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आकाश-द्रव्य | २६
रहा, जिसमें 'मैं' की सत्ता न रही हो, वर्तमान में तो सत्ता है ही, और अनन्त भविष्य में भी कोई क्षण ऐसा नहीं होगा, जिसमें 'मैं' की सत्ता न रहेगी। इस प्रकार 'स्व' का अथवा आत्मा का अस्तित्व या आत्मा की सत्ता त्रिकालवर्ती है।
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है आत्म-द्रव्य के परिज्ञान में सभी द्रव्यों का परिज्ञान हो जाता है । आत्मा का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है, इससे जीव-द्रव्य (Soul) सिद्ध होता है। प्रत्येक द्रव्य आकाश में ही रहता है। पदार्थों को स्थान देना आकाश-द्रव्य (space) का काम है। मैं गतिशील हैं, इससे गति में सहायक धर्म-द्रव्य (medium of motion for soul and matter) का ज्ञान होता है; और मैं स्थिर भी होता हूँ, इस क्रिया से स्थित होने में सहायक अधर्म-द्रव्य (medium of rest for soul and matter) का ज्ञान होता है । मैं तीन काल में रहता हैं, इस वाक्य से काल-द्रव्य (time) का बोध होता है। अब रह जाता है, पुद्गल-द्रव्य (matter and energy)। परन्तु हम देखते हैं, कि हमारे शरीर में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है, एक भव के बाद दूसरे भव में-जब तक हम संसार में रहते हैं, परिवर्तन होता रहता है। इसका कारण क्या है ? यह परिवर्तन क्यों होता है ? इसका समाधान यह है, कि पुद्गल के साथ सम्बन्ध होने के कारण ही यह परिवर्तन होता है । आत्मा विभाव में परिणत रहने के कारण ही कर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करती है । इससे पुद्गल-द्रव्य का बोध होता है । इस प्रकार जब हम जीव-द्रव्य एवं उसके गुणों तथा पर्यायों को जानने का प्रयत्न करते हैं, तब षड्-द्रव्यों का सहज ही बोध हो जाता है। अतः एक को सम्पूर्ण रूप से जान लेने पर सबका ज्ञान हो जाता है, फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। कहने का अभिप्राय यह है, कि यह लोक ही षड्-द्रव्यमय नहीं है, प्रत्युत हमारे में भी षड्-द्रव्य हैं, और सम्पूर्ण लोक-आकाश में परिव्याप्त है । लोक-आकाश का एक भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ द्रव्य का सद्भाव न हो।
आकाश-द्रव्य असीम है छह द्रव्यों में सबसे अधिक व्यापक, विशाल, विराट् और सब द्रव्यों का आधारभूत द्रव्य आकाश है । अंग्रेजी में इसे sp::ce कहते हैं। भारतीय
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