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द्रव्य का स्वरूप |
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१. डेकार्ट ने द्वैतवाद के रूप में । २. स्पीनोजा ने अद्वैतवाद को स्वीकार करके । ३. लाइबनीज ने अनेकवाद का समर्थन करके ।
यूनान में विशेष रूप से द्रव्य पर चिन्तन करने वाले दार्शनिकों में अरस्तू मुख्य था। उसने द्रव्य और उसके साथ गुणों का भी खूब अच्छा विश्लेषण किया है। भारतीय दार्शनिकों में वैशेषिक दर्शन मुख्य रूप से पदार्थवादी रहा है। उसने द्रव्य पर खूब गहराई से विचार प्रस्तुत किया है । सांख्य-दर्शन में भी प्रकृति का खूब अच्छे ढंग से विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार विश्व के समस्त दार्शनिकों ने किसी-न-किसी रूप में द्रव्य की सत्ता को स्वीकार किया है। जन-परम्परा में भगवान महावीर के बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ-सूत्र में, आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने पंचास्तिकायसार, समयसार एवं प्रवचनसार ग्रन्थों में और आचार्य नेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह में द्रव्य पर व्यापक दृष्टिकोण से विचार एवं चिन्तन किया है। द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व एवं सत्-इन शब्दों का विभिन्न सम्प्रदायों ने प्रयोग किया है और अपने चिन्तन के अनुरूप इनकी व्याख्या भी की है। जैन-दर्शन में इन शब्दों का प्रयोग और उपयोग आगम-युग से आज तक होता रहा है। द्रव्य, पदार्थ, तत्त्व एवं सत् :
भगवान महावीर एवं उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने सम्पूर्ण लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा है । इसके लिए आगमों में एवं अन्य ग्रन्थों में द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ और सत् इन चारों शब्दों का प्रयोग उपलब्ध है। वस्तुतः चारों शब्द एकार्थक हैं । जहाँ द्रव्य शब्द का प्रयोग किया, वहाँ उसके पूर्व संख्या वाचक षट् शब्द लगा दिया। तत्व के साथ संख्या वाचक सप्त शब्द जोड़ दिया । पदार्थ के साथ संख्या बोधक नव शब्द का उच्चारण किया जाता है । इस प्रकार जैन-दर्शन में षड् द्रव्य, सप्त तत्त्व, नव पदार्थ माने गए हैं । भगवतीसूत्र में षड्-द्रव्य में से काल को छोड़कर जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल- इन पांचों को अस्तिकाय कहा गया है। अस्ति काय का अर्थ है-प्रदेशों का समूह । पाँचों द्रव्यों के असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं, सिर्फ काल द्रव्य ही अणरूप है । जैन-दर्शन ने ही नहीं, अन्य भारतीय-दार्शनिकों एवं पाश्चात्य-दार्शनिकों ने भी द्रव्य पर विचार किया है। द्रव्य के लक्षण एवं स्वरूप के वर्णन में भिन्नता हो सकती है। परन्तु, एक ऐसी वस्तु भी
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