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द्रव्य का स्वरूप | ७
में सन्देह किया जा सकता है, किन्तु सन्देह के अस्तित्व में सन्देह करना तो कतई सम्भव नहीं है। इसलिए उसने कहा, कि सन्देह एक प्रकार की चेतन अवस्था है, और उसका अस्तित्व असंदिग्ध तथ्य है । जब इन्द्रभूति गौतम सर्वप्रथम भगवान महावीर के सम्पर्क में आये, और उन्होंने आत्मा के अस्तित्व को प्रत्यक्ष रूप से जानना चाहा, तब भगवान महावीर ने अनेक तर्कों के साथ उनसे कहा, कि तुमको जो यह सन्देह है, कि आत्मा है या नहीं, वही आत्मा के अस्तित्व की प्रत्यक्ष अनुभूति है। क्योंकि सन्देह ज्ञानरूप है, अतः वह सचेतन है। यह बात डेकार्ट ने भी कही, कि मैं चिन्तन करता हूँ, इसलिए मैं हूँ ! अपने अथवा आत्मा के अस्तित्व के साथ उसने परमात्मा की सत्ता को भी स्वीकार किया और अपने से भिन्न भौतिक तत्त्व अथवा बाह्य सष्टि जिसे वह द्रव्य (Substance) कहता है, को भी स्वीकार किया। इस प्रकार डेकार्ट ने अपने दर्शन एवं चिन्तन के आधार पर तीन तत्त्वों का मुख्य रूप से वर्णन किया है
१. मैं चिन्तन करता हूँ, इसलिए मैं हूँ।
२. मेरे प्रत्ययों में पूर्णता का प्रत्यय विद्यमान है । इसका जन्मदाता परमात्मा भी पूर्ण रूप से विद्यमान है।
३. परमात्मा सत्य-स्वरूप है। उसकी व्यवस्थारूप बाह्य जगत् की प्रतीति भ्रम नहीं हो सकती। अतः प्रकृति का अस्तित्व असंदिग्ध तथ्य है।
इस प्रकार डेकार्ट ने द्रव्य को स्वीकार किया, और अपने ढंग से उसकी व्याख्या की। मेलबान्स डेकार्ट के अनुयायियों में से मुख्य था। उसने डेकार्ट और उसके अनुयायी म्यूलिंग्स के विचारों को स्वीकार किया और उनके चिन्तन को कुछ आगे बढ़ाया । म्यूलिंग्स और मेलब्रान्स डेकार्ट के द्वैतवाद को स्वीकार करते थे, और यह मानते थे, कि आत्मा और प्रकृति (soul and matter) के गुण एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। जैसा कि एक लेखक ने कहा है-आत्मा सत् के एक किनारे पर स्थित है और प्रकृति दूसरे किनारे पर । यहाँ तक वे दोनों डेकार्ट के विचारों को मानते थे, परन्तु वे डेकार्ट की इस मान्यता से सहमत नहीं थे, कि मस्तिष्क के एक भाग में आत्मा और प्रकृति का सम्पर्क होता है, और वह ज्ञान और क्रिया को जन्म देता है । जैन-दर्शन भी आत्मा और पुद्गल को एक-दूसरे से भिन्न स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में स्वीकार करता है। यह भी स्वीकार करता है,
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