक था । क्योंकि प्रवचन तो केवल पाँच ही द्रव्यों पर थे । उसमें जीव द्रव्य जोड़ दिया है, जिससे कि जैन दर्शन मान्य षड्द्रव्यों का पूरा वर्णन आ जाये। साथ ही पुस्तक के द्वितीय खण्ड में नव तत्त्वों का संक्षेप में परिचय एवं परिभाषाएँ जोड़ दी हैं । प्रस्तुत पुस्तक जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व के नाम से प्रकाशित हो रही है । इसमें षड्द्रव्य तथा नव तत्त्वों का पूरा वर्णन आ गया है । जैन दर्शन के तत्त्वों का सरल भाषा में प्रकाशन हो रहा है । पुस्तक के अन्त में परिभाषिक शब्दों की सरल भाषा में व्याख्या कर दी गई है । प्रस्तुत पुस्तक की साज-सज्जा एवं उसे सुन्दर बनाने का कार्य, जैन समाज के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीचन्द जी सुराना ने किया है । उन्होंने दिवाकर प्रकाशन से इसका प्रकाशन किया है। प्रकाशन और मुद्रण दोनों ही रमणीय हैं । आगरा के प्रसिद्ध व्यवसायी श्रीमान् सेठ कुंवरलाल जी सुराना तथा उनकी धर्मपत्नी तपस्विनी श्रीमती विमला सुराना के उदार अनुदान तथा पूर्ण सहयोग से पुस्तक का प्रकाशन हो रहा है । श्री कुंवरलाल जी एवं श्रीमती विमला जी धार्मिक कार्यों में सदा अग्रेसर रहे हैं । तप, जप, दया और दान आदि कार्य प्रसन्नता से तथा उन्मुक्त भाव से करते हैं । यह इन दोनों की धर्मरुचि और धर्मप्रियता का प्रबल प्रमाण कहा जा सकता है । पति एवं पत्नी, दोनों की शुभ भावना थी, कि जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व - षड्द्रव्य एवं नवतत्त्वों पर नयी भाषा, नयी शैली और सरल पद्धति पर पुस्तक का प्रकाशन हो, जिससे जैन धर्म को समझने में, सुगमता हो सके । उनकी इस भावना की संपूर्ति प्रस्तुत पुस्तक से भली-भांति हो जाती है । उनके परिवार एवं परिजनों का भी इस शुभ कार्य में पूरा-पूरा सहयोग है । श्रीमती विमला सुराना ने अपने जीवन में तप, जप एवं धर्म साधना खूब की है, और आज भी निरन्तर करती रहती हैं । धर्म के ये शुभ संस्कार विमलाजी को अपनी माताजी से विरासत में मिले हैं। उनकी माताजी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने दीक्षा ग्रहण करली है। साध्वी श्री चम्पाजी प्रकृति से सरल स्वभाव की हैं। तपस्या में तथा शास्त्र स्वाध्याय में इन्हें विशेष अभिरुचि है। तपस्या तो निरन्तर चालू ही रहती है। नमस्कार मन्त्र का जाप करती रहती हैं। कभी प्रमाद में समय व्यतीत नहीं करती हैं। अपनी वृद्ध अवस्था के कारण साध्वी श्री चम्पाजी महाराज, वर्षों से आगरा में विराजित हैं। अपनी माताजी के धर्म संस्कारों को विमलाजी ने अपने जीवन में साकार किया है। इन्होंने अपने जीवन में, बेला, तेला, पचोला, अठाई, मासखमण तथा वर्षी तप आदि अनेक प्रकार के तप बड़े उत्साह के साथ किये हैं। आज भी यथाप्रसंग तप-जप करती रहती हैं । दया-दान आदि सत्कर्मों में अपना पूरा-पूरा सहयोग तथा समय देती रहती हैं। आपकी दोनों पुत्रवधू-श्रीमती उषा रानी तथा श्रीमती सुनीता रानी अपनी सास के धार्मिक कार्यों में पूरा-पूरा सहयोग देती रहती हैं। आपका परिवार सुखी तथा समृद्ध परिवार है। श्रीमान् कुंवरलालजी सुराना, समाज सेवा और धर्म कार्यों में, केवल अभिरुचि ही नहीं रखते, बल्कि समय-समय पर, अपना पूरा-पूरा सक्रिय सहयोग भी प्रदान करते हैं। आपके दोनों सुयोग्य सुपूत्र-अशोक कुमार जी सुराना और दिलीप कुमार जी सुराना भी अपने पिता के शुभ कार्यों में पूरा सहयोग प्रदान करते हैं। आपकी दो पुत्रियाँ हैं-बड़ी स्नेहलता ग्वालियर में और छोटी सरोज जयपुर में रहती है । इस प्रकार आपका पूरा परिवार, सुखी एवं समृद्ध है। ____ आपने अपने स्वर्गस्थ पिताश्री लाला बच्चूमलजी सुराना और स्वर्गस्था माताश्री कलावतीजी सुराना की पुण्य-संस्कृति एवं संस्मृति में, इस प्रस्तुत पुस्तक "जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व" का प्रकाशन कराया है। जैन दर्शन तथा जैन धर्म के सम्बन्ध में, पूरी जानकारी संक्षेप में, पाठकों को उपलब्ध हो सकेगी। जैन दर्शन के मूल तत्त्व-षड् द्रव्य और नवतत्त्व हैं। उन्हें समझने के लिए परिशिष्ट में प्रमाण, नय, निक्षेप एवं लक्षण आदि का भी यथास्थान वर्णन कर दिया गया है। आशा है, पाठक इससे लाभ उठायेंगे। जैन भवन, मोती कटरा --विजय मुनि शास्त्री आगरा ३०-६-१९८६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-सुगन्ध मानव-जीवन एक सुगन्धित फूल है, जो अपने परिपार्श्व में समाज व देश के वातावरण में सद्गुणों की परिमल बिखेरता हुआ सबको प्रफुल्लता और प्रसन्नता देता रहता है । यह फूल जब हँसता है तो सम्पूर्ण जगत हंसने लगता है। उसकी प्रसन्नता से सबके हृदय प्रफुल्लित हो उठते हैं। श्रा जीवन की इस परिभाषा को सार्थक करने वाले एक सज्जन हैंश्री कंवरलाल जी सुराना । श्री कंवरलाल जी सुराना परिश्रम, पुरुषार्थ, प्रतिभा और सदाशयता के पर्याय हैं। वे बीज से वृक्ष बनने वाले वे पुरुषार्थी हैं, जिनका जीवन सदा ही “योगः कर्मसु कौशलम्" का प्रतीक रहा है । अपने कार्य में दक्षता, प्रामाणिकता और निष्ठा के साथ सतत् आगे बढ़ने वालों के लिए प्रेरणापुंज है-श्री कंवरलाल जी। श्री कुवरलाल जी का जन्म ओसवाल जाति के प्रसिद्ध सुराना गोत्र में हुआ। सुराना परिवार का मूल क्षेत्र नागौर (राजस्थान) माना जाता है, किन्तु धीरे-धीरे यह परिवार अन्य परिवारों की भाँति सम्पूर्ण भारत में फैल गया। लगभग १५०-२०० वर्ष पूर्व आपके पूर्वजों ने ताज नगरी आगरा को अपनी कर्मभूमि बनाया। यहाँ पर धीरे-धीरे इस परिवार ने विकास/विस्तार कर सर्वतोमुखी प्रगति की । आगरा के सुराना परिवार में बच्चूमल जी सुराना एक प्रभावशाली और व्यवसाय कुशल सज्जन पुरुष थे। आपने बड़ी प्रामाणिकता और कर्तव्य परायणता के साथ लक्ष्मी उपार्जित की और अनेक सत्कार्यों में उसका सदुपयोग भी किया। (८ ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( C ) श्री बच्चूमल जी सुराना के ४ सुपुत्र हुए - क्रमशः श्री जालमसिंह जी, श्री राजेन्द्रसिंह जी, श्री कुंवरलाल जी, श्री अमरसिंह जी । चारों हो भाइयों का विशाल परिवार आज व्यापार, उद्योग एवं अन्य क्षेत्रों में अपनी अच्छी प्रतिष्ठा और सन्मान के साथ प्रमुखता रखता है। आगरा के सामाजिक क्षेत्र में भी सुराना परिवार का सराहनीय योगदान रहता है । श्री कुंवरलाल जी एक कर्तव्यशील सेवाभावी, गहरी सूझबूझ वाले सज्जन हैं । आप पहले स्टेट बैंक ऑफ इन्डिया में मैनेजर रहे, फिर वहाँ से व्यापार में प्रवेश किया तो कुछ ही समय में सफलता के द्वार खुल गये और चतुर्मुखी उन्नति करते गये । ओसवाल एम्पोरियम नाम से आपका प्रतिष्ठान देश-विदेश में प्रसिद्ध है । आपकी धर्मपत्नी श्रीमती विमलादेवी सुराना बहुत ही सरल स्वभाव की धर्मशीला हैं । साथ ही तपस्याएँ भी करती रहती हैं । श्रीमती विमलादेवी आगरा निवासी श्री धर्मोचन्द जी बुरड की सुपुत्री हैं । श्री विमलादेवी की माताजी चम्पाजी ने पंजाब की महासती लज्जावती जी के पास दीक्षा ग्रहण की जो आजकल आगरा में ही विराजमान हैं। 1 कंवरलाल जी का परिवार धार्मिक संस्कारों वाला, उदार और उद्योगशील परिवार है । आपके दो सुपुत्र तथा दो सुपुत्रियाँ हैं १. पुत्र - श्री अशोककुमार पुत्रवधु सौ० उषारानी २. पुत्र - श्री दिलीपकुमार पुत्रवधु सो० सुनीतारानी पुत्रियाँ - स्नेह एवं मञ्जु । श्री कंवरलाल जी, गुरुदेव श्री अमरमुनि जी के प्रति अतोव श्रद्धाशोल हैं । प्रतिवर्ष वोरायतन दर्शन हेतु जाते रहते हैं तथा वहाँ के निर्माण कार्यों में भी उदारतापूर्वक सहयोग करते हैं। आगरा में पूज्य पृथ्वोचन्द जी महाराज की समाधि के निर्माण में भी आपका योगदान रहा है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) श्रीमती विमलादेवी ने सन् ७८ में ११ दिन की, ८० में १५ दिन की, ८२ में ३० दिन ( मासखमण ) तथा ८४ में १४ दिन की लम्बी तपस्याएँ की हैं । गत वर्ष आपने १६-४-८८ को हस्तिनापुर में वर्षीतप का पारणा किया है । इस प्रकार दान सेवा - तप आराधना के क्षेत्र में गतिशील यह परिवार प्रगति के पथ पर निरन्तर बढ़ता रहे, यही हमारी शुभकामना है । - वीरेन्द्रकुमार सकलेचा, एम० ए० आगरा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain E श्रीमान कंवरलाल जी सुराना एवं तपस्विनी सौ. विमला बाई सुराना Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या कहा १. षड्द्रव्य (१) द्रव्य का स्वरूप (२) धर्म और अधर्म द्रव्य (३) आकाश द्रव्य (४) काल द्रव्य (५) पुद्गल द्रव्य (६) पुद्गल का स्वरूप (७) जीव द्रव्य २. नव तत्त्व (१) तत्त्व की परिभाषा (२) जैन दर्शन में तत्त्व वर्गीकरण (३) जीव तत्त्व (४) अजीव तत्त्व (५) पुण्य तत्त्व (६) पाप तत्त्व (७) आस्रव तत्त्व (८) संवर तत्त्व ११३-१५५ १२० १२५ १३२ mm १४७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) निर्जरा तत्त्व (१०) बन्ध तत्त्व (११) मोक्ष तत्त्व परिशिष्ट : पारिभाषिक शब्द कोष लक्षण प्रमाण नयस्वरूप सप्तनय सप्तभंगी प्रमाण और नय निक्षेप स्व-पर-चतुष्टय १४६ १५१ १५३ १५६-१७६ १५७ १५७ १५८ १६० १६२ १६७ निगोद ८८ १६६ १६६ द्रव्य गुण पदार्थ सम्यक्त्व का स्थान पुद्गल के छः भेद लघु नवतत्त्व प्रकरण १७० १७१ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट् द्रव्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | द्रव्य का स्वरूप अध्यात्म-दृष्टि व्यक्ति अनन्त-काल से अपने को देखने का प्रयत्न तो करता रहा, पर वह अपने को बाहरी तौर पर ही देखता रहा है, बाह्य पदार्थों का ही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहा है, और बाहर ही सुख-शान्ति एवं आनन्द की खोज करता रहा है। अतः वह आत्म-ज्ञान को प्रकट करने में लगभग असफल रहा, और पूर्ण सुख-शांति पाने में भी सफल न हो सका। उसने अपने अन्तर की गहराई में उतर कर अपने को देखने का और समझने का प्रयास नहीं किया, कि मैं क्या हूँ ? मेरा स्वरूप क्या है ? मुझसे भिन्न पदार्थ का स्वरूप क्या है ? जब साधक अपने अन्दर झाँकता है, अपने स्वरूप की ओर मुड़ता है, तब उसे यह स्पष्ट अनुभूति होती है, कि मैं अपने आपको बाह्यतः जो कुछ देख-समझ रहा था, उससे सर्वथा भिन्न हैं, और फलस्वरूप वह विकास-पथ पर गति-प्रगति करता है। अध्यात्म-साधना का अर्थ है पर-निवास से हटकर स्व का स्व में अथवा आत्मा का अपने स्वरूप में निवास करना । हम दो शब्दों का प्रयोग करते हैं- 'मैं हूँ', और 'मेरा शरीर है ।' इन दोनों प्रयोगों से स्पष्ट है, कि 'मेरी सत्ता है', मेरा अस्तित्व है,और मुझ से भिन्न शरीर का अस्तित्व भी है। अभिप्राय यह कि आत्मा है, और उससे भिन्न जड़ पदार्थ भी है। परन्तु, जब तक व्यक्ति बाह्य-दृष्टि से देखता है, तब तक वह शरीर को ही अपना स्वरूप समझता है। उससे आगे बढ़ने पर वह इन्द्रियों को, प्राणों को और मन को आत्मा समझता है, और उन्हीं में निवसित होता है और उन्हीं को अपने सूख एवं विकास का कारण समझता है। वीतराग एवं [ ३ ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अनन्त-ज्ञानी इस विकास को सही अर्थ में विकास नहीं कहते और न इसे साधना ही कहते हैं । यह विकास तो आप आज ही क्यों, इस भव में ही क्यों, इस मानव-जीवन में ही क्यों, अनन्तकाल से करते आ रहे हैं । देह में तथा पुद्गलों में तो आप अनन्तकाल से रहते आये हैं। अभी भी यदि आप देह में ही संलग्न हैं, इन्द्रियों में ही निवसित हैं और मन तक ही सीमित हैं, तो इसे विकास एवं साधना कदापि नहीं वह सकते। अध्यात्म-साधना का अभिप्राय है-शरीर, इन्द्रिय, प्राण एवं मन के द्वार को पार करके आत्मा के भव्य-भवन में निवसित होना, अपने स्वरूप में स्थिर होने का प्रयत्न करना। वस्तुतः आत्मा का विकास एवं अभ्युदय इसी में है, कि आत्मा एवं संसार के स्वरूप को अथवा स्व और पर के यथार्थ स्वरूप को समझकर अपने स्वरूप में एवं अपने स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करना । व्यक्ति संसार में रहता है, अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है, परन्तु जब वह संसार के स्वरूप को समझने का प्रयत्न करता है अथवा विश्व की विचित्रता एवं विविधता को देखकर उसके मन में विश्व को समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, तब वह अध्यात्म-चिन्तन की दिशा में कदम बढ़ाता है । पर से हट कर स्व में स्थित होता है । तत्व-ज्ञान यूरोप के महान् विद्वान् मैक्समूलर ने एक बार कहा था, कि कोई व्यक्ति, जो वर्षों से इस विश्व को और इस विश्व की विचित्रताविविधता को देखता रहा है, सहसा एक क्षण के लिए ठहर जाता है, संसार पर टकटकी लगाता है, और पुकार उठता है, तुम क्या हो ? तब उसी क्षण उसके मन में तत्त्व-ज्ञान जन्म लेता है । तत्त्व-ज्ञान का उद्भव मानव-मन में उठने वाली जिज्ञासा से होता है। इसी सत्य-तथ्य को प्रकट करने के लिए कहा गया है, कि विवेक का, तत्व-ज्ञान का जनक आश्चर्य है । यदि हम भी कभी इस विराट् विश्व पर टकटकी लगाएँ, और उससे प्रश्न करें कि तुम क्या हो ? तुम्हारा स्वरूप क्या है ? तो प्रश्नकर्ता को समाधान मिलेगा। पर, सभी विचारकों और सभी जिज्ञासुओं को इस प्रश्न का उत्तर विश्व से एक-सा नहीं मिलेगा ! इसका समाधान या उत्तर तीन प्रकार का होगा १. वे लोग, जिनके लिए व्यावहारिक ज्ञान हो पर्याप्त होता है, वे बाहरी परत को ही देखते हैं, और उसकी बाहर परिलक्षित होने वाली Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य का स्वरूप | ५ सीमित शक्ति को ही देखते हैं, परन्तु उसकी गहराई में नहीं जाते, और उसके अन्तर-तल को नहीं देख पाते । २. जो वैज्ञानिक दृष्टि से देखना चाहते हैं, वे व्यक्ति कुछ गहरे चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति केवल वस्तु के बाह्य तल को ही नहीं देखते, परन्तु उसकी गहराई में उतरकर उसके आन्तरिक स्वरूप को एवं वस्तु में निहित शक्ति-गुण को देखते हैं। देखने-परखने का एक विशेष दृष्टिकोण होने के कारण वैज्ञानिक गहराई से देखने पर भी वस्तु के एक अंश को ही देख पाता है, उसके सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं। ३. दार्शनिक-दृष्टि से देखनेवाले लोग वस्तु के स्वरूप को गहराई से देखने-परखने का प्रयत्न करते हैं, और उनका लक्ष्य वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को जानने का रहता है, अतः जिनका चिन्तन, मनन एवं दर्शन वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को देखता है, वे दार्शनिक हैं, तत्त्ववेत्ता हैं, विचारक हैं। इस प्रकार इस विश्व में हमको जो कुछ ज्ञात होता है, जो कुछ दिखाई देता है, वह तीन भागों में विभाजित है-१. जड़ = प्रकृति अथवा अजीव पदार्थ । २. चेतन = पुरुष अथवा सजीव पदार्थ और ३. सिद्ध = वह सत्ता जो देखने का नहीं, अनुभूति का विषय है, जिसे परमात्मा या ईश्वर कहते हैं। जिस व्यक्ति की केवल बाह्य-दृष्टि है, जिसका ज्ञान व्यावहारिक है, उसका काम भी देखना है। वह बाह्य पदार्थों को देखता है, परन्तु उनकी गहराई में नहीं जाता। परन्तु वैज्ञानिक गहराई में जाता है, इसलिए वह बाह्य पदार्थों को देखता है, और उन्हें व्यवस्थित भी करता है। क्योंकि वह पदार्थों का परीक्षण करके उनके यथार्थ स्वरूप को देखता है । दर्शन-शास्त्र भी परीक्षण के प्रति उदासीन नहीं रहता, परन्तु उसका काम पदार्थों को देखना एवं विश्लेषण करना ही नहीं, प्रत्युत उनका समाधान भी करना है । दार्शनिक एवं तत्त्ववेत्ता, जो समाधान करता है, उसके पीछे उसका अनुभव है । वह विश्व में अवस्थित अनेक पदार्थों और उनमें स्थित अनेक धर्मों को अनेक दृष्टिकोणों से देखता है । विचारक, दार्शनिक एवं तत्ववेत्ता का दृष्टिकोण एकांगी हो सकता है, परन्तु पूर्णतः असत्य एवं निराधार नहीं होता । क्योंकि वह विश्व में या वस्तु में स्थित सत्य के एक अंश को प्रकट करता है। अतः सभी दृष्टिकोणों का समन्वय करके देखने पर विश्व या वस्तु का सम्पूर्ण रूप हमारे सामने प्रकट होता है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व यूनान, एशिया और भारत के दार्शनिकों ने विश्व के सम्बन्ध में जो कुछ चिन्तन, मनन एवं अनुभव किया था, उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-जीव और अजीव, आत्मा और पुद्गल, पुरुष और प्रकृति, चेतन और जड़, ब्रह्म और माया । वर्तमान युग के यूरोपियन दार्शनिकों का विश्व-विषयक चिन्तन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अनुसन्धान एवं विश्लेषण के आधार पर सृष्टि एवं पदार्थ के स्वरूप का वैज्ञानिक निष्कर्ष भी विचारणीय है। द्रव्य का निरूपण __ पाश्चात्य विचारकों के आधुनिक दार्शनिक विवेचन में द्रव्य-निरूपण प्रमुख विषय बन चुका है। इस सम्बन्ध में पाश्चात्य दार्शनिकों एवं विचारकों में डेकार्ट, मेलब्रान्स, स्पीनोजा एवं लाइबनिज प्रसिद्ध हैं। यह आवश्यक नहीं है, कि द्रव्य की व्याख्या एवं परिभाषा उन्होंने जिस प्रकार की अथवा द्रव्य का लक्षण एवं स्वरूप जिस प्रकार बताया, उसी प्रकार हमारे यहाँ हो । वस्तु के स्वरूप का विश्लेषण करने में भिन्नता होने पर भी इतना निश्चित है कि एक ऐसी वस्तु है, जिसका अस्तित्व सभी दार्शनिकों को स्वीकार करना पड़ता है। वस्तु के स्वरूप-वर्णन में पाश्चात्य विचारकों के ही नहीं, सभी भारतीय दार्शनिकों के विचारों में भी एकरूपता नहीं है। पाश्चात्य-दर्शन में द्रव्य-निरूपण में डेकार्ट का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उसकी शिक्षा का मुख्य विषय गणित और ज्योतिष रहा है। परन्तु जब उसकी अभिरुचि दर्शन-शास्त्र की ओर जागृत हुई, तब उसने गणित एवं दर्शन-शास्त्र में समानता के साथ एक आश्चर्यजनक असमानता को भी देखा। उसने देखा, कि गणित प्रत्यक्ष पर आधारित है, उसमें सन्देह को कम स्थान है, जब कि दर्शन-शास्त्र अदृश्य सत्ता को भी स्वीकार करता है । परन्तु उसने यह दृढ़ निश्चय कर लिया, कि किसी भी धारणा को या अदृश्य शक्ति को स्वीकार करने के पहले वह उसे अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसकर देखेगा, कि वह युक्ति-युक्त है या नहीं। प्रत्येक स्थापना को बुद्धि एवं तर्क की कसौटी पर खरा उतरना होगा। डेकार्ट ने अपना चिन्तन व्यापक सन्देह के साथ प्रारम्भ किया। दर्शन-शास्त्र का विषय बाह्य सष्टि, परमात्मा एवं स्वयं का अध्ययन करना था। उसने तीनों की सत्ता में सन्देह किया, परन्तु शीघ्र ही उसे यह अनुभूति हुई, कि इन तीनों की सत्ता Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य का स्वरूप | ७ में सन्देह किया जा सकता है, किन्तु सन्देह के अस्तित्व में सन्देह करना तो कतई सम्भव नहीं है। इसलिए उसने कहा, कि सन्देह एक प्रकार की चेतन अवस्था है, और उसका अस्तित्व असंदिग्ध तथ्य है । जब इन्द्रभूति गौतम सर्वप्रथम भगवान महावीर के सम्पर्क में आये, और उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को प्रत्यक्ष रूप से जानना चाहा, तब भगवान महावीर ने अनेक तर्कों के साथ उनसे कहा, कि तुमको जो यह सन्देह है, कि आत्मा है या नहीं, वही आत्मा के अस्तित्व की प्रत्यक्ष अनुभूति है। क्योंकि सन्देह ज्ञानरूप है, अतः वह सचेतन है। यह बात डेकार्ट ने भी कही, कि मैं चिन्तन करता हूँ, इसलिए मैं हूँ ! अपने अथवा आत्मा के अस्तित्व के साथ उसने परमात्मा की सत्ता को भी स्वीकार किया और अपने से भिन्न भौतिक तत्त्व अथवा बाह्य सष्टि जिसे वह द्रव्य (Substance) कहता है, को भी स्वीकार किया। इस प्रकार डेकार्ट ने अपने दर्शन एवं चिन्तन के आधार पर तीन तत्त्वों का मुख्य रूप से वर्णन किया है १. मैं चिन्तन करता हूँ, इसलिए मैं हूँ। २. मेरे प्रत्ययों में पूर्णता का प्रत्यय विद्यमान है । इसका जन्मदाता परमात्मा भी पूर्ण रूप से विद्यमान है। ३. परमात्मा सत्य-स्वरूप है। उसकी व्यवस्थारूप बाह्य जगत् की प्रतीति भ्रम नहीं हो सकती। अतः प्रकृति का अस्तित्व असंदिग्ध तथ्य है। इस प्रकार डेकार्ट ने द्रव्य को स्वीकार किया, और अपने ढंग से उसकी व्याख्या की। मेलबान्स डेकार्ट के अनुयायियों में से मुख्य था। उसने डेकार्ट और उसके अनुयायी म्यूलिंग्स के विचारों को स्वीकार किया और उनके चिन्तन को कुछ आगे बढ़ाया । म्यूलिंग्स और मेलब्रान्स डेकार्ट के द्वैतवाद को स्वीकार करते थे, और यह मानते थे, कि आत्मा और प्रकृति (soul and matter) के गुण एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जैसा कि एक लेखक ने कहा है-आत्मा सत् के एक किनारे पर स्थित है और प्रकृति दूसरे किनारे पर । यहाँ तक वे दोनों डेकार्ट के विचारों को मानते थे, परन्तु वे डेकार्ट की इस मान्यता से सहमत नहीं थे, कि मस्तिष्क के एक भाग में आत्मा और प्रकृति का सम्पर्क होता है, और वह ज्ञान और क्रिया को जन्म देता है । जैन-दर्शन भी आत्मा और पुद्गल को एक-दूसरे से भिन्न स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में स्वीकार करता है। यह भी स्वीकार करता है, Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व कि संसारी अवस्था में आत्मा पुद्गल-द्रव्य के साथ रहते हुए भी उसमें मिलता नहीं है। दोनों द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं, अपने-अपने पर्यायों में परिणमन करते हैं। डेकार्ट के बाद स्पीनोजा ने द्वैत को मिटाने का प्रयत्न किया। उसने कहा, कि विश्व में दो द्रव्य (पुरुष और प्रकृति) नहीं, दोनों में से एक ही द्रव्य है । पाश्चात्य दर्शन में अद्वैत दो रूपों में सामने आया-एक रूप प्रकृति को ही मूल द्रव्य मानता था, जिसकी मान्यता के अनुसार प्रकृति अपने विकास के समय में जीवन और चेतना को जन्म देती है। प्रकृति से भिन्न चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक-दर्शन भूत को ही सष्टि का मूल कारण मानता है। दूसरा रूप आत्मवाद का था, जिसके अनुसार प्रकृति मानव-विचारों या चित्रों के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं रखती। स्पीनोजा ने आत्मा और प्रकृति दोनों में से किसी को भी प्रमुख स्थान नहीं दिया। उसने तीनों प्रत्ययों को मुख्य माना-द्रव्य, गुण और आकृति । द्रव्य के लिए उसने substance शब्द का प्रयोग किया है। उसके मत में ब्रह्म और ब्रह्माण्ड एक ही हैं, दो नहीं। आत्मा और प्रकृति-दो स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, अपितु एक ही सत्ता के दो पहलू हैं, जो एक ओर से चिन्तनरूप नजर आता है, वही दूसरी ओर से विस्ताररूप । स्पीनोजा ने अपना चिन्तन अनेक सोमित और साकार पदार्थों से प्रारम्भ किया, और वह इनमें से गुजरता हुआ अनन्त की ओर बढ़ा। इसके विपरीत लाइबनीज ने अपना चिन्तन दृष्ट पदार्थों से शुरू किया, और वह अन्त में ऐसे स्थान पर पहुँच गया, जिसके आगे विश्लेषण की सम्भावना ही नहीं रहती। उसने अन्तिम सत्ता को बिन्दु के रूप में स्वीकार किया। स्पीनोजा ने कहा, कि जिस पर हम विश्लेषण के अन्त में पहुँचते हैं, वह चेतन है, तात्त्विक सत्ता है, अखण्ड है, इसलिए नित्य है। इसमें भी परिवर्तन होता है, परन्त यह परिवर्तन किसी बाह्य प्रभाव के कारण नहीं होता। लाइबनीज का इस सम्बन्ध में यह कहना है, कि सम्पूर्ण ज्ञान वास्तव में आत्म-ज्ञान है। प्रत्येक बिन्दु वही देखता है, जो कुछ उसके अपने भीतर है । सम्पूर्ण विश्व में एक केन्द्रीय बिन्दु है वह परमात्मा है, वही अन्य बिन्दुओं में सामञ्जय और अनुकूलता का निर्माण करता है। इस प्रकार यूरोप के मूर्धन्य दार्शनिकों ने द्रव्य का विश्लेषण तीन प्रकार से किया--- Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य का स्वरूप | . १. डेकार्ट ने द्वैतवाद के रूप में । २. स्पीनोजा ने अद्वैतवाद को स्वीकार करके । ३. लाइबनीज ने अनेकवाद का समर्थन करके । यूनान में विशेष रूप से द्रव्य पर चिन्तन करने वाले दार्शनिकों में अरस्तू मुख्य था। उसने द्रव्य और उसके साथ गुणों का भी खूब अच्छा विश्लेषण किया है। भारतीय दार्शनिकों में वैशेषिक दर्शन मुख्य रूप से पदार्थवादी रहा है। उसने द्रव्य पर खूब गहराई से विचार प्रस्तुत किया है । सांख्य-दर्शन में भी प्रकृति का खूब अच्छे ढंग से विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार विश्व के समस्त दार्शनिकों ने किसी-न-किसी रूप में द्रव्य की सत्ता को स्वीकार किया है। जन-परम्परा में भगवान महावीर के बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में, आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पंचास्तिकायसार, समयसार एवं प्रवचनसार ग्रन्थों में और आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह में द्रव्य पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार एवं चिन्तन किया है। द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व एवं सत्-इन शब्दों का विभिन्न सम्प्रदायों ने प्रयोग किया है और अपने चिन्तन के अनुरूप इनकी व्याख्या भी की है। जैन-दर्शन में इन शब्दों का प्रयोग और उपयोग आगम-युग से आज तक होता रहा है। द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व एवं सत् : भगवान महावीर एवं उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने सम्पूर्ण लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा है । इसके लिए आगमों में एवं अन्य ग्रन्थों में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ और सत् इन चारों शब्दों का प्रयोग उपलब्ध है। वस्तुतः चारों शब्द एकार्थक हैं । जहाँ द्रव्य शब्द का प्रयोग किया, वहाँ उसके पूर्व संख्या वाचक षट् शब्द लगा दिया। तत्व के साथ संख्या वाचक सप्त शब्द जोड़ दिया । पदार्थ के साथ संख्या बोधक नव शब्द का उच्चारण किया जाता है । इस प्रकार जैन-दर्शन में षड् द्रव्य, सप्त तत्त्व, नव पदार्थ माने गए हैं । भगवतीसूत्र में षड्-द्रव्य में से काल को छोड़कर जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल- इन पांचों को अस्तिकाय कहा गया है। अस्ति काय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । पाँचों द्रव्यों के असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं, सिर्फ काल द्रव्य ही अणरूप है । जैन-दर्शन ने ही नहीं, अन्य भारतीय-दार्शनिकों एवं पाश्चात्य-दार्शनिकों ने भी द्रव्य पर विचार किया है। द्रव्य के लक्षण एवं स्वरूप के वर्णन में भिन्नता हो सकती है। परन्तु, एक ऐसी वस्तु भी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व है, जिसे सभी दार्शनिक एवं विचारक स्वीकार करते हैं। द्रव्य, तत्त्व एवं पदार्थ आदि की संख्या में अन्तर रहता है । जैन-दर्शन षट्-द्रव्य मानता है, तो वैशेषिक दर्शन ने नव द्रव्य माने हैं । जैन-दर्शन सप्त तत्त्व मानता है, और सांख्य-दर्शन पच्चीस । जैन-दर्शन नव पदार्थ मानता है और न्यायदर्शन सोलह । परन्तु सत् ही एक ऐसा तत्व है, जिसे सबने स्वीकार किया है और उसे एक ही माना है। सत् क्या है ? इस पर विचार करने के पहले एक रूपक दे देता हूँ, जिससे विषय समझने में सरल हो जाएगा। एक योगी के पास तीन व्यक्ति आए और उन्होंने प्रश्न किया कि सत्य क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और हमें क्या करना चाहिए, ताकि जीवन-विकास हो सके ? तीनों का प्रश्न एक था। तीनों सत् को जानना चाहते थे। योगी ने उनमें से एक व्यक्ति से कहा-तुम बाहर देखो, खोजो। दूसरे से कहा-तुम आन्तरिक गहराई में उतरकर अन्वेषण करो, तुमको सत्य का साक्षात्कार होगा। तीसरे से कहा-तुम ऊपर की ओर देखो। सत्य एक था, परन्तु जब वह कथ्य में उतरा तो तीन प्रकार से तथ्य सामने आया । प्रश्न एक हो, समस्या एक हो और उसका समाधान तीन प्रकार से कैसे हो सकता है ? यह एक प्रश्न है ? जैन-दर्शन अनेकान्तवादी है, वह कहता है कि वस्तु सत् है और वह एक है, फिर भी उसमें अनन्त गुण हैं और प्रत्येक गुण के अनन्त पर्याय हैं। अतः उसका स्वरूप, उसमें स्थित सत्य-तथ्य अनेक प्रकार से देखा जा सकता है। भगवान् महावीर ने कहा कि उसका समाधान सात प्रकार से किया जा सकता है। योगी ने उसका उत्तर तीन प्रकार से दिया। सम्पूर्ण विश्व का एक ही तत्त्व है, सत् । सत्य एक होने पर भी, जब उसे वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं, तब वह व्यक्ति की अनुभूति के अनुरूप अनेक प्रकार से व्यक्त किया जाता है। सम्पूर्ण विश्व का पानी एक है। यदि उससे पूछो कि तुम्हारा आकार-प्रकार क्या है ? तो वह हँसेगा और प्रश्नकर्ता से कहेगा-पागल हो गये हो! मेरा कोई आकार है ही नहीं। मैं तो अपने आप में सदा-सर्वदा एक-सा हूँ। जैसा पात्र मिलता है, उसी आकार का बन जाता हूँ । भगवान् महावीर ने भी यही समाधान किया कि सत् एक ही है। परन्तु उसे सुनने वाला, धारण करने वाला तथा चिन्तन करने वाला जैसा होता है, उसे वैसा ही उत्तर दिया जा सकता है। योगी के समक्ष उपस्थित होने वाले तीन व्यक्तियों में एक बाह्याभि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य का स्वरूप | ११ मुखी था । इसलिए उससे कहा, 'तुम बाहर के पदार्थों का सूक्ष्म दृष्टि से अन्वेषण करो, उनमें स्थित सत्य तुमको प्राप्त होगा ।' दूसरा अन्तर्-द्रष्टा था, उससे कहा. 'तुमको बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, सत्य तुम्हारे भीतर ही है । अपने में गहरी डुबकी लगाओ, तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा ।' तीसरा श्रद्धालु भक्त था । उसमें विचार करने की, चिन्तन करने की एवं शोध करने की क्षमता नहीं थी । क्योंकि श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति समपित होता है । अतः उससे ऊपर देखने को अथवा परमात्मा पर विश्वास करने को कहा गया । 1 बाहर देखने का अर्थ है - वैज्ञानिक दृष्टि । वैज्ञानिक प्रकृति में स्थित प्रच्छन्न अनन्त शक्ति एवं रहस्य को प्रकट करता है । न्यूटन ने नया कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जो शक्ति प्रकृति की तह में छिपी हुई थी, उसे उसने प्रकट किया और विश्व को न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त (Theory of gravitation ) दिया। वैज्ञानिक प्रकृति का, जड़पदार्थों का निरीक्षण करता है, इसलिए उसे बाह्यसृष्टि को देखना पड़ता है । योगी, सन्त एवं दार्शनिक बाहर नहीं, भीतर देखता है । उसका लक्ष्य अपने आपको देखना एवं अपने में ही सब कुछ प्राप्त करना है। इस प्रकार सत् एक है और वह शक्तिरूप से सर्वत्र विद्यमान है । प्रत्येक विचारक अपनी-अपनी दृष्टि के अनुरूप उसकी अनुभूति करता है और जैसा देखता है, वैसा ही अभिव्यक्त करता है । सत् का स्वरूप जैन- दर्शन में द्रव्य के लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग हुआ है । भगवान् महावीर के बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में द्रव्य का लक्षण करते हु लिखा है - सत् द्रव्य का लक्षण है - 'सत् द्रव्यलक्षणम्' । इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य सत् है । सत् की व्याख्या करते हुए आगमों में एवं आचार्य उमास्वाति ने कहा है- जो उत्पाद, व्यय और धीव्य से युक्त है, वह सत् है - उत्पाद व्ययधीव्य-युक्तं सत्' जैन दर्शन के अनुसार किसी भी पदार्थ को सत् कहने का अभिप्राय यह है कि वह उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्य रूप है । यही कारण है कि जैन दर्शन में किसी भी द्रव्य एवं पदार्थ को न तो एकान्त रूप से नित्य माना गया है और न एकान्त रूप से अनित्य । वह प्रत्येक द्रव्य को परिणामी नित्य स्वीकार करता है । जैसे स्वर्णकार सोने के कुण्डल को तोड़कर कड़ा बनाता है, उस समय कुण्डल की पर्याय एवं उसका आकार नष्ट होता है और कड़े की पर्याय एवं उसका Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व आकार उत्पन्न होता है, परन्तु दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है। दूध से दही बनता है, दही को मथने पर नवनीत (मक्खन) बनता है। इसमें दुध पर्याय का नाश और दही पर्याय की उत्पत्ति तथा दही पर्याय का नाश और मक्खन पर्याय की उत्पत्ति होती है, परन्तु दूध, दही और मक्खन की तीनों अवस्थाओं में गोरसत्व अक्षण्ण है। यह ध्यान में रहना चाहिए कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एक कालवर्ती होते हैं और यही द्रव्य की विशेषता है। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय-दर्शनों में सत् के सम्बन्ध में चार मत मिलते हैं। एक तो यह है, कि इस विश्व में जो कुछ है, वह एक है, सत् है और कूटस्थ नित्य है। दूसरी मान्यता यह है, कि इस विश्व में एक नहीं अनेक पदार्थ हैं और वे क्षणिक हैं-उत्पाद विनाशशील हैं । तीसरी मान्यता यह है कि इस विश्व में सत् है और उससे भिन्न असत् भी है। इस मान्यता के अनुसार सत् में भी परमाण-द्रव्य, काल और आत्मा आदि नित्य हैं और कार्य-द्रव्य घट-पट आदि अनित्य हैं। चतुर्थ मान्यता यह है, कि सत् प्रकृति और पुरुष अथवा जड़ और चेतन के भेद से दो प्रकार का है, उसमें चेतन अथवा पुरुष कूटस्थ-नित्य है, और प्रकृति अथवा जड़ परिणामी-नित्य है। एक ऐसा भी मत है, जो इस विश्व की सत्ता को स्वीकार ही नहीं करता, वह न तो इसे सत् मानता है और न असत् । ऋग्वेद के ऋषि ने विश्व की विचित्रता को देखकर एक बार कहा था-मैं नहीं जानता कि जगत कहाँ से आया-सत् से उत्पन्न हुआ या असत् से उत्पन्न हुआ। मैं कह नहीं सकता कि यह जगत सत् है, यह भी नहीं कह सकता कि यह जगत असत् है। इस प्रकार सत् के सम्बन्ध में चार पक्ष बनते हैं १. जगत् सत् है, २. जगत् असत् है, ३. जगत् सत् है, असत् है, ४. जगत् न सत् है, न असत् है । भगवान महावीर ने कहा, कि जिसे हम जगत्, संसार, विश्व, लोक, वर्ल्ड (World) युनिवर्स (Universe) कहते हैं, वह भूतकाल में भी था, वर्तमान काल में भी है और भविष्य काल में भी रहेगा। इसका अस्तित्व Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य का स्वरूप | १३ त्रिकालवर्ती है, उसकी सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। यहाँ प्रश्न उठता है कि जगत् की सत्ता त्रिकालवर्ती है, तब वह परिवर्तित क्यों होता है ? यदि वह परिवर्तनशील है, तो असत् होना चाहिए? परन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि जैन-दर्शन किसी भी पदार्थ को एकान्त-नित्य या एकान्त-अनित्य नहीं मानता। वास्तव में पदार्थ एकान्त रूप से न नित्य है और न एकान्त रूप से अनित्य है। वह यह मानता है कि द्रव्य में परिवर्तन होते हए भी उसमें स्थिरता है। जैन-दर्शन की यह मान्यता विज्ञान के प्रकृति की अनश्वरता का नियम (law of indestructibility of matter) है। प्रकृति के इस नियम को १८वीं शताब्दी के विश्रुत वैज्ञानिक श्री लाह्वाइजियर (Lahvoisier) ने इन शब्दों में जगत के समक्ष रखा था-"कुछ भी निर्मेय नहीं है और प्रत्येक क्रिया के अन्त में उतनी ही प्रकृति रहती है, जितने परिमाण में वह क्रिया के आरम्भ में थी। केवल प्रकृति का रूपान्तर (modification) होता है। वास्तव में इस नियम से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित रहता है। परिवर्तन होता है-वह द्रव्य के शुद्ध स्वरूप में नहीं, प्रत्युत उसके पर्यायों में होता है । सत् न तो एकान्त रूप से नष्ट होता है और न एकान्त रूप से नया ही बनता है। वह अपने स्वरूप में रहते हुए नयेनये पर्यायों को धारण करता है। द्रव्य, गुण और पर्याय जब हम यह कहते हैं कि यह द्रव्य है, तो इसका अभिप्राय यह हैवह अपने स्वरूप में रहते हए अपने विविध परिणामों के रूप में द्रवित होता है। भगवान महावीर ने कहा है-द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त है । गुण द्रव्य में रहते हैं, और पर्यायें भी गुण और द्रव्य में रहते हैं । आचार्य उमास्वाति ने भी द्रव्य की व्याख्या करते हुए कहा है-गुण-पर्यायवद् द्रव्यम् । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी यही कहा है-द्रव्य, गुण और पर्याय से कभी भी शून्य नहीं हो सकता । गुण और पर्याय भी द्रव्य के बिना नहीं रह सकते । बिना पर्याय का द्रव्य नहीं हो सकता और बिना द्रव्य के पर्याय का होना भी सम्भव नहीं। अतः द्रव्य गुण-पर्यायात्मक होता है। यहाँ यह समझने की बात है कि द्रव्य, गुण और पर्याय में परस्पर अन्यत्व तो है, परन्तु पृथक्त्व नहीं है । वस्तुओं में परस्पर जो भेद पाया जाता है, वह दो प्रकार का है-पृथक्त्वरूप और अन्यत्वरूप । प्रदेशों की भिन्नता पृथक्त्व है और तद्रूपता नहीं होना अन्यत्व है। जिस प्रकार दूध और दूध की सफेदी एक Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व ही वस्तु नहीं है, फिर भी दोनों के प्रदेश पृथक-पृथक नहीं हैं। इसके विपरीत दण्ड और दण्डी में पृथक्त्व है, इन दोनों को अलग भी किया जा सकता है, परन्तु द्रव्य, गुण और पर्याय में इस प्रकार का पृथक्त्व नहीं है। क्योंकि द्रव्य के बिना गुण और पर्यायों के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए जिन-जिन पर्यायों को धारण करता है, उन-उन पर्यायों के रूप में वह स्वयं उत्पन्न होता है, जैसे, स्वर्ण स्वयं ही कुण्डल बनता है, स्वयं ही कड़ों के रूप में परिवर्तित होता है और स्वयं ही अंगूठी के रूप में बदल जाता है। यदि पर्याय की दृष्टि से विचार करें, तो नये-नये पर्याय उत्पन्न हुए, परन्तु द्रव्य की दृष्टि से देखें, तो वह स्वर्ण के रूप में ज्यों का त्यों विद्यमान है। इसी प्रकार संसार अवस्था में जीव देव होता है, मनुष्य होता है, पशु होता है और नारक होता है, परन्तु इन सब पर्यायों में उसका अपना जीवत्व नहीं बदलता। जीव-द्रव्य के रूप में वह ज्यों का त्यों है । परन्तु यह भी सत्य है कि जव जीव देव-पर्याय को प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य नहीं रहता और जब वह मनुष्य-पर्याय को धारण करता है, तब वह सिद्ध-पर्याय को प्रकट नहीं करता । इस प्रकार द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक अथवा द्रव्य एवं पर्याय की दृष्टि से वस्तु तत्व का एवं वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निर्णय किया जा सकता है। इस लोक में छह द्रव्य हैं अथवा यह लोक या जगत षड द्रव्यात्मक है-धर्म-द्रव्य, अधर्म-द्रव्य, आकाश-द्रव्य, काल-द्रव्य, जीव-द्रव्य और पुद्गल-द्रव्य । इनमें से काल के अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अस्तिकाय रूप हैं, क्योंकि पाँचों द्रव्यों के प्रदेश समूह रूप से हैं । द्रव्यों का मूर्त और अमूर्त-इस प्रकार से भी वर्गीकरण किया जा सकता है, मूर्त को रूपी या साकार और अमूर्त को अरूपी या निराकार भी कहते हैं । पुद्गल के अतिरिक्त शेष पाँचों द्रव्य अमूर्त हैं । ___ इस प्रकार जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि इन पड - द्रव्यों में सम्पूर्ण सृष्टि आ जाती है, जीव, जगत एवं ईश्वर अथवा ब्रह्म एवं ब्रह्माण्ड सब कुछ समाविष्ट हो जाता है, इसलिए आत्मा, परमात्मा एवं जगत के स्वरूप को समझने के लिए तथा संसार एवं मोक्ष के स्वरूप को एवं उसके कारणों को समझने के लिए द्रव्य का यथार्थ परिज्ञान करना आवश्यक है। उसे समझे बिना व्यक्ति जीवन का अथवा आत्मा का विकास नहीं कर सकता। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य भगवान महावीर ने आगमों में षड़-द्रव्य का वर्णन किया है। लोक क्या है ? इसका समाधान भगवान महावीर ने अनेक प्रकार से, विभिन्न दृष्टियों से किया है। उनमें से एक व्याख्या यह भी है, कि लोक षड्द्रव्यात्मक है। जहाँ षड्-द्रव्य हैं, वहीं तक लोक है, विश्व है, संसार (Universe) है। भगवान महावीर के पश्चात् आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में दार्शनिक-शैली में षड्-द्रव्य का वर्णन किया है, और आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार एवं पञ्चास्तिकायसार ग्रन्थों में षड्द्रव्य पर आध्यात्मिक-दृष्टि से विचार प्रस्तुत किये हैं। इन षड्-द्रव्योंधर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पद्गल में से धर्म और अधर्म-द्रव्य के अतिरिक्त शेष चारों द्रव्यों को सभी भारतीय दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग तो मिलता है, परन्तु वह शुभ और अशुभ या प्रशस्त और अप्रशस्त कर्म या कार्य के अर्थ में मिलता है, द्रव्य के अर्थ में नहीं। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन में धर्म और अधर्म को द्रव्य रूप से स्वीकार नहीं किया है । जैन-दर्शन में अन्य द्रव्यों की तरह धर्म और अधर्म का भी द्रव्य रूप से स्वतन्त्र अस्तित्व माना है। धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य-दोनों अमूर्त हैं, आकार-प्रकार से रहित हैं, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित हैं, एकएक द्रव्य हैं, अखण्ड हैं, सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं, असंख्यात प्रदेशों से युक्त हैं, और निष्क्रिय हैं, फिर भी वे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हैं । दोनों ही द्रव्यों में गति का अभाव है, फिर भी उनकी पर्यायों में प्रतिक्षण, प्रतिसमय परिवर्तन होता रहता है, उनकी पुरातन पर्यायें नष्ट होती हैं, और नयी-नयी पर्यायें उत्पन्न होती हैं। उत्पन्न होने एवं विनाश होने का ( १५ ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व प्रवाह चलता रहता है, फिर भी द्रव्य की दृष्टि से उनके मूलस्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इस अपेक्षा से दोनों द्रव्य नित्य भी हैं। धर्म-द्रव्य का स्वरूप विश्व में मुख्य रूप से दो द्रव्य हैं--जीव (Soul) और पुद्गल (Matter)। दोनों गति-शील हैं, और स्थिति-शील भी हैं। जीव और पुद्गल में जो गति है, वह स्वाभाविक है। कोई भी अन्य द्रव्य उनमें गति पैदा नहीं करता, केवल उनकी गति में सहायक होता है, निमित्त बनता है। दर्शन-शास्त्र में दो कारण माने हैं-एक उपादान-कारण और दूसरा निमित्त-कारण । द्रव्य का अपना स्वरूप एवं स्वभाव उसका उपादानकारण है । और, अपने से भिन्न पर-द्रव्य उसका निमित्त-कारण है। वह सहायक तो हो सकता है, परन्तु उसे प्रेरित नहीं कर सकता। जैसे मछली के तैरने में पानी निमित्त-कारण है। उपादान-कारण, तो मछली में स्वयं तैरने की जो शक्ति है, वही है, अन्य नहीं। पानी उसको तैरने के लिए प्रेरित नहीं करता, और न उस पर दबाव डालकर तैराता ही है। जब मछली अपनी शक्ति का उपयोग करके तैरने का प्रयत्न करती है, तब पानी उसमें सहायक होता है। उसी प्रकार जीव और पुद्गल-द्रव्यों में जो गति है, उसे कार्य रूप में परिणत करने के लिए निमित्त एवं सहायक द्रव्य की आवश्यकता रहती है। उस शक्ति को जैन-आगमों में धर्म-द्रव्य कहा है । भगवतीसूत्र में गणधर गौतम स्वामी के एक प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा है- "जीव और पुद्गल के गमन और स्थिति में जो सहायक द्रव्य है, वह धर्मास्तिकाय है। द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, अखण्ड है । क्षेत्र से वह लोक-प्रमाण है । काल से वह त्रिकालवर्ती है, अतः नित्य है। भाव से वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है। वह असंख्यात प्रदेशी है, निष्क्रिय है तथा जीव और पुद्गल की गति में सहायक गुण से युक्त है।" भगवान महावीर के बाद आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार में लिखा है-"धर्मास्तिकाय न स्वयं गति-शील है और न किसी को गति करने या चलने के लिए प्रेरित करता है । वह तो केवल गति-शील जीव और पुद्गल की गति में निमित्त मात्र है । जैसे जल मछलियों के लिए गति में अनुग्रहशील है, वैसे ही धर्म-द्रव्य जीव और पुद्गलों के लिए गति में सहायक है ।" आचार्य नेमिचन्द्र सूरि ने द्रव्य-संग्रह में लिखा है .. