SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व दार्शनिकों ने पंच महाभूत माने हैं। उनमें से आकाश एक महाभूत है। आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य लोक-व्यापी हैं, लोक के बाहर इनका अस्तित्व नहीं है । एकमात्र आकाश द्रव्य ही लोक और अलोक सर्वत्र व्याप्त है । अतः वह अनन्त है । लोक और अलोक क्या है ? जहाँ लोक का, विश्व का अन्त होता है, ऊर्ध्व-लोक में जहाँ लोक के अग्रभाग में सिद्धजीव स्थित हैं, उसके आगे अलोक है। समस्त कर्मों से मुक्त स्वरूप में एवं स्वभाव स्थित सिद्धजीव लोक और अलोक के मध्य में स्थित हैं । लोक और अलोक की सीमा-निदर्शक दो द्रव्य हैं- १. धर्म और २. अधर्म । जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य गतिशील हैं। परन्तु उनकी गति और स्थिति वहीं होती है, जहाँ गति में सहायक धर्म (medium of motion) और स्थिति में सहायक अधर्म (medium of rest) द्रव्य का सद्भाव है। ये दोनों द्रव्य लोक-व्यापी हैं, अलोक में इनका अस्तित्व नहीं है। इसलिए जीव और पुद्गल भी लोक के आगे अलोक में गति नहीं कर सकते । कर्मों से मुक्त आत्मा में ऊर्ध्वगति करने की क्षमता होने पर भी लोकाकाश के आगे धर्म और अधर्म द्रव्य का अभाव होने से सिद्धजीव लोक के अग्रभाग में पहुँचकर स्थित हो जाते हैं। जीव एवं पद्गल लोक में ही स्थित हैं। अतः उन पदार्थों पर वर्तनेवाला काल भी लोक में ही व्याप्त है। इस प्रकार जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहीं तक लोक है, और वहीं तक अन्य द्रव्यों का अस्तित्व है। उसके आगे अलोक है, और वहाँ मात्र आकाश द्रव्य ही है। वहाँ आकाश की कोई सीमा एवं मर्यादा भी नहीं है। अतः अलोक की अपेक्षा आकाश अनन्त है, उसका अन्त नहीं है। इसलिए कहा गया है, कि आकाश-द्रव्य अन्य द्रव्यों से अधिक व्यापक और विशाल है। आकाश का स्वरूप आकाश का लक्षण अवकाश देना है। भगवान महावीर ने कहा है, जो सभी द्रव्यों को युगपत् अवकाश देता है, स्थान देता है, वह आकाशद्रव्य है । जो समस्त द्रव्यों का आधारभूत भाजन (पात्र-विशेष) है और सबको अपने में समाहित कर लेता है, वह आकाश है ।' आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में और आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकायसार में आकाश १. (अ) भायणं सव्व-दव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं । (आ) अवगाहणा लक्खणे णं आगास त्थिकाए। - उत्तराध्ययन, २८.६ -भगवतीसूत्र १३.४.४८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy