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६४ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व
रागात्मक मिथुन भाव है, उसे यहाँ वेद कहा गया है। उसके तीन भेद होते हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । यह रागात्मक वृत्ति है ।
नारक जीव और संमूच्छिम जीव नपुंसक वेद वाले होते हैं । उनमें स्त्री-पुरुष नहीं होते। देव नपुंसकवेद वाले नहीं होते । देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों ही होते हैं। मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च जीव तीनों वेद वाले होते हैं। उनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद तीनों ही होते हैं । जीवों का यह विभाजन वेद की अपेक्षा से किया गया है । सिद्ध जीव सदा अवेदी होते हैं । वेद में केवल संसारी जीवों की गणना है। जीव की विग्रह गति
जीव की हित में प्रवृत्ति और हित से निवृत्ति मन की सहायता से की जाती है । परन्तु विग्रहगति में द्रव्य मन रहता नहीं, फिर जीव उसके बिना नूतन देह धारण करने के लिए विग्रह गति में गमन किस की सहायता से करता है ? समाधान में कहा गया है, कि विग्रह गति में कार्मण काययोग होता है,उसकी सहायता से जीव एक गति से दूसरी गति में गमन कर सकता है । वर्तमान शरीर को छोड़कर जब जीव दूसरे शरीर को धारण करने के लिए लोकान्तर में पहुँचने के लिए गमन करता है, तब उसे विग्रह गति अथवा अन्तराल कहा जाता है। इसको ही लोकान्तर गति भी कहते हैं। कार्मण काययोग के निमित्त से आत्म-प्रदेशों में जो कम्प उत्पन्न होता है, उसे कर्मयोग अथवा कार्मण काययोग कहते हैं। इसके द्वारा ही जीव मरण स्थल से नूतन जन्म स्थान तक जाता है। इसके बिना लोकान्तर में गमन नहीं होता। जीव और पुद्गल के गमन का नियम
जीव और पुद्गल का गमन अनुश्रेणि से होता है, अर्थात् आकाश के प्रदेशों की श्रेणि के अनुसार ही होता है। श्रेणि लोक के मध्य से लेकर ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशा में आकाश के प्रदेशों की सीधी पंक्ति को श्रेणि कहा गया है। जिस समय जीव मरकर नूतन देह धारण करने हेतु विग्रह गति में गमन करता है, उसका ही गमन विग्रह गति में श्रेणि के अनुसार होता है, अन्य जीव का नहीं। इसी भाँति जो पुद्गल का शुद्ध परमाणु एक समय में चतुर्दश रज्जु गमन करता है, उसका ही श्रेणि के अनुसार गमन होता है, अन्य सब पुद्गलों का नहीं। जीव और पुद्गल की
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