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | १७ "गति-शील जीव और पुद्गल के लिए धर्म-द्रव्य गमन में सहकारी है, जैसे मछली के लिए जल । स्थिर पदार्थों को वह गति करने के लिए प्रेरित नहीं करता।" इस सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने लिखा है"धर्म-द्रव्य क्रियाशील पदार्थों को उनकी गति के समय स्वयमेव सहायता देता है, वह उनकी गति में साधारण आश्रय है, जिस प्रकार मत्स्य के लिए जल ।" यदि वर्तमान-युग की व्यवहार्य सामग्री में हम धर्म-द्रव्य की गति में सहायक गुण को स्पष्टतः समझना चाहें, तो इसके लिए रेल (Train) और पटरी (Railway) का उदाहरण उपयुक्त रहेगा। ट्रेन को गति करने के लिए पटरी की अनिवार्यतः अपेक्षा है, पटरी के अभाव में ट्रन गति ही नहीं कर सकती, उसी प्रकार धर्म-द्रव्य के अभाव में गति-शील पदार्थ भी गति नहीं कर पायेंगे । अतः उनकी गति के लिए धर्म-द्रव्य अनिवार्य रूप से अपेक्षित है । यह तो हमारे रात-दिन के अनुभव की बात है कि पटरी ट्रेन को न तो चलाती है और न उसे गति करने के लिए प्रेरित ही करती है, फिर भी ट्रेन की गति-शीलता में उसकी उदासीन सहायता रहती ही है, यही सम्बन्ध जीव और पृद्गल की गति में धर्म-द्रव्य का है । धर्म-द्रव्य और ईथर (Ether) जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भारतीय दर्शन में गतिशील एवं स्थित होने वाले पदार्थों की गति और स्थिति में सहायक धर्म और अधर्म द्रव्य को स्वीकार नहीं किया गया है। भारतीय दार्शनिक जीव और पदार्थों की गति एवं स्थिति में आकाश को ही निमित्त-कारण या सहायक मानते रहे हैं। आकाश का अस्तित्व होने के कारण ही उसमें जीव एवं पदार्थ गति भी करते हैं और ठहरते भी हैं। यह मान्यता युक्ति-संगत है या नहीं, इसकी समीक्षा करने के पहले, यह विचार कर लेना उपयुक्त रहेगा, कि आज का विज्ञान इस सम्बन्ध में क्या मानता है ? वैज्ञानिकों ने जब भौतिक पदार्थों का गहराई से अन्वेषण किया, तब वे सोचने लगे, कि सूर्य, चन्द्र, ग्रहों एवं ताराओं के मध्य में जो बहुत लम्बा-चौड़ा शून्य क्षेत्र खाली पड़ा है, उसमें से होकर प्रकाश किरणें (Rays of light) एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी को किस माध्यम (Medium) से पूरा करती हैं। क्योंकि प्रकाश (Light) भारवान पदार्थ है । अतः यह कथमपि सम्भव नहीं हो सकता, कि बिना किसी माध्यम के वह स्वतः ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाए। इस समस्या के उत्पन्न होने पर माध्यम Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व को ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न शुरू हुआ, और इस अन्वेषण (Research) के परिणामस्वरूप वैज्ञानिकों ने (Light) की गति में ईथर (Ether) को माध्यम स्वीकार किया। जिस प्रकार जैन-दर्शन ने धर्म-द्रव्य को गति में सहायक माना, उसी प्रकार विज्ञान ने Ether को Medium of motion for light (प्रकाश की गति में माध्यम) स्वीकार किया है। सर्वप्रथम गति में सहायक होने पर भी जैन-दर्शन द्वारा मान्य धर्म-द्रव्य और विज्ञान द्वारा स्वीकृत ईथर के स्वरूप में कुछ भिन्नता भी है । ईथर को वैज्ञानिक अभौतिक नहीं, भौतिक पदार्थ मानते थे। उसमें विशेष प्रकार और परिमाण में लचक एवं घनता भी है । उस लचक एवं घनता का परिमाण भी बताया जाता था, परन्तु वह सन्देह से परे नहीं था। उस समय तक ईथर जैन-दर्शन द्वारा मान्य धर्म-द्रव्य के साथ गति में माध्यम के रूप में ही समानता रखता है। परन्तु उसके स्वरूप एवं अन्य दृष्टियों की अपेक्षा से दोनों भौतिक और अभौतिक आदि भेदों को लेकर एक-दूसरे से भिन्न विचार रखते थे। परन्तु बीसवीं शताब्दी में इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक क्षेत्र में जो अन्वेषण हुए उसने वैज्ञानिकों की पुरातन परिभाषाओं को एकदम बदल दिया है। बीसवीं शताब्दी के महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन के सापेक्षवाद (Theory of Relativity) के अनुसार ईथर (Ether) अभौतिक (Non-material, Non-atomic) है, लोक में व्याप्त है, नहीं देखा जा सकने वाला एक अखण्ड द्रव्य है, जो अन्य भौतिक द्रव्यों (Material Substance) से भिन्न है। __ एडविन एडसर (Edwin Edser) ने अपनी पुस्तक लाइट (Light) में लिखा है-- "ईथर किस प्रकार का था? इसके सम्बन्ध में तुरन्त कठिनाइयाँ परिलक्षित होने लगीं । क्योंकि यह सिद्ध हो चुका था १. ईथर सब गैसों से पतला है-Thinner than the thinnest gas. २. फौलाद से भी अधिक सघन है- More rigid than steel. ३. सर्वत्र नितान्त एक-सा है-Absolutely the same every-where ४. भार-शून्य है--Absolutely weightless. ५. किसी पड़ौसी एलोक्ट्रोन के निकट शीशे से भी अधिक भारी है - In the neighbourhood of any electron, immensely heavier than - lead. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | १६ Relativity and Commonsense पुस्तक में F. M. Denton ने लिखा है-"न्यूटन द्वारा मान्य ईथर सघन है, तब भी पदार्थ उसमें बिना किसी संघर्ष के स्वतन्त्र गति से घूमते हैं यह लोचदार है। फिर भी इसके अन्य विभिन्न आकार नहीं हो सकते। यह घूमता है, पर इसकी गतिशीलता परिलक्षित नहीं होती। जड़ पदार्थों पर इसका प्रभाव पड़ता है, पर यह पदार्थों से प्रभावित नहीं होता। इसके पिण्ड नहीं है, और न इसके अलग-अलग अंशों को हम पहचान सकते हैं। यह स्थिर तारों की अपेक्षा निष्क्रिय है, जब कि एक-दूसरे की अपेक्षा से तारे गतिशील माने गए हैं।" ईथर की गति को लेकर अनेकों प्रयोग (Experiments) हुए पर उन सबका अन्तिम निष्कर्ष यह निकला कि ईथर गति-शून्य है। यह नितान्त निष्क्रिय है। DC. Miller ने 'Nature' पत्रिका में 3 Feb. 1934 के अंक में लिखा है-"पृथ्वी की गति एक निष्क्रिय ईथर में से है, ऐसा मान्य करने पर ही अन्वेषण द्वारा प्राप्त फलानुवर्ती परिमाण और दिशा सम्बन्धी परिवर्तन संभव हैं।" Mr. A. S. Eddington ने एक स्थान पर FATET - "Now-a-days it is agreed that ether is not a kind of matter-वर्तमान युग में हम इस बात में सहमत हैं कि ईथर भौतिकद्रव्य नहीं है ।" अपनी पुस्तक "The Nature of the physical world", P. 31 पर ईथर के सम्बन्ध में लिखा है-"इसका यह अभिप्राय नहीं है, कि ईथर की मान्यता को हमने छोड़ दिया है, अथवा विश्व में ईथर नहीं है। हमें ईथर की आवश्यकता है। गत शताब्दी में प्रायः यह मान्य था, कि ईथर एक द्रव्य (Substance) है, भौतिक पदार्थ की एक जाति है, सघन है, साधारण द्रव्य की तरह गतिशील है। इसका इतिहास बताना कठिन होगा, कि इस मान्यता का कब त्याग किया गया। परन्तु वर्तमान में यह मान्य कर लिया है, कि ईथर भौतिक द्रव्य नहीं है। अभौतिक द्रव्य होने के कारण उसकी प्रकृति एवं उसके गुण बिल्कुल भिन्न होंगे। पिण्डत्व और घनत्व के गुण हमें जो भौतिक पदार्थों में मिलते हैं, उनका ईथर में अभाव होगा, परन्तु अपने ही नये और निश्चयात्मक गुण होंगे ईथर के अभौतिक समुद्र में (Non-Material ocean of ether)।" ___ धर्म-द्रव्य और ईथर की तुलना करते हुए प्रो० जी० आर० जैन, एम० एस-सी० ने अपनी पुस्तक "नूतन और प्राक्तन सृष्टि विज्ञान" में पृष्ठ ३१ पर लिखा है-"यह प्रमाणित हो चुका है कि जैन दार्शनिक और Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व आधुनिक वैज्ञानिक यहाँ तक पूर्णतः एकमत हैं, कि धर्म-द्रव्य या विज्ञान द्वारा मान्य ईथर अभौतिक, अपारमाणविक, अविभाज्य, अखण्ड, अरूप, आकाश के समान व्याप्त, गति का अनिवार्य माध्यम और अपने आप में स्थिर है--Thus it is proved that science and Jain Thysics agree absolutely so far as they call Dharm (Ether) non-material, nonatomic, non-discreet, Continuous, Co-extensive with space, indivisible and as a necessary medium for mction and one which does not it-self move." इस प्रकार विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है, कि जीव और पुद्गल (Matter), जो गतिशील हैं, उनकी गति में सहायक द्रव्य अवश्य है । जिस प्रकार सभी द्रव्यों को स्थान या अवकाश देने वाला आकाश द्रव्य है, उसी प्रकार गति का माध्यम भी एक द्रव्य है। उसे जैन आगमों में धर्मद्रव्य कहा है, और वैज्ञानिक उसे ईथर (Ether) कहते हैं। ईथर या धर्मद्रव्य के अभाव में कोई भी पदार्थ-भले ही वह जड़ हो या चेतन, गति नहीं कर सकता । गति लोक में ही होती है। लोक के बाहर बड़-चेतन कोई पदार्थ है ही नहीं, इसलिए वहाँ गति का सवाल नहीं उठता। वहाँ तो केवल शुद्ध आकाश (Pure space) है। इसलिए धर्म-द्रव्य लोकव्यापी है, और असंख्यात प्रदेशों से युक्त है। लोक-आकाश के एक-एक प्रदेश पर धर्मद्रव्य रहा हुआ है, परन्तु वह स्वयं निष्क्रिय है । पर, यह सत्य है, कि उसकी पर्यायों का अपने स्वरूप में परिणमन होता है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य सत् है। सत् वह है-जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युगपत् रहते हैं, अथवा जो अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए भी अपनी पर्यायों में परिणत होता रहता है, द्रवित होता रहता है। अधर्म द्रव्य प्रोफेसर ए. चक्रवर्ती ने पंचास्तिकायसार के दार्शनिक परिचय में पृ. २६-२७ पर लिखा है- “जैन-विचारक प्रसग के अनुरूप यह प्रश्न करते हैं, कि अणु-परमाण (Atoms) एक साथ मिलकर संसार में, लोक (Universe) में ही महास्कन्ध का निर्माण क्यों करते हैं ? वे महास्कन्ध से हटकर या बिखरकर अनन्त आकाश (Infinite space) अथवा अलोक-आकाश में क्यों नहीं जाते ? इससे यह स्पष्ट होता है, कि लोक-आकाश (Finite space) के आगे संसार (Univ.rse) नहीं है । वास्तविक सत्य यह है, कि लोक का Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म - द्रव्य | २१ निर्माण स्थायी है । इसलिए लोक क्रमबद्ध या नियमबद्ध है । उसमें अन्य द्रव्यों की उपस्थिति इस बात का संकेत है, कि उनमें परस्पर संघर्ष नहीं है, अथवा वे एक-दूसरे के अवरोधक नहीं हैं, जो इस बात का प्रमाण देता है, कि लोक का ढाँचा स्थायी है । यह एक सैद्धान्तिक सत्य तथ्य है, कि लोक के मध्य में गतिशील अणु, द्रव्य की शक्ति के सिद्धान्त से आबद्ध है । यह द्रव्य शक्ति गतिमान अणु को संसार में ही रोक रखती है, बाहर नहीं जाने देती । इस शक्ति को या द्रव्य ( Subtance) को अधर्म - द्रव्य ( Medium of rest for soul and matter ) कहा गया है । " 1 धर्म की तरह अधर्म - द्रव्य भी सम्पूर्ण लोक आकाश में व्याप्त 1 दोनों द्रव्यों का अस्तित्व लोक आकाश में ही है, और यही लोक की सीमा (Limit of world ) है । अधर्म - द्रव्य भी स्वभाव से पूर्णतः अभौतिक है, अपारमाणविक है, किसी निर्माता के द्वारा निर्मित नहीं है । इसमें पुद्गल (Matter) के गुण भी नहीं हैं । धर्म और अधर्म दोनों द्रव्यों में आकाश के गुण भी नहीं हैं, जबकि आकाश-प्रदेशों पर स्थित हैं । धर्म और अधर्म दोनों द्रव्य पूर्णतः सामान्य हैं । ये दोनों अमूर्त हैं, और अरूपी हैं । ये दोनों न तो हल्के हैं और न भारी हैं। जैन परिभाषा के अनुसार इन्हें अगुरु-लघु कहा है । भारतीय दार्शनिकों ने विश्व या सृष्टि के निर्माण एवं विकास के सम्बन्ध में गहराई से विचार किया है, परन्तु जैन विचारकों एवं दार्शनिकों के अतिरिक्त किसी भी दार्शनिक एवं विचारक ने जीव और पदार्थ की गति ( Motion ) और स्थिति ( Rest ) का माध्यम ( Medium) क्या है ? इस सम्बन्ध में विचार नहीं किया । परन्तु जैन दर्शन ने जीव और पुद्गल द्रव्य की गति में सहायक द्रव्य को धर्म और स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्म कहा है । इनके अभाव में लोक न तो क्रमबद्ध रह सकता है, और न उसमें किसी तरह की व्यवस्था ही रह सकती है । धर्म, अधर्म और आकाश भारतीय दर्शन में आकाश को ही गति और स्थिति का कारण माना है । जब जीव और पुद्गल आकाश में गति करते हैं और आकाश में ही स्थित होते हैं, तब उनके लिए धर्म और अधर्म - द्रव्य की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है ? इसके समाधान में जैन दर्शन का कहना है कि आकाश का गुण अवकाश देना है, गति एवं स्थिति में सहायक होना उसका गुण नहीं है । दूसरी बात यह है, कि जीव और पुद्गल स्वयं गतिशील हैं, और आकाश द्रव्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व इतना व्यापक है, कि वह लोक और अलोक में सर्वत्र व्याप्त है। अतः यदि आकाश को ही गति में सहायक मान लिया जाये, तो कर्म-बन्धन से मुक्त हुआ आत्मा जब ऊर्ध्व गति करेगा, तब वह लोक की सीमा को पार करके अलोक में पहुँच जायेगा। इसी प्रकार अण भी गति करते समय लोक को पार कर जायेगा । क्योंकि जीव और परमाणु में स्वभावतः गति करने की शक्ति तो है ही, यदि उनके मार्ग में किसी भी तरह की रुकावट न आये, तो वे लोक से अलोक में भी पहुँच जाएँगे। और जीव एवं पुद्गल जो गतिशील हैं, वे सदा गति ही करते रहेंगे, और जो ठहरे हुए हैं, वे सदासर्वत्र स्थित ही रहेंगे । इस प्रकार लोक की व्यवस्था भी बिगड़ जायेगी, और अलोक को व्यवस्था भी बिगड़ जायेगी। अलोक में केवल शुद्ध आकाश (Pure space) ही है, अन्य द्रव्य नहीं है। इसका प्रमुख कारण यह है कि आकाश में गतिशील एवं स्थितिशील द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति तो अलोक में भी है, परन्तु वहाँ जीव और पुद्गल में जो गति करने और स्थित होने की शक्ति है, उसको क्रियान्वित करने के साधन अथवा गति और स्थिति में सहायक द्रव्य का अलोक में अभाव है। और वे द्रव्य हैंधर्म और अधर्म । धर्म और अधर्म-ये दो द्रव्य ऐसे हैं, कि जो लोक और अलाक की सीमा को अंकित करते हैं। वर्तमान युग के महान् वैज्ञानिक एवं विश्रुत गणितज्ञ अलबर्ट आइन्स्टीन ने लोक और अलोक की भेद-रेखा को बताते हुए लिखा है"लोक परिमित है और अलोक अपरिमित । लोक के परिमित होने के कारण द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक (Universe) के बाहर आकाश (Space) तो है, पर उस शक्ति का, द्रव्य (Substance) का अभाव है, जो गति में सहायक होती है।" आज के वैज्ञानिकों ने गति (Motion) में सहायक शक्ति अथवा द्रव्य को आकाश से भिन्न स्वीकार किया है। जैन-दर्शन उसे धर्म-द्रव्य कहता है और वैज्ञानिक उसे ईथर (Ether) कहते हैं, परन्तु वह आकाश से सर्वथा भिन्न है, इसमें दोनों एकमत हैं। अधर्म-द्रव्य और गुरुत्व-आकर्षण __ईयर की खोज के बाद भी वैज्ञानिकों की समस्या का हल नहीं हआ । उनके सामने यह समस्या बनी हई थी, कि पदार्थ किस शक्ति से आकर्षित होकर पृथ्वी की ओर आते हैं और ग्रह, नक्षत्र एवं तारे आदि Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य । २३ किस आकर्षण के कारण सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। यह आकर्षण-शक्ति (Cemen try force) क्या है ? इस अन्वेषण के परिणामस्वरूप जो समाधान सामने आया है, उसे विज्ञान में Theory of g avitaticn-गुरुत्वआकर्षण का सिद्धान्त कहा गया है। न्यूटन ने Letters to Bentley पुस्तक में इसके सम्बन्ध में लिखा है--"पदार्थों के लिए गुरुत्व-आकर्षण आवश्यक एवं स्वाभाविक या अन्तर्वर्ती शक्ति है । पदार्थ और इस शक्ति का क्या सम्बन्ध है ? इसे स्पष्ट करने के लिए मुझसे मत पूछो । गुरुत्व-आकर्षण का सही कार्य क्या-क्या है, इसको मैं जानता हूँ-ऐसा कहने का मैं साहस नहीं करूंगा । इस पर चिन्तन करने के लिए अभी पर्याप्त समय चाहिए। फिर भी इतना तो कहँगा, कि गुरुत्व-आकर्षण कुछ स्थिर और निश्चल साधनों का माध्यम है, जो निश्चित नियमों से आबद्ध हैं। ये साधन भौतिक हैं, या अभौतिक, यह मैं पाठकों के विचार-विमर्श करने के लिए छोड़ देता हूँ।" न्यूटन यह निश्चय नहीं कर पाया था, कि यह शक्ति भौतिक है या अभौतिक । परन्तु पदार्थों के नीचे गिरने, ठहरने एवं चन्द्र आदि का पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाने आदि में गुरुत्व-आकर्षण को वह माध्यम स्वीकार करता है। न्यूटन का कहना है, कि आकर्षण की शक्ति के कारण दो पदार्थों में जो सीधा परिवर्तन होता है, वह उनके पुज या समूह पर निर्भर है। कभी-कभी पदार्थों का आकार वही रहता है, परन्तु दूरी के कारण भी उनमें कुछ अन्तर आता है। उस युग के वैज्ञानिकों का यह मानना था, कि गुरुत्व-आकर्षण पदार्थों को अपनी ओर खींचता है। न्यूटन के पहले ग्रीक विचारक आकर्षण का कारण परमाणु को मानते थे। ग्रीक दार्शनिक डेमोक्रिट्स यह मानता था, कि अपनी चक्कर वाली तेज गति के कारण परमाणु ही परस्पर एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं-"The atoms attract to one-another on account of their whirling motion." वैज्ञानिकों की यह मान्यता है, कि इस विचार से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ब्रह्माण्ड की स्थिरता (Stability of macroscopic) का कारण गुरुत्व-आकर्षण की शक्ति है। इस पर वैज्ञानिकों ने पदार्थों में होने वाली स्थिरता एवं पारस्परिक आकर्षण के लिए थ्योरी आफ ग्रेविटेशन को स्वीकार किया। पहले वे उसे भौतिक मानते थे, परन्तु बाद में उसे non-material (अभौतिक) स्वीकार किया है । न्यूटन उसे Active Force तो मानता था, परन्तु Active होने पर भी वह Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उसे invisible agency अदृश्य या आकार रहित साधन मानता था। महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने गुरुत्व-आकर्षण को आकार रहित और निष्क्रिय (Inactive) माध्यम माना है। Invisible के साथ Inactive को जोडकर आइन्स्टीन गुरुत्व-आकर्षण के सिद्धान्त की मान्यता को जैन-दर्शन द्वारा मान्य अधर्म-द्रव्य की व्याख्या के निकट ले आये हैं। प्रो० जी० आर० जैन के शब्दों में "जैन-दर्शन द्वारा अधर्म-द्रव्य के सम्बन्ध में प्रतिपादित सिद्धान्त की विजय है, कि विज्ञान (Science) ने विश्व की स्थिरता में अदृश्य एवं निष्क्रिय गरुत्व-आकर्षण (Gravitation) की शक्ति की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है, अथवा उसे स्थिरता में माध्यम के रूप में स्वयं सिद्ध प्रमाण मान लिया है। आइन्स्टीन के पूर्व के वैज्ञानिक गरुत्व-आकर्षण के सिद्धान्त को सक्रिय-साधन मानते थे। इस मान्यता को आइन्स्टीन ने पूर्णतः बदल दिया है, अथवा उसे निष्क्रिय साधन मान लिया है। अब गरुत्व-आकर्षण को पदार्थों के स्थिर होने में सहायक या उपकारी कारण अथवा माध्यम (Auxiliary Cause) मान लिया गया और उसे निष्क्रिय, अदृश्य एवं आकार रहित माना। वर्तमान में वैज्ञानिकों द्वारा मान्य गुरुत्व-आकर्षण की व्याख्या प्रायः जैन-दर्शन द्वारा स्वीकृत अधर्म-द्रव्य से मिलती है।" इस प्रकार हमने देखा कि षड्-द्रव्य में दो द्रव्य ऐसे हैं, जो लोक और अलोक की सीमा को विभाजित करते हैं। इस लोक में, विश्व में, जहाँ तक धर्म-द्रव्य (Ether) और अधर्म-द्रव्य (Gravitation-force) हैं, वहीं तक विश्व है, लोक है और वहीं तक जीव और पुद्गल (Soul and Matter) का अस्तित्व है, और वहीं तक काल का प्रभाव पड़ता है, अथवा यों कहिए, कि जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहीं तक जीव, पुद्गल और काल-ये तीनों द्रव्य हैं, और उतने ही भाग को लोक-आकाश (Finite-space) कहते हैं। उसके आगे आकाश के अतिरिक्त अन्य एक भी द्रव्य नहीं है, क्योंकि वहाँ धर्म और अधर्म-द्रव्य-जो गति और स्थिरता में माध्यम है, का अस्तित्व नहीं है। अतः वहाँ आकाश ही आकाश है, और वह अनन्त है। इसको जैन-दर्शन में अलोक, अलोक-आकाश अथवा अनन्त-आकाश (Infinite-space) कहा है। 1. Cosmology : Old and New. P. 36-44. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | २५ धर्म और अधर्म-द्रव्य के गुण मैं आपको पहले बता चुका हूँ, कि जीव और पुद्गल में स्वाभाविक गति करने की एवं ठहरने की शक्ति है परन्तु गति करते समय एवं ठहरते समय उनको बाह्य निमित्त की आवश्यकता रहती है। दूसरे द्रव्य की सहायता के बिना कोई भी पदार्थ न तो गति कर सकता है और न कहीं ठहर सकता है। इसलिए पदार्थ की गति में सहायक द्रव्य को धर्म और ठहरने में सहायक द्रव्य को अधर्म कहा है। यहाँ धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य और पाप अथवा प्रशस्त और अप्रशस्त भाव या कार्य नहीं, परन्त दो स्वतन्त्र अखण्ड द्रव्य हैं, जो क्रमशः गति और स्थिति में सहायक होते हैं । धर्म-शास्त्र एवं नीति-शास्त्र में पुण्य एवं पाप के लिए इन शब्दों का प्रयोग किया गया है, परन्तु यहाँ इन दोनों का एक शक्ति के रूप में प्रयोग किया गया है । धर्म-द्रव्य न तो स्वयं गति-शील है और न वह दूसरे पदार्थों को गति देता है, तथा न गति करने की प्रेरणा देता है। वह स्वयं निष्क्रिय है, रूप रहित है, एक है, अखण्ड है, और लोकव्यापी है। उसका गुण एवं स्वभाव यह है, कि जब जीव और पुद्गल गति करते हैं, तब वह उसमें सहायक होता है। जैसे मछली में चलने की एवं तैरने की शक्ति स्वाभाविक है, परन्तु उसे अपनी शक्ति को क्रियान्वित करने के लिए पानी के सहयोग की आवश्यकता है। वह पानी में ही चल सकती है, तैर सकती है, ऊपर नीचे आ-जा सकती है, दाँये-बाँये जिधर चाहे उधर दौड़ सकती है, परन्तु उसे पानी से बाहर निकाल कर धरती पर ही नहीं, स्फटिक के फर्श पर भी रख दिया जाये, तो वह तड़पती रहेगी, पर एक इंच भी चल नहीं सकेगी। इसी प्रकार धर्म-द्रव्य के अभाव में न तो जीव ही गति कर सकता है, और न पुद्गल हा । अलोक में धर्म-द्रव्य का अभाव है, तो वहाँ जीव एवं पुद्गल का भी अभाव है। अधर्म-द्रव्य जीव और पुद्गल के ठहरने में निमित्त कारण है, सहायक-द्रव्य है । जैसे यात्रो यात्रा करते-करते थक जाता है, धूप एवं गर्मी से परेशान हो जाता है, तब रास्ते पर सघन छायादार वृक्ष को देखता है, और उसकी शीतल छाया में बैठ जाता है। वृक्ष न तो यात्री को बैठने का निमन्त्रण देता है, और न जबरदस्तो पकड़कर बैठाता ही है। यात्री स्वयं ही शीतल छाया को देखकर अपनो थकान और गर्मी को दूर करने के लिए अपनी यात्रा को स्थगित करके वृक्ष के नीचे बैठने का विचार करता है, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व और वह तुरन्त पथ को छोड़कर वृक्ष के नीचे आकर बैठ जाता है । उस समय जैसे वृक्ष उसके बैठने में सहायक होता है, उसी प्रकार अधर्म-द्रव्य जब जीव और पुद्गल चलते-चलते ठहरते हैं, तब वह उनके ठहरने में सहायक (Helper) होता है। उसके माध्यम से जीव और पुद्गल ठहर सकते हैं। __ इस प्रकार धर्म और अधर्म-दोनों द्रव्य स्वयं न तो चलने की क्रिया करते हैं और न ठहरने की, परन्तु चलने और ठहरने वाले द्रव्यों के सहायक (Helper) बनते हैं। जब हम बोलते हैं, तब हमारे शब्द सम्पूर्ण लोक में फैल जाते हैं। जब शब्द गति करते हैं, लोक में फैलते हैं, तब धर्म-द्रव्य उनके फैलने में (Help) सहायता करता है । धर्म-द्रव्य लोक तक सीमित है, इसलिए शब्द की गति करने की अपरिमित शक्ति होने पर भी वह लोक के बाहर नहीं जा सकता, क्योंकि वहाँ उसके फैलने में Helper (सहायक) द्रव्य नहीं है। ____ मैंने अभी आप से कहा था, कि सभी द्रव्य अपने आप में स्वतन्त्र हैं, और एक ही आकाश के प्रदेशों पर रहते हुए भी एक-दूसरे में मिलते नहीं, और न कभी अपने स्वभाव एवं गुणों का परित्याग करते हैं। एक द्रव्य तो दूसरे द्रव्य में परिणत नहीं होता, परन्तु एक द्रव्य के अनन्त गुण हैं, और एक-एक गुण की अनन्त पर्यायें हैं, और अनन्त गुणों की अनन्त-अनन्त पर्यायें हैं। वे सभी पर्यायें अपने आप में स्वतन्त्र हैं, एक द्रव्य की अनन्तअनन्त पर्यायें भी अपने से भिन्न पर्याय में नहीं मिलती। इतना होने पर भी एक-द्रव्य दूसरे द्रव्य का सहायक होता है, और उस पर उपकार करता है। जीव का स्वरूप अन्य द्रव्यों से भिन्न है, और वह अन्य द्रव्यों से सर्वथा भिन्न है। फिर भी वह अन्य द्रव्यों की सहायता की अपेक्षा रखता है। आकाश में वह अवकाश पाता है, धर्म-द्रव्य की सहायता से वह गति करता है, और अधर्म-द्रव्य के कारण वह स्थित होता है । अस्तु, निश्चय नय की दृष्टि से जीव अथवा आत्मा अपने स्वरूप में ही अवकाश पाता है, और अपने स्वभाव में ही गति करता है, रमण करता है, तथा अपने स्वभाव में ही स्थिर होता है, वह तीनों कालों में अपने स्वभाव में बना रहता है । परन्तु, बाहर में संसारी आत्मा ही नहीं, मुक्त आत्मा भी जिस स्थान पर स्थित है, वहाँ आकाश-प्रदेशों को घेरता ही है, मुक्त होते समय लोक के अग्रभाग तक गति करके पहुँचता है, और उस समय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और अधर्म-द्रव्य | २७ धर्म-द्रव्य सहायक होता है, और वहाँ पहुँच कर स्थित होता है, उस गति में अधर्म-द्रव्य सहायक बनता है, और पुद्गलों से मुक्त होकर सदा-सर्वदा के लिए अपने स्वरूप में स्थिर होता है-इस में पुद्गल एवं काल का सहयोग अपेक्षित है। निश्चय-दृष्टि से यह सत्य है, कि मुक्तआत्मा में केवल जीव द्रव्य ही है, परन्तु जिस लोक-आकाश के अग्रभाग पर वे स्थित हैं, वहाँ षड्द्रव्यों का अस्तित्व है ही। इसलिए षड्-द्रव्य के यथार्थ स्वरूप को समझे बिना, व्यक्ति अपने स्वरूप को नहीं समझ सकता है, और अपने स्वरूप अर्थात् जीव-द्रव्य को समझे बिना षड्-द्रव्यों का परिज्ञान नहीं कर सकता। इसलिए आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है-जो एक को जानता है, वह सबको जानता है और जो सबको जानता है, वह एक को जानता है "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥" Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश-द्रव्य 'स्व' की त्रिकालवर्ती सत्ता भगवान् महावीर ने कहा है, कि जो व्यक्ति एक को पूर्ण रूप से जानता है, वह विश्व के समस्त द्रव्यों एवं पदार्थों को जानता है । प्रत्येक द्रव्य के अनन्त गुण हैं, और प्रत्येक गुण के अनन्त पर्याय हैं । अतः किसी एक द्रव्य को पूर्ण रूप से जानने वाला व्यक्ति सभी द्रव्यों को और उनके समस्त पर्यायों को जान लेता है । जैसे 'मैं हैं' इस वाक्य में 'मैं' और 'हैं ये दो शब्द हैं । 'मैं' आत्मा का बोधक है, और 'हूँ' क्रिया-पद है। इसका अर्थ यह है, कि मेरा अस्तित्व है, मेरी सत्ता है । 'मैं हूँ' इस वाक्य से साधक को स्व-अस्तित्व का स्पष्ट बोध होता है। इससे यह अनुभव होता है, कि मैं अतीतकाल (भूतकाल) में था, वर्तमान में हैं और अनागत (भविष्यकाल) में रहूँगा। इससे सर्वप्रथम अपनी सत्ता में विश्वास होता है, श्रद्धा दृढ़ होती है। इसके बाद अपनी सत्ता का बोध या परिज्ञान होता है। अब यह प्रश्न उठता है, कि 'मैं हूँ' इससे सत्ता का बोध तो होता है, पर मैं हूँ कहाँ ? मैं बाहर में हूँ, या अन्दर में स्थित हूँ ? भगवान महावीर ने कहा, कि जब तुम बाह्य-पदार्थों में परिणमन करते हो, तब तुम बाहर में और जब अपने स्वरूप में परिणमन करते हो, तब अन्तर में अथवा अपने-आप में स्थित रहते हो। इसका अभिप्राय यह है, कि तुम किसी एक स्थान पर स्थित हो । परन्तु यहाँ भी समस्या का समाधान नहीं हुआ। यहाँ प्रश्न खड़ा हुआ, कि जहाँ हूँ वहाँ स्थित हूँ, या आगे पीछे हटता हूँ ? इसके उत्तर में कहा, कि तुम स्थित भी हो और गतिशील भी। तुम न तो सदा-सर्वदा गतिशील रहते हो, और न प्रतिक्षण स्थित ही रहते हो। इससे यह स्पष्ट हुआ, कि 'मैं' की सत्ता तीनों कालों में है। अनन्त भूतकाल में कोई भी क्षण ऐसा नहीं ( २८ ) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश-द्रव्य | २६ रहा, जिसमें 'मैं' की सत्ता न रही हो, वर्तमान में तो सत्ता है ही, और अनन्त भविष्य में भी कोई क्षण ऐसा नहीं होगा, जिसमें 'मैं' की सत्ता न रहेगी। इस प्रकार 'स्व' का अथवा आत्मा का अस्तित्व या आत्मा की सत्ता त्रिकालवर्ती है। जो एक को जानता है, वह सबको जानता है आत्म-द्रव्य के परिज्ञान में सभी द्रव्यों का परिज्ञान हो जाता है । आत्मा का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है, इससे जीव-द्रव्य (Soul) सिद्ध होता है। प्रत्येक द्रव्य आकाश में ही रहता है। पदार्थों को स्थान देना आकाश-द्रव्य (space) का काम है। मैं गतिशील हैं, इससे गति में सहायक धर्म-द्रव्य (medium of motion for soul and matter) का ज्ञान होता है; और मैं स्थिर भी होता हूँ, इस क्रिया से स्थित होने में सहायक अधर्म-द्रव्य (medium of rest for soul and matter) का ज्ञान होता है । मैं तीन काल में रहता हैं, इस वाक्य से काल-द्रव्य (time) का बोध होता है। अब रह जाता है, पुद्गल-द्रव्य (matter and energy)। परन्तु हम देखते हैं, कि हमारे शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है, एक भव के बाद दूसरे भव में-जब तक हम संसार में रहते हैं, परिवर्तन होता रहता है। इसका कारण क्या है ? यह परिवर्तन क्यों होता है ? इसका समाधान यह है, कि पुद्गल के साथ सम्बन्ध होने के कारण ही यह परिवर्तन होता है । आत्मा विभाव में परिणत रहने के कारण ही कर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करती है । इससे पुद्गल-द्रव्य का बोध होता है । इस प्रकार जब हम जीव-द्रव्य एवं उसके गुणों तथा पर्यायों को जानने का प्रयत्न करते हैं, तब षड्-द्रव्यों का सहज ही बोध हो जाता है। अतः एक को सम्पूर्ण रूप से जान लेने पर सबका ज्ञान हो जाता है, फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। कहने का अभिप्राय यह है, कि यह लोक ही षड्-द्रव्यमय नहीं है, प्रत्युत हमारे में भी षड्-द्रव्य हैं, और सम्पूर्ण लोक-आकाश में परिव्याप्त है । लोक-आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ द्रव्य का सद्भाव न हो। आकाश-द्रव्य असीम है छह द्रव्यों में सबसे अधिक व्यापक, विशाल, विराट् और सब द्रव्यों का आधारभूत द्रव्य आकाश है । अंग्रेजी में इसे sp::ce कहते हैं। भारतीय Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व दार्शनिकों ने पंच महाभूत माने हैं। उनमें से आकाश एक महाभूत है। आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य लोक-व्यापी हैं, लोक के बाहर इनका अस्तित्व नहीं है । एकमात्र आकाश द्रव्य ही लोक और अलोक सर्वत्र व्याप्त है । अतः वह अनन्त है । लोक और अलोक क्या है ? जहाँ लोक का, विश्व का अन्त होता है, ऊर्ध्व-लोक में जहाँ लोक के अग्रभाग में सिद्धजीव स्थित हैं, उसके आगे अलोक है। समस्त कर्मों से मुक्त स्वरूप में एवं स्वभाव स्थित सिद्धजीव लोक और अलोक के मध्य में स्थित हैं । लोक और अलोक की सीमा-निदर्शक दो द्रव्य हैं- १. धर्म और २. अधर्म । जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य गतिशील हैं। परन्तु उनकी गति और स्थिति वहीं होती है, जहाँ गति में सहायक धर्म (medium of motion) और स्थिति में सहायक अधर्म (medium of rest) द्रव्य का सद्भाव है। ये दोनों द्रव्य लोक-व्यापी हैं, अलोक में इनका अस्तित्व नहीं है। इसलिए जीव और पुद्गल भी लोक के आगे अलोक में गति नहीं कर सकते । कर्मों से मुक्त आत्मा में ऊर्ध्वगति करने की क्षमता होने पर भी लोकाकाश के आगे धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव होने से सिद्धजीव लोक के अग्रभाग में पहुँचकर स्थित हो जाते हैं। जीव एवं पद्गल लोक में ही स्थित हैं। अतः उन पदार्थों पर वर्तनेवाला काल भी लोक में ही व्याप्त है। इस प्रकार जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहीं तक लोक है, और वहीं तक अन्य द्रव्यों का अस्तित्व है। उसके आगे अलोक है, और वहाँ मात्र आकाश द्रव्य ही है। वहाँ आकाश की कोई सीमा एवं मर्यादा भी नहीं है। अतः अलोक की अपेक्षा आकाश अनन्त है, उसका अन्त नहीं है। इसलिए कहा गया है, कि आकाश-द्रव्य अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक और विशाल है। आकाश का स्वरूप आकाश का लक्षण अवकाश देना है। भगवान महावीर ने कहा है, जो सभी द्रव्यों को युगपत् अवकाश देता है, स्थान देता है, वह आकाशद्रव्य है । जो समस्त द्रव्यों का आधारभूत भाजन (पात्र-विशेष) है और सबको अपने में समाहित कर लेता है, वह आकाश है ।' आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में और आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकायसार में आकाश १. (अ) भायणं सव्व-दव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं । (आ) अवगाहणा लक्खणे णं आगास त्थिकाए। - उत्तराध्ययन, २८.६ -भगवतीसूत्र १३.४.४८१ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश-द्रव्य | ३१ की यही व्याख्या की है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है, कि अवकाश देना आकाश का गुण है-आकाशस्यावगाहः। इस प्रकार धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल-इन पाँचों द्रव्यों को अवकाश एवं स्थान देने वाला द्रव्य आकाश है । लोक में कोई स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ आकाश न हो । लोकव्यवहार में ऐसा कहा जाता है-जो ऊपर नीले रंग का आसमान दिखाई देता है, वह आकाश है। परन्तु यथार्थ में आकाश ऊपर ही नहीं है, अपितु सर्वत्र है । यह एक अखण्ड द्रव्य है, अमूर्त है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, और लोकालोकव्यापी है। यदि सर्वत्र आकाश न हो, तो व्यक्ति को भी और पदार्थों को भी रहने-ठहरने के लिए तथा गति करने के लिए स्थान ही नहीं मिलेगा। ऊपर जो नीला रंग दिखाई देता है, वह पुद्गलों का है, आकाश का नहीं। इससे स्पष्ट है, कि आकाश सर्वत्र व्याप्त है, और इसका अस्तित्व त्रिकालवर्ती है। यहाँ एक प्रश्न उठता है, कि लोक-आकाश असंख्यात प्रदेश-युक्त है ? जीव द्रव्य अनन्त है, पूद्गल भी अनन्त है, फिर असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त जीव और अनन्त-परमाणु कैसे समा सकते हैं ? आकाश का स्वभाव है, कि वह सबको अपने में समाहित कर लेता है। जैसे, एक गिलास पानी से भरा है, उसमें पानी की एक बूंद भी नहीं आ सकती। उसी में दस-पाँच बतासे डाल दें, तो उसमें समा जाते हैं, पानी के परमाण बतासों के पर. माणुओं को अपने में समाहित कर लेते हैं, उन्हें अलग से स्थान घेरने की आवश्यकता नहीं रहती । इसके लिए एक रूपक और भी दिया जाता है, कि एक कमरे में एक बल्ब का बटन दबाते (switch on करते) ही कमरे का एक-एक प्रदेश प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है, जरा भी स्थान प्रकाश से खाली नहीं रहता। उसी कमरे (room) में दूसरे-तीसरे या दस-बीस जितने भी बल्ब हैं, उनका बटन दबाते ही उनका प्रकाश भी उस कमरे में फैलता है। जिन आकाश-प्रदेशों पर प्रथम बल्ब के प्रकाश-परमाण फैले हुए हैं, उन्हीं प्रदेशों पर अन्य बल्बों के प्रकाश-परमाणु समा जाते हैं, न तो वे अलग स्थान को घेरते हैं, और न प्रथम बल्ब के प्रकाश के परमाणुओं को व्याघात पहुँचाते हैं। इसी प्रकार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को बिना व्याघात पहुँचाये उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर रहते हैं । अभिप्राय यह है, कि एक प्रदेश पर एक परमाणु रहता है, उसी पर असंख्य एवं अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है । इसलिए असंख्यात प्रदेशी लोक-आकाश में अनन्त जीव-द्रव्य और अनन्त परमाणु समाहित हो जाते हैं। कोई भी ऐसा द्रव्य Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व नहीं है, ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसे आकाश अवकाश एवं स्थान न देता हो । इस प्रकार आकाश एक है, अखण्ड है. परिणामी नित्य है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, अमूर्त है, अनन्त है - लोक में असंख्यात - प्रदेशी है और लोक के बाहर अथवा अलोक में अनन्त प्रदेशी है, एवं लोकालोकव्यापी है । लोक के बाहर अलोक में केवल एक ही द्रव्य है- आकाश । वहाँ शुद्ध आकाश के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है । आकाश और दिशा वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश की तरह दिशा भी स्वतन्त्र द्रव्य है । परन्तु दिशा की स्वतन्त्र सत्ता न होने से वह स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । सूर्योदय एवं सूर्यास्तको आधार मानकर उसकी अपेक्षा से लोक आकाश में ही पूर्व-पश्चिम उत्तर - दक्षिण एवं ऊर्ध्व - अधो दिशा तथा विदिशा की धारणा प्रचलित है । अतः दिशा आकाश द्रव्य के अन्तर्गत आ ही जाती है । दिशा का व्यवहार आकाश द्रव्य के एक भाग के लिए ही किया जाता है, इसलिए जैन दर्शन दिशा को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। आकाश के प्रदेशों की पंक्तियाँ वस्त्र के तन्तुओं की तरह क्रमबद्ध सब ओर फैली हुई हैं । एक परमाणु जितने आकाश को घेरता है, वह एक प्रदेश कहलाता है । इसी नाप के अनुसार लोक - आकाश के असंख्यात और अलोक - आकाश के अनन्तप्रदेश हैं । यदि पूर्व-पश्चिम आदि व्यवहार के आधार पर दिशा को स्वतन्त्र द्रव्य मानें, तो फिर पूर्व देश, पश्चिम- देश, उत्तर-देश आदि का व्यवहार भी करना होगा । इस आधार से देश - द्रव्य, प्रान्त द्रव्य, राष्ट्र-द्रव्य आदि अनेक द्रव्यों की कल्पना करनी होगी । इसलिए स्पष्ट है, कि दिशा स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, वह आकाश के अन्तर्गत ही है । आकाश का गुण जैन दर्शन के अनुसार आकाश का गुण अवकाश देना, स्थान देना है । परन्तु वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानता है । जैन-दर्शन इस मान्यता से सहमत नहीं है । क्योंकि शब्द भाषावर्गणा के पुद्गलों का बना हुआ स्कन्ध है, और पौद्गलिक होने के कारण वह मूर्त है । उसकी मूर्तता का प्रमाण यह है, कि वह श्रोत्र - इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है । इन्द्रियाँ मूर्त हैं, और वे मूर्त पदार्थों को ही ग्रहण करती हैं। दूसरी बात यह है, कि ट्रान्समीटर, टेपरिकार्डर, ग्रामोफोन, माइक, रेडियो आदि साधनों के द्वारा उन्हें जहाँ चाहें वहाँ सुना जा सकता है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश द्रव्य | ३३ . जैन-दर्शन इस विचार को स्वीकार करता है, कि बोलने के बाद शब्द (भाषावर्गणा के पुदगल) सम्पूर्ण लोक-आकाश में फैल जाते हैं। इस भूमण्डल पर भगवान् महावीर ने सर्वज्ञ अवस्था में तीस वर्ष तक उपदेश किया। तथागत बुद्ध ने भी वर्षों तक अपने विचारों का प्रचार एवं प्रसार किया। महात्मा गांधी को तो हममें से अनेक व्यक्तियों ने सूना ही है। हम सभी बोल रहे हैं । यह ध्यान में रखने की बात है, कि शब्द बोलते ही नष्ट नहीं हो जाते हैं, सर्वत्र फैल जाते हैं। परन्तु जहाँ-जहाँ उनको पकड़ने के साधन होते हैं, वहाँ हम उन्हें पकड़ कर सुन सकते हैं । एक व्यक्ति अमेरिका में रेडियो स्टेशन पर बोलता है, और रेडियो के माध्यम से हम यहाँ बैठे-बैठे उसके शब्द सुन सकते हैं । यदि हम चाहें, तो टेपरेकार्डर में शब्दों को रिकार्ड करके रख सकते हैं, और जब और जितनी बार चाहें सून सकते हैं । शब्द की तरह आकाश मूर्त नहीं है। उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी नहीं है । अतः अमूर्त आकाश का गुण अमूर्त ही हो सकता है, मूर्त नहीं । शब्द मूर्त है, अतः वह आकाश का गुण नहीं हो सकता । ध्वनि आकाश में फैलती है, क्योंकि उसे चारों ओर फैलने के लिए अवकाश एवं स्थान आकाश ही दे सकता है । परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि आकाश में फैलने के कारण शब्द को उसका गुण माना जाये । यदि इसी आधार पर उसे आकाश का गण माना जाये, तो सभी द्रव्य आकाश में रहते हैं, आकाश में ही स्थान पाते हैं, फिर सभी द्रव्य अथवा पदार्थ आकाश के गुण होने चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिए शब्द आकाश का गुण नहीं है। मूर्त और अमूर्त समस्त द्रव्यों को युगपत् अवकाश देना ही आकाश का गुण है। जब दो पदार्थों में टकराहट होती है, तब ध्वनि निकलती है, और जब वह ध्वनि गुफा, पहाड़ या गहरे कुएँ आदि स्थानों पर दीवारों से टकराती है, तब उसमें से प्रतिध्वनि आती है । यह टकराहट पुद्गलों में ही सम्भव है, क्योंकि वे रूपी हैं, मूर्त हैं । इसलिए वे एक-दूसरे के अवरोधक बनते हैं, और एक-दूसरे से अवरुद्ध भी होते हैं। अन्य जो द्रव्य अरूपी हैं, तथा अमूर्त हैं, वे न किसी को रोकते हैं, और न अन्य से अवरुद्ध होते हैं । अतः ध्वनि और प्रतिध्वनि के सिद्धान्त से यह स्पष्ट होता है, कि जिस रूप में हमारे शब्द ध्वनित होते हैं, ठीक उसी रूप में वे प्रतिध्वनित होते हैं। एक समय की बात है, कि एक ऋषि के आश्रम में एक राजकुमार पढ़ने आया । राजकुमार स्वभाव से विनम्र था । अध्ययन के समय एकाग्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व चित्त से अध्ययन करता, खेलने के समय खेलता, और सेवा के समय गुरु की सेवा-शुश्रूषा भी करता। एक दिन वह घूमने निकला और टहलताटहलता एक पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया। पहाड़ पर चढ़ने के बाद वहाँ उसे कोई भी व्यक्ति नजर नहीं आया। चारों ओर जंगल ही जंगल दिखाई पड़ रहा था। वहाँ का वातावरण उसे भयावह-सा लगने लगा। उसने सोचा, कि यदि वहाँ कोई भूत आ गया, तो क्या होगा? उसके मुंह से जोर की आवाज निकली, कि भूत है। उसी तरह की डरावनी प्रतिध्वनि उसे सुनाई दी, कि भूत है। राजकुमार ने उसके उत्तर में कहा-मैं तुमको पकड़ लूँगा, तो उसे तुरन्त प्रत्युत्तर मिला, कि मैं तुमको पकड़ लूंगा। अब तो राजकुमार घबड़ा गया, उसने सोचा कि भूत उससे ताकतवर है, और वह उसे अवश्य पकड़ लेगा। उसने भागने का विचार किया, और भागतेभागते कहा-मैं तुम्हें मारूंगा। अब तो राजकुमार का भय बहुत बढ़ गया, और वह दौड़ता-दौड़ता घबराई हालत में आश्रम पहुँचा। उसकी इस दशा को देखकर गुरु ने कारण जानना चाहा । कुछ शान्त होने के बाद धीरे-धीरे बातों ही बातों में गुरु को ज्ञात हो गया, कि पहाड़ पर अपनी ही प्रतिध्वनि सुनकर वह भयभीत हो गया है। दूसरे दिन गुरु राजकुमार एवं अन्य कुछ शिष्यों को लेकर उसी पहाड़ पर पहुँचे। गुरु ने राजकूमार से कहा, कि तुम कहो, कि 'यहाँ देव रहते हैं।' राजकुमार ने ज्यों हो यह ध्वनि की, तो उसे प्रतिध्वनि में यही सुनाई दिया। फिर गुरु के कहे अनुसार उसने कहा-'तुम मेरे मित्र हो, आओ हम प्रेम करें और मिल-जुलकर प्रेम से रहें।' यही प्रतिध्वनि सुनकर राजकुमार को आश्चर्य हुआ। उसने कहा 'गुरुदेव, आपकी कृपा से भूत यहाँ से भाग गया, और अब वह देव के रूप में मेरा मित्र हो गया।' गुरु ने कहा- 'वत्स ! बात यह है, कि तुम इस संसार में जैसी भाषा का प्रयोग करते हो, जैसा व्यवहार करते हो, वैसा ही उपहार तुम्हें मिलता है । जैसी तुम्हारी ध्वनि होगी, प्रतिध्वनि भी वैसी हो मिलेगी। यदि तुम भी दूसरों से, अपने साथियों से स्नेह, सद्भाव एवं मित्रता चाहते हो, तो तुम्हारी ध्वनि उसी रूप में ध्वनित होनी चाहिए, और व्यवहार भी तद्रूप होना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि ध्वनिप्रतिध्वनि आकाश का नहीं, पुद्गल का गुण है। लोक के बाहर आकाश तो है, पर वहाँ शब्द का अभाव है। यदि शब्द आकाश का गुण है, तो वह वहाँ भी होना चाहिए । इससे यह स्पष्ट होता है कि मूर्त शब्द अमूर्त आकाश में रहता है, फैलता भी है, स्थान भी पाता है, परन्तु वह उसका गुण नहीं है । वह तो मूर्त पुद्गल का ही गुण है । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश द्रव्य | ३५ सांख्य और वेदान्त-दर्शन में आकाश वेदान्त और सांख्य दर्शनों के अनुसार भी आकाश द्रव्य है । वैदिक विचारकों द्वारा सर्वशक्ति-सम्पन्न ईश्वर को स्वीकार कर लेने के कारण उन्हें अन्य द्रव्य की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं रही। फिर भी वेदान्त और सांख्य ने आकाश द्रव्य स्वीकार किया है। परन्तु उसकी स्वरूपविषयक मान्यता जैन-दर्शन से भिन्न है। वेदान्तसार में कहा गया है-ब्रह्म ही सत्य है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई भी पदार्थ सत् नहीं है। इसलिए वेदान्त-दर्शन आकाश को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, प्रत्युत ब्रह्म का विवर्त मानता है, और सांख्य-दर्शन उसे प्रकृति का विकार मानता है । वेदान्तदर्शन की मान्यता के अनुसार सत् एक है-ब्रह्म। उसके अतिरिक्त जो कुछ भासित होता है, वह भ्रम एवं अविद्या के कारण होता है, और वह सब ब्रह्म का विवर्त है। सांख्य-दर्शन के अनुसार विश्व में मूलतत्त्व दो हैंप्रकृति और पुरुष । प्रकृति एक है, और यह सम्पूर्ण सृष्टि उसका विकार है परन्तु यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है । प्रकृति जड़ है, मूर्त है, और आकाश अमूर्त है । अमूर्त एवं स्वतन्त्र द्रव्य होने के कारण वह मूर्त द्रव्य का विकार हो ही नहीं सकता। यदि उसे प्रकृति का विकार मान लें, तो वह न तो स्वतन्त्र द्रव्य ही रहेगा और न अमूर्त द्रव्य । इसी प्रकार ब्रह्म का विवर्त मानने पर भी उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। आँखों से दिखाई नहीं देने पर भी उसका अनुभव हमें प्रतिक्षण होता है, और उसका आधार पाकर ही हम इस विश्व में रह रहे हैं। इसलिए आकाश न तो ब्रह्म का विवर्त है, और न प्रकृति का विकार, वह एक स्वतन्त्र द्रव्य है। बौद्ध-दर्शन में आकाश बौद्ध दर्शन आकाश को असंस्कृत मानता है, और उसे अनावृत अर्थात् आवरणरूप मानता है ।1 असंस्कृत का अर्थ है-जिसमें उत्पाद-व्यय आदि न होते हों। बौद्ध-दर्शन, जो कि समस्त पदार्थों को क्षणिक मानता है, आकाश को उत्पाद-व्यय से रहित माने, यह समझ में नहीं आता। अभिधर्मकोश में भले ही आकाश का वर्णन अनावत के रूप में किया गया १. अभिधर्मकोश । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व हो, परन्तु वैशेषिकों ने उसे भावात्मक पदार्थ ही माना है । कोई भी भावात्मक पदार्थ बौद्ध-दर्शन के अनुसार उत्पादादि से शून्य कैसे हो सकता है ? यह तो हो सकता है, कि उसमें होने वाले उत्पादादि को हम देख न सकें, परन्तु आकाश के स्वरूपभूत उत्पादादि से इन्कार नहीं किया जा सकता। इप्ती प्रकार आकाश आवरणरूप भी नहीं है । न वह किसी भी पदार्थ को आवृत करता है. और न अन्य किसी द्रव्य या पदार्थ के द्वारा आवृत होता है। वास्तव में आकाश एक भावात्मक द्रव्य है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, और अर्थ-क्रियाकारी संस्कृत द्रब्य है। आकाश अनन्त है विज्ञान के अनुसार स्पेस एक शुद्ध द्रव्य है। उसमें न तो वर्ण है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। जैन दर्शन ने आकाश को दो भागों में विभक्त किया है-लोक-आकाश और अलोक-आकाश । लोक-आकाश सीमित है, सान्त है, और अलोक-आकाश असीम एवं अनन्त है । गणितविज्ञान में निष्णात एच. वार्ड भी इस विचार को स्वीकार करते हुए लिखते हैं-- सम्पूर्ण पदार्थ सम्पूर्ण आकाश की एक सीमा में रहते हैं, इसलिए विश्व सान्त है । इससे यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जिस सीमा में पदार्थ रहते हैं, उसके आगे आकाश नहीं है। लेकिन यह सम्पूर्ण आकाश इस प्रकार घुमावदार (कर्ड) है, कि प्रकाश की एक किरण आकाश की एक सीधी रेखा में लम्बे समय तक यात्रा करने के बाद पुनः अपने बिन्दु पर आ जाएगी । गणितज्ञों का अनुमान है कि प्रकाश की एक किरण को आकाश के इस चक्कर को पूरा करने में दश ट्रिलियन वर्ष से कम नहीं लगते। इससे यह प्रमाणित होता है, कि आकाश ससीम है, सान्त है। इसी पुस्तक में वार्ड ने आगे लिखा है, कि यह पूर्णतः अकथनीय, अचिन्तनीय inconceivable है, कि कोई भी खगोल विद्या में निपूण व्यक्ति आकाश की सीमा boundary of space को लांघकर कूद सके और देख सके, कि वहाँ आकाश नहीं है। इसलिए गणितज्ञ यह निश्चय नहीं कर पाए कि आकाश सान्त है, या अनन्त । H. ward का कहना है, कि जब हम यह कहते हैं कि space is finite तो इसका यह अर्थ नहीं है, कि इस विश्व में जिस सीमित आकाश का हम अनुभव करते हैं, उसके आगे वह 1 Exploring the Universe, by H. Ward, p. 16. