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३२ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
नहीं है, ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसे आकाश अवकाश एवं स्थान न देता हो । इस प्रकार आकाश एक है, अखण्ड है. परिणामी नित्य है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है, अमूर्त है, अनन्त है - लोक में असंख्यात - प्रदेशी है और लोक के बाहर अथवा अलोक में अनन्त प्रदेशी है, एवं लोकालोकव्यापी है । लोक के बाहर अलोक में केवल एक ही द्रव्य है- आकाश । वहाँ शुद्ध आकाश के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है ।
आकाश और दिशा
वैशेषिक दर्शन के अनुसार आकाश की तरह दिशा भी स्वतन्त्र द्रव्य है । परन्तु दिशा की स्वतन्त्र सत्ता न होने से वह स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । सूर्योदय एवं सूर्यास्तको आधार मानकर उसकी अपेक्षा से लोक आकाश में ही पूर्व-पश्चिम उत्तर - दक्षिण एवं ऊर्ध्व - अधो दिशा तथा विदिशा की धारणा प्रचलित है । अतः दिशा आकाश द्रव्य के अन्तर्गत आ ही जाती है । दिशा का व्यवहार आकाश द्रव्य के एक भाग के लिए ही किया जाता है, इसलिए जैन दर्शन दिशा को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानता। आकाश के प्रदेशों की पंक्तियाँ वस्त्र के तन्तुओं की तरह क्रमबद्ध सब ओर फैली हुई हैं । एक परमाणु जितने आकाश को घेरता है, वह एक प्रदेश कहलाता है । इसी नाप के अनुसार लोक - आकाश के असंख्यात और अलोक - आकाश के अनन्तप्रदेश हैं । यदि पूर्व-पश्चिम आदि व्यवहार के आधार पर दिशा को स्वतन्त्र द्रव्य मानें, तो फिर पूर्व देश, पश्चिम- देश, उत्तर-देश आदि का व्यवहार भी करना होगा । इस आधार से देश - द्रव्य, प्रान्त द्रव्य, राष्ट्र-द्रव्य आदि अनेक द्रव्यों की कल्पना करनी होगी । इसलिए स्पष्ट है, कि दिशा स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, वह आकाश के अन्तर्गत ही है ।
आकाश का गुण
जैन दर्शन के अनुसार आकाश का गुण अवकाश देना, स्थान देना है । परन्तु वैशेषिक दर्शन शब्द को आकाश का गुण मानता है । जैन-दर्शन इस मान्यता से सहमत नहीं है । क्योंकि शब्द भाषावर्गणा के पुद्गलों का बना हुआ स्कन्ध है, और पौद्गलिक होने के कारण वह मूर्त है । उसकी मूर्तता का प्रमाण यह है, कि वह श्रोत्र - इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है । इन्द्रियाँ मूर्त हैं, और वे मूर्त पदार्थों को ही ग्रहण करती हैं। दूसरी बात यह है, कि ट्रान्समीटर, टेपरिकार्डर, ग्रामोफोन, माइक, रेडियो आदि साधनों के द्वारा उन्हें जहाँ चाहें वहाँ सुना जा सकता है ।
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