________________
१० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व है, जिसे सभी दार्शनिक एवं विचारक स्वीकार करते हैं। द्रव्य, तत्त्व एवं पदार्थ आदि की संख्या में अन्तर रहता है । जैन-दर्शन षट्-द्रव्य मानता है, तो वैशेषिक दर्शन ने नव द्रव्य माने हैं । जैन-दर्शन सप्त तत्त्व मानता है, और सांख्य-दर्शन पच्चीस । जैन-दर्शन नव पदार्थ मानता है और न्यायदर्शन सोलह । परन्तु सत् ही एक ऐसा तत्व है, जिसे सबने स्वीकार किया है और उसे एक ही माना है। सत् क्या है ? इस पर विचार करने के पहले एक रूपक दे देता हूँ, जिससे विषय समझने में सरल हो जाएगा।
एक योगी के पास तीन व्यक्ति आए और उन्होंने प्रश्न किया कि सत्य क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और हमें क्या करना चाहिए, ताकि जीवन-विकास हो सके ? तीनों का प्रश्न एक था। तीनों सत् को जानना चाहते थे। योगी ने उनमें से एक व्यक्ति से कहा-तुम बाहर देखो, खोजो। दूसरे से कहा-तुम आन्तरिक गहराई में उतरकर अन्वेषण करो, तुमको सत्य का साक्षात्कार होगा। तीसरे से कहा-तुम ऊपर की ओर देखो। सत्य एक था, परन्तु जब वह कथ्य में उतरा तो तीन प्रकार से तथ्य सामने आया । प्रश्न एक हो, समस्या एक हो और उसका समाधान तीन प्रकार से कैसे हो सकता है ? यह एक प्रश्न है ?
जैन-दर्शन अनेकान्तवादी है, वह कहता है कि वस्तु सत् है और वह एक है, फिर भी उसमें अनन्त गुण हैं और प्रत्येक गुण के अनन्त पर्याय हैं। अतः उसका स्वरूप, उसमें स्थित सत्य-तथ्य अनेक प्रकार से देखा जा सकता है। भगवान् महावीर ने कहा कि उसका समाधान सात प्रकार से किया जा सकता है। योगी ने उसका उत्तर तीन प्रकार से दिया। सम्पूर्ण विश्व का एक ही तत्त्व है, सत् । सत्य एक होने पर भी, जब उसे वाणी के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं, तब वह व्यक्ति की अनुभूति के अनुरूप अनेक प्रकार से व्यक्त किया जाता है। सम्पूर्ण विश्व का पानी एक है। यदि उससे पूछो कि तुम्हारा आकार-प्रकार क्या है ? तो वह हँसेगा और प्रश्नकर्ता से कहेगा-पागल हो गये हो! मेरा कोई आकार है ही नहीं। मैं तो अपने आप में सदा-सर्वदा एक-सा हूँ। जैसा पात्र मिलता है, उसी आकार का बन जाता हूँ । भगवान् महावीर ने भी यही समाधान किया कि सत् एक ही है। परन्तु उसे सुनने वाला, धारण करने वाला तथा चिन्तन करने वाला जैसा होता है, उसे वैसा ही उत्तर दिया जा सकता है।
योगी के समक्ष उपस्थित होने वाले तीन व्यक्तियों में एक बाह्याभि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org