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश द्रव्य | ३७ है ही नहीं । हम इतना ही कह सकते हैं, कि विश्व को जो सीमा हमें ज्ञात है, उसके आगे आकाश का जो भाग है, वह अज्ञात है ।। इस सम्बन्ध में आइन्स्टीन के सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले महान वैज्ञानिक प्रो० एडिंगटन ने अपनी पुस्तक the Nature of the Physical World के पृष्ठ ८० पर लिखा है, कि मैं सोचता है, कि विचारक दो प्रश्नों के साथ आकाश के सम्बन्ध में कल्पना करते हैं-~-is there an end to space ? क्या आकाश का एक अन्त है ? if space comes to an end, what is beyond the end ? यदि आकाश का एक अन्त है, तो क्या वह अन्त सीमा में आबद्ध है ? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों की एक मान्यता यह है, कि- there is no cnd, but space beyond space for ever आकाश का कोई अन्त नहीं है, आकाश सदा आकाश की सीमा में आबद्ध है। सापेक्षवाद-सिद्धान्त के पूर्व यह मान्यता थी, कि आकाश अनन्त है । लेकिन कोई भी व्यक्ति अनन्त आकाश को प्राप्त नहीं कर पाता। इस भौतिक जगत में हमारा सम्बन्ध सीमित आकाश से ही होता है, अनन्त से नहीं । इस सम्बन्ध में आइन्स्टीन का सिद्धान्त यह है कि--is space infinite or does it come to an end ? क्या आकाश अनन्त है, या क्या यह अन्त को प्राप्त होता है ? इसका उत्तर उसने जैन-दर्शन की तरह सापेक्ष दृष्टि से दिया है । उसने कहा, कि वह न एकान्त रूप से अनन्त है, और न सान्त है। आकाश ससीम है, लेकिन उसका कोई अन्त भी नहीं है। आकाश ससीम है, लेकिन सीमा से आबद्ध नहीं है। विज्ञान का यह सिद्धान्त जैनदर्शन द्वारा मान्य लोक-आकाश और अलोक-आकाश के निकट है। क्योंकि लोक-आकाश एक सीमा में आबद्ध है, उसका अन्त भी है, परन्तु अलोकआकाश की कोई सीमा नहीं है-वह अन्त रहित है, अनन्त है। इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है, कि विश्व में, लोक में, व्याप्त सभी द्रव्यों में आकाश द्रव्य सबसे अधिक विराट, विस्तृत और व्यापक है । वह विश्व में तो सर्वत्र है ही, पर उसके बाहर-जिसे जैनदर्शन अलोक कहता है, शुद्ध आकाश ही है । यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है, कि जैन-दर्शन की मान्यता है, कि आकाश का गुण अवकाश देना है। परन्तु लोक के बाहर जब अन्य कोई द्रव्य है ही नहीं, तब वहाँ उसका वह 1 Exploring the Universe by H. Ward, p. 266. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्व गुण क्यों नहीं रहता ? गुण गुणी में सर्वत्र रहता है, परन्तु अलोक में आकाश द्रव्य जो गुणी है, अपने अवकाश देने के गुण से रहित कैसे रहेगा ? ऐसी बात नहीं है । गुण, गुणी में सदा काल और सर्वत्र रहता है । द्रव्य कभी भी गुण एवं पर्याय से रहित नहीं होता । अलोक में स्थित आकाश भी अपने अवकाश देने के गुण से युक्त है । अवकाश देना उसका गुण या स्वभाव है । यह बात अलग है, कि अलोक में अवकाश या स्थान लेने वाला कोई पदार्थ अथवा द्रव्य उपस्थित न हो। परन्तु वह सदा अवकाश देने की योग्यता एवं क्षमता से युक्त है । अवकाश देना उसका अपना स्वभाव है । आकाश उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है । क्योंकि वह एक द्रव्य है । द्रव्य सत् होता है, और सत् वह है, जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाला है । आकाश द्रव्य रूप से नित्य है, परन्तु पर्याय रूप से सदा परिवर्तित होता रहता है । अमूर्त द्रव्य होने के कारण उसके गुण एवं पर्याय भी अमूर्त हैं, इसलिए उसमें होने वाला परिणमन या परिवर्तन इन आँखों से भले ही दिखाई न दे, पर होता अवश्य है । आकाश सब द्रव्यों को अवकाश देता है, सब द्रव्य आकाश में ही स्थित हैं, फिर भी वह अपने स्वरूप एवं अपने स्वभाव का कभी भी परित्याग नहीं करता । सबके साथ रहते हुए भी उसका अपना अस्तित्व स्वतन्त्र है, और उसका परिणमन अपनी ही पर्यायों में होता है । द्रव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि वह अपने स्वरूप में ही रहता है, 'पर' रूप में कदापि परिवर्तित नहीं होता, न कभी हुआ है, और न कभी होगा । C Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्रव्य षड्-द्रव्य में काल जैन-आगम-साहित्य में लोक को षड्-द्रव्यात्मक कहा है। षड्द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल, में सम्पूर्ण लोक में स्थित समस्त पदार्थ समाविष्ट हो जाते हैं । दुनिया में, विश्व में ऐसा एक भी पदार्थ शेष नहीं रहता, जो षड्-द्रव्य से बाहर रहता हो। षड्-द्रव्यों में से काल के अतिरिक्त पाँच द्रव्यों के लिए आगमों में पंचास्तिकाय शब्द का भी प्रयोग मिलता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में और आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकायसार में उक्त पाँच द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है । अन्य आचार्यों ने भी इनके लिए अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है। अस्तिकाय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । पाँच द्रव्यों में धर्म, अधर्म और जीव असंख्यात प्रदेशों से युक्त द्रव्य हैं। आकाश अनन्त प्रदेशों से युक्त है। क्योंकि अलोक में जो आकाश है, वह अनन्त प्रदेशी है और लोक में स्थित आकाश असंख्यात प्रदेशी है। इसलिए आकाश को सान्त भी कहा है और अनन्त भी। पुद्गलों के स्कन्धों का आकार एक जैसा नहीं है, उनके विभिन्न प्रकार हैं। इसलिए उनमें प्रदेशों की संख्या भी एक-सी नहीं है। परन्तु इन पाँच द्रव्यों की तरह काल द्रव्य भी स्वतन्त्र है, परन्तु वह प्रदेशों के समूह रूप नहीं है। अन्य द्रव्यों की तरह काल भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है और लोक के एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु रहे हुए हैं । ये कालाणु अदृश्य (Invisible) हैं, आकार रहित हैं और निष्क्रिय (Inactive) हैं। आगमों में एवं द्रव्यसंग्रह तथा तत्त्वार्थसार आदि ग्रन्थों में एक उपमा देकर बताया है कि कालाणु रत्नों की राशि की तरह प्रत्येक आकाश प्रदेश पर रहे हुए हैं, और संख्या की दृष्टि से वे असंख्य (Count ( ३६ ) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्व less in nun ber) हैं । रत्नों की राशि की तरह की उपमा केवल समझाने के लिए एवं यह बताने के लिए दी है कि जिस प्रकार रत्न परस्पर एकदूसरे में नहीं मिलते, उसी प्रकार कालाणु भी एक-दूसरे में नहीं मिलते हैं । परन्तु रत्नों की तरह न तो उनका आकार ही होता है, और न उनमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ही होता है । वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श - उन पदार्थों में होता है, जो मूर्त हैं, आकार-प्रकार से युक्त हैं । इस प्रकार काल, प्रदेशों के समूह से रहित है । अतः उसे अस्तिकाय नहीं कहा है। आगमों में काल की परिभाषा जैन दर्शन में द्रव्य को सत् कहा है और सत् वह है- जो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और सदा स्थित भी रहता है । उत्पाद, व्यय एवं धीव्य तीनों एक ही समय में होते हैं । इस प्रकार लोक में स्थित सभी द्रव्यों के उत्पादादि रूप परिणमन में अथवा उनके पर्यायान्तर होने में जो द्रव्य सहायक होता है, उसे 'काल- द्रव्य' कहते हैं । यह स्वयं अपनी पर्यायों में परिणमन करते हुए, अन्य द्रव्यों के परिवर्तन या परिणमन में तथा उन द्रव्यों में होने वाले उत्पाद, व्यय और स्थायित्व में सहायक होता है, निमित्त बनता है, माध्यम ( Medium) बनता है और विश्व में सैकेन्ड, मिनिट, घण्टा, दिन-रात, सप्ताह, महिना, वर्ष, युग, शताब्दी आदि व्यवहार रूप काल में निमित्त बनता है । यह धर्म-अधर्म द्रव्यों की तरह लोकव्यापी एक अखण्ड द्रव्य नहीं है । क्योंकि समय-भेद की अपेक्षा से इसे प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक कालाणु के रूप में अनेक माने बिना काल का व्यवहार हो नहीं सकता । क्योंकि भारत और अमरीका में दिन-रात एवं तारीख आदि का अलग-अलग व्यवहार उन उन स्थानों के काल-भेद के कारण ही होता है । यदि काल एक अखण्ड द्रव्य होता, तो सर्वत्र सदा एकसही समय रहता और दिन-रात भी सर्वत्र एक ही समय पर होते । एक और अखण्ड द्रव्य स्वीकार करने पर काल-भेद कथमपि सम्भव नहीं हो सकता । परन्तु काल-भेद स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । भारत में जिस समय दिन होता है, उस समय अमरीका में रात होती है और जिस समय भारत में रात होती है, तब अमरीका में सूर्य चमकता है । २२ जून को जब भारत में चौदह घण्टे का दिन और दस घण्टे की रात होती है, तब नार्वे देश के ओखलो प्रदेश में चौबीस घण्टे सूर्य की सुनहली धूप नजर आती है, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल द्रव्य | ४१ और २२ दिसम्बर को जब भारत में चौदह घण्टे की रात और दस घण्टे का दिन होता है, तब ओखलो चौबीस ही घण्टे रात्रि के अन्धकार में डूबा रहता है। जब वायुयान एवं पानी के जहाज यूरोप से भारत की ओर आते हैं या भारत से यूरोप की यात्रा पर जाते हैं, तब जिस समय वे भूमध्य रेखा पर पहुँचते हैं, उस समय तुरन्त वे अपनी-अपनी घड़ियों के समय और केलेण्डर की तारीख को बदल लेते हैं। इस प्रकार का भेदप्रधान व्यवहार काल को अखण्ड न मानकर खण्ड रूप मानने पर ही हो पाता है। काल और समय आगम-साहित्य में काल के लिए दो शब्दों का प्रयोग मिलता हैकाल और समय । काल स्थूल है और समय सूक्ष्म है। काल प्रवाह रूप है, समय प्रवाह से रहित है। काल अनन्त है और समय उसका सबसे छोटा हिस्सा है, जिसके दो भाग नहीं हो सकते। अतीत की अपेक्षा से अनन्त-काल व्यतीत हो चुका और अनागत की दृष्टि से अनन्त-काल धीरेधीरे क्रमशः आने वाला है परन्तु समय में भूत और भविष्य अथवा अतीत और अनागन के भेद को अवकाश ही नहीं है। समय, वर्तमान काल का बोधक है। वर्तमान-काल मात्र एक समय का होता है। आगमों में समय का माप इस प्रकार बताया है-एक परमाणु को एक आकाश-प्रदेश पर से दूसरे आकाश-प्रदेश पर जाने में जितना समय (Time) लगता है, वह एक समय है। इसे समझाने के लिए आचार्यों ने यह उदाहरण भी दिया है कि हमारी आँखों की पलकें झपकती रहती हैं, वे खुलती और बन्द होती रहती हैं। आँख के झपकने में अथवा खुलने और बन्द होने में जो समय लगता है, उसमें असंख्यात समय बीत जाते हैं। दूसरा उदाहरण यह भी दे सकते हैं-कमल के हजार पत्तों को क्रमशः एक-दूसरे के ऊपर रख कर एक तीक्ष्ण नोंकवाली बड़ी सुई को उन पर रखकर जोर से दबाएं तो पलक झपकते ही या क्षण भर में वह सुई हजारों कमल-पत्रों को छेद कर एक सिरे से दूसरे सिरे पर पहुँच जाती है। परन्तु जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार इस प्रक्रिया में एक-दो या दस-बीस नहीं, असंख्यात समय लगते हैं। समय इतना सूक्ष्म है कि हम उसे देख नहीं सकते । परमाण रूपी है, मूर्त है, वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त है, फिर भी हम उसे आँखों से देख नहीं सकते। तब समय, जोकि अरूपी है, अमूर्त है और वर्णादि से रहित है, उसे तो हम तब तक ख नहीं सकते, जब तक सर्वज्ञ नहीं बन जाते । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व केवलज्ञान में कोई भी पदार्थ एवं द्रव्य - भले ही वह कितना ही सूक्ष्म क्यों न हों, अज्ञात नहीं रहता, अदृश्य नहीं रहता । अतः समय को हम देख नहीं सकते, पर सर्वज्ञ देख सकते हैं । काल का लक्षण और पुद्गल पर का उपकार है ।" आगम में काल का लक्षण 'वर्तना' कहा है । 1 द्रव्यों के परिणमन में, परिवर्तन में काल सहायक आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि जीव वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि में काल द्रव्य में परिवर्तन, परिणमन आदि जो कार्य होते हैं, वे सब काल के निमित्त से होते हैं । गोम्मटसार में भी लिखा है कि द्रव्य काल के कारण ही निरंतर अपने स्वरूप में रहते हुए द्रवित होते हैं, प्रवाहमान रहते हैं । विश्व में स्थित षड्-द्रव्यों में- जो सत् हैं, उनका सतत प्रवाह रूप में रहते हुए भी अपने स्वरूप में स्थित रहना और सभी द्रव्यों में निरन्तर परिवर्तन होनाजो परिलक्षित होता है, वह काल के कारण ही होता है । यह काल-द्रव्य का ही गुण है कि उसके कारण अन्य द्रव्यों में परिवर्तन (Change) होता है | परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि काल ( Time ) कभी भी अन्य द्रव्यों में परिवर्तित नहीं होता और न वह अन्य द्रव्यों को अपने रूप में बदलता है । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने आप में स्वतन्त्र है, वह अपने से भिन्न किसी भी द्रव्य में न स्वयं मिलता है और न दूसरे द्रव्य को अपने रूप में परिणत करता है । कोई भी द्रव्य अपने से भिन्न द्रव्य को बदल नहीं सकता, उसमें परिवर्तन नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपनी ही पर्यायों में परिणमन करता है । 3 १ वत्तना लक्खणो कालो । २ तत्त्वार्थ सूत्र, ५, २२. ३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड | द्रवित होना, परिणमन करना यह द्रव्य का स्वभाव है । काल उस परिणमन एवं परिवर्तन में सहायक बनता है, निमित्त रूप से रहता है । काल के कारण पदार्थ नये से पुराना होता है, पुरानेपन के बाद नष्ट हो कर पुनः नया बनता है अर्थात् वस्तु का पूर्व आकार नष्ट होता है और वह नये आकार को ग्रहण करती है । परन्तु इससे द्रव्य का विनाश नहीं जीव, पुद्गल आदि (1 Helper ) द्रव्य है । ( - उत्तराध्ययन सूत्र, २८.१०. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल द्रव्य । ४३ होता - वह दोनों आकारों में विद्यमान रहता है। जैसे आयु कर्म का क्षय होने पर मनुष्य पर्याय नष्ट होती है और देव-आयु का उदय होने के कारण देव पर्याय उत्पन्न होती है । परन्तु मनुष्य पर्याय के समय जो जीव द्रव्य था, देव पर्याय के समय भी उसका अस्तित्व बना रहता है । कहने का अभिप्राय यह है कि द्रव्य की पर्यायों के परिवर्तन में काल-द्रव्य सहायक है, परन्तु काल द्रव्य का निमित्त पाकर सभी द्रव्यों की पूर्व पर्याय का नाश होता है और उत्तर-पर्याय उत्पन्न होती है, इसके साथ द्रव्य अपने स्वरूप में सदा विद्यमान रहता है । के कर्मयोगी श्री कृष्ण ने भी गीता में यही कहा है कि आत्मा की न तो कभी मृत्यु होती है और न उसका जन्म होता है । मृत्यु और जन्म भव का परिवर्तन मात्र है । जैसे वस्त्रों जीर्ण होने पर व्यक्ति जीर्ण वस्त्र को उतारकर फेंक देता है और नये वस्त्र को धारण कर लेता है । उसी प्रकार आयु-कर्म के समाप्त होते ही आत्मा एक भव के शरीररूप वस्त्र का परित्याग करके, दूसरे भवरूपी नये वस्त्र को धारण करती है । परन्तु भव-नाश के साथ आत्मा नाश - विनाश नहीं होता । उसका अस्तित्व इस भव के पूर्व अनन्त अतीत काल में भी था, इस भव में - वर्तमान में है और इस भव के अनन्तर अन्य भवों में अथवा अनन्त का अनागत-काल में भी रहेगा । चार्वाक दर्शन को छोड़कर शेष सभी भारतीय दर्शन आत्मा के अस्तित्व को तीनों काल में स्वीकार करते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य अपने द्रव्यत्व अथवा अपने स्वरूप की अपेक्षा ध्रुव है, नित्य है, परन्तु पर्यायत्व की अपेक्षा प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहा है और अनन्त अनागत काल में भी परिवर्तित होता रहेगा । काल अपने स्वभाव के अनुरूप किसी द्रव्य के प्रवाह को निरन्तर प्रवहमान करने की योग्यता नहीं रखता । द्रव्य की पर्यायों में परिणमन कराना यह काल का स्वभाव नहीं है । परन्तु जैन दर्शन उसी द्रव्य को काल कहता है, जो द्रव्य अपने स्वभाव के अनुरूप अपनी पर्यायों में निरन्तर परिणत होता रहता है, उसमें सहायक बनना काल का कार्य है । जिस प्रकार मशीन के चक्र के मध्य में लगी हुई कील (Pin ) चक्र ( Wheel) को चलाती नहीं है, फिर भी उसका होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । यदि चक्र में पिन न हो, सहायक के रूप में उसकी उपस्थिति न हो, तो चक्र घूम ही नहीं सकता । पिन चक्र को चलाती एवं घुमाती नहीं है, पर उसके घूमने में वह सहायक अवश्य है । इसी प्रकार काल-द्रव्य, द्रव्य में Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व होने वाले निरन्तर परिवर्तन में सहायक है । C. R. Jain ने Key of Knowledge में लिखा है " विश्व में ऐसा कोई दर्शन नहीं, जो पदार्थ में रहे हुए निरन्तरता के तत्त्व से अनभिज्ञ हो, फिर भी इस रहस्य एवं पहेली को हल करने में सफल नहीं हो सका । विश्व के अधिकांश दर्शन काल ( Time ) को केवल पर्यायवाची शब्द ( Synonymous) के रूप में जानते हैं, परन्तु उसके वास्तविक स्वभाव (True nature ) को समझने में वे प्रायः असफल ( Fail) रहे हैं । आज भी बहुत से विचारक एवं दर्शन तो द्रव्यों के अस्तित्व की सूचि के आधार पर काल की लम्बाई को नापते हैं, और उसे उसी रूप में जानते हैं । परन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि सिर्फ काल के कारण पदार्थ निरन्तर अपनी पर्यायों में बहता रहता है, द्रवित होता रहता है, और उसके आकार में भी परिवर्तन आता है । काल का प्रथम गुण यह है कि वह निरन्तर प्रवाह का स्रोत है, परिणमन में सहायक कारण है । इसकी दूसरी विशेषता यह है कि काल एक प्रकार की शक्ति है, जो पदार्थों में होने वाले परिवर्तन को क्रमबद्ध रखती है ।" फ्रेंच दार्शनिक बोसिन ने घोषणा की थी, 'पदार्थों में जो क्रान्ति एवं परिवर्तन आता है, उसमें काल आवश्यक तत्त्व है । काल के बिना (Without time element) वस्तुओं में परिवर्तन होना पूर्णतः असम्भव है ।' जैन दर्शन भी इस सत्य-तथ्य को स्वीकार करता है कि काल-द्रव्य केवल समय - नापने का ही साधन या माध्यम नहीं है, उसका गुण एवं स्वभाव यह है कि द्रव्य के द्रवित होने में, परिणमन होने में द्रव्य की पर्यायों के परिवर्तन में सहायक होना । वैशेषिक दर्शन की मान्यता वैशेषिक दर्शन अपने द्वारा मान्य नव द्रव्यों में काल को भी एक द्रव्य मानता है । उसकी मान्यता के अनुसार काल एक नित्य और व्यापक द्रव्य है । परन्तु यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है, न तर्कसंगत ही है और न अनुभवसिद्ध ही है । क्योंकि नित्य और एक होने के कारण उसमें स्वयं में अतीत, वर्तमान और अनागत त्रि-काल बोधक भेद नहीं हो सकता और तब उसके निमित्त को माध्यम मानकर अन्य द्रव्यों एवं पदार्थों में अतीतादिभेदों को कैसे नापा जा सकता है ? द्रव्य में जो परिणमन होता है, वह किसी समय में ही होता है, जो परिणमन हो चुका, वह भी किसी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्रव्य | ४५ समय विशेष में हुआ था और जो परिणमन होगा, वह भी किसी समय विशेष में ही होगा । समय के बिना परिणमन को वर्तमान, अतोत और अनागत काल से सम्बद्ध कैसे कहा जा सकता है ? कहने का अभिप्राय यह है कि प्रत्येक आकाश प्रदेश पर द्रव्यों में जो विलक्षण परिणमन हो रहे हैं, उसमें साधारण निमित्त काल है, वह अणु रूप है। उसका सबसे छोटा रूप समय है। बौद्ध-दर्शन को मान्यता बौद्ध-दर्शन काल को स्वभाव सिद्ध स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता, उसकी मान्यता के अनुसार काल मात्र व्यवहार के लिए कल्पित है, वह प्रज्ञप्ति मात्र है। परन्तु हम अतीत, वर्तमान और अनागत का जो व्यवहार करते हैं, वह केवल काल की कल्पना मात्र नहीं हो सकती। क्योंकि मुख्य कालद्रव्य के बिना हम उसका व्यवहार भी नहीं कर सकते। जैसे व्यक्ति में शेर का उपचार करते हैं, वह मुख्य शेर के सद्भाव में ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार भूत, भविष्य और वर्तमान कालिक व्यवहार से मुख्य काल का सद्भाव स्पष्ट सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों की तरह वह भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। काल के भेद हम काल को सैकण्ड, मिनट, घण्टे, दिन-रात, वर्ष आदि के रूप में जानते हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के रूप में उसे तीन भागों में भी विभाजित करते हैं। __ आगमों में अन्य प्रकार से भी काल का विभाजन किया हैनिश्चय-काल और व्यवहार-काल । व्यवहार-काल चन्द्र और सूर्य की गति पर आधारित है, उसी के अनुसार सैकन्ड, मिनट, घण्टे, दिनरात, पक्ष, महिना, वर्ष, युग, शताब्दी, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि के रूप में काल-चक्र का विभाजन करते हैं। वैदिक-परम्परा में सत्युग, द्वापर, त्रेता एवं कलियुग आदि के रूप में व्यवहार-काल का वर्णन मिलता है। इस व्यवहार-काल की अपेक्षा से हो इसे मनुष्य क्षेत्र अथवा ढाई-द्वीप में ही माना है। व्यवहार-काल लोक-व्यापी नहीं है। क्योंकि जितने लोक में सूर्य और चन्द्र गतिशील हैं, उतने ही क्षेत्र में १. अदृशालिनी, १, ३, १६ । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ / जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व व्यवहार-काल का उपयोग होता है, उसके बाहर नहीं। परन्तु लोक का एक भी ऐसा आकाश-प्रदेश नहीं है, जहाँ काल-द्रव्य न हो। व्यवहार-काल भले ही वहाँ न हो, निश्चय-काल लोक में सर्वत्र व्याप्त है। जिसे हम काल कहते हैं, वह व्यवहार जगत की वस्तु है। परन्तु काल का जो सबसे छोटा अंश है, जिसके दो विभाग नहीं होते, उसे समय कहा है । एक परमाण लोक-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाता है, उसमें जितना समय लगता है, उसे एक समय कहा है। समय, निश्चय जगत की वस्तु है । वह लोक में सर्वत्र व्याप्त है । लोक में व्याप्त षड्-द्रव्यों की पर्यायों में प्रतिक्षण जो परिणमन होता है, उसमें समय ही सहायक है । यदि समयरूप काल का ढाई-द्वीप या मनुष्य क्षेत्र से बाहर अभाव मान लिया जाए, तो वहाँ किसी भी द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं रहेगा । क्योंकि द्रव्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अपनी पर्यायों में द्रवित होता रहता है। उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है, उसकी पुरातन पर्याय का नाश होता है और नयी पर्याय उत्पन्न होती है । परिणमन द्रव्य का स्वभाव है और समय के माध्यम के बिना वह कथमपि सम्भव नहीं है । अतः समय सर्वत्र व्याप्त है । जैन-दर्शन इस बात को स्वीकार करता है कि समय रूप कालाणु असंख्यात प्रदेश वाले लोक-आकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित हैं, सभी कालाणु स्वतन्त्र हैं, वे एक-दुसरे में मिलते नहीं हैं। यदि एक कालाणु दूसरे कालाणु में अथवा एक समय दूसरे समय में मिल जाए, तो फिर वे एक ही हो जाएँगे, उनमें अनेकत्व नहीं रहेगा। अतः स्वभाव से वे एकदूसरे से अलग हैं । सम्पूर्ण विश्व कालाणुओं से परिपूर्ण है, लोक-आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं, जो इनसे शून्य हो। पदार्थ-विज्ञान की दृष्टि से (In a static condition) ये कालाणु दृष्टिगत नहीं होते हैं, आकार रहित हैं, निष्क्रिय हैं और संख्या में गिने नहीं जा सकते (Countless) हैं । इस प्रकार निश्चय काल सर्वत्र है और वह अनन्त है। क्योंकि पर्यायों में परिणमन अनन्त काल से होता आ रहा है, वर्तमान समय में हो रहा है और अनन्त अनागत काल में होता रहेगा। पर्यायों में होने वाला परिवर्तन अनादि-अनन्त है, इस अपेक्षा से समय भी अनन्त है। समय का अस्तित्व अथवा काल-द्रव्य का अस्तित्व लोक में हो है, अनोक में नहीं । अनार में केवल शुद्ध आकाश (Only pure space) है, फिर भी चारों ओर से लोक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल-द्रव्य | ४७ को घेरे हुए है, अतः उसके लिए भी यह प्रयोग किया जाता है कि अलोक में स्थित आकाश त्रि-कालवर्ती है, अनन्त समय से वह है और अनन्त समय तक रहेगा। वैज्ञानिक दृष्टि में काल जैन-दर्शन की तरह विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि प्रत्यक्ष या व्यवहार-काल (Apparent-time) के पीछे निश्चय अथवा यथार्थ काल (Real-time) भी है। प्रो० एडिनाटन का कहना है-"Whatever may be time deJure-जो कुछ भी हो काल नियमानुसार है ।" ज्योतिष विज्ञानवेत्ता रोयल का कहना है - "Time is Time de-facto-काल कार्य से अथवा यथार्थ में काल है।" महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन भी काल को वास्तविक स्वीकार करता है और वह उसके अस्तित्व को सम्पूर्ण लोक में मानता है। काल के सम्बन्ध में आइन्स्टीन की मान्यता यह है-"Time and space are mixed up in a rather strange way-काल और आकाश वास्तव में आश्चर्यजनक रास्ते से एक-दूसरे में मिल गए हैं।"1 वास्तव में कोई भी द्रव्य अपने से भिन्न दूसरे द्रव्य में नहीं मिलता है। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार एक द्रव्य की अनन्त-अनन्त पर्यायें भी अपने से भिन्न दूसरी पर्याय में नहीं मिलती। संसार अवस्था में आत्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध एक-सा दिखाई देता है, फिर भी आत्मा का एक भी प्रदेश, एक भी गुण और एक भी पर्याय पुद्गल के परमाणुओं, उसके गुणों और उसके पर्याय में नहीं मिलते हैं। अतः आकाश-द्रव्य न तो काल के रूप में परिणत होता है और न काल-द्रव्य आकाश के रूप में । दोनों का परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में ही होता है। फिर भी आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जो कालाणु से शून्य हो। इस दृष्टि से काल आकाश में मिला हआ-सा परिलक्षित होता है। इस अपेक्षा से माना जाए, तो जैन-दर्शन भी इसे स्वीकार करता है कि आकाश का एक-एक प्रदेश न तो भूत काल में कालाणु से शून्य रहा है, न वर्तमान में वह कालाणु से शुन्य है और न भविष्य में वह कालाणु से शून्य होगा। 1. The Nature of the Physical world, P. 36. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व काल, पुद्गल और जीव मैं आपको पहले बता चुका हूँ कि षड्-द्रव्यों में जीव और अजीव, चेतन और जड़-दो द्रव्य मुख्य हैं। जीव के अतिरिक्त पाँचों द्रव्य अजीव हैं, अचेतन हैं। आगम में अजीव को दो प्रकार का बताया है-रूपी और अरूपी या मूर्त और अमूर्त । धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चारों द्रव्य अरूपी हैं, अमूर्त हैं । केवल पुद्गल-द्रव्य ही रूपी एवं मूर्त हैं । मैं अभी आपको काल के सम्बन्ध में बता रहा था कि अरूपी एवं अमूर्त द्रव्यों की पर्यायों में जो परिणमन होता है, उसमें काल-द्रव्य सहायक है, परन्तु उस का सीधा असर जीव और पुद्गल पर होता है। व्यवहारकाल का प्रभाव जीवों और पृदगलों पर ही पड़ता है। इसलिए महान् वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने कहा है-“यदि विश्व में पदार्थ (Matter) नहीं होता, तो आकाश और काल-दोनों नष्ट हो जाते। पदार्थ के अभाव में हम काल और आकाश को स्वीकार नहीं करते। यह पदार्थ है, जिसमें से (Space) आकाश और (Time) काल प्रारम्भ होते हैं और हमें इनसे विश्व (Universe) का बोध होता है।" जैन-दर्शन इस बात को नहीं मानता कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को उत्पन्न करता है । पदार्थ, जोकि मूर्त है, अपने से भिन्न काल एवं आकाश द्रव्यों को कथमपि उत्पन्न नहीं कर सकता, जो कि अमूर्त हैं। भारतीय-दर्शन और उसमें विशेष रूप से जैन-दर्शन यह भी नहीं मानता कि काल एवं आकाश का अस्तित्व एवं मूल्य पदार्थ (Matter) के कारण है। सभी द्रव्यों का अपना स्वतन्त्र मूल्य एवं महत्व है। यदि विश्व में किसी को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जाए, तो वह जीव है, जो अपने ज्ञान के द्वारा अपने से भिन्न द्रव्यों के स्वरूप का यथार्थ रूप से जानने का प्रयत्न करता है और उन्हें जान भी लेता है। परन्तु विज्ञान की इस बात से जैन-दर्शन सहमत है कि पदार्थ का अस्तित्व होने के कारण काल का स्वरूप क्या है, उसकी शक्ति क्या है ? यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है। जीव-द्रव्य अमूर्त है और वह अपनी पर्यायों में ही परिणमन करता है। उस परिणमन में काल सहायक है, माध्यम मात्र है। परन्तु संसार अवस्था में राग-द्वोष आदि वैभाविक भावों में परिणति होने के कारण आत्मा कर्मों से आबद्ध होकर चार गति एवं चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता है। जब कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों का बन्ध होता है, उस समय प्रकृति, अनुभाग एवं प्रदेश-बन्ध के साथ स्थिति-बन्ध भी होता है और जितने काल की स्थिति का बन्ध होता है, उसी के अनुरूप कर्म Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल- द्रव्य | ४६ उदय में आकर अपना फल देकर फिर आत्म- प्रदेशों से अलग हो जाता है । इसी प्रकार जिस भव का जितने समय का आयु-कर्म का बन्ध होता है, उतने समय तक आयु-कर्म का भोग करने के बाद उस भव का जीवन समाप्त हो जाता है । आयु-कर्म के क्षय होते ही उस भव की पर्याय का नाश हो जाता है और दूसरे भव के बाँधे हुए आयु- कर्म के अनुरूप उस भव की पर्याय उत्पन्न होती है । इसी को लोक भाषा में मृत्यु कहते हैं और व्यक्ति सदा इससे भयभीत बना रहता है । रात-दिन व्यक्ति काल से, मृत्यु से बचने का प्रयत्न करता है । वैज्ञानिक भी व्यक्ति को मृत्यु से बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं । फिर भी वे अब तक उसमें सफल नहीं हो सके हैं। परन्तु जिस व्यक्ति ने अपने स्वरूप को जान लिया और जिसे स्व-रूप पर विश्वास है, वह मृत्यु से या काल से भयभीत नहीं होता। क्योंकि काल, पुद्गल के आकार में ही परिवर्तन करता है । आत्मा के अस्तित्व का नाश करने की ताकत काल में नहीं है । वीतराग एवं प्रबुद्ध - साधक यह भली-भाँति जानते हैं कि काल अपनी गति से चलता रहा है और चलता रहेगा । वह न तो कभी समाप्त हुआ है और न कभी समाप्त होगा । वह अपने स्वभाव के अनुरूप अपना कार्य करता है । परन्तु इसके निमित्त को पाकर जो मुझे भव-भ्रमण करना पड़ता है, उसका मूल कारण काल नहीं, प्रत्युत राग द्वेष आदि वैभाविक भावों में होने वाली मेरी परिणति ही है । विभाव से हट कर स्वभाव में स्थिर हो जाऊँ, स्वरूप में रमण करता रहूँ, तो उससे कभी भी बन्ध नहीं होगा और नये कर्मों के बन्ध के अभाव के कारण वर्तमान भव के आयु कर्म का क्षय होने के बाद अन्य भवों की पर्याय भी उत्पन्न नहीं होगी । अतः परिणामस्वरूप मृत्यु का स्वतः ही अन्त हो जाएगा । वस्तुतः राग-द्वेष एवं कषाय आदि विकारों के कारण आत्मा का पुद्गलों के साथ संयोग सम्बन्ध होने के कारण ही उसे संसार में जन्ममरण के प्रवाह में प्रवहमान होना पड़ता है । अतः काल को नष्ट करने का नहीं, प्रत्युत राग-द्वेष को हटाकर वीतराग-भाव, जो आत्मा का स्वभाव है और आत्मा का निज गुण है, उस में स्थिर होने का प्रयत्न करें। जितनाजितनी राग-द्वेष की परिणति कम होगी, आत्मा उतनी ही जल्दी भव - मूर्त पुद्गलों के भ्रमण के चक्र से मुक्त हो सकेगा । अतः काल के कारण आकार-प्रकार में परिवर्तन होता है। पुद्गल की स्थूलता कारण वह परिवर्तन परिलक्षित होता है और वह भी पुद्गल द्रव्य के स्व एवं रूपीपन के Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व भाव के कारण उनकी पर्यायें बदलती रहती हैं। काल-द्रव्य उस परिणमन एवं परिवर्तन में सहायक होता है। परन्तु पुद्गल-द्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता । क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए अपनी पर्यायों में परिणमन करता है । द्रव्य के उस यथार्थ स्वरूप को समझना ही सम्यक्-ज्ञान है और वही आत्म-विकास का सही मार्ग है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य स्व-पर का भेद विज्ञान मैंने आपके सामने दो वाक्य बोले थे-"मैं हूँ । मेरा शरीर है।" इन दो वाक्यों में सम्पूर्ण विश्व एवं अखिल ब्रह्माण्ड समाविष्ट हो जाता है। विश्व का कोई भी तत्त्व, कोई भी द्रव्य और कोई भी पदार्थ शेष नहीं रहता, जो इन दो वाक्यों में न समा सका हो । 'मैं है'-- इस वाक्य में अपने आत्मस्वरूप का बोध होता है, अपने स्वभाव का परिज्ञान होता है। 'मेरा शरीर है'-इस वाक्य में यह स्पष्ट रूप से परिज्ञान होता है, कि विश्व में मैं हैं, मेरी सत्ता है, इतना ही नहीं, प्रत्युत मेरे से भिन्न एक और तत्त्व है। मेरा शरीर है-कहने का अभिप्राय यह है, कि मैं और मेरा शरीर-दो भिन्न तत्त्व हैं । मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर 'मैं' रूप नहीं है। मैं अर्थात् आत्मा शरीर से सर्वथा भिन्न है, शरीर से सम्बद्ध होने पर एवं संसार अवस्था में शरीर के साथ रहने पर भी उसका (आत्मा का) स्वरूप एवं स्वभाव शरीर से सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार शरीर का स्वरूप आत्मा से सर्वथा भिन्न है । संसार अवस्था में साथ-साथ रहने पर भी एक-दूसरे का परस्पर एकदूसरे के स्वरूप, स्वभाव, गुण एवं पर्यायों में मिलन नहीं होता। आत्मा शरीर के रूप में परिणत नहीं होता और शरीर आत्मा के रूप में परिवर्तित नहीं होता। मैं और मेरे से भिन्न-दो पदार्थ इस विश्व में हैं। मेरे से भिन्न, जो द्रव्य है, उसे आगम में पुद्गल कहा है, और मैं को आत्मा या जीव कहा है। इस प्रकार विश्व में दो ही द्रव्य मूख्य हैं-जीव और पुद्गल । भारतीय-परम्परा में आत्मा, परमात्मा, जीव और ब्रह्म पर युग-युग से चर्चा होती रही है। आत्मा-परमात्मा पर विचार करने के संस्कार हमें ( ५१ ) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व जन्म-घूटी के साथ मिले हैं। भारत के राजा-महाराजा एवं सम्राट भी आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते रहे हैं। महाराज जनक की राजसभा में भी अध्यात्मवाद का स्वर मुखरित होता रहता था। ऋषि-मुनियों का तो मुख्य रूप से काम ही यही था, कि वे रात-दिन अध्यात्म के सम्बन्ध में चिन्तन करते थे। वे जब प्रवचन देते, विचार-चर्चा करते, तब भी आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में ही बोलते थे। इतना ही नहीं, हमारे यहाँ और तो क्या सड़क पर झाड लगाने वाला व्यक्ति भी अध्यात्म अथवा जीव और ब्रह्म से नीचे स्तर पर बात करना पसन्द नहीं करता। शताब्दियों और सहस्राब्दियों से हम जीद और ब्रह्म की बातें करते आ रहे हैं, परन्तु हमारी आँखों के सामने जो विराट् विश्व, विशाल जगत फैला हुआ है, उसके स्वरूप को जानने का और समझने का कभी प्रयत्न नहीं किया । परन्तु वीतराग ने कभी यह भूल नहीं की। उनका कहना हैजब तक साधक अपनी दृष्टि व्यापक नहीं बनाएगा, और 'स्व' के साथ 'पर' को समझने का प्रयास नहीं करेगा, तब तक वह स्व के यथार्थ स्वरूप को समझ ही नहीं पाएगा। जो विचारक अपने स्वरूप को स्व-चतुष्टयस्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव और पर-चतुष्टय-पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से जानने का प्रयत्न करता है, और आत्म-द्रव्य के साथ-साथ उसके अनन्त गुणों एव एक-एक गुण की अनन्त पर्यायों को जानने का प्रयत्न करता है, वही प्रबुद्ध साधक स्व का अथवा अपने स्वरूप का परिपूर्ण ज्ञान कर सकता है । जो चिन्तनशील विचारक अपने को पूर्ण रूप से जान लेता है, वह सम्पूर्ण विश्व को सम्यक् प्रकार से जान लेता है। वीतराग कहते हैं-तुम जो कुछ हो वह तो हो ही, उसे समझो, परन्तु उसको समझने के साथ तुम उस द्रव्य को, तत्त्व को या पदार्थ को भी समझने का, जानने का प्रयास करो जो तुम नहीं हो । शास्त्र में उस तत्त्व को-जो मैं नहीं हैं या जो मेरे से सर्वथा भिन्न स्वरूप वाला है, पुद्गल कहा है । भगवान् महावीर ने पुद्गल के सम्बन्ध में विभिन्न अपेक्षाओं से विस्तारपूर्वक चर्चा की है और उसके भेद-प्रभेदों को बताकर उसके स्वरूप को विस्तार से समझाने का प्रयत्न किया है। महावीर के बाद पुद्गल पर विस्तार से और गहराई से विचार करने वालों में दो आचार्यों का नाम विशेष रूप से हमारे सामने आता है-आचार्य उमास्वाति और आचार्य कुन्दकुन्द । आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में दार्शनिक शैली में पुद्गल पर विचार किया है और आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार, प्रवचनसार और Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य | ५३ पंचास्तिकायसार ग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि से पुद्गल के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। दोनों आचार्यों के चिन्तन में गांभीर्य है और वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करने की उनकी शैली भी गजब की है । पुद्गल का स्वरूप पुद्गल शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है - पुद् + गल | पुद् का अर्थ है - पूरण और गल का तात्पर्य है— गलन को प्राप्त होना । जो द्रव्य स्कन्ध अवस्था में - पूरण अथवा अन्य अनेक परमाणुओं के मिलन से और गलन अर्थात् कुछ परमाणुओं के उनसे अलग होने से युक्त है, वह पुद्गल है । इस तरह जो द्रव्य उपचय और अपचय को प्राप्त होता है, जिसमें विकास और ह्रास होता रहता है - वह पुद्गल है । इसलिए आगमों में और तत्त्वार्थसूत्र में पुद्गल का लक्षण सामान्य रूप से यह किया है - जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त है, वह पुद्गल है । वास्तव में पुद्गल का शुद्ध रूप परमाणु है । वह भी वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त है । उसमें कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत- इन पाँच वर्णों में से एक वर्ण, खट्टा, मधुर, तीखा, कटु और कषायला - इन पाँच रसों में से एक रस, सुगन्ध और दुर्गन्ध - इन दो गंधों में से एक गंध और शीत-उष्ण, स्निग्ध- रूक्ष - इन दोनों युगलों में से एक-एक स्पर्श - इस प्रकार परमाणु में एक वर्ण, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श पाये जाते हैं । अनन्त परमाणुओं के मिलन से स्कन्ध बनता है, वही इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है- उसमें पाँच वर्ण, ढो गंध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाये जाते हैं । पुद्गल स्कन्ध की अपेक्षा पूर्ण है, परन्तु उसमें से पहले के परमाणुओं का ह्रास होता रहता है और नये-नये 'परमाणु उसमें मिलते रहते हैं । इस प्रकार स्कन्ध का रूप बदलता रहता है । वस्तुतः पुद्गल का स्वभाव सड़न - गलन और जीर्णता को प्राप्त होना है । काल के माध्यम को पाकर वह नये से पुरातन होता है, और जीर्ण होने पर अपने एक आकार से नष्ट होकर नये आकार में परिणत होता है । T पुद्गल और जीवन संसार क्या है ? राग-द्वेष आदि विभावों तथा विकारी भावों में आत्मा की परिणति के कारण आत्मा के साथ पुद्गलों का वियोग होना यही संसार है । संसार में परिभ्रमण कर रही संयोग और आत्मा या Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व जीव का पुद्गलों के साथ इतना गहरा सम्बन्ध हो गया है, कि सदा पुगल उसके साथ परिलक्षित होता है । व्यक्ति जब जन्म लेता है, तब वह अपने साथ शुभ और अशुभ कर्मों के पुद्गल लेकर आता है, और उस भव के आयु-कर्म के क्षय होने पर वह मृत्यु की गोद में सोता है, तब भी शुभाशुभ कर्मों के पुद्गलों को साथ लेकर जाता है । जन्म और मृत्यु के मध्य में जो जीवन की धारा बहती है, जिसमें हम सांस लेते हैं, खाते-पीते हैं, बोलते हैं, सुनते हैं, स्वाद चखते हैं, गन्ध सूंघते हैं, रूप देखते हैं, पदार्थों का भोगोपभोग करते हैं, यह सब पुद्गल का ही खेल है, जिसे हम जीवन की अन्तिम साँस पर्यन्त खेलते रहते हैं । जन्म से मृत्यु पर्यन्त पुद्गल हमारे साथ संबद्ध है | मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है, उसमें भी पुद्गल साथ रहता है | इस भव का आयुष्य पूरा होने के पहले ही जीव आगामी भव का आयु-कर्म बाँध लेता है । इस घर को छोड़ने के पूर्व ही वह अगले घर की व्यवस्था कर लेता है । इस भव के शरीर को छोड़कर वह आगामी भव में जहाँ का आयु-कर्म बाँध चुका है, वहाँ पहुँचने के लिए मध्य में दो, तीन या चार समय का काल लगता है, उसमें भी जोव के साथ तैजस और कार्मण शरीर रहता ही है । कार्मण शरीर कार्मण (कर्म) वर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर है, और कर्मों के आगमन का एवं विपाक का यही माध्यम है । इस शरीर के माध्यम से ही जीव एक गति से दूसरी गति में और एक योनि से दूसरी योनि जन्म लेता है । इस प्रकार जन्म ( Birth) जोवन (Life) मृत्यु | Death) और पुनर्जन्म (Re-birth) जो यह जन्म-मरण और जीवन का चक्र है, पुद्गल की धुरी पर घूमता है । यह शरीर, इन्द्रियाँ एवं यहाँ तक कि मन -जो हमें प्राप्त है, वह सब पौद्गलिक है, पुद्गल (Matter) से बना हुआ है । हमारे ऊपर-नीचे, दाँये-बाँये, आगे-पीछे, जिधर देखें, उधर पुद्गल बिखरे पड़े हैं । त-दिन हम पुद्गलों में रहते हैं, पुद्गलों को बटोरते हैं, और अन्तिम साँस भी पुदगलों में लेते हैं, फिर अकस्मात् पुद्गल रहित कैसे हो सकते हैं ? आप ही क्यों, तपोनिधि दीर्घ तपस्वी सन्त भी तपस्या के बाद पात्र उठाकर भिक्षा के लिए जाते हैं, और पारणा लेकर आते हैं । जिस पात्र को लेकर सन्त जाते हैं, वह भी पुद्गलों से बना है । उसमें दूध, घी, रोटी, साग-सब्जी आदि जो भी खाद्य-पदार्थ लाते हैं, वे सब पुद्गल ही हैं, और वे जिस धर्म-स्थानक या स्थान में ठहरे हुए हैं और जिस पट्टे पर बैठतेसोते हैं, वह भी पुद्गलों से बना है । जब तक व्यक्ति संसार अवस्था में है रात Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य | ५५ और योगों-मन, वचन और काय-योग से युक्त है, तब तक वह एक क्षण के लिए भी पुद्गलों के बिना रह नहीं सकता। आपकी और हमारी तो बात ही क्या ? तेरहवें गुणस्थान में स्थित तीर्थंकर सर्वज्ञ प्रभु भी देवों द्वारा रचित समवसरण में स्वर्ण के सिंहासन पर बैठते हैं, गन्धकुटी में ठहरते हैं, आहार-निहार करते हैं, उपदेश देते हैं । वे भी पुद्गलों को ग्रहण करते एवं छोड़ते हैं। चौदहवें गूणस्थान में भी सर्वज्ञ जब मन, वचन और काय शरीर-इन तीनों योगों का निरोध करके समस्त कर्म एवं कर्मजन्य साधनों से मुक्त होकर और एक समय की ऊर्ध्वगति करके लोक के अग्रभाग में जाकर स्थिर होते हैं, अथवा चौहदवें गुणस्थान को लांघकर सिद्धत्व पर्याय को प्रकट करते हैं, तब वे गुणस्थानातीत अवस्था में पद्गलों से मुक्त होते हैं। अभिप्राय यह है, कि संसार अवस्था में जीव पुद्गल से रहित नहीं है। पुद्गल जो इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, और सर्बज्ञ भी जिससे मुक्त नहीं है, पाँचवें एवं छठे गुणस्थान में रहने वाले व्यक्ति उसे छोड़ने की बात कहते हैं और उसकी निन्दा-बुराई करते हैं, उससे घृणा करते हैं, यह देखकर मुझे हंसी आती है। वीतराग ने कहीं भी पुद्गल का तिरस्कार नहीं किया, उसकी निन्दा, बुराई नहीं की । परन्तु मध्यकाल के सन्तों ने अपने उपदेश में पद्गलों को छोड़ने का कहा, उनका तिरस्कार करने का कहा और उन्हें नष्ट करने का कहा । इसका परिणाम यह रहा, कि हमने पुद्गल से जितनी घृणा की, जितना उसका तिरस्कार किया, जितनी उसकी अवमानना की, उतने ही हम उससे अधिक चिपकते रहे। पद्गल को छोड़ने की बात कहना जितना सरल है, उसे छोड़ना उतना सरल नहीं है । वह एक ऐसी शक्ति (Energy) है, जिसे छोड़ने की बात करना एक प्रकार का दम्भ है । क्योंकि इससे मन में अहंकार जागृत होता है। मुझे एक सन्त मिले । उन्होंने बताया-मैंने एक-डेढ लाख की सम्पत्ति को छोड़कर दीक्षा ली है। मैंने पूछा- क्या वह सम्पत्ति आपकी थी? यदि आप अभी भी यह मानते हैं कि मैं छोड़कर आया हूँ, वह सम्पत्ति मेरी थी। तो आपने छोड़ा क्या ? उसका अहंकार और ममकार अभी भी आपके मन में स्थित है और वास्तव में पदार्थों का या उनके त्याग का अहंकार ही ससार में परिभ्रमण करने का, पुद्गलों से आबद्ध होने का कारण है । जो वस्तु मेरी नहीं,उसमें मेरेपन की कल्पना करके उसके छोड़ने या पकड़ने की बात करना अहंकार के सिवा और क्या है ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ! जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व इसलिए भगवान महावीर ने कहा है-- तुम पदार्थों को छोड़ने, ग्रहण करने तथा पकड़ने के चक्कर में मत पड़ो। उनके यथार्थ स्वरूप को समझने का प्रयत्न करो। छोड़ने एवं पकड़ने में ही व्यस्त रहे, तो तुम्हारे मन में उनके प्रति राग-द्वेष पैदा होगा। अतः उनके स्वरूप को, उनके स्वभाव को समझो और स्वयं सिर्फ ज्ञाता एवं दृष्टा बनकर रहो। ____ मैं आगरा से सन् ६६ में कलकत्ता वर्षावास करने जा रहा था। उस समय रास्ते में सारनाथ ठहरा : वहाँ कुछ भिक्ष एवं भिक्षणियों से मिला, उनसे विचार-चर्चा भी हुई । मैंने एक भिक्षु से पूछा, क्या भगवान् बुद्ध आपके जीवन के कण-कण में समा गये हैं ? उसने कहा-"ऐसा कुछ नहीं है। अभी तो मैंने त्रिपिटकों का एवं बौद्ध-दर्शन का पूरा अध्ययन हो नहीं किया है ।" तब फिर आने भिक्षु-धर्म की दीक्षा कैसे ली ? उसका स्पष्ट उत्तर मिला, कि मेरा एक लड़की के साथ प्रेम (Love) था। उसने मुझे छोड़ कर दूसरे लड़के के साथ शादी कर