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________________ आकाश-द्रव्य 'स्व' की त्रिकालवर्ती सत्ता भगवान् महावीर ने कहा है, कि जो व्यक्ति एक को पूर्ण रूप से जानता है, वह विश्व के समस्त द्रव्यों एवं पदार्थों को जानता है । प्रत्येक द्रव्य के अनन्त गुण हैं, और प्रत्येक गुण के अनन्त पर्याय हैं । अतः किसी एक द्रव्य को पूर्ण रूप से जानने वाला व्यक्ति सभी द्रव्यों को और उनके समस्त पर्यायों को जान लेता है । जैसे 'मैं हैं' इस वाक्य में 'मैं' और 'हैं ये दो शब्द हैं । 'मैं' आत्मा का बोधक है, और 'हूँ' क्रिया-पद है। इसका अर्थ यह है, कि मेरा अस्तित्व है, मेरी सत्ता है । 'मैं हूँ' इस वाक्य से साधक को स्व-अस्तित्व का स्पष्ट बोध होता है। इससे यह अनुभव होता है, कि मैं अतीतकाल (भूतकाल) में था, वर्तमान में हैं और अनागत (भविष्यकाल) में रहूँगा। इससे सर्वप्रथम अपनी सत्ता में विश्वास होता है, श्रद्धा दृढ़ होती है। इसके बाद अपनी सत्ता का बोध या परिज्ञान होता है। अब यह प्रश्न उठता है, कि 'मैं हूँ' इससे सत्ता का बोध तो होता है, पर मैं हूँ कहाँ ? मैं बाहर में हूँ, या अन्दर में स्थित हूँ ? भगवान महावीर ने कहा, कि जब तुम बाह्य-पदार्थों में परिणमन करते हो, तब तुम बाहर में और जब अपने स्वरूप में परिणमन करते हो, तब अन्तर में अथवा अपने-आप में स्थित रहते हो। इसका अभिप्राय यह है, कि तुम किसी एक स्थान पर स्थित हो । परन्तु यहाँ भी समस्या का समाधान नहीं हुआ। यहाँ प्रश्न खड़ा हुआ, कि जहाँ हूँ वहाँ स्थित हूँ, या आगे पीछे हटता हूँ ? इसके उत्तर में कहा, कि तुम स्थित भी हो और गतिशील भी। तुम न तो सदा-सर्वदा गतिशील रहते हो, और न प्रतिक्षण स्थित ही रहते हो। इससे यह स्पष्ट हुआ, कि 'मैं' की सत्ता तीनों कालों में है। अनन्त भूतकाल में कोई भी क्षण ऐसा नहीं ( २८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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