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________________ १८ | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व अज्ञान । तीन दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, सम्यक्त्व, सर्वचारित्र एवं संयमासंयम (देश चारित्र) । क्योंकि ये भाव अपने प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम से होते हैं। औदयिक भाव के भेद इसके इक्कीस भेद होते हैं-चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धत्व भाव और छह लेश्याएँ-ये सब मिलकर के औदयिक भाव के भेद हैं । ये सभी भाव कर्म के उदय से होते हैं। पारिणामिक भाव के भेद इसके तीन भेद हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व । लेकिन सूत्र में पठित 'च' शब्द से अस्तित्व भाव, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, ज्ञयत्व, प्रदेशत्व और अगुरु-लघुत्व भाव आदि सामान्य गुणों का भी ग्रहण होता है। __जीवत्व का अर्थ है-चैतन्य । भव्यत्व का अर्थ है-मुक्ति की योग्यता। अभव्यत्व का अर्थ है-मुक्ति की अयोग्यता। ये तीन भाव स्वाभाविक हैं। क्योंकि ये तीनों भाव न किसी कर्म के उदय से होते हैं, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से। परन्तु अनादिसिद्ध आत्म द्रव्य के अस्तित्व से ही सिद्ध हैं। अतएव ये तीनों और अन्य अस्तित्व आदि भाव भी जीव के पारिणामिक भाव कहे जाते हैं। जीव के लक्षण उपयोग के द्वादश भेद उपयोग जीव का लक्षण है । जीव, चेतन और आत्मा तीनों पर्यायवाचक हैं । आत्मा अनादिसिद्ध एवं स्वतन्त्र द्रव्य है । उसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता । क्योंकि वह रूपवान् नहीं है । परन्तु आत्मा का ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष तथा अनुमान एवं आगम से किया जा सकता है। लेकिन किसी भी वस्तु का ज्ञान करने के लिए उसका लक्षण भी आवश्यक है । यहाँ पर जीव लक्ष्य है, और उपयोग उसका लक्षण है । क्योंकि उपयोग समस्त आत्माओं में अवश्य पाया जाता है। जिसमें उपयोग नहीं, वह अचेतन है, वह जड़ है। उपयोग क्या है ? आत्मा का बोधरूप व्यापार । आत्मा में ही बोध की क्रिया होती है । बोध का कारण जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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