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द्रव्य का स्वरूप | ११
मुखी था । इसलिए उससे कहा, 'तुम बाहर के पदार्थों का सूक्ष्म दृष्टि से अन्वेषण करो, उनमें स्थित सत्य तुमको प्राप्त होगा ।' दूसरा अन्तर्-द्रष्टा था, उससे कहा. 'तुमको बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, सत्य तुम्हारे भीतर ही है । अपने में गहरी डुबकी लगाओ, तुम्हें सब कुछ मिल जाएगा ।' तीसरा श्रद्धालु भक्त था । उसमें विचार करने की, चिन्तन करने की एवं शोध करने की क्षमता नहीं थी । क्योंकि श्रद्धा-निष्ठ व्यक्ति समपित होता है । अतः उससे ऊपर देखने को अथवा परमात्मा पर विश्वास करने को कहा गया ।
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बाहर देखने का अर्थ है - वैज्ञानिक दृष्टि । वैज्ञानिक प्रकृति में स्थित प्रच्छन्न अनन्त शक्ति एवं रहस्य को प्रकट करता है । न्यूटन ने नया कुछ भी प्राप्त नहीं किया, जो शक्ति प्रकृति की तह में छिपी हुई थी, उसे उसने प्रकट किया और विश्व को न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त (Theory of gravitation ) दिया। वैज्ञानिक प्रकृति का, जड़पदार्थों का निरीक्षण करता है, इसलिए उसे बाह्यसृष्टि को देखना पड़ता है । योगी, सन्त एवं दार्शनिक बाहर नहीं, भीतर देखता है । उसका लक्ष्य अपने आपको देखना एवं अपने में ही सब कुछ प्राप्त करना है। इस प्रकार सत् एक है और वह शक्तिरूप से सर्वत्र विद्यमान है । प्रत्येक विचारक अपनी-अपनी दृष्टि के अनुरूप उसकी अनुभूति करता है और जैसा देखता है, वैसा ही अभिव्यक्त करता है ।
सत् का स्वरूप
जैन- दर्शन में द्रव्य के लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग हुआ है । भगवान् महावीर के बाद आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में द्रव्य का लक्षण करते हु लिखा है - सत् द्रव्य का लक्षण है - 'सत् द्रव्यलक्षणम्' । इसका अभिप्राय यह है कि द्रव्य सत् है । सत् की व्याख्या करते हुए आगमों में एवं आचार्य उमास्वाति ने कहा है- जो उत्पाद, व्यय और धीव्य से युक्त है, वह सत् है - उत्पाद व्ययधीव्य-युक्तं सत्' जैन दर्शन के अनुसार किसी भी पदार्थ को सत् कहने का अभिप्राय यह है कि वह उत्पत्ति, व्यय और ध्रौव्य रूप है । यही कारण है कि जैन दर्शन में किसी भी द्रव्य एवं पदार्थ को न तो एकान्त रूप से नित्य माना गया है और न एकान्त रूप से अनित्य । वह प्रत्येक द्रव्य को परिणामी नित्य स्वीकार करता है । जैसे स्वर्णकार सोने के कुण्डल को तोड़कर कड़ा बनाता है, उस समय कुण्डल की पर्याय एवं उसका आकार नष्ट होता है और कड़े की पर्याय एवं उसका
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