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११८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
वीतरागता की धारा में प्रवाहित हुए बिना नहीं रहेंगे। इस प्रकार सच्चे साधक में हमें तीनों दृष्टियों का समन्वय परिलक्षित होता है ।
जब तक वैज्ञानिक में समन्वय दृष्टि नहीं आएगी, तब तक उसकी शोध कल्याणरूप नहीं हो सकती। एकान्त विज्ञान की दृष्टि अणु-बम ही तैयार करेगी, जिसके परिणाम हिरोशमा एवं नागाशाकी की जनता भोग चुकी है, और जिसके नाम से सम्पूर्ण विश्व की मानव-जाति भयभीत है। एकान्त कवि दृष्टि भी वासना एवं विलासिता से अधिक कुछ नहीं देती। और समाज के हित-अहित से पूर्णतः अलग होकर एकान्त रूप से दर्शन की बात करने वाले ऋषि भो साम्प्रदायिक घेरों को बनाने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। इसलिए यह आवश्यक है, कि वैज्ञानिक दार्शनिक बनें
और दार्शनिक वैज्ञानिक । क्योंकि वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं कवि, तीनों दृष्टियों का, तीनों विचारधाराओं का या यों कहिए सत्यान्वेषण, कल्याणमय एवं मंगलमय चिन्तन, एवं सौन्दर्यमय दृष्टि का अथवा सत्यं, शिवं, एवं सुन्दरं का संगम स्थल हो, जीवन है । अस्तु, जीवन और तत्त्व एक-दूसरे से भिन्न नहीं, प्रत्युत संबद्ध है ।
नव-तत्त्व में मुख्य तत्त्व दो हैं-जीव और अजीव । इसके अतिरिक्त सात तत्त्व दोनों के संयोग और वियोग से बने हैं। दो पदार्थों के मिलन को संयोग, और दोनों के पथक होने को वियोग कहते हैं। सातों तत्त्व पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं हैं, उनमें से कुछ संयोग से बने हैं, और कुछ वियोग से। आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप, ये चारों तत्त्व संयोग से बने हैं, और संवर, निर्जरा एवं मोक्ष, ये तीनों तत्त्व वियोग से बने हैं। जीव के आत्म-प्रदेशों को आवत करने वाले कर्म जिस क्रिया से आते हैं, उस तत्त्व को आस्रव कहते हैं। जहाँ आस्रव होता है, वहाँ बन्ध भो होता है, क्योंकि क्रिया से आने वाले कर्म-वर्गणा के पुद्गलों का राग-द्वेष की परिणति से बन्ध होता है। आस्रव और बन्ध-शुभ और अशुभ भावों से शुभाशुभ कर्मों का होता है। शुभ को पुण्य कहते हैं, और अशुभ को पाप । इसलिए आस्रव, बन्ध, पुण्य एवं पाप चारों तत्त्व जीव-अजीव के संयोग से बने हैं। संवर का अर्थ है-आस्रव से आने वाले कर्म-प्रवाह को रोकना, कर्मों के साथ आत्मा का संयोग नहीं होने देना। कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को एवादेश से हटाने वाले तत्त्व को निर्जरा कहते हैं, और आत्मा पर लगे हुए सम्पूर्ण कर्म-वर्गणा के पुद्गलों के
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