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________________ १०० | जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्व विकसित चेतना के व्यापार हैं, और शेष सब अपूर्ण विकसित चेतना के व्यापार हैं | ज्ञान और अज्ञान में क्या अन्तर है ? सम्यक्त्वसहचरित ज्ञान और मिथ्यात्वसहचरित अज्ञान । दर्शन के चार भेदों का स्वरूप इस प्रकार है - जो सामान्य बोध नेत्र जन्य हो, वह चक्षुर्दर्शन कहा जाता है। नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से अथवा मन से जो सामान्य बोध होता है, वह अचक्षुर्दर्शन कहलाता है । अवधि लब्धि से मूर्त पदार्थों का जो सामान्य परिबोध होता है, वह अवधिदर्शन है । केवललब्धि से मूर्त एवं अमूर्त समस्त पदार्थों का जो सामान्य परिबोध होता है, वह केवलदर्शन कहा गया है । सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तु के धर्म हैं। क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार वस्तु सामान्य विशेषात्मक कही जाती है । नव तत्त्व बालावबोध में इस ग्रन्थ में कुछ अन्य प्रकार से भी जीवों के भेद हैं- जीव का एक भेद चेतना । जीव के दो भेद - त्रस और स्थावर । जीव के तीन भेदस्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद । जीव के चार भेद - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देव गति । जीव के पाँच भेद - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । जीव के छः भेद - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय तथा त्रसकाय । इस प्रकार जैन दर्शन में जीव एवं आत्मा के विषय में, अनेक प्रकार और भेदों द्वारा प्रतिपादन किया गया है । न्याय-वैशेषिक दर्शन भारतीय दर्शनों में न्याय और वैशेषिक दर्शन द्वैतवादी तथा यथार्थवादी दर्शन हैं । न्याय में प्रमाण का विवेचन मुख्य और प्रमेय का गौण स्थान है । वैशेषिक दर्शन में पदार्थ का विश्लेषण अधिक है, प्रमाण का गोण है | न्याय दर्शन में षोडश पदार्थ मान्य हैं - प्रमाण एवं प्रमेय आदि । प्रमाण के चार भेद हैं, और प्रमेय के द्वादश भेद हैं। प्रमेयों में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, मन और अर्थ आदि पर विचार किया गया है । अर्थ से अभिप्राय है, इन्द्रियों के विषय । वैशेषिक दर्शन में सप्त पदार्थों का वर्णन किया हैद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । अतः इन दोनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003427
Book TitleJain Darshan ke Mul Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year1989
Total Pages194
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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