ली । इसका मेरे मन पर गहरा आघात लगा, संसार के लोगों से घृणा हो गई और मैं भिक्ष बन गया। इसी प्रकार एक बीस-बावीस वर्ष की भिक्षणी से पहला प्रश्न अध्ययन के सम्बन्ध में पूछा, तो उसने बताया कि अभी तो अध्ययन प्रारम्भ ही किया है, मुझे अभी दीक्षा के लिए छह महीने ही तो हुए हैं । मैंने जब यह पूछा कि दीक्षा की भावना मन में कैसे जगी? इसके उत्तर में उसने बताया, कि मेरा मेरे पति के प्रति विशेष अनुराग था। पति भी मुझे बहुत प्यार एवं स्नेह करता था । परन्तु पति की मृत्यु हो गई। इससे मुझे घर में एवं बाहर पति के बिना सब सूना-सूना लगने लगा, और भिक्षभिक्षुणियों के सम्पर्क से भिक्षुणी बनने की बात मेरे सामने आई । अन्य कोई मार्ग सामने नहीं होने से मैंने इस पथ को स्वीकार कर लिया । इसका अर्थ है, वैराग्य की ज्योति अन्तर्जीवन में जगी नहीं, वैराग्य का, त्याग का एवं आत्म-साधना का स्रोत अन्दर से प्रस्फुटित नहीं हुआ। प्रत्युत वैराग्य का बोझ ऊपर से लाद लिया गया। लादा हुआ वैराग्य यथार्थ में वैराग्य नहीं है । वह तो सहज भाव से आना चाहिए । श्रीमद् रायचन्द्र ने आत्म-सिद्धि में कहा है-जिसके चित्त में, मन में त्यागवैराग्य नहीं है, उसे सम्यक्-ज्ञान नहीं हो सकता "त्याग-विराग न चित्तमाँ, थाय न तेने ज्ञान ।" आत्मा और पुद्गल भगवान् महावीर ने पुद्गल को छोड़ने और पकड़ने की बात न Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य | ५७ कहकर, उसे समझने का उपदेश दिया है। जब तक आबद्ध कर्म शेष हैं, तब तक कर्म के उदय से शुभाशुभ पदार्थों का जो योग मिलता है, उसका वेदन एवं उपभोग तो करना ही पड़ेगा। इसलिए साधक को अनासक्तभाव से जीवन यापन करना चाहिए। अध्यात्मयोगी श्रीमद् रायचन्द्र ने भी कहा है ----'आत्म-ज्ञान समदर्शिता, विचरे उदय-प्रयोग ।' कर्म के उदय में आने पर अच्छे या बुरे, कम या अधिक -जो साधन मिलते हैं, आत्मज्ञानी साधक को उनमें राग-द्वेष न करके केवल दृप्टा बनकर रहना चाहिए । व्यक्ति को यह समझ कर विचरण करना चाहिए-मेरे कर्मोदय के कारण मुझे ये साधन मिले हैं। वीतराग एवं सर्वज्ञ ने जो कुछ देखा है, और जिसे रूप में देखा है, वह उसी समय, उसी स्थान पर और उसी रूप में घटित होकर रहेगा। क्योंकि भोगावली कर्म को भोगे बिना कितना ही विशिष्ट साधक क्यों न हो, कर्म-बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। अतः न छोड़ना है और न ग्रहण करना है, पर सर्व-प्रथम उसे समझना है । आत्मा भी है, और उसके अतिरिक्त जो तत्व है, वह भी विश्व में विद्यमान है। उसे जैन-दर्शन में पुद्गल कहा है । आत्मा और पुद्गल-ये दो द्रव्य षड्द्रव्यों में मुख्य द्रव्य हैं। दोनों द्रव्य स्वतन्त्र हैं और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न स्वभाव के हैं । दोनों की परिणति या परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में होता है। आत्मा और पुद्गल का संयोग सम्बन्ध होने पर भी आत्मा अपने स्वरूप से भिन्न पुद्गल की पर्यायों में परिणमन नहीं करता, और पुद्गल का परिणमन आत्म-पर्यायों में नहीं होता। पुद्गल आत्मा को तो क्या, उसके एक भी प्रदेश को अपने रूप में परिवर्तित नहीं कर सकता और आत्मा पुद्गल के एक भी परमाणु को चेतन नहीं बना सकता । फिर यह सोचने-विचारने का चिन्तन करने का विषय है, कि वह पुद्गल को कैसे पकड़ सकता है ? वास्तव में आत्मा ने पुद्गल को पकड़ा ही नहीं है। जब उसने पकड़ा ही नहीं है, तब छोड़ने का प्रश्न ही कैसे उठ सकता है ? जब आत्मा ने पुद्गल को पकड़ा नहीं है, तब वह उनसे आबद्ध क्यों है ? । इस प्रश्न का समाधान यह है, कि संसार अवस्था में आत्मा में राग-द्वेष, मोह आदि विभाव भी हैं। आत्मा से सम्बद्ध योगों में जब स्पन्दन होता है, तब कार्मण वर्गणा के पुद्गल उससे आकर्षित होकर आते हैं, उस समय जीव उसमें राग-द्वेष एवं मोह करता है, तो वे पुद्गल कर्म रूप से आत्मा के साथ आबद्ध होते हैं । परन्तु जो साधक वीतराग-भाव में स्थित रहता है, मात्र ज्ञाता एवं दृष्टा बनकर रहता है, उस समय योगों में Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व स्पन्दन होने के कारण कर्म-पुद्गल आकर्षित होकर आयेंगे अवश्य, परन्तु स्वभाव में परिणमन होने के कारण उनका बन्ध नहीं होगा । और जो पहले बंध चुके हैं, वे भी अपने काल के परिपक्व होने पर उदय में आकर आत्मा से अलग हो जायेंगे । अभिप्राय यह है, कि पुद्गलों को छोड़ना-पकड़ना नहीं है, प्रत्युत विभाव से हटकर स्वभाव में लौटना है और स्वभाव में ही स्थित रहना है। फिर पुद्गल स्वयं ही छूट जाएँगे, बिखर जायेंगे । इसका यह अर्थ नहीं है कि पुद्गल का नाश हो जाएगा। पुद्गल अनन्त-काल से इस विश्व में हैं, इस लोक में हैं और अनन्त काल तक रहेंगे, न कभी उनका अभाव रहा है और न कभी रहेगा। इसी तरह आत्मा भी अनन्त-काल से है और अनन्त-काल तक रहेगा। जैनदर्शन यह मानता है, कि सिद्धशिला से, ऊर्ध्व-लोक के अग्रभाग में मुक्त जीव स्व-स्वरूप में स्थित हैं, और वहाँ पुद्गल भी हैं । सिद्धशिला पुद्गलों के स्कन्ध से बनी है । सिद्धों के चारों ओर पुद्गल हैं, फिर भी न तो पुद्गल उस शुद्ध आत्मा से चिपकता है, और न आत्मा पुद्गलों को पकड़ती है । यदि पुद्गलों को पकड़ने की शक्ति आत्मा में है, तो सिद्धों में तो अनन्त आत्म-शक्ति है, फिर वे पुदगलों को क्यों नहीं पकडते ? क्योंकि उनमें न राग है, न द्वष है, वे केवल ज्ञाता एवं दृष्टा हैं । इसका अभिप्राय यह रहा, कि आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होने पर अथवा स्वभाव में परिणमन करने पर पुद्गलों से आबद्ध नहीं होता । अतः पुद्गल को छोड़ना नहीं है, समझना है; छोड़ना है, मुक्त होना है, तो राग-द्वोष से, मोह से, कषायों से एवं विभावों से । विभाव से हटकर स्वभाव में स्थित होना, वीतराग भाव में परिणमन करना ही कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों से मुक्त-उन्मुक्त होना है और अपनी शुद्ध-विशुद्ध एवं परम शुद्ध सिद्ध-पर्याय को प्रकट करना है। वास्तव में सिद्ध-पर्याय को–जो आत्मा का शुद्ध स्वभाव है और आत्मा में ही सन्निहित है, प्रकट करना ही सच्चे अर्थ में पुद्गल को छोड़ना है अथवा कहना यों चाहिए कि तब पुद्गल स्वतः छूट जाता है । यथार्थ में छूट जाने का अर्थ है-आत्मा उसे पुनः ग्रहण न करे । लेकिन हम छोड़ते क्या हैं ? मृत्यु के समय शरीर को छोड़ते हैं, परन्तु इस भव के शरीर को छोड़ने के पूर्व ही आगामी भव के शरीर को रिजर्व कर लेते हैं (Reservation of the house of next life) । हुआ क्या ? मानव-पर्याय को छोड़ा और Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य | ५६ देव या अन्य गति की पर्याय को प्राप्त किया। इसमें न तो पुद्गल द्रव्य ही छूटा और न उसकी पर्याय ही छूटी। अतः जब तक मोह का उदय है, तब तक आत्मा पुद्गल को छोड़ नहीं सकता, उससे मुक्त हो नहीं सकता। क्योंकि जब हमें अनुकूल पुद्गलों का संयोग मिलता है, तब उन पर राग होता है, उनके प्रति ममता होती है और प्रतिकूल पदार्थो का संयोग मिलने पर उनके प्रति द्वष उत्पन्न होता है, राग-द्वेष करना यही गलत रास्ता (Wrong-way) है। पुद्गल का लक्षण पुद्गल का सामान्य लक्षण है-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त होना । पुद्गल मूर्त है, रूपी है, आकार-प्रकार वाला है। भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है-"पुद्गल पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श- इन बीस गुणों से युक्त है ।" पाँच वर्ण इस प्रकार बताएनील (Blue) पीत (Yellow) शुक्ल (White) कृष्ण (Black) और लाल (Red) । गन्ध दो प्रकार की है-सुगन्ध (Good smell)और दुर्गन्ध (Bad smell)। रस पाँच प्रकार का कहा है-तिक्त Bitter कटुक Acidic अम्ल-खट्टा Sour मधुर Sweet कषाय Astringent । स्पर्श के आठ भेद बताए हैं-मृदु Soft कठिन Hard गुरु Heavy लघु Light शीत Cold उष्ण Hot स्निग्ध Smooth और रूक्ष Rough । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पुद्गल के इन चार मूलगुणों के बीस भेद बताए हैं, परन्तु इनके उपभेद करें तो संख्यात Finite असंख्यात Infinite और अनन्त Transfinite भेद होते हैं । जैन-दर्शन द्वारा मान्य स्पर्श के आठ गुणों को आधुनिक विज्ञान में भौतिक पदार्थ के चार गुणों में मान लिया है-Scale of Hardness मृदु-कठिन, Density गुरु-लघु, Temperature शीत-उष्ण और Crystalline structure स्निग्ध-रूक्ष । इस प्रकार आज का भौतिक-विज्ञान पदार्थ matter में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श मानता है । वैशेषिक-दर्शन भी जड़ पदार्थों में इन गुणों को मानता है, परंतु वह पृथ्वी के परमाणुओं में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारों गुण, जल के परमाणओं में रूप, रस और स्पर्श तीन गुण, अग्नि के परमाणओं में रूप और स्पर्श दो गुण और वायु में केवल स्पर्श एक गुण मानता है। इस प्रकार वैशेषिक-दर्शन गुणभेद मानकर चारों को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। उसका मानना है कि जल-कण के परमाणु अलग हैं, वे जल के रूप में ही रहते हैं । उसी प्रकार पृथ्वी, अग्नि और वायु के परमाणु भी पृथक-पृथक हैं, और उनसे तद् प पदार्थो की उत्पत्ति होती है। परन्तु, यह मान्यता न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व तो तर्क-युक्त है, न अनुभवगम्य है, और न विज्ञान की मान्यता से मेल खाती है । हम प्रत्यक्ष में देखते हैं, कि सीप के मुंह में पड़ा हुआ जल-कण चमकतादमकता पार्थिव मोती बन जाता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दोनों गैसों को मिला देने पर दो तरह की वायु के रूप में रहे हुए पार्थिव परमाणु जल के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। दो काष्ठ के पार्थिव टुकड़ों को परस्पर रगड़ने पर उनके घर्षण से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, और अग्नि से राख उत्पन्न होती है। अतः उनमें गुण-भेद के कारण जाति-भेद मान्य करके उनमें पृथक् द्रव्यत्व कैसे सिद्ध किया जा सकता? जैन-दर्शन ने समस्त पुद्गलों में पारस्परिक परिणमन देखकर-जैसे जल के परमाणुओं को मुक्ता के रूप में परिणत होते देखकर एक ही पुद्गल द्रव्य को स्वीकार किया, और सभी पुद्गलों को वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त माना । यह तो सम्भव हो सकता है कि पुद्गलों की अवस्था विशेष में कोई गुण प्रकट हो और कोई गुण प्रकट न हो पाए । जैसे अग्नि में रस, वायु में रूप, जल में गन्ध अप्रत्यक्ष रूप से रह सकता है, परन्तु उसका अभाव नहीं माना जा सकता। मुर्त द्रव्य के लिए यह एक सामान्य नियम है कि एक गुण जहाँ दिखाई देगा, वहाँ सभी गूण विद्यमान होंगे ही। जहाँ स्पर्श होगा, वहाँ वर्ण, गन्ध और रस भी उपलब्ध होंगे ही। विज्ञान ने भी इस सिद्धान्त को मान्य कर लिया है। इसलिए प्रारम्भ में विज्ञान ६२ मल पदार्थ या मल द्रव्य मानता था, परन्तु अब वह अणु Atom को ही मूलतत्व या मूलद्रव्य मानता है। और उसके संयोग-वियोग से विभिन्न प्रकार के पदार्थों एवं आकारों का निर्माण और विनाश होता है। परन्तु पदार्थों के आकारप्रकार एवं रूप-रंग आदि के बदलने पर भी अणु Atom का नाश नहीं होता। उसका अस्तित्व परिवर्तित अवस्था में भी बना रहता है। इसी कारण विज्ञान ने अपने प्रयोगों Experiments द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि मूल तत्व एकमात्र अणु ही है और उनके संयोग-वियोग से ही विभिन्न पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं। जैन-दर्शन ने इसे पुद्गल द्रव्य कहा है और अणु को ही शुद्ध पुद्गल द्रव्य माना है । पुद्गल और पाप-पुण्य यह मैं बता चुका हूँ कि शरीर, इन्द्रियें एवं मन--ये पुद्गल से बने हैं । ये स्वयं वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त हैं, अतः इनको ग्रहण करना . इनका स्वभाव है। आँख के सामने कोई रूप आता है, तो व , उसे देखती Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य | ६१ के है । सुन्दर स्त्री के सौन्दर्य को निहारना, खिले गुलाब की सुन्दरता को देखना आँख का स्वभाव है । रेडियो पर ब्राडकास्ट होने वाले गीतों की मधुर स्वर लहरी को सुनना कान का, श्रोत्र - इन्द्रिय का स्वभाव है । पुष्पों मधुर पराग से युक्त सुगन्ध को ग्रहण करना नाक का काम है । पदार्थों के मधुर तिक्त आदि स्वाद को चखना जिह्वा का स्वभाव है । और मृदुकठोर आदि पदार्थों का स्पर्श के द्वारा ज्ञान करना शरीर का, स्पर्श - इन्द्रिय का स्वभाव है । परन्तु, देखने, सुनने, सूंघने, चखने एवं स्पर्श करने मात्र से आँख, कान, नाक, जिह्वा एवं स्पर्श- इन्द्रिय को पाप-पुण्य नहीं बँधता | यदि इतने मात्र से पाप चिपकता हो, तब तो तेरहवें गुणस्थान स्थित वीतराग एवं सर्वज्ञ को भी पाप-पुण्य का बन्ध हुए बिना नहीं रहेगा, और कोई भी आत्मा संसार से अथवा पाप-पुण्य के बन्ध से मुक्त नहीं हो सकेगी । क्योंकि वीतराग भी संयोग अवस्था में इन्द्रियों से संयुक्त हैं और इन्द्रियाँ देखने-सुनने आदि का काम करती ही हैं, पर इतने मात्र से पाप-पुण्य का बन्ध नहीं होता । कारण स्पष्ट है, कि वे ज्ञाता एवं द्रष्टा बनकर देखते हैं, वे उन पदार्थों में आसक्त नहीं होते, उन पर राग-द्व ेष नहीं करते । जब इन्द्रियों द्वारा ग्रहीत रूप आदि में व्यक्ति आसक्त बनता है, अनुकूल रूप आदि पर अनुराग करता है और प्रतिकूल पर द्वेष करता है, तब पुण्य एवं पाप-कर्म का बन्ध होता है । शुभ भाव से पुण्य और अशुभ से पाप कर्म का बन्ध होता है । इसलिए कर्मों को, दोषों को ग्रहण करने वाली पार्थिव या भौतिक इन्द्रियाँ नहीं, उनके साथ संबद्ध Joint मनुष्य का राग-द्वेष युक्त मन है । कुछ विचारक -- जिन्हें स्व और पर के स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं है, सारा दोष इन्द्रियों पर डाल देते हैं । आँख ने सुन्दर रूप को देखा, तो उसके इस अपराध के लिए आँखों को ही फोड़ देते हैं । परन्तु इससे समस्या का समाधान नहीं होता । रात को सोते समय स्वप्न में वही रूप सामने आ धमकता है, और आँखों में ज्योति के न रहने पर भी व्यक्ति उससे प्यार-दुलार करता है, उस पर अनुराग रखता है या प्रतिकुल रूप आदि विषय दिखाई दिया, तो उन पर द्वेष करता है । इस प्रकार आँख आदि इन्द्रियों को नष्ट कर देने पर भी पाप पुण्य का बन्ध रुकता नहीं है । अतः जैन दर्शन समस्या का समाधान बाहर में परिलक्षित कारणों को पकड़कर नहीं करता प्रत्युत वह समस्या के मूल कारण को पकड़ता है। भगवान् महावीर ने कहा - इन्द्रियों को मारने से तुम पाप-पुण्य से मुक्त नहीं हो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व सकते, परन्तु राग-द्वष का परित्याग करके ही पाप-पुण्य के बन्धन से मुक्त हो सकते हो । भगवान् महावीर के सामने इन्द्र आया, उसने भगवान् को वन्दन किया, उनकी स्तुति की, तब भी उस पर अनुराग नहीं किया। और जब ग्वाले ने आकर भगवान् के कानों में कीले ठोके, तब भी उस पर द्वोष नहीं किया। अनुकूल एवं प्रतिकूल-दोनों प्रकार के संयोगों में सम बने रहना ही पाप-पुण्य से मुक्त होना है। वीतराग किसी को न कुछ देते हैं, और न किसी से कुछ लेते हैं । वे ज्ञान-विज्ञान भी दे नहीं सकते। वे एक ही बात कहते हैं, कि जो ज्ञान मेरे में है, वही अनन्त-ज्ञान-ज्योति तुम्हारे में है । तुम उसे समझने का प्रयत्न करो। अपना एवं पुद्गल का जो स्वरूप है, उसे तुम बदल नहीं सकते । उसका परिणमन जिस रूप में होना है, तद्रप ही होगा, उसमें परिवर्तन करने की शक्ति एवं क्षमता किसी में नहीं है । अतः उसे बदलने का नहीं, समझने का और अपने आप में स्थित रह कर द्रष्टा एवं ज्ञाता बनकर रहने का प्रयत्न करो। फिर भले ही कितना ही पुद्गल तुम्हारे ऊपर-नीचे दाये-बाँये और आगे-पीछे क्यों न रहे, बन्ध का कारण नहीं बनेगा । अतः पाप-पण्य का कारण हमारे राग-द्वेषात्मक विकल्प ही हैं। जब विकल्प परिसमाप्त हो जायेंगे, निर्विकल्प भाव से कार्य करेंगे अथवा गीता की भाषा में अनासक्त होकर कर्म करेंगे, तब बन्ध नहीं होगा । जैन-दर्शन एव जैन-आगमों की भाषा में वीतराग को कर्म का बंध नहीं होता और गीता की भाषा में स्थित-प्रज्ञ कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि वीतराग वह है-जो राग-द्वेष आदि विकल्पों से मुक्त है और स्थित-प्रज्ञ वह है-जो अपने ज्ञान स्वरूप में ही स्थित रहता है। अतः दोनों विकल्पों से रहित हैं। एक कहानी मुझे एक छोटी,सी कहानी याद आ रही है । प्राचीन काल में एक राजा रात को वेश बदलकर अपने नगर में घूमता था । वह यह जानने का प्रयत्न करता था कि मेरे राज्य में कोई व्यक्ति दुःखी एवं पीड़ित तो नहीं है । एक दिन रात को राजा एक संकरी गली में से जा रहा था, और उधर सामने से एक संन्यासी भी आ रहा था । अंधेरा होने के कारण दोनों परस्पर टकरा गए । राजा मोटा-ताजा एवं सशक्त था और योगी दुर्बल एवं कमजोर था। इसलिए राजा के धक्के से वह गिर गया। इस टकराहट में राजा का कुछ बिगड़ा नहीं, चोट बेचारे योगी को लगी। पर राजा को एकदम आवेश आ गया और कठोर भाषा के रूप में उसका क्रोध प्रकट भी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-द्रव्य | ६३ हो गया। राजा ने कड़ककर पूछा-कौन है ? संन्यासी ने मधुर स्वर में प्रत्युत्तर देते हुए इसी बात को दोहराया कि मैं भी जानना चाहता हूँ-तू कौन है ? इस उत्तर को सुनकर राजा का पारा और तेज हो गया । उसने कर्कश स्वर में कहा-अरे गधे ! मेरी बात क्या पूछता है ? मेरा परिचय बहत बड़ा है। पर तू क्यों नहीं बताता कि तु कौन है ? योगी ने शान्त स्वर में कहा- मुझे तुम्हारा परिचय मिल गया। मैं एक सम्राट हूँ, शहंशाह हूँ । तू कैसा सम्राट है ? तेरे सिर पर न तो मुकुट है और न राजशाही पोशाक ही है। राजा एवं सम्राट तो मैं हैं। योगी ने कहा-तू भ्रम में है। जो व्यक्ति अपने आप पर शासन करने में समर्थ नहीं है, रागद्वेष एवं कषायों को अपने नियन्त्रण में रखने में सक्षम नहीं है, वह कैसा सम्राट ? यदि तुम कषायों के गुलाम नहीं होते, अपने स्वभाव में स्थित होते, तो ऐसी भाषा का कदापि प्रयोग नहीं करते। भगवान महावीर आपको यही बता रहे हैं-तुम भिखारी नहीं, सम्राट हो । फिर भी यदि आपका भिखारीपन नहीं मिटा, विषय-कषाय की गुलामी नहीं छूटी, तो आत्मा का विकास कैसे होगा ? इसलिए अपने एवं पुद्गल के स्वरूप को समझो और अपने सम्राट बनने का प्रयत्न करो। फिर आपको पुद्गल को छोड़ना नहीं पड़ेगा, वह स्वतः ही छूट जायेगा, आत्म-प्रदेशों से अलग हो जायेगा। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पुद्गल का स्वरूप पुद्गल का अर्थ पुद्गल एक अचेतन जड़ द्रव्य है, एक शक्ति (Erergy) है । जड़पदार्थों ( Matter) के लिए जैन-आगमों में पुद्गल शब्द का प्रयोग प्रसिद्ध है । हमारे पड़ोसी बौद्ध-धर्म के शास्त्रों-त्रिपिटकों में भी पुद्गल शब्द का प्रयोग मिलता है। दोनों शास्त्रों में शब्द साम्यता है। परन्तु, दोनों के अर्थ में अन्तर है । त्रिपिटकों एवं अन्य बौद्ध-ग्रन्थों में पुद्गल शब्द का प्रयोग आत्मा, चेतन एवं जीव के अर्थ में हुआ है। जैन-आगमों एवं अन्य ग्रन्थों में प्रायः पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव, चेतन एवं आत्मा से सर्वथा भिन्न अजीव, जड़ एवं भौतिक-पदार्थों के लिए किया गया है। जैनपरम्परा में पुद्गल शब्द का जिस अर्थ में प्रयोग किया है, सांख्यदर्शन में उसके लिए प्रकृति शब्द का, वैशेषिक-दर्शन में परमाण शब्द का, और चार्वाक-दर्शन में भूत शब्द का प्रयोग मिलता है। परन्तु, पुद्गल शब्द में जो गांभीर्य, विशालता एवं व्यापकता है, वह अन्य शब्दों में नहीं है। भगवती सूत्र में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया था, कि बौद्ध-धर्म के प्ररूपक पुद्गल शब्द का जीव के अर्थ में प्रयोग करते हैं, क्या यह अर्थ आपको अभीष्ट है ? भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि के अनुसार स्याद्वाद की भाषा में कहा-हे गौतम ! यथार्थ में पुद्गल आत्मा से भिन्न है, वह चेतन-द्रव्य नहीं है। परन्तु, संसार अवस्था में जीव पुद्गलों से संबद्ध है। जैसे आग में डालने पर लोहे का गोला अग्नि तो नहीं बन जाता, परन्तु आग के गोले-जैसा परिलक्षित होता है। क्योंकि अग्नि के परमाणु लोहे के गोले के परमाणुओं के साथ घुल-मिल जाते हैं । उसी तरह पुद्गल भी जीव के साथ मिला हुआ-सा लगता है । इस अपेक्षा से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ६५ शुद्ध व्यवहार नय से संसार अवस्था में जीव के लिए पुद्गल शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है । संसार में यह आत्मा चार गति - नरक - गति, तिर्यञ्च-गति, मनुष्य - गति और देव-गति, और चौरासी लाख जीवयोनियों में से किसी भी गति एवं योनि में रहे, वहाँ एक भी गति एवं एक भी योनि ऐसी नहीं मिलेगी, जहाँ चेतन तो रहे, परन्तु उसके साथ पुद्गल न रहे । संसार-पर्याय में पुद्गल से रहित शुद्ध चेतन की, आत्मा की कल्पना ही नहीं की जा सकती । ऊर्ध्व - लोक के अग्रभाग में एक ऐसा स्थान है, जहाँ सिद्ध पर्याय में स्थित जीव शुद्ध चेतन एवं शुद्ध आत्म-भाव में स्थित रहते हैं । अतः मुक्त जीव के लिए पुद्गल शब्द का कदापि प्रयोग नहीं किया जा सकता । निश्चयदृष्टि से पुद्गल, पुद्गल है और जीव, जीव है । दोनों का अस्तित्व अनन्त - काल से है और अनन्त - काल तक रहेगा, इसमें सन्देह नहीं है । परन्तु अनन्त काल से जीव और पुद्गल साथ-साथ रहने पर भी एक-दूसरे से न मिले हैं और न कभी मिल पाएँगे । संसार अवस्था में दोनों का साथ तो अनन्त काल से है, परन्तु भविष्य में अनन्तकाल तक साथ बना ही रहेगा, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । इसलिए निश्चय नय की अपेक्षा से साथ-साथ रहने पर भी दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं और दोनों का परिणमन अपनी-अपनी पर्यायों में ही होता है। पुद्गल का परिणमन पुद्गल की पर्यायों में ही होता है, जीव की चेतन पर्यायों में नहीं । इसी प्रकार जीव का परिणमन जीव की पर्यायों में ही होता है, पुद्गल की जड़ पर्यायों में नहीं । स्कन्ध और परमाणु आगम में पुद्गल के अनेक भेद किए हैं । आचार्य उमास्वाति एवं आचार्य कुन्दकुन्द ने भी अपने ग्रन्थों में पुद्गल के अनेक भेद-उपभेद करके उसकी व्याख्या की है । आगम में एवं आचार्यों ने पुद्गल को चार भागों में विभक्त किया है - स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । अनन्त अनन्त परमाणुओं के मिलन से बने हुए पदार्थ को स्कन्ध कहा है । उसके आधे हिस्से को देश और उसके चतुर्थांश या उससे कम को प्रदेश कहा है। देश और प्रदेश स्कन्ध ही कल्पित किए हैं, स्वतन्त्र भेद के रूप में नहीं । अतः मुख्य भेद दो ही हैं- स्कन्ध और परमाणु । आप परमाणुओं से निर्मित जिन पदार्थों को देख रहे हैं, सुन रहे हैं, सूंघ रहे हैं, चख रहे हैं, स्पर्श कर रहे हैं, वे सब स्कन्ध हैं । जिन पदार्थों को किसी भी इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण किया जा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व सके, वे अनन्त परमाणुओं के संयोग से बने हुए स्कन्ध हैं। स्कन्ध भी दो प्रकार के होते हैं-बादर और सूक्ष्म । बादर अर्थात् स्थूल स्कन्ध वे हैं, जो इन्द्रियगोचर हो सकें, इन्द्रियाँ जिनको ग्रहण कर सकें। जो स्कन्ध इन्द्रिय-गम्य नहीं हैं, उन्हें सूक्ष्म स्कन्ध कहा है। वैसे वे मूर्त हैं, साकार हैं, वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से युक्त हैं. परन्तु इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आने के कारण उन्हें सूक्ष्म कहा है। परन्तु दोनों प्रकार के स्कन्ध पौद्गलिक हैं और दोनों प्रकार के स्कन्धों को मिलाकर आचार्यों ने उनके छह भेद भी किए हैं-५. बादर-बादर, २. बादर, ३. सूक्ष्म-बादर, ४. बादर-सूक्ष्म ५. सूक्ष्म और ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म । १. बादर-बादर-जो स्थूल स्कन्ध एक बार टूटने के बाद पुनः तद्र प न बन सके, जुड़ न सके, जिस प्रकार लकड़ी, पत्थर, मोती, हीरा आदि । २. बादर-जो स्थूल स्कन्ध एक बार टूटकर अलग होने के बाद भी मिलाने पर पुनः उसी रूप में मिल जाये, जैसे प्रवाही पुद्गल-पानी, दूध, घी-तेल आदि । ३. सूक्ष्म-बादर-जो स्कन्ध देखने में स्थूल परिलक्षित होते हों, परन्तु तोड़े-फोड़े नहीं जा सकें, जैसे-धूप, छाया आदि । ४. बादर-सूक्ष्म-सूक्ष्म होते हुए एवं आँखों द्वारा दिखाई न देते हुए भी जो इन्द्रियगम्य हो, जैसे-गंध, रस एवं स्पर्श आदि । ५ सूक्ष्म-जो स्कन्ध रूप होते हुए भी इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न किये जा सकें, जैसे --कार्मण-वर्गणा के पुद्गल आदि । ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म अति सूक्ष्म, जैसे कर्म-वर्गणा से नीचे के स्कन्धों से लेकर दू यणुक पर्यन्त के पुद्गल स्कन्ध । ये स्कन्ध के भेद हैं। बादर, जैन-परम्परा का पारिभाषिक शब्द (Technical word) है। लोक-भाषा में इसे स्थूल कहते हैं। बादर-बादर (स्थूल-स्थूल) से लेकर सूक्ष्म तक के पाँच प्रकार के स्कन्ध हैं, ये अनन्त परमाणुओं के संयोग से बने हुए हैं, परन्तु सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कन्ध उनसे कम परमाणुओं का है और उसका छोटा से छोटा रूप द्व यणुक (दो परमाणुओं) के संयोग से बना हुआ है । उससे छोटा कोई स्कन्ध नहीं होता । पुद्गल के सबसे छोटे भाग को, जो निरंश है अथवा जिसका विभाग नहीं किया जा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ६७ सकता, परमाणु कहा है । परमाणु पुद्गल का शुद्ध रूप है, वह उसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश है। परमाणु का स्वरूप स्कन्ध का सबसे छोटा हिस्सा, जिसके टुकड़े एवं विभाग नहीं किये जा सकें उस निरवयव अंश को परमाणु कहा है । जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार परमाणु का आदि, अन्त या मध्य भाग नहीं है। परन्तु वह वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से रहित भी नहीं है । एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श उसमें पाये जाते हैं। क्योंकि ये पुद्गल के गुण हैं, अतः स्कन्ध में ही नहीं, परमाणु में भी इनका सद्भाव रहता है। परमाणु-जो पुद्गल का शुद्ध रूप है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के बिना नहीं रह सकता और वर्ण आदि गुण भी अपने गुणी परमाणु के बिना नहीं रह सकते । यह स्पष्ट है, कि परमाणु वर्णादि गुणों से युक्त है। हम परमाणु को देख नहीं सकते, परन्तु उसके कार्य को देखते हैं। इससे हमें परमाणु की उपस्थिति का अनुभव होता है। भारतीय-दर्शन में वैशेषिक-दर्शन परमाणुवादी है, जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। यूनानी-दार्शनिकों ने परमाण पर विचार किया है, और उन्होंने पदार्थ के, पुद्गल के सबसे छोटे हिस्से को अणपरमाण (Atom) कहा है। परमाण सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त है। लोकआकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ पर परमाणु का अस्तित्व न हो । इसके लिए एक उदाहरण दिया जाता है, कि एक डिबिया में काजल ठोस-ठोस कर भर दो और उस पर ढक्कन लगाकर उसे जोर से हिला दो, उस डिबिया में वह सहज रूप से समा जायेगा। इसी प्रकार सम्पूर्ण लोक में परमाणु फैले हुए हैं। जीव. जहाँ स्थित है, गति करता है, वह वहीं से अपने राग-द्वेषात्मक परिणामों के कारण कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर लेता है। यदि परमाण या पूदगल लोक-आकाश में सर्वत्र व्याप्त न हो, किसी स्थान विशेष में ही हो, तो अन्य स्थान पर स्थित आत्मा कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण नहीं कर सकेगा। जिस प्रकार काजल की डिबिया का एक भी ऐसा भाग रिक्त नहीं मिलेगा, जहाँ काजल न लगा हो, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक-आकाश का एक भी प्रदेश पुद्गल-परमाणुओं से रिक्त नहीं मिलेगा। परमाणु और एटम वैज्ञानिक पहले ६२ मौलिक-तत्त्व (Elements) मानते थे। उन्होंने उनके वजन और शक्ति का नाप भी निश्चित किया था। मौलिक-तत्त्व का Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व अर्थ यह है-एक तत्त्व का दूसरे तत्त्व के रूप में परिवर्तित नहीं होना। परन्तु आधुनिक विज्ञान (Ma dern Science) अब मूल-तत्त्व एक एटम (Atom) को ही मानता है। हिन्दी में (Atom) का अर्थ अणु किया जाता है । वैशेषिक-दर्शन धूप में दिखाई देने वाले छोटे-छोटे कणों को अणु कहता है । परन्तु जैन-दर्शन अणु-परमाणु उसे मानता है, जिसके दो विभाग नहीं किये जा सकें । परमाण का आदि (Beginning) मध्य ( Middle) और अन्त (End) वह स्वयं है । अतः विज्ञान द्वारा मान्य (Ato.n) जैनों द्वारा मान्य अणु से भिन्न है । क्योंकि विज्ञान जिसे (Atom) अण कहता है, उसके खण्ड किये जा सकते हैं । आधुनिक विज्ञान अपने द्वारा मान्य मौलिक-तत्त्व अणु के सम्बन्ध में इस प्रकार मानता है१. ऋणात्मक (Negative ) शद्ध मौलिक तत्त्वों का जो उचित भार है, उसे इलेक्ट्रोन (Electrons) कहते हैं । २. मूल-तत्त्व सम्बन्धी घनात्मक (Positive) रूप से उतने ही परमाणु पुंज के भार को पोजिट्रोन (Positron) कहते हैं। ३. घनात्मक मूल-तत्त्व के भार से जो १८५० गुणा भारी है. उसे प्रोटोन कहते हैं। ४. पदार्थ (Matter) के शुद्ध या मूल-तत्त्व-जो किसी तरह के इलेक्ट्रिक चार्ज से रहित हैं और प्रोटोन से उसका पुंज कुछ कम वजनदार है, उसे न्यूट्रोन कहते हैं। ५. सामान्य इलेक्ट्रोन से जो पचास गुना अधिक भारी है, उसे हेवी इलेक्ट्रोन (Heavy-Electron) कहते हैं । ६. जो इलेक्ट्रोन के पुञ्ज का ही एक रूप है, परन्तु (Electr c Charge) से रहित है, उसे निउट्रिनो (Neutrino) कहते हैं। ७. जिसका प्रोटोन के पुञ्ज के बराबर पुञ्ज है और जो ऋणात्मक मूलतत्व के भार के साथ है, उसे नेगेट्रोन (Negation) कहते हैं। विश्व की विद्यमानता में विज्ञान निश्चित रूप से इन सात में से प्रथम चार को स्वीकार करता है। अन्त के तीन भेदों पर अभी प्रयोगशाला (Laboratory) में प्रयोग (Experiment) होना शेष है। परन्तु पहले चार तत्वों को प्रयोगों के द्वारा सिद्ध करके विज्ञान ने उन्हें स्वीकार कर लिया है । वे इस प्रकार है-एक प्रोटोन और एक इलेक्ट्रोन के टूटने पर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ६६ एक निउट्रोन होगा । (Neutron or Proton) दोनों में से एक विभक्त होना ही चाहिए। क्योंकि विज्ञान की मान्यता के अनुसार (Atom) के विभक्त होने या टूटने पर ही उसका उपरोक्त रूपों में परिवर्तन होता है । जैसे-प्रोटोन को तोड़ने पर निउट्रोन+पोजिट्रोन और निउट्रोन के तोड़ने से =प्रोटोन+इलेक्ट्रोन बनता है-Proton breaking into Neutron+Positron and the Neutron breaking into Proton + Electron. इस प्रकार विज्ञान की मान्यता के अनुसार Atom के टुकड़े किये जा सकते हैं, उसे तोड़ा जा सकता है। और उसी मूल-तत्व से अन्य सभी पदार्थ बनते हैं, इसलिए मूल तत्व केवल Atom है ।। विज्ञान जिसे अण (At..m) कहता है, जैन मान्यता के अनुसार वह अण परमाणु नहीं, सूक्ष्म-सूक्ष्म (Fine-fine) स्कन्ध ही हो सकता है । स्कन्ध को तोड़ा जा सकता है। इस बात को जैन-दर्शन भी मानता है कि स्कन्ध टूटता भी है और जुड़ता भी है । उसमें से परमाणु स्वतः टूटकर अलग भी होते हैं और प्रयोग के द्वारा तोड़ने पर भी परमाण स्कन्ध में से अलग हो जाते हैं और उनका दूसरे स्कन्ध के साथ स्वतः संयोग होता है और प्रयोग के द्वारा भी संयोग किया जा सकता है । अभिप्राय यह है कि परमाणु पुद्गल का शुद्ध रूप है और उसी को पुद्गल-द्रव्य वहा है । क्योंकि परमाणुओं के परस्पर संयोग-वियोग से ही विभिन्न प्रकार के स्कन्ध या पदार्थ उत्पन्न और विनाश को भी प्राप्त होते हैं । परन्तु, उनके उत्पन्न एवं विनष्ट होने पर भी परमाणु का कदापि नाश नहीं होता, वह सदा बना रहता है । परमाणु के भेद यह मैं पहले ही बता चुका हूँ कि परमाणु के विभाग अथवा टुकड़े नहीं किये जा सकते । और जैन-दर्शन वैशेषिक-दर्शन की तरह पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुओं को पृथक्-पृथक् भी नहीं मानता । क्योंकि परमाण या पुद्गल में पाये जाने वाले गुण-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शचारों गुण पृथ्वी, जल, तेज एवं वायु में समान रूप से पाये जाते हैं । जल के परमाणु पृथ्वी, तेज एवं वायु में से किसी भी रूप में परिणत हो सकते हैं। इसलिए जैन-दर्शन विभाग एवं गुणों की दृष्टि से परमाणु में भेद नहीं मानता। परन्तु, वह कार्य और कारण की दृष्टि से परमाण के दो भेद 1. Cosmology : Old and New. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० | जैन- दर्शन के मूलभूत तत्त्व करता है - कार्य- परमाणु और कारण - परमाणु । दर्शन - शास्त्र ( Philosophy) यह नियम है कि कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता । कारण के होने पर ही कार्य होगा । यदि कार्य हुआ है, तो उससे यह स्पष्ट प्रमाण मिल जाता है कि उसका कारण भी विद्यमान है । इसी अपेक्षा से आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार गाथा २५ में लिखा है - चार मूल धातुओं का जो कारण है, वह कारण-परमाणु (Cause atom ) है, और स्कन्ध के टूटने पर जो सबसे छोटा हिस्सा सम्भव हो सकता है - स्कन्ध से अलग हो सकता है, वह कार्य - परमाणु (Effect atom ) है । इसका अभिप्राय यह है, कि परमाणुओं के संयोग से पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार भूतों के स्कन्ध बनते हैं | इसलिए इन भौतिक पदार्थों के स्कन्ध रूप कार्य का कारण परमाणु है । परमाणुओं का संयोग हुए बिना भौतिक पदार्थ बन ही नहीं सकते । इस अपेक्षा से स्कन्ध रूप कार्य की उत्पत्ति में परमाणु कारण है । इसी प्रकार स्कन्ध के टूटने पर या उसे तोड़ने पर उसका सबसे छोटा भाग परमाणु अलग होकर अपने शुद्ध रूप में आ जाता है । स्कन्ध के रूप में विभाव- पर्याय में से परमाणु का स्वभाव - पर्याय में आ जाना, यह परमाणु का कार्य है और इसमें कारण है स्कन्ध । क्योंकि स्कन्ध के टूटने या तोड़ने पर ही परमाणु उससे अलग होकर अपने शुद्ध रूप में प्रकट होता है । इस अपेक्षा से परमाणु कार्य है और उसका कारण है स्कन्ध | पुद्गल की पर्याय जैन दर्शन प्रत्येक द्रव्य के अनन्त गुण मानता है और एक-एक गुण की अनन्त पर्याय मानता है । अतः प्रत्येक द्रव्य की अनन्त - अनन्त पर्यायें होती हैं । मुख्य रूप से पर्याय दो प्रकार की मानी हैं - स्वभाव- पर्याय और विभाव- पर्याय | आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वभाव और विभाव की व्याख्या इस प्रकार की है - द्रव्य की पर्याय में होने वाला परिणमन, जो अन्य की अपेक्षा नहीं रखता वह स्वभाव-पर्याय है और जिस परिणमन में अन्य की अपेक्षा रहती है, वह विभाव- पर्याय है । अतः निश्चय दृष्टि से परमाणु ही पुद्गलद्रव्य है और उसमें रहने वाले गुण - एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दोस्पर्श (मृदु और कठोर दोनों में से एक एवं शीत और उष्ण दोनों में से एक) उसके स्वभाव - गुण हैं, और इनका परिणमन ही स्वभाव-पर्याय है । स्कन्ध, परमाणु की विभाव अवस्था है, अतः उसमें पाये जाने वाले पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श - निश्चय-नय की अपेक्षा से पुद्गल के वैभा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ७१ विक गुण हैं और उनकी पयायों का जो तद्-तद् रूप में परिणमन होता है, वह विभाव-पर्याय है । इस प्रकार निश्चय दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द परमाणु को ही पुद्गल द्रव्य मानते हैं, और उसके गुणों एवं पर्यायों को ही उसका स्वाभाविक गुण और स्वभाव पर्यायें स्वीकार करते हैं। परन्तु, स्कन्ध के गुणों एवं पर्यायों को वे स्वभाव-गुण एवं स्वभाव-पर्याय नहीं, प्रत्युत विभावगुण एवं विभाव-पर्याय कहते हैं ।। व्यवहार-नय की अपेक्षा से जैन-दर्शन स्कन्ध के गुणों एवं स्कन्ध की पर्यायों को पुद्गल के गुण एवं पुद्गल की पर्याय स्वीकार करता है । इसी अपेक्षा से भगवान महावीर ने पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं आठ स्पर्श को पुद्गल के गुण कहे हैं। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में भी इन्हीं गुणों का उल्लेख किया है और आचार्य कुन्दकुन्द ने भी पञ्चास्तिकायसार में उक्त गुणों को पद्गल में स्वीकार किया है। इस प्रकार स्कन्ध की अपेक्षा से भी पद्गल की पर्यायों का आगम में उल्लेख किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में शब्द, अन्धकार, उद्योत (प्रकाश), प्रभा (कान्ति), छाया, आतप, वर्ण, गन्ध, और स्पर्श आदि को पुद्गल का गुण कहा है। तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वाति ने पुद्गल को शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद. तम, छाया, आतप, उद्योत आदि पर्यायों से युक्त माना है। कुछ अन्य दार्शनिक शब्द, अन्धकार, छाया, प्रकाश आदि को पुद्गल की पर्याय न मानकर आकाशादि का गुण या अभाव रूप मानते हैं। परन्तु जैन-दर्शन की मान्यता इस प्रकार है १. शब्द-शब्द न तो आकाश का गुण है और न मात्र शक्ति रूप है। आकाश रूप रहित है और शब्द रूप युक्त है, इसलिए वह आकाश का गुण नहीं हो सकता। शब्द शक्तिमान पुद्गल-द्रव्य का स्कन्ध है । अनन्त परमाणुओं के संयोग से बना हुआ एक स्कन्ध है और वह मुख से मुखरित होने के बाद वायु के माध्यम से लोक-आकाश में फैलते समय आस-पास के वातावरण को शब्दायमान बनाता जाता है, झनझनाता जाता है । यन्त्रों के द्वारा उसके वेग को, गति को और ध्वनि को बढ़ाया जा सकता है, और उसे यन्त्रों में पकड़ा भी जा सकता है, और ट्रान्समोटर (Trans nitter) या १. नियमसार, २७-२६ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व बेतार के तार (Wireless) के माध्यम से उसे स्थानान्तर में भी भेजा जा सकता है। शब्द का एक स्थान से दूसरे स्थान में गति करने का अभिप्राय है, शब्द-वर्गणा के परमाणओं से निर्मित शब्द-पर्याय वाले पुद्गल स्कन्ध का जाना । और शब्द की उत्पत्ति का अर्थ है-आस-पास के स्कन्धों में शब्दपर्याय का उत्पन्न होना। अभिप्राय यह है कि शब्द पुद्गल-द्रव्य की एक पर्याय है और उसका आधार है-पुद्गल-स्कन्ध । विश्व का समस्त वातावरण गतिशील परमाण (पुद्गल) से बना हआ है। पौद्गलिक स्कन्धों में परमाणुओं के संयोग एवं वियोग से उष्णता, सर्दी, प्रकाश, छाया, अन्धकार आदि पर्यायें उत्पन्न एवं नष्ट होती रहती हैं। जैन-दर्शन की मान्यता के अनुसार परमाण की गति एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर लोकान्त तक हो सकती है और वह गति करते समय आस-पास के वातावरण को भी प्रभावित करता है। आज के विज्ञान ने शब्द और प्रकाश की गति का माप प्रस्तुत किया है, पर परमाणु की गति से-जो उसकी स्वाभाविक गति है, अति अल्प अंश है। विज्ञान इस बात को स्वीकार करता है कि प्रकाश, गर्मी, छाया आदि स्कन्ध एक स्थान से बहुत दूर तक गति करते समय अपनी गति के वेग (Force) के अनुरूप वातावरण को प्रकाश, गर्मी एवं छाया की पर्यायों से युक्त बनाते जाते हैं। बैटरी (Torch) से निकलने वाली प्रकाश की पर्याय स्वयं गति करती हैं और गतिशील पृद्गलों को प्रकाश एवं गर्मी के रूप में परिवर्तित करके आगे धकेलती हैं। इसी सिद्धान्त Theory के आधार पर विज्ञान ने Wireless से शब्द को स्थानान्तरित किया, Telesco के माध्यम से अक्षरों को और Television के माध्यम से फोटो को स्थानान्तरित किया। अब तो गुलाब आदि की सुगन्ध को भी स्थानान्तरित करने का प्रयत्न चालू है । इससे स्पष्ट होता है, कि शब्द पुद्गल की पर्याय है और वह गति करते समय मार्ग में पड़ने वाले पुद्गलों को भी शब्दायमान बनाती है । २. बन्ध-निरन्तर गतिशील एवं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाले अनन्त-अनन्त परमाणओं के संयोग-वियोग से स्कन्धों का निर्माण और विनाश होता है। परमाणओं का परस्पर संयोग और वियोग दो प्रकार से होता है - नैसर्गिक और प्रायोगिक । वे अन्य के प्रयत्न के बिना भी परस्पर मिलते और बिखरते रहते हैं और कुछ स्कन्धों में स्थित परमाणु अन्य के प्रयोग से भी परस्पर बंधते एवं एक-दूसरे से अलग होते हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ७३ एक-दूसरे के साथ मिलना यह पुद्गल की बन्ध-पर्याय है । प्रत्यक्ष में परिलक्षित होने वाला यह भौतिक जगत् मात्र माया, अविद्या या कल्पना ही नहीं, ठोस सत्य है । स्वप्न की तरह काल्पनिक ही नहीं, अपनी वास्तविक सत्ता रखने वाला सत् पदार्थ है । विज्ञान ने वैज्ञानिक परीक्षणों एवं प्रयोगों के द्वारा एटम ( Atom) में जिन इलेक्ट्रोन ( Electron ) और प्रोटोन (Proton) को चक्कर लगाते हुए देखा, वह जैन परम्परा द्वारा मान्य सूक्ष्मसूक्ष्म Fincfine स्कन्ध में आबद्ध परमाणुओं का ही गतिचक्र है । वास्तव में पुद्गल में होने वाला परिवर्तन उसकी पर्यायों में ही होता है और उस का उपादान कारण वह स्वयं है । अभिप्राय यह है कि पुद्गल का नियन्त्रण पौद्गलिक साधनों से ही हो सकता है और वे साधन भी परिणमनशील हैं और उनका परिणमन भी पौद्गलिक पर्यायों में ही होता है । अतः परमाणुओं के संयोग-वियोग से पुद्गलों में होने वाला विभिन्न प्रकार का बन्ध पुद्गल की एक पर्याय है । ३-४. सौक्ष्म्य और स्थौल्य - सूक्ष्मता भी पुद्गल की एक पर्याय है और स्थूलता भी पुद्गल की एक पर्याय है । दोनों पर्यायें दो-दो प्रकार की हैंअन्त्य सूक्ष्मता Extreine fineness और आपेक्षिक सूक्ष्मता Relative fineness सौक्ष्म्य Fineness पर्याय है और Extreme grossness ( अन्त्य -स्थूलता) और Relative grossness ( सापेक्षिक - स्थूलता) स्थौल्य grossness पर्याय है । पुद्गल में परमाणु अन्त्य - सूक्ष्म पर्याय है, इससे सूक्ष्म अंश हो ही नहीं सकता और पुद्गल में ! विश्वव्यापी महास्कन्ध अन्त्य स्थौल्य Extreme Grossness पर्याय है, इससे स्थूल एवं विराट् पदार्थ इस विश्व में अन्य कोई नहीं है । सापेक्षिक के लिए कहा जा सकता है कि बेर, टमाटर से सूक्ष्म है और तरबूज, टमाटर से स्थूल है । इस प्रकार सापेक्षिक सूक्ष्म और स्थूलपर्याय में और भी अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । ५. संस्थान - संस्थान का अर्थ है - आकार । यह भी पुद्गल की एक पर्याय है । पुद्गल - स्कन्धों में परमाणओं के संयोग-वियोग से विभिन्न प्रकार के आकार बनते और बिगड़ते रहते हैं । अतः पुद्गल का आकार तो है, परन्तु इनका एक निश्चित एवं व्यवस्थित आकार नहीं है । जिस प्रकार बादलों का कोई निश्चित एक आकार नहीं है । ६. भेद - यह भी पुद्गल की एक पर्याय है। पुद्गल-स्कन्धों में होने वाले परमाणुओं के संघटन - विघटन से वह विभिन्न भेदों में विभक्त होता रहता है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व ७. तम-तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में तम की परिभाषा की है- तम वस्तुओं के देखने में प्रतिबन्धक कारण है और प्रकाश का विरोधी तत्त्व है। कुछ विचारक अन्धकार के अस्तित्व को प्रकाश की तरह स्वतन्त्र नहीं मानते, वे उसे प्रकाश का अभाव मानते हैं। परन्तु वह प्रकाश का अभाव नहीं, प्रत्युत पुद्गल की स्वतन्त्र पर्याय है और प्रकाश की तरह उसका भी अस्तित्व है। उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का सदभाव है । विज्ञान भी अन्धकार को ठोस पदार्थ मानता है और वर्ण आदि से युक्त मानता है। रंग के सम्बन्ध में ए. डब्ल्यू. बारटॉन का कहना है-जैसे पदार्थ के तापमान को बढ़ाया जाए, तो वह सर्वप्रथम पार-रक्त Infra-red प्रकाश को छोड़ता है, उसके बाद लाल Red light, पीत yellow light, और सफेद white light प्रकाश छोड़ता है। जैसे-जैसे पदार्थ के तापमान को बढ़ाया जाता है, वैसे-वैसे रंग अधिक गहरा होता जाता और रंग की छोटी लहरें लम्बी होती जाती हैं। उदाहरण के रूप में हम कुछ तारों stars को ले सकते हैं, जो नीलेपन को लिए सफेद प्रकाश के साथ चमकते हैं । यह इस बात का स्पष्ट संकेत है, कि वहाँ का तापमान अवश्य ही ऊँचा होना चाहिए । इसी प्रकार अन्धकार की गर्म किरणे Dark heatrays हैं, जो देखने की शक्ति उत्पन्न नहीं करती। इन किरणों की उपस्थिति में क्या प्रमाण है ? जिससे यह माना जा सके कि अन्धकार भी वास्तविक पदार्थ है ? इसके समाधान में एक उदाहरण दिया गया है, कि बिल्ली और उल्लू-जो अंधेरा होते हए भी infra-red rays की मदद में रात के अंधेरे को भी देख सकते हैं। और Infra-red rays की सहायता से ही फोटोग्राफर घुप अंधेरे utter darkness में फोटोग्राफ ले सकता है। यदि अंधेरे में ये किरणें नहीं होतीं, तो जिन पशु-पक्षियों की आँखों में से infrared-rays निकलती है, वे अंधेरे में कैसे देख पाते और अंधेरे में फोटो कैसे लिये जा सकते ।। इससे स्पष्ट होता है कि अंधकार में भी किरणें हैं वे हमारी आँखों को प्रभावित नहीं करती, परन्तु उनके अस्तित्व को फोटोग्राफिक आँखों Eyes of a special photographic plate से देखा जा सकता है । जैन-दर्शन ने इस सत्य-तथ्य को प्रारम्भ से ही स्वीकार किया है कि अंधकार पुद्गल की एक पर्याय है, उसमें रंग, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श सब हैं। 1 A Text book of Heat, by A. W. Barton, P. 361. