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________________ १२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व आकार उत्पन्न होता है, परन्तु दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है। दूध से दही बनता है, दही को मथने पर नवनीत (मक्खन) बनता है। इसमें दुध पर्याय का नाश और दही पर्याय की उत्पत्ति तथा दही पर्याय का नाश और मक्खन पर्याय की उत्पत्ति होती है, परन्तु दूध, दही और मक्खन की तीनों अवस्थाओं में गोरसत्व अक्षण्ण है। यह ध्यान में रहना चाहिए कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एक कालवर्ती होते हैं और यही द्रव्य की विशेषता है। जैन-दर्शन के अतिरिक्त अन्य भारतीय-दर्शनों में सत् के सम्बन्ध में चार मत मिलते हैं। एक तो यह है, कि इस विश्व में जो कुछ है, वह एक है, सत् है और कूटस्थ नित्य है। दूसरी मान्यता यह है, कि इस विश्व में एक नहीं अनेक पदार्थ हैं और वे क्षणिक हैं-उत्पाद विनाशशील हैं । तीसरी मान्यता यह है कि इस विश्व में सत् है और उससे भिन्न असत् भी है। इस मान्यता के अनुसार सत् में भी परमाण-द्रव्य, काल और आत्मा आदि नित्य हैं और कार्य-द्रव्य घट-पट आदि अनित्य हैं। चतुर्थ मान्यता यह है, कि सत् प्रकृति और पुरुष अथवा जड़ और चेतन के भेद से दो प्रकार का है, उसमें चेतन अथवा पुरुष कूटस्थ-नित्य है, और प्रकृति अथवा जड़ परिणामी-नित्य है। एक ऐसा भी मत है, जो इस विश्व की सत्ता को स्वीकार ही नहीं करता, वह न तो इसे सत् मानता है और न असत् । ऋग्वेद के ऋषि ने विश्व की विचित्रता को देखकर एक बार कहा था-मैं नहीं जानता कि जगत कहाँ से आया-सत् से उत्पन्न हुआ या असत् से उत्पन्न हुआ। मैं कह नहीं सकता कि यह जगत सत् है, यह भी नहीं कह सकता कि यह जगत असत् है। इस प्रकार सत् के सम्बन्ध में चार पक्ष बनते हैं १. जगत् सत् है, २. जगत् असत् है, ३. जगत् सत् है, असत् है, ४. जगत् न सत् है, न असत् है । भगवान महावीर ने कहा, कि जिसे हम जगत्, संसार, विश्व, लोक, वर्ल्ड (World) युनिवर्स (Universe) कहते हैं, वह भूतकाल में भी था, वर्तमान काल में भी है और भविष्य काल में भी रहेगा। इसका अस्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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