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तत्त्व की परिभाषा | ११७
महावीर श्रमण एवं दार्शनिक ही नहीं, महान् वैज्ञानिक दृष्टि से भी युक्त थे । उनका अनेकान्त का सिद्धान्त सबसे बड़ी वैज्ञानिक शोध है। वस्तु में एवं द्रव्य में स्थित अनेक धर्मों का तत्-तत् दृष्टि से अवलोकन करना, और सापेक्षदृष्टि से उनकी व्याख्या करना, यही अनेकान्त एवं स्याद्वाद का सिद्धान्त है। उस युग में एक ओर एकान्त नित्यवाद की स्थापना करने वाले वेदान्त के प्ररूपक थे और दूसरी ओर एकान्त क्षणिकवाद या अनित्यवाद के संस्थापक बुद्ध थे । और दोनों का एकान्तवाद वस्तु के स्वरूप को समझने में बाधक था। यदि आत्मा को एकान्त रूप से नित्य मानते हैं और यदि वह पूर्णतः कूटस्थ-नित्य है--उस में किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता है। किसी तरह का विकार नहीं आता है, तब आत्मा का बन्ध एवं मोक्ष कैसे घटित होगा? क्योंकि विकार-युक्त अशृद्ध भावों से बन्ध होता है, और विकारों के नाश से मुक्ति । अस्तु, एकान्त नित्य आत्मा में बन्ध और मोक्ष घटित नहीं हो सकते । इसी प्रकार यदि आत्मा को एकान्त अनित्य मानते हैं, तब उसमें पुण्य-पाप के के सम्बन्ध की व्यवस्था नहीं होगी? क्योंकि जिस आत्मा ने जिस क्षण पूण्य या पाप किया, वह उसी क्षण समाप्त हो गया, अब उसका फल उसे न मिलकर उसके स्थान पर आए हुए दूसरे आत्मा को मिलेगा, जिसने उस क्रिया को किया ही नहीं है । और ऐसा कदापि नहीं होता, कि क्रिया कोई करे और उसका फल मिले दूसरे को । इसलिए एकान्त नित्यवाद भी दोषयुक्त है, और एकान्त अनित्यवाद भी ।
अस्तु, वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए भगवान महावीर ने हमें अनेकान्त की वैज्ञानिक दृष्टि दी, और आज के वैज्ञानिक भी इसी सापेक्षदृष्टि, अनेकान्त-दृष्टि (Relative-vision) को सत्यान्वेषण के लिए उपयुक्त मानते हैं। भगवान महावीर ने कहा है-आत्मा या दुनिया का कोई भी द्रव्य न तो एकान्त रूप से नित्य है, और न एकान्त रूप से अनित्य है। वह द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । उसकी नित्यता भी सापेक्षिक है, और अनित्यता भी सापेक्षिक है ।
___ इसी तरह भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट आगम-माहित्य में उनकी कवि की महान सौन्दर्य दृष्टि भी परिलक्षित होती है। उत्तराध्ययन में जीवन का अनन्त सौन्दर्य एवं माधुर्य पद-पद पर परिलक्षित होता है । उत्तराध्ययन में तन्मय होकर उसका गान करने वाले साधक के राग-रंग
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