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप ! ७५ ८. छाया-छाया shadow भी एक पुद्गल की पर्याय है । सूर्य आदि ग्रह-नक्षत्र प्रकाश-युक्त पदार्थों के निमित्त से आस-पास के वातावरण को ज्योतिर्मय बना देते हैं। परन्तु इन प्रकाश की किरणों का जो पुद्गलस्कन्ध जितने स्थान में अवरोध कर लेता है, उतने स्थान में प्रकाश नहीं, छाया दिखाई देती है। छाया पौद्गलिक है और प्रकाश का आवरण है। तत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में छाया को दो प्रकार का बताया हैवर्णादि विकारों में परिणत और प्रतिबिम्बित । साफ शीशे में जो व्यक्ति या पदार्थों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह पुद्गल की पर्याय है और उसे छाया या प्रतिच्छाया कहते हैं। दूसरा रूप सिनेमा के पर्दे Cinema screen पर देखा जा सकता है। सिनेमा के पर्दे पर जो चलचित्र परिलक्षित होता है, वह फिल्म Film की प्रतिच्छाया ही है। इससे स्पष्ट होता है कि छाया, माया एवं कल्पना नहीं, ठोस पुद्गल है। विज्ञान ने छाया की परिभाषा इस प्रकार की है-सही रूप में प्रकाश का अवरोध (आवरण) ही छाया "The production of si adows is also correctly explained as due to the obstruction of light.1 -१० आतप और उद्योत-आतप और उद्योत-दोनों पुद्गल की पर्यायें हैं। विज्ञान की दृष्टि से प्रकाश के दो रूप हैं-आतप Heat और Light | सूर्य का प्रकाश, आग की ज्योति या लैंप की रोशनी आतप है, और चन्द्र की ज्योत्स्ना, खद्योत अथवा जुगनू की धीमी-रोशनी और रत्नों में से निकलने वाली रोशनी आदि को उद्योत कहते हैं। आतप में प्रकाश कम और ताप अधिक होता है, और उद्योत में प्रकाश की मात्रा अधिक होती है, गर्मी कम । विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है, कि लैम्प में १५% प्रकाश रहता है, और सूर्य में ३५% प्रकाश होता है। इसका अर्थ है, कि लैम्प और सूर्य की क्रमशः १५% और ३५% शक्ति ही प्रकाश में परिवर्तित होती है, शेष ८५% और ६५% शक्ति आतप में परिणत होतो है। परन्तु जुगनू या खद्योत Glow-worm के शरीर में जो रोशनी दिखाई देती है, उसमें ६६% ज्योति रहती है और १% आतप । इसलिए प्रथम के प्रकाश को आतप और द्वितीय के प्रकाश को उद्योत कहते हैं । और ये पुद्गल की पर्याय हैं, अतः ये मात्र शक्ति रूप नहीं, प्रत्युत पुद्गल-द्रव्य के स्कन्ध है । क्योंकि कोई भी शक्ति निराधार नहीं रहती। 1. Cosmology : Old and New, P. 176 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व पुद्गल को चार अवस्थाएँ आगम में पुद्गल के अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद किए हैं। उसकी चार अवस्थाओं का वर्णन भी आगम में मिलता है। वे चार अवस्थाएँ हैंस्थूल, सूक्ष्म, संस्थान और बन्ध । इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य समस्त पदार्थ स्थूल हैं । इन्द्रिय एवं शरीर भी स्थूल पदार्थ हैं, परन्तु मन को सूक्ष्म माना है। क्योंकि वह दिखाई नहीं देता। आगम में मन Mind को दो प्रकार का माना है-द्रव्य-मन और भाव-मन । मनोविज्ञान Psychology में मन की तीन अवस्थाओं का वर्णन है-चेतन-मन Conscious-mind और अचेतनमन Unconscious mind तथा इन दोनों के मध्य की जो कड़ी है,उसे अर्ध चेतन-मन Pre-Conscious mind कहा है। कुछ ऐसे विचार होते हैं कि बड़ों के दबाव के कारण, सामाजिक प्रतिबन्धों के कारण या परिस्थिति वश चाहते हुए भी व्यक्ति उन विचारों को, इच्छाओं को कार्यरूप में परिणत नहीं कर पाता। वे दमित इच्छाएँ बाहर में समाप्त हो गई ऐसा दिखाई देता है, परन्तु वे मरती या नष्ट नहीं होतीं, बल्कि Unconscious mind की तह में छिप जाती हैं, जो प्रसंग पर निमित्त पाकर पुनः उभर आती हैं। Conscious-mind वह है, जिसमें इच्छाएँ उठती हैं और कार्य रूप में परिणत हो जाती है । Pre-conscious-mind का कार्य यह है, कि कुछ इच्छाएँ जो दमित कर दी गई हैं या की जाने योग्य हैं, उन्हें व्यक्ति योग्य रूप में परिवर्तित करके कार्य रूप में परिणत करता है। परन्तु मन के ये तीनों प्रकार द्रव्य और भाव मन में समाविष्ट हो जाते हैं । द्रव्य-मन परमाणुओं से बना हुआ है। वह स्वतः न अच्छा विचार करता है और न बुरा विचार । द्रव्य-मन जड़ है, अतः उसमें सोचने की शक्ति नहीं है। वह तो भाव-मन द्वारा जो शुभाशुभ संकल्प-विकल्प किए जाते हैं, उनको प्रकट करने का माध्यम है। भाव-मन चेतना-युक्त है। अतः वह राग-द्वेषात्मक भी है। इच्छा, वासना एवं कामना उसी में जागृत होती हैं। जिन इच्छा-आकांक्षाओं को वह कारणवश या परिस्थितिवश कार्य रूप में परिणत नहीं कर पाता, वे स्मृति के कोष में संग्रहीत रहती हैं, सत्ता में बनी रहती हैं। वासना एवं इच्छा का उदय में आकर कार्य रूप में परिणत नहीं होना, प्रत्युत अन्तर्मन की तह में प्रच्छन्न रहना, स्मृति या सत्ता में बने रहना है, जो समय पाकर उदय में आ सकती है । इसी को मनोविज्ञान में Unconscious mind कहा है । यह भाव-मन ज्ञाना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल का स्वरूप | ७७ स्मक है और प्रथम गुणस्थान से लेकर द्वादश गुणस्थान तक रहता है। त्रयोदश गुणस्थान में भाव-मन नहीं रहता, क्योंकि वहाँ केवलज्ञान रहता है। इसलिए क्षायोपशमिक भाव-मन स्वतः ही समाप्त हो जाता है । नाम कर्म के उदय के कारण द्रव्य-मन रहता है। परन्तु राग-द्वेष एवं संकल्पविकल्पात्मक भाव-मन का अभाव होने के कारण तेरहवें गुणस्थान में पुण्यपाप का बन्धन नहीं होता। परन्तु जहाँ भाव-मन है, वहाँ बन्ध होता है । आचार्य कुन्दकुन्द बन्ध को पुद्गल की अवस्था मानते हैं, चेतन की नहीं । यदि चेतन को बन्ध हो तो फिर वह मुक्त कैसे होगा ? गाय बाहर से चर्वण करके जब शाम को घर लौटती है, तब गृहस्वामी उसे रस्सी से खूटे पर बाँधता है। व्यवहार में कहा जाता है कि गाय को रस्सी से बांधा गया। परन्तु वास्तव में गाय को नहीं बांधा गया। क्योंकि रस्सी की गाँठ गाय में नहीं, प्रत्युत रस्सी में ही लगाई गई है। इसी प्रकार निश्चय दृष्टि से भाव-मन के संकल्प-विकल्प के कारण कर्मों का बन्ध कार्मण वर्गणा के या कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के साथ होता है, जीव के प्रदेशों के साथ नहीं । जीव का परिणमन जीव की चेतन पर्यायों में ही होता है, कर्म की जड़-पर्यायों में नहीं। अतः निश्चय-दष्टि से न तो अतीत में चेतन का बन्ध हआ है, न वर्तमान में होता है, और न अनन्त अनागत में होगा। व्यवहार नय की अपेक्षा से व्यवहार-भाषा में कह सकते हैं कि शुभाशुभ भावों के अनुरूप आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता है। इस प्रकार आगम-साहित्य में भगवान् महावीर ने और उनके बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में एवं आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकायसार, नियमसार एवं प्रवचनसार में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक शैली में पुद्गल द्रव्य की व्याख्या की है। भगवान् महावीर ने कहा है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी द्रव्य को बदल नहीं सकता, परन्तु उसके स्वरूप को समझ सकता है । अतः वस्तु का जो स्वरूप है, उसे उसी रूप में देखना एवं समझना तथा उसमें राग-द्वेष न करके द्रष्टा बनकर रहना ही सम्यकज्ञान है, और यह दृष्टि ही आत्म-विकास का कारण है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्रव्य जीव का लक्षण जीव के लक्षण का कथन तीन प्रकार से किया गया -आगमिक दृष्टि से, अध्यात्मदष्टि से और दार्शनिकदष्टि से । जैन ग्रन्थों में तीन प्रकार से जीव का लक्षण किया गया है। लक्षण से ही लक्ष्य का ज्ञान होता है । जिस वस्तु का ज्ञान करना हो, उसका लक्षण जान लेना, आवश्यक होता है। किसी ने पूछा-गाय का लक्षण क्या है ? उत्तर देने वाला कहेजिसके सिर पर सींग हैं, वह गाय है, तो यह लक्षण ठीक नहीं क्योंकि इसमें अतिव्याप्ति दोष है। गाय के अतिरिक्त भैंस, बकरी और हिरन के भी सींग होते हैं । यदि कहा जाये, कि जिसका कपिल वर्ण है, वह गाय है, तो ठीक नहीं। क्योंकि गाय सफेद तथा चितकबरी भी होती है । इस लक्षण में अव्याप्ति दोष है । सभी गायों में लक्षण नहीं गया । यदि कहा जाये, कि एक खूर वाली गाय होती है, तो ठीक नहीं। क्योंकि इसमें असम्भव दोष है। गाय के दो खुर होते हैं, एक कभी नहीं होता । यदि कहा जाये, कि जिसके गले में सास्ता है, वह गाय है, तो यह लक्षण सर्वथा निर्दोष होगा। अतः बिना लक्षण के लक्ष्य वस्तु की सच्ची पहचान नहीं होती । लक्षण होना ही चाहिए । आगमगत लक्षण आगम में कहा गया है-एयं जीवस्स लक्खणं अर्थात् यह जीव का लक्षण है। कौन-सा है, वह लक्षण जिसमें ज्ञान हो, जिसमें दर्शन हो, जिसमें चारित्र हो, जिसमें तप हो, जिसमें बल वीर्य हो और जिसमें उपयोग हो, वह जीव है । जिसमें ये गुण न हों, अथवा जिसमें ये धर्म न हों, ( ७८ ) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव द्रव्य | ७६ वह जीव भी नहीं। यहाँ जीव के लक्षण का कथन भेदनय से किया गया है । अभेदनय से तो उपयोग कहने भर से ही जीव का लक्षण सिद्ध हो जाता है । आत्मा के समस्त गुणों का समावेश उपयोग में हो जाता है। अतः उपयोग ही वस्तुतः जीव का लक्षण है। षट् पर्याप्ति संसारी जीव के छह पर्याप्ति होती है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वास-प्रश्वास, भाषा और मन । पर्याप्ति का अर्थ है-पुद्गल के उपचय से होने वाला जो पूदगल परिणमन हेतु शक्ति विशेष । उसके दो भेद हैंलब्धि पर्याप्ति और करण पर्याप्ति । जिस कर्म के उदय से प्रारब्ध स्वयोग्यं पर्याप्ति, अभी पूरी नहीं की, लेकिन करेगा, उसे लब्धि पर्याप्त कहते हैं । जिस जीव के पास यह हो, वह लब्धि पर्याप्त जीव होता है। जिसने स्वयोग्य समस्त पर्याप्ति पूरी की हैं, वह जीव करण पर्याप्त है, और उसकी पर्याप्ति करण पर्याप्ति कही जाती है । अतएव संसारी जीवों के दो भेद हैं-पर्याप्त एवं अपर्याप्त । दश प्राण प्राणी तथा प्राणवान् जीव को कहते हैं । जिसके पास प्राण हो, वह प्राणी है। प्राण के दो भेद हैं-द्रव्य प्राण और भाव प्राण । निश्चय नय से एकमात्र चेतना ही प्राण है । किन्तु व्यवहारनय से जीव के चार प्राण होते हैं-इन्द्रिय, बल, आयुष्य और श्वास-प्रश्वास । इन्द्रिय के पाँच भेद हैं। बल के तीन भेद हैं । बल तीन हैं, कायबल, वचनबल और मनोबल । सब मिलाकर प्राण के दस भेद हैं । ये दसों प्राण द्रव्य प्राण हैं । चेतना भाव प्राण है । सिद्धों में भाव प्राण है, और संसारी में द्रव्य और भावदोनों हैं । संसारी जीव में कम से कम चार प्राण तथा अधिक से अधिक दस होते हैं। अध्यात्मगत लक्षण अध्यात्म शास्त्र में जीव का लक्षण किया गया है-"जीवो उवयोगमओ अमुत्ति, सदेह परिमाणो" । जो जीव है, वह उपयोग-रूप है। जो जीव है, वह अमूर्त है । जो जीव है, वह स्वदेह परिमाण है। जीव स्व कर्मों का कर्ता भी है । जीव अपने कर्म का फल-भोक्ता भी है। जीव संसारस्थ भी है, और सिद्ध भी है । जोव अपने निज स्वभाव से ऊर्ध्व गमन करने वाला है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व उपयोग दो प्रकार के हैं-साकार और निराकार । साकार ज्ञान है, निराकार दर्शन । ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं-पांच ज्ञान और तीन अज्ञान । दर्शनोपयोग के चार भेद हैं । अतः उपभोग के द्वादश भेद होते हैं । जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-ये चार गुण हों, वह मूर्त होता है । पुद्गल को छोड़कर ये चार गुण अन्यत्र कहीं नहीं रहते । अतः पुद्गल मूर्त है, और शेष पांच द्रव्य अमूर्त हैं। भारतीय दर्शनों में जीव के परिमाण के विषय में तीन मत हैंविभु, अणु और मध्यम । न्याय वैशेषिक दर्शन आत्मा को विभु परिमाण मानते हैं । भक्तिवादी आचार्य रामानुज अणु परिमाण मानते हैं । एकमात्र जैन ही जीव को मध्यम परिमाण मानते हैं। अतएव जैन दर्शन में जीव को स्वदेह परिमाण कहा गया है । सांख्य-योग दर्शन में आत्मा को भोक्ता कहा है, और प्रकृति को कर्ता । लेकिन यह तर्कसंगत नहीं है। जैन दर्शन का सिद्धान्त है-यः कर्ता, स एव भोक्ता । जोव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध । संसारी अशुद्ध तथा सिद्ध शुद्ध है । सिध्यमान जीव की गति ऊपर की ओर ही होती है-निज स्वभाव से। दर्शनगत लक्षण भारत के विभिन्न दर्शनों में जीव के अलग-अलग लक्षण किये गये है। न्याय-वैशेषिक में आत्मा का लक्षण है-"ज्ञानाधिकरणमात्मा ।" आत्मा ज्ञान का अधिकरण है, अर्थात् ज्ञान का आश्रय है । ज्ञान गुण एक मात्र आत्मा में ही रहता है, अन्यत्र नहीं । सांख्य-योग दर्शन में जीव का लक्षण है-"चैतन्यं पुरुषस्य लक्षणम् ।" पुरुष अर्थात् आत्मा का धर्म है-चैतन्य अर्थात् चेतना । चैतन्य प्रकृति का धर्म नहीं, पुरुष का ही असाधारण धर्म है। वेदान्त में ब्रह्म के दो लक्षण हैं-स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण । स्वरूप लक्षण है-"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । ब्रह्म सत्, चित्त और आनन्द रूप है । तटस्थ लक्षण है-जो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय में हेतु है, वह ब्रह्म है, और वह अनन्त है। जैन दर्शन में जीव का लक्षण इस प्रकार किया है-"उपयोगो जीवस्य लक्षणम् ।" जीव का लक्षण है - उपयोग । उपयोग शब्द जैन दर्शन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव- द्रव्य | ८१ का पारिभाषिक शब्द है । उपयोग का अर्थ है - ज्ञान । ज्ञान गुण ही आत्मा का असाधारण धर्म है । उपयोग आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में अथवा तत्त्व में नहीं रहता । संसारी जीव का उपयोग अशुद्ध और सिद्ध का उपयोग परम विशुद्ध है । लेकिन उपयोग की सत्ता - संसारी और सिद्ध- दोनों में ही है । अतएव जीव के इस लक्षण में न अतिव्याप्ति दोष है, न अव्याप्ति और न असम्भव । जैन परम्परा के समस्त दार्शनिकों ने जीव का यही लक्षण किया है । उपयोग दो प्रकार का है - साकार और निराकार | तर्क-शास्त्रगत लक्षण तर्क - शास्त्र में अथवा न्याय - शास्त्र में जीव के लिए प्रमाता शब्द का प्रयोग किया गया है । प्रमाता, प्रमाण, प्रमा और प्रमेय । इन चार शब्दों का तात्पर्य समझ लेना आवश्यक है । न्याय - शास्त्र का सिद्धान्त है, कि प्रमाता प्रमाण के द्वारा प्रमेय को जानता है । प्रमा का अर्थ है, यथार्थ ज्ञान । प्रमेय का अर्थ है, वह वस्तु जो प्रमाण के द्वारा ज्ञात हो । प्रमाण का अर्थ है - प्रमा का करण । प्रमाता का अर्थ है - ज्ञाता, जानने वाला । जीव ज्ञाता है । क्योंकि ज्ञान उसका विशेष गुण होता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर आचार्य ने अपने ग्रन्थ न्यायावतार की इकत्तीसवीं कारिका में प्रमाता का, जीव का लक्षण किया है - " प्रमाता स्वान्यनिर्भासी स्वसंवेदन संसिद्धो जीवः ।" जीव प्रमाता है । वह स्व और पर का ज्ञाता है । अपने कर्मों का कर्ता है । कर्मफल का भोक्ता है । जीव परिणामी नित्य है । स्व-संवेदन से सिद्ध है । उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। जीव क्षिति, जल, तेज, वायु और आकाश रूप नहीं है । क्योंकि ये पञ्चभूत चेतनाशून्य हैं । जीव चेतनावान् है । अतएव वह पञ्चभूतात्मक नहीं । जो पञ्चभूतात्मक होता है, वह जीव नहीं होता । जैसे प्राणियों का शरीर है । जो तीनों कालों में जीवित है, वह जीव है । प्राणों को धारण करने वाली आत्मा जीव शब्द वाच्य है । क्या है, जीवन ! दश प्रकार के प्राणों का धारण करना | कौन-से हैं दश प्राण ! स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र तथा मन, वचन, काय एवं उच्छ्वास - निःश्वास और आयुष् । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व ये दश द्रव्य प्राण मुक्त जीवों के नहीं होते हैं । लेकिन मुक्त जीवों के भाव प्राण होते हैं, और वे हैं - क्षायिकज्ञान तथा क्षायिकदर्शन । वादिदेव सूरि आचार्य ने स्वनिर्मित तर्क ग्रन्थ प्रमाणनयतत्त्वालोक के सातवें परिच्छेद के सूत्र ५५ एवं ५६ में जीव का लक्षण किया है - " प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध आत्मा ।" प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध आत्मा प्रमाता कहा जाता है । वह आत्मा चैतन्यस्वरूप है । वह परिणमनशील है । कर्ता है और भोक्ता भी है । अपने प्राप्त शरीर के बराबर है । जीव प्रत्येक शरीर में भिन्न है । जीव, पुद्गलरूप अदृष्ट कर्म वाला है । चार्वाक आत्मा को नहीं मानता । अतः कहा गया कि आत्मा, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणों से सदा सिद्ध है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ - यह स्व-संवेदन प्रत्यक्ष है । रूप आदि के ज्ञान का कोई कर्ता अवश्य है । क्योंकि जानना एक क्रिया है । जो क्रिया होती है, उसका कोई कर्ता अवश्य होता है, जैसे छेदन की क्रिया । जानने की क्रिया का जो कर्ता है, वही आत्मा है, वही जीव है । जो कर्ता होता है, वह भोक्ता भी होता है । सांख्य दर्शन प्रकृति को कर्ता और पुरुष को भोक्ता मानता है । उसका यहाँ खण्डन किया गया है । जीव चैतन्यस्वरूप है । न्याय-वैशेषिक में आत्मा को चैतन्यस्वरूप नहीं माना है । अतः उसका यहाँ खण्डन किया है । परिणामी विशेषण से सांख्य मत का खण्डन है । क्योंकि वह पुरुष को कूटस्थ नित्य मानता है । स्वदेह परिमाण विशेषण से न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग मतों का खण्डन किया गया है । क्योंकि वे आत्मा को आकाश की भाँति व्यापक मानते हैं । प्रतिशरीर भिन्न विशेषण से वेदान्त का खण्डन किया है । क्योंकि वेदान्त मत में समस्त शरीरों में एक ही आत्मा माना गया है। अदृष्टवान् विशेषण से चार्वाक मत का निराकरण किया गया है। क्योंकि वह अदृष्ट को नहीं मानता है । सिद्धि का स्वरूप आचार्य वादिदेव सूरि ने सिद्धि का स्वरूप बताते हुए कहा है"सम्यग्ज्ञान-क्रियाभ्यां कृत्स्नकर्मक्षयस्वरूपा सिद्धि: ।" प्रत्येक मनुष्य सिद्धि की साधना कर सकता है । शरीर नर का हो अथवा नारी का, सिद्धि की साधना में उसके कारण से कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता है। क्योंकि मुक्ति का कारण समग्र कर्मों का क्षय है और क्षय होता है - सम्यग्ज्ञान और Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ८३ सम्यक्चारित्र से । यहाँ पर 'स्त्री का शरीर' इस कथन से स्त्री-मुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर सम्प्रदाय का खण्डन किया गया है। “पुरुष शरीर" ग्रहण करने से शूद्र-मुक्ति का निषेध करने वालों का निराकरण किया गया है। कुछ लोग ज्ञान मात्र से तथा कुछ लोग क्रिया मात्र से मुक्ति मानते हैं । उनका खण्डन करने के लिए ज्ञान और क्रिया-दोनों का ग्रहण किया है। यद्यपि जिनशासन में सम्यग्दर्शन को भी मोक्ष का उपाय कहा गया है, तथापि वह सम्यग्ज्ञान का सहचर होता है । जहाँ सम्यग्ज्ञान होगा, वहाँ सम्यग्दर्शन अवश्य होगा । अतः उसकी अलग गणना नहीं की है। आचार्य हेमचन्द्र आचार्य ने स्वप्रणीत प्रमाण-मीमांसा के प्रथम अध्याय के ४२वें सूत्र में प्रमाता का, ज्ञाता एवं जीव का लक्षण इस प्रकार से दिया है-“स्वपराभासी परिणामी आत्मा प्रमाता ।" स्व और पर का ज्ञाता, परिणमनशील आत्मा प्रमाता होता है। दीपक स्वप्रकाशक होने के साथ परप्रकाशक भी है। उसे प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं । कुछ लोग आत्मा को स्वप्रकाशक ही मानते हैं और कुछ पर-प्रकाशक ही मानते हैं। अतः दोनों का निराकरण हो जाता है । परिणामी का क्या अर्थ है ? जिसमें एक साथ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रहे, वही परिणामी होता है । आत्मा न कूटस्थ नित्य है, न क्षण-विनश्वर है। जीव नित्य भी है, अनित्य भी है । जैसे सर्प की कुण्डलावस्था मिटती है, तदनन्तर सरलता अवस्था उत्पन्न होती है, और सर्पत्व दोनों अवस्थाओं में ज्यों का त्यों कायम रहता है। आत्मा की सुख एवं दुःख आदि अवस्थाएँ विनष्ट होती रहती हैं। उत्पन्न भी होती रहती है। लेकिन चैतन्य ज्यों का त्यों स्थिर बना रहता है। आत्मा को एकान्त विनाशशील मान लिया जाए, तो कृतकर्मप्रणाश और अकृतकर्मागम दोषों का प्रसंग उपस्थित होता है। यदि आत्मा को एकान्त नित्य माना जाए, तो सुख-दुःख आदि विविध प्रकार के पर्यायों का होना सम्भव नहीं रहता। कुछ लोग कर्तत्व और भोक्तत्व--आत्मा में नहीं होते, उसकी अवस्थाओं में होते हैं, इस प्रकार का कथन करते हैं। किन्तु यह कल्पना असंगत है । क्योकि अपनी अवस्थाओं से अवस्थावान् Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व भिन्न नहीं है । दोनों में कथंचित् अभेद है। अतः कर्म का कर्ता ही उसका फल भोगता है। इस कथन के द्वारा आत्मा के एकान्त नित्यत्व और एकान्त अनित्यत्व का निराकरण किया गया है । आत्मा शब्द के प्रयोग से अनात्मवाद का खण्डन किया गया है। यह प्रमाता का लक्षण सिद्ध हो गया। ___ तर्कवादी आचार्यों ने जीव का लक्षण तर्क-प्रधान शैली से किया है । आचार्य सिद्धसेन ने जो बात कही, वही बात आचार्य वादिदेव सूरि ने कही, और वही बात आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने कही । परन्तु तीनों की शैली अपनी है। तीनों ने तर्क के आधार पर प्रमाता, ज्ञाता, जीव और आत्मा का लक्षण करके स्वमत का मण्डन और परमत का खण्डन किया है। जीव के भेद-प्रभेद जैन दर्शन का जीव विज्ञान विस्तृत एवं व्यापक है । आगम ग्रन्थों में तथा दर्शन ग्रन्थों में जीवों के भेद और प्रभेदों का वर्णन अनेक प्रकारों से किया गया है । भेदों के वर्णन करने की एक पद्धति नहीं रही। अपनीअपनी अभिरुचि के अनुसार वर्णन किया है। किसी ने संक्षेप शैली से तो किसी ने विस्तार पद्धति से जीवों के विभाजन को प्रस्तुत किया है। यहाँ पर संक्षेप में, आगम और दर्शन ग्रन्थों के अनुसार विभिन्न पद्धतियों को प्रस्तुत किया जा रहा है । भेद-प्रभेदों के कथन का मूल आधार नव-तत्त्वप्रकरण, तत्त्वार्थ-सूत्र और द्रव्य-संग्रह है। नव-तत्व प्रकरण इस प्रकरण में जीव के चतुर्दश भेद किये गये हैं, जो इस प्रकार हैं-एकेन्द्रिय के दो भेद-सूक्ष्म और वादर । विकलेन्द्रिय के तीन भेदद्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय । पंचेन्द्रिय के दो भेद-संज्ञी और असंज्ञी । इन सातों के दो भेद-पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों के शरीर चर्म चक्ष ओं से दृष्टिगोचर नहीं होते, वे सूक्ष्म कहे जाते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अनेकों के मिल जाने से दृष्टिगोचर होते हैं, वे बादर कहे जाते है । सूक्ष्म और बादर जीवों के एक इन्द्रिय होती हैस्पर्शन । शंख आदि द्वीन्द्रिय जीवों के दो इन्द्रियाँ होती हैं-स्पर्शन और Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ८५ रसना। कीड़ी आदि त्रीन्द्रिय जीवों के तीन इन्द्रियाँ हैं-स्पर्शन, रसना और ब्राण । भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीवों के चार इन्द्रियाँ होती हैंस्पर्श न, रसना, घ्राण और चक्षु । मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि के पांच इन्द्रियाँ होती हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र । पचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं -संज्ञी और असंज्ञी । संज्ञा शब्द का अर्थ है--ज्ञान । संज्ञा तीन प्रकार की है-दृष्टिवादिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दीर्घकालिकी । दीर्घकालिकी संज्ञा जिन जीवों में होती है, वे संज्ञी होते हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों का विचार जिससे हो, वह दोर्घकालिकी संज्ञा है। संज्ञी को मन वाला और असंज्ञी को अमन वाला कहते हैं। संज्ञी जीव के दो भेद हैं-गर्भज एवं औषपातिक । गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य, पशु तथा पक्षी आदि गर्भज कहे जाते हैं। देव और नारक जीव उपपात से उत्पन्न होने से औपपातिक कहे जाते हैं। उपपात शब्द के दो अर्थ हैं -- शय्या और कुम्भी। उपपात-देव और नारक जीवों के उत्पन्न होने के स्थान को कहते हैं। देवों के उत्पन्न होने के लिए उपपात शय्या और नारकों के उत्पन्न होने के लिए कुम्भी होती है। क्योंकि देव एवं नारक जीवों का जन्म गर्भ से नहीं होता । अतएव वे दोनों औपपातिक जीव कहे जाते हैं। असंज्ञी का अर्थ है-मनरहित । जिसके मनन करने के लिए मन न हो, वे जीव मनरहित होते हैं, असंज्ञी होते हैं। असंज्ञी के दो भेद हैंमनुष्य और तिर्यञ्च । संमूच्छिम मनुष्य और संमूच्छिम तिर्यञ्च असंज्ञी होते हैं । संमूच्छिम शब्द का अर्थ है-अगर्भज, बिना गर्भ के उत्पन्न होने वाले । माता एवं पिता के संयोग के बिना ही उत्पन्न होने वाले जीव संमूच्छिम कहे जाते हैं। इन जीवों का आयुष्य अन्तर्मुहूर्त का होता है, अधिक नहीं। इनकी उत्पत्ति मल, मूत्र एवं कफ आदि अशुचि स्थानों में होती है। सूक्ष्म होने के कारण वे जीव चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते हैं। बालावबोध नव-तत्त्व प्रकरण ग्रन्थ पर एक टब्बा है, उसका नाम है-बालावबोध । इसकी भाषा मारवाड़ी एवं गुजराती मिश्रित है, और वह भी बहुत प्राचीन है। यह अपभ्रंश काल को रचना है। जो लोग संस्कृत भाषा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व और प्राकृत भाषा नहीं समझते थे, उन्हीं लोगों के लिए यह बालावबोध लिखा गया है। इसमें संसारी जीवों के बत्तीस भेदों का कथन किया गया है। "संसारी जीवों के बत्तीस भेद भी होते हैं। जैसे कि पाँच सूक्ष्म स्थावर और पाँच बादर स्थावर । दोनों मिलकर दस भेद होते हैं। प्रत्येक वनस्पति का एक भेद । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय का एक भेद । असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय का एक भेद । विकलेन्द्रिय के तीन भेद। ये सब मिलकर सोलह भेद होते हैं । फिर सोलह के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से जीवों के बत्तीस भेद हो जाते हैं।" 'बालावबोध' में कहा गया है, कि समस्त संसारी जीवों के पाँचसौ त्रेसठ भेद हो जाते हैं। मनुष्यों के तीन सौ तीन भेद । देवों के एक-सौ अठानवें भेद । नारकों के सात भेद । तिर्यञ्चों के अड़तालीस भेद । तत्त्वार्थ-सूत्र वाचक उमास्वाति रचित तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र में अथवा तत्त्वार्थ सूत्र में, जीवों के दो भेद हैं । संसारी और मुक्त । संसारी का अर्थ है-कर्म सहित जीव और मुक्त का अर्थ है-कर्म रहित जीव । संसारी जीव के दो भेद हैं-समनस्क और अमनस्क । समनस्क का अर्थ है-मनसहित जीव और अमनस्क का अर्थ है-मनरहित जीव । इन्हीं को संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव कहा गया है। वाचक उमास्वाति ने मन शब्द का प्रयोग करके विषय को अधिक स्पष्ट और सुगम कर दिया है। संज्ञा की अपेक्षा मन को समझना सरल है। संसारी जीवों के अन्य प्रकार से भी भेद हैं। संसारी के दो भेद हैंत्रस और स्थावर । जिन जीवों को बस नामकर्म का उदय हो, वे त्रस जीव कहे जाते हैं। जो घूमते-फिरते हों, जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आजा सकते हों, वे त्रस जीव होते हैं। जिन जीवों को स्थावर नामकर्म का उदय हो, वे स्थावर जीव होते हैं । जो एक ही स्थान पर स्थिर होते हैं । जो कहीं पर भी घूम-फिर नहीं सकते, वे जीव स्थावर होते हैं। जैसे कि पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीव स्थावर जीव कहे जाते हैं। त्रस जीवों के भेद इस प्रकार हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव । कृमि नामक जीव द्वीन्द्रिय है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ८७ क्योंकि उसके दो इन्द्रियाँ हैं-स्पर्शन और रसन । पिपोलिका त्रीन्द्रिय है। क्योंकि उसके तीन इन्द्रियाँ हैं-स्पर्शन, रसन और घ्राण । भ्रमर चतुरिन्द्रिय है । क्योंकि उसके चार इन्द्रियाँ हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्ष । मनुष्य, पशु और पक्षी पञ्चेन्द्रिय हैं क्योंकि उनके पाँच इन्द्रियाँ हैंस्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र । जीवों के दो भेद किये थे-समनस्क और अमनस्क। समनस्क का लक्षण किया है- “संज्ञिनः समनस्काः ।" अर्थात् संज्ञी जीव समनस्क होते हैं । यहाँ पर संज्ञा का अर्थ है-हित और अहित की परीक्षा तथा गुण एवं दोष का विचार, अथवा अतीत की स्मृति, वर्तमान को मति और अनागत की परिकल्पना । हिताहित में प्रवृत्ति-निवृत्ति मन की सहायता से ही होती है, अन्यथा नहीं । मन के बिना विचार नहीं होता है। द्रव्य-संग्रह द्रव्य संग्रह आचार्य नेमिचन्द्र की सुन्दर कृति है । विषय का निरूपण अत्यन्त संक्षिप्त किया है। इसमें तीन अधिकार हैं-द्रव्य अधिकार, तत्त्व अधिकार और मोक्ष मार्ग अधिकार । जीव के सम्बन्ध में आठ अधिकारों का कथन किया गया है-उपयोग, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता, स्वदेह परिमाण, संसारी, सिद्ध और ऊर्ध्वगमन । इसका अभिप्राय है, कि जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । मुक्त शब्द का प्रयोग न करके आचार्य ने सिद्ध शब्द का प्रयोग किया। संसारी जीव के मुख्य दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । जीव समास, गुणस्थान और मार्गणास्थान की अपेक्षा भी संसारी जीवों के भेद एवं प्रभेद किये गये हैं। संसारी जीव व्यवहारनय से मार्गणा और गुणस्थानों की अपेक्षा चतुर्दश भेद वाले होते हैं। परन्तु निश्चयनय से समस्त जीव शुद्ध ही हैं, भेद रहित हैं, और एक स्वभाव वाले हैं, एक ही हैं। इन्द्रिय-लक्षण इन्द्रियों के आधार पर संसारी जीवों के तीन भेद हो सकते हैंएकेन्द्रिय जीव, विकलेन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीव । पाँच इन्द्रियाँ कौनसी हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र । ये पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं। न्याय-वैशेषिक में और मीमांसा-दर्शन में भी ये पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ ही स्वीकृत हैं । लेकिन वेदान्त,सांख्य और योग दर्शन में इन पाँचों के अतिरिक्त पाँच कर्म इन्द्रियाँ भी स्वीकृत हैं-वाक्, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ | जन दर्शन के मूलभूत तत्त्व पाणि, पाद, उपस्थ और पायु । मन को भी इन्द्रिय माना है। अतः सांख्य योग में एकादश इन्द्रियों की मान्यता है । वेदान्त में मन को इन्द्रिय नहीं माना है। शेष सभी दर्शनों में मन को अन्तरंग इन्द्रिय के रूप में स्वीकृत किया गया है। वस्तुतः मन इन्द्रिय है। जैन दर्शन में पाँच कर्म इन्द्रियाँ स्वीकृत नहीं है । क्योंकि उनका समावेश शरीर में हो जाता है । पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ और मन को स्वीकार किया गया है । प्रमाण-मीमांसा आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत प्रमाण-मीमांसा न्याय ग्रन्थ के अध्याय प्रथम और सूत्र संख्या इक्कीस से पञ्च इन्द्रियों के लक्षण, विषय और भेदों को एक ही सूत्र में बड़ी कुशलता से पिरोया गया है। इन्द्रियों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र---ये पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं । क्रम से स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द को ग्रहण करना, इनका लक्षण है । ये पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैंद्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय । द्रव्येन्द्रियाँ नामकर्म के उदय से निर्मित होती हैं । भावेन्द्रियाँ इन्द्रियावरण कर्म और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती हैं। द्रव्य-इन्द्रिय का लक्षण प्रमाण-मीमांसा में द्रव्य इन्द्रिय का लक्षण इस प्रकार किया है-- "द्रव्येन्द्रियं नियताकाराः पुद्गलाः ।" नियत आकार वाले पुद्गलों को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। जिनका भीतरी और बाहरी आकार एक विशेष प्रकार का हो, उन्हें नियताकार कहते हैं । जो पूरण और गलन अर्थात् मिलने और बिछुड़ने के स्वभाव वाला है, वह वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला द्रव्य पुद्गल कहा जाता है। जैसे कि श्रोत्र आदि इन्द्रियों में कर्णशष्कूली आदि जो बाहरी आकार है, और कदम्बगोलक आदि भीतरी आकार है, वह सब पुद्गल द्रव्यमय होने के कारण द्रव्येन्द्रिय है । भाव-इन्द्रिय का लक्षण प्रमाण-मीमांसा में भाव इन्द्रिय का लक्षण इस प्रकार किया है"भावेन्द्रियं लब्ध्युपयोगौ।" लब्धि और उपयोग-ये भावेन्द्रिय हैं । ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमविशेष को लब्धि कहते हैं। जिसके संनिधान से • आत्मा द्रव्येन्द्रिय की निर्वृत्ति के प्रति व्यापार करता है, उसके निमित्त से Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव- द्रव्य | होने वाला आत्मा का विशिष्ट परिणमन उपयोग कहलाता है | इन्द्र ( आत्मा ) के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं । यह व्युत्पत्ति मुख्य रूप से जिस इन्द्रिय में घटित होती है, वही भावेन्द्रिय है । लब्धि इन्द्रिय आत्मा में स्वपर ज्ञान की शक्ति उत्पन्न करती है । अतएव वह भावेन्द्रिय कहलाती है । मन का लक्षण आचार्य ने मन का स्वरूप एवं लक्षण करते हुए कहा है- "सर्वार्थ ग्रहणं मनः । " जो सर्व अर्थों को ग्रहण करने वाला है, वह मन है । मन को अनिन्द्रिय और नोइन्द्रिय भी कहा गया है । सर्वार्थ ग्रहणं मनः के स्थान पर यदि सर्वार्थं मनः यह होता, तो यह लक्षण आत्मा में भी चला जाता । क्योंकि ग्रहण शब्द का ग्रहण करके यह सूचित किया गया है, कि मन करण है, आत्मा कर्ता है । अतएव उसमें इस लक्षण का प्रसंग नहीं होता । मन सभी पदार्थों को जानने में करण होता है । इन्द्रियों के समान मन भी दो प्रकार का है - द्रव्यमन और भावमन । मन रूप में परिणत हुए पुद्गल द्रव्यों को द्रव्य मन कहते हैं। मन को आवृत करने वाले कम का क्षयोपशम होना, लब्धि भाव मन है आत्मा का अर्थ ग्रहण की ओर होने वाला व्यापार उपयोग भाव मन है आचार्य ने इन्द्रियों का और मन का वहुत ही सुन्दर विश्लेषण करके विषय को स्पष्ट और सरल कर दिया है । मन की परिभाषा अत्यन्त सुन्दर है । मन का विषय क्या है इस प्रश्न का उत्तर आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने दिया था कि मन सर्वार्थग्राही है । लेकिन वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थ सूत्र में कहते है, कि "श्रुतमनिन्द्रियस्य । " अर्थात् मन का विषय श्रुत है, श्रुतज्ञानगोचर पदार्थ है । अथवा श्रुतज्ञान का विषयभूत पदार्थ मन का विषय है । दोनों के कथन में अन्तर है । । । शरीर के भेद संसार-दशा में जीव बिना शरीर के नहीं रह सकता है। शरीर, जीव का आधार है । सिद्ध ही बिना शरीर के रह सकते हैं, संसारी जीव नहीं रह सकते हैं । अतएव शरीर के पाँच भेद हैं- ओदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण । स्थूल शरीर, जो दूसरे को रोके और दूसरे से रुक सके, उसे औदारिक शरीर कहते हैं । यह शरीर मनुष्यों के और तिर्यंचों के होता है । वैक्रियिक शरीर वह है, जो एक-अनेक, सूक्ष्म - स्थूल, हल्का भारी आदि अनेक प्रकार का किया जा सकता है । यह शरीर देवों Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व के और नारकों के होता है । विक्रिया ऋद्धि से होने वाला वैक्रियिक शरीर इससे भिन्न है । क्योंकि वह मनुष्यों को और तिर्यंचों को होता है । यह विक्रिया तो औदारिक शरीर में होती है । शास्त्र में इसको लब्धिप्रत्यय कहा गया है । विशेष तपस्या करने से जो ऋद्धि प्राप्त होती है, उसे लब्धि कहते हैं । उसके निमित्त से होने वाला शरीर । आहारक शरीर, आहारक् लब्धिधर एवं पूर्वधर मुनि को ही होता है । सूक्ष्म तत्त्व का निर्णय करने के लिए अथवा जिन भगवान को वन्दन करने हेतु षष्ठ गुणस्थान स्थित मुनि के शरीर से जो एक हाथ भर पुतला बाहर निकलता है, वह आहारक शरीर है । तैजस शरीर वह है, जिसमें तैजस परमाणु हों । यह औदारिक आदि शरीरों में तेज अर्थात् कान्ति उत्पन्न करने वाला है । कार्मण शरीर वह है, जो कर्मों का समूह रूप है । ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों का निधि रूप । आठों कर्मों के परमाणुओं का संचय इसमें होता है । तैजस और कार्मण शरीर अनादि काल से जीव के साथ लगे हुए हैं। जब तक जीव की संसार अवस्था है, तब तक साथ ही रहेंगे ! पाँच शरीरों की विशेषता पाँचों शरीरों में, पूर्व- पूर्व शरीर की अपेक्षा उत्तर-उत्तर शरीर सूक्ष्म होता है । प्रथम से द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अधिक अधिक सूक्ष्म हैं । प्रथम शरीर से तृतीय शरीर तक प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात गुण अधिक हैं । चतुर्थ तथा पंचम शरीर अनन्त गुण अधिक हैं । आहारक शरीर से अनन्त गुण परमाणु तैजस शरीर में और तैजस शरीर की अपेक्षा अनन्त गुण परमाणु कार्मण शरीर में होते हैं । तैजस और कार्मण शरीर अप्रतिघाति हैं, बाधा रहित होते हैं । ये दोनों शरीर समग्र लोक में किसी भी मूर्त पदार्थ से न रुकते हैं और न रोके जा सकते हैं । तैजस और कार्मण शरीर जीव के साथ अनादिकाल में सम्बद्ध रहे हैं । यह कथन - सामान्य की अपेक्षा से है । किन्तु विशेष की अपेक्षा पहले के शरीरों का सम्बन्ध नष्ट होकर उनके स्थान में नूतन शरीरों का सम्बन्ध होता रहता है । तैजस और कार्मण -- ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं । एक जीव के एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं । जैसे कि दो हों, तो तेजस और कार्मण । तीन हों, तो तैजस, कार्मण और औदा - रिक । अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक । चार हों, तो तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक । अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव - द्रव्य | ६१ शरीर होते हैं । पाँचों शरीर एक जीव के साथ एक साथ नहीं हो सकते हैं । क्योंकि आहारक शरीर लब्धिधर एवं पूर्वधर मुनि को ही होता है । तेजस की विशेषता तैजस शरीर दो प्रकार का होता है - एक शरीर में ही रहकर उसे कान्ति प्रदान करने वाला । यह समस्त संसारी जीवों के शरीर से निकलकर बाहर जाने वाला । यह भी दो और अशुभ | शीतललेश्या तथा तेजोलेश्या, इसी के शीतल लेश्या शुभ परिणाम है, और तेजोलेश्या अशुभ | आहारक शरीर की विशेषता आहारक शरीर का स्वामी साधारण नहीं, असाधारण व्यक्ति ही हो सकता है । वह संयत हो, उसमें भी प्रमत्तसंयत हो, आहारक लब्धि धर हो और पूर्वधर भी हो । यह शरीर शुभ होता है, कभी अशुभ नहीं होता । यह शरीर विशुद्ध है, कभी अशुद्ध नहीं होता । क्योंकि आहारक लब्धि से निर्मित होता है । यह शरीर अव्याघाति होता है, बाधारहित होता है । किसी भी प्रकार की रुकावट नहीं होती । इसका निर्माण भी शुभ एवं पवित्र उद्देश्य से किया जाता है । श्रुत में किसी प्रकार की सूक्ष्म शंका के निवारण के लिए होता है । होता है । दूसरा प्रकार का है - शुभ परिणाम होते हैं । कार्मण शरीर की विशेषता । पाँच शरीरों में यह सबसे अन्त में हैं । अतः इसको अन्त्य भी कहते हैं । अन्ते भवम् अन्त्यम् । जो सब के बाद में होता हो, वह अन्त्य कहा जाता है । यह शरीर अन्य सब शरीरों का मूल है वेदान्त और सांख्य में इसको लिंग शरीर, कारण शरीर अथवा सूक्ष्म शरीर की संज्ञा प्रदान की है । संसार का मुख्य कारण यही है । बन्धन का कारण भी यही है । जैन दर्शन के अनुसार इसका अन्त ही संसार का अन्त है । यह कार्मण शरीर निरुपभोग है, अर्थात् उपभोग रहित है । इन्द्रियों के द्वारा उन के विषयों के ग्रहण को उपभोग कहते हैं । वह उपभोग जीव की विग्रह गति में नहीं हो पाता । अतः वह निरुपभोग होता है । औदारिक- वैयिक को विशेषता औदारिक शरीर वह है, जो गर्भजन्म और संमूच्र्छन जन्म से Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उत्पन्न होता है । यह शरीर मनुष्य, पशु और पक्षी आदि के होता है । यह अत्यन्त स्थूल शरीर है। वेदान्त एवं सांख्य दर्शन में इसको स्थूल शरीर कहा है। न्याय दर्शन में इसको पञ्चभूतात्मक कहा गया है । चरक एवं सुश्र त में इसको सप्त धातुमय शरीर कहा गया है। वैक्रियिक शरीर वह है, जो उपपात-जन्म से उत्पन्न होता है। यह शरीर देवों के और नारकों के होता है। वैक्रियिक शरीर लब्धि प्राप्त भी होता है, जो वैक्रिय लब्धिधर व्यक्ति विशेष को ही होता है । योनि और उसके भेद जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं । अथवा जिस स्थान विशेष पर जीव उत्पन्न होते हैं, उसे योनि कहा जाता है। योनि नव प्रकार की है- सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत। योनि और जन्म में अन्तर है। क्या अन्तर है ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि योनि और जन्म में आधार तथा आधेय का अन्तर है। योनि आधार है, और जन्म आधेय है। यही दोनों में अन्तर है। चेतना-सहित योनि को सचित्त योनि कहते हैं। जो किसी के देखने में नहीं आता, इस प्रकार के जीव के उत्पत्ति-स्थान को संवत योनि कहते हैं। जो योनि शीत स्पर्श वाली होती है, उसको शीत योनि कहते हैं। इन तीनों के जो विपरीत योनि हैं, वे अचित्त, विवृत और उष्ण कही जाती हैं। दोनों के संयोगी भाव से जो योनि होती हैं, वे इस प्रकार हैं-- सचित्त और अचित्त, संवत और विवत तथा शीत और उष्ण । सव मिलाकर ये नव प्रकार की योनि होती हैं । अन्य मत के शास्त्रों में भी योनि का वर्णन किया गया है । चौरासी लाख जीव योनि शब्द अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। जन्म और उसके भेद ___जन्म, जीवन और मरण-इन तीनों का ही अटूट सम्बन्ध है । क्योंकि जन्म होगा, तो जीवन भी अवश्य ही होगा। अल्पकालीन हो, या दीर्घकालीन जन्म है, तो जीवन भी है। यदि जीवन है, तो मरण भी अवश्यंभावी है। जीवन हो, और मरण न हो, यह तो सम्भव नहीं । मरण हो और जन्म न हो, यह भी सम्भव नहीं। जन्म है-जीवन का प्रारम्भ और मरण है-जीवन का अन्त । उदय और अस्त अनन्त गगनगामी अंशुमाली के भी होते हैं । फिर मनुष्य की क्या बात ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ६३ जीवों के जन्म तीन प्रकार के होते हैं--संमूर्छम, गर्भ और उपपात । संमूर्छम जन्म उसे कहते हैं, जो अपने शरीर के योग्य पुद्गल परमाणओं के द्वारा माता और पिता के रज तथा वीर्य के बिना ही शरीर की रचना हो जाये । कीट-पतंगों का जन्म इसी प्रकार का होता है। गर्भ जन्म उसे कहते हैं, जो नर-नारी के संयोग से रजोवीर्य के कणों के मिलन से शरीर की रचना हो जाये। मनुष्य, पशु और पक्षी आदि का जन्म इसी प्रकार का होता है । उपपात-जन्म उसे कहते हैं, जो संयोग एवं सहवास के बिना ही देव-शय्या और नारक कुम्भी में शरीर की रचना हो जाती है। देव तथा नारकों का जन्म इसी प्रकार का हुआ करता है। गर्भ जन्म तीन प्रकार का होता है-जरायुज, अण्डज और पोत । जन्म के समय प्राणी के शरीर से जाल, रुधिर और मांस की जो खोल चिपकी रहती है, उसे जरायु अथवा जेर कहते हैं । उससे जो उत्पन्न होता है, उसको जरायुज कहते हैं। जैसे मनुष्य, गाय और भैंस आदि। जो अण्ड से उत्पन्न होता है, उसे अण्डज प्राणी कहते हैं । जैसे कि काक, कोकिल और कपोत आदि पक्षी । उत्पन्न होते समय जिस जीव पर किसी प्रकार का आवरण नहीं होता, और जो योनि से बाहर निकलते ही चलने, फिरने और घूमने लगता है, उसे पोत कहते हैं । जैसे कि मृग और सिंह आदि प्राणी होते हैं। देवों का और नारकों का जन्म उपपात होता है । गर्भ और उपपात जन्म वालों से भिन्न जीवों का जन्म संमूर्छिम होता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों तक का जन्म , नियम से ही संमूर्छिम जन्म होता है । शेष तिर्यञ्चों के गर्भ और संमूर्छिम---दोनों प्रकार से जन्म होते हैं । लब्धि-अपर्याप्तक मनुष्यों का भी जन्म, संमूच्छिम जन्म होता है । जीव के तीन वेद वेद शब्द जैन परम्परा में पारिभाषिक रहा है। वेद शब्द का अर्थ-- ज्ञान भी होता है । ग्रन्थ विशेष भी इसका अर्थ होता है । लेकिन यहाँ वेद का अर्थ होता है--अभिलाषा । पुरुष को स्त्री की जो अभिलाषा होती है, वह पुरुषवेद है । स्त्री को पुरुष की जो अभिलाषा होती है, वह स्त्रीवेद है । नपुंसक को उभय की जो अभिलाषा होती है, वह नपुंसकवेद है । वेद को उपकषाय अथवा नोकषाय कहा गया है । वस्तुतः स्त्री-पुरुष का जो Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व रागात्मक मिथुन भाव है, उसे यहाँ वेद कहा गया है। उसके तीन भेद होते हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । यह रागात्मक वृत्ति है । नारक जीव और संमूच्छिम जीव नपुंसक वेद वाले होते हैं । उनमें स्त्री-पुरुष नहीं होते। देव नपुंसकवेद वाले नहीं होते । देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों ही होते हैं। मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च जीव तीनों वेद वाले होते हैं। उनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद तीनों ही होते हैं । जीवों का यह विभाजन वेद की अपेक्षा से किया गया है । सिद्ध जीव सदा अवेदी होते हैं । वेद में केवल संसारी जीवों की गणना है। जीव की विग्रह गति जीव की हित में प्रवृत्ति और हित से निवृत्ति मन की सहायता से की जाती है । परन्तु विग्रहगति में द्रव्य मन रहता नहीं, फिर जीव उसके बिना नूतन देह धारण करने के लिए विग्रह गति में