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जीव-द्रव्य | ६६
की चेतना शक्ति है। चेतना जीव का ही असाधारण धर्म है, अजीव का नहीं । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा में अनन्त गुण हैं, और अनन्त पर्याय हैं । पर, उपयोग ही उनमें मुख्य है । जो मुख्य होता है, वही लक्षण हो सकता है।
उपशम भाव, क्षय भाव, क्षयोपशम भाव और उदय भाव-ये जीव के स्वरूप हैं, लेकिन वे न तो समस्त आत्माओं में उपलब्ध होते हैं और न
कालिक ही हैं । त्रैकालिक और समस्त आत्माओं में उपलब्ध होने वाला एक जीवत्वरूप पारिणामिक भाव ही है, जिसका फलितार्थ उपयोग हो होता है । अतएव उपयोग ही जीव का मुख्य लक्षण हो सकता है । पञ्च भाव जीव के उपलक्षण ही हैं । उपलक्षण और लक्षण में अन्तर यह है, कि जो लक्ष्य में सर्वात्मभाव से तीनों कालों में पाया जाये, वह लक्षण है। जैसे कि अग्नि में उष्णत्व और जल में शीतत्व । जो लक्ष्य में कभी हो, और कभी न भी हो, वह उपलक्षण है। जैसे कि अग्नि के लिए धूम । अतः उपयोग जीव का लक्षण है, और पञ्च भाव जीव के उपलक्षण हैं।
उपयोग के भेद
वह उपयोग दो प्रकार का है। आठ प्रकार का है । चार प्रकार का है। दो प्रकार हैं-साकार और अनाकार । साकार आठ प्रकार का है। अनाकार चार प्रकार है । अतः उपयोग द्वादश प्रकार का है।
साकार के आठ भेद इस प्रकार हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान; मतिअज्ञान, श्रतअज्ञान और विभंगज्ञान । अनाकार के चार भेद ये हैं- चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । उपयोग के ये द्वादश भेद होते हैं।
साकार और अनाकार का अभिप्राय क्या है ? उत्तर में कहा गया है, कि जो बोध वस्तु को विशेष रूप से जानने वाला हो, वह साकार उपयोग । जो बोध वस्तु को सामान्य रूप से जानने वाला हो, वह अनाकार उपयोग है। साकार को ज्ञान या सविकल्पक बोध कहते हैं। अनाकार को दर्शन या निर्विकल्पक बोध कहते हैं । ये सब भेद और प्रभेद आत्मा के बोध रूप व्यापार हैं । ये जीव में ही उपलब्ध होते हैं। अजीव में कभी उपलब्ध नहीं होते हैं।
उपयोग के द्वादश भेदों में केवलज्ञान और केवलदर्शन-ये दो पूर्ण
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