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जीव-द्रव्य | ९७
वह क्षायिक भाव है। मोहकर्म के क्षय एवं उपशम से आत्मा में जो भाव होता है, वह क्षयोपशम भाव होता है । कर्मों के उदय से आत्मा में जो भाब होता है, उसे औदयिक भाव कहा गया है । मोहकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशम तथा कर्मों के उदय बिना आत्मा में जो भाव होता है, उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । ये पाँच भाव जीव के स्वरूप हैं, जीव के उपलक्षण होते हैं। क्योंकि जीव का मुख्य लक्षण तो उपयोग ही हो सकता है । उपयोग का अर्थ है-चेतना । चेतना दो प्रकार की होती है-साकारा
और निराकारा । साकारा चेतना ही ज्ञान है, और निराकारा चेतना ही दर्शन है । अतः ज्ञान और दर्शन ही वस्तुतः जीव के लक्षण हैं। न्यायवैशेषिक दर्शन में तो इन्हें निर्विकल्पक तया संकल्पक ज्ञान कहा गया है। दोनों को प्रमाण माना गया है। परन्तु बौद्ध दर्शन में तो निर्विकल्पक को ही प्रमाण माना गया है, सविकल्पक को प्रमाण नहीं माना गया । जैनदर्शन दोनों को प्रमाण मानता है।
औपशमिक भाव के भेद औपशमिक भाव के दो भेद हैं-औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र । अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और इन दोनों का मिश्र भाव-दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों के उपशम से एवं चारित्रमोह की चार प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। मोहकर्म की शेष इक्कीस प्रकृतियों के उपशम से जो चारित्र होता है, उसे औपशमिक चारित्र कहा जाता है।
क्षायिक भाव के भेद केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य तथा क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र--ये नव भेद क्षायिक भाव के हैं । केवलज्ञान-दर्शन--ये दोनों ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के क्षय से होते हैं । दान एवं लाभ आदि पाँच लब्धियाँ अन्तरायकर्म के क्षय से होती हैं । मोहकर्म के क्षय के सम्यक्त्व और चारित्र-ये दोनों भेद होते हैं ।।
क्षायोपशमिक भाव के भेद इसके अष्टादश भेद होते हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय-- ये चार ज्ञान तथा मति अज्ञान, श्र त अज्ञान एवं विभंग ज्ञान, ये तीन
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