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तत्त्व की परिभाषा | ११६
आवरण को हटा देने वाले तत्त्व को मोक्ष कहते हैं। संवर, निर्जरा और मोक्ष, ये तीनों तत्त्व वियोग स्थिति के सूचक हैं।
आत्मा संयोग करता नहीं है, वह तो होता है । भले ही व्यक्ति के मन में कर्म के साथ संयोग करने की भावना हो, या न हो, जब तक व्यक्ति के मन में, जीवन में राग-द्वेष, मोह, विकार, विकल्प रहेंगे, तब तक कर्मों का संयोग होगा ही। शुभ और अशुभ भावों के अनुरूप शुभ और अशुभ आस्रव का-जिसे पूण्य और पाप कहते हैं, बन्ध होता ही है। जिस कर्म का फल हमें अच्छा लगता है, उसे पुण्य कहते हैं, और जिस का फल हमारे मन को रुचिकर नहीं लगता, उसे पाप कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति पुण्य का फल चाहता है, पर पाप का फल कोई नहीं चाहता। परन्तु एक आचार्य कहते हैं-आज व्यक्ति का जीवन ऐसा बन गया है, कि उसे जिस वस्तु का फल अच्छा लगता है, वह वस्तु अच्छी नहीं लगती, और जिसके फल को व्यक्ति पसन्द नहीं करता, उस कार्य को वह पसन्द करता है । यदि स्पष्ट भाषा में कहूँ, तो व्यक्ति पुण्य-फल तो चाहता है, परन्तु पुण्य का कार्य करना नहीं चाहता । व्यक्ति पाप का फल भोगना नहीं चाहता, परन्तु पाप का त्याग भी नहीं करता । अतः व्यक्ति शुभ या अशुभ जैसा भी कार्य करेगा, उसे वैसा फल मिलेगा ही। और जो व्यक्ति विकार एवं विकल्प से रहित होकर कार्य करेगा, वह शुभ और अशुभ दोनों से मुक्त रहेगा । आस्रव और बन्ध दोनों का आधार विकार और विकल्प हैं। अतः राग-द्वेष आदि विकारों को कम करना एवं उनसे मुक्त होना ही आस्रव और बन्ध से मुक्ति होना है।
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