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________________ आकाश-द्रव्य | ३१ की यही व्याख्या की है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है, कि अवकाश देना आकाश का गुण है-आकाशस्यावगाहः। इस प्रकार धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल-इन पाँचों द्रव्यों को अवकाश एवं स्थान देने वाला द्रव्य आकाश है । लोक में कोई स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ आकाश न हो । लोकव्यवहार में ऐसा कहा जाता है-जो ऊपर नीले रंग का आसमान दिखाई देता है, वह आकाश है। परन्तु यथार्थ में आकाश ऊपर ही नहीं है, अपितु सर्वत्र है । यह एक अखण्ड द्रव्य है, अमूर्त है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, और लोकालोकव्यापी है। यदि सर्वत्र आकाश न हो, तो व्यक्ति को भी और पदार्थों को भी रहने-ठहरने के लिए तथा गति करने के लिए स्थान ही नहीं मिलेगा। ऊपर जो नीला रंग दिखाई देता है, वह पुद्गलों का है, आकाश का नहीं। इससे स्पष्ट है, कि आकाश सर्वत्र व्याप्त है, और इसका अस्तित्व त्रिकालवर्ती है। यहाँ एक प्रश्न उठता है, कि लोक-आकाश असंख्यात प्रदेश-युक्त है ? जीव द्रव्य अनन्त है, पूद्गल भी अनन्त है, फिर असंख्यात प्रदेशों पर अनन्त जीव और अनन्त-परमाणु कैसे समा सकते हैं ? आकाश का स्वभाव है, कि वह सबको अपने में समाहित कर लेता है। जैसे, एक गिलास पानी से भरा है, उसमें पानी की एक बूंद भी नहीं आ सकती। उसी में दस-पाँच बतासे डाल दें, तो उसमें समा जाते हैं, पानी के परमाण बतासों के पर. माणुओं को अपने में समाहित कर लेते हैं, उन्हें अलग से स्थान घेरने की आवश्यकता नहीं रहती । इसके लिए एक रूपक और भी दिया जाता है, कि एक कमरे में एक बल्ब का बटन दबाते (switch on करते) ही कमरे का एक-एक प्रदेश प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है, जरा भी स्थान प्रकाश से खाली नहीं रहता। उसी कमरे (room) में दूसरे-तीसरे या दस-बीस जितने भी बल्ब हैं, उनका बटन दबाते ही उनका प्रकाश भी उस कमरे में फैलता है। जिन आकाश-प्रदेशों पर प्रथम बल्ब के प्रकाश-परमाण फैले हुए हैं, उन्हीं प्रदेशों पर अन्य बल्बों के प्रकाश-परमाणु समा जाते हैं, न तो वे अलग स्थान को घेरते हैं, और न प्रथम बल्ब के प्रकाश के परमाणुओं को व्याघात पहुँचाते हैं। इसी प्रकार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को बिना व्याघात पहुँचाये उन्हीं आकाश-प्रदेशों पर रहते हैं । अभिप्राय यह है, कि एक प्रदेश पर एक परमाणु रहता है, उसी पर असंख्य एवं अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है । इसलिए असंख्यात प्रदेशी लोक-आकाश में अनन्त जीव-द्रव्य और अनन्त परमाणु समाहित हो जाते हैं। कोई भी ऐसा द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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