________________
जीव-द्रव्य | ६५
गति का यही नियम है । लेकिन यह नियम विशेष जीव और विशेष पुद्गल के लिए ही है।
मुक्त जीव को गति
जो जीव मुक्त हो चुके हैं, कर्म बन्धन से रहित हो गये हैं, उनमें गति का अभाव है । अतः यहाँ पर जीव शब्द से मुक्त जीव नहीं, मुच्यमान जीव अथवा सिध्यमान जीव का ग्रहण होता है। उसकी गति अविग्रहा होती है, सीधी गति होती है । क्योंकि जीव की स्वाभाविक गति, ऊर्ध्व गति होती है, मोड़रहित सीधी गति होती है। श्रेणि के अनुसार होने वाली गति के दो भेद हैं-विग्रहवती और अविग्रहवटी । कर्मों का क्षय करके सिद्ध-शिला पर जाने वाले जीवों की अविग्रहा ही गति होती है। विग्रह अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती है, वह विग्रह गति है । मुच्यमान जीव तो समस्त गतियों का छेदन ही कर देता है।
संसारी जीव की गति संसारी जीव की गति चार समय से पहले-पहले विग्रहवती अर्थात् मोड़ सहित और अविग्रहवती अर्थात् मोड़रहित दोनों प्रकार की होती है । जो मोड़रहित होती है, उसमें केवल एक समय लगता है । जिसमें एक मोड़ लेना पड़ता है, उसमें दो समय लगते हैं। जिसमें दो मोड़ लेने पड़ते हैं, उसमें तीन समय लगते हैं। जिसमें तीन मोड़ लेने पड़ते हैं, उसमें चार समय लगते हैं। यह जीव चतुर्थ समय में कहीं न कहीं नूतन शरीर ग्रहण कर लेता है । अविग्रह गति एक समय मात्र की होती है। उसमें केवल एक ही समय लगता है।
विग्रह गति में आहारक तथा अनाहारक संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-आहारक अर्थात् आहार ग्रहण करने वाले और अनाहारक अर्थात् आहार नहीं ग्रहण करने वाले । औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा षट् पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना, आहार कहा जाता है। जब तक जीव आहार को ग्रहण नहीं करता, तब तक वह अनाहारक कहा जाता है । संसारी जीव अविग्रहा गति में अनाहारक ही होता है। परन्तु एक, दो और तीन मोड़ वाली गतियों में क्रम से एक, दो और तीन समय तक वह जीव अनाहारक रहता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org