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९६ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
है । मोड़ समाप्त हो जाने पर वह चतुर्थ समय में नियम से आहारक हो जाता है !
के आयुष् प्रकार
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आठ प्रकार के कर्मों में एक कर्म है, आयुष्य । आयुष् शब्द का अर्थ होता है— जीवन । दश प्रकार के प्राणों में एक प्राण है, आयुष्य । नारक, देव, चरमशरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्षजीवी - ये अनपवर्तनीय आयुष्य वाले होते हैं । आयुष्य दो प्रकार का है अपवर्तनीय और अनवर्तनीय । जो आयुष्य बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने के पूर्व ही शीघ्र भोगा जा सके, वह अपवर्तनीय होता है, और जो आयुष्य बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने के पूर्व न भोगा जा सके, वह अनपवर्तनीय होता है । आयुष्य के शीघ्र भोग को ही अपवर्तना, अथवा लोक व्यवहार में अकाल मृत्यु कहा जाता है । नियत स्थिति के भोग को अनपवर्तना, अथवा काल मृत्यु कहा जाता है । अपवर्तनीय आयुष्य सोपक्रम होता है । शस्त्र विष और अग्नि आदि के जिन निमित्तों से अकाल मृत्यु होती है, उन निमित्तों का प्राप्त होना, उपक्रम है । परन्तु अनपवर्तनीय आयुष्य दो प्रकार का होता है - सोपक्रम और निरुपक्रम । अनपवर्तनीय आयुष्य वालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, किन्तु वे कभी भी अकाल में मृत्यु को प्राप्त नहीं होते ।
औपपातिक, नारक और देव हैं । चरमदेह तथा उत्तमपुरुष मनुष्य ही होते हैं । तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव आदि उत्तमपुरुष हैं । असंख्यात वर्षजीवी कुछ मनुष्य और कुछ तिर्यंच ही होते हैं । असंख्यात वर्षजीवी निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुष्य वाले ही होते हैं । चरमदेह और उत्तमपुरुष सोपक्रम अनपवर्तनीय और निरुपक्रम अनपवर्तनीय - दोनों प्रकार के आयुष्य वाले होते हैं । इनके अतिरिक्त शेष समस्त मनुष्य तथा तिर्यंच अपवर्तनीय एवं अनपवर्तनीय आयुष्य वाले होते हैं । ये ही आयुष्य के प्रकार हैं ।
जीव के पञ्च भाव
जीव संसारी हो अथवा सिद्ध--- जैनदर्शन के अनुसार उसके पांच भाव होते हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारि णामिक | मोहकर्म के उपशम से आत्मा में जो भाव होता है, उसे औपशमिक कहा जाता है । मोहकर्म के क्षय से आत्मा में जो भाव होता है,
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