गमन किस की सहायता से करता है ? समाधान में कहा गया है, कि विग्रह गति में कार्मण काययोग होता है,उसकी सहायता से जीव एक गति से दूसरी गति में गमन कर सकता है । वर्तमान शरीर को छोड़कर जब जीव दूसरे शरीर को धारण करने के लिए लोकान्तर में पहुँचने के लिए गमन करता है, तब उसे विग्रह गति अथवा अन्तराल कहा जाता है। इसको ही लोकान्तर गति भी कहते हैं। कार्मण काययोग के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में जो कम्प उत्पन्न होता है, उसे कर्मयोग अथवा कार्मण काययोग कहते हैं। इसके द्वारा ही जीव मरण स्थल से नूतन जन्म स्थान तक जाता है। इसके बिना लोकान्तर में गमन नहीं होता। जीव और पुद्गल के गमन का नियम जीव और पुद्गल का गमन अनुश्रेणि से होता है, अर्थात् आकाश के प्रदेशों की श्रेणि के अनुसार ही होता है। श्रेणि लोक के मध्य से लेकर ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशा में आकाश के प्रदेशों की सीधी पंक्ति को श्रेणि कहा गया है। जिस समय जीव मरकर नूतन देह धारण करने हेतु विग्रह गति में गमन करता है, उसका ही गमन विग्रह गति में श्रेणि के अनुसार होता है, अन्य जीव का नहीं। इसी भाँति जो पुद्गल का शुद्ध परमाणु एक समय में चतुर्दश रज्जु गमन करता है, उसका ही श्रेणि के अनुसार गमन होता है, अन्य सब पुद्गलों का नहीं। जीव और पुद्गल की Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ६५ गति का यही नियम है । लेकिन यह नियम विशेष जीव और विशेष पुद्गल के लिए ही है। मुक्त जीव को गति जो जीव मुक्त हो चुके हैं, कर्म बन्धन से रहित हो गये हैं, उनमें गति का अभाव है । अतः यहाँ पर जीव शब्द से मुक्त जीव नहीं, मुच्यमान जीव अथवा सिध्यमान जीव का ग्रहण होता है। उसकी गति अविग्रहा होती है, सीधी गति होती है । क्योंकि जीव की स्वाभाविक गति, ऊर्ध्व गति होती है, मोड़रहित सीधी गति होती है। श्रेणि के अनुसार होने वाली गति के दो भेद हैं-विग्रहवती और अविग्रहवटी । कर्मों का क्षय करके सिद्ध-शिला पर जाने वाले जीवों की अविग्रहा ही गति होती है। विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, वह विग्रह गति है । मुच्यमान जीव तो समस्त गतियों का छेदन ही कर देता है। संसारी जीव की गति संसारी जीव की गति चार समय से पहले-पहले विग्रहवती अर्थात् मोड़ सहित और अविग्रहवती अर्थात् मोड़रहित दोनों प्रकार की होती है । जो मोड़रहित होती है, उसमें केवल एक समय लगता है । जिसमें एक मोड़ लेना पड़ता है, उसमें दो समय लगते हैं। जिसमें दो मोड़ लेने पड़ते हैं, उसमें तीन समय लगते हैं। जिसमें तीन मोड़ लेने पड़ते हैं, उसमें चार समय लगते हैं। यह जीव चतुर्थ समय में कहीं न कहीं नूतन शरीर ग्रहण कर लेता है । अविग्रह गति एक समय मात्र की होती है। उसमें केवल एक ही समय लगता है। विग्रह गति में आहारक तथा अनाहारक संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-आहारक अर्थात् आहार ग्रहण करने वाले और अनाहारक अर्थात् आहार नहीं ग्रहण करने वाले । औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा षट् पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना, आहार कहा जाता है। जब तक जीव आहार को ग्रहण नहीं करता, तब तक वह अनाहारक कहा जाता है । संसारी जीव अविग्रहा गति में अनाहारक ही होता है। परन्तु एक, दो और तीन मोड़ वाली गतियों में क्रम से एक, दो और तीन समय तक वह जीव अनाहारक रहता Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व है । मोड़ समाप्त हो जाने पर वह चतुर्थ समय में नियम से आहारक हो जाता है ! के आयुष् प्रकार 1 आठ प्रकार के कर्मों में एक कर्म है, आयुष्य । आयुष् शब्द का अर्थ होता है— जीवन । दश प्रकार के प्राणों में एक प्राण है, आयुष्य । नारक, देव, चरमशरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्षजीवी - ये अनपवर्तनीय आयुष्य वाले होते हैं । आयुष्य दो प्रकार का है अपवर्तनीय और अनवर्तनीय । जो आयुष्य बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने के पूर्व ही शीघ्र भोगा जा सके, वह अपवर्तनीय होता है, और जो आयुष्य बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने के पूर्व न भोगा जा सके, वह अनपवर्तनीय होता है । आयुष्य के शीघ्र भोग को ही अपवर्तना, अथवा लोक व्यवहार में अकाल मृत्यु कहा जाता है । नियत स्थिति के भोग को अनपवर्तना, अथवा काल मृत्यु कहा जाता है । अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रम होता है । शस्त्र विष और अग्नि आदि के जिन निमित्तों से अकाल मृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना, उपक्रम है । परन्तु अनपवर्तनीय आयुष्य दो प्रकार का होता है - सोपक्रम और निरुपक्रम । अनपवर्तनीय आयुष्य वालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, किन्तु वे कभी भी अकाल में मृत्यु को प्राप्त नहीं होते । औपपातिक, नारक और देव हैं । चरमदेह तथा उत्तमपुरुष मनुष्य ही होते हैं । तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि उत्तमपुरुष हैं । असंख्यात वर्षजीवी कुछ मनुष्य और कुछ तिर्यंच ही होते हैं । असंख्यात वर्षजीवी निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्य वाले ही होते हैं । चरमदेह और उत्तमपुरुष सोपक्रम अनपवर्तनीय और निरुपक्रम अनपवर्तनीय - दोनों प्रकार के आयुष्य वाले होते हैं । इनके अतिरिक्त शेष समस्त मनुष्य तथा तिर्यंच अपवर्तनीय एवं अनपवर्तनीय आयुष्य वाले होते हैं । ये ही आयुष्य के प्रकार हैं । जीव के पञ्च भाव जीव संसारी हो अथवा सिद्ध--- जैनदर्शन के अनुसार उसके पांच भाव होते हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारि णामिक | मोहकर्म के उपशम से आत्मा में जो भाव होता है, उसे औपशमिक कहा जाता है । मोहकर्म के क्षय से आत्मा में जो भाव होता है, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ९७ वह क्षायिक भाव है। मोहकर्म के क्षय एवं उपशम से आत्मा में जो भाव होता है, वह क्षयोपशम भाव होता है । कर्मों के उदय से आत्मा में जो भाब होता है, उसे औदयिक भाव कहा गया है । मोहकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम तथा कर्मों के उदय बिना आत्मा में जो भाव होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । ये पाँच भाव जीव के स्वरूप हैं, जीव के उपलक्षण होते हैं। क्योंकि जीव का मुख्य लक्षण तो उपयोग ही हो सकता है । उपयोग का अर्थ है-चेतना । चेतना दो प्रकार की होती है-साकारा और निराकारा । साकारा चेतना ही ज्ञान है, और निराकारा चेतना ही दर्शन है । अतः ज्ञान और दर्शन ही वस्तुतः जीव के लक्षण हैं। न्यायवैशेषिक दर्शन में तो इन्हें निर्विकल्पक तया संकल्पक ज्ञान कहा गया है। दोनों को प्रमाण माना गया है। परन्तु बौद्ध दर्शन में तो निर्विकल्पक को ही प्रमाण माना गया है, सविकल्पक को प्रमाण नहीं माना गया । जैनदर्शन दोनों को प्रमाण मानता है। औपशमिक भाव के भेद औपशमिक भाव के दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और इन दोनों का मिश्र भाव-दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों के उपशम से एवं चारित्रमोह की चार प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। मोहकर्म की शेष इक्कीस प्रकृतियों के उपशम से जो चारित्र होता है, उसे औपशमिक चारित्र कहा जाता है। क्षायिक भाव के भेद केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य तथा क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र--ये नव भेद क्षायिक भाव के हैं । केवलज्ञान-दर्शन--ये दोनों ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के क्षय से होते हैं । दान एवं लाभ आदि पाँच लब्धियाँ अन्तरायकर्म के क्षय से होती हैं । मोहकर्म के क्षय के सम्यक्त्व और चारित्र-ये दोनों भेद होते हैं ।। क्षायोपशमिक भाव के भेद इसके अष्टादश भेद होते हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय-- ये चार ज्ञान तथा मति अज्ञान, श्र त अज्ञान एवं विभंग ज्ञान, ये तीन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अज्ञान । तीन दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व, सर्वचारित्र एवं संयमासंयम (देश चारित्र) । क्योंकि ये भाव अपने प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से होते हैं। औदयिक भाव के भेद इसके इक्कीस भेद होते हैं-चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धत्व भाव और छह लेश्याएँ-ये सब मिलकर के औदयिक भाव के भेद हैं । ये सभी भाव कर्म के उदय से होते हैं। पारिणामिक भाव के भेद इसके तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । लेकिन सूत्र में पठित 'च' शब्द से अस्तित्व भाव, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, ज्ञयत्व, प्रदेशत्व और अगुरु-लघुत्व भाव आदि सामान्य गुणों का भी ग्रहण होता है। __जीवत्व का अर्थ है-चैतन्य । भव्यत्व का अर्थ है-मुक्ति की योग्यता। अभव्यत्व का अर्थ है-मुक्ति की अयोग्यता। ये तीन भाव स्वाभाविक हैं। क्योंकि ये तीनों भाव न किसी कर्म के उदय से होते हैं, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से। परन्तु अनादिसिद्ध आत्म द्रव्य के अस्तित्व से ही सिद्ध हैं। अतएव ये तीनों और अन्य अस्तित्व आदि भाव भी जीव के पारिणामिक भाव कहे जाते हैं। जीव के लक्षण उपयोग के द्वादश भेद उपयोग जीव का लक्षण है । जीव, चेतन और आत्मा तीनों पर्यायवाचक हैं । आत्मा अनादिसिद्ध एवं स्वतन्त्र द्रव्य है । उसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता । क्योंकि वह रूपवान् नहीं है । परन्तु आत्मा का ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथा अनुमान एवं आगम से किया जा सकता है। लेकिन किसी भी वस्तु का ज्ञान करने के लिए उसका लक्षण भी आवश्यक है । यहाँ पर जीव लक्ष्य है, और उपयोग उसका लक्षण है । क्योंकि उपयोग समस्त आत्माओं में अवश्य पाया जाता है। जिसमें उपयोग नहीं, वह अचेतन है, वह जड़ है। उपयोग क्या है ? आत्मा का बोधरूप व्यापार । आत्मा में ही बोध की क्रिया होती है । बोध का कारण जीव Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | ६६ की चेतना शक्ति है। चेतना जीव का ही असाधारण धर्म है, अजीव का नहीं । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा में अनन्त गुण हैं, और अनन्त पर्याय हैं । पर, उपयोग ही उनमें मुख्य है । जो मुख्य होता है, वही लक्षण हो सकता है। उपशम भाव, क्षय भाव, क्षयोपशम भाव और उदय भाव-ये जीव के स्वरूप हैं, लेकिन वे न तो समस्त आत्माओं में उपलब्ध होते हैं और न कालिक ही हैं । त्रैकालिक और समस्त आत्माओं में उपलब्ध होने वाला एक जीवत्वरूप पारिणामिक भाव ही है, जिसका फलितार्थ उपयोग हो होता है । अतएव उपयोग ही जीव का मुख्य लक्षण हो सकता है । पञ्च भाव जीव के उपलक्षण ही हैं । उपलक्षण और लक्षण में अन्तर यह है, कि जो लक्ष्य में सर्वात्मभाव से तीनों कालों में पाया जाये, वह लक्षण है। जैसे कि अग्नि में उष्णत्व और जल में शीतत्व । जो लक्ष्य में कभी हो, और कभी न भी हो, वह उपलक्षण है। जैसे कि अग्नि के लिए धूम । अतः उपयोग जीव का लक्षण है, और पञ्च भाव जीव के उपलक्षण हैं। उपयोग के भेद वह उपयोग दो प्रकार का है। आठ प्रकार का है । चार प्रकार का है। दो प्रकार हैं-साकार और अनाकार । साकार आठ प्रकार का है। अनाकार चार प्रकार है । अतः उपयोग द्वादश प्रकार का है। साकार के आठ भेद इस प्रकार हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान; मतिअज्ञान, श्रतअज्ञान और विभंगज्ञान । अनाकार के चार भेद ये हैं- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । उपयोग के ये द्वादश भेद होते हैं। साकार और अनाकार का अभिप्राय क्या है ? उत्तर में कहा गया है, कि जो बोध वस्तु को विशेष रूप से जानने वाला हो, वह साकार उपयोग । जो बोध वस्तु को सामान्य रूप से जानने वाला हो, वह अनाकार उपयोग है। साकार को ज्ञान या सविकल्पक बोध कहते हैं। अनाकार को दर्शन या निर्विकल्पक बोध कहते हैं । ये सब भेद और प्रभेद आत्मा के बोध रूप व्यापार हैं । ये जीव में ही उपलब्ध होते हैं। अजीव में कभी उपलब्ध नहीं होते हैं। उपयोग के द्वादश भेदों में केवलज्ञान और केवलदर्शन-ये दो पूर्ण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व विकसित चेतना के व्यापार हैं, और शेष सब अपूर्ण विकसित चेतना के व्यापार हैं | ज्ञान और अज्ञान में क्या अन्तर है ? सम्यक्त्वसहचरित ज्ञान और मिथ्यात्वसहचरित अज्ञान । दर्शन के चार भेदों का स्वरूप इस प्रकार है - जो सामान्य बोध नेत्र जन्य हो, वह चक्षुर्दर्शन कहा जाता है। नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से अथवा मन से जो सामान्य बोध होता है, वह अचक्षुर्दर्शन कहलाता है । अवधि लब्धि से मूर्त पदार्थों का जो सामान्य परिबोध होता है, वह अवधिदर्शन है । केवललब्धि से मूर्त एवं अमूर्त समस्त पदार्थों का जो सामान्य परिबोध होता है, वह केवलदर्शन कहा गया है । सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तु के धर्म हैं। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वस्तु सामान्य विशेषात्मक कही जाती है । नव तत्त्व बालावबोध में इस ग्रन्थ में कुछ अन्य प्रकार से भी जीवों के भेद हैं- जीव का एक भेद चेतना । जीव के दो भेद - त्रस और स्थावर । जीव के तीन भेदस्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद । जीव के चार भेद - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देव गति । जीव के पाँच भेद - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । जीव के छः भेद - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय । इस प्रकार जैन दर्शन में जीव एवं आत्मा के विषय में, अनेक प्रकार और भेदों द्वारा प्रतिपादन किया गया है । न्याय-वैशेषिक दर्शन भारतीय दर्शनों में न्याय और वैशेषिक दर्शन द्वैतवादी तथा यथार्थवादी दर्शन हैं । न्याय में प्रमाण का विवेचन मुख्य और प्रमेय का गौण स्थान है । वैशेषिक दर्शन में पदार्थ का विश्लेषण अधिक है, प्रमाण का गोण है | न्याय दर्शन में षोडश पदार्थ मान्य हैं - प्रमाण एवं प्रमेय आदि । प्रमाण के चार भेद हैं, और प्रमेय के द्वादश भेद हैं। प्रमेयों में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन और अर्थ आदि पर विचार किया गया है । अर्थ से अभिप्राय है, इन्द्रियों के विषय । वैशेषिक दर्शन में सप्त पदार्थों का वर्णन किया हैद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । अतः इन दोनों Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव- द्रव्य | १०१ दर्शनों की जैन दर्शन के साथ काफी समानता है । क्योंकि जैन दर्शन भी तवादी तथा यथार्थवादी दर्शन है । केशव मिश्रकृत तर्क-भाषा तर्कभाषा न्याय दर्शन का प्रसिद्ध ग्रन्थ है । विद्वानों में अत्यन्त लोकप्रिय है । इसमें षोडश पदार्थों का विस्तृत वर्णन किया गया है । द्वादश प्रमेयों का भी विस्तार से कथन है । आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और मन का सुन्दर वर्णन किया है । आत्मा का स्वरूप । न्याय सम्प्रदाय के अनुसार आत्मा आदि द्वादश पदार्थों को प्रमेय कहा गया है । प्रमेय शब्द का अर्थ है - प्रमा का विषय । संसार में प्रमा के विषय असंख्य पदार्थ हो सकते हैं फिर भी यहाँ आत्मा आदि को ही प्रमेय कहा गया । कारण यह है, कि निःश्रेयस के साधन तत्त्वज्ञान का विवेचन करने के लिए यह न्याय प्रवृत्त हुआ है । आत्मा आदि के तत्त्वज्ञान से ही निःश्रेयस की प्राप्ति हो सकती है । अतएव यहाँ पर ये ही प्रमेय हैं । समस्त वैदिक दर्शन आत्मा को शरीर से भिन्न और नित्य मानते हैं । वेदान्त एकात्मवाद को स्वीकार करता है । अन्य वैदिक दर्शन आत्मबहुत्व को मानते हैं । आत्मा के परिमाण के सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों में मतभेद रहा है । वैदिक दर्शनों में आत्मा का विभु परिमाण माना गया है, केवल रामानुज आचार्य अणु परिमाण मानते हैं । जैन दर्शन आत्मा का मध्यम परिमाण स्वीकार करता है । न्याय दर्शन में आत्मा दो प्रकार का बताया गया है - जीवात्मा और परमात्मा । जैन दर्शन भी मुख्य रूपेण दो भेद मानता है - संसारी और सिद्ध । वैदिक दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं । लेकिन जैन दर्शन परिणामी नित्य । आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकता है । शरीर आवश्यक है । वैदिक दर्शन शरीर की परिभाषा भोगायतन करते हैं । जहाँ जिस आत्मा का शरीर है, वहीं वह आत्मा सुख दुःख का अनुभव कर सकता है । जहाँ उसका शरीर नहीं, वहाँ वह सुख-दुःख का अनुभव भी नहीं कर सकता । भोग का अर्थ है - सुख एवं दुःख का साक्षात् अनुभव करना । अतः आत्मा का भोगायतन ही शरीर है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व न्याय दर्शन के अनुसार इन्द्रियाँ छह मानी हैं। घ्राण, रसना, नेत्र, श्रोत्र और त्वक् । ये पाँच तो बाह्य इन्द्रियाँ हैं । मन को अन्तरिन्द्रिय माना गया है । इन्द्रिय शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- इन्द्र अर्थात् आत्मा का लिंग । इन्द्रियों की संख्या के विषय में मतभेद रहे हैं। न्याय दर्शन पांच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन को मानता है। परन्तु सांख्य दर्शन एकादश इन्द्रियाँ मानता है। पांच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन । कर्मेन्द्रियाँ इस प्रकार हैं-~~वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ । वेदान्त भी एकादश इन्द्रियां मानता है। पर मन को अन्तःकरण माना है। ___ जो सूख और दुःख की उपलब्धि का साधन है, वह मन है । वह अणु परिमाण वाला है, हृदय के भीतर रहता है। जिस इन्द्रिय से आत्मा में स्थित सुख-दुःख का ग्रहण होता है, वह मन है। मन अण है, जिस इन्द्रिय के साथ मन का संयोग होता है, उसके द्वारा अपने विषय का प्रत्यक्ष किया जाता है, दूसरी के द्वारा नहीं । एक काल में एक इन्द्रिय के द्वारा ही प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। यदि मन विभु होता, तो एक साथ सभी इन्द्रियों के साथ उसका सम्बन्ध हो जाता, और एक काल में अनेक इन्द्रियों के द्वारा अपने-अपने विषय का प्रत्यक्ष होने लगता । सांख्य में मन को अहंकार का परिणाम माना गया है । मन को विभु भी माना है। वैदिक दर्शन में मन हृदय के भीतर स्थित है । तीव्र गति वाला होने के कारण शरीर के भिन्नभिन्न भागों में जाता रहता है। अन्नंभट्ट-कृत तर्कसंग्रह तर्कसंग्रह वैशेषिक दर्शन का एक महत्वपूर्ण लघुग्रन्थ है । इसमें सप्त पदार्थों की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है। भारत के सभी दर्शनकारों ने स्वाभिमत पदार्थो की भिन्न-भिन्न संख्या मानी है । गौतम ने षोडश पदार्थ माने हैं। वेदान्त एक ब्रह्म, दो चित् और अचित्, तीन चित्, अचित् और ईश्वर । भक्तिवादी ईश्वर को मानते हैं। सांख्य दर्शन पच्चीस तत्त्व मानता है। मीमांसक आठ पदार्थ मानते हैं। कणाद ने सप्त पदार्थ स्वीकार किए हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । तर्कसंग्रह में इन्हीं का वर्णन किया गया है। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य नव माने हैं। जैन दर्शन षड् द्रव्य स्वीकार करता है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | १०३ आत्मा का लक्षण तर्कसंग्रह में अन्नभट्ट ने आत्मा का लक्षण इस प्रकार किया है"ज्ञानाधिकरणमात्मा ।" आत्मा को ज्ञान का अधिकरण अर्थात् आश्रय कहा है। आत्मा को दो प्रकार का माना गया है-परमात्मा और जीवात्मा । परमात्मा सर्वज्ञ हैं, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ है । आत्मा नित्य है, विभु है और प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न है। क्योंकि सबका सुख-दुःख अलग है। तर्कसंग्रह में शरीर का लक्षण दिया है- "आत्मनो भोगायतनं शरीरम् ।" जो आत्मा के सुख एवं दुःखरूप भोग का आयतन अर्थात् आश्रय हो, वह शरीर है । शरीर के दो भेद हैं। जैसे कि योनिज और अयोनिज । शुक्र एवं शोणित के संयोग से जो उत्पन्न होता है, वह योनिज शरीर है । जैसे कि मनुष्य, पशु और पक्षी का, स्वेद से उत्पन्न होने वाले कीटाणुओं का, वृक्षों का और मनु आदि सिद्ध पुरुषों का शरीर अयोनिज है । क्योंकि वह स्वयंभू होता है। तर्कसंग्रह में पाँच इन्द्रियाँ मानी हैं, जो ज्ञानेन्द्रिय हैं। उनके विषय भी पाँच ही हैं । इन्द्रियाँ एक ओर बाह्य विषयों से सम्बद्ध हैं, और दूसरी ओर मन से, जो कि आत्मा से सम्बद्ध होता है । अतः मन आत्मा और इन्द्रिय दोनों से सम्बन्ध रखता है, और ये दोनों ही सम्बन्ध ज्ञान के कारण होते हैं । इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । मन तो आभ्यन्तर है, शेष इन्द्रिय बाह्य हैं । पाँचों ज्ञानेन्द्रिय ही हैं । वैशेषिक दर्शन में कर्मेन्द्रियों को स्वीकार नहीं किया गया है। सुख और दुःख की उपलब्धि का साधन मन ही है । मन को अन्तरिन्द्रिय माना है । मन अणु रूप है, और प्रति शरीर भिन्न-भिन्न है । सब का सुख-दुःख भिन्न-भिन्न ही है । आन्तरिक प्रत्यक्ष का करण होने के कारण मन इन्द्रिय है। वेदान्त इस बात को नहीं मानता। वेदान्त का तर्क यह है, कि श्रु ति में मन को इन्द्रियों से पृथक माना है। मन को इन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म भी माना है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि मन की स्थिति पाँच इन्द्रियों से पृथक माननी होगी। फिर चाहे उसे मन कहो, या अन्तःकरण की वृत्ति कहो । वेदान्त-दर्शन उसे अन्तःकरण वृत्ति ही कहता है, मन नहीं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व पाश्चात्य दर्शन में पदार्थ विचार यूनान के महान् दार्शनिक अरस्तू ने भी अपने ढंग से पदार्थ-विचार किया है । वस्तुतः अरस्तू का तो दर्शन पदार्थ प्रधान रहा है । उसने अपने तर्क-शास्त्र में दश पदार्थ माने हैं-वस्तु, परिमाण, गुण, सम्बन्ध, स्थान, काल, स्थिति, विशिष्टता, गति और निष्क्रियता। इन दश में अन्तिम नव विधेय हैं, और वस्तु उद्देश्य है । यहाँ पर यह बात ध्यान रखने योग्य है; कि अरस्तू का विभाजन तर्कसंगत है, जबकि कणाद का तात्त्विक है। वैशेषिक दर्शन अभिमत सप्त पदार्थ और अरस्तू द्वारा कथित दश पदार्थों की तुलना की जा सकती है । द्रव्य और गुण तो वस्तु और गुण हैं ही, संयोग और समवाय दोनों सम्बन्ध हैं, जिनमें प्रथम गुण है, और दूसरा विशेष प्रकार का पदार्थ । समय और स्थान की गणना द्रव्यों में की जाती है। गति कर्म है, और निष्क्रियता उसका निषेध है। अरस्तु ने अभाव का उल्लेख नहीं किया। क्योंकि वह सत्तावान् पदार्थों की गणना तक ही सीमित रहा । प्रारम्भ में वैशेषिक दर्शन में भी अभाव को स्वीकार नहीं किया गया था। यूनानी परमाणुवाद भारतीय परमाणवाद और यूनानी परमाण वाद कुछ अंतर से मिलता-जुलता है । ल्यूकियस ने यह सिद्ध किया कि हर पदार्थ के कुछ अत्यन्त सूक्ष्म परमाण होते हैं, जिनकी प्रकृति और आकृति एक-दूसरे से भिन्न होती है । एपीक्यूरस ने उन्हें एटम नाम दिया । परमाणुओं में गति होती है, वे एक-दूसरे मिलते भी हैं और बिछ्ड भी जाते हैं। परमाण नित्य हैं, और अविनाशी हैं । परमाणुओं से ही मन और आत्मा को भी उत्पन्न माना। ल्यू कि यस और डेमोक्रिटस दोनों ही मन और आत्मा को परमाणओं से बना हुआ नहीं मानते थे। भारत में, जैनदर्शन में तथा कणाद दर्शन में परमाणवाद पर विचार किया गया है। पाश्चात्य दर्शन के परिप्रेक्ष्य में पाश्चात्य दर्शन की अपनी एक अलग पद्धति है । विचार करने का Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | १०५ अपना अलग दृष्टिकोण है। दर्शन के मुख्य विषय तीन हैं-जीवन, जगत् और परमात्मा । पाश्चात्य दर्शन में तीनों पर विचार किया गया है । ज्ञानमीमांसा, पदार्थ-मीमांसा और कारण-मीमांसा पर बहुविध, व्यापक तथा गम्भीर विचार और अन्वेषण किया गया है । पाश्चात्य दर्शन में अनेक नूतन आयामों का द्वार खुला है। भौतिक विज्ञान, मनोविज्ञान, नीति विज्ञान, समाज विज्ञान और न-वंश विज्ञान । वस्तुतः ये सब दर्शन के अन्तर्गत थे । परन्तु जैसे-जैसे चिन्तन आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे ही विज्ञान दर्शन से अलग होता गया । इतना ही नहीं, विज्ञान दर्शन पर प्रभावी होता गया। उसका इतना विस्तार हो गया, कि उसको शाखा-प्रशाखाएँ फैलती चली गयीं और आज दर्शन न रहकर एकमात्र विज्ञान ही यूरोप की शान बन गया। उसके गौरव का आधार बन गया। उसकी पहचान बन गया। काल-विभाग पाश्चात्य दर्शन का विभाजन तीन भागों में किया गया था---यूनानी दर्शन, मध्ययुगीन यूरोपियन दर्शन और आधिकारिक आधुनिक यूरोपियन दर्शन । यूनानी दर्शन का प्रारम्भ-थेलीज, पाइथागोरस और हेराक्लिटस से होता है । उसका अन्त सुकरात, प्लेटो और अरस्तू में होता है । अरस्तू में यूनानी दर्शन अपने विकास के चरम शिखर पहुँच जाता है । एक आलोचक का कहना है, कि यूनानी दर्शन, प्लेटो तक शुद्ध दर्शन है, और अरस्तू में विज्ञानवाद प्रारम्भ हो जाता है । अरस्तू में दर्शन विज्ञान का रूप ग्रहण करने लगता है। मसीहा सम्प्रदाय यूनानी दर्शन के अस्त हो जाने पर, जिसका विकास सुकरात, अफलातूं और अरस्तू ने किया था, अब वह मसीहा सम्प्रदाय के लोगों के हाथ में आ गया। उसमें तीन मुख्य हैं - सन्त आगस्टाइन, सन्त थामस एक्वायना और प्लाटिनस । ये तीनों ही दार्शनिक कम और सन्त अधिक थे। ये दार्शनिक नहीं, धार्मिक थे । बुद्धि और अन्वेषण कम था, आस्था और विवेक अधिक । अतः नया चिन्तन समाप्त हो चुका था। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ | जन दर्शन के मूलभूत तत्त्व नूतन दर्शनिक युग नूतन युग का प्रारम्भ डेकार्ट से प्रारम्भ होता है, और ह्यूम पर समाप्त होता है । यूरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक छह हैं-रेने डेकार्ट, बेनेडिक्ट स्पिनोजा, गौटफाइड विल्हेल्म लाइबनित्ज, जान लॉक, जार्ज बर्कले और डेविड ह्यूम । डेकार्ट बहुतत्त्ववादी था। इसकी पदार्थ-मीमांसा प्रसिद्ध है । स्पिनोजा एकतत्त्ववादी था। लाइबनित्ज चिदणुवादी था। ये तीनों दार्शनिक पदार्थवादी हैं । पदार्थ की कल्पना तीनों की भिन्न-भिन्न हैं । लॉक अनुभववादी था । बर्कले प्रत्ययवादी था । ह्यूम संदेहवादी था । अनुभववाद में, प्रत्ययवाद में और संदेहवाद में यूरोप का दर्शन अपने विकास के चरम शिखर जा पहुंचा था। दर्शन-शास्त्र फिर जर्मनी पहुँच गया। वहाँ के दो दार्शनिक अत्यन्त प्रसिद्ध थे-इमैनुएल कांट और जार्ज विल्हेल्म हेगल । कांट बुद्धिवादी था तथा हेगल निरपेक्ष प्रत्ययवादी था। कांट ने अनुभववाद और बुद्धिवाद का समन्वय किया । हेगल ने दर्शन को विज्ञानवाद और अद्वैतवाद की भूमिका पर खड़ा किया। वस्तुतः कांट और हेगल के काल में, यूरोप का दर्शन-- विकास की सबसे ऊंची चोटी पर स्थित हो गया था । संक्षेप में यही यूरोप के दर्शन की झलक है। यूनान के तीन दार्शनिक पाश्चात्य देशों में दर्शन-शास्त्र का जन्म-सबसे पहले यूनान में हुआ था। परन्तु उसका परिपाक हुआ था-सुकरात, अफलातूं और अरस्तू के दर्शन में, लेकिन तीनों की विचार पद्धति भिन्न-भिन्न थी । सुकरात गुरु था। अफलातूं उसका शिष्य था। अरस्तू अफलातू का शिष्य था। अरस्तू ने अपने ग्रन्थों में सुकरात और अफलातू के विचारों की आलोचना की है। महान दार्शनिक सुकरात सुकरात यूनान देश का एक महान् विचारक तथा दार्शनिक था। उसने अपने विचारों को अन्य दार्शनिकों के समान लिखित रूप नहीं दिया था। वह सदा घूमता रहता था और लोगों से वार्तालाप किया करता था। अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाता था, और दूसरों के विचारों को स्वयं जानता था। अन्य दार्शनिकों के तुल्य न वह दूसरों को प्रभावित करता था और न अपना अनुगामी बनाता था। न वह अपनी सम्प्रदाय Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | १०७ स्थापित ही करना चाहता था । सुकरात का उद्देश्य लोगों को ज्ञान देना नहीं था । वह लोगों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करना चाहता था । सुकरात की इस पद्धति को द्वन्द्वात्मक पद्धति कहा जाता है । वाद विवाद और संवाद से ज्ञान की अभिवृद्धि की जाती है । भारत में गुरु-शिष्य के मध्य में होने वाले वार्तालाप को संवाद कहा गया है । इस पद्धति से शिष्य को ज्ञान की प्राप्ति और अभिवृद्धि होती है । ज्ञान का सिद्धान्त सुकरात का कथन था, कि ज्ञान जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी है । उसके अनुसार मनुष्य का परम उद्देश्य नैतिक एवं गुण सम्पन्न जीवन व्यतीत करना है । नैतिक व्यक्ति बनने के लिए ज्ञान प्राप्त करना अति आवश्यक है । सुकरात ज्ञान को मनुष्य का सद्गुण मानता था । ज्ञानी व्यक्ति का जीवन ही श्रेष्ठ जीवन होता है । सुकरात के अनुसार ज्ञानी व्यक्ति ही उचित कार्य कर सकता है । जिस व्यक्ति को उचित तथा अनुचित का ज्ञान ही न हो, वह उचित एवं नैतिक कार्य कैसे कर सकता है । सुकरात के कथनानुसार अनुचित कार्यों का कारण एकमात्र अज्ञान ही होता है । प्रत्येक व्यक्ति सुख और आनन्द चाहता है । आनन्द शुभ कार्यों द्वारा प्राप्त होता है । परन्तु शुभकर्मों को करने से पहले शुभज्ञान का होना आवश्यक है | अतः सुकरात के अनुसार ज्ञान और नैतिकता में घनिष्ठ सम्बन्ध है | अरस्तू ने सुकरात के ज्ञानवाद की आलोचना की है । अरस्तू का कहना है, कि सुकरात ने मनुष्य के बौद्धिक पक्ष के अतिरिक्त, जीवन के अन्य पक्षों की अवहेलना की है । वास्तव में, मनुष्य में बुद्धि के अतिरिक्त-संवेग एवं भावना भो होती है । अतः बुद्धि किंवा ज्ञान को ही मनुष्य का समग्र रूप समझ लेना एकांगी दृष्टिकोण होगा । मनुष्य के अधिकांश कार्य उसकी भावनाओं और संवेगों द्वारा भी परिचालित होते हैं । ज्ञान ही सब कुछ नहीं हो सकता । जीवन में भावना तथा क्रिया का भी महत्व कम नहीं हैं । अकेले ज्ञान की ओर झुके रहना, एकान्तवाद है । एकान्तवाद कभी सुखद एवं सुन्दर नहीं होता । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व सुकरात का नैतिक सिद्धान्त सकरात का विचार, नैतिकता के सम्बन्ध में, उग्रवाद और रूढिवाद दोनों से भिन्न था। उग्रवादी नैतिक नियमों में, किसी प्रकार की तात्त्विक अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करते । रूढ़िवादी लोग नैतिकता के नियमों को निरपेक्ष तथा आदर्श रूप मानते हैं। उनके अनुसार नैतिक नियमों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अतः सुकरात का कथन था, कि नैतिकता के नियमों को शुद्ध बौद्धिक सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। सूकरात की नैतिकता का सम्बन्ध यथार्थ जीवन एवं वास्तविक जगत् से है। अनुचित एवं उचित का निर्णय करना, बुद्धि का काम है। उसके अनुसार मानव-जीवन का लक्ष्य परम शुभ को प्राप्त करना है । परम शुभ को प्राप्त करने के लिए बौद्धिक, नैतिक नियमों की व्यवस्था की जाती है। ग्रीक नीति-शास्त्र में, चार गुणों का वर्णन किया जाता था-बुद्धिमत्ता, साहस, मिताचार और न्याय । लेकिन सुकरात इस बात को स्वीकार नहीं करता। वह केवल सद्गुण अर्थात् नैतिकता को ही मान्यता देता था। सुकरात का तर्क यह था, कि यथार्थ ज्ञान तो एक ही होता है, और ज्ञान ही सद्गुण है । अतः सद्गुण भी एक ही है। सुकरात सद्गुण को ही आनन्द मानता था। जहाँ सद्गुण होगा, वहीं पर आनन्द होगा। पाश्चात्य दर्शन में, सुकरात द्वारा प्रतिपादित नैतिक नियमों का सम्बन्ध वास्तविक जीवन से है। वह व्यावहारिकता में विश्वास करता था, कोरे उपदेश में उसकी अभिरुचि नहीं थी । यूनान के इतिहास में सुकरात सदा अमर रहेगा। प्लेटो का सिद्धान्त प्लेटो के जगत की सत्ता सम्बन्धी सिद्धान्त को विज्ञानवाद कहते हैं। उसने जगत को दो भागों में बाँटा है-व्यावहारिक जगत और पारमार्थिक जगत । व्यावहारिक सत्ता के विषय में प्लेटो के विचार हेराक्लाइटस के समान हैं, और पारमार्थिक सत्ता के विषय में वह पार्मेनाइडीज के विचारों से सहमत है। प्लेटो का विज्ञानवाद इन्हीं दोनों के विचारों का समन्वित . रूप है। यह विज्ञानवाद यथार्थवाद पर आधारित है। वह मानता था, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव- द्रव्य | १०६ कि वास्तविक सत्य मानसिक प्रत्ययों और बाह्य तथ्यों पर आधारित होता है । आत्मा का प्रत्यय यूनानी दर्शन में आत्मा का अर्थ - जीव की जीवनी शक्ति माना जाता था । प्लेटो ने अपने आत्मा सम्बन्धी विचार 'रिपब्लिक' के अन्तिम भाग में व्यक्त किये हैं । प्लेटो आत्मा को अमर मानता था । उसके अनुसार जीव के शरीर के समाप्त होने के बाद अथवा मृत्यु होने के पश्चात् जो कुछ शेष रहता है, वही आत्मा है । वस्तुतः आत्मा की अमरता के सम्बन्ध में प्लेटो पाइथागोरस के विचारों से अत्यधिक प्रभावित था । प्लेटो के अनुसार 'जीवात्मा और विश्वात्मा' में पर्याप्त समानता है । अन्तर केवल इतना है, कि जीवात्मा अपूर्ण है, विश्वात्मा पूर्ण है । प्लेटो ने आत्मा को एक समग्र माना है । आत्मा के विभिन्न कार्य हैं। प्लेटो के अनुसार जीवात्मा के तीन भाग हैं - बौद्धिक, अबौद्धिक और कुलीन । आत्मा का बौद्धिक भाग सरल एवं अविभाज्य होता है । कुलीन अबौद्धिक आत्मा । आत्मा के इस भाग के गुण एवं कार्य हैं - साहस, आत्मसम्मान और संवेग | अकुलीन अबौद्धिक आत्मा इसका सम्बन्ध जीव की विभिन्न वासनाओं से है । आत्मा को अमरता प्लेटो ने आत्मा को सरल, अविभाज्य और चेतन माना है । आत्मा की अमरता को सिद्ध करने के लिए प्लेटो ने अनेक तर्क प्रस्तुत किए हैं । मुख्य तर्कों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं - ज्ञानमूलक तर्क, तत्त्वमूलक तर्क और नैतिक तर्क । प्लेटो यह मानता था कि बौद्धिक आत्मा को शाश्वत विज्ञानों का ज्ञान होता है । स्मृति के आधार पर भी आत्मा की अमरता सिद्ध हो जाती है । इस स्मृति ज्ञान का आधार आत्मा की अमरता ही है । वर्तमान जीवन अथवा जन्म से पूर्व भी आत्मा के विभिन्न जीवन थे । आत्मा की प्रकृति सरल तथा अविभाज्य है । सरल तत्त्व को न तो बनाया जा सकता है, और न ही विघटित किया जा सकता है । आत्मा की अमरता को सिद्ध करने के लिए प्लेटो ने मूल्यात्मक अथवा नैतिक तर्क भी उपस्थित किए हैं । मनुष्य सदा न्याय की मांग करता है। न्याय की व्यवस्था तभी सम्भव है, जबकि आत्मा स्थायी एवं अमर हो । नैतिक एवं बौद्धिक न्याय Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व की व्यवस्था के लिए भविष्य जीवन की अनिवार्यता होती है। शुभ कर्मों के फल के लिए और अशुभ कर्मों के फल के लिए भी आत्मा को अमर होना ही चाहिये । अन्यथा फल किसको मिलेगा ? प्लेटो के अनुसार आत्मा में बुद्धि भी है, संकल्प भी है, वेदना भी है और वासना भी है। नैतिक जीवन में इन सभी का स्थान है । प्लेटो ने विश्व को बौद्धिक माना है । आत्मा के बौद्धिक भाग का कार्य, अन्य भागों को नियन्त्रण में रखना है। यूनानी दर्शन में, पाइथागोरस के बाद प्लेटो ने ही आत्मा की अमरता को स्वीकार करके उसे तर्कों से सिद्ध किया है। अरस्तू के सिद्धान्त अरस्तू के दर्शन में द्रव्य और स्वरूप दो मूलभूत तत्त्व हैं । अरस्तू के विश्व दर्शन को समझने के लिए इन दोनों को समझना आवश्यक है। अरस्तू ने कारण को विस्तृत धारणा माना है। प्रत्येक वस्तु अथवा घटना के चार कारण माने हैं। ये चार कारण मिलकर एक साथ किसी घटना अथवा वस्तु के निर्माण का कार्य करते हैं। ये कारण हैं-उपादान कारण, निमित्त कारण, स्वरूप कारण और लक्ष्य कारण । बाद में उसने चार को दो कारणों में रूपान्तरित कर दिया- स्वरूप कारण और निमित्त कारण । इस प्रकार उसने मूल रूप से सब वस्तुओं और घटनाओं के दो कारण माने हैं-उपादान कारण और स्वरूप कारण । इन्हीं दो कारणों से सम्बन्धित दो पदार्थ हैं-द्रव्य और स्वरूप । प्रत्येक वस्तु के दो पक्ष हैंद्रव्य या उपादान । दुसरा है-स्वरूप या वस्तु का विन्यास अथवा व्यवस्था। कारण का सिद्धान्त अरस्तू ने कारणता के सिद्धान्त के विषय में मौलिक विचार प्रस्तुत किए हैं । उसके द्वारा प्रतिपादित कारणता का अर्थ पर्याप्त विस्तृत है । अपने सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के लिए उसने सर्वप्रथम कारण और प्रयोजन में अंतर स्पष्ट किया है । अरस्तू किसी भी घटना को सम्पन्न होने के लिए चार प्रकार के कारण अनिवार्य मानता है । ये चारों कारण परस्पर मिलकर ही घटना को सम्पन्न करते हैं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-द्रव्य | १११ अरस्तू के चार कारण १. प्रथम कारण है-उपादान । किसी वस्तु का उपादान कारण उस द्रव्य या पदार्थ को कहा जाता है, जिससे वह वस्तु बनती है। उपादान कारण उस कच्ची सामग्री को कहा जाता है, जो बाद में वस्तु का रूप ग्रहण कर लेती है। उदाहरणतः एक घट के निर्माण के लिये मिट्टी उसका उपादान कारण है । मिट्टी से घड़ा बनता है । २. निमित्त कारण-किसी घटना के घटित होने में या किसी वस्तु के निर्माण में जो सहायता देने वाला हो, उसे निमित्त कारण कहते हैं। निमित्त कारण द्वारा ही परिवर्तन सम्भव होता है। मिट्टी से घड़े का निर्माण करने में कुम्हार निमित्त कारण होता है। ३. स्वरूप कारण-अरस्तु के अनुसार स्वरूप कारण का सम्बन्ध वस्तु के सार या मूल तत्त्व से है। घड़े के निर्माण के संदर्भ में कुम्हार के मस्तिष्क में उपस्थित घड़े का प्रत्यय ही घड़े का स्वरूप कारण है। स्वरूप का होना, परम आवश्यक है। ४. लक्ष्य कारण-लक्ष्य कारण वह साध्य है, जिसके लिए कारणता की पूरी प्रक्रिया चलती है । लक्ष्य कारण की ओर उन्मुख होकर वस्तु की रचना की प्रत्येक क्रिया की जाती है। घड़े की रचना की प्रक्रिया के संदर्भ में, पूर्ण घड़ा ही लक्ष्य कारण है । अरस्तू की कारण-मीमांसा प्रसिद्ध है। तर्कशास्त्र का मूल आधार ही कार्य-कारण भाव को माना गया है । अरस्तू दार्शनिक के साथ तार्किक भी था। दर्शन और तर्क के बाद वह विज्ञान की ओर भी अपने कदम बढ़ाता रहा। उसने अपने ज्ञान की सीमाओं को चारों ओर से बढ़ाया था । अरस्तू ने सूकरात और प्लेटो दोनों की आलोचना की है। अरस्तु अपने युग का एक महान व्यक्तित्व था। ज्ञान और शिक्षा के किसी भी क्षेत्र को उसने अपने अस्तित्व काल में अछूता नहीं छोड़ा। दर्शन-शास्त्र की समस्या दर्शनशास्त्र पूर्वी हो, या पश्चिमी, उन दोनों की एक समस्या हैजीव, जगत और परमात्मा की व्याख्या, अवस्था और व्यवस्था करना । यूनान के दर्शन में तीनों समस्याएँ विद्यमान हैं। विभिन्न युगों में प्रकारान्तर से इन्हों का समाधान दार्शनिक करते रहे हैं । ज्ञान-मीमांसा और पदार्थ मीमांसा-ये सब उसके अंगभूत हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व दृश्य वस्तु केवल जगत् है। जीव और परमात्मा अदृश्य हैं। उन दोनों का समाधान होना, तो अति कठिन है । लेकिन जगत् जो अति स्थूल है, एवं दृश्य वस्तु है, उसके भी गहन रहस्यों समाधान अभी तक नहीं हो पाया। फिर भी दार्शनिक लोग इन समस्याओं को सुलझाने का समयसमय पर प्रयास करते ही आ रहे हैं । यूनान के अनेक दार्शनिक हुए हैं, लेकिन सुकरात, प्लेटो और अरस्तू के युग में दर्शनशास्त्र ने आश्चर्यजनक प्रगति एवं विकास किया था। यूरोप के दर्शन का मूल आधार वही था । अरस्तू ने तो दर्शन-शास्त्र को परमोच्च स्थान प्रदान करा दिया था। अरस्तू के बाद और नूतन युग के मध्य में जो विचारक थे, वे दार्शनिक नहीं, मात्र समाज-सुधारक थे । ज्ञान और तर्क को छोड़कर वे लोग आस्था एवं विवेक का उपदेश दिया करते थे। अतः वे लोग धार्मिक थे । धर्म का ही प्रसार तथा प्रचार किया करते थे। अपनी सम्प्रदाय के कल्याण को ही वे अपना कल्याण समझते थे। मसीहा के धर्म के प्रचारक थे। