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८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व कि संसारी अवस्था में आत्मा पुद्गल-द्रव्य के साथ रहते हुए भी उसमें मिलता नहीं है। दोनों द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं, अपने-अपने पर्यायों में परिणमन करते हैं।
डेकार्ट के बाद स्पीनोजा ने द्वैत को मिटाने का प्रयत्न किया। उसने कहा, कि विश्व में दो द्रव्य (पुरुष और प्रकृति) नहीं, दोनों में से एक ही द्रव्य है । पाश्चात्य दर्शन में अद्वैत दो रूपों में सामने आया-एक रूप प्रकृति को ही मूल द्रव्य मानता था, जिसकी मान्यता के अनुसार प्रकृति अपने विकास के समय में जीवन और चेतना को जन्म देती है। प्रकृति से भिन्न चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक-दर्शन भूत को ही सष्टि का मूल कारण मानता है। दूसरा रूप आत्मवाद का था, जिसके अनुसार प्रकृति मानव-विचारों या चित्रों के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नहीं रखती।
स्पीनोजा ने आत्मा और प्रकृति दोनों में से किसी को भी प्रमुख स्थान नहीं दिया। उसने तीनों प्रत्ययों को मुख्य माना-द्रव्य, गुण और आकृति । द्रव्य के लिए उसने substance शब्द का प्रयोग किया है। उसके मत में ब्रह्म और ब्रह्माण्ड एक ही हैं, दो नहीं। आत्मा और प्रकृति-दो स्वतन्त्र द्रव्य नहीं, अपितु एक ही सत्ता के दो पहलू हैं, जो एक ओर से चिन्तनरूप नजर आता है, वही दूसरी ओर से विस्ताररूप ।
स्पीनोजा ने अपना चिन्तन अनेक सोमित और साकार पदार्थों से प्रारम्भ किया, और वह इनमें से गुजरता हुआ अनन्त की ओर बढ़ा। इसके विपरीत लाइबनीज ने अपना चिन्तन दृष्ट पदार्थों से शुरू किया, और वह अन्त में ऐसे स्थान पर पहुँच गया, जिसके आगे विश्लेषण की सम्भावना ही नहीं रहती। उसने अन्तिम सत्ता को बिन्दु के रूप में स्वीकार किया। स्पीनोजा ने कहा, कि जिस पर हम विश्लेषण के अन्त में पहुँचते हैं, वह चेतन है, तात्त्विक सत्ता है, अखण्ड है, इसलिए नित्य है। इसमें भी परिवर्तन होता है, परन्त यह परिवर्तन किसी बाह्य प्रभाव के कारण नहीं होता। लाइबनीज का इस सम्बन्ध में यह कहना है, कि सम्पूर्ण ज्ञान वास्तव में आत्म-ज्ञान है। प्रत्येक बिन्दु वही देखता है, जो कुछ उसके अपने भीतर है । सम्पूर्ण विश्व में एक केन्द्रीय बिन्दु है वह परमात्मा है, वही अन्य बिन्दुओं में सामञ्जय और अनुकूलता का निर्माण करता है। इस प्रकार यूरोप के मूर्धन्य दार्शनिकों ने द्रव्य का विश्लेषण तीन प्रकार से किया---
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