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न व तत्व Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 १. तत्त्व की परिभाषा नव तत्त्व पर भगवती, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में विशेष रूप से विचार चर्चा की गई है । आगम युग के अनन्तर आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के ३५७ छोटे-छोटे सूत्रों में नव-तत्त्व पर इतना सुन्दर और विस्तृत विवेचन किया है कि उसमें एकादश अंग - साहित्य का ही नहीं, चतुर्दश पूर्व का सार भी आ गया है । आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा विरचित समयसार में भी क्या है ? नव-तत्त्व का विवेचन ही तो है । सिद्धान्तवादी आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्य-संग्रह में नव-तत्त्वों का ही विश्लेषण किया है । इस प्रकार आगम युग एवं आगम के उत्तरकालीन आचार्य युग में रचित ग्रन्थों में नव-तत्त्वों का वर्णन विशेष रूप से मिलता है । जीवन में तत्त्व का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जीवन और तत्त्व एकदूसरे से सम्बद्ध हैं, अलग-अलग नहीं । जीवन में तत्त्व समाविष्ट है, और तत्त्व में जीवन आ ही जाता है। जीवन में से तत्त्व को, और तत्त्व में से जीवन को निकाल कर अलग फेंक देने का अर्थ है - व्यक्ति एवं आत्मा के अस्तित्व से इन्कार कर देना । इससे स्पष्ट है कि तत्त्व के बिना जीवन गतिशील नहीं हो सकता, और जोवन के अभाव में तत्त्व भी नहीं रह सकता । हमारे सामने तीन व्यक्ति हैं - एक वैज्ञानिक, दूसरा दार्शनिक और तीसरा कवि । तीनों दृष्टियों से युक्त व्यक्ति मानव समाज में रहते हैं, और ये समाज में से ही उत्पन्न हुए हैं। याद रखिए, उनका उद्भव समाज में से होता है, उनका विकास भी समाज में होता है और उनके विचारों एवं प्रयोगों का लाभ भो समाज को मिलता है । तीनों विचारधाराएँ और तीनों दृष्टियाँ तीन तत्त्व की होते हुए भी एक दूसरी से सर्वथा भिन्न नहीं ११५ ) ( Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ! जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व हैं, परन्तु तीनों का समन्वय जीवन में परिलक्षित होता है। अतः यह समझ लेना आवश्यक है कि तीनों दृष्टियाँ एवं तीनों विचारधाराएँ क्या हैं ? इनकी परिभाषा क्या है ? विचार एवं चिन्तन की दृष्टि से तीनों का अपना-अपना स्वतन्त्र स्थान एवं महत्व है। वैज्ञानिक दृष्टि वस्तु में स्थित सत्य का अन्वेषण करती है, वह वस्तु को खण्ड-खण्ड करके उसमें निहित तथ्य को, यथार्थता को जानने का प्रयत्न करती है। दार्शनिक दृष्टि कल्याणकारी, मंगलमय एवं अमृतमय तथ्य को देखने का कार्य करती है। दार्शनिक का ध्यान कल्याण, मंगल और अमत को खोज निकालने और जन-जन को वितरित करने का रहता है। कवि की दृष्टि जड़-चेतन प्रत्येक वस्तु में स्थित सौन्दर्य एवं माधुर्य को देखने-परखने की रहती है। वैज्ञानिक सत्य का अन्वेषक है, दार्शनिक अमृतमय एवं कल्याणमय स्वरूप को सामने रखकर चिन्तन-मनन करता है और कवि वस्तु के सौन्दर्य एवं माधुर्य का अवलोकन करता है । तीनों के कार्य तीन तरह के होते हुए भी तीनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं है। वास्तव में, सच्चा वैज्ञानिक वहो है, जो दार्शनिक भी है, और कवि भी है। सच्चा दार्शनिक वही है, जिसमें वैज्ञानिक एवं कवि की सत्यान्वेषण और सौन्दर्य-अवलोकन की दृष्टि भी निहित है । सच्चे अर्थ में कवि वह है, जो वैज्ञानिक एवं दार्शनिक की भावना से ओतप्रोत है। महान् विचारकों में हमें तीनों दृष्टियों का समन्वय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कालिदास अपने युग का एक महान कवि था और आज भी महान् कवि के रूप में विश्व में प्रसिद्ध है। उसके द्वारा रचित मेघदूत में कालिदास को वैज्ञानिक दृष्टि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है, रघुवंश में उसके दार्शनिक रूप का कल्याणकारी एवं अमृतमय चिन्तन का स्पष्ट दर्शन होता है और अभिज्ञान-शाकुन्तल में उसका कवि हृदय बोल रहा है, वह पद-पद पर सौन्दर्य को छटा बिखेरता चल रहा है। महाकवि कालिदास के काव्य में वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं कवि, इन तीनों दृष्टियों का समन्वय परिलक्षित होता है। भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट आगम साहित्य का अनुशीलनपरिशीलन करने पर हम निस्सन्देह कह सकते हैं कि भगवान महावीर का जीवन, एवं उनकी साधना तीनों दृष्टियों से समन्वित थी। भगवान Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व की परिभाषा | ११७ महावीर श्रमण एवं दार्शनिक ही नहीं, महान् वैज्ञानिक दृष्टि से भी युक्त थे । उनका अनेकान्त का सिद्धान्त सबसे बड़ी वैज्ञानिक शोध है। वस्तु में एवं द्रव्य में स्थित अनेक धर्मों का तत्-तत् दृष्टि से अवलोकन करना, और सापेक्षदृष्टि से उनकी व्याख्या करना, यही अनेकान्त एवं स्याद्वाद का सिद्धान्त है। उस युग में एक ओर एकान्त नित्यवाद की स्थापना करने वाले वेदान्त के प्ररूपक थे और दूसरी ओर एकान्त क्षणिकवाद या अनित्यवाद के संस्थापक बुद्ध थे । और दोनों का एकान्तवाद वस्तु के स्वरूप को समझने में बाधक था। यदि आत्मा को एकान्त रूप से नित्य मानते हैं और यदि वह पूर्णतः कूटस्थ-नित्य है--उस में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है। किसी तरह का विकार नहीं आता है, तब आत्मा का बन्ध एवं मोक्ष कैसे घटित होगा? क्योंकि विकार-युक्त अशृद्ध भावों से बन्ध होता है, और विकारों के नाश से मुक्ति । अस्तु, एकान्त नित्य आत्मा में बन्ध और मोक्ष घटित नहीं हो सकते । इसी प्रकार यदि आत्मा को एकान्त अनित्य मानते हैं, तब उसमें पुण्य-पाप के के सम्बन्ध की व्यवस्था नहीं होगी? क्योंकि जिस आत्मा ने जिस क्षण पूण्य या पाप किया, वह उसी क्षण समाप्त हो गया, अब उसका फल उसे न मिलकर उसके स्थान पर आए हुए दूसरे आत्मा को मिलेगा, जिसने उस क्रिया को किया ही नहीं है । और ऐसा कदापि नहीं होता, कि क्रिया कोई करे और उसका फल मिले दूसरे को । इसलिए एकान्त नित्यवाद भी दोषयुक्त है, और एकान्त अनित्यवाद भी । अस्तु, वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए भगवान महावीर ने हमें अनेकान्त की वैज्ञानिक दृष्टि दी, और आज के वैज्ञानिक भी इसी सापेक्षदृष्टि, अनेकान्त-दृष्टि (Relative-vision) को सत्यान्वेषण के लिए उपयुक्त मानते हैं। भगवान महावीर ने कहा है-आत्मा या दुनिया का कोई भी द्रव्य न तो एकान्त रूप से नित्य है, और न एकान्त रूप से अनित्य है। वह द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । उसकी नित्यता भी सापेक्षिक है, और अनित्यता भी सापेक्षिक है । ___ इसी तरह भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट आगम-माहित्य में उनकी कवि की महान सौन्दर्य दृष्टि भी परिलक्षित होती है। उत्तराध्ययन में जीवन का अनन्त सौन्दर्य एवं माधुर्य पद-पद पर परिलक्षित होता है । उत्तराध्ययन में तन्मय होकर उसका गान करने वाले साधक के राग-रंग Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व वीतरागता की धारा में प्रवाहित हुए बिना नहीं रहेंगे। इस प्रकार सच्चे साधक में हमें तीनों दृष्टियों का समन्वय परिलक्षित होता है । जब तक वैज्ञानिक में समन्वय दृष्टि नहीं आएगी, तब तक उसकी शोध कल्याणरूप नहीं हो सकती। एकान्त विज्ञान की दृष्टि अणु-बम ही तैयार करेगी, जिसके परिणाम हिरोशमा एवं नागाशाकी की जनता भोग चुकी है, और जिसके नाम से सम्पूर्ण विश्व की मानव-जाति भयभीत है। एकान्त कवि दृष्टि भी वासना एवं विलासिता से अधिक कुछ नहीं देती। और समाज के हित-अहित से पूर्णतः अलग होकर एकान्त रूप से दर्शन की बात करने वाले ऋषि भो साम्प्रदायिक घेरों को बनाने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। इसलिए यह आवश्यक है, कि वैज्ञानिक दार्शनिक बनें और दार्शनिक वैज्ञानिक । क्योंकि वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं कवि, तीनों दृष्टियों का, तीनों विचारधाराओं का या यों कहिए सत्यान्वेषण, कल्याणमय एवं मंगलमय चिन्तन, एवं सौन्दर्यमय दृष्टि का अथवा सत्यं, शिवं, एवं सुन्दरं का संगम स्थल हो, जीवन है । अस्तु, जीवन और तत्त्व एक-दूसरे से भिन्न नहीं, प्रत्युत संबद्ध है । नव-तत्त्व में मुख्य तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । इसके अतिरिक्त सात तत्त्व दोनों के संयोग और वियोग से बने हैं। दो पदार्थों के मिलन को संयोग, और दोनों के पथक होने को वियोग कहते हैं। सातों तत्त्व पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं हैं, उनमें से कुछ संयोग से बने हैं, और कुछ वियोग से। आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप, ये चारों तत्त्व संयोग से बने हैं, और संवर, निर्जरा एवं मोक्ष, ये तीनों तत्त्व वियोग से बने हैं। जीव के आत्म-प्रदेशों को आवत करने वाले कर्म जिस क्रिया से आते हैं, उस तत्त्व को आस्रव कहते हैं। जहाँ आस्रव होता है, वहाँ बन्ध भो होता है, क्योंकि क्रिया से आने वाले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का राग-द्वेष की परिणति से बन्ध होता है। आस्रव और बन्ध-शुभ और अशुभ भावों से शुभाशुभ कर्मों का होता है। शुभ को पुण्य कहते हैं, और अशुभ को पाप । इसलिए आस्रव, बन्ध, पुण्य एवं पाप चारों तत्त्व जीव-अजीव के संयोग से बने हैं। संवर का अर्थ है-आस्रव से आने वाले कर्म-प्रवाह को रोकना, कर्मों के साथ आत्मा का संयोग नहीं होने देना। कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को एवादेश से हटाने वाले तत्त्व को निर्जरा कहते हैं, और आत्मा पर लगे हुए सम्पूर्ण कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्व की परिभाषा | ११६ आवरण को हटा देने वाले तत्त्व को मोक्ष कहते हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये तीनों तत्त्व वियोग स्थिति के सूचक हैं। आत्मा संयोग करता नहीं है, वह तो होता है । भले ही व्यक्ति के मन में कर्म के साथ संयोग करने की भावना हो, या न हो, जब तक व्यक्ति के मन में, जीवन में राग-द्वेष, मोह, विकार, विकल्प रहेंगे, तब तक कर्मों का संयोग होगा ही। शुभ और अशुभ भावों के अनुरूप शुभ और अशुभ आस्रव का-जिसे पूण्य और पाप कहते हैं, बन्ध होता ही है। जिस कर्म का फल हमें अच्छा लगता है, उसे पुण्य कहते हैं, और जिस का फल हमारे मन को रुचिकर नहीं लगता, उसे पाप कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति पुण्य का फल चाहता है, पर पाप का फल कोई नहीं चाहता। परन्तु एक आचार्य कहते हैं-आज व्यक्ति का जीवन ऐसा बन गया है, कि उसे जिस वस्तु का फल अच्छा लगता है, वह वस्तु अच्छी नहीं लगती, और जिसके फल को व्यक्ति पसन्द नहीं करता, उस कार्य को वह पसन्द करता है । यदि स्पष्ट भाषा में कहूँ, तो व्यक्ति पुण्य-फल तो चाहता है, परन्तु पुण्य का कार्य करना नहीं चाहता । व्यक्ति पाप का फल भोगना नहीं चाहता, परन्तु पाप का त्याग भी नहीं करता । अतः व्यक्ति शुभ या अशुभ जैसा भी कार्य करेगा, उसे वैसा फल मिलेगा ही। और जो व्यक्ति विकार एवं विकल्प से रहित होकर कार्य करेगा, वह शुभ और अशुभ दोनों से मुक्त रहेगा । आस्रव और बन्ध दोनों का आधार विकार और विकल्प हैं। अतः राग-द्वेष आदि विकारों को कम करना एवं उनसे मुक्त होना ही आस्रव और बन्ध से मुक्ति होना है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव-तत्त्व जैनदर्शन में तत्त्व वर्गीकरण जैन दर्शन द्वारा स्वीकृत नव तत्त्व ये हैं १. जीव ४. पाप ७. संवर १. जीव २. अजीव ५. आस्रव ८. निर्जरा व्यवहारनय से जो शुभ एवं अशुभ कार्यों का कर्ता भी है, और भोक्ता भी है । निश्चयनय से जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप निजगुणों काही कर्ता है, और भोक्ता है । जो दुःख तथा सुख का वेदक है । जो चेतनावन्त है, और जो उपयोगवान् है, उसे जिन भगवान् ने जीव कहा है । जो द्रव्य और भाव प्राणों को धारणकर्ता है, वह जीव है । जो जीवित था, जो जीवित है और जो जीवित रहेगा, वह जिनशासन में जीव कहा जाता है । २. अजीव जिस में ये लक्षण उपलब्ध नहीं होते, वह अजीव है । जो उपयोगशून्य है, जिसमें चेतना नहीं है, वह अजीव है । जो दुःख तथा सुख का वेदक नहीं है, वह जिनशासन में अजीव कहा गया है। जिसमें न ज्ञान हो, न दर्शन हो और न चारित्र हो - जिन भगवान् ने उसे अजीव कहा है । अजीव में न द्रव्य प्राण हैं एवं न भाव प्राण होते हैं । अजीव प्राणवन्त नहीं है । ३. पुण्य ६. बन्ध ६ मोक्ष ( १२० ) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में तत्त्व वर्गीकरण | १२१ ३. पुण्य जिसके कारण से जीव, शुभ कर्म के पुद्गलों का संचय करता है, वह पुण्य होता है । जिसके उदय से जीव को सुख की अनुभूति हो, वह पुण्य कहा जाता है-पुण्य से सुख का वेदन होता है । ४. पाप जिसके कारण से अशुभ कर्म के पुद्गलों का संचय होता है, वह पाप होता है । जिसके उदय से जीव को दुःख की अनुभूति हो, वह पाप कहा जाता है-पाप से दुःख का वेदन होता है । ५. आस्रव जो नूतन कर्मों के बन्ध में कारणभूत होता है, जो नूतन कर्मों के प्रवाह के आने का द्वार बनता है, जिनशासन में, उसे आस्रव कहा जाता है । जो अशुभ एवं शुभ कर्मों के उपादान में हेतुभूत है, जिन भगवान् ने उसे आस्रव कहा है। ६. संवर जिसके कारण अभिनव कर्मों के आने का द्वार बन्द हो जाता है, वह संवर होता है। आस्रव के निरोध को जिन-शासन में संवर कहा गया है। संवर से कर्मों के प्रवाह के द्वार का अवरोध हो जाता है, जिससे कर्मप्रवाह अन्दर आत्मा में प्रवेश नहीं पाता है । ७. बन्ध नवीन कर्मों को ग्रहण करके उनका जीव के साथ सम्बद्ध हो जाना, बन्ध है । पुरातन कर्मों के साथ नवीन कर्मों का बन्ध होता, लेकिन जीव उनसे बंध जाता है। यह बन्ध कैसे होता है ? जैसे नीर और क्षीर परस्पर मिलकर के एकमेक हो जाते हैं. वैसे ही कर्म और जीव एक दूसरे से बद्ध हो जाते हैं । इस स्थिति को जिन-शासन में विद्वानों ने बंध कहा है । बन्धनयुक्त आत्मा स्वतन्त्र नहीं रहता। ८. निर्जरा जिस क्रिया से अथवा जिस उपाय से आत्म-प्रदेशों के साथ बद्ध कर्मदलिक अथवा कर्म परमाणु एकदेश से आत्मा से अलग हो जाता है, वह Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व निर्जरा है । यह शब्द जैन परम्परा का पारिभाषिक शब्द है। पूर्वकृत कर्मों का क्षय जिससे होता है, उसे निर्जरा कहा गया है। तप के द्वारा कर्म आत्मा से पृथक् हो जाता है । अतएव तप को निर्जरा का हेतु कहा गया है । तप में बड़ी शक्ति है। ६. मोक्ष मोक्ष आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कहते हैं। जब तक आत्मा कर्मों से बद्ध है, तब तक वह संसारी है । कर्म-मल से शुन्य हो जाने पर वह मुक्त हो जाता है । कर्म के तीन रूप होते हैं-संचित कर्म, क्रियमाण कर्म और प्रारब्ध कर्म । तीनों का क्षय हो जाने पर ही मोक्ष होता है। आत्म-प्रदेशों से कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना ही जिनशासन में मोक्ष है। अतः वह आत्मा का शुद्ध स्वरूप है। ___ जैन दर्शन में नव ही तत्त्व हैं, न कम और न अधिक । सम्यग्दृष्टि जीव तत्त्वों पर जो श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दर्शन है। तत्त्वों का जो ज्ञान करता है, वह सम्यग्ज्ञान है । हेयों को छोड़ने का और उपादेयों को ग्रहण करने का जो प्रयास करता है, वह सम्यकचारित्र है। वस्तुतः नव तत्त्व ही जैन दर्शन का मूल आधार है । जय, हेय तथा उपादेय नव तत्त्वों में से दो तत्व-जीव और अजीव ज्ञेय हैं। ज्ञेय का अर्थ है, ज्ञान का विषय । ज्ञेय, प्रमेय और अभिधेय-ये तीनों पर्यायवाची हैं । प्रमा के विषय को प्रमेय कहते हैं । अभिधा शब्द में रहने वाली एक वृत्ति है । अभिधा का विषय, अभिधेय कहा जाता है। यहाँ पर जीव और अजीव-ये दोनों ज्ञान के विषय होने से ज्ञ य कहे जाते हैं। पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये चार तत्व उपादेय हैं, ग्रहण करने के योग्य हैं । जीव इन्हें ग्रहण करके अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है । संवर और निर्जरा-दोनों मोक्ष के साधनभुत हैं। संवर से आस्रव का निरोध होता है। तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय हो जाता है। अतः ये दोनों ही उपादेय हैं । साधना में आचरण करने योग्य हैं। लेकिन पुण्य के सम्बन्ध में, मतभेद है । पुण्य या तो शुभ आस्रव रूप है, या शुभ बन्ध रूप । दोनों स्थिति में, वह मोक्ष का हेतु कैसे हो सकता है ? अतः Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में तत्त्व वर्गीकरण | १२३ कुछ विद्वानों का मत है, कि व्यवहारनय से पुण्य भी श्रावकों के लिए उपादेय है, अवश्य ग्रहण करने योग्य है। परन्तु निश्चयनय से पुण्य, श्रावकों के लिए हेय है, अवश्य त्यागने योग्य है। अब रहा, साधु-जीवन का प्रश्न । साधु क्या करे ? समाधान में कहा गया है, कि उत्सर्ग मार्ग में, साधु के लिए पुण्य हेय है, त्यागने योग्य है । किन्तु अपवाद मार्ग में, साधु के लिये पुण्य उपादेय है, ग्रहण करने योग्य भी है। अतः पुण्य हेय एवं उपादेय दोनों है। पाप, आस्रव और बन्ध-ये तीनों तत्व सदा हेय हैं, सदा त्यागने के योग्य हैं। मोक्ष की साधना करने वाले को इनका कभी आचरण नहीं करना चाहिये । ये तीनों संसार के साधनभूत हैं । दुःख रूप संसार की अभिवृद्धि करने वाले हैं। संक्षेप और विस्तार शास्त्र में वस्तु का कथन दो प्रकार से किया जाता है-संक्षेप से और कहीं पर विस्तार से । गुरु शिष्य की योग्यता तथा शक्ति की जाँच करके ही तत्व का कथन करता है। संक्षेप में दो तत्त्व हैं-जीव और अजीव । स्थानांग सूत्र में एवं द्रव्यसंग्रह आदि में दो तत्त्वों का ही कथन किया गया है। पुण्य और पाप जीव के ही होते हैं, अजीव के कभी नहीं होते । कर्म बन्ध भी जीव को ही होता है, अजीव को कभी नहीं । कर्म क्या है ? पुद्गल परिणाम । आत्म-सम्बद्ध पुद्गल की कर्म संज्ञा होती है। अतः दगल अजीव है। क्योंकि वह उपयोग-शून्य है। आस्रव क्या है ? मिथ्यादर्शन आदि रूप उपाधि के कारण जीव का मलिन स्वभाव । यह आस्रव, आत्मा के प्रदेश और पुदगल का संयोगी भाव है। सवर क्या है ? आस्रव निरोध रूप है । आत्म-प्रदेश और पुद्गल का वियोगी भाव है। आत्मा का निवत्ति रूप शुद्ध परिणाम है । आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला है। निर्जरा क्या है ? आत्म-प्रदेशों से पुद्गल परमाणुओं का धीरे-धीरे अलग हो जाना । निर्जरा भी आत्मा और पुद्गल का वियोगी भाव है । मोक्ष क्या है ? आत्म-प्रदेशों से पुदगल का सर्वथा क्षय हो जाना। मोक्ष भी आत्मा और पूदगल का वियोगी भाव है। पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध-ये चार संयोगी भाव हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये तीन वियोगी भाव हैं। संयोग और वियोग, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व किसके हैं ? जीव और पुद्गल के । अतः मुख्य तत्त्व दो हैं--- जीव और पुद्गल । सप्त तत्त्व कुछ ग्रन्थों में सप्त तत्त्व का कथन किया गया है। पुण्य और पापइन दोनों का कथन इस प्रकार से किया है, कि दोनों का अन्तर्भाव, बन्ध में अथवा आस्रव में हो जाता है। शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । शुभ आस्रव अथवा अशुभ आस्रव । इस विषय का अधिक विस्तार--- तत्त्वार्थसूत्र में, विशेषावश्यक भाष्य में और लोक-प्रकाश आदि ग्रन्थों में किया गया है। सप्त तत्त्वों के क्रम का कारण संसार और मोक्ष जीव के होते हैं, अजीव के नहीं। अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व कहा है। अजीव के निमित्त से ही जीव संसार या मोक्ष पर्याय को प्राप्त होता है । इसलिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । जीव और अजीव के निमित्त से ही आस्रव होता है। अतः दोनों के बाद आस्रव कहा गया है। आस्रव के बाद बन्ध होता है । बन्ध को रोकने वाला संवर है । जो जीव आगामी कर्मों का संवर कर लेता है, उसी के संचित कर्मों की निर्जरा होती है । निजरा के बाद ही मोक्ष होता है । अतः सबके अन्त में, मोक्ष होता है। नव पदार्थ आगमों में और विशेषतः दशन ग्रन्थों में तत्त्व के अर्थ में, पदार्थ शब्द का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। तत्त्व का अर्थ है- तस्य भावः तत्त्वम् अर्थात् उसका भाव । पदार्थ का अर्थ है-पदस्य अर्थः, पदार्थः । पदार्थ अर्थात् पद का अर्थ, पद का वाच्य । शब्द होता है, वाचक और अर्थ होता है, वाच्य । शब्द के वाच्य को पदार्थ कहते हैं । तत्त्वों में पुण्य और पाप की स्वतन्त्र गणना करने से नव तत्त्व हो जाते हैं। इन्हीं को नव पदार्थ भी कह सकते हैं । अतः तत्त्व दो भी हैं, सप्त भी है, और नव भी हैं। तत्त्व, दर्शन-शास्त्र का मूल आधार होता है। प्रत्येक सम्प्रदाय को तत्त्व स्वीकार करना होता है । जैन दर्शन में मूलभूत तत्त्व नव माने गये हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जीव-तत्त्व जीव, आत्मा और प्राणी तीनों पर्यायवाचक शब्द हैं। जीव का क्या अर्थ है ? जो जीवित था, जो जीवित है, जो जीवित रहेगा, वह जीव होता है। आत्मा का क्या अर्थ है ? जो निरन्तर नूतन पर्यायों को धारण करता रहता है, वह आत्मा । प्राणी का क्या अर्थ है ? द्रव्य तथा भाव प्राण जिसके हों, वह प्राणी होता है, प्राणवान् होता है। जिससे जीव की पहचान हो, वह लक्षण कौन-सा है ? जीव का लक्षण है, उपयोग । जीव लक्ष्य है, उपयोग उसका लक्षण है। जीव चेतन है, क्योंकि चेतना उसका निज गुण है । गुण, गुणी से पृथक नहीं होता। वह अनादि-सिद्ध, अनादि-अनन्त है, स्वतन्त्र द्रव्य है । वह अरूपी है, अतः उसका प्रत्यक्ष, इन्द्रियों से नहीं हो सकता । किन्तु स्वसंवेदन प्रत्यक्ष उसका होता है । अनुमान और आगम से भो उसका ज्ञान होता है । उपयोग का क्या अर्थ है ? आत्मा का बोध रूप व्यापार उपयोग कहा जाता है । जीव में बोध की क्रिया होती है, अजीव में नहीं । बोध का कारण है, चेतना शक्ति । चेतना जिसमें हो, उसमें बोध क्रिया होती है, अजीव में नहीं, अचेतन में नहीं । ___ जोव में केवल उपयोग ही नहीं, अन्य भी अनन्त गुण और अनन्त पर्याय होते हैं । लेकिन प्रधानता उपयोग की है। उपयोग के दो भेद होते ( १२५ ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ / जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व हैं-साकार और अनाकार । ज्ञान और दर्शन । विशेष बोध और सामान्य बोध । सविकल्प ज्ञान और निर्विकल्प दर्शन । निर्विकल्प, सामान्य को ग्रहण करने वाला उपयोग, अनाकार है। सविकल्प, विशेष को ग्रहण करने वाला उपयोग, साकार है । आकार सहित, साकार और आकार रहित, अनाकार । आकार का अर्थ है ? वस्तूगत नाम, जाति, गुण और क्रिया रूप धर्मों को विशेष रूप से जानना । यह विशेषता ज्ञान में होती है । अनाकार का अर्थ क्या है ? वस्तुगत विशेष धर्मों को ग्रहण न करने वाला । सामान्य को ग्रहण करने वाला । यह दर्शन होता है । अतः विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान सविकल्प है। सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन निर्विकल्प होता है। जिसमें विकल्प हो, वह सविकल्प । जिसमें विकल्प न हो, वह निर्विकल्प । नाम, जाति, गूण और क्रिया रूप धर्मों को विकल्प कहा जाता है । ज्ञान, पदार्थगत विशेष धर्म को ग्रहण करता है । दर्शन, पदार्थगत सामान्य धर्म को ग्रहण करता है। ज्ञान एवं दर्शन दोनों उपयोग हैं। ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं—पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान । ज्ञान और अज्ञान में अन्तर क्या है ? मिथ्यात्वसहचरित अज्ञान और सम्यक्त्वसहचरित ज्ञान । यही दोनों में अन्तर है । दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । उपयोग, जीव का आत्मभूत लक्षण है। जीव के भेदों को जानने से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि उपयोग की चर्चा का सार क्या है ? उपयोग की विचारणा का निष्कर्ष यह है, कि चेतना आत्मा का गुण है। उसके पर्याय को उपयोग कहते हैं। उपयोग के दो भेद हैं-दर्शन और ज्ञान । ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं और दर्शन को निराकार उपयोग । जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों काजाति, गुण, क्रिया तथा नाम आदि का ग्राहक है, वह ज्ञान कहा जाता है, और जो उपयोग पदार्थों के सामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता का ग्राहक है, उसको दर्शन कहते हैं । यही दोनों में भेद है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानोपयोग के भेद ज्ञानोपयोग के दो भेद हैं- पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान । दोनों को मिलाकर आठ भेद होते हैं । जीव-तत्त्व | १२७ १. मतिज्ञान - जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है । २ श्रुतज्ञान - जो ज्ञान शास्त्र के वाचन से तथा सुनने से जो अर्थ ज्ञान होता है । ३. अवधिज्ञान - जो ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना मर्यादापूर्वक रूपी द्रव्य का होता है । ४. मनःपर्यायज्ञान - जो ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना मर्यादापूर्वक संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानता है । ५. केवलज्ञान - जो ज्ञान संसार के भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल के समस्त पदार्थों को, गुणों को तथा पर्यायों को युगपत् जानता है । १. मतिअज्ञान - जो ज्ञान मिथ्यात्व सहचर होता है । मिथ्यात्व दशा में होता है । २. श्रुतअज्ञान - जो ज्ञान मिथ्यात्व सहचर होता है । मिथ्यात्व दशा में होता है । 0 ३. विभंगज्ञान - जो ज्ञान मिथ्यात्व सहचर होता है । मिथ्यात्व दशा में होता है । विभंग शब्द का अर्थ है - विपरीत | अवधि अज्ञान । मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान तो नियम से सम्यग्दृष्टि को ही होते हैं । अतएव इन दोनों का कभी अज्ञान होता ही नहीं है । अज्ञान शब्द में 'अ' निषेध वाचक नहीं है । अतः अज्ञान का अर्थज्ञान का अभाव नहीं होता । यहाँ पर 'अ' विपरीत वाचक है । अतः अज्ञान का अर्थ है - विपरीत ज्ञान । परोक्ष और प्रत्यक्ष पाँच ज्ञान, दो भागों में विभक्त हैं- परोक्षज्ञान और प्रत्यक्षज्ञान । मति और दोनों निश्चयनय से परोक्ष हैं, और व्यवहारनय से प्रत्यक्ष । श्रुत Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अवधि, मनःपर्याय और केवल-ये तीनों प्रत्यक्ष हैं। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-सकल और विकल । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान देश प्रत्यक्ष हैं । सकल और विकल भी कहते हैं । दर्शनोपयोग के भेद दर्शन को सामान्य बोध कहा गया है। उसके चार भेद इस प्रकार हैं १. चक्षुर् दर्शन-नेत्र के द्वारा पदार्थों के जिस सामान्य धर्म का ग्रहण होता है, वह चक्षर् दर्शन है । २. अचक्षुर् दर्शन-नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों- त्वचा, रसना, घ्राण और श्रोत्र-- द्वारा पदाथों का जो सामान्य बोध होता है, वह अचार दर्शन है। ३ इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बोध होता है, उसको अवधिदर्शन कहते हैं । ४. संसार के समस्त पदार्थों का युगपत् जो सामान्य बोध होता है, उसको केवलदर्शन कहते हैं। ___ मनःपर्यायदर्शन क्यों नहीं होता है ? समाधान में कहा गया है, कि मनःपर्यायज्ञान, क्षयोपशम के प्रभाव से विशेष धर्मों को ही ग्रहण करके उत्पन्न होता है । वह सामान्य को ग्रहण करता ही नहीं । अतः उसका दर्शन नहीं होता। मनःपर्याय ज्ञान क्या है ? संज्ञी के मनोगत भावों को जानना। भाव पर्याय रूप होता है । पर्याय सदा विशेष ही होता है, सामान्य नहीं । क्योंकि जो सामान्य होगा, वह द्रव्य होगा। अतः पर्याय को ग्रहण करने वाला ज्ञान, सामान्य को ग्रहण नहीं करता। इसी कारण मनःपर्याय का दर्शन होता। जीव के भेद १. एकेन्द्रिय के चार भेद १. सूक्ष्म पर्याप्त २. सूक्ष्म अपर्याप्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. बादर पर्याप्त २. विकलेन्द्रिय के छः भेद- १. द्वीन्द्रिय पर्याप्त ३. त्रीन्द्रिय पर्याप्त ५. चतुरिन्द्रिय पर्याप्त ३. पञ्चेन्द्रिय के चार भेद १. असंज्ञी पर्याप्त ३. संज्ञी पर्याप्त - जीव-तत्त्व | १२६ ४. बादर अपर्याप्त २. द्वीन्द्रिय अपर्याप्त ४. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त २. असंज्ञी अपर्याप्त ४. संज्ञी अपर्याप्त जीव के चतुर्दश भेद हैं । एकेन्द्रिय के चार भेद हैं । विकलेन्द्रिय के छह भेद हैं । पञ्चेन्द्रिय के चार भेद हैं । सब मिलाकर जीव के चतुर्दश भेद हैं । सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, तथा संज्ञी और असंज्ञी - ये विशेष शब्द हैं । इनका अर्थ समझना परम आवश्यक है । पहले विकल और सकल को समझना है । विकल का अर्थ है - अपूर्ण, अधूरा । सकल का अर्थ है - पूर्ण, समस्त । इन्द्रिय का अर्थ है - ज्ञान के साधन । मूर्त रूपवान् और पुद्गल - तीनों का एक अर्थ है। पुद्गल कैसा है ? मूर्त है । रूपवान् अथवा रूपी है । इसका इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान होता है । अमूर्त एवं अरूपी को इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकती हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को रूप अथवा मूर्ति कहते हैं । ये सब पुद्गल के विशेष धर्म हैं । इन्द्रियाँ इनको ग्रहण करती हैं । स्पर्श को ग्रहण करने वाली इन्द्रिय स्पर्शन कहलाती है, इसको त्वचा भी कहा जाता है । रस को ग्रहण करने वाली रसना, गन्ध को ग्रहण करने वाली घाण, रूप को ग्रहण करने वाली चक्षु अथवा नेत्र और शब्द को ग्रहण करने वाली श्रोत्र । इन्द्रियों के आधार पर जीव के पाँच भेद होते हैं । जाति नाम कर्म नाम कर्म के बयालीस भेदों में एक भेद जाति नाम कर्म है, उसके पाँच भेद इस प्रकार हैं १. जिस कर्म के उदय से जीव को केवल एक इन्द्रिय, त्वग्, त्वचा एवं स्पर्शन की प्राप्ति हो, उसे एकेन्द्रिय जाति नाम कर्म कहते हैं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व २. जिस कर्म के उदय से जीव को दो इन्द्रियाँ, स्पर्शन और रसना प्राप्त हों, वह द्वीन्द्रिय जाति नाम कर्म कहा जाता है। ३. जिस नाम कर्म के उदय से तीन इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन और घ्राण प्राप्त हों, वह त्रीन्द्रिय जाति नाम कर्म कहा जाता है । ४. जिस कर्म के उदय से जीव को चार इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन घ्राण और नेत्र प्राप्त हों, वह चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म होता है । ५. जिस कर्म के उदय से जीव को पाँच इन्द्रियाँ, स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र और श्रोत्र प्राप्त हों, वह पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म होता है। इन्द्रियों के आधार जीव के तीन भेद हैं-एक इन्द्रिय वाले जीव । दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले जीव तथा पाँच इन्द्रिय वाले जीव । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा सकलेन्द्रिय अर्थात् पञ्चेन्द्रिय जीव । इन्द्रियों के आधार पर ये भेद हैं। सूक्ष्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर इतना सूक्ष्म हो, कि छद्मस्थ जीव जिसको देख नहीं सकता। बादर-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्थूल हो, फिर भी वह शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता, अनेक शरीरों का संघात ही नजर आता है। पर्याप्त एवं अपर्याप्त-जिस कर्म के उदय से जोव, स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करता है, वह पर्याप्त और जो पूर्ण किए बिना ही मर जाता है, वह अपर्याप्त कहा जाता है। __ संज्ञी-असंज्ञी-जिसके संज्ञा हो, वह संज्ञो होता है, और जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञी होता है। संज्ञा का अर्थ है-संज्ञान, ज्ञान और परिबोध । एक विशिष्ट प्रकार के ज्ञान को संज्ञा कहते हैं । जिससे अतीत, वर्तमान एवं अनागत का स्पष्ट विचार हो, वह संज्ञा है । जिसके संज्ञा न हो, वह असंज्ञो कहलाता है। स्पष्ट चिन्तन का अभाव होता है, उसमें । संज्ञी से विपरीत असंज्ञो होता है। संज्ञी और असंज्ञी के स्थान पर कुछ आचार्यों ने समनस्क तथा अमनस्क शब्दों का भी प्रयोग किया है। जिसके मन हो, उसे समनस्क Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-तत्त्व | १३१ कहा है । मन-सहित जीव समनस्क होता है । जिसमें मनन करने की शक्ति हो, वह समनस्क होता है । जो इसके विपरीत है-वह अमनस्क है। बिना मन का है। मन-रहित है । मनन करने की शक्ति उसमें नहीं है । वह चिन्तन नहीं कर सकता है । ___ मन के दो भेद हैं-द्रव्य मन और भाव मन । भाव मन ज्ञान रूप होने से सब संसारी जीवों के होता है । लेकिन द्रव्य मन सबके नहीं होता। द्रव्य मन पुद्गल रूप होता है । जिसको यह द्रव्य मन होता है-वह समनस्क कहा जाता है। जिसको यह द्रव्य मन नहीं होता है-वह अमनस्क कहा जाता है । चिन्तन के लिए द्रव्य मन आवश्यक है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अजीव-तत्त्व जीव शब्द का विपरीत अजीव है । किन्तु अजीव का अभाव अर्थ नहीं है । 'क्योंकि जैन दर्शन में जिस प्रकार जीव अनादि और अनन्त है, उसी प्रकार अजीव भी अनादि और अनन्त है । दोनों की त्रिकाल सत्ता है । जीव और अजीव का संयोग ही संसार है, और वियोग ही मोक्ष है । जीव और अजीव के मध्य में, संयोगी भंग दो हैं- आस्रव तथा बन्ध । ये दोनों जीव की दिशा बदलकर संसार की ओर कर देते हैं । पुण्य और पाप, आस्रव रूप हैं, अथवा तो बन्ध रूप हैं । अतः पुण्य एवं पाप भी संयोगी भंग हैं, जो जीव को संसार की ओर ही खींचते हैं । वियोगी भंग भी दो हैं- संवर और निर्जरा । जीव को मोक्ष की ओर ले जाने वाले । मूल में दो ही तत्त्व हैं -- जीव और अजीव, शेष तो दोनों के संयोग तथा वियोग पर्याय | जैन दर्शन दोनों को आदि-हीन और अन्त-हीन मानता है । लेकिन दोनों में अन्तर है । जीव तो उपयोगवान् है, तथा अजीव अनुपयोगवान् है । उसमें उपयोग नहीं है, बोध रूप व्यापार नहीं है, चेतना नहीं है, प्राण नहीं है, उपयोगशून्य है, चेतनारहित है, उसमें बोध क्रिया नहीं है । उसमें हित और अहित का ज्ञान नहीं है । जीवन रूप पर्याय उसमें नहीं है । अतः वह अजीव कहा जाता है । जीव और अजीव की भेद - रेखा क्या है ? वह उपयोग ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं । अजीव का लक्षण है- उपयोग को अनुपलब्धि । अ + जीव, जो जीव नहीं है वह अजोव' । उपयोग का अभाव ही अजीव का लक्षण बन गया है । जैन दर्शन के अनुसार अजीव, यह जीव का विरोधो भावात्मक तत्व है, वह केवल अभावात्मक नहीं है । ( १३२ ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव-तत्त्व | १३३ सांख्य-योग दर्शन भी दो तत्व मानता है-- पुरुष और प्रकृति । पुरुष का धर्म है-चैतन्य । प्रकृति का धर्म है-कर्तृत्व । दोनों का संयोग, संसार है, दोनों का वियोग, मोक्ष है । चैतन्य भाव जिसमें हो, वह पुरुष । जिसमें न हो, वह प्रकृति होती है। जैन-दर्शन के उपयोग का ही शब्दान्तर तथा अर्थान्तर है-सांख्य दर्शन का चैतन्य शब्द । न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा का असाधारण धर्म है-ज्ञान । जिसमें ज्ञान हो, वह आत्मा ! जिसमें ज्ञान न हो, वह पंचभूत अथवा जड़ है । जीव और जड़ का संयोग, संसार है। बौद्ध दर्शन में भी जीव और अजीव का भेद किया है। दोनों की भेद-रेखा ज्ञान ही है । चार्वाक दर्शन एकमात्र जड़ को ही मानता है। उसके मत में चेतना और चेतन भ्रमात्मक शब्द हैं । वेदान्त दर्शन एकमात्र चेतन को ही तत्व मानता है। जैनदर्शन जीव और अजीव दोनों की सत्ता मानता है । अतः जैन-दर्शन एकत्ववादी नहीं, द्वैतवादी दर्शन है । अजीव के भेद अजीव रूपी १. पुद्गल अरूपी १. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. काल अजीव काय १. धर्म ३. आकाश २. अधर्म ४. पुद्गल अथवा १. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. पुद्गल ५. काल अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अस्तिकाय अनस्तिकाय Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अस्तिकाय के नव भेद १. धर्म के तीन २. अधर्म के तीन ३. आकाश के तीन ४. अद्धा का एक ५. पुद्गल के चार स्कन्ध, देश, प्रदेश स्कन्ध, देश, प्रदेश स्कन्ध, देश, प्रदेश काल एवं समय स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु रूपी का अर्थ है - रूपवान् । रूप क्या है ? वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को रूप कहते हैं । ये चारों सहचर हैं । चारों साथ ही रहते हैं । वर्ण अर्थात् रूप की प्रधानता के कारण रूपी कहा गया है, अन्यथा गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् कह सकते हैं । रूपी कौन है ? एकमात्र पुद्गल ही रूपी है, शेष समस्त द्रव्य अरूपी हैं। ये चारों पुद्गल के असाधारण धर्म हैं । एकमात्र पुद्गल में रहते हैं । धर्म, अधर्म, आकाश और काल अरूपी हैं । जो जीव और पुद्गल की गति क्रिया में सहायक है, वह धर्म द्रव्य है । जो जीव और पुद्गल की स्थिति क्रिया में सहायक है, वह अधर्म द्रव्य है । जो सब द्रव्यों को अपने में अवकाश देता है, वह आकाश द्रव्य है । जो नूतन को पुरातन बनाता है, वह काल द्रव्य है । इसका लक्षण है - वर्तना । पुद्गल का लक्षण है- पूरण- गलन स्वभाव वाला द्रव्य । इस में परमाणुओं का अपचय और उपचय निरन्तर होता है । अस्तिकाय दो शब्दों को मिलाकर बना है । अस्ति का अर्थ हैप्रदेश | काय का अर्थ है - समूह । प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं । काल अनस्तिकाय है । क्योंकि वह प्रदेशों का समूह नहीं है । काल द्रव्य एक प्रदेशी कहा गया है । धर्म, अधर्म और आकाश के तीन-तीन भेद हैं- स्कन्ध, देश और प्रदेश | धर्म और अधर्म के असंख्यात प्रदेश हैं । आकाश के असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं । लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं, और अलोकाकाश के Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव-तत्त्व | १३५ अनन्त प्रदेश होते हैं। काल का एक ही प्रदेश होता है । पुद्गल के चार भेद है-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । स्कन्ध क्या है ? अनन्त परमाणुओं का संघात, स्कन्ध होता है । देश क्या है ? स्कन्ध का विभाग देश कहा जाता है । उसका छोटा भाग। प्रदेश क्या है ? पुद्गल का अविभाज्य अंश प्रदेश होता है। प्रदेश अपने प्रदेशी से कभी पृथक् नहीं होता। परमाणु क्या है ? परम+अणु को परमाणु कहते हैं । अणु अनन्त हैं और नित्य हैं। उनकी पर्यायों में परिवर्तन होता है। परमाणु और प्रदेश में क्या अन्तर है ? परमाणु स्कन्ध से पृथक् हो सकता है । परन्तु प्रदेश स्कन्ध से कभी अलग नहीं होता है । परमाणुओं में सदा संघात और भेद होता रहता है। प्रदेश में कभी भेद नहीं होतायही दोनों में अन्तर है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व-ये काल द्रव्य के उपकार हैं, अर्थात् कार्य हैं । उसकी उपयोगिता यही है । वर्तना-समस्त द्रव्य अपने आप प्रवृत्त होते हैं, तथापि उनके वर्तन में जो बाह्य सहकारिकारण होता है, उसे वर्तना कहते हैं । परिणाम-अपने स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों के बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीवों के परिणाम क्रोध आदि और पुद्गलों के परिणाम अणु आदि। क्रिया-एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को क्रिया कहते है। परत्व-अपरत्व-छोटे-बड़े के व्यवहार को परत्व-अपरत्व कहते हैं। जैसे पच्चीस वर्ष के मनुष्य को बड़ा और बीस वर्ष के मनुष्य को उसकी अपेक्षा छोटा कहते हैं। ___ ये सब काल द्रव्य की सहायता से होते हैं। इसलिए इन्हें देखकर अमूर्त निश्चय काल द्रव्य का अनुमान हो जाता है। ___ काल के दो भेद हैं-निश्चयकाल और व्यवहारकाल । समय रूप काल तो निश्चयकाल है। मुहूर्त, घड़ी, दिन-रात, पक्ष-मास और वर्ष-युग आदि व्यवहारकाल है, जो ढाई द्वीप में ही होता है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-तत्व नव तत्त्वों में पुण्य भी एक तत्त्व है । पुण्य का फल सुख होता है, पुण्य का फल प्रिय होता, पुण्य का फल मधुर होता है। पूण्य को सभी धर्मों ने स्वीकार किया है । पुण्य की परिभाषा अलग-अलग हो सकती हैं। पुराणों में पूण्य को स्वर्ग का द्वार कहा गया है। कहा गया है कि पण्य आत्मा को पवित्र करता है। पूण्य मलिन आत्मा को उज्ज्वल बनाता है। जैसे मलिन वस्त्र को साबुन उजाला कर देता है, वैसे पाप मल से मलिन आत्मा को पुण्य धो डालता है, उसे पाप रहित कर देता है । जैन दर्शन में तीन योग माने गए हैं- मनोयोग, वचनयोग और काययोग । मन का व्यापार, वाग्व्यापार और कायव्यापार । तीनों मिल कर योग कहलाते हैं । यह योग शुभ भी हैं, और अशुभ भी हैं। योग की शुभता तथा अशुभता का अधार, भावना है । शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग, शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग, अशुभ होता है। अशुभ योग पाप है और शुभ योग पुण्य होता है । जीव के मन की भावना ही उसके विचार को, उसकी वाणी को और उसके व्यवहार को शुभता-अशुभता प्रदान करती है। हिंसा, चोरी और व्यभिचार आदि काय व्यापार-अशुभ काययोग है । दया, दान और ब्रह्मचर्य आदि काय व्यापार- शुभ काय योग है। सावध भाषण, मिथ्या भाषण और कठोर-कटु भाषण आदि अशुभ वाग्योग है । निरवद्य भाषण, सत्य भाषण और मधुर मृदु भाषण आदि शुभ वाग्योग है। दूसरों की निन्दा, दूसरों का वध और दूसरों का अहित चिन्तन आदि अशुभ मनोयोग है। दूसरों का उत्कर्ष देखकर प्रसन्न होना और हित चिन्तन करना आदि शुभ मनोयोग है। ( १३६ ) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-तत्त्व | १३७ शुभ योग का कार्य पुण्य प्रकृति का बन्ध और अशुभ योग का कार्य पाप प्रकृति का बन्ध है । पुण्य और पाप, दोनों बन्ध के कारण हैं । अतः आस्रव रूप हैं। शुभ और अशुभ भावों से युक्त जीव पुण्य और पाप रूप होते हैं । सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नामकर्म और उच्च गोत्रकर्म-ये पुण्य रूप हैं और शेष कर्म पाप रूप हैं। पुण्य क्रिया का फल सुख है । अतः जीव को पुण्य करना चाहिए। पुण्य के भेद १. पदार्थ पुण्य के भेद१. अन्न २. जल ३. स्थान ४. शयन ५. वसन २. योग पुण्य के भेद१. मत २. वचन ३. काय ३. विनय पुण्य का भेद १. नमस्कार पदार्थ पुण्य का अर्थ है-पुण्य की उत्पत्ति में पदार्थ निमित्त होता है। संसार का सबसे ऊंचा पदार्थ अन्न है। अन्न को प्राण कहा गया है। क्योंकि वह प्राणीमात्र के प्राणों का आधार होता है। जठर में अन्न है, तो सब कुछ है, अन्यथा कुछ भी नहीं। भूखे को भोजन कराना, पूण्य है, सत्कर्म है। भोजन करने वाले की तृप्ति होती है, वह सन्तुष्ट होता है । अतः अन्न का दान देना, अर्थात् किसी को भोजन कराने को पुण्य कहा गया है। भारत में प्राचीन काल से ही अन्न दान का बड़ा महत्व है। ___ अन्न जैसा ही महत्व जल का भी है। जल तो जीवन ही है । बिना जल के जीवन टिक नहीं सकता। प्यासे को पानी पिलाना पुण्य है । अन्न दान के समान जल दान का भी बड़ा महत्व माना गया है । भारत में जल दान करने के लिए प्याऊ लगती हैं। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व जिन दीन-अनाथ लोगों के पास रहने को घर न हो, सिर छुपाने को स्थान न हो, उन्हें रहने के लिए स्थान देना, घर देना भी पुण्य है । स्थान का दान पुण्य का हेतु है। अतः भारत में लोग धर्मशालाओं का निर्माण कराते हैं, जहाँ लोग विथाम कर सकें। जिन लोगों के पास रात में विश्राम करने का स्थान न हो, उन्हें शयन कक्ष देना पुण्य है। भारत में पुरातन काल से पान्थशालाओं का निर्माण होता रहा है, जहाँ पर लम्बी यात्रा पर निकला यात्री रात्रि विश्राम करके सुख का अनुभव करता था। ___ शीतकाल में अभाव ग्रस्त मनुष्य वसन के अभाव में पीड़ा पाता था। शीत सहन न कर सकने के कारण से लोगों की मृत्यु तक हो जाती है । अतः वस्त्रदान भी एक पुण्य का हेतु है। भारत में वस्त्रदान की बहुत पुरातन परम्परा रही है। योग पुण्य का अर्थ है-मन से, वचन से और काय से पुण्य करना । शुभ योग ही पुण्य का कारण है । शुभ योग से मन की प्रवृत्ति, शुभ योग से वचन की प्रवृत्ति और शुभ योग से काय की प्रवृत्ति पुण्य का कारण है । मन से पुण्य कैसे होता है ? दूसरों का हित चिन्तन करने से । सब जीवों पर प्रेमभाव रखने से । सबको सुखी करने की भावना से । दुखियों पर दयाभाव करने से । मन्द कषाय से जीव पुण्य का उपार्जन करता है। वचन से पुण्य कैसे होता है ? मधुर वचन बोलने से, प्रिय वचन बोलने से, मृदु वचन बोलने से । गुणवान् के गुणों की प्रशंसा करने से । अभय वाणी बोलने से पुण्य होता है। काय से पुण्य कैसे होता है ? काय को साधने से । काय को जप-तप में लगाने से । धर्म के कार्य करने से । वृद्ध, रुग्ण और अपंग की सेवा करने से पुण्य होता है। ___ नमस्कार से पुण्य कैसे होता है ? नमस्कार, विनम्र भाव है, विनय भाव है, विनय समस्त गुणों में श्रेष्ठ होता है। गुरुजनों की भक्ति करने से पुण्य होता है। बड़ों का आदर-सत्कार करने से पुण्य होता है। नमस्कार गुणीजनों के प्रति एक प्रकार की भक्ति है । भक्ति से पुण्य होता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | पाप-तत्त्व जीव के अशुभ योग से पाप की उत्पत्ति होती है । अशुभ योग पाप का कारण है। पाप का फल दुःख होता है। पाप का फल जीव को प्रतिकूल है, अनुकूल नहीं । पाप से जीव अधोगति में जाता है। पाप के कारण नरक गति तथा तिर्यंच गति प्राप्त होती है । जो आत्मा को पतन के गहन गर्त में डालता है, वह पाप है। अशुभ भाव से पाप होता है। पाप आत्मा को मलिन बनाता है। जैसे नूतन वसन धूलि आदि के संयोग से मलिन हो जाता है, वैसे ही पाप के संयोग से आत्मा मलिन हो जाता है । वस्त्र का प्रक्षालन करने से वस्त्र फिर स्वच्छ हो जाता है । जप एवं तप आदि क्रियाओं से पाप भी दूर हो जाता है, नष्ट हो जाता है। ____ अज्ञान, मोह और द्वेष आदि दूषित भावों से पाप उत्पन्न होता है । मन से दूसरों के प्रति द्वेष करने से पाप होता है । वचन से दूसरों की निंदा करने से पाप होता है। काय से दूसरों को पीड़ा देने से पाप होता है। कषाय भाव तीव्र होने से पाप का बन्ध हो जाता है । पाप का फल दुःख है । पाप से कभी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती। पापी की संगति से अच्छा आदमी भी बुरा बन जाता है । दुनिया के सभी धर्मों ने पाप को बुरा कहा है । सब धर्मों के आचार्य पाप की निन्दा करते हैं। सब धर्मों के शास्त्र पाप को छोड़ने का उपदेश देते हैं। फिर भी संसार में पाप के काले बादल छाए हुए हैं। यह कितनी विचित्र बात है, कि मनुष्य जिसका फल चाहता है, उसे करता नहीं है। जिसका फल नहीं चाहता, उसे रात-दिन करता है। मनुष्य पुण्य का फल सुख चाहता है, लेकिन पुण्य का आचरण नहीं करता; आचरण करता है, ( १३६ ) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व पाप का । परन्तु पाप के फल दुःख से वह घबराता है। बड़ी ही विचित्र बात है यह। __ भगवान महावीर ने नव तत्वों में एक तत्व पाप को भी माना है । लेकिन पाप जानने के योग्य है, आचरण के योग्य नहीं। पाप को समझकर उसे छोड़ दो। जिसको छोड़ना है, उसे समझना भी जरूरी हो जाता है । अतः भगवान् ने पाप को हेय तत्व कहा है। इसके त्याग में ही जीव का कल्याण है। पुण्य फूल है, पाप काँटा है । पुण्य सुख है, पाप दुःख है । पुण्य ऊपर उठाता है, पाप नीचे गिराता है। पुण्यवान् की जगत में प्रशंसा होती है, पापात्मा की निन्दा होती है । पुण्य से प्रियता प्राप्त होती है, पाप से अप्रियता। पाप के भेद द्वेष १. अव्रत पाप के पाँच भेद१. प्राणातिपात २. मषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह कषाय पाप के छह भेद१. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ ५. राग ३. वाणी के पाप के चार भेद१. कलह २. अभ्याख्यान ३. पैशुन्य ४. पर-परिवाद ४. मन के पाप के तीन भेद१. रति-अरति २. मायामृषा ३. मिथ्यादर्शन १. प्राणातिपात-पाप के हेतुभूत अर्थात् कर्म बन्धन के कारणों को पापस्थानक कहा जाता है। उसके अष्टदश भेद हैं । उनमें प्रथम हिंसा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप-तत्त्व | १४१ है । प्रमादवश प्राणों का अतिपात करना, प्राणातिपात है । हिंसा की व्याख्या में कहा गया है, कि पाँच इन्द्रिय, तीन बल, श्वास-प्रश्वास और आयुष्य - किसी के भी इन दश प्राणों का घात करना, हिंसा है । प्राणातिपात दो प्रकार का है- द्रव्य और भाव । द्रव्य प्राणों का घात करनाद्रव्य हिंसा है । क्रोध एवं द्वेष-भाव हिंसा है, यह अधर्म है । २. मृषावाद - मिथ्या भाषण करना - मृषावाद है । उसके दो भेद - द्रव्य और भाव । मिथ्या भाषण के चार भेद भी होते हैं - अभूत-उद्भावन, भूतनिन्हव, वस्त्वन्तर न्यास और परनिन्दा | ये चारों मिथ्या भाषण के प्रकार हैं । ३. अदत्तादान स्वामी, जीव, तीर्थंकर और गुरु द्वारा अदत्त वस्तु को ग्रहण करना- चोरी है । वस्तु तीन प्रकार की है - सचित्त, अचित्त एवं मिश्र । ४. मैथुन - मिथुन के भाव को अथवा कर्म को मैथुन कहा जाता है । रागवश नर-नारी के संयोग तथा सहवास को मैथुन कहा गया है । ५. परिग्रह - मूर्च्छा भाव को परिग्रह कहा है । ममतावश वस्तुओं का संचय करते रहना । परिग्रह के दो भेद हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । धन, धान्य, कनक और रजत आदि बाह्य परिग्रह हैं, और प्रमाद, कषाय तथा मिथ्यात्व आदि आभ्यन्तर परिग्रह हैं । मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- कषायमोह और नोकषायमोह | कषायमोहकर्म के उदय से होने वाले जीव के संज्वलन, अहंकार, वंचना और मूर्च्छा रूप परिणाम क्रमशः क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । कषायमोहकर्म के उदय से होने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ रूप आत्मा के परिणाम विशेष, जो सम्यक्त्व, देशविरति सर्वविरति और यथाख्यात चारित्र का घात करते हैं । अतएव ये कषाय कहे जाते हैं । १. क्रोध - क्रोध मोहकर्म के उदय से होने वाला, कृत्य और अकृत्य विवेक को हटाने वाला, संज्वलन स्वरूप आत्मा के परिणाम को क्रोध कहते हैं । क्रोध से जीव जलता रहता है । २. मान - मान मोहकर्म के उदय से जाति, बल एवं वीर्य आदि गुणों में अहंकार बुद्धि रूप आत्मा के परिणाम को मान कहते हैं। मानी जीव अपने को सबसे बड़ा समझता है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व ३. माया-माया मोहकर्म के उदय से मन, वचन एवं काय की कुटिलता द्वारा पर-वञ्चना रूप आत्मा के परिणाम को माया कहते हैं । ४. लोभ-लोभ मोहकर्म के उदय से मूर्छा, तृष्णा एवं असन्तोष रूप आत्मा के परिणाम विशेष को लोभ कहते हैं। लोभ से परिग्रह होता है। ५. राग माया और लोभ, जिसमें अप्रकट रूप में विद्यमान हों, वह आसक्ति रूप जीवन का परिणाम राग कहा जाता है । यह बन्धहेतु है। ६. द्वोष-क्रोध और मान, जिसमें अव्यक्त रूप से हों, वह अप्रीतिरूप जीव का परिणाम द्वष कहा जाता है । यह बन्धहेतु है । मनुष्य वाणी पर संयम न रखने के कारण भी पाप करता है। वाणी के चार पाप हैं १. कलह-झगड़ा करना, राड़ करना । २. अभ्याख्यान-किसी में अविद्यमान दोषों का आरोप लगना। लांछन लगाना। ३. पैशुन्य--पीठ पीछे किसी के दोष प्रकट करना । चुगली करना, काना-फूंसी करना। ४. पर-परिवाद-पर की निन्दा करना । दूसरों की दृष्टि में उसके व्यक्तित्व को गिराना। मनुष्य में कायकृत तथा वचनकृत पाप के अतिरिक्त सबसे बड़ा पाप मानसिक भी होता है १. रति-अरति-प्रियता तथा अप्रियता, नोकषायमोहकर्म के उदय से जीव में जो प्रियता एवं अप्रियता का भाव होता है, वह रतिअरति है। २. मायामृषा-मायापूर्वक असत्य बोलना । दो दोषों का एक साथ सेवन करना। ३. मिथ्यादर्शन-श्रद्धा का विपरीत होना। यह आत्मा का एक भयंकर शल्य है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. आस्रव-तत्त्व कर्म के दो प्रकार हैं- शुभ और अशुभ। शुभ तथा अशुभ कर्म के आने के द्वार को आस्रव कहा जाता है । जैसे किसी तालाब में पानी आने के द्वार को अर्थात् नाली या मोरी को आस्रव कहा जाता है । आस्रव, जिसके द्वारा जीव रूपी सरोवर में कर्म रूपी जल प्रवेश करता है, अन्दर आता है, उसको कहा जाता है । मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहते हैं । काय, वचन और मन के द्वारा आत्मा के प्रदेशों में हलन चलन होने को योग कहते हैं । योग के तीन भेद हैं १. मनोयोग - मन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलनचलन होता है, उसको मनोयोग कहते हैं। क्योंकि मन की क्रिया निमित्त है । २. वचनयोग - वचन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन - चलन होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । क्योंकि वचन की क्रिया निमित्त है । ३. काययोग-काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलनचलन होता है, उसे काययोग कहते हैं । इन तीनों योगों की उत्पत्ति में वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम कारण है । इस प्रकार मन की क्रिया को, वचन की क्रिया को और काय की क्रिया को योग कहा गया है । जैन दर्शन में इस त्रिविध योग को आस्रव कहा है । जिस प्रकार कूप में पानी आने में, कूप के अन्दर ही अन्दर चारों और स्रोत होते हैं, ( १४३ ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व उसी प्रकार आत्मा के कर्म आने में योग स्रोत के तुल्य है, जिससे कर्म-रण अन्दर आ जाता है। जैन दर्शन का योग शब्द पारिभाषिक है। इस योग का अर्थ हैप्रवृत्ति । पतञ्जलि ने भी अपने योग-दर्शन में योग शब्द का प्रयोग बहुलता से किया है । परन्तु उस योग का अर्थ-निवृत्ति ही है। चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। जैन दर्शन में उस अर्थ में संवर शब्द का प्रयोग किया गया है। __ आस्रव का निरोध करके संवर की ओर जाना ही साधना कही जाती है । शास्त्रों में सर्वत्र ही आस्रव का निषेध किया गया है । क्योंकि यह कर्मबन्ध का कारण है। बन्ध से संसार की प्राप्ति होती है। जब तक बन्ध का कारण है, तब तक बन्ध होता ही रहेगा। बन्ध है, तो जन्म-मरण भी होता रहेगा । जन्म और मरण का चक्र ही संसार का सब से बड़ा दुःख है । दुःख और क्लेश का अन्त करने के लिए इस आस्रव को रोकना आवश्यक है । नव तत्वों में आस्रव को भी तत्त्व माना गया है। लेकिन वह उपादेय नहीं है, हेय माना गया है। छोड़ने के योग्य है। उसका आचरण नहीं किया जाता। जिसको छोड़ना हो, उसे समझना भी आवश्यक होता है। आस्रव के भेद १. बन्ध हेतुभूत आस्रव के पाँच भेद : १. मिथ्यात्व २. अव्रत ३. प्रमाद ४. कषाय ५. अशुभ योग २. अव्रत आस्रव के पाँच भेद : १. प्राणातिपात २. मषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह ३. विषय आस्रव के पाँच भेद : १. वर्ण २. गन्ध Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रव-तत्त्व | १४५ ३. रस ४. स्पर्श ५. शब्द ४. योग आस्रव के तीन भेद : १. मनोयोग २. वचनयोग ३. काय योग ५. अयतना आस्रव के दो भेद : १. भण्डोपकरण २. सूचि-कुशाग्र मात्र १. मिथ्यात्व-वीतराग कथित तत्वों पर श्रद्धा न होना। अथवा विपरीत श्रद्धान का होना । जो तत्व नहीं है, उसको तत्व समझ लेना। मोक्ष मार्ग को संसार का मार्ग मान लेना, और संसार के मार्ग को मोक्ष का मार्ग समझ लेना-मिथ्यात्व है। मिथ्यात्वमोह के उदय से विपरीत श्रद्धान रूप जीव के परिणाम को मिथ्यात्व कहते हैं। २. अव्रत-हिंसा, असत्य, चोरी, ब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग न करना । पाँच पापों से निवृत्त न होना-अव्रत आस्रव होता है। ३. प्रमाद-शुभ योग के अभाव को अथवा शुभ कार्य का स्वीकार न करना । सत्कर्म में प्रयत्न न करना। जिससे जीव ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोरूप मोक्ष मार्ग में, प्रमाद करता है । ४. कषाय-जो शुद्ध स्वरूप आत्मा को कलुषित करता है, वह कषाय है। जो कर्मरूप मल से आत्मा को मलीन बनाता है, वह कषाय होता है। कष अर्थात् कर्ममल किंवा संसार की अभिवृद्धि हो, प्राप्ति हो, उसे कषाय कहा जाता है। कषायमोहकर्म के उदय से होने वाला, जीव का क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप परिणाम कषाय है। ५. योग-मन, वचन और काय की क्रिया को योग कहते हैं । योग के दो भेद होते हैं- शुभ योग और अशुभ योग । योग आस्रव है ।। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द । शब्द श्रोत्र का विषय है । रूप नेत्र का विषय है । रस रसना का विषय है । गन्ध घ्राण का विषय है। स्पर्श त्वचा का विषय है। यदि इन्द्रियाँ इनमें राग-द्वषवश प्रवृत्ति करती हैं, तो यह आस्रव होता है । आस्रव से कर्म का बन्ध होता है, जिसका परिणाम है- दुःख एवं क्लेश । जीव पीडा भोगता Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व है । शब्द में आसक्ति से हरिण एवं सर्प का वध होता है । रूप में आसक्ति से पतंगे की मृत्यु हो जाती है । वह दीपक पर मर जाता है । गन्ध में आसक्ति से भ्रमर कमल में बन्द हो जाता है । रस में आसक्ति से मत्स्य जाल में फँस जाता है । स्पर्श में आसक्ति से बलवान गजराज भी बन्धन बद्ध हो जाता है । परन्तु जो 'मनुष्य पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हो जाता है, उसकी क्या दशा होगी । अतः इन्द्रियों को विषयों से हटाना चाहिए । विषयों में प्रवृत्ति ही आव है, वह बन्ध का कारण है । अयतना -यतना न करना - आसव है । उसके दो भेद हैं १. भण्डोपकरण - वस्त्र, पात्र अथवा अन्य किसी भी उपकरण को, संयम के साधन को यतना से न रखना और यतना से न उठाना । - २. सूचिकुशाग्र मात्र - सूचि एवं कुशा के अग्रभाग जितनी छोटी वस्तु को भी अयतना से रखना और उठाना । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवर-तत्त्व संवर शब्द जैन-दर्शन का एक विशिष्ट शब्द है। यह आस्रव का विरोधी तत्व है । संवर का अर्थ है-निरोध । बाहर से अन्दर आने वाली वस्तु को रोक देना। संवर मोक्ष का हेतु है । मोक्ष का अनन्य साधन है। इसके अभाव में मोक्ष कथमपि सम्भव नहीं है। संसार और संसार के साधनों का निरोध संवर है । साधना का शिखर है । आस्रव का रुकना जाना ही संवर होता है। आत्मा में जिन कारणों से कर्मों का आस्रवन होता है, उन कारणों को दूर कर देने से जो कर्मों का आना बन्द हो जाता है, उसको संवर कहते हैं। संवर के दो भेद हैं-द्रव्य संवर और भाव संवर। द्रव्य संवर क्या है ? पुद्गल मय कर्मों के आस्रव का रुक जाना। भाव संवर क्या है ? कर्मों के आस्रव के कारणभूत राग-द्वेष भावों का रुक जाना। __ तप भी मोक्ष का हेतु है। क्योंकि तप से कर्मों की निर्जरा होती है, और संवर भी होता है । तप को संवर का प्रधान कारण कहा गया है । तप का प्रधान फल है, पूर्व संचित कर्मों का क्षय होना । संवर का कारण क्या है ? गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र-ये सब ही संवर के कारण होते हैं । तप और ध्यान से भी संवर होता है । यह संवर मोक्ष का साधन है । ( १४७ ) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व संवर के भेद १. मोक्ष हेतुभूत संवर के पाँच भेद१. सम्यक्त्व २. व्रत ३. अप्रमाद ४. अकषाय ५. शुभ योग अथवा अयोग २. व्रत संवर के पाँच भेद१. अहिंसा २. सत्य ३. अस्तेय ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह ३. विषय संवर के पाँच भेद१. रूप संवर २. रस संवर ३. गन्ध संवर ४. स्पर्श संवर ५. शब्द संवर ४. योग संवर के तीन भेद१. मनः संवर २. वचन संवर ३. काय संवर ५. यतना संवर के दो भेद-- १. भण्ड-उपकरण संवर २. सूचिकुशाग्र मात्र संवर Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा-तत्त्व निर्जरा शब्द भी जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । निर्जर शब्द का संस्कृतभाषा में देव अर्थ होता है । क्योंकि स्वर्गवासी देव कभी वृद्ध नहीं होते । जरा से पार पा चुके हैं । अतः निर्जर शब्द देववाचक होता है । यहाँ पर निर्जरा शब्द है, जिसका अर्थ होता है-झड़ जाना, दूर हो जाना, निकल जाना । नव तत्त्वों में एक तत्त्व निर्जरा है। यह मोक्ष से पूर्व होता है । अतः आत्म-संबद्ध कर्मों का अंश रूप में धीरे-धीरे क्षय होना निर्जरा कहा जाता है । कर्मों का अंशेन क्षय निर्जरा और सर्वात्मना क्षय मोक्ष होता है । निर्जरा भी एक प्रकार से मोक्ष है। पूर्व मोक्ष और उत्तर मोक्ष । यही दोनों में अन्तर है । निर्जरा का अन्तरंग कारण है - तप । बिना तप के कभी निर्जरा नहीं होती। तप के दो भेद हैं- आभ्यन्तर तप और बाह्य तप । शरीर और कर्मों का तपाना तप है । जैसे आग में तपा सोना निर्मल होकर शुद्ध होता है, वैसे तप रूप आग में तपा आत्मा कर्ममल से रहित होकर शुद्ध हो जाता है । बाह्य तप का शरीर पर स्पष्ट प्रभाव पड़ने से बाह्य तप कहा जाता है । तप की साधना करने वाला तपस्वी अथवा तापस होता है। जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। आभ्यन्तर तप मोक्ष की प्राप्ति में अंतरंग कारण कहा जाता है। निर्जरा के भेद १. बाह्य तप के छह भेद : १. अनाहार २. अवमौदर्य ३. वृत्ति संक्षेप ४. रस परित्याग ५. कायक्लेश ६. प्रतिसंलीनता ( १४६ ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व २. आभ्यन्तर तप के छह भेद : १. प्रायश्चित्त २. विनय ३. वैयावृत्य ४. स्वाध्याय ५. व्युत्सर्ग ६. ध्यान भोजन ग्रहण न करना अनाहार है । कम भोजन करना ऊनोदर तप है । वत्तियों का संकोच करना । रसों को छोड़ना । काय कष्ट सहन करना । एक स्थान पर स्थिर होना । यह छह प्रकार का बाह्य तप कहलाता है। व्रतों में दोष लगने पर दण्ड लेना, शुद्धि के लिए। गुरुजनों का विनय करना । बाल, वृद्ध और रुग्ण की सेवा करना । शास्त्रों का शुद्ध पाठ करना । आभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह का त्याग करना । योगों की एकाग्रता करना। यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप होता है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध-तत्त्व आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म परमाणुओं का जो सम्बन्ध होता है, उसे बन्ध कहते हैं । बद्ध आत्मा अपने स्वरूप को भूल जाता है। जोव कषायवश होकर कर्म के योग्य कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल स्कन्धों को ग्रहण करता है, वह पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण ही बन्ध कहलाता है । कार्मण वर्गणा रूप पुद्गल सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं। कषाय के कारण आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध हो जाता है, वह बन्ध है । _ जैसे एक व्यक्ति अपने शरीर पर तेल लगाकर धूलि में लेट जाए, तो धूलि उसके शरीर पर चिपक जाती है। मिथ्यात्व एवं कषाय आदि से जीव के प्रदेशों में जब हल-चल होती है, तब जिस आकाश-प्रदेश में आत्मा के प्रदेश हैं, वहीं के अनन्त-अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु जीव के एकएक प्रदेश के साथ बँध जाते हैं। कर्म परमाण और आत्म-प्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं, जैसे दूध और पानी, तथा आग और लोह-पिण्ड परस्पर एक होकर मिल जाते हैं । आत्मा के साथ कर्मों का जो यह सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है । बन्ध के कारण ही आत्मा अनन्त संसार में, अनन्त काल से परिभ्रमण करता है । जन्म और मरण करता है। बन्ध के भेद बन्धभूत कर्म के चार भेद१. प्रकृति २. स्थिति ३. अनुभाग ४. प्रदेश १. प्रकृति बन्ध-कर्म परमाणुओं में ज्ञान एवं दर्शन आदि के ढकने का स्वभाव । ( १५१ ) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व २. स्थिति बन्ध - ज्ञानावरण आदि कर्मों का अपने स्वभाव से च्युत न होना । ३. अनुभाग बन्ध - ज्ञानावरण आदि कर्मों में तीव्र अथवा मन्द फल देने की शक्ति । ४. प्रदेश बन्ध- - ज्ञानावरण आदि कर्म-रूप हुए पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या को प्रदेश बन्ध कहते हैं । प्रकृति का अर्थ है -- स्वभाव । स्थिति का अर्थ है - काल मर्यादा | अनुभाग का अर्थ है - तीव्र एवं मंद फल । अनुभाग, अनुभाव और अनुभव - तीनों का एक ही अर्थ है । प्रदेश का अर्थ है -- कर्म स्कन्धों के परमाणुओं की संख्या का कम और अधिक होना । प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध, योग के निमित्त से होते हैं । स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध, कषाय के कारण से होते हैं । कर्मों का बन्ध दो प्रकार का होता है - निधत्त बन्ध और निकाचित बन्ध | दोनों की व्याख्या इस प्रकार से की जाती है १. निधत्त बन्ध -- उद्वर्तना और अपवर्तना करण के सिवाय विशेष करणों के अयोग्य कर्मों को रखना निधत्त कहा जाता है । निधत्त अवस्था में उदीरणा एवं संक्रमण आदि नहीं होते हैं । तपा कर निकाली हुई लोह शलाका के सम्बन्ध के समान पूर्व बद्ध कर्मों को परस्पर मिलाकर धारण करना निधत्त है । इसके भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार भेद हैं । २. निकाचित बन्ध - जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चय ही भोगा जाता है । जिन्हें बिना भोगे छुटकारा नहीं होता । उन कर्मों को निकाचित कहते हैं । निकाचित कर्म में कोई भी करण नहीं होता । तपा कर निकाली हुई लोह शलाकायें घन से कूटने पर जिस प्रकार एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इन कर्मों का भी आत्मा के साथ प्रगाढ़ सम्बन्ध हो जाता है । निकाचित कर्म के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार भेद हो जाते हैं । बन्ध किन कारणों से होता है ? बन्ध इन कारणों से होता हैमिथ्यादर्शन से, अव्रत से, प्रमाद से, कषाय से और योग से । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-तत्त्व मोक्ष आत्मा को परम शुद्ध अवस्था है। संसार के समस्त बन्धनों का नष्ट हो जाना ही तो मोक्ष है । समस्त कर्मों का क्षय हो जाना-मोक्ष कहा जाता है । चार घाती कर्मों के क्षय हो जाने पर जीव को केवलज्ञान होता है। घाती कर्मों में सबसे पहले मोहकर्म का क्षय होता है । बन्ध के कारणों का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव होना - मोक्ष है। आत्मा से समस्त कर्मों का सम्बन्ध छूट जाना, मोक्ष है, और वह मोक्ष संवर तथा निर्जरा के द्वारा प्राप्त होता है । मुक्त आत्मा फिर बन्धन बद्ध नहीं होता। ___ मोक्ष के दो भेद हैं-द्रव्य मोक्ष और भाव मोक्ष । आत्म-प्रदेशों से पुद्गल परमाणुओं का पृथक् हो जाना-द्रव्य मोक्ष है। कषाय भावों का सर्वथा क्षय हो जाना-भाव मोक्ष है। __ भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने मोक्ष स्वीकार किया है। मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण-ये सब मोक्ष के पर्यायवाचक शब्द हैं। न्यायवैशेषिक, सांख्य-योग और वेदान्त आत्मा की परम शुद्ध दशा को मोक्ष कहते हैं। बौद्ध क्षणिकवादी होकर भी निर्वाण को स्वीकार करते हैं । निर्वाण अभावात्मक नहीं, भावात्मक है । जैन दर्शन में मोक्ष-स्थितिविशेष और स्थानविशेष भी है। मोक्ष के भेद १. मोक्ष के दो भेद १. द्रव्य मोक्ष ( १५३ ) २. भाव मोक्ष Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्व २. मोक्ष के चार भेद १. ज्ञान २. दर्शन ३. चारित्र ४. तप ३. मोक्ष के चार साधन १. दान २. शील ३. तप ४. भाव मोक्ष के चार भेद हैं, यह कथन उपचार से किया गया है । मोक्ष एक ही है, उसका भेद नहीं होता। उसके ये चार कारण हैं। कारण में कार्य का उपचार कर लिया गया है। मोक्ष के चार कारण हैं-तत्वों का यथार्थ बोध, तत्वों का यथार्थ श्रद्धान, तत्वों का यथार्थ आचरण और सम्यक् तप-ये चारों मिलकर मोक्ष के कारण हैं। इनका परिपूर्ण विकास ही वस्तुतः मोक्ष है । दान, शील, तप और भाव-ये चारों धर्म के अंग हैं। अतः परम्परा से ये चारों भी मोक्ष के साधन होने से उपचार से मोक्ष कहे जाते हैं। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AATHA G परिशिष्ट Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी टिप्पण पारिभाषिक शब्दकोष लक्षण जीव के लक्षण से परिज्ञात होता है, कि वह अजीव से भिन्न वस्तु । मिश्रित वस्तुओं के भेद परिज्ञान के लिए लक्षण का परिबोध आवश्यक है । "येन वस्तु लक्ष्यते, तल्लक्षणम् ।" अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु का भेद ज्ञान हो, वह लक्षण कहा जाता है । अतः अनेक मिश्रित पदार्थों में से किसी एक पदार्थ को पृथक् करने वाले को लक्षण कहते हैं । उसके दो भेद हैं-आत्मभूत लक्षण और अनात्मभूत लक्षण । - १. आत्मभूत लक्षण- - जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में एकीभूत हो, उसे आत्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता । आत्मभूत लक्षण का अर्थ है, जो कभी अपने लक्ष्य से दूर न हो । जीव का आत्मभूत लक्षण उपयोग है, अर्थात् चैतन्य है, जो कभी जीव से दूर नहीं होता । इसको असाधारण धर्म भी कहते हैं । २. अनात्मभूत लक्षण - जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में एकीभूत न हो, उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे दण्डेन दण्डी पुरुषः । छत्रेण छत्री पुरुषः । तिलकेन पण्डितः । दण्ड पुरुष से अलग है । छत्र छत्री से भिन्न है । तिलक पण्डित से पृथक् होता है । फिर भी ये लक्षण व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों से अलग करते हैं । अतः ये लक्षण की कोटि में तो परिगणित हो ही जाते हैं । ( १५७ ) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण उपयोग, जीव का लक्षण है, यह कहा जा चुका है। किसी भी वस्तु को विशेष रूप से तथा सामान्य रूप से जानना-उपयोग है। उसके दो भेद हैं-ज्ञान और दर्शन । जो उपयोग पदार्थों के विशेष धर्मों का, जाति, गुण एवं क्रिया आदि का ग्रहण करता है, वह ज्ञान है। ज्ञान को साकार उपयोग कहते हैं। जो उपयोग पदार्थों के सामान्य धर्म का अर्थात् सत्ता का ग्रहण करता है, उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन को निराकार उपयोग कहते हैं। ज्ञान के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, साक्षात् आत्मा से जो ज्ञान हो, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान । इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान हो, वह परोक्ष प्रमाण है। जैसे मतिज्ञान और श्रतज्ञान । जो ज्ञान अस्पष्ट हो, स्पष्ट न हो, उसे परोक्ष प्रमाण कहते हैं। जैसे स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। जैन-दर्शन में प्रमाण का वर्णन दो प्रकार से किया गया है-आगम पद्धति से और तर्कशास्त्र की शैली से। पहली को ज्ञान-मीमांसा कहते हैं, और दूसरी को प्रमाण-मीमांसा कहते हैं । ___ प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि होती है । प्रमाण के बिना किसी भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो पाता है । अतः प्रमाण का बोध आवश्यक है। प्रमाण के भेद प्रमाण से प्रमेय का परिज्ञान होता है। प्रमाण का बोध आवश्यक है। प्रमाण के चार भेद हैं ( १५८ ) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : प्रमाण | १५६ १. प्रत्यक्ष-अक्ष का अर्थ है-आत्मा और इन्द्रिय । इन्द्रियों की सहायता के बिना, आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैसे अवधि, मनःपर्याय और केवल । इन्द्रियों से सीधा सम्बन्ध रखने वाला अर्थात् इन्द्रियों की सहायता से आत्मा के साथ सम्बन्ध रखने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहा जाता है । जैसेकि पाँच इन्द्रियों से होने वाला प्रत्यक्ष । २. अनुमान-लिंग अर्थात् हेतु के ग्रहण और सम्बन्ध अर्थात् व्याप्ति के स्मरण के पश्चात् जिससे पदार्थ का ज्ञान होता है, वह अनुमान प्रमाण है। साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। ३. जिसके द्वारा सदृशता से उपमेय पदार्थों का ज्ञान होता है, उसे उपमान प्रमाण कहते हैं। जैसेकि गवय, गाय के समान होता है। ४. आगम-शास्त्र के द्वारा होने वाला ज्ञान, आगम प्रमाण कहलाता है। इस प्रकार प्रमाण के चार भेद हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम । ये चार भेद अन्य सम्प्रदायों में भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । भगवतीसूत्र तथा अनुयोगद्वार में भी ये चार प्रमाण हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नय-स्वरूप अजीव या जीव, प्रत्येक वस्तु प्रमाण एवं नय का विषय है । प्रमाण का वर्णन किया गया, नय का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है। नय के दो भेद हैंद्रव्यार्थिक नय तथा पर्यायार्थिक नय । १. द्रव्याथिक नय-जो पर्यायों को गौण करके द्रव्य को ही मुख्यतया ग्रहण करे, उसे द्रव्याथिक नय कहा जाता है। २. पर्यायाथिक नय-जो द्रव्य को गौण करके पर्यायों को ही मुख्यतया ग्रहण करे, उसे पर्यायार्थिक नय कहा जाता है। एक अन्य प्रकार से नयों का कथन किया गया है । वह है, अध्यात्म दृष्टि । निश्चय एवं व्यवहार । निश्चय नय-वस्तु के शुद्ध एवं मूल स्वरूप को निश्चय कहते हैं। जैसे आत्मा सिद्ध स्वरूप है।। व्यवहार नय-वस्तु का लोकसम्मत स्वरूप व्यवहार होता है । आत्मा मनुष्य, तिर्यञ्च रूप है । निश्चय में ज्ञान की प्रधानता है । व्यवहार में क्रियाओं की प्रधानता रहती है। निश्चय और व्यवहार परस्पर एक-दूसरे के सहायक हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। नयों के अन्य प्रकार से भी भेद-प्रभेद किये गए हैं। जैसे शब्द नय और अर्थ नय, ज्ञान नय और क्रिया नय । जैन दर्शन में नयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ( १६० ) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तनय बन्ध और मोक्ष-दोनों जीव की पर्याय हैं । एक शुद्ध पर्याय है, तो दूसरी अशुद्ध । प्रमाण और नय से जीव आदि सप्त तत्व तथा नव पदार्थ का अधिगम होता है । प्रमाण का संक्षेप में कथन किया । यहाँ पर संक्षेप में नय का कथन किया गया है । नय क्या है ? प्रमाण द्वारा परिगृहीत अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को मुख्य रूप से जानने वाले ज्ञान को नय कहा जाता है । उसके सात भेद हैं १. नैगम-दो पर्यायों, दो द्रव्यों और द्रव्य तथा पर्याय के प्रधान एवं गौण भाव से विवक्षा करने वाले नय को नैगम नग कहते हैं । अनेक गमों अर्थात् विकल्पों से वस्तु को जानता है। "तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः ।" निगम का अर्थ है-संकल्प, जो निगम अर्थात् संकल्प को विषय करे, वह नैगम नय कहा जाता है । जैसे-कौन जा रहा है ? मैं जा रहा हूँ । यहाँ पर कोई जा नहीं रहा है, किन्तु जाने का केवल संकल्प ही किया है। २. संग्रह-विशेष से रहित सत्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाले नय को संग्रह नय कहते हैं। संग्रह नय के दो भेद हैंपर संग्रह और अपर संग्रह । सत्ता मात्र को ग्रहण करने वाला नय पर संग्रह है । क्योंकि यह नय द्रव्य कहने से जीव और अजोव सबको ग्रहण करता है । अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला नय अपर संग्रह है। जीव कहने से सब जीवों को ग्रहण करता है, अजीव को नहीं । ३. व्यवहार नय-लौकिक व्यवहार के अनुसार, विभाग करने वाले नय को व्यवहार नय कहते हैं । जैसे जो सत् हैं, वह द्रव्य है, या पर्याय । जो द्रव्य है, उसके छह भेद हैं । जो पर्याय है, उसके सहभावी और क्रमभावी ये दो भेद हैं । जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैं । भेद-मूलक व्यवहार नय होता है। ( १६१ ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व ४. ऋजुसूत्र नय - वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र नय कहते हैं । जैसे सुख पर्याय इस समय है । परन्तु अधिकरणभूत आत्मा को गौण रूप से मानता है । बौद्ध दर्शन इसका सुन्दर उदाहरण है । ५. शब्द नय-काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग आदि के भेद से शब्दों में अर्थभेद का प्रतिपादन करने वाले नय को शब्द नय कहते हैं | जैसे मेरु था, मेरु है और मेरु होगा । तटः तटी तटम् । ५. समभिरूढ नय - पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को समभिरूढ नय कहते हैं । जैसे इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाचक हैं । फिर भी अर्थ में अन्तर है । ७. एवंभूत नय - शब्दों की स्वप्रवृत्ति की निमित्तभूत क्रिया से युक्त पदार्थों को ही उनका वाच्य मानने वाला नय एवंभूत नय है । जैसे इन्दन क्रिया का अनुभव करते समय ही इन्द्र को इन्द्र शब्द का वाच्य मानता है । एवंभूत नय में उपयोग सहित किया की प्रधानता है । सप्तभगी जब एक वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में प्रश्न करने पर विरोध का परिहार करके व्यस्त और समस्त, विधि और निषेध की कल्पना की जाती है, तो सात प्रकार के वाक्यों का प्रयोग होता है, जो कि स्यात्कार से अंकित होते हैं । उस सप्त प्रकार के वाक्य प्रयोग को सप्तभंगी कहते हैं । वे सात भंग इस प्रकार हैं (१) कथंचित् है: (२) कथंचित् नहीं है । (३) कथंचित् है, और नहीं है । ( ४ ) कथंचित् कहा नहीं जा सकता । (५) कथंचित् है, फिर भी कहा नहीं जा सकता । (६) कथंचित् नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता । (७) कथंचित् है, नहीं है, फिर भी कहा नहीं जा सकता । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : सप्तभंगी | १६३ मूल भंग अस्ति और नास्ति दो हैं। दोनों की युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य नाम का भंग बनता है और यह भी मूल भंग में परिगणित हो जाता है । इन तीनों के असंयोगी (अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य)। द्विसंयोगी (अस्ति-नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य) और त्रिसंयोगी (अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य) बनाने से सात भंग हो जाते हैं। अतएव इसको सप्तभंगी कहा जाता है। सप्तभंगी न्याय जैन-दर्शन का एक विशिष्ट विषय बन गया है । सप्तनय और सप्त भंग को समझना परम आवश्यक है । किसी प्रश्न के उत्तर में या तो हम 'हाँ' बोलते हैं, या 'नहीं'। इसी 'हाँ' और 'नहीं' को लेकर सप्तभंगी की रचना की है। सप्तभंगी का सामान्य अर्थ है-वचन के सात प्रकारों का एक समुदाय । किसी भी पदार्थ के लिए अपेक्षा के महत्व को ध्यान में रखते हुए सात प्रकार से वचनों का प्रयोग किया जा सकता है। वे सात वचन इस प्रकार हैं-- (२) नहीं (३) है और नहीं (.) कहा नहीं जा सकता (५) है, परन्तु कहा नहीं जा सकता (६) नहीं है, परन्तु कहा नहीं जा सकता (७) है, और नहीं, किन्तु कहा नहीं जा सकता किसी भी पदार्थ के विषय में सात प्रकार के ही प्रश्न हो सकते हैं। अतः आठ, नव और दशवाँ भंग नहीं बन सकता। सात ही भंग हैं, कम तथा अधिक नहीं । अतः यह सप्तभंगी कही जाती है । (१) घट द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है । (२) घट पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है । (३) घट क्रम विवक्षा से नित्य भी है, और अनित्य भी है। (४) घट अवक्तव्य है, अर्थात् युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य भी है। इन चार वचन प्रयोगों पर से पिछले तीन वचन और बनाए जाते हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व (५) द्रव्य की अपेक्षा से घट नित्य होने के साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। (६) पर्याय की अपेक्षा से घट अनित्य होने के साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। (७) द्रव्य और पर्याय की अपेक्षा से घट क्रमशः नित्य और अनित्य होने के साथ साथ युगपत् विवक्षा से अवक्तव्य है। पिछले तीन वचन प्रयोग, अवक्तव्य रूप चतुर्थ भंग के पहला दूसरा और तीसरा मिलाने से बनते हैं । अतः वास्तव में मुख्य रूप से तीन या चार ही भंग है । यह सप्त भंगी का स्वरूप है । वस्तुतः शब्द की प्रवृत्ति प्रवक्ताओं के भावों पर आधारित होती है। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं। विभिन्न प्रवक्ता अपने-अपने दृष्टिकोण से उनका उल्लेख करते हैं । जैन दर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का स्थान अत्यन्त गौरवपूर्ण माना जाता है। सप्तभंगीवाद, नयवाद और प्रमाणवाद-ये सब स्याद्वाद रूपी दुर्ग के संरक्षक हैं । अनेकान्तवाद एक दृष्टि है, उसकी अभिव्यक्ति स्याद्वाद के द्वारा होती है। अतः अनेकांत का भाषात्मकरूप ही तो स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण और नय प्रमाण- - अपना और दूसरे का निश्चय कराने वाले यथार्थ ज्ञान को कहते हैं | प्रमाण वस्तु को सब दृष्टि-बिन्दुओं से जानता है । वस्तु के समस्त अंशों को जानने वाला प्रमाण होता है । नय - प्रमाण द्वारा ज्ञात अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के किसी एक अंश अथवा गुण को मुख्य करके जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं । नय-ज्ञान वस्तु के अन्य अंश की ओर उपेक्षा या गौणता रहती है । में मुख्य-पदार्थ के अनेक धर्मों में जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है, उस समय वही धर्म प्रधान माना जाता है । प्रधान धर्म को मुख्य धर्म कहा जाता है । गौण - मुख्य धर्म के अतिरिक्त सभी अविवक्षित धर्म गौण कहलाते हैं । जिसकी विवक्षा उस समय न हो, वह गौण होता है । सामान्य - वस्तु के जिस धर्म के दीखते हों, उसको सामान्य कहते हैं । सामान्य है । कारण अनेक पदार्थ एक जैसे जैसे अनेक गायों में गोत्व पदार्थों से भिन्नता का बोध जैन दर्शन में वस्तु सामान्य विशेष- सजातीय और विजातीय कराने वाला धर्म, विशेष कहा जाता है। विशेषात्मक मानी जाती है । सामान्य द्रव्य है, और विशेष पर्याय कहा जाता है । ( १६५ ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप निक्षेप का अर्थ है- न्यास । वस्तु का यथार्थ अर्थ समझने के लिए निक्षेप की आवश्यकता होती है । निक्षेप के चार भेद होते हैं - १. नाम-लोक व्यवहार चलाने के लिए गुण आदि की अपेक्षा न रखकर, किसी पदार्थ की संज्ञा रखना, नाम रखना-नाम निक्षेप होता है । जैसे किसी बालक का नाम, महावीर रखना। यहाँ पर बालक में वीरता गुण की अपेक्षा नहीं है । संज्ञा, नाम एवं संकेत भर किया है। २. स्थापना- किसी वस्तु में अर्थात् प्रतिकृति में, मूर्ति में अथवा अक्ष-पासा आदि में मूल वस्तु की परिकल्पना कर लेना, स्थापना होती है। वह दो प्रकार की है- तदाकार और अतदाकार । जैसे जम्बूद्वीप के चित्र को जम्बू द्वीप कहना । शतरंज के मोहरों को गज, अश्व, वजीर कहना । ३. द्रव्य- किसी पदार्थ की भूत और भविष्यत् पर्याय के नाम का वर्तमान में व्यवहार करना, द्रव्य निक्षेप है। जैसे राजा के मृतक शरीर में यह राजा है-इस प्रकार भूत पर्याय का व्यवहार करना । भविष्य में राजा होने वाले युवराज को वर्तमान में यह राजा है, यह कथन करना । शास्त्र का ज्ञाता, जब उस शास्त्र के उपयोग से शून्य होता है, तब उसका ज्ञान, द्रव्य ज्ञान कहाता है । शास्त्र में कहा है-"अनुपयोगो द्रव्यम्" अर्थात् उपयोग न होना, द्रव्य होता है। जैसे सामायिक का ज्ञाता, जिस समय सामायिक के उपयोग से शून्य है । उस समय उसका सामायिक ज्ञान, द्रव्य सामायिक ज्ञान कहा जाता है। ४. भाव-पर्याय के अनुसार, वस्तु में शब्द का प्रयोग करनाभाव निक्षेप होता है। जैसे राज्य करते हुए मनुष्य को राजा कहना । सामायिक के उपयोग वाले को सामायिक-ज्ञाता-कहना। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व-पर-चतुष्टय आस्रव और संवर तथा जीव और अजीव-किसी भी प्रकार का तत्त्व क्यों न हो ? उसमें एक साथ परस्पर विरुद्ध अनेक धर्म रह सकते हैं। क्योंकि जैन-दर्शन, अनेकान्त दर्शन है । इसके अनुसार वस्तु में अनेक धर्म रहते हैं । अपेक्षाभेद से परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले धर्मों का भी एक ही वस्तु में सामंजस्य होता है । जैसे अस्तित्व और नास्तित्व । ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध हैं, परन्तु अपेक्षाभेद से दोनों एक वस्तु में रह सकते हैं । घट एक पदार्थ है । वह स्व-चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति धर्म वाला है, और पर-चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति धर्म वाला भी है। स्व-द्रव्य, स्व-क्षत्र, स्व-काल, और स्व-भाव--स्व-चतुष्टय होता है । पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव-पर-चतुष्टय होता है । (१) द्रव्य-गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं । जैसे जड़ता आदि घट के गुणों के समूह रूप से घट है । परन्तु चैतन्य आदि जीव के गुणों के समूह रूप से वह नहीं है। इस प्रकार घट स्व-द्रव्य की अपेक्षा से अस्ति धर्म वाला है । पर-द्रव्य अर्थात् जीव द्रव्य की अपेक्षा से वह नास्ति धर्म वाला भी है। (२) क्षेत्र-निश्चय से द्रव्य के प्रदेशों को क्षेत्र कहते हैं। जैसे घट के प्रदेश घट का क्षेत्र है । जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र है । अपने क्षेत्र में रहना ही स्व-क्षेत्र है, पर-क्षेत्र में रहना सम्भव नहीं है। लेकिन अपेक्षाभेद से यह कथन है। (३) काल-वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं। जैसे घट स्वकाल से बसन्त ऋतु का है । वह शिशिर ऋतु का नहीं है। (४) भाव-वस्तु के गुण या स्वभाव को भाव कहते हैं । जैसे घट स्वभाव की अपेक्षा से जल धारण स्वभाव वाला है। परन्तु वस्त्र की भाँति आवरण स्वभाव वाला नहीं है । अथवा घटत्व की अपेक्षा सद्प और पटत्व की अपेक्षा असत् रूप है। ( १६७ ) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगोद अनन्त जीवों के पिण्डीभूत एक शरीर को निगोद कहते हैं । सिद्धों से बादर निगोद के जीव अनंत गुण अधिक हैं। कन्द, मूल, अदरक एवं गाजर-मूली आदि बादर निगोद हैं । सूची के अग्रभाग में बादर निगोद के अनंत जीव रहते हैं। सुक्ष्म निगोद के जीव उनसे भी अनंत गुण अधिक हैं। बादर निगोद का स्वरूप है, यह । लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने सूक्ष्म निगोद के गोले हैं। एकएक गोले में असंख्यात निगोद हैं। एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के समय एकत्रित करने पर जो संख्या हो, उससे अनन्त गुण जीव एक-एक निगोद में हैं। यह सूक्ष्म निगोद का स्वरूप है। निगोद के दो भेद हैं- व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि । जो जीव एक बार बादर एकेन्द्रिय या त्रसत्व भाव को प्राप्त करके फिर निगोद में चला जाता है, वह व्यवहार राशि का जीव कहलाता है । जिस जीव ने निगोद से बाहर निकलकर कभी बादर एकेन्द्रियत्व या त्रसत्व को प्राप्त नहीं किया, अनादिकाल से निगोद में ही जन्म और मरण कर रहा है, वह अव्यवहार राशि का जीव होता है। अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में आया हआ जीव फिर सूक्ष्म निगोद में जा सकता है। किन्तु वह व्यवहार राशि का ही जीव कहा जाएगा। क्योंकि वह एक बार बाहर निकल चुका है। ( १६८ ) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य गुण पर्याय द्रव्य जिसमें गुण और पर्याय हों, उसे द्रव्य कहते हैं। गुण और पर्याय का आश्रय द्रव्य है। गुण-जो द्रव्य के आश्रित रहता है, वह गुण है । गुण सदा द्रव्य के अन्दर रहता है। पर्याय-द्रव्य और गुण में रहने वाली अवस्थाओं को पर्याय कहतं हैं । पर्याय, गुण और द्रव्य दोनों में रहती हैं। १. स्कन्ध-अनन्त परमाणु पिण्ड को स्कन्ध कहते हैं। २. देश-स्कन्ध के अर्ध भाग को देश कहते हैं। ३. प्रदेश-स्कन्ध या देश में मिले हुए द्रव्य के अति सूक्ष्म, विभाग को प्रदेश कहते हैं। ४. परमाणु-स्कन्ध या देश से अलग हुए पुद्गल के अति सूक्ष्म निरंश भाग को परमाणु कहते हैं । सम्यक्त्व का स्थान सप्त तत्व, नव पदार्थ, षड् द्रव्य और पञ्च अस्तिकाय-ये जैनदर्शन के मूलभूत तत्व हैं । अन्य सभी तत्वों का समावेश इनमें हो जाता है। जितना भी ज्ञेय, प्रमेय और अभिधेय तत्व है, उससे बाहर नहीं है । इन तत्वों का यथार्थ बोध, पदार्थ श्रद्धान और यथार्थ आचरण ही वस्तुतः मोक्ष मार्ग कहा जाता है। इसमें भी श्रद्धान ही मुख्य है। क्योंकि उसके अभाव में ज्ञान, अज्ञान है, और आचरण, अनाचरण हो जाता है। तप को भी चतुर्थ स्थान मान लें, तो ये चारों मोक्ष के उपायभूत साधन हैं। सम्यक्त्व धारण करने वाले व्यक्ति में इन षट् स्थानों का होना, परम आवश्यक माना गया है१. जीव है। ४. परिणामी नित्य है। २. कर्म-कर्ता है। ५. मोक्ष है। ३. कर्म-फल भोक्ता है। ६. उसका उपाय है। ( १६९ ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्कन्ध । पुद्गल के मोक्ष में जाने वाले जीवों के लिए यह आवश्यक है, कि वह स्व-पर का भेद ज्ञान रखे । जीव से भिन्न क्या है ? अजीव । अजीव में भी पुद्गल पर है। पुद्गल क्या है ? पूरण एवं गलन धर्म वाले रूपी द्रव्य को पुद्गल कहते हैं । उसके छः भेद हैं १. सूक्ष्म - सूक्ष्म - परमाणु पुद्गल । २. सूक्ष्म - दो प्रदेश से लेकर सूक्ष्म रूप से परिणत अनन्त प्रदेशों का छः भेद ३. सूक्ष्म - बादर -- गन्ध के पुद्गल । ४. बादर - सूक्ष्म -- वायु काय का शरीर । ५. बादर - ओस आदि अप्काय का शरीर । ६. बादर - बादर - अग्नि, वनस्पति, पृथ्वी तथा सकाय के जीवों का शरीर । सूक्ष्म सूक्ष्म और सूक्ष्म का इन्द्रियों से अनुभव नहीं हो सकता है । में इन दोनों में केवल परमाणु या प्रदेशों का भेद है । सूक्ष्म-सूक्ष्म एक ही में परमाणु होता है, और वह एक ही आकाश प्रदेश को घेरता है । सूक्ष्म परमाणु अधिक होते हैं, और आकाश प्रदेश भी अनेक होते हैं । सूक्ष्म - बादर का केवल घ्राण से अनुभव किया जा सकता है, और किसी इन्द्रिय से नहीं । बादर - सूक्ष्म का स्पर्शन से अनुभव किया जा सकता है । बादर का नेत्र और त्वचा से अनुभव किया जाता है । बादर बादर का सभी इन्द्रियों से अनुभव होता है । ( १७० ) ต Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट् अनन्त १. सिद्ध २. सूक्ष्म और बादर निगोद के जीव ३. वनस्पति अनन्त वनस्पति जीव ४. काल तीनों कालों के समय ५. पुद्गल परमाणु ६. अलोकाकाश छह बोल करने में कोई समर्थ नहीं १. जीव को अजीव बनाने में २. अजीव को जीव करने में ३. एक साथ सत्य और असत्य भाषा बोलने में ४. कृतकर्म का फल अपनी इच्छानुसार भोगने में ५. परमाण का छेदन-भेदन करने में ६. लोक से बाहर जाने में आवश्यक के छह भेद १. समता सामायिक समत्व योग २. स्तव स्तुति तीर्थंकरों की ३. वन्दन नमस्कार गुरु को ४. प्रतिक्रमण आलोचना दोषों की ५. कायोत्सर्ग ममता त्याग शरीर का ६. प्रत्याख्यान अनागत का संवर प्राकृत भाषा के छह भेद १, मागधी २. अर्धमागधी ३. शौरसेनी ४. महाराष्ट्री ५. पैशाची ६. अपभ्रंश भाषा ( १७१ ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघु नव तत्त्व प्रकरण जीव तत्त्व वियोगी भंग १. संवर २. निर्जरा ३. मोक्ष नव तत्त्व १. एकेन्द्रिय के चार भेद : १. सूक्ष्म पर्याप्त ३. बादर पर्याप्त संयोगी भंग १. पुण्य २. पाप ३. आस्रव ४. बन्ध जीव के भेद २. विकलेन्द्रिय के छह भेद : १. द्वीन्द्रिय पर्याप्त ३. त्रीन्द्रिय पर्याप्त ५. चतुरिन्द्रिय पर्याप्त ३. पञ्चेन्द्रिय के चार भेद : १. असंज्ञी पर्याप्त ३. संज्ञी पर्याप्त अजीव के भेद १. अस्तिकाय के नव भेद : अजीव तत्त्व २. सूक्ष्म अपर्याप्त ४. बादर अपर्याप्त २. द्वीन्द्रिय अपर्याप्त ४. त्रीन्द्रिय अपर्याप्त ६. चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त २. असंज्ञी अपर्याप्त ४. संज्ञी अपर्याप्त १. धर्म के तीन - स्कन्ध, देश, प्रदेश २. अधर्म के तीन - स्कन्ध, देश, प्रदेश ३. आकाश के तीन-स्कन्ध, देश, प्रदेश ( १७२ ) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : लघु नव तत्त्व प्रकरण | १७३ २. अद्धा का एक भेद : १. काल, समय ३. पुद्गलास्तिकाय के चार भेद : १. स्कन्ध २. देश ३. प्रदेश ४. परमाणु पुण्य के भेद १. पदार्थ पुण्य के पञ्च भेद : १. अन्न २. जल ३. स्थान ४. शयन ५. वसन २. योग पुण्य के तीन भेद : १. मन २. वचन ३. काय ३. विनय पुण्य का एक भेद : १. नमस्कार पाप के भेद २. मृषावाद ४. मैथुन १. अव्रत पाप के पाँच भेद १. प्राणातिपात ३. अदत्तादान ५. परिग्रह २. कषाय पाप के छह भेद १. क्रोध ३. माया ५. राग ३. वाणी के पाप के चार भेद १. कलह ३. पैशुन्य २. मान ४. लोभ २. अभ्याख्यान ४. पर-परिवाद Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व ४. मन के पाप के तीन भेद १. रति-अरति ३. मिथ्या दर्शन २. मायामृषा आस्रव के भेद १. बन्ध हेतुभूत आस्रव के पाँच भेद१. मिथ्यात्व २. अव्रत ३. प्रमाद ४. कषाय ५. अशुभ योग २. अव्रत आस्रव के पाँच भेद१. प्राणातिपात २. मृषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह ३. विषय आस्रव के पाँच भेद१. स्पर्शन आस्रव २. रसन आस्रव ३. घ्राण आस्रव ४. नेत्र आस्रव ५. श्रोत्र आस्रव ४. योग आस्रव के तीन भेद--- १. मन से आस्रव २. वचन से आस्रव ३. काय से आस्रव ५. अयतना आस्रव के दो भेद १. भण्डोपकरण आस्रव २. सूचि कुशाग्र मात्र आस्रव संवर के भेद १. मोक्ष हेतुभूत संवर के पाँच भेद १. सम्यक्त्व ३. अप्रमाद ५. शुभ योग २. व्रत ४. अकषाय Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : लघु नव तत्त्व प्रकरण | १७६ २. व्रत संवर के पांच भेद१. प्राणातिपात विरमण २. मृषावाद विरमण ३. अदत्तादान विरमण ४. मैथुन विरमण ५. परिग्रह विरमण विषय संवर के पांच भेद१. स्पर्शन संवर २. रसन संवर ३. घ्राण संवर ४. नेत्र संवर ५. श्रोत्र संवर ४. योग संवर के तीन भेद१. मन से संवर २. वचन से संवर ३. काय से संवर ५. यतना संवर के दो भेद१. भण्ड-उपकरण संवर २. सूचि-कुशाग्न मात्र संवर निर्जरा के भेद २. अवमौदर्य ४. रस-परित्याग ६. प्रतिसंलीनता १. बाह्य तप के छह भेद १. अनाहार ३. वृत्ति संक्षेप ५. काय-क्लेश आभ्यन्तर तप के छह भेद१. प्रायश्चित्त ३. वैयावृत्य ५. व्युत्सर्ग बन्ध के भेद २. विनय ४. स्वाध्याय ६. ध्यान १. बन्धभूत कर्म के चार भेद १. प्रकृति ३. अनुभाग २. स्थिति ४. प्रदेश Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ | जैन-दर्शन के मूलभूत तत्त्व मोक्ष के भेद १. मोक्ष-साधन के चार भेद १. ज्ञान ३. चारित्र अथवा २. दर्शन ४. तप २. प्रकारान्तर से चार भेद १. दान ३. तप २. शील ४. भाव सप्त तत्त्व अथवा नव पदार्थ सप्त तत्त्व १. जीव २. अजीव ३. आस्रव ४. बन्ध ५. संवर ६. निर्जरा ७. मोक्ष नव पदार्थ १. जीव २. अजीव ३. पुण्य ४. पाप ५. आस्रव ६. बन्ध ७. संवर ८. निर्जरा 8. मोक्ष Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक विश्वास की आधारभूमि है- दार्शनिक चिन्तन ! दर्शन ही "धर्म" को बौद्धिक आधार देता है, और आचार-नियमों को सन्तुलित रखता है / जैन धर्म का दार्शनिक आधार है - तत्व चिन्तन / षद्रव्य और नंवतत्व के मौलिक स्वरूप का परिज्ञान जैन धर्म, दर्शन के प्रत्येक जिज्ञासु के लिए उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य भी है / हमारे धार्मिक विश्वास एवं आचार मर्यादा की आधार भूमि ही तत्व-चिन्तन है / प्रस्तुत कृति ,जैन दर्शन के मूलभूत तत्व में षद्रव्य एवं नवतत्व पर बहुत ही सारगर्भित, प्रामाणिक तथा अन्य दर्शन एवं, आधुनिक विज्ञान के साथ तुलनात्मक विवेचन किया है, विद्वान मनीषी श्री विजयमुनि जी शास्त्री ने / श्री विजयमुनि जी एक बहुश्रुत मनीषी हैं / आप भारतीय मनीषा के स्तंभ प्रज्ञापुरुष राष्ट्रसन्त श्री अमरमुनि जी के प्रमुख विद्वान शिष्य हैं / गुरु की प्रखर उर्वर चिन्तनशीलता आपको जैसे विरासत में प्राप्त हुई है / आपने जितनी गंभीरता के साथ संपूर्ण जैन वाङ्मय का अनुशीलन किया है, उतनी ही तटस्थता व गहराई से बौद्धपिट्क, वेद-वेदान्त, उपनिषद, गीता और शांकरभाष्यों का मूल के साथ पारायण किया है / इतिहास, न्याय और काव्य-शास्त्र भी आपके प्रिय विषय, रहे हैं / भारतीय एवं पाश्चात्य धर्म-दर्शन का समग्रता के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विरले विद्वानों में आपका अग्रणी स्थान है / दिवाकर प्रकाशन A-7 अवागढ़ हाऊस एम. जी. रोड आगरा - द्वारा